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महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
यत्ता - संसार असारु काले जंतें भाविउ । रिस सायरदत्तु" गुरु परमेट्टि णिसेविज" ॥11॥
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चिंतामणि व विविहफलदाइणि तवियई तिव्वतवेण णियंगई सोलह कारणाई भावेष्पिणु पंचेंदियकसायबलु पेल्लिवि मुउ पाओवगमणमरणें मुणि पवरच्छरकरचालियचामरु जा पंचममहि तावहि घल्लइ वरिसंहं बीससहासहिं भुंजइ रयणिउ तिष्णि सरीरें तुंगउ पुणु कालावसाणि संपत्तइ कासीदेसि णयरि याणारसि
मुणिवरु जायउ छडिवि मेइणि । अब्भसियां एयारह अंगई । तिणि वि सल्लई उम्मूलेप्पिणु । खीरवणंतरालि तणु घल्लिवि । पाणयकप्पि हूउ मणहरझुणि । वीससमुद्दमिया महामरु । णीसासु वि दसमासहिं मेल्लइ । णियते अच्छरमणु रंजइ' । जासु ण रूवसमाणु अणंगउ 1 एत्थु दीवि इह भारहखेत्तइ' । जहिं धवलहरहिं पह मेल्लइ ससि ।
धत्ता- तहिं अस्थि गरिंदु विस्ससेणु गुणमंडिउ | बंभादेवीए भुयलयाहिं अवरुंडिउ ॥12॥
[94.11.14
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यत्ता - समय बीतने पर उसे संसार अंसार लगा। उसने परमेष्ठी मुनि गुरु सागरदत्त की सेवा की। ( 12 )
वह चिन्तामणि के समान विविध फलों को देनेवाली धरती को छोड़कर मुनि हो गया। उन्होंने तीव्रतप से अपने शरीर की सन्तप्त किया, ग्वारह अंगों का अभ्यास किया। सोलहकारण भावनाओं की भावना कर, तीन शल्यों का उन्मूलन कर, पाँच इन्द्रियों और कषाय बल का दमन कर, क्षीर वन के भीतर शरीर का त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हुए। प्रायोपगमन विधि से भरकर वह मुनि प्राणत स्वर्ग में देव हुए। सुन्दर ध्वनि से युक्त, जिस पर महान् अप्सराएँ अपने हाथ से चमर ढोरती हैं, वह बीस सागर की आयुवाला महान् अमर हुआ। जहाँ तक पाँचवीं भूमि ( नरकभूमि) है, वहाँ तक का अवधिज्ञान होता है, निश्वास भी वह दस माह में लेता है। वीस हजार वर्ष में भोजन करता है। अपने तेज से अप्सराओं के मन का रंजन करता है। जिसका शरीर ऊँचाई में तीन हाथ है, जिसके रूप के समान कामदेव भी नहीं है। फिर, समय का अवसान आने पर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काशीदेश में वाराणसी नगरी है, जहाँ के धवलगृहों के कारण चन्द्रमा अपनी प्रभा छोड़ देता है,
पत्ता - वहाँ गुणों से मण्डित राजा विश्वसेन है जो ब्रह्मादेवी की बाहुलताओं से आलिंगित है ।
रूढ ! AB सायर ( A पसेविउ 1
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खीण
गलि 2. AP दह 3. AD सुण्णचउअदुअद्दहिं जुजइ । 4. AP read after this पइचारू वि मणेण श्राणंग। 5. AP sumits this line. 6. AP add after this दरिसियाणरमणे पवहंतए, अमर महासरे णीरे बतए ।