SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102 ] महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु [85.21.5 मयणगिरिंदणियंबु व कडियलु सोहइ जुवयह जइ वि अमेहलु। मज्झएसु किसु पिसुणपहुत्ते णाहि' गहीर हिययगहिरतें। वलिरेहकिउं उयरु सुपत्तलु विरहिणिपणइणिसरणु व उरवलु। दीह बाह पालियणियवक्खहं कालसप्पु णावइ पडिवक्खहं। हारेण वि विणु कंठु वि रेहइ पट्टबंधु भालयलु समीहइ। मुह सुहमुहं जममुहं पडिवण्णउं सज्जणदुज्जणाहं अवइण्णउं। कण्णजुवलु' कयकमलहिं सोहिउं णं लच्छीइ सचिंधु पसाहिउँ । केस कुडिल बुहं मता इव मइ परमणहारिणि कंता इव । घत्ता-तें तहु माहबहु जो जो पएसु" अवलोइउ। सो सो तहु जि समु उवमाणविसेसु' पढोइउ ॥21॥ (22) दुवई-चिंतइ सो सुभाणु सामण्णु ण एहु अहो महाभड़ो। णिज्जउ' णयरु करउ तं साहसु रमणीरमणलपड़ो ॥ छ | अग्गि व अंबरेण ढंकेप्पिणु गय ते तं पुरु कण्हु लएप्पिणु । उसका कटितल कामरूपी पहाड़ का नितम्ब था, जो बिना मेखला के ही शोभित था। उस युवक का मध्यदेश कस की प्रभुता की चिन्ता से कृश था। हृदय की गम्भीरता के कारण नाभि गम्भीर थी और त्रिबलि से अंकित पेट पतला था। उसका उर-तल विरहिणी प्रणयिनीजनों के लिए शरण का आधार था। उसके लम्बे बाहु अपने पक्ष का पालन करनेवाले प्रतिपक्ष के लिए काल सर्प के समान थे। हार के बिना भी उसका कण्ट शोभित था और उसका मालतल पट्टबन्ध की इच्छा कर रहा था। उसका मुख सज्जनों और दुर्जनों के लिए (क्रमशः) शुभमुख और यममुख बन गया था। उसके दोनों कान कमलों के अवतंसों से शोभित थे, मानो लक्ष्मी ने अपना चिल प्रसाधित कर लिया हो। उसके धुंघराले केश वृद्धों के मन्त्रों के समान थे और उसकी बुद्धि दूसरे की मति आकृष्ट करने (हरने) वाली कान्ता के समान थी। ( 22 ) वह सुभानु विचार करता है-यह सामान्य मनुष्य नहीं है, यह कोई महाभट है। इसको नगर ले जाया जाये। रमणीरमण-लम्पट यह विशेष साहस कर सकता है। इस प्रकार वे आग को कपड़े से ढकने के समान, कृष्ण को लेकर गये। वहाँ जिनमन्दिर की उत्तरदिशा मुहं मुहं मुहूं, महु सुहमुहूं। 9. PS "जुवलु। 10. " पवेस। 11. B उयमाणु। 5. S अमेलदु। 6. B मज्झयेसु। 7. Bणाही गहिर। . । मुह मुह मुह 12. A अढोइड; Pव दाइज। (22) 1. Pणिज्जद। 2. P करई।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy