Book Title: Khartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ का बुझ्द इतिहास महोपाध्याय विनयसागर Jain Education Internation 2010_04 www.sainalda Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयुक्त प्रकाशक • प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर • एम. एस. पी. एस. जी. चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर • श्री पी. सी. श्रीमाल, हैदराबाद • श्री अहमदाबाद खरतरगच्छ श्वे. मूर्तिपूजक जैन संघ • श्री महावीर स्वामी जैन देरासर ट्रस्ट, पायधुनी, मुंबई • श्री कुशलचन्द सिंघवी, हैदराबाद • दादाबाड़ी श्री जिनकुशलसूरिजी, जिनचन्द्रसूरिजी ट्रस्ट, चेन्नई • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ श्रीसंघ, चितलवाना - श्री नागेश्वर तीर्थ ट्रस्ट, नागेश्वर श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, फीलखाना, हैदराबाद • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, साँचोर युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी जैन दादाबाड़ी, बैंगलोर • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, गढ़सिवाना • श्री जैन श्वे. मंदिर, सुले, चेन्नई • श्रीमती रत्नबाई रतनचन्द दासोत, टोंक श्री राजस्थानी जैन श्वे. मूर्तिपूजक संघ, सिकन्दराबाद श्री जैन श्वे. तीर्थ, कूलपाक • श्री कोठी जैन श्वे. अजितनाथ पार्श्वनाथ मन्दिर, हैदराबाद • श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर, चारकमान, हैदराबाद • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, भुज • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, अंजार • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, जयपुर • श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, दिल्ली श्री आदिनाथ मंदिर, रामगंजमण्डी ॐ श्री गोलीचन्दजी डागा, चेन्नई er Private & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि पुष्प - ३ प्राकृत भारती पुष्प - १६१ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (खरतरगच्छ की गूल परम्परा, १० शाखाएँ, ४ उपशाखाएँ एवं संविग्न-परम्परा का मौलिक इतिहास) लेखक साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर संयोजन साहित्य वाचस्पति भंवरलाल नाहटा 2010_04 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति-स्थान: देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी १३ - ए, मेन मालवीय नगर जयपुर- ३०२ ०१७ दूरभाष : ०१४१ - ५२४८२७, ५२४८२८ जुल जैन मैनेजिंग ट्रस्टी एस०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट, मेन मालवीय नगर १३ - ए, जयपुर- ३०२ ०१७ दूरभाष : ०१४१- ५२४८२८, मोबाईल सम्पादन-सहयोग मूल्य: ६००/ प्रथम संस्करण, २००४ द्वितीय संस्करण, २००5 म० विनयसागर - लेजर टाईप सैटिंग श्री ग्राफिक्स, जयपुर मुद्रक: पोपुलर प्रिन्टर्स, 2010_04 जयपुर ९३१४८८९९०३ डॉ० शिव प्रसाद, सम्पादक - KHARTAR-GACHCHHA-KA-BRIHAT ITIHAAS FIRST PART श्रमण, वाराणसी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रकाशकीय प्राकृत भारती अकादमी एवं एम०एस०पी०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट एवं अन्य संयुक्त प्रकाशकों द्वारा खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास ग्रन्थ का सुन्दरतम प्रकाशन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। जैन धर्म के अभ्युदय और विकास में विविध गच्छों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी कारण प्राकृत भारती अकादमी की प्रकाशन योजनाओं में गच्छों के इतिहास का कार्य आरम्भ किया गया था। तपागच्छ और अंचलगच्छ के पश्चात् अब शृंखला की संभवतः सबसे प्राचीन व महत्वपूर्ण कड़ी खरतरगच्छ का बृहद इतिहास की योजना का प्रथम चरण सम्पूर्ण हुआ है। भगवान् महावीर की परम्परा के जिस अंग को हम खरतरगच्छ के नाम से जानते हैं वास्तव में उसका प्रादुर्भाव १०६६ से १०७२ के बीच किसी समय सुविहित शाखा के रूप में हुआ था। पाटण नरेश दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से वर्धमानसूरि के निर्देश पर जिनेश्वर सूरि ने शास्त्रार्थ किया और इन्हें पराजित किया। चैत्यवास के शिथिलाचार पर आगम सम्मत विशुद्ध आचार के पालन करने वाले समुदाय की विजय के साथ सुविहित शाखा स्थापित हुई। दुर्लभराज द्वारा दिया गया विरुद खरतर जनश्रुति में तो आ गया था पर यह शाखा उस समय सुविहित नाम से ही जानी जाती थी। कालान्तर में सुविहित-विधि पक्ष नाम से प्रसिद्ध इस शाखा ने लोकश्रुति के अनुसार खरतरगच्छ विरुद अपना लिया। खरतरगच्छ आज के विद्यमान व जीवन्त गच्छों में सबसे प्राचीन है। इसके मनीषी, आचार्यों और श्रमण-श्रमणियों ने हमारी धार्मिक व सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण रखा है और समय-समय पर अपने महत्वपूर्ण योगदान से समृद्ध किया है। जिनशासन की प्रभावना के महती कार्य में भी पिछली सहस्त्राब्दि में खरतरगच्छ का योगदान अतुलनीय है। देश के कोने-कोने में खरतरगच्छ द्वारा स्थापित १५०० से अधिक दादाबाडियाँ आज भी विद्यमान हैं, जीवन्त हैं और इस गच्छ द्वारा जैन धर्म के प्रचार प्रसार की कहानी कह रही हैं। आगम व अन्य साहित्य के क्षेत्र में नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि के प्रति कृतज्ञता जैन धर्म की परवर्ती सभी आम्नाओं के मनीषी नि:संकोच उन्हें आप्त पुरुष मानकर प्रकट करते रहे हैं। खरतरगच्छ के अन्य अनेक विविध विषयों के विद्वानों के कार्यों में साहित्य व संस्कृति का कोई भी आयाम अछूता रह गया हो ऐसा नहीं लगता। साहित्य रचना के अतिरिक्त, आने वाली पीढियों का ध्यान रखते हुए ग्रंथ भंडारों की स्थापना और उसके लिए ग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण की जो अनूठी परिपाटी इस गच्छ ने स्थापित और परिपुष्ट की उसका आज भी दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। खरतरगच्छ के साहित्य सेवियों की एक अन्य विशेषता यह रही कि उन्होंने मात्र जैन साहित्य के क्षेत्र तक अपने आपको सीमित नहीं रखा अपितु जैनेतर साहित्य पर भी उतनी ही रुचि और लगन से काम किया। इस प्रकार यह स्वीकार करने में किसी को कोई हिचक नहीं है कि खरतरगच्छ के विद्वानों ने जैन संस्कृति मात्र को नहीं मानव संस्कृति को भी अपनी साहित्य सेवा से समृद्ध किया है। खरतरगच्छ का एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान सामाजिक संरचना को सुदृढ़ करने के क्षेत्र में रहा है। ऐतिहासिक युग में सर्वप्रथम दादागुरु जिनदत्तसूरि ने गोत्रों की स्थापना कर श्वेताम्बर समाज को एक व्यवस्थित ___ 2010_04 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और संगठित रूप प्रदान किया। उनके परवर्ती आचार्यों ने भी यह परम्परा चालू रखी। समस्त श्वेताम्बर जैन समाज खरतरगच्छ के इस