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216] महाकइपुष्फवंतविरयउ महापुराणु
[91.9.3 बंदियई अणेयई पुज्जियाई कारागाराउ विसज्जियाई। विरइउ तणयह उच्छवपयत्तु तहु णामु' पइट्ठिउ देवयत्तु। आणंदु पणच्चिउ सज्जणेहि उच्छाहु विमुक्कउ दुज्जणेहि। णं कित्तिवेल्लिवित्यरिउ कंदु परिवुटु' बालु णं बालयंदु । संजाउ णिहिलविण्णाणकुसलु जिणणाहपायराईवभसलु। मंडलिवणियरकलियारएण एत्तहि हिंडतें पारएण। रुप्पिणिहि महंतंगयविओउ कण्हहु जाइवि अवहरिउ सोउ। णिवमउडरयणकतिल्लपाय गोविंद णिसुणि' रायाहिराय। पत्ता-मेइणि विहरंतु पुचविदेहि पसण्णसरि । हउँ गउ णरणाह चारु "पुंडरीकिणिणयरि० ॥५॥
( 10 ) तहिं महुँ विद्धसियमयगहेण अक्खि अरुहेण सयंपहेण। जिह णिउ देवें वइरायरेण जिह चित्तु रण्णि परमारएण। जिह पालिउ अबरें खेयरेण सुउ पडिवजिवि पणयंकरेण'।
जिह जायउ सुंदरु णवजुवाणु सोलहसंवच्छरपरिपमाणु । दान दिया गया, जो भाग्य की पूर्ति करनेवाला और अति इच्छाओं के प्रभाव के अनुरूप था। अनेक वन्दियों का सम्मान किया गया और कारागार से उन्हें विसर्जित कर दिया गया। पुत्र का उत्सव प्रयत्न से किया गया और उसका नाम देवदत्त रखा गया। सज्जनों ने आनन्द मनाया और दुर्जनों का उत्साह चला गया। बालक बढ़ने लगा मानो कीर्तिरूपी लता का विस्तृत अंकुर हो, मानो बालचन्द्र हो। वह अखिल विज्ञानों में कुशल और जिननाथ के चरणकमलों की पंक्ति का भ्रमर हो गया। माण्डलीक राजाओं के समूह में कलह करानेवाले, भ्रमण करते हुए नारद ने जाकर यहाँ रुक्मणी और कृष्ण का महान् पुत्रवियोग और शोक दूर किया। राजाओं के मुकुटरलों से कान्तिमय-चरण, हे राजाधिराज गोविन्द ! सुनिए
घत्ता-धरती पर विहार करते हुए पूर्व विदेह में लक्ष्मी से प्रसन्न सुन्दर पुण्डरीकिणी नगरी में, हे नरनाथ ! मैं गया था।
(10) वहाँ मुझे कामदेव रूपी ग्रह को ध्वस्त करनेवाले अरहन्त स्वयंप्रभ ने बताया कि किस प्रकार शत्रुता रखनेवाला देव बालक को ले गया, और किस प्रकार दूसरों को मारनेवाले उसने उसे वन में फेंक दिया। किस प्रकार दूसरे प्रियंकर विद्याधर ने उसका पालन-पोषण किया, और किस प्रकार उसे अपना पुत्र माना। वह सुन्दर नवयुवक किस प्रकार सोलह वर्ष का हो गया। यह सुनकर रुक्मणी और कृष्ण का हर्ष आँसुओं 5. B उच्छउ । 1. B पाड; 5 पाई। 1. A परिशुद्ध । 5. B रूपिणिहि । 6. 5 नृव । 7. 5 णिसुणेयि । 8. B “सिरेि । 9. AS पुंडरिंगिणि"; " पुंडरिकिणि: 18.5 प्रणयरहिं।
(10) 1. मुह। 2. A अरहेण । 3. AP वित्त वणि । 4. पणयंधरेण । 5. D संवत्सरपरियमाणु।