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महाकपुष्फयंतविरपट महापुराणु
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लक्खहु धावई णं तिहालय अह किं किर करति जड गुणचुय। मग्गणा वि णिय मोक्खहु कण्हें वइरिवीरणिहारणतण्हें। जा माहादिपा सांडे
हरिधणुवेयणाण' दूसतें। णियसरेहिं विणिवारिय रिउसर विसहरेहि छिण्णा इव विसहर । पत्ता-ता कण्हें विद्धउ पइसरिवि धयछत्तई चमरई कप्परिवि। णरवइ णारायहिं वणिउ किह धुत्तेहिं विलासिणिलोउ जिह ॥12॥
( 13 ) दुवई-ता देवइसुवस्स बलसत्ति' पलोइवि णिज्जियावणी ।
मणि चिंतविय' विज्ज जरसिधै विसरिसविविहरूविणी" ॥छ॥ दंडउ' –णवर पवररायाहिराएण संपेसिया दारणी मारणी मोहणी थंभणी
सबविज्जाबलच्छेइणी ||1|| ___ पलयघरवारणी संगया खग्गिणी पासिणी चक्किणी सूलिणी हूलणी" मुंडमालाहरी कालकावालिणी ॥2॥
पयडियमुहदंतपंतीहिं हा हि त्ति हासेहिं पिंगुद्धकेसेहिं मायाविरुद्धेहि भीमेहिं मूएहि रुद्धा रहा ॥3॥
के लिए दौड़ रहे थे (जो करोड़ों को पाकर भी लाख की इच्छ करे।) अथवा गुणों से च्युत जड़ क्या करते हैं। (इधर) शत्रुवीर को नष्ट करने की तृष्णा रखनेवाले कृष्ण ने धनुर्वेद को दूषित करते हुए और क्रुद्ध होते हुए, (उधर) मगधराज ने अपने तीरों से शत्रुतीरों का निवारण किया, जैसे विषधरों से विषधर छिन्न-भिन्न हुए हों। __घत्ता-कृष्ण ने प्रवेश कर ध्वजों, छत्रों और चमरों को काटकर अपने तीरों से बिद्ध राजा को इस प्रकार घायल कर दिया, जैसे धूर्तों के द्वारा विलासिनी घायल कर दी गयी हो।
(13) तब धरती को जीतनेवाली कृष्ण की बलशक्ति को देखकर, जरासन्ध ने असामान्य विविध रूप धरण करनेवाली विद्या की अपने मन में चिन्ता की। प्रवरराजाधिराज ने दारणी, मारणी, मोहिनी, स्तम्भिनी सर्पविद्या, बलछेदिनी प्रलवघरवारिणी, खग्गिणी, पासिनी, चक्रिणी, शूलिनी, हूलिनी, मुण्डमालाधरी और काल-कापालिनी रूप (विद्या) प्रेषित की अपने मुखों और दाँतों की पंक्तियों को दिखाते हुए, हा ! हा ! इस प्रकार अट्टहास करते, पीले ऊँचे केशराशिवाले, माया से अवरुद्ध, भयंकर भूतों द्वारा रथ रोक लिये गये। कृष्ण ने युद्ध में
5. PAI. धाइय। G.AP कुप्गोंते। 7..PS णाणु।
(13) 1. B बलसत्तिए ली। 2. 5 पलोयथि। 3. S णिजया । 4. A चित्तविय: 5 चितवीय। 5. PS जरसेंधे। 6. । वैविहरूपिणी । 7. A ourits दंडऊ.5 omits मोहणी। 9. Pऐचणी। 10. AP पलबघणधारिणी; B पलयघरवारिणी; As. पलयघरवारणी against Mss. and against gloss in SIE M. 11. A omits लणी; 8 हलिणी। 12. 5हा है ति1 IS AP मायाविरूवेहि। 14. P भूदेहिं ।