अद्भुत प्रयोग से प्रभावित है, इसका जीवन्त साक्ष्य यह है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर जैन समाज में आज जितने गोत्र प्रचलित हैं उनमें से ८० प्रतिशत से अधिक जिनदत्तसूरि व उनकी परम्परा द्वारा स्थापित किए गए हैं - चाहे वर्तमान में वे किसी भी आम्नाय से जुड़े हों। विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच भी श्वेताम्बर समाज को यह एक सूत्र आज भी बाँधे हुए है। मानव जीवन के अन्य सभी पहलुओं के समान ही इस गच्छ ने भी अनेक उतार-चढाव देखे हैं। इतिहास की इस यात्रा के अनेक साक्ष्य अनेक स्थानों पर बिखरे पड़े हैं। गच्छों के इतिहास लेखन की इस कडी में उन बिखरे साक्ष्यों को एक स्थान पर लाने का प्रयास किया जा रहा है। किन्तु यह कार्य किसी एक व्यक्ति के लिए एक सीमित काल परिधि में कर पाना संभव नहीं है। इसी तथ्य से प्रेरित हो इस इतिहास को भविष्य के शोधार्थियों को ध्यान में रख कर संयोजित किया गया है। ___ खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली के आधार पर आरम्भ किये गए इस इतिहास में पुस्तक के विद्वान् संपादकों ने अन्य अनेक उपलब्ध ग्रन्थों से तो सामग्री संकलित की ही है, साथ ही अन्य अनेक स्रोतों से भी महत्वपूर्ण साक्ष्य व सामग्री एकत्र की है। प्राकृत भारती अकादमी के निदेशक साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर ने इस योजना की धुरि के रूप में दीर्घकालीन अथक परिश्रम से इतिहास के अन्य साक्ष्यों तथा इतिहास मर्मज्ञ स्व० श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा संकलित ऐतिहासिक सूत्रों के आधार पर इस इतिहास को समृद्ध व प्रामाणिक बनाया। डॉ० शिवप्रसाद ने इस कार्य में यथा संभव सहयोग प्रदान किया। खरतरगच्छ के इतिहास के इस वितान में सामाजिक व सांस्कृतिक सूचनाओं एवं विशिष्ट व्यक्तियों व घटनाओं का भी रोचक व शिक्षाप्रद वर्णन सम्मिलित किया गया है। खरतरगच्छ से संबंधित विविध सूचना सामग्री के इस विशाल संकलन को सहजगम्य बनाने के लिए प्रथम भाग में चार विशेष परिशिष्ट दिये गये हैं जिनमें अकारान्त क्रम में सूचियाँ दी गई हैं। इस योजना को क्रियान्वित व सम्पन्न करने के लिए हम इसके मनीषी संपादकों के प्रति आभार प्रकट करते हैं। साथ ही विभिन्न संस्थाओं, स्थानीय संघों व व्यक्तिगत दानदाताओं के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने श्रद्धेय साधु-साध्वियों की प्रेरणा से इस प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रन्थ पाठकों के लिए रोचक व शिक्षाप्रद सिद्ध होगा और शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा प्रेरक भी। मंजुल जैन __ संयुक्त प्रकाशक एवं सहयोगीगण मैनेजिंग ट्रस्टी एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी 2010_04 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (समर्पण स्वर्ग-पृथ्वी-पाताल में स्थित उन पावन जिन-मन्दिरों को, जिनके स्मरण और दर्शन मात्र से भव-भव के पाप विलीन हो जाते हैं। - म० विनयसागर 2010_04 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_04 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलम् जैन धर्म के सबसे प्राचीन गच्छ खरतरगच्छ के अवढरदानी आचार्यों का जैन संघ पर ही नहीं, अपितु संपूर्ण मानव जाति के विकास में बहुत योगदान रहा है। ओसवाल समाज की संरचना व विस्तार उन आचार्यों के साधना पक्ष की निर्मलता का ही इतिहास है। दूर-सुदूर प्रदेशों में विचरण कर बिखरे हुए भारतीय समाज को अप्रत्यक्ष रूप से एकत्र करने में उनकी भूमिका को रेखांकित किये बिना कोई भी इतिहास आधा अधूरा ही माना जायेगा। इतिहास मानवीय मन को सदा ही आकृष्ट करता रहा है। पन्नों पर अंकित अपने पूर्वजों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को ज्यों-ज्यों वह पढता है, त्यों-त्यों उसे ऐसा लगता है, जैसे वह उनसे साक्षात्कार कर रहा है । इतिहास को इसीलिये तो गवाक्ष कहा जाता है क्योंकि इसी गवाक्ष से हम अपने स्वर्णिम अतीत में झांक सकते हैं। इतिहास मात्र अपने पूर्वजों की कहानी कहकर ही इतिश्री नहीं करता बल्कि वर्तमान पीढी के लिये वह प्रेरणा का पाथेय भी बनता है। इतिहास की सार्थकता को कोई भी नकार नहीं सकता। प्राणी जगत विस्मरणशील है। वह घटनाओं का साक्षी होकर भी लम्बे समय तक उसकी स्मृति अपने मस्तिष्क में संजोकर नहीं रख सकता। घटनाओं को स्मृति में बनाये रखने का कार्य उन्हें लिपिबद्ध करने से ही होता है। वह लिपिबद्ध घटनाक्रम ही भविष्य में इतिहास के नाम से जाना जाता है। ___ जैन धर्म के आचार्य, साधुगण प्रसिद्धि की कामना से सदैव दूर ही रहे हैं। वे अपनी आचार निष्ठा के ही पुरुषार्थी रहे । इस कारण अन्य बाह्य क्रियाओं से निर्लिप्त ही रहे। उनकी यह अलिप्तता उनके व्यक्तित्व की गरिमा और साधना की पूर्णता के पूर्ण अनुकूल थी। इस कारण इतिहास की सूक्ष्मता और विशालता के आलेखन के लिये वे रुचिवान् नहीं रहे । इसलिये इतिहास का विस्तार हमें पूर्ण मात्रा में उपलब्ध नहीं होता। फिर भी हमें जितना उपलब्ध है वह भी पर्याप्त है। हम इस उपलब्धि से भी अपने उन दिव्य तपोमूर्तियों की झांकी पा सकते हैं और वह झांकी भी कम मूल्यवान् नहीं है। खरतरगच्छ परम्परा जैन समाज की सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है। इस परम्परा में साधना, साहित्य, तीर्थ-स्थापना, ज्ञान भंडारों की स्थापना, संघ विस्तार आदि आयामों में ऐसे मूल्यवान् व्यक्तित्वों का सर्जन किया है जो आज भी प्रकाशस्तंभ बन कर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। परमात्मा महावीर के निर्वाण के बाद उनकी मूलवाणी को स्पष्ट करने के लक्ष्य से उन पर टीकाएँ लिखने वाले नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि इसी परम्परा की देन है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद जैन संघ के विस्तार का रिकार्ड आज भी दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि के नाम है, वे भी इसी परम्परा के _ 2010_04 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमोल हीरे हैं। निर्दोष पानी न मिलने के कारण प्राणोत्सर्ग करना मंजूर है, पर सदोष पानी अस्वीकार है, ऐसा तेजस्वी संकल्प करने वाले जिनमाणिक्यसूरि भी इसी परम्परा की अनमोल थाती है तो मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में आचार्य पद प्राप्त करने वाले मणिधारी जिनचन्द्रसूरि इसी अमृतमयी गंगा की धारा है । नि:संदेह हमारे पास इतिहास के ऐसे-ऐसे उजले पृष्ठ हैं, जिन पर कोई भी गर्व कर सकता है। हम गौरवान्वित हैं इस चमकती दमकती त्याग एवं साधना से महिमा मंडित परम्परा प्रवाह से। इतिहास पढना, इतिहास की घटनाओं का कहना, सुनना बहुत आसान है पर इतिहास लिखना अत्यन्त श्रमसाध्य दुरूह कार्य है। हजारों वर्ष पूर्व घटित घटनाओं को आँखों देखी घटना