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________________ 91.2.121 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 209 घत्ता-किज्जइ उपपेक्ख पावि ण लग्गइ धम्ममइ । लोयणपरिहीणु किं जाणइ णडणट्टगइ ||3|| गुरुवयणु सुणिवि खयकामकंद धिय माणु लएप्पिणु मुणिवरिंद। जे खलु जोइवि णियतणु चति उपसमि वि थंति जिणु संभरति । जे जीविउं मरणु वि समु गणति परु पहणंतु वि णउ पडिहणति। जे मिग जिह णिजणि वणि वसंति मुणिणाहहं ताहं मि वइरि होति । आया ते पभणिवि अभणियाई खमदमदिहिवंतहि णिसुणियाई। णिग्गय गय पिसुण पलंबबाहु गामंतरि दिउ अवरु साहु। सो भणिउ तेहि रे मूढ णग्ग मणमलिण मोक्खवाएण भग्ग। पसु मारिवि खद्ध ण जण्णि मासु तुम्हारिसाहं कहिं तियसवासु। ता सच्चयमुणिवरु भणइ एम्ब जइ हिंसायर णरा होंति देव । तो सूणागारहु पढमु' सग्गु जाएसइ को पुणु णरयमगु । 10 जंपिउं जणेण जइ भणइ चारु जायउ विप्पहं माणावहारु। अण्णहिं दिणि जोइयमुयबलेहिं णिवसंतहु संतहु वणि खलेहि । घत्ता-उपेक्षा करनी चाहिए, पापी को धर्म की बुद्धि नहीं लगती। जो नेत्रों से परिहीन है, वह नृत्य की गति क्या जान सकता है ? क्षीण हो गया है कामांकुर जिनका, ऐसे मुनिवरेन्द्र यह सुनकर मौन होकर स्थित हो गये। जो तृण देखकर चलते हैं, उपशम में स्थिर रहते हैं, जिनदेव का स्मरण करते हैं, जो जीवन और मृत्यु को समान गिनते हैं, दूसरे के प्रहार करने पर भी उसके प्रति प्रहार नहीं करते, जो पशुओं की तरह निर्जन वन में निवास करते हैं, ऐसे मुनिनायों के भी शत्रु होते हैं। वे दोनों नहीं कहने योग्य कहने के लिए आये। लेकिन क्षमा, दम और धैर्य से युक्त उन्होंने उसे सह लिया। वे दुष्ट निकलकर चले गये। गाँव के भीतर उन्हें एक और मुनि मिले। उन दोनों ने उनसे कहा-"रे रे मूर्ख ! नंगे ! तुम मन से मैले और मोक्षरूपी वात से भग्न हो। तुमने यज्ञ में पशु मारकर नहीं खाया। तुम जैसे लोगों के लिए देववास कैसा ?" । इस पर सात्यकि मुनि कहते हैं- "यदि हिंसा करनेवाले मनुष्य देव होते हैं, तो कसाई के लिए सबसे पहले स्वर्ग मिलना चाहिए। और फिर तब नरक कौन जाएगा ?" लोगों ने कहा कि मुनि ठीक कहते हैं। ब्राह्मणों का इससे. मानापहार हो गया। एक दिन, वन में निवास कर रहे उन पर अपना बाहुबल दिखाते 32. Aवरितु। . मृग। 1. "विहियंताहि । ..A सुब्बय | G. P ता । 7. BAIS. पदमसगु। ४. यस्मगु19. A दियखलेहि; (2) 1. वियसलाहिं।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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