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सुररह' व्व घंटालिमुहलिया" वासर व्ब पहरेहिं पयलिया। णवणिहि व रयणेहिं उज्जला कज्जलालिपुंज व्च सामला। चरणचालचालियधरायला
खलखलंतसोवण्णसंखला। पुक्खरग्गसंगहियगंधया
एक्कमेक्कमारणविलुद्धया। रोसजलणजालोलिछाइया।
बिहिं मि कुंजरा सउंह धाइया। घत्ता-कालउ सुरचावालंकरिउ कडिछुरियइ विज्जुइ विप्फुरिउ" । सरधारहि युट्टउ महुमहणु णं णवपाउसि ओत्थरिउ घणु ॥11॥
(12) दुवई-सरणीरंधपसरि' संजायइ खगु वि ण जाइ णहयले।
विद्धतेण तेण भड सूडिय पाडिय मेइणीयले ॥छ॥ वरधम्मेण जइ वि परिचत्ता लोहणिबद्धा चित्तविचित्ता। परणरजीवहारि दुद्दसण
चंचलयर णावइ कामिणियण । वम्मविहंसण पिसुणसमाणा दूरोसारियअमरविमाणा। धणुहें दिण्णउँ जई वि णवेप्पिणु कोडिउ ताउ* दो वि मेल्लेप्पिणु ।
की तरह जो मारने का निश्चय किये हुए हैं, जो देवरथों की तरह घण्टावलियों से मुखरित हैं, जो दिनों के समान प्रहरों (प्रहर, प्रहारों) से युक्त हैं, नवनिधि के समान जो रत्नों से उज्ज्वल हैं, जो काजल और अलिसमूह की तरह श्यामल हैं, जो अपनी पद-चाल से धरती को प्रकम्पित करनेवाले हैं, जिनकी स्वर्ण शृंखलाएँ खनखना रही हैं, जिनकी सैंड़ों के अग्रभाग में गन्ध संगृहीत है, जो एक-दूसरे को मारने के लिए उत्सुक हैं, इस प्रकार क्रोधरूपी ज्वालावलि से आच्छादित दोनों ही महागज सामने दौड़े। ____घत्ता-बिजली के समान कमर की धुरी से चमकते हुए कृष्ण सर-धाराओं (तीर, जलकण की धाराओं) से बरस पड़े, मानो श्याम एवं इन्द्रधनुष से अलंकृत नवधन, नवपावस में उमड़ पड़े हों।
(12) तीरों के छिद्रहीन प्रसार के कारण आकाशतल में पक्षी नहीं जा पाता। भेदन करते हुए नारायण ने योद्धाओं को नष्ट करके धरती पर लिटा दिया। वे तीर यद्यपि वरधर्म (धनुष, धम) से परित्यक्त, लोह-निबद्ध (लोहा, लोभ से घटित), चित्रविचित्र, दूसरे जीव का हरण करनेवाले, दुर्दर्शनीय और अत्यन्त चंचल थे, मानो कामिनीजन हों। वे दुष्ट के समान वम (मर्म, कवच) का भेदन करनेवाले थे, और देवविमानों को दूर से ही हटानेवाले थे। यद्यपि ये तीर धनुष द्वारा दोनों कोटियाँ झुकाकर छोड़े गये थे, तब भी वे तृष्णाकुल की तरह लाख
9. ABP सुरकर व्य। 10. 85 पंडाहिं मुर। [.. ' णिवणिहि। 12. P पुखर व्य। 13. Sढाइया। 14. S सहुउहुं: । समुहूं। I. R करि। 16. Pारिए। 17. ' विष्फग्घिट। 19. Bथरिका
(12) I. APणी प्यारे। 2. 8 विधहण। 3. s कामिणिजण। 4. A तो वि श्रेणिBA]s. ताउ दोषिण।