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[101.16.14
महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु मगहेसरपुरुबरु एउं आउ सहुं बंधुहं बंदिउ बीयराउ। संजमभरखड्डियकंधरेण
वउ लइयउं सिरिपीइंकरेण ।। पत्ता-भरहु व चरमंगु वयहलेण अइसोहिउ ।
जंबुड* संजाऊ पुष्पदंततेयाहिउ ॥16॥
इस महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाभचभरहाणुमणिए महाकड़पुष्फर्यतविरइए महाकव्ये पीइंकरक्खाणं णाम
सयमेकोत्तर परिच्छेयाणं समत्तं ॥10॥
-- - ----- में आया और भाइयों सहित वीतराग की वन्दना की। संयम के भार को अपने कन्धों से उठानेवाले उनसे प्रीतिंकर ने व्रत ग्रहण कर लिया। ___घना-चरमशरीरी वह भरत के समान व्रतफल से अत्यन्त शोभित था। वह सियार सूर्य-चन्द्र के तेज से भी अधिक तेजवाला हो गया।
इस प्रकार रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित
और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाष्य का प्रीतिकर-आख्यान
नाम का एक सा पहला परिच्छेद समाप्त हुआ।
H. Aजंदल, उयं। ". APएकोत्तरसइपी परिक्षेत्री तमन