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प्रहाकइपुष्फवंतविरय महापुराणु
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पइहियमंतें विणिग्गयजडिमनु णंदीसरि णाणाजिणपडिमउ। सिंचियाउ घियदहिएं खीरें चंदणघुसिणकरंबियणीरें। अंधियाउ चंपयमंदारहि
अलिङलरुणुसैटिवसिंदूरहि। तहिं णरणाहु पलोयहं आयउ सहु हिवउल्लइ संसर जायउ। विषुलमई त्ति णाम तहिं अच्छिउ गणहरू तें पणवेप्पिणु पुच्छिउ । कि णिच्चेवणेण पत्रों
जिण किं एगह पहाणे ! घत्ता-अक्खइ मुणिणाहु जिणु भा भाविज्जइ।
तहु बिंबहु तेण जलकुसुमंजलि दिज्जइ ॥8॥
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णउ 'तरुवरि ण पकि ण सिलायलि वसइ देउ हिबउल्लइ णिम्मलि। देववाणई पुणपवित्तई
सुद्धई दसणणाणचरित्तई। ताहं बुद्धिसंदेहविरामें
जाणियभुवणत्तयपरिणामें। मिच्छत्तासंजमपरिचाएं
ताह बुद्धि कय णवर बिराएं। णिहयावरणु छिण्णसंसारउ विगयराउ अरहंतु भडारउ । कम्मकलंकपडलु ओसारइ जो णिययाई ताई वित्थारइ।
सो अवसें जिणवरु जयकारइ भावसुद्धि छंडइ' महिमारइ। था, सूर्य के लिए जैसे प्रतिसूर्य उत्पन्न हुआ हो। स्वामी के हितैषी मन्त्री ने नष्ट हो गयी है जड़ता जिनकी, ऐसी नाना जिन-प्रतिमाओं का नन्दीश्वर में घी, दूध और दही से अभिषेक किया। चम्पक और मन्दार कुसुमों तथा जिनमें भ्रमरकुल गुनगुना रहा है ऐसे सिन्दूर पुष्पों से पूजा की। वहाँ दर्शन के लिए राजा भी आया। उसके हृदय में सन्देह उत्पन्न हो गया। वहाँ विपुलमति नाम के गणधर थे। उन्हें प्रणाम कर उसने पूछा-'अचेतन पत्थरों को पूजने और इनका स्नान करने से क्या ?" . धत्ता-तब मुनिनाथ कहते हैं-"जिन को जिस भाव से ध्यान करना चाहिए, उसी भाव से उनके बिम्ब को जल कुसुमांजलि देनी चाहिए।
देव न तो तरुवर में रहता है-न पंक में और न शिलातल में। वह तो पवित्र हृदय में रहता है। विशुद्ध, पुण्यपवित्र सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही देवस्थान हैं। बुद्धि के सन्देह के विराम, तीनों लोकों को जाननेवाले, परिणाम और मिथ्या संयम के परित्याग से जिन की बुद्धि विराग से युक्त हो जाती है, जिन्होंने आवरण को नष्ट कर दिया है तथा संसार को छिन्न कर दिया है, ऐसे आदरणीय अरहन्त विगतराग होते हैं। वे कर्मरूपी कलंक के पटल को हटा देते हैं। जो अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र का विस्तार करना चाहता है, वह अवश्य जिनवर की जयकार करता है। भाव-विशुद्धि चित्त की शल्य को दूर कर देती है। भाव से
4. AP विणिहब । 5. AP RA" BA चंपयमातूरहि। 7. A विमलमइ।
(9) 1. A तस्यले। 2. AP देवहो ठाणहं। 3. AP भावसुद्ध। 4. A छड्इ।
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