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महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु
[100.5.17
घत्ता-दुप्पेखें दुक्खें पीडियउ वणिवइ आवइ पत्तउ।
जिणवयणे रयणें वज्जियउ जीउ वि परइ णिहित्तउ ॥5॥
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गउ पाविठु दुर्छ' उम्मग्गे तं आयण्णिवि परधणहारें सासुय कुद्ध सुण्ह गहणालइ णिसुणि सुवण्णदारु पाडहिएं मरणोवाउ सिठ्ठ धवलच्छिहि मद्दलि पाय दिण्णु गलि पासउ सो मुउ जोइवि णीसासुण्हइ जिह सो मुउ घणकंकणमोहें भणइ कुमारु वुत्तु' ललियंगउ तं जोति का वि मणिमेहल आणिउ धाइइ पच्छिमदारें| राएं जाणिउ सो ल्हिक्काविउ
वियकसायचोरसंसग्गें। उत्तरु विष्णु बुद्धिवित्थारें। मरणकाम दिट्ठी तरुमूलइ। आहरणहु लोहें मइरहिएं। गयमयणहि' घरपंकयलच्छिहि। तण्णिवाइ मुउ दुळु दुरासउ । गेहगमणु पडिवण्णउं सुण्हइ । तिह तुहं म मरु मोक्खसुहलोहें। एक्कहिं णयरि अस्थि रइरंगउ । कय' मयणे महएवि विसंठुल। देविइ रमिउ मुणिउं परिवारें। असुइपण्णि विवरि घल्लाविउ।
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घत्ता-दुदर्शनीय दुःख से पीड़ित होकर वह सेठ वन में आपत्ति को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार जिनवचनरूपी रत्नों से रहित यह जीव नरक में जाता है।
विषय और कषायरूपी चोरों के संसर्ग से वह दुष्ट पापापत्मा उन्मार्ग पर जाता है।" यह सुनकर दूसरे के धन का अपहरण करनेवाले तथा बुद्धिविस्तारवाले चोर ने उत्तर दिया-"एक बहू अपनी सास से क्रुद्ध होकर जंगल में मरने की इच्छा से वृक्ष के नीचे देखी गयी। सुनो, स्वर्णदारु नाम के एक मूर्ख मृदंग बजानेवाले ने सोने के लोभ से धवल आँखोंवाली, विरक्त, गृहरूपी कमल की लक्ष्मी उस वधू को मरने का उपाय बताया। उसने मृदंग पर पैर रखा और गले में फाँसी लगा ली। इस प्रकार खोटे आशयवाला वह दुष्ट मृदंग-बजानेवाला मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसे मरा हुआ देखकर, गर्म-गर्म उच्छ्वास लेनेवाली उस वधू ने अपने घर जाना स्वीकार कर लिया। जिस प्रकार वह कंगनों के सघन मोह में मर गया, उसी प्रकार तुम भी मोक्ष-सुख के लोभ में मत मरो।" तब कुमार कहता है-"एक नगर में रति-रस का लम्पट ललितांग नाम का एक धूर्त रहता था। उसे कोई मणिमेखलावाली रानी देख लेती है और कामदेव से पीड़ित हो जाती है। धाय उस धूर्त को पश्चिम के द्वार से ले आयी। देवी ने उससे रमण किया। परिवार ने यह बात जान ली। राजा को भी यह मालूम हो गया। उसने (ललितांग को) छिपा दिया और अत्यन्त अपवित्रता से परिपूर्ण छेद में घुसा दिया।
(6) 1.AP पिटुटु। 2. AP गवगमणहि। ५. कंकणलोहें। 5. AP धुत्तु। 5. A रइचंगउ । H. A तें। 7. Pomits this line: