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________________ 58 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु 183.22.13 जणउवरोहें पई घरि धरियउ जो चिरु विहिवसेण णीसरियउ। पत्ता-संवच्छरसइ पुण्णि आउ एउ" समरंगणु || हउं वसुएवकुमारु देव देहि आलिंगणु ॥22॥ (23) जइ वि 'सुवंसु गुणेण विराइउ कोडीसरु णियमुट्ठिहि माइउ । आवइकाले जई वि ण भज्जइ जइ वि सुहडसंघट्टणि गज्जइ। भायरु पेक्खिवि पिसुणु व बंकर्ड तो वि तेण बाणासणु मुक्कउं । गरवइ रहवराउ उत्तिण्णउ कुंअरु' वि संमुह लहु अवइण्णउ। एक्कमेक्क आलिंगिउ बाहहिं पसरियकरहिं णाई करिणाहहिं। भायमहंतु णविउ वसुएवं पिउ पहुणा महुरालावें। हउं पई भायर संगरि णिज्जिउ बंधु भणंतु ससूअ' लज्जिउ । अण्णहु चावसिक्ख कहु एही पई अब्मसिय धुरंधर जेही। पई हरिवंसु बप्प उद्दीविउ तुहं महु धम्मफलें' मेलाविउ। अज्ज मन्झ पोरेपण मणारह गय णियपरवरू दस वि दसारह। 10 खेयरमहियरणारिहिं माणिउ थिउ यसएव। रायसंमाणिउ। 5 तुमने जिसे घर में रखा, वह बहुत पहले, भाग्य के वश से निकल गया। ___ घत्ता-सौ वर्ष पूरे होने पर, इस समरांगण में आया हुआ मैं वसुकुमार हूँ। हे देव ! आलिंगन दीजिए। (28) यद्यपि उसका धनुष सुवंश (अच्छे बाँस, अच्छे वंश) का था, और गुण से (डोरी, गुण) से शोभित था, फिर भी वह मुट्ठी में समा गया। यद्यपि वह आपत्तिकाल में नष्ट नहीं होता, तथापि सुभटों की लड़ाई में गरजता है, फिर भी भाई को देखकर वह दुष्ट की तरह टेढ़ा होता है, तब भी उसने (समुद्रविजय ने) धनुष छोड़ दिया। राजा श्रेष्ठ रथ से उतर पड़ा। कुमार भी शीघ्र आकर सामने उपस्थित हुआ। बाँहों से एक-दूसरे को आलिंगन किया, मानो सूंड फैलाए हुए महागजवर हों। वसुदेव ने अपने बड़े भाई को नमस्कार किया। मधुर आलाप में राजा ने उससे कहा--"हे भाई ! युद्ध में मैं तुम्हारे द्वारा जीत लिया गया। तुम्हें अपने सारथि के निकट (सम्मुख) भाई कहते हुए लज्जित हूँ। तुमने धनुर्विद्या का जैसा धुरन्धर अभ्यास किया है, वैसी धनुर्विद्या दूसरे की कहाँ है ? हे सुभट ! तुमने हरिवंश को उजागर किया है, धर्म के फल से ही तुम्हारा मुझसे मेल हुआ है। आज मेरे मनोरथ पूर्ण हुए। समुद्रविजय आदि दसों भाई अपने पुरवर चले गये। विद्याधरों और मनुष्यों की नारियों के द्वारा मान्य और राजा के द्वारा सम्मानित वसुदेव स्थित हो गया। शंख 17. राव। (23) 1. Bघस। 2. APS "कालए। 8. जंपि। 4. 4. AP पण्णमा।. RP अज् मज्झ। 11. B बसुपबरार । कुमर कुंवरु। 5. 13 णामेिं। 6. AL'S भाइ । 7.A सभूयह। 8. D कहि कह ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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