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102.14.15]
महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
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कयउं कव्वु भित्तिढ़ें परमत्थे जिणपयपंकयमउलियहत्थें । कोहणसंधच्छारे आसाढ
पहम दिवहे यंदरइरूढइ। घत्ता-णिरु णिरहहु“ भरहहु बहुगुणहु कइकुलतिलएं भणियउं"।
सुपहाणु पुराणु तिसहिहिं मि पुरिसहं चरिउ "समाणियउं ॥14॥
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इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फपतविरइए महाभषमरहाणुमण्णिए महाकबे जिणिंदणिबाणगमणं" णाम
"दुत्तरसयपरिच्छेयाणं महापुराणं समत्तं ॥10॥
काव्य रचना से लोगों को पुलक उत्पन्न करनेवाले, पाप से रहित, लोक में अभिमानमेरु नाम से विख्यात, जिनवर के चरणकमलों में हाथ जोड़े हुए परमार्थ और भक्ति में स्थित पुष्पदन्त ने क्रोधन संवत्सर के असाढ़ माह की चन्द्रमा की कान्ति से युक्त दसवीं के दिन इस काव्य की रचना की। ___ घता-अत्यन्त निष्पाप बहुगुणी भरत के लिए कविकुलतिलक ने कहा और त्रेसठ महापुरुषों के प्रधान पुराणचरित की रचना की।
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित
और महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में जिनेन्द्रनिर्वाण-नामन नामक
एक सौ दूसरा परिच्छेदवाला महापुराण समाप्त हुआ।
12. AP भत्तिए। 13. P छसय छडोत्तर कयसामत्थे। 14. A सिरिणिरहो; A सिरिअरुहको।।5. AP भासिउं। 16, AP समासि। 17. AP omit जिणिणियाणगमणं णाम। 1. AP दुत्तरसइमो परिच्छेओ समतो।