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महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
[83.12.1
(12) णहवललग्गरयणमयगोउरु णिउ वेयडूहु 'बारावइपुरु। कुलबलवंतहु "दइवसहायहु दरिसिउ असणिवेयखगराय। एंव ससामिसालु विष्णवियर विंझगइंदु एण विद्दवियउ। इहु सो चिरु जो णाणिहिं जाणिउ इहु तुह दुहियावरु मई आणिउ । तं णिसुणेवि असणिवेयं अवलोइयसुहिवयणससकें। पवणवेयदेवीतणुसंभव
सामरि णामें सुय वीणारव। दिपणी तासु सुहद्दातणयहु पोहहु" पउणियपणयपसायहु। गवबहुदियहहिं पेम्मपसत्तउँ सो सूहउ जामच्छइ सुत्तउ । तावंगारयखयरें जोइउ
सुहि' सुत्तु जि भुयपंजरि ढोइउ । भूमियरहु पन्भट्ठविवेयह
मामें णियसुय दिण्णी एयहु । एम भणंतें णिउ णियइच्छइ सामरि सुंदरि धाइय पच्छइ। पत्ता--असिवसुणंदयहत्व" णियणाहहु कुढि लग्गी।
पडिवक्खहु अभिट्ट समरसएहिं अभग्गी ॥12॥
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(12) वह उसे काशल सर्श कर रनमा गोधुरोंवाले, विजयाध की द्वारावती नगरी में ले गया। उसने कुल-बल में बलवान् दैव है सहायक जिसका, ऐसे अशनिवेग विद्याधर को उसे दिखाया और निवेदन किया, "ये मेरे स्वामिश्रेष्ठ हैं। इन्होंने विन्ध्याचल को विदीर्ण कर दिया है। यह वही प्राचीन पुरुष हैं जो ज्ञानियों द्वारा जाना गया है और जिसे मैं तुम्हारी कन्या का वर बनाने के लिए लाया हूँ।" यह सुनकर सुधीजन का मुखचन्द देखते हुए अशनिवेग विद्याधर राजा ने पवनवेगा देवी के शरीर से उत्पन्न वीणा के समान स्वरवाली उस युवती शाल्मली कन्या को, जो दिन दूनी रात चौगुनी प्रणय का प्रसाद प्रकाशित करनेवाली थी, सुभद्रापुत्र को दे दी। बहुत दिन बीतने के बाद, प्रेम में आसक्त जब वह सुन्दर सोया हुआ था तो अंगारक विद्याधर ने उसे देखा। सोते हुए उस सुधीजन को वह अपने बाहुफ्जर में ढोकर 'विवेकभ्रष्ट इस भूमिचर को ससुर ने अपनी कन्या दी है', यह विचार करते हुए वह अपनी इच्छा से उसे ले गया। शाल्मली सुन्दरी उसके पीछे दौड़ी।
धत्ता-वसुनन्दक तलवार को अपने हाथ में लेकर वह अपने स्वामी के पीछे लग गयी। सैकड़ों युद्धों में अभग्न वह शत्रुपक्ष से भिड़ गयी।
(12) 1. AP दारावह। 2. D दइय"। 3. AP खयरायहो। 4. P एहु जि मिरु 'जो एहु सो चिरु। 5. Bएहउ दुहिया । 6. AP पणइणिमणहरपणियांगयहो; B पोहह पऽणियपणइपसायडु: 5 पोडहु परणियपणइणिपणयहो; As. पोटहु पणियपणयपसाय against his Mt. on the strength of gloss प्रजनित । 7.5'पमत्तः । *. A तामंगारया; ता अंगारय। 9. ABPS सह। 10. P"कृत्यु।