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83.9.13|
पहाकइपुष्फयंतचिरयउ मह पुराणु
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(9) वि आयउ सई राणउ पुरि पइसारिउ रायजुवाणउ । हरियवंसवण्णेय रवण्णी
सामाएवि तासु तें दिण्णी। कामुउ कतहि अंगि विलग्गउ थिउ कइवयदियहई पुणु णिग्गउ । सिरिवसुएवसामि संतुट्ठउ देवदारुवणु' णवर पइठ्ठउ। सहि .नंगचंदाणसुरहियालु' दिसिगातकोइलकुलकलयलु'। जहिं बहुदुमदलवारियरवियर रुहुचुर्हति णाणाविह णहयर। णवमावंदगोंदि गंजोल्लिय जहिं कइ कइकरेहिं उप्पेल्लिय। जहिं हरिकररुहदारियमयगल रुहिरवारिवाहाउलजलथल। दसदिसिवहणिहित्तमुत्ताहल गिरिकंदरि वसंति जहिं णाहल।
ओसहिदीव तेयदावियपह जहिं तमालतमअविलक्खिय" रह। जहिं सबरहि संचिज्जइ" तरुहलु हरिणिहिँ चिज्जइ कोमलकंदलु । घत्ता-तहिं कमलायस दिटु णवकमलहि संछण्णउ |
धरणिविलासिणियाइ जिणहु अग्घु णं दिण्णउ ॥9॥
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यह सुनकर राजा स्वयं आया और उसने उस राजयुवा को नगर में प्रवेश कराया और हरे बाँस के वर्ण की तरह सुन्दर श्यामा देवी उसने उसे दे दी। कान्ता से मिलाप कर वह कुछ दिन वहाँ रहा और फिर बाहर निकल गया। श्री वसुदेव स्वामी सन्तुष्ट होकर देवदारु के वन में प्रविष्ट हुए-जहाँ लौंग और चन्दन से सुरभित जल था, दिशाओं में कोयलों की कलकल ध्वनि हो रही थी, जहाँ रविकिरणों को आच्ादित करनेवाले द्रुमदल थे और नाना प्रकार के पक्षी शब्द कर रहे थे, जहाँ नव आम्रवृक्षों के समूह पर आनन्द को प्राप्त वानर दूसरे वानरों द्वारा ठेले जा रहे थे, जहाँ सिंहों के नखों से मदगल हाधी विदारित थे और स्थल तथा जल रुधिर रूपी जल से व्याप्त था, दसों दिशाओं में मोती बिखरे हुए थे, जहाँ गुफाओं में भील रहते थे, जहाँ औषधिरूपी दीपों के तेज से पथ आलोकित थे, जहाँ गलियाँ तमाल वृक्षों के अन्धकार से दिखाई नहीं देती थीं, जहाँ भीलनियाँ वृक्षों के फल इकट्ठा कर रही थीं और हरिणियों के द्वारा कोमल अंकुर खाये जा रहे थे।
पत्ता-वहाँ उसने कमलों से ढका हुआ एक सरोवर देखा, मानो धरती रूपी विलासिनी ने जिनेन्द्र भगवान के लिए अर्घ्य दिया हो।
(9) 1. "दियहेहि दियहिं। 2. A "वणिः P"वणे । ५. 5 "जल । 4. "कलयत। 5. A सहचुअंति; B रुहबुहति। 6. A "गुंद" B गोदि: Als. 'गोंदे। 7. दिब्ब°18. B"तमवियलक्खिय। ५. A सरिहि। 10. BK संचिम्लय। 11. B एण्णउ । 12. A "विलासिणिए।