की भाँति लिखना लेखक के लिए चुनौतीपूर्ण है। इसमें उसके धीरज की कसौटी भी है। इतिहास की सुरक्षा के बारे में हमारा समाज सजग नहीं है। इतिहास की महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित कई पोथियाँ मात्र भंड़ारों की शोभा बढा रही हैं। वे संपादन हेतु उपलब्ध नहीं हो पातीं । कई पोथियाँ हमारे समाज की लापरवाही का भोग होकर दीमक का आहार बन चुकी हैं। तो अवशेष पोथियों पर काम करने का हमारे पास पर्याप्त समय भी नहीं है । इतिहास की खोज का दूसरा मुख्य आधार शिलालेख है। प्रशस्तियों में, प्रतिमाओं के शिलालेखों में इतिहास के महत्वपूर्ण लेख अंकित हैं। उन पर भी हमारा ध्यान नहीं है। बहुधा प्रतिष्ठा आदि के अवसरों पर उन शिलालेखों पर लापरवाही के साथ सीमेन्ट पोत दिया जाता है। खसकुंची आदि के प्रयोग के कारण वे घि हैं। और इसका महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक साक्ष्य नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में इतिहास-लेखन बहुत मुश्किल कार्य है। 1 परम विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने इस कठिन बीड़े को उठाया ही नहीं बल्कि इसे सफलतापूर्वक संपन्न करके साहित्य जगत को लाभाविन्त किया है। साथ ही खरतरगच्छ समाज को भी उपकृत किया है। नि:संदेह खरतरगच्छ परम्परा उनके इस महान् अवदान को कभी भी विस्मृत नहीं कर सकेगी। इस इतिहास-लेखन से उनका सर्वतोभावेन गच्छ समर्पण मुखर हुआ है। नि:संदेह उम्र के इस संध्याकाल में उनके द्वारा सम्पन्न यह महत्वपूर्ण कृति बधाई योग्य है। उन्होंने एक बहुत बड़ी पूर्ति की है। मैं इस प्रकाशन पर उन्हें बधाई देने के साथ अपनी शुभकामना प्रस्तुत करता हूँ । बैंगलोर 2010_04 उपाध्याय मणिप्रभ सागर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास स्वकथ्य विषय सूची भूमिका [- XVIII IXI - XLIV विवरण पृष्टांक खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य-गुर्वावलि : १ - २०८ ० मङ्गलाचरण (पृष्ठ १), ० आचार्य श्री वर्धमानसूरि (१), ० आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि (२), ० आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (१४),. ० नवाङ्गी-टीकाकार श्री अभयदेवसूरि (१४), ० आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि (२१), ० युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि (४०), ० मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि (५४), ० युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि (६२),आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि - द्वितीय (१२४),0 आचार्य श्री जिनप्रबोध सूरि (१३९), 0 कलिकालकेवली श्री जिनचन्द्रसूरि (१४९), ० युगप्रधान श्री जिनकुशसूरि (१६८),० आचार्य श्री जिनपद्मसूरि (२०२) ।। खरतरगच्छपट्टावल्यादिसंग्रह : २०९ - २५९ o आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि (२०९), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२१०), 0 आचार्य श्री जिनोदयसूरि (२११),० आचार्य श्री जिनराजसूरि - प्रथम (२१५), आचार्य श्री जिनभद्रसूरि (२१६),० आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२१९), आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि (२१९), 0 आचार्य श्री जिनहंससूरि (२२०),० आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि (२२१), ० युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि (२२३),० आचार्य श्री जिनसिंहसूरि (२३३), 0 आचार्य श्री जिनराजसूरि - द्वितीय (२३५), आचार्य श्री जिनरत्नसूरि (२३७), ० आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२३८), 0 आचार्य श्री जिनसुखसूरि (२३९), आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि (२४०),० आचार्य श्री जिनलाभसूरि (२४२),0 आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२४५),० आचार्य श्री जिनहर्षसूरि (२४६), o आचार्य श्री जिनसौभाग्यसूरि (२४७), आचार्य श्री जिनहंससूरि (२५२),० आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२५५), आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि (२५५), आचार्य श्री जिनचारित्रसूरि (२५५),० आचार्य श्री जिनविजयेन्द्रसूरि (२५७), ० श्रीपूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२५९) ।। खरतरगच्छ की शाखाओं का इतिहास २६० - ३२६ ० १. मधुकर शाखा (२६०), ० २. रुद्रपल्लीय शाखा (२६१), _ 2010_04 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ३. लघु खरतर शाखा ( २६५ - २६७ ) ० आचार्य श्री जिनसिंहसूरि ( २६५), O आचार्य श्री जिनप्रभसूरि (२६५), O जिनदेवसूरि - जिनमेरुसूरि - जिनहितसूरि (२६६ ), 0 जिनसर्वसूरि - जिनचन्द्रसूरि - जिनसमुद्रसूरि - जिनतिलकसूरि - जिनराजसूरि - जिनचन्द्रसूरि - जिनभद्रसूरि - जिनमेरुसूरि - जिनभानुसूरि (२६७) । O ४. बेगड़ शाखा (२६८ - २७९ ) ० आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि (२६८), आचार्य श्री जिनशेखरसूरि (२६९), आचार्य श्री जिनधर्मसूरि (२७०), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२७१), आचार्य श्री जिनमेरुसूरि (२७२), आचार्य श्री निगुणप्रभसूरि (२७३), आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि (२७६), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२७६), आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि (२७८), आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि (२७८), आचार्य श्री जिनोदयसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि - आचार्य श्री जिनक्षेमचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२७९) । O ५. पिप्पलक शाखा ( २८० - २८७ ) ० आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि (२८०), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनसागरसूरि आचार्य श्री जिनसुन्दसूरि (२८३), आचार्य श्री जिनहर्षसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनशीलसूरि आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि आचार्य श्री जिनसिंहसूरि ( २८४ ), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनरत्नसूरि आचार्य श्री जिनवर्द्धमानसूरि आचार्य श्री जिनधर्मसूरि - आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (शिवचन्द्रसूरि ) (२८५) । O ६. आद्य पक्षीय शाखा (२८८ - २९२ ) 0 आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि आचार्य श्री जिनदेवसूरि (२८८), आचार्य श्री जिनसिंहसूरि - आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (पंचायण भट्टारक) आचार्य श्री जिनहर्षसूरि ( २८९), आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२९०), आचार्य श्री जिनोदयसूरि - आचार्य श्री जिनसंभवसूरि आचार्य श्री जिनधर्मसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि - आचार्य श्री जिनबुद्धिवल्लभसूरि - आचार्य श्री जिनक्षमारत्नसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२९१) । - - - 2010_04 - ० ७. भावहर्षीय शाखा (२९३ - २९६ ) ० आचार्य श्री भावहर्षसूरि (२९३), आचार्य श्री जिनतिलकसूरिआचार्य श्री जिनोदयसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि आचार्य श्री जिनरत्नसूरि आचार्य श्री जिनप्रमोदसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२९४), आचार्य श्री जिनसुखसूरि आचार्य श्री जिनक्षमासूरि आचार्य श्री जिनपद्मसूरि - आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (२९५), आचार्य श्री जिनफतेन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि (२९६) । - - - O ८. आचार्य शाखा (२९७ - ३०८) ० आचार्य श्री जिनसागरसूरि (२९७), आचार्य श्री जिनधर्मसूरि (२९८), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनविजयसूरि आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि (२९९), आचार्य श्री जिनयुक्तिसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनोदयसूरि (३००), आचार्य श्री जिनहेमसूरि - आचार्य श्री जिनसिद्धिसूरि - आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनसोमप्रभसूरि (३०१), महोपाध्याय समयसुन्दर (३०२), श्रीमद् देवचन्द्र (३०५) । - -w O ९. श्री जिनरंगसूरि शाखा (३०९ - ३१७) ० श्री जिनरंग सूरि (३०९), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनविमलसूरि (३१०), आचार्य श्री जिनललितसूरि आचार्य श्री जिनाक्षयसूरि (३११), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२), आचार्य श्री जिननन्दिववर्द्धनसूरि (३१३), आचार्य श्री जिनजयशेखरसूरि - आचार्य श्री जिनकल्याणसूरि (३१४), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (३१५), आचार्य श्री जिनरत्नसूरि (३१६), आचार्य श्री जिनविजयसेनसूरि (३१७) । ० १०. मण्डोवरा शाखा (३१८-३२३) 0 आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि (३१८), आचार्य श्री जिनमुक्तिसूरि (३२०), आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरि (३२२), (महोपाध्याय उदयचन्दजी, कोतवाल मोतीचन्द्रजी, (३२३) । ० दिङ्मण्डलाचार्य शाखा (३२४ - ३२६) ० आचार्य कुशलचन्द्रसूरि (३२४), उपाध्याय राजसागर गणि - उपाध्याय रूपचन्द्र गणि - आचार्य बालचन्द्राचार्य (३२५), आचार्य नेमिचन्द्रसूरि - आचार्य श्री हीराचन्द्रसूरि (३२६)। खरतरगच्छ की उपशाखाओं का इतिहास ३२७ - ३५१ 0 श्री क्षेमकीर्ति उपशाखा (३२७ - ३३५) ० श्री सागरचन्द्रसूरि उपशाखा (३३६ - ३३९) ० श्री जिनभद्रसूरि उपशाखा (उपाध्याय साधुकीर्ति और उनका शिष्य परिवार - ३४१ - ३४४) (जयसागर उपाध्याय और उनकी शिष्य परम्परा - ३४४ - ३४७), ० श्री कीर्तिरत्नसूरि उपशाखा (३४८ - ३५१) खरतरगच्छ की संविग्न साधु-परम्परा का इतिहास ३५२ -३९८ १. ० श्री सुखसागरजी म० का समुदाय (३५२-३७५) १. उपाध्याय श्री प्रीतिसागर गणि (३५२), २. वाचक श्री अमृतधर्म गणि, ३. उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण (३५३), ४. श्री धर्मानन्द, ५. श्री राजसागर (३५६), ६. श्री ऋद्धिसागर, ७. गणाधीश श्री सुखसागर (३५७), ८. गणाधीश श्री भगवानसागर, ९. गणाधीश श्री छगनसागर (३५८), महोपाध्याय सुमतिसागर (३५९), १०. गणाधीश श्री त्रैलोक्यसागर, ११. आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरि (३६०), आचार्य श्री जिनमणिसागरसूरि (३६२), १२. आचार्य श्री जिनानंदसागरसूरि (३६६), १३. आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि (३६७), १४. गणाधीश श्री हेमेन्द्रसागर, १५. आचार्य श्री जिन उदयसागरसूरि (३६८), १६. आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरि (३६९), १७. आचार्य श्री जिनमहोदयसागरसूरि (३७०), १८. गणाधीश श्री कैलाशसागर - उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर (३७१), गणि श्री महिमाप्रभसागर - गणि श्री पूर्णानन्दसागर - श्री मनोज्ञसागर (३७२), मुनि श्री सुयशसागर - मुनि श्री पीयूषसागर - मुनि श्री मणिरत्नसागर (३७३), महोपाध्याय क्षमाकल्याण परम्परा का वंशवृक्ष (३७४)। २. ० श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि का समुदाय (३७६-३८०), १. आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि (३७६), २. आचार्य श्री जिनजयसागरसूरि, ३. उपाध्याय श्रीसुखसागर ___ 2010_04 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७८), मुनि श्री कान्तिसागर (३८०)। ३. ० महान् प्रतापी श्री मोहनलालजी का समुदाय (३८१-३९८), १. मोहनलालजी महाराज (३८१), २. आचार्य श्री जिनयश:सूरि (३८२), ३. आचार्य श्री जिनऋद्धिसूरि (३८५), ४. आचार्य श्री जिनरत्नसूरि (३८७), उपाध्याय श्री लब्धिमुनि (३९२), गणिवर्य श्री बुद्धिमुनि (३९४), मुनि श्री जयानन्द (३९६), श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय का वंशवृक्ष (३९८) । खरतरगच्छ साध्वी-परम्परा का इतिहास - १ ३९९ - ४०७ श्री सुखसागर जी के समुदाय की साध्वी-परम्परा का इतिहास - २ ४०८ - ४२५ 0 साध्वी उद्योतश्री (४०८), १. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी का समुदाय - (४०९ - ४१९) ०१. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीजी, २. प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्री (४०९), ३. प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्री (४११), ४. प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री (४१२), ५. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री (४१३), ६. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री (४१५),७. प्रवर्तिनी श्री तिलकश्री - श्री विनीताश्री - श्री चन्द्रकलाश्री (४१६), श्री चन्द्रप्रभाश्री - श्री मनोहरश्री - श्री सुरंजनाश्री (४१७), श्री मणिप्रभाश्री - श्री शशिप्रभाश्री - श्री सूर्यप्रभाश्री (४१८), श्री विमलप्रभाश्री - श्री दिव्यप्रभाश्री - श्री कमलश्री (४१९) । २. प्रवर्तिनी श्री शिवश्रीजी का समुदाय - ( ४२० - ४२५) ० प्रवर्तिनी श्री शिवश्री, १. प्रवर्तिनी श्री प्रतापश्री, २. प्रवर्तिनी श्री देवश्री (४२०), ३. प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्री (श्री अनुभवश्री - श्री विनोदश्री - श्री हेमप्रभाश्री - श्री सुलोचनाश्री, श्री सुलक्षणाश्री) (४२१), ४. प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्री, ५. प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री (श्री प्रकाशश्री - श्री विजयेन्द्रश्री - श्री रत्नमालाश्री एवं डॉ० विद्युत्प्रभाश्री)(४२२), ६. प्रवर्तिनी श्री जिनश्री (४२३), ७. प्रवर्तिनी श्री हेमश्री, ८. महत्तरा श्री मनोहर श्री, ९. प्रवर्तिनी श्री विद्वान्श्री (४२२), श्री निपुणाश्री (४२५) परिशिष्ट - खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास - गत ४२६ - ५०४ १. प्रथम परिशिष्ट - आचार्य-साधु-साध्वियों की नाम सूची (४२६-४६३) द्वितीय परिशिष्ट - श्रावक-श्राविकाओं की विशेष नाम सूची (४६४-४८१) तृतीय परिशिष्ट - नृपति-मंत्री-दण्डनायक आदि सत्ताधारी जनों की विशेष नामानुक्रमणी (४८२-४८७) चतुर्थ परिशिष्ट - स्थलज्ञापक विशेष नामानुक्रमणी (४८८-५०४) २. 2010_04 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन धर्म अहिंसा, सत्य और अनेकान्त का संदेशवाहक है। इसने सदा वे ही मापदण्ड अपनाये हैं, जिनमें जीवन के नैतिक मूल्यों को संवहन करने की शक्ति है। कमल की भाँति निर्लिप्त जीवन जीने की कला सिखाने वाला यही धर्म है। यह जीवन, गणित एवं विज्ञान की विजय का एक चिरस्थायी अद्भुत स्मारक है। इस धर्म-परम्परा को जीवित एवं विशुद्ध बनाये रखने के लिए समय-समय पर अनेक अमृत-पुरुष हुए, जिन्होंने तीर्थंकर और आचार्य-पदस्थ होकर धर्मसंघ को स्थापित एवं संचालित किया। वस्तुतः आचार्यों, मुनियों, साध्वियों, राजाओं, श्रावकों और श्राविकाओं के सामूहिक अथक योगदान के फलस्वरूप ही इस धर्म का अस्तित्व निरन्तर बना रहा। __ सैद्धान्तिक मतभेदों को लेकर अथवा संघीय व्यवस्था को समुचित रूप से चलाने के लिए जैन धर्म में कई भेदोपभेद हुए, अनेक शाखाएँ एवं गच्छ प्रकट हुए। सभी गणों, शाखाओं, कुलों का काफी महिमापूर्ण इतिहास रहा है। धर्म-संघ पर इनका अनुपम प्रभुत्व एवं वर्चस्व भी रहा होगा। इनमें से कतिपय गण, कुल, शाखा तो ऐतिहासिक दृष्टि से अपना गरिमापूर्ण स्थान रखते हैं। खरतरगच्छ श्वेताम्बर परम्परा के कोटिक-गण की वज्र-शाखा से सम्बद्ध है। खरतरगच्छ का प्रवर्तन ___ कोई भी धर्म सदा एक-सा बना रहे, यह कम सम्भव है। प्रत्येक धर्म में ह्रास और विकास हुआ है, क्षीणता और व्यापकता आई है। जैन धर्म ने भी कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। धर्म-संघ के समय-समय पर हुए विच्छेदों ने उसकी एकरूपता तथा एकसूत्रता को भले ही क्षति पहुँचायी हो, लेकिन विभिन्न प्रकार के गण, कुल, शाखा, गच्छ, समुदाय एक-से-एक निःसृत होते हुए भी भगवान् महावीर के पथ से च्युत नहीं हुए और जिन क्षणों में धर्मसंघ पदच्युत होने लगा, उसी समय खरतरगच्छ ने प्रकट होकर धर्मरथ की बागडोर थाम ली। ___ जैन धर्म के लिए यह बात सुप्रसिद्ध है कि यह एक आचार-प्रधान धर्म रहा है। यह तत्त्व-निष्ठा और आचार-निष्ठा को समान महत्त्व देता है। चाहे श्रमण हो या श्रावक अथवा समस्त संघ का प्रतिनिधित्व करने वाला आचार्य हो, सब के लिए तात्त्विक एवं आचारमूलक आदर्श अनुकरणीय रहा। धर्म के निर्देश तो सब के लिए एक-से एवं चिरस्थायी होते हैं। इसलिए धर्म कभी भी उस छूट के मार्ग की अनुमोदना नहीं करता, जो जीवन-मूल्यों को पतनोन्मुख बनाता हो। पर मनुष्य सुविधावादी है। वह अपनी सुविधाओं भूमिका (१) 2010_04 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार धर्म-निर्दिष्ट आचार-परम्परा में आमूल-चूल परिवर्तन तो नहीं कर पाता, किन्तु उसमें उच्चता या शिथिलता तो स्वीकार कर सकता है। भगवान् महावीर का तत्कालीन श्रमण-संघ तो समरूपेण आचार एवं विचारनिष्ठ था। उनके समसामयिक एवं परवर्तीकाल में हुए श्रमणों तथा श्रमणाचार्यों ने अपने योगबल, ज्ञानबल और चारित्रबल के द्वारा आत्मोत्थान किया। इसे काल का दुष्प्रभाव समझें या भाग्य की विडम्बना कि तत्परवर्तीकाल में आचार-निष्ठता धूमिल होने लगी और शिथिलता की महामारी से अनेक श्रमण ग्रसित हो गये। यद्यपि श्रमणोचित धर्म का परिपालन न करने के कारण वे श्रमण कहलाने की अधिकारी ही नहीं थे, तथापि वे स्वयं को श्रमण कहते और उसी रूप में ही प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त करते। यह वर्ग ही परवर्ती काल में चैत्यवासीयतिवर्ग के रूप में प्रसिद्ध हुआ। चैत्यवासी यतिजनों की बहुलता हो जाने के कारण जिनोपदिष्ट आगमिक आचार-दर्शन का सम्यक्तया पालन करने वाले श्रमण गिनती के ही रह गये। शास्त्रोक्त यतिधर्म या श्रमणधर्म के आचार-व्यवहार में और चैत्यवासी यतिजनों के आचार-व्यवहार में परस्पर असंगति होने से धार्मिक क्रान्ति अनिवार्य थी। इस ओर सर्वप्रथम कदम उठाया आचार्य जिनेश्वरसूरि ने। इन्होंने चैत्यवासी यति-श्रमणों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया। उन्हीं के प्रयासों का यह सुमधुर फल था कि आगमिक आचार-दर्शन के मार्ग की पुनर्स्थापना हुई। इसके लिए ग्यारहवीं सदी में श्री वर्धमानसूरि के नेतृत्व एवं बुद्धिसागरसूरि के सहभागित्व में जिनेश्वरसूरि ने सुविहित मार्ग-प्रचारक एक नया गण स्थापित किया, जो खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। यह गण अविच्छिन्न एवं अक्षुण्ण रूप से गतिशील रहा। इस गच्छ की स्थापना के संदर्भ में हम प्रस्तुत ग्रन्थ में विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे। जैन धर्म को इसने जो अनुदान किया, उसका अपने-आप में ऐतिहासिक मूल्य है। खरतरगच्छ का वैशिष्ट्य खरतरगच्छ वह परम्परा है जिसने चैत्यवास और मुनि-जीवन के शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति की। इस गच्छ में हुए आचार्यों के द्वारा चैत्यवास का उन्मूलन और सुविहित मार्ग का प्रचार करने के कारण ही आज तक श्रमण-धर्म प्रतिष्ठित रहा। खरतरगच्छ की यह तो प्राथमिक सेवा है, साहित्य-साधना और सामाजिकसेवा भी खरतरगच्छ की अन्य विशेषताओं में प्रमुख है। इस मत का समाज पर इतना वर्चस्व एवं प्रभुत्व छाया कि हजारों लोगों ने इसमें निर्ग्रन्थ-दीक्षा ली और लाखों लोगों ने इसका अनुगमन किया। समाज में सर्वाधिक प्रसिद्ध ओसवाल-जाति का विस्तार इसी गच्छ की देन है। (२) भूमिका 2010_04 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः इन सभी विशेषताओं के कारण ही खरतरगच्छ का नाम गौरवान्वित हुआ और इसकी परम्परा में हुए श्रमण एवं श्रमणाचार्य जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र बने। ___ खरतरगच्छ स्वयं में अनेक विशेषताओं को समेटे है। यहाँ हम इस गच्छ की कुछ विशिष्ट उपलब्धियों पर चर्चा कर रहे हैं। १. शिथिलाचार का उन्मूलन : एक क्रान्तिकारी चरण जैसे नदी की धारा में घटोतरी और बढ़ोतरी होती है, वैसे ही जैन धर्म में भी क्षीणता और व्यापकता आई। धर्म-परम्परा एवं विधि-विधानों के अमृत में लोगों ने यों जहर घोला कि अमृत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। खरतरगच्छ ने धर्म, संघ एवं परम्परा को इस जहरीले वातावरण से न केवल मुक्त किया, वरन् अमृत-जीवन की पगडंडी पर आरूढ़ किया। खरतरगच्छीय परम्परा में हुए आचार्यों/मुनियों की देन जैन-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। खरतरगच्छ की परम्परा प्रकट नहीं होती तो आज शायद जैन मन्दिर/जिनालय भोगलिप्सा के साधन और जैन साधु मठाधीश या पण्डों के रूप में दृष्टिगत होते। