SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 208) महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु एक्णवदिम संधि 'पज्जुणभवाई' पुच्छिउ सीरहरेण मुणि । तं णिसुणिवि तासु वयणविणिग्गॐ दिव्यझुणि ॥ ध्रुक्कं ॥ (1) इह दीवि भरहि वरमगहदेसि दुभिरगोहणमाहिसपगामि सोत्तिउ सुहुँ णिवसइ सोमदेउ तहि पहिलारउ सिसु अग्गिभूइ बिणि वि उवेयसइंगधारि ते अण्णहिं वासरि विहियजण्ण णच्वंतमोरकेक्कारवंति' कुसुमसरसिसिरकरकुइयराहु बिणि वि जण वेयायारणिट्ट आवंत णिहालिय जइवरेण 10 पुरपट्टणणयरायरविसेसि । बहुसालिछेत्ति तहिं सालिगामि । कयसिहिविहि अग्गिलवहुसमेउ । लहुयारउ जावउ 'वाउभूइ । बिणि वि पंडियजणचित्तहारि । पुरु कहिं मि दिवद्धणु पवण्ण । तहिं "दिघोसणंदणवर्णाति । रिस अवलोइउ रिसिसंघणाहु | ते दुट्ठ कट्ठ दपिट्ट धिट्ट 1 जइ बोल्लिय" मउ महुरें सरेण । [91.1.1 इक्यानवेव सन्धि बलभद्र ने मुनि से प्रद्युम्न के जन्मान्तर पूछे। यह सुनकर उनके मख से दिव्यध्वनि निकली । (1) 5 10 इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के पुर, पट्टन और नगर - समूह से विशिष्ट, दुधारू गायों और भैंसों से भरपूर, प्रचुर धान्य क्षेत्रोंवाले मगधदेश में शालिग्राम नाम का गाँव है । उसमें अग्निहोत्र यज्ञ करनेवाला सोमदेव ब्राह्मण अपनी अग्निला देवी के साथ सुख से रहता था । उसका पहला पुत्र अग्निभूति था और छोटा वायुभूति हुआ । दोनों ही चारों वेदों और छह अंगों को धारण करनेवाले थे। दोनों ही पण्डितों के चित्त का हरण करते थे । यज्ञ करनेवाले वे दोनों एक दिन किसी नन्दिवर्द्धन नगर में पहुँचे। यहाँ उन्होंने नाचते हुए मयूरों की केका ध्वनि से सुन्दर नन्दिघोष युक्त नन्दनवन में कामदेव रूपी चन्द्रमा के लिए कुपित राहु के समान, मुनिसंघ के स्वामी मुनिवर को देखा। वे दोनों ही वैदिक आचार में निष्ठ थे। वे दुष्ट, कठोर, दर्पिष्ट और ढीठ थे। मुनिवर ने उन्हें आते हुए देख लिया। मधुर स्वर में उन्होंने धीरे से कहा (1) 1P पहुण्णं । 2.5 °भावहं । 3. P विणिग्गय 4 A दुद्धिर । 5. A सुख सुहे . PS वाहभूड़ 7 AP°किंकार। 8. PS णंदघोस 5 अनंत। 1D A जयवरेण LI A बोलिउ ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy