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98.16.10]
महाकवि राजे मलपु
णायदत्तु णामें सुउ जायउ कणयलया पोमलयाणिवघर 13
सुकइत्तेण सुठु विक्खायउ । हूई अवर" कहिं मि दीवंतरि ।
धत्ता - वणिवइणा वणिकण्ण परिणिवि अवर पयासहु । सहुं पुत्ते धणमित्त संपेसिय परदेसहु ॥15॥
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सीलदत्तरिति । बुद्धि मंडिउ अवरु मित्तु संजायउ तलवरु अणुवय गुणवय चउसिक्खावय माउलाणितणवहु धणधणियहु दिणी ससस' सुठु साणंदें उवसिलोउ कउ कइरसजुत्तउ पडिआयउ कुद्धंतुज्जेणिहि उलें 'सहएवें गोलग्गिउ जणणें बोल्लिउं सोक्खजणेरडं सहुं णवलें सहएवें गच्छहि
तणुरुहु तहि संजायत पंडिउ । थिउ पुरि सत्थदाणतोसियपरु । परिपालिय णिम्मल गलियावय । दिगामवासहु कुलवणियहु । तेण गहिय णं रोहिणि चंदें । दिउ राउ रिद्धिसंपत्तउ । रयणसिलायलविरइयछोणिहि । दिउ' पिउ धणभाउ पमग्गिउ । णिहिउं पलासणयरि वसु मेरउं । धणु लइ तुहुं एयहं मि पयच्छति ।
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था । वधू भी कनकलता ( कांचनलता ) नामक रानी से पद्मलता के नाम से किसी द्वीपान्तर में राजा के घर उत्पन्न हुई।
धत्ता - सेठ धनदेव ने एक दूसरी सेठ-कन्या से विवाह कर पुत्र के साथ धनमित्रा को परदेश ( पलाश नगर ) भेज दिया।
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वहाँ शीलदत्त मुनि की बुद्धि से मण्डित वह पुत्र पण्डित हो गया। उसका एक और तलवर मित्र हो गया। अपने शास्त्रदान से दूसरों को सन्तुष्ट करता हुआ वह वहाँ रहने लगा। उसने अणुव्रत, गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विशुद्ध पालन किया। उसकी आपत्तियाँ नष्ट हो गयीं । नन्दीग्राम के रहनेवाले वणिक् कुल के धन से सम्पन्न मामी के पुत्र को उसने आनन्द के साथ अपनी बहिन दे दी। उसने भी उसे ग्रहण कर लिया मानो चन्द्रमा ने रोहिणी को ग्रहण किया हो। उसने एक कविरस से युक्त उपश्लोक ( छोटा छन्द) बनाया जो राजा को दिखाया और ऋद्धि से सम्पन्न हो गया। वह क्रोध करता हुआ, रत्नशिलाओं से विजड़ित भूमिवाली उज्जयिनी नगरी वापस आया। तथा नकुल और सहदेव से सेवित पिता से भेंट की और अपना धन-भाग माँगा । पिता ने कहा - "सुख को उत्पन्न करनेवाला मेरा धन पलाशनगरी में रखा हुआ है। तुम नकुल, सहदेव के साथ जाओ । धन ले लो और तुम इनको भी देना ।"
12. A सुद्ध P सुख। 13. A नृयघरि । 11. AP कहिं मि अंबर 15. A दीवघरतरि ।
( 16 ) 1 A सीलदत्तरसबुद्धिए 2 A सस सा सुर 3. AP चसिकउ लोउ कईरस 14. A राणउ सिरिसंपस्छ। 5. A सकुटुंबुज्जेणिहे। 6. AP सहदेवें। 7. Pamits दिउ। 8. AP णटलें ।