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[81.16.13
महाकड्युप्फयतविरयड महापुराणु छत्ता-पुरु घरु परिहरिवि रइणिब्भराइ एक्कहिं दिणि।
कयकेसम्गहई कीति जाम णंदणवणि 16||
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कुंडलकिरीडचिंचइयगत्त' ता बे वि देव ते तेत्यु आय चित्तंगएण परियाणियाई संतावयरइं संभावियाई वणमाल एह कुच्छ्यि कुसील' उच्चाइवि बेण्णि वि घिवमि तेत्यु इय चिंतिवि भुयबलतोलियाई किर णिप्फलजलगिरिगहणि घिवइ को एत्थु वइरि को एत्थु बंधु दोसेसु खंति इच्छाणिवित्ति कारुण्णु सन्चभूएसु जासु तं णिसुणिवि उवसमसंगएण चंपापुरि चंपयचूयगुज्झि
सूरप्पह चित्तंगय सुमित्त। दंपइ पेक्खिवि मणि चिंत जाय। कहिं जारई विहिणा आणियाई। एवहिं कहिं जंति अघाइयाई। इहु सुमुह सेट्टि जें मुक्क वील। णउ खाणु पाणु णउ पहाणु' जेत्थु। देवेण ताई संचालियाई। तावियरु' अमरु करुणेण चवइ। मुइ मुइ सुंदर वइराणुबंधु' । गुणवति' भत्ति णिग्गुणि विरत्ति। किं भण्णइ अण्णु समाणु तासु। भवियव्यु मुणिवि चित्तंगएण। धित्ताई बे वि उज्जाणमज्झि।
घत्ता-एक दिन, रति से परिपूर्ण होकर वे दोनों नगर-गृह छोड़कर जब नन्दनवन में एक-दूसरे के केश पकड़ते हुए क्रीड़ा कर रहे थे,
तब कुण्डलों और मुकटों से शोभितशरीर सूर्यप्रभ और चित्रांगद मित्र, दोनों देव वहाँ आये। दम्पती को देखकर उनके मन में चिन्ता हुई। चित्रांगद ने जान लिया कि विधाता इन धूतों को कहाँ ले आया। यह खोटी और कुशील वनमाला है। सन्ताप करनेवाले एक-दूसरे पर आसक्त ये दोनों बिना आघात के कहाँ जाते हैं ? यह सुमुख सेठ है, जिसने लज्जा का परित्याग कर दिया। दोनों को उठाकर वहाँ फेंकता हूँ जहाँ खाना-पीना और नहाना नहीं है। यह सोचकर उसने अपने बाहुबल को तोला और उन दानों को संचालित कर दिया (फेंक दिया)। वह उन्हें जल और फलों से रहित गिरिगुहा में फेंकता है, कि तब तक दूसरा देव (सूर्यप्रभ) उससे करुणा के साथ कहता है, "यहाँ कौन बैरी है और कौन भाई है ? हे सुन्दर, तुम बैर के अनुबन्ध को छोड़ो। जिसकी दोषों में क्षमा, इच्छाओं में निवृत्ति, गुणवानों में भक्ति और निर्गुण में विरक्ति और सर्वप्राणियों के प्रति करुणा भाव है उसके समान दूसरा और कौन है ?" यह सुनकर चित्रांगद देव ने शान्त होकर और भवितव्य सोचकर उन दोनों को चम्पा और आम्रवृक्षों से गुह्य चम्पापुर के उद्यान में फेंक दिया।
(17) 1. ABPS 'चंचइय। 2.8 तं। 9.4: तित्थु । 4.5 कुशौल | 5. A विवेचिः 5 चित्तमि। 6. रहाण 1 7.AP ता इ318. वइराणुओछु । 9.गुणवंत । 10. 5 णिग्गुण। 11. B°चूयर्गाटप। 12. B पित्ता बे बि जि।