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार खरतरगच्छ के आचार्यों का मैं तो सबसे बड़ा कार्य यह समझता हूँ कि राज-विरोध, जन-विरोध, श्रेष्ठि-विरोध की कुछ परवाह न कर उन्होंने अनाचार एवं अनैक्य की जड़ पर कुठाराघात किया। उन्होंने जैन धर्म का मार्ग सर्व ज्ञातियों के लिए खोला, सब को समानाधिकार देकर एक सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। शिथिलाचार का उन्मूलन करने के लिए आचार्य जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। खरतरगच्छ ज्ञानमूलक आचार को मुख्यता देता रहा है। अतः गच्छ में यदि कभी शिथिलाचार के दीमक लगे, तो गच्छ-स्थविर जागरूकतापूर्वक शिथिलाचार को समाप्त करते। यही कारण है कि अपनी आचार-परम्परा को निर्मल एवं पवित्र बनाये रखने के लिए खरतरगच्छाचार्यों ने समय-समय पर 'क्रियोद्धार' किया। अकबर प्रतिबोधक आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा किया गया 'क्रियोद्धार' खरतरगच्छ की आचार-परम्परा को जीवन एवं विशुद्ध बनाने का महत्त्वपूर्ण कदम था। २. शास्त्रीय विधानों की पुनर्स्थापना चैत्यवासी लोगों ने अपनी सुविधा एवं मनोभावना के अनुरूप अपना आचार-व्यवहार बना रखा था। धर्म-संघ से सम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति को अपना आचार शास्त्र-सम्मत सिद्ध करना भी अनिवार्य है। अनुयायी लोग सामान्यतया भोले-भाले एवं शास्त्रों की गूढ बातों से अनभिज्ञ होते हैं। चैत्यवासी यतिवर्ग ने इस कमजोरी का लाभ उठाया। उन्होंने शास्त्रीय बातों की अपने ढंग से व्याख्याएँ की और भोलीभाली जनता को गुमराह करने की कोशिश की। भूमिका 2010_04 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ का अभ्युदय शास्त्रोक्त आचार-व्यवहार के पालन में आई कमजोरी को दूर करने के लिए ही हुआ था। अतः शास्त्रीय विधानों की सम्यक् व्याख्या एवं पुनः स्थापना खरतरगच्छ द्वारा होनी स्वाभाविक ही थी। खरतरगच्छाचार्यों ने अशास्त्रीय, अकरणीय और अवांछनीय का खण्डन करके शास्त्रीय, करणीय एवं वांछनीय तत्त्वों का मण्डन और नवनिर्माण किया। खरतरगच्छाचार्यों ने श्रमण साधुओं के लिए भी निम्नांकित कर्त्तव्यों का परिपालन करना अनिवार्य बताया, जिनके बिना साधु, साधु नहीं, अपितु सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ जैसा है। (१) अशुद्ध और स्वयं के लिए निर्मित भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। (२) चैत्य आत्म-साधना का स्थान है। अत: वहाँ निवास नहीं करना चाहिए। (३) चैत्यों/जिन मंदिरों के अर्थ का उपभोग और वहाँ गृहस्थ-धर्म का सेवन अनुचित है। (४) गद्दी आदि का आसन, तत्सम्बन्धित कामोद्दीपक साधन और आस्रवपूर्ण क्रियाओं का परित्याग होना चाहिए। (५) सिद्धान्त-मार्ग की अवज्ञा, उन्मार्ग/उत्सूत्र की प्ररूपणा, सन्मार्ग प्ररूपक आत्मसाधक-मुनियों की अवहेलना एवं गुणीजनों की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए आदि-आदि। इसी प्रकार अन्य भी अनेक छोटे-बड़े विधान 'विधि-चैत्य' और साधुगण के लिए प्ररूपित किये गये। खरतरगच्छ की मान्यताओं, विधानों एवं व्यवस्थाओं का विस्तृत विवरण जिनवल्लभसूरि रचित 'पौषधविधि', मणिधारी जिनचन्द्रसूरि रचित 'पदव्यवस्था कुलक', आचार्य जिनप्रभसूरि रचित 'विधिप्रपा', रुद्रपल्लीय आचार्य वर्धमानसूरि रचित 'आचारदिनकर' और समयसुंदर रचित 'समाचारी-शतक' आदि ग्रन्थों में द्रष्टव्य है। ३. शास्त्रार्थ-कौशल खरतरगच्छ का तो आविर्भाव ही शास्त्रार्थमूलक परिवेश में हुआ था। आचार्य जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि इन दोनों युगल-बन्धुओं ने चैत्यवासी आचार्यों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और विजय प्राप्त की। सूराचार्य जैसे उद्भट विद्वानों को परास्त करने का श्रेय खरतरगच्छ को ही है। खरतरगच्छ की परम्परा में हुए आचार्यों, मुनियों और विद्वानों ने अनेकशः शास्त्रार्थ किये। उनकी मनीषा ने दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर जैन धर्म की प्रभावना में बढ़ोतरी की। अप्रतिम मेधा के धनी आचार्य जिनपतिसूरि का नाम यहाँ विशेष उल्लेख्य है, जिन्होंने अपने जीवन में छत्तीस बार शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर धर्म-प्रभावना में चार-चाँद लगाए। भूमिका 2010_04 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. यौगिक शक्ति-प्रयोग खरतरगच्छ के श्रमणसंघ में अनेकानेक योग-प्रतिभाएँ प्रकट हुईं। खरतरगच्छाचार्यों का साधनामय जीवन बड़ा ओजस्वी रहा। अनगिनत कष्टों, बाधाओं और विघ्नों के बीच भी वे अविचल रहे। खरतरगच्छीय इतिहास उन महापुरुषों के सद्विचार, सदाचार, त्याग, योग, वैराग्य के अनेकानेक घटना-क्रमों से भरा है। उन्होंने अपनी यौगिक शक्तियों का उपयोग करके शासन-रक्षा एवं शासन-प्रभावना में आशातीत अभिवृद्धि की। उन अमृत-पुरुषों के वरद हस्त की छत्र-छाया के पुण्य-प्रभाव से ही यह गच्छ अनगिनत बाधाओं को चीरता हुआ जैन समाज में अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाये हुए है। खरतरगच्छ में हुए चार दादा-गुरुदेवों की यौगिक शक्तियाँ एवं उनके चमत्कार तो प्रसिद्ध ही हैं। सैकड़ों चमत्कार उनसे जुड़े हुए हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रभावी मानकर प्रत्येक जैन उनके प्रति श्रद्धान्वित है। खरतरगछ के सर्वाधिक प्रभावशाली आचार्य जिनदत्तसूरि तो मन्त्र-विद्या में अत्यन्त निष्णात थे। खरतरगच्छ के ही एक महान् योगीराज आनन्दघन के यौगिक चमत्कार भी प्रसिद्ध हैं। अध्यात्म योगी श्रीमद् देवचंद्र, ज्ञानसार, चिदानंद, ज्ञानानंद और सहजानन्दघन (भद्रमुनि) भी अच्छे योगी थे। नामोल्लेख कितने लोगों का किया जा सकता है। खरतरगच्छ तो योग-साधना का रत्नाकर है। अन्धों को आँखें देना, गूगों को वाणी देना, अमावस्या को पूर्णिमा में बदल देना, ऐसे कितने ही चमत्कार हैं जो खरतरगच्छाचार्यों की यौगिक प्रतिभा के ज्वलन्त उदाहरण हैं। ५. नरेशों को प्रतिबोध खरतरगच्छ की यह प्रमुख विशेषता है कि वह आम जनसमुदाय के साथ-साथ राज्याधिपति नरेशों से भी सम्बद्ध रहा। प्रत्येक खरतरगच्छाचार्य ने अपने समसामयिक नरेशों को प्रतिबोध दिया और उन पर अपना प्रभुत्व जमाकर धर्म के हित में काम करवाये। आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि और श्री बुद्धिसागरसूरि के चरित्र एवं ज्ञान से पाटण-नरेश दुर्लभराज अत्यन्त प्रभावित था। इन युगलबन्धुओं का राजा पर प्रभाव होने के कारण ही सुविहितमार्गी मुनियों का पाटण एवं सारे गुजरात में आवागमन शुरु हुआ। आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि का धारानरेश नरवर्म पर विशेष प्रभाव था। नरवर्म ने आचार्य के निर्देश से चित्तौड़ के दो जैन मन्दिरों में दो लाख रुपये खर्च करके पूजन-मण्डपिकाएँ बनाई थी। आचार्य जिनदत्तसूरि का भी अनेक राजाओं पर प्रभाव था, जिनमें