SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94.25.10] महाकइपुष्फयतविरवड महापुरागु [289 (25) वसुसयई' विविहवाईसराहं छत्तीससहास अज्जियवराह । सावयह एक्कु लक्खु जि भणंति सावइयह तिणि ति परिगति। कयणिच्चमेव जिणरायसेंर्व ___ संखापरिवज्जिय विविह देव।। संखेज्ज तिरिक्ख ण का बि 'मंति परमेटिहि अणुदिणु पय णवति। वयमासविमुक्कई भूयथत्ति बिहरिवि सत्तरि वरिसई धरित्ति। संमेयसिहरि पडिमाइ थक्कु णं उययइरिहि उग्गमिउ अक्कु । पहु एक्कु" मासु विण्णायणेउ छत्तीसहिं जोईसहिं समेछ। 'सावणसत्तमिदिणिकालवक्खि गउ मोक्खहु पासु बिसाहरिक्खि । अग्गिदहिं बंदिउ यंदणिज्जु देविंदहिं पुज्जिउ पुज्जणिज्जु। घत्ता-महुँ देउ समाहि भरहलोयसंबोहण । जोइससुरणाहपुप्फयंतदिउ" जिणु ॥25॥ 10 श्य महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभय्यभरहाणुमण्णिए महाकहपुष्पयंसविराए महाकण्ये पासणाहणिबाणगमणं णाम चउणउविमो" परिच्छेउ समती 19411 (25) विविध वागीश्वर आठ सौ, श्रेष्ठ आर्यिकाएँ छसीस हजार और श्रावक एक लाख कहे जाते हैं, श्राविकाएँ तीन लाख गिनी जाती हैं। जिन्होंने नित्य जिनराज की सेवा की है, ऐसे विविध देव संख्याविहीन हैं। तिर्यंच संख्यात हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है, जो प्रतिदिन भगवान् के चरणों में प्रणाम करते हैं। वय और मास से रहित सत्तर वर्ष तक प्राणियों को स्थिरता से युक्त धरती पर विहार कर वह सम्मेद शिखर पर प्रतिमायोग में स्थित हो गये, मानो उदयाचल पर सूर्य उग आया हो। एक माह में जिन्होंने ज्ञेच ज्ञात कर लिया है, ऐसे प्रभु छत्तीस मुनियों के साथ, श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में मोक्ष चले गये। अग्नीन्द्रों ने बन्दनीय की वन्दना की और देवेन्द्रों ने पूज्यनीय की पूजी की। घता-भरतलोक को सम्बोधन करनेवाले हे देव ! मुझे समाधि दो। ज्योतिषेन्द्रों और नक्षत्रों के द्वारा (महाकवि) पुष्पदन्त से वन्दित है-जिनदेव । त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाभव्य भरत द्वारा अनुमत एवं महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महाकाव्य का पार्श्वनाथ निर्वाणगमन माम का चौरानयेवा परिच्छेद समाप्त हुआ। (25) I. A सघई, 2. AP सोलह सहास इय जयवराह। ३. P add after this : छत्तीस सहासई अग्जियाहं. वयसीलजुत्तजयघुजियाह। 4. A साथिबह 7 सावहिं । 5. AP वरिसह। 6. AP एक्कु जि मासु चि गांधणेउ । 7. AP साथणे सत्तमंदिणे। 8. A सेपपिक्खि । 9. Pudis arter this : दवा पजग्गहि कायपुंजु, मुणिणाहई सुमरिंउ सुमरणिज्जु। 10. A “बदिय । 11. AP चउणयदिपो।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy