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घार
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महाकठपुप्फयंतविरपर महापुराणु तेहिं बिहि मि तहिं णहि पवहंतउं सवणरिक्खु दिउं कंपंतउ।। तं तेवड्डु चोज्जु जोएप्पिणु भणइ विठु पणिवाउ करेप्पिणु। कि णक्खत्तु भडारा कंपइ तं णिसुणेवि जणणमणि जंपइ। गयरि बलिणा मुणि उवसग्गें संताविय पायें भयभग्गें । सज्जणघट्टणु सबहु भारिउं तेण रिक्खु थरहरइ णिरारिउँ । पुच्छइ पुणु वि सीसु खमवंतह णासइ केंव उवद्दउ संतह। पत्ता-घणरहरिसिणा उत्तु तुम्ह विउव्वणरिद्धिइ। णासइ रिसिउवसग्गु भवसंसारु व सिद्धिइ ॥17 ।।
(18) 'खलजणवयअच्चब्भुवभूवें छिद्दहि जाइघि वाधणरूवें। णिलयणिवासु णिरग्गलु मग्गहि पच्छह पुणु गयणंगणि लग्गहि । तं णिसुणेपिणु लहु णिग्गउ मुणि रिय पढंतु कियओंकारज्झुणि । भिसिवकमंडलु सियछत्तियधरु दब्भदंडमणिवलयंकियकरु । मिट्टवाणि उववीयविहूसणु
देसिङ कासायंबरणिवसणु। सो णवणरणाहेण णियच्छिउ भणु भणु तुह' किं दिज्जउ पुच्छिउ ।
उन दोनों ने आकाश में श्रवण नक्षत्र को जाते हुए और काँपते हुए देखा। वह उतना बड़ा आश्चर्य देखकर, विष्णु (पुत्र) प्रणाम करके पूछते हैं-“हे आदरणीय नक्षत्र क्यों कॉप रहा है ?" यह सुनकार पिता मुनि से कहते हैं कि हस्तिनागपुर में पापी और भय से त्रस्त बलि ने उपसर्ग के द्वारा मुनि को सताया है। सज्जन को सताना सबसे बड़ा पाप है, इसीलिए वह नक्षत्र अत्यन्त थर-थर काँप रहा है।" तब शिष्य फिर क्षमावान् सन्त से पूछता है कि यह उपद्रव किस प्रकार शान्त हो सकता है ? ___घत्ता-मुनि बोले-"तुम अपनी विक्रिया ऋद्धि से मुनि का उपसर्ग उसी प्रकार नष्ट कर दो, जिस प्रकार सिद्धि से भव-संसार नष्ट हो जाता है।
( 18) तब छल से, दुष्टजनों को आश्चर्य में डालनेवाला वामनरूप बनाकर तुम प्रतिबन्ध रहित रहने का घर माँगो, बाद में फिर तुम आकाश के आँगन से जा लगना।" यह सुनकर मुनि विष्णु तत्काल वहाँ से निकलेऋचाएँ पढ़ते, ओंकार ध्वनि करते हुए, आसन और कमण्डलु लिये हुए, सफेद छतरी लगाये हुए, दूब और जपमाला से हाथ को अलंकृत कर, मीठी वाणी बोलते हुए, यज्ञोपवीत से विभूषित, गेरुए रंग का वस्त्र पहिने हुए, उपदेशक के रूप में। उसे राजा ने देखा और पूछा- "बताओ तुम्हें क्या हूँ ? क्या घोड़ा, क्या हाथी,
6. AP जाणु मुणि। . A हयभागें। 8. B सच्चउ ।
(18) I.A खलु । 2. Pआवश्यभूयं 13. B हिंदह। 4. BS बामण" | R.AIणियेसु । 6. Aओंकायरझुणि। 7. रिसिय। 8. B कि तुह। 9. P दिजः।