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महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु
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पडिवक्खगुणेहिं विमद्दियइ चिंतिउ तहु पियइ सुहद्दियइ। एही कुमारि जइ रमइ बरु तो पुणु महुं दुक्करु होइ घरु। एयहि केरलं सहुं जोव्यणेण णासमि वररूउ कुभोयणेण। इय भणिवि णियंबिणि रोसवस घल्लंति भीमदुव्ययणकस। कोद्दवकूरहु सराउ भरिउ सहुं कजिएण रसपरिहरिउ। सा णिच्च देइ तहि णवणवउं एतहि परमेट्ठि सुभइरवर्ड। गुरुपावभावभरववसियउं विसहेप्पिणु हरदुबिलसियां। समसत्तुमित्तुजीवियमरणु
अण्णहिं दिणि भव्वसमुद्धरणु । पिंडस्थिङ जाणिवजीवगइ कोसंबीपुरवरि पइसरइ। घत्ता-णियलणिरुद्धपयाई चेडयणिवदुहियाइ' ।
आविधि संमुहियाइ पणवेप्पिणु दुहियाई ॥4॥
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कोद्दवसित्थई सरावि कयई सउवीरविमीसई हयमयइं। मुणिणाहहु करयलि ढोइयई तेण वि णियदिट्टिई जोइयई। जावाई भोज्जु रसदिण्णदिहि अट्ठारहखंडपयारविहि। जिणदाणपहावें दुद्दमई
आयसघडियई रोहियकमई। सज्जणमणणयणाणंदणहि
परिगलियई णियलई चंदणहि। अमरहिं महुयरमुहपेल्लियई कुंदई मंदारई घल्लियइं। उसकी सौतपक्ष के गुणों से विमर्दित प्रिया सुभद्रा ने सोचा कि यदि यह कुमारी वर से रमण करती है, तो मेरे लिए यह घर कठिन हो जाएगा। इसके यौवन के साथ सुन्दर रूप को खराब भोजन के द्वारा नष्ट करती हूँ यह विचार कर तथा क्रोध से अभिभूत होकर वह भीषण दुर्वचन रूपी कोड़ों से मारने लगी। वह कोदों की चूरी से भरा हुआ तथा नीरस काँजी के साथ प्रतिदिन नया-नया सकोरा देने लगी। उसी समय परमेष्ठी. अत्यन्त भयंकर भारी पाप-भाव के भार से व्यवसित हर के दर्विलास को सहक
| को सहकर, शत्रु-मित्र व जीवन-मरण में समचित्त, तथा भव्यों का उद्धार करनेवाले, जीवगति को जाननेवाले महावीर ने आहार के लिए कौशाम्बी नगरी में प्रवेश किया।
घत्ता-जिसके पैर बेड़ियों से जकड़े हुए हैं, ऐसी सामने आयी हुई, दुःखिनी, चेटक राजा की कन्या ने
सकोरे में रखे हुए, कॉजी से मिले हुए, मद का नाश करनेवाले कोंदों के कण मुनिनाथ महावीर के करतल पर रख दिये। उन्होंने भी, अपनी दृष्टि से उन्हें देखा। जिसमें रस की दृष्टि दी गयी है, ऐसा वह अठारह प्रकार का भोजन बन गया। जिनवर के दान के प्रभाव से, सज्जनों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाली चन्दना की पैरों को जकड़नेवाली लोहे से निर्मित बेड़ियाँ टूट गयीं। देवों ने मधुकरों के मुखों से प्रेरित जुही
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