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99.8.10]
महाकपुष्यंतविरयउ महापुराणु
गंभीरु" धीरु सरिदहि णिमण्णु दिणाई पंचवरगुरुपबाई
घत्ता - णियभवु अहिणागिवि मणि परियाणिवि कलिमलदोसविषज्जिउ । आवेष्पिणु जक्खें कमलदलक्खें जीवंधरु गुरु पुज्जिउ ॥7 ॥
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अविसहियभीमदिणयरगभत्यि
णर भागाणंटप्पातु विजयासुएण अलिकालकंति सा दिणी तहु अवियारएण परवइकील कीलइ किराडु इय भणिवि चंडु पुरदंडवासि सच्चधरतणयहु सो पणट्टु उप्पण्णगरुयकरुणारसेण पहएण भिच्चणियरें गिराउ इय भणिवि तेण संभरिउ जक्खु
कड्डाविउ कुमरें भयविसष्णु' । प्राणाई" दह वि भलुहहु गयाई ।
अण्णहिं वासरि णिवगंधहत्थि । थाह सुजरिमंदणासु । रक्खय सुंदरि पडिखलिउ दंति । भाविउ मच्छरु अंगारएण । लइ एयहु किज्जइ दप्पसाडु तें तहु पेसिउ करयलकयासि । रणि णं तवचरणहु कुमुणि भट्ट । मणि चितिउं किं कि परवसेण । खुद्दह किज्जइ उवसमउवाउ । सो आयउ परबलदुण्णिरिक्खु ।
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6. A गंभीरधीर सरिदरिणिमण्णु 1 7 P भयणिसज्जु 8. AP पहनाई। 9. । कविलाही ।
(8) 1.4 गहथि। 2 AP क्रीडड़ 3. AP किंकरपरवसेन ।
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दुःखी उसे कुमार ने बाहर निकलवाया। उसे पंच नमस्कार मन्त्र दिया। उस कुत्ते के प्राण निकल गये। मरकर वह धातुओं से लाल चन्द्रोदय पहाड़ के तट पर यक्षदेव हुआ ।
घत्ता - मन में अपने पूर्वभव को जानकर कमलदल के समान आँखोंवाले उस यक्ष ने आकर कलिमल के दोषों से दूर, अपने गुरु जीवन्धर की पूजा
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एक दिन, सूर्य की गम्भीर किरणों को सहन नहीं करता हुआ राजा का गन्धहस्ती मनुष्यों के कोलाहल से नेत्रों के लिए आनन्ददायक, सुरमंजरी के रथ की ओर दौड़ा। विजयादेवी के पुत्र जीवन्धर ने भ्रमर और काल की कान्ति के समान उस गज को वश में कर लिया और सुरमंजरी की रक्षा की। वह उसे दे दी गयी। अविवेकशील अंगारक ईर्ष्या से भर गया कि एक भील राजा की क्रीड़ा से खेलता है। लो, इसका दर्पनाश किया जाये। यह कहकर उसने हाथ में तलवार लिये नगर कोतवाल को उसके पास भेजा। लेकिन सत्यन्धर के पुत्र से युद्ध में वह उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार खोटा मुनि तपश्चरण से नष्ट हो जाता है। जिन्हें भारी करुणारस उत्पन्न हुआ है, ऐसे कुमार ने सोचा कि पराधीन अनुचर समूह को मारने से क्या ? क्षुद्र के प्रति उपशमभाव धारण करना चाहिए। यह विचार कर उसने यक्ष को याद किया। शत्रुबल के लिए दुर्दर्शनीय वह आया। उसने उसे काष्टांगारिक के पास भेजा, मानो स्फुरित अंगारोंवाली आग के पास नवमेघ