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________________ 3703 महाकपुष्फयंतचिरयउ महापुराणु [99.18.4 तं णिसुणियि गय भायर तुरंत दंडयवणु तुंगतमालु पत्त। तहिं दिट्ठ देवि तावसणिवासि जीवंधरजणणि महापयासि । आलाव जाय जाणिय समाय को पावइ जणणिहि तणिय छाय। बोल्लिउ देविइ भो करह तेम सुउ जीवंधरु महुँ मिलइ जेम। सइ दिवि गय ते णं गइंद आलग्गा ताहं महापुलिंद। ते जित्त जति जा पुरसमीउ पुणु सवरणिवहु हरिहरिणजीउ। अभिट्टउ तहिं संपाइएण जीवंधरेण अवराइएण। 10 रक्खिय ओलक्खिय गलियगव्य सज्जणवच्छल महुराइ सव्व । गय हेमाहहु थिय का वि कालु शु तेहिं पयोल्लिउ सामिसालु। रायउरहु चल्लिउ सो तुरंतु दंडयवणु पत्तउ' गुणमहंतु। पत्ता-तहिं जोइवि मायरि विजयासुंदरि बंधुवग्गु रोमंचिउ । घणपणयपवण्णे चुयथणयपणे गंदणु मायइ सिंचिउ ॥18॥ (19) जीवंधरेण जीवति दिट्ट पणमिय परमेसरि सुटु इट। पभणइ दीहाउसु होहि पुत्त आयण्णहि संगरभारजुत्त। दुविणीएं दुज्जसगारपण - तुह पिउ हउ कटुंगारएण। मंतें होइवि सई गहिउं रज्जु तुहं सउलपराहयु' हरहि अज्जु । करते हैं। यह सुनकर भाई तुरन्त गये और ऊँचे तमाल वृक्षोंवाले दण्डकवन में पहुँचे। वहाँ महापयास तापसनिवास (आश्रम) में जीवन्धर की माँ विजयादेवी को उन्होंने देखा। देवी ने कहा-"अरे ! तुम लोग ऐसा करो जिससे जीवन्धर मुझे मिल जाये।" उस सती की वन्दना कर, वे लोग गये मानो गजेन्द्र गये हों। उनके पीछे बड़े-बड़े भील लग गये। कुमारों ने उन्हें जीत लिया। तब नगर के समीप तक जाते हुए उन्हें पशुओं के जीव का अपहरण करनेवाला शबरसमूह फिर से मिला और भिड़ गया। वहाँ आये हुए अपराजित जीवन्धर कुमार ने उनकी रक्षा की और सज्जनों से वात्सल्य रखनेवाले, गर्वरहित मधुर आदि सभी भाइयों को पहचान लिया। वे लोग हेमाभनगर गये और वहाँ कुछ समय तक रहे। फिर उन्होंने स्वामीश्रेष्ठ से कहा। गुणों से महान् बह तुरन्त राजपुर के लिए चल पड़ा और दण्डकवन पहुँचा।। ___घत्ता-वहाँ अपनी माँ विजयासुन्दरी को देखकर बन्धुवर्ग रोमांचित हो गया। सघन स्नेह से परिपूर्ण झरते स्तन-स्तन्य (दूध) से माँ ने पुत्र को सींच दिया। (19) कुमार जीवन्धर ने अपनी माँ को जीवित देखा। अत्यन्त इष्ट उस परमेश्वरी को प्रणाम किया। माता बोली-“हे संग्रामभार से युक्त पुत्र ! तुम दीर्घायु होओ। तुम सुनो, दुर्विनीत अपयश करनेवाले काष्ठांगार ने तुम्हारे पिता को मार डाला है। मन्त्री होकर भी उसने सारा राज्य हड़प लिया है। तुम अपने कुल के 2. A सबरविंदु। 9. A यहरिण | 1. A अट्टराइएण। 5. A पत्तर सो महंतु। (19) 1. A सप्लु पराभउ; 7 सउलु पराहत ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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