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________________ 99.1.12] महाकइपुष्फरतविरयउ महापुराणु [ 349 णवणवदिमो संधि उववणि कयरायहिं सहुँ ससहायहि लीलाइ जि पउ ढोयइ। अण्णहिं दिणि सेणिउ णरसमाणिउ समवसरणि जइ जोयइ ।। ध्रुवकं ॥ पिंडीतरुवरतलि देहझीणु अवलोयवि पुच्छिउ तें सुधम्मु पभणइ मुणिवरु इह जंबुदीवि हेमंगह विसड़ मणोहिरामि सच्चंधरु णरवइ विजय घरिणि कटुंगारउ णामेण मंति सुपुरोहिउ सुविमलु रुद्दयत्तु पेच्छइ मणिमउडु परिप्फुरंतु आशिनगलोर तर हिजमाणु विजयाइ णिहालिउ सिविणु एव जीवंधरु णामें झाणलीणु। को एहु भडारा खवइ कम्मु । सुणि सेणिय चंदाइच्चदीवि । तहिं रायणवरि संपत्तकामि। लीलागइ णं वरविंझकरिणि। मंतेहिं विहियउवसग्गसंति। तं णारिरयणु' सुहं सयणि सुत्तु । वसुसमचलघंटारणझणंतु। अण्णेक्कु णवल्लु वि णिग्गमाणु। सुविहाणइ पुच्छिउ दइउ देव। IO निन्यानवेवी सन्धि एक दिन राग करनेवाले अपने सहायकों के साथ राजा श्रेणिक लीलापूर्वक जब अपने उपवन में पैर रख रहा था, तो उसने समवसरण में मनुष्यों से सम्मानित एक मुनि को देखा। ___ अशोकवृक्ष के नीचे देह से क्षीण जीवन्धर नाम के (मुनि) ध्यान में लीन थे। उन्हें देखकर उसने सुधर्माचार्य से पूछा कि हे आदरणीय ! यह कौन कर्म का क्षय कर रहे हैं ? मुनिवर कहते हैं-हे श्रेणिक ! सुनो, बताता हूँ। चन्द्रमा और सूर्य से आलोकित जम्बूद्वीप के सुन्दर हेमांगद देश में मनारथों को प्राप्त करनेवाला राजनगर है। उसमें सत्यन्धर राजा था और उसकी गृहिणी विजया थी, लीलापूर्वक चलनेवाली जो मानो विन्ध्याचल की हथिनी है। उसका काष्ठांगारिक नाम का मन्त्री था, जो मन्त्रों से उपसर्गों की शान्ति कर देता था। रुद्रदत्त नाम का पवित्र पुरोहित था। किसी दिन विजया रानी बिस्तर पर सुख से सो रही थी। वह मणियों से भास्वर मुकुट देखती है, जो आठ स्वर्ण घण्टों से रुनझुन ध्वनि कर रहा था। जिस अशोक वृक्ष के नीचे वह बैठी हुई है, वह क्षीण हो रहा है और एक दूसरा अशोक वृक्ष निकल रहा है। विजया ने इस प्रकार का स्वप्न देखा और दूसरे दिन उसने अपने पति से पूछा-'हे देव ! (1) 1. पारिरवासु। 2. A °समदलघंटा; P°समवलधंदा ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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