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218 ] महाकइपुष्फयंतविरक्त महापुराणु
[91.11.9 गलिउत्तरिज्जपयडियथणाइ संगहिय विज दिण्णी अणाइ। गयणंगणलग्गविचित्तचूदु गउ सुंदरु जिणहरु" सिद्धकूड। 10 अवलोइवि चारण बिग्णि तेत्यु मुणिकर जयकारिवि जगपयत्यु। आयण्णियि बहुरसभावभरि सिरिसंजयंतरिसिणाहचरिउं। तप्यायमूलि संसारसारु
विरइउ विज्जासाहणपयारु। घत्ता-पुणु आयउ गेहु सुउ जोयंति विरुद्धएण। उरि विद्धी झत्ति कणयमाल मयरद्धएण ॥11॥
(12) णिरत्था सरेणं
उरगं करेणं। हणंती कणती
ससंती धुणंती। कओले विचित्तं
विसाएण पत्तं। विइण्णं पसंती
अलं णीससंती। रसेणं विसट्ट
ण पेच्छेइ ण । णिसामेइ गेयं
ण कव्यंगभेयं। पढतं ण कीरं
पदावेइ सारं। घणं दंसिऊणं
कलं पिऊणं। वरं चित्तचोरं
ण णाडेइ मोरं। पहाए फुरंत
सलीलं चरंत। ण मण्णेई हंसं
ण वीर्ण ण वंसं विद्या स्वीकार कर ली। वह सुन्दर बालक “आकाशरूपी आँगन के लगे हुए हैं विचित्र शिखर जिसके ऐसे सिद्धकूट जिनमन्दिर गया। वहाँ दो चारण मुनियों को देखकर, उनकी जय-जयकार कर, उनसे विश्व के तत्त्वों तथा बहुत रसभाव से भरे हुए श्री जयन्त ऋषिनाथ का चरित सुनकर, उन्हीं के चरणों के मूल में संसार के श्रेष्ठ विद्यासाधन-प्रकार को उसने साधा। ___घत्ता-पुनः घर आये हुए पुत्र को देखकर विरुद्ध कामदेव ने कनकमाला के हृदय को शीघ्र विद्ध कर दिया।
(12) कामदेव से वह व्यर्थ हो गयी। हाथ से अपने हृदय को पीटती हुई, चिल्लाती, सिसकती, धुनती हुई, विषाद से गालों पर विचित्र फैली हुई पत्ररचना को पोंछती हुई, अत्यन्त निःश्वास लेती हुई वह रस से भी विशिष्ट नाट्य को नहीं देखती, न गीत को सुनती और न काव्यांग भेद को। न पढ़ते हुए तोते को सुनती है और न मैना को पढ़ाती है। बादलों को देखकर, सुन्दर बोलकर, श्रेष्ठ चित्त को चुरानेवाले मयूर को भी
to. ABP "कुहु । 11. PS जिणधस। 12.5 अवलोहएयि। 15. PS आइज।
(12) 1. पोट। 2. APण कब्बगभेयं, णिसामेल गेयं । 3. B पुरंत । 1. 8 चलतं ।