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महाकइपुण्फयंतविरयउ महापुराणु
णं सरसिरिथणव तुंगई। अहिसिंचिंतु देउ णारायणु । सबदलदलजलकणसंसय गय । णावर रइरसु रावियगत्तउ । अंगातगबु सलु पायतिरातुं ॥ णं णिग्गय रोमावलिअंकुर" | कण्हजलंजलिहउ विरहाणलु । गेण्हइ णाइ " णयणवइहवहलु" । बलदेवहु" धवलतें दीसइ । णाई अहिंस धम्मवित्थारहु ।
धत्ता -- तहिं सच्चहामदेवि । सइइ णं विझसिंहरि रेवाणइइ । अइसरसवयणरोमंचियउ णीरें णेमीसरु सिंचियउ || 18 || ( 19 )
जहिं सारसई सुपीयलियंगई हिं जलकील करइ तरुणीयणु काहि वि वियलिय हारावलिलय पवलिउं थणकुंकुम पइ सित्तउ काहि वि सुण्डु' वत्थु गुहिया काहि विसितहि णवविल्लि" व वर काहि वि उल्हह्मणज4 कवलियबलु 5 काहि विदिष्णु" कण्णि णीलुप्पलु का वि कण्हतणुकतिहि णासइ कंठि लग्ग कवि णेमिकुमारहु
दुवई - जो देविंदचंदफणिवंदिउ तिहुयणणाहु' बोल्लिओ । सो वि नियंबिणीहिं कीलतिहिं जलकीलाजलोल्लिओ ॥ छ ॥
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की संगति) किसका बुरा नहीं करता। जहाँ पीले अंगवाले सारस ऐसे लगते हैं, मानो सरोवररूपी लक्ष्मी के ऊँचे स्तनपृष्ठ हों। देव नारायण कृष्ण के ऊपर जल सींचती हुई युवतियाँ उस सरोवर में जलक्रीड़ा करती हैं। किसी की हारावलि गिर जाती हैं जो कमलों के पत्तों के जलकणों का संशय पैदा कर रही है। पति सेसींचा गया तथा स्तनों से गिरा हुआ केशर-जल ऐसा लगता है, मानो रति का आस्वाद लेनेवाला रति-रस हो। किसी का सूक्ष्म वस्त्र शरीर से चिपक जाता है, उससे समस्त शरीरावयव प्रकट हो जाते हैं। किसी की सींची गयी नवल त्रिबलि ऐसी लगती है, मानो रोमावलि के अंकुर निकल आये हों। शक्ति को कुण्ठित करनेवाला किसी का विरहानल कृष्ण की जलांजलि से आहत होकर शान्त हो गया। किसी ने काम में नीलकमल देख लिया, जैसे उसने नेत्र के वैभव का फल पा लिया हो। कृष्ण की शरीर की कान्ति किसी से छिप जाती हैं और बलराम की धवलता से वह प्रकट होती है। कोई नेमिकुमार के गले लग जाती है, जैसे अहिंसा धर्मविस्तार से लग जाती है।
घत्ता - वहाँ सती सत्यभामा देवी के द्वारा, अत्यन्त सरसमुख वाले और पुलकित नेमीश्वर जल से ऐसे सींचे दिये गये, मानो नर्मदा के द्वारा विन्ध्य सींचा गया हो ।
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जो देवेन्द्ररूपी चन्द्रों और नागराजों से वन्दनीय हैं और त्रिलोकनाथ कहे जाते हैं, उन्हें भी क्रीडा करती
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