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महाकइपुप्फवंतबिरयउ महापुराणु
[82.7.1
तहिं दिणयरदत्त सुदत्त वणि किं वण्णमि धणयसमाणधणि। लंकाइहिं दीविहिं संचरिवि' अण्णण्ण' 'पसंडिभडु भरिवि। लोहिट्ठ ण सुक्कह देंति पणु भइयइ महिमज्झि घिति धणु। तरु णिहणंतहिं रसवणियरहि तं दिट्ठउं णियां जाम परहिं। ता जुज्झिवि ते तिहाइ हय अवरोप्परु भतिई' हणिवि मय। णारय हूया पुणु मेस वणि पंचत्तु पत्त पुणु भिडिवि' रणि । गंगायडि गोउलि पुणु वसह "जुझेप्पिणु पुणु संपत्तवह। संमेयमहीहरि पुणु पमय
तण्हाइ सिलायलि" सलिलरय । अभिट्ट दसणणहजज्जरिउ मुउ एक्कु एक्कु तहिं उव्वरिउ । ईसीसि जाम णीससइ कइ संपत्ता ता तहिं बेण्णि जइ। चारण जियमण तेलोक्कगुरु ते णामें सुरगुरु देवगुरु। कहियाई तेहिं दक्कियहरई। करुणेण पंच परमक्खरइं।
यत्ता-सिवगइकामिणिकंतहु धम्मु सुणिवि अरहंतहु। ___ मृउ वाणरु व्रउ लेप्पिण जिणवरु सरणु भणेप्पिणु ॥7॥
उसमें दिनकरदत्त और सुदत्त नाम के वणिक् हैं। क्या वर्णन करूँ ? वे कुबेर के समान धनिक हैं। लंका आदि द्वीपों में भ्रमण कर और दूसरे-दूसरे स्वर्णभाण्ड भरकर भी वे इतने लोभी थे कि पुण्य में एक पैसा भी नहीं देते थे, मारे इर के उन्होंने धरती में धन गाड़ दिया था। वृक्ष नष्ट करते समय मदिरा बनानेवाले दूसरे लोगों ने जब वह धन देखा, तो वे उसे ले गये। तब तृष्णा से आहत वे दोनों (सेठ) आपस में युद्ध कर और भ्रान्ति से एक-दूसरे को मारकर मर गये। पहिले नारकीय हुए, फिर वन में मेष हुए और युद्ध में लड़कर मर गये। फिर गंगातट पर, फिर गोकुल में बैल हुए। आपस में लड़कर वे फिर वध को प्राप्त हुए। फिर सम्मेदशिखर पहाड़ पर बन्दर हुए। वहाँ भी प्यास के कारण चट्टान से रिसते जल में रत होकर भिड़ गये, दौंतों और नखों से जर्जर होकर उनमें से एक मर गया, और एक वहाँ बच गया बन्दर जब थोड़ी-थोड़ी साँस ले रहा था, तभी दो महामुनि वहाँ आये; चारण मन को जीतनेवाले और त्रिलोकगुरु। उनके नाम देवगुरु और सुरगुरु थे। उन्होंने उससे दुःखों का अपहरण करनेवाले पाँच परमाक्षर (पंच णमोकार मन्त्र) कहे।
घत्ता-शिवगति रूपी कामिनी के पति अरहन्त का धर्म सुनकर वानर व्रत लेकर और जिनवर की शरण ग्रहण कर मर गया।
(7)1. Pसंबरेचि । 2. ABPS अण्णाणु। 9. B पसंडे। 4. A पुणु। 5. B वणियरेहि वणिवरेहि। 6. A णिव उजम परहि: P णियउ जाम परहि। 7. A सतिए। 8. AP पुणु हूया। 9.5 भिडवि। 10. A जुज्झेण जि पुणु वि पवण बह: B जुन्झेण जि पुणु वि पधण्णवहि। 11.5 सिलायल। 12.5 अरिहंतहो। 13. AP बउ।