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महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु
[89.3.10
वरयत्तणरिंदहु भवणि थक्कु णं अब्भभंतरि' भासुरक्कु । परमेदिहि णवविहपुण्णठाणु । तहु दिण्णउं तेणाहारदाणु। माणिक्कविट्टि' णवकुसुमवासु गंधोअयवरिसणु देवघोसु। दुंदुहिणिणाउ जिणु जिमिउ जेत्थ जायाई पंच चोज्जाई तेत्यु । माहबपुरि" मेल्लिवि जंतु जंतु पासुयपएसि' पय देंतु देंतु । छप्पप्ण दियहो' हयमोहजालु बोलीणहु तहु छम्मत्यकालु।
यत्ता-कुसुमिवमहिरुहं हिंडियसाययं ।
पत्तो जइवई' "रेवयपाक्यं ॥3||
दुबई-पविउलवेणुमूलि आसीणउ जाणियजीवमग्गणो।
तवचरणुग्गखग्गधाराहयदुद्धरकुसुममग्गणो' ॥छ। परियाणिचि चलु संसारु विरसु रसगिद्धिलुद्ध णिज्जिणिचि सरसु। परियाणिवि धुउ* परमस्थरूउ आसत्तु वि णिज्जियउं रूउ। परियाणिवि सुहं परियलियसदु जोईसरेण णियमियउ सदु । परियाणिवि मोक्खु विमुक्कगंधु एक्कु वि ण समिच्छिउ तेण गंधु ।
(आहार लेने निमित्त) निष्ठापन करते हेतु वे (नेमीश्वर) दूसरे दिन द्वारावती में प्रविष्ट हुए। वे राजा वरदत्त के भवन में ठहर गये, मानी बादलों के भीतर चमकता हुआ सूरज छिप गया हो। उस राजा ने नौ प्रकार के पुण्य स्थान परमेष्ठी नेमीश्वर को आहार दिया। वहीं रत्नों की वर्षा, नवकुसुमों की गन्ध, गन्धोदक की वर्षा, देवाघोष और दुंदुभि-निनाद ये पाँच आश्चर्य हुए जहाँ जिननाथ ने आहार किया। द्वारावती को छोड़कर, जाते-जाते और पड़ौसी प्रदेश में पैर रखते हुए, मोहजाल को नष्ट कर, छद्मस्थ काल के छप्पन दिवस बिताकर,
घत्ता-जब वह यतिवर, जहाँ खिले हुए वृक्ष हैं और जंगली पशु विचरते हैं, ऐसे रैवत पर्वत पर पहुंचे।
जीव की मार्गणाओं को जाननेवाले तथा तपश्चरण की उग्र खड्ग-धार से दुर्धर कामदेव को आहत करनेवाले, विशाल वेणुवृक्ष में मूल में बैठे हुए उन्होंने चंचल संसार को विरस जानकर, रसों के लालच में लुब्ध अपनी रसना इन्द्रिय को जोतकर, शाश्वत परमार्थरूप को जानकर, रूप में आसक्त रूप को जीत लिया (नेत्रेन्द्रिय
को जीत लिया), सुख को क्षीण शब्द वाला जानकर ज्योतीश्वर ने शब्द को (कर्णन्द्रिय के विषय को) जीत लिया। मोक्ष को विमुक्तगन्ध जानकर उन्होंने एक भी गन्ध को पसन्द नहीं किया (प्राण को जीत लिया)।
T.Aणं अभंतरि भाभासुरक्कु । १. 3 "बुष्टि। 9. B गंधोवर" P गंधोयपवरिसणु। 10. P "पुरे। 11. Bपदेते।।2. B दियह हउ । १. AR जयवई। 11. Bीवर B. P"पवयं।
(4) 1. BA3 फरवगा। 2. P परियाणेविण संसारू। . AS णिजियउ णिज्जिउ। 4. S धुवु। 5.5 रुनु ।