त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल और अजमेर के राजा अर्णोराज का नाम उल्लेखनीय है। दिल्ली के महाराज मदनपाल मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के अनन्य भक्त थे। भूमिका (५) 2010_04 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनपतिसूरि से आशिका नगर के नरेश भीमसिंह बड़े प्रभावित थे। अजमेर के प्रसिद्ध महाराज पृथ्वीराज चौहान भी आचार्य जिनपतिसूरि के प्रबल समर्थक थे। पाटण के राजा भीमदेव भी इनके प्रति श्रद्धा रखते थे। लवणखेड़ा के राजा केल्हण आचार्यश्री के प्रति सदैव नतमस्तक रहे। नगरकोट के राजा पृथ्वीराज आचार्य जिनपतिसूरि और उपाध्याय जिनपाल के परम श्रद्धालु भक्त थे। बीजापुर के महाराज सारंगदेव, महामात्य मल्लदेव व उपमन्त्री विन्ध्यादित्य आचार्य जिनप्रबोधसूरि से प्रबोधित एवं प्रभावित थे। सिवाणा/शम्यानयन-नरेश श्रीसोम और जैसलमेर-नरेश कर्णदेव जिनप्रबोधसूरि के भक्त थे। शम्यानयन के महाराज सोमेश्वर चौहान, जैसलमेर के महाराज जैत्रसिंह और शम्यानयन नरेश शीतलदेव आचार्य जिनचन्द्रसूरि से बड़े प्रभावित थे। उन्हें धर्ममार्ग पर आरूढ़ करने का श्रेय इन्हीं आचार्य को है। अलाउद्दीन के पुत्र सुलतान कुतुबुद्दीन, मेड़ता के राणा मालदेव चौहान भी इनसे जबरदस्त प्रभावित हुए। __ 'कलिकाल-केवली' विरुद प्राप्त जिनचन्द्रसूरि ने चार राजाओं को प्रतिबोध दिया था। खरतरगच्छ का जो दूसरा नाम 'राजगच्छ' प्रसिद्ध हुआ, वह राजाओं पर विशेष प्रभाव होने के कारण ही हुआ। दिल्लीपति गयासुद्दीन बादशाह ने दादा जिनकुशलसूरि से धर्मबोध प्राप्त किया था। सुप्रसिद्ध महामन्त्री वस्तुपाल भी जिनकुशलसूरि के प्रति श्रद्धावन्त थे। बाहडमेर के नरेश राणा शिखरसिंह पर आचार्य जिनपद्मसूरि का अनूठा प्रभाव था। सत्यपुर/साँचोर के राणा हरिपालदेव, अशोटा के राजा रुद्रनन्दन, बूजद्री के राजा उदयसिंह, त्रिशृङ्गम के अधिपति राजा रामदेव आचार्य के व्यक्तित्व से प्रभावित थे। __आचार्य जिनप्रभसूरि खरतरगच्छ के ही थे, जो बादशाहों को प्रतिबोध देने की श्रृंखला में सर्वप्रथम माने जाते हैं। बादशाह मुहम्मद तुगलक को जैनधर्म की शिक्षा देने वाले आचार्य ये ही थे। बादशाह अकबर चतुर्थ दादा आचार्य जिनचन्द्रसूरि का परम भक्त था। अकबर ने आचार्य की बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें 'युगप्रधान' पद प्रदान कर एक महान् राष्ट्र सन्त के रूप में स्वीकार किया। मुगल सम्राटों पर जैन धर्म में यदि किसी गच्छ विशेष का प्रभाव रहा, तो उनमें खरतरगच्छ का नाम प्रमुख एवं प्रथम है। अकबर जैसे समर्थ बादशाह को अपने चरणों में झुकाना और अमारि-घोषणा जैसी अहिंसामूलक आज्ञाओं को देश में प्रचारित करवाना खरतरगच्छ की प्रमुख विशेषता है। अपने पिता की तरह जहाँगीर भी खरतरगच्छाचार्यों की विद्वत्ता एवं प्रतिभा से प्रभावित थे। बादशाह जहाँगीर की साधु-विहार-प्रतिबन्धजन्य आज्ञा को मिटाने में भी जिनचन्द्रसूरि के प्रयास सफल रहे। (६) भूमिका 2010_04 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जैनसंघ का व्यापक विस्तार जैनीकरण खरतरगच्छ की अभूतपूर्व देन है। खरतरगच्छ ने जैन-संख्या में जितना विस्तार किया, उतना आज तक किसी अन्य गच्छ या शाखा द्वारा नहीं हुआ। खरतरगच्छ में हुए आचार्यों में से एक-एक आचार्य के द्वारा हजारों-हजार नये जैन बनाये गये। आचार्य जिनवल्लभसूरि ने एक लाख नये जैन बनाये। जैनीकरण का विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया आचार्य जिनदत्तसूरि ने। आचार्य का जैन-संघ को यह अनुपम और अद्वितीय अनुदान है। प्राप्त उल्लेखों के अनुसार जिनदत्तसूरि के हस्ते एक लाख तीस हजार से अधिक नये जैन बने। इसी प्रकार आचार्य जिनकुशलसूरि ने अपने जीवन में पचास हजार नये जैन बनाये। जैन धर्म के व्यापक विस्तार की दृष्टि से खरतरगच्छ ने बहुत बड़ा कार्य किया, लाखों अजैनों को जैनधर्म में प्रवृत्त किया। क्षत्रिय जाति का जैन धर्म के साथ प्रारम्भ से ही बड़ा निकटतापूर्ण सम्बन्ध रहा, किन्तु आगे चलकर परिस्थितिवश वैसा नहीं रह सका। शताब्दियों बाद आचार्य श्री जिनदत्तसूरि एवं उनकी परम्परा में हुए आचार्यों ने अपने त्याग-तपोमय आदर्शों और उपदेशों से लाखों क्षत्रियों को प्रभावित किया, उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया। ओसवाल जाति, जो आज लाखों की संख्या में है, उसी क्षत्रिय-परम्परा की आनुवंशिकता लिये है। ७. गोत्रों की स्थापना खरतरगच्छाचार्यों में आचार्य जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि आदि आचार्यों ने शताधिक नूतन गोत्र स्थापित किये। श्री अगरचंद भंवरलाल नाहटा बन्धुओं के अनुसार आचार्य श्री वर्धमानसूरि से लेकर अकबर-प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि तक के आचार्यों ने लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया। ओसवाल वंश के अनेक गोत्र इन्हीं महान् आचार्यों के द्वारा स्थापित हैं। महत्तियाण जाति को प्रसिद्धि मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि से विशेष रूप में हुई। इस जाति के भी ८४ गोत्र बतलाये जाते हैं। श्रीमाल जाति के १३५ गोत्रों में ७९ गोत्र खरतरगच्छ के प्रतिबोधित बतलाये गये हैं। पोरवाड़ जाति के पंचायणेचा गोत्र वाले भी खरतरगच्छानुयायी थे। खरतरगच्छीय गोत्रों में ओसवाल-वंश के ८४, श्रीमाल के ७९, पोरवाड़ और महत्तियाण के १६६ गोत्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। ___ खरतरगच्छ ने केवल जैनीकरण ही नहीं किया, अपितु जैन समाज के अनुरूप नूतन जैनों को ढाला भी। उन्हें जैनधर्म के अनुरूप सामाजिक व्यवस्थाएँ दी गई, धार्मिक एवं सांसारिक व्यावहारिकताएँ उनसे जोड़ी गईं। जैन विधिमूलक व्यवहार-धर्म का पालन करने के लिए उन्हें अलग-अलग गोत्र दिये गये। एक-एक गोत्र से सैकड़ों-हजारों लोगों का सम्बन्ध जोड़ा गया। खरतरगच्छ द्वारा अब तक दो सौ से अधिक गोत्र स्थापित हुए हैं। भूमिका 2010_04 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेलड़ा राजस्थान में जो ओसवाल विपुल संख्या में दिखाई दे रहे हैं, उनमें से अधिकांश के पूर्वज आचार्य जिनेश्वरसूरि व उनके शिष्य-प्रशिष्य अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनचन्द्रसूरि आदि द्वारा प्रतिबोधित हैं। इनमें सबसे अधिक श्रेय आचार्य जिनदत्तसूरि को ही प्राप्त है। आज इसी परम्परा के गुरुओं के उपदेशों का ही फल है कि हम शुद्ध शाकाहारी हैं, अहिंसा के उपासक हैं, जैन धर्म के अनुयायी हैं। खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित गोत्र निम्नलिखित हैं, जिनका मूल गच्छ खरतर हैओस्तवाल गुलगुलिया टांक आयरिया गधैया टांटिया कटारिया गांग ट्रॅकलिया कठोतिया टोडरवाल कवाड़ घीया डागा कंकुचौपड़ा घेवरिया. डुंगरेचा कांकरिया घोड़ावत डोशी कांस्टिया चतुर डाकलिया कुंभट चपलोत ढड्ढा कूकड़ा ढेलड़िया कोटेचा चोरडिया कोठारी