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________________ 290 J महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु पंचणवदिम संधि विद्धसियरइवइ सुरवइणरवइफणिवइपयडियसासणु' । पणवेष्पिणु सम्म जिंदिवदुम्मई' णिम्मलमग्गययासणु ॥ ध्रुवकं ॥ ( 1 ) विणासो भवाणं दिणेसो तमाणं खयग्गीणिहाणं थिरो मुक्कमाण अणं ही समेणं वरायं चलं दुब्विणीयं मियं णाणमगं सया णिक्कसाओ मणे संभवाणं । पहू उत्तमाणं । तवाणं णिहाणं । वसी जो समाणो । सुरणं सुहीणं । पमत्त सरायं । जयं जेण णीयं । कयं सासमग्गं । सवा गिव्विसाओ । [95.1.1 (1) 1. पडे। 2. AP दिणिहददुष्मद् । सतं । 10 पंचानवेव सन्धि जिन्होंने कामदेव को ध्वस्त कर दिया है, सुरपतियों, नरपतियों और नागपतियों द्वारा जिनका शासन मान्य हैं, ऐसे दुर्मति की निन्दा करनेवाले और निर्मल मार्ग का प्रकाशन करनेवाले सन्मति (वर्द्धमान) स्वामी को प्रणाम कर, ( 1 ) जो जन्मों का नाश करनेवाले हैं, जो मन में उत्पन्न होनेवाले अन्धकार के लिए सूर्य हैं, जो उत्तम लोगों के स्वामी हैं, जो कालाग्नि के समान तपों की निधि हैं, जो स्थिर, मान से रहित, स्वाधीन और समदृष्टि हैं, जिन्होंने शत्रुओं, सुहृदों (मित्रों) तथा अत्यन्त सम्पन्नों और अत्यन्त हीनों के श्रम से दीन, प्रमत्त, सरागी, चंचल और उद्दण्ड जग का नेतृत्व किया है, जिन्होंने अपने ज्ञान-मार्ग को समृद्ध बनाया है, जो सदा कषाय 5 All Mss have at the beginning of this Samdhi, the following starizu : लागोस् करोति याचक्रपन्नस्तृष्ण एकुरोच्छेदनं कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमाचचचं वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेोत्तरां निर्वृति भरतप्रभुर्वत भवेत्कामिनियं सूक्तिभिः ॥ Protus] नसृष्टाः रुच्छेदनं in the dinst fine, A reads चयें lor in the secund line: A reads प्रेम्णान्तरं in the third line, A reals क्याभिर्निरां सूक्तिभि and Preads कामां दिशं सूक्तिभिः in the last line K has gloss on काभिः as अपि तु न कार्यिः श्लाघ्यः । For details see Introduction Dr Vol
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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