चौधरी तातेड़ खटोड़ चौपड़ा दक खजांची छजलानी दफ्तरी खींवसरा छाजेड़ दसाणी गडवाणी जडिया दांतेवडिया गणधर चौपड़ा जिन्दानी दासोत गांधी जोगिया दुगड़ गिडिया झाड़चूर गोलेच्छा झाबक दुसाज गोड़वाड़ा जीरावला धाड़ीवाल (८) भूमिका चीपड़ ढोर दुधेड़िया 2010_04 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलिया धूपिया नवलखा नावड़िया मरड़िया मीठड़िया मेहता नाहटा नाहर बेंगानी बडेरा बागरेचा बालड़ बोकड़िया बैताला बोरूंदिया भूतेड़िया पगारिया मुथा रांका राखेचा रामपुरिया रातड़िया पटवा पारख पालरेचा राणावत पालावत पींचा लूणिया लूणावत भटनेरा चौधरी भंसाली भीड़कच्या भंडारी भड़गतिया पुंगलिया पुनमिया पोकरण फोफलिया लालाणी भांडावत लोढ़ा लूंकड़ ललवानी वडेर वरमेचा वंठ बरड़िया बलाई बांठिया भाचावत मूंदड़ा मरोटी मालू बुच्चा बाफना बूबकिया बुच्चा बाघमार शाह बोहरा बोथरा मुकीम मेड़तवाल मुणोत महिमवाल मोघा महतियाण मंडोवरा बच्छावत शेखावत श्रीमाल श्रीश्रीमाल संचेती सांड बुरड़ बाबेल (९) भूमिका 2010_04 Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों की कृतियाँ और सिद्धियाँ अपने गच्छ की सीमित परिधि से ऊपर उठकर सर्वगच्छीय सम्मान प्राप्त कर सकी हैं। खरतरगच्छ का समग्र साहित्य सरस्वती का विराट भंडार है। इस गच्छ ने ऐसे-ऐसे ग्रन्थ दिये हैं, जिनकी टक्कर के दूसरे ग्रन्थ सम्पूर्ण संसार में नहीं हैं। उदाहरण के लिए अष्टलक्षी। इस ग्रन्थ में 'राजा नो ददते सौख्यम्' इस अष्टाक्षरीय वाक्य के दस लाख बाईस हजार, चार सौ सत्ताईस अर्थ प्रस्तुत हैं। विश्व-साहित्य को ऐसे ग्रन्थों पर गर्व है। खरतरगच्छ की साहित्यिक-साधना लगभग हजार वर्ष की है। विक्रम की सतरहवीं-अठारहवीं शदी में खरतरगच्छ ने सर्वाधिक साहित्य का सृजन किया। ___ खरतरगच्छ के साहित्यकारों में आचार्य अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, मन्त्रि-मण्डन, ठक्कुर फेरु, महोपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय देवचन्द्र, अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा आदि के नाम विशेषतः उल्लेख्य हैं। खरतरगच्छ ने साहित्य-संसार को हजारों ग्रन्थ-रत्न प्रदान किये हैं। (१) आगम टीकाएँ :-जैन आगमों के टीकाकारों में आचार्य अभयदेवसूरि का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। अभयदेव खरतरगच्छ के तृतीय पट्टधर थे। आगम-साहित्य पर आज तक जिसने भी कलम चलाई, उसने अभयदेवसूरि कृत आगम-टीकाओं का अवश्य आश्रय लिया। अभयदेव ने नौ अंग-आगमों पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे थे।। अन्य आगम-टीका-ग्रन्थों में निम्न उल्लेखनीय हैं-जिनराजसूरि कृत भगवतीसूत्र-टीका एवं स्थानांगसूत्रटीका, साधुरंग कृत सूत्रकृतांगसूत्र-टीका-दीपिका, उपाध्याय कमलसंयम कृत उत्तराध्ययनसूत्र-टीका सर्वार्थसिद्धि, उपाध्याय पुण्यसागर कृत जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति-टीका, मतिकीर्ति कृत दशाश्रुतस्कन्धसूत्र-टीका, सहजकीर्ति कृत निशीथसूत्रार्थ-टीका आदि। कल्पसूत्र पर खरतरगच्छीय विद्वान मुनियों ने तीस से अधिक व्याख्या-ग्रन्थ निबद्ध किये हैं, जिनमें महोपाध्याय समयसुन्दर कृत कल्पलता नामक टीका उल्लेखनीय है। समयसुन्दर कृत दशवैकालिक टीका भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। (२) सैद्धान्तिक-प्रकरण :-खरतरगच्छीय विद्वानों ने आगमिक व्याख्या ग्रन्थों के अतिरिक्त सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों की भी रचना की है। उन्होंने एतद्विषयक ग्रन्थों की व्याख्याएँ भी प्रस्तुत की हैं और स्वतन्त्र रूप से भी लिखा है। सैद्धान्तिक ग्रन्थकारों में आचार्य अभयदेवसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनप्रभसूरि, गणि रामदेव, महोपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय देवचन्द्र, उपाध्याय क्षमाकल्याण, चिन्दानन्द आदि प्रमुख हैं। (३) वैधानिक एवं सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तरमूलक साहित्य :-जैन धर्म में विभिन्न गच्छों एवं समुदायों में भेद मुख्यतः विधि-विधान सापेक्ष है। प्रत्येक गच्छ की धार्मिक क्रिया एवं विधि-विधान दूसरे गच्छ से कुछ भिन्नता लिये रहते हैं। खरतरगच्छ की परम्परा में मान्य विधि-विधानों को मुनियों ने भूमिका (११) 2010_04 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य में निबद्ध किया है। उनमें सर्वाधिक ग्रन्थ महोपाध्याय समयसुन्दर एवं चिदानन्द के प्राप्त हुए हैं। कतिपय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-आचार्य वर्धमानसूरि का आचार-दिनकर, जिनप्रभसूरि रचित विधि-मार्ग-प्रपा, उपाध्याय गुणविनय कृत कुमतिमत-खंडन, महोपाध्याय समयसुन्दर कृत विचारशतक, विशेष-शतक, विशेष-संग्रह, विसंवाद-शतक, समाचारी-शतक, उपाध्याय देवचन्द्र कृत विचाररत्नसार, जिनमणिसागरसूरि कृत मुंहपति-निर्णय, पर्युषणा-निर्णय, बालचन्द्रसूरि कृत निर्णय-प्रभाकर चिदानन्द कृत आत्मभ्रमोच्छेदन-भानु, कुमतकुलिंगोच्छेदन-भास्कर, जिनाज्ञाविधिप्रकाश आदि। (४) योग एवं ध्यानपरक साहित्य :-इस सन्दर्भ में खरतरगच्छाचार्यों का विस्तृत साहित्य अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। जो प्राप्त हुआ है, उसमें उपाध्याय मेरुसुन्दर कृत योगप्रकाश-बालावबोध, योगशास्त्र बालावबोध, उपाध्याय शिवनिधान कृत योगशास्त्र स्तबक और सुगनचन्द्र कृत ध्यानशतक बालावबोध के नाम उल्लेखनीय हैं। (५) दर्शन एवं न्याय-साहित्य :-खरतरगच्छ में अनेक तत्त्व-चिन्तक, दार्शनिक एवं न्यायपरक प्रतिभा के धनी महापुरुष हुए हैं। दर्शन एवं न्याय के दुरूह से दुरूह विषयों को खरतरगच्छाचार्यों ने शीघ्रबोधगम्य बनाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी मौलिक दृष्टियाँ भी प्रदान की है। यहाँ हम कतिपय विशिष्ट ग्रन्थों का उल्लेख कर रहे हैं आचार्य जिनेश्वरसूरि कृत प्रमालक्ष्म, देवभद्रसूरि कृत प्रमाण-प्रकाश, जिनप्रबोधसूरि कृत पंजिकाप्रबोध, सोमतिलकसूरि कृत षड्दर्शन समुच्चय टीका, दयारत्न कृत न्यायरत्नावली, सुमतिसागर कृत तत्त्वचिन्तामणि टिप्पणक, गुणरत्न कृत तर्कभाषा-प्रकाश, तर्कतरंगिणी, उपाध्याय समयसुन्दर कृत मङ्गलवाद, चारित्रनन्दी कृत स्याद्वाद-पुष्प-कलिका-स्वोपज्ञ-टीका। (६) व्याकरण-साहित्य :-व्याकरण पर पचासों खरतरगच्छीय विद्वानों ने अपनी कलम चलाई है। खरतरगच्छ में अनेकानेक उद्भट वैयाकरण पंडित हुए हैं। आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने तो पाणिनी और हेमचन्द्र की तरह स्वतन्त्र संस्कृत-व्याकरण परिगुम्फित किया था। अन्य भी अनेक छोटे-बड़े व्याकरणग्रन्थ लिखे गये। यथा-बुद्धिसागरसूरि कृत शब्द-लक्ष्म-लक्षण, मन्त्रिमण्डन कृत उपसर्गमण्डन, सारस्वतमण्डन, जिनचन्द्रसूरि कृत सिद्धान्तरनिका, हैमलिङ्गानुशासन-अवचूर्णि, उपाध्याय श्रीवल्लभ कृत सिद्धहेमशब्दानुशासन टीका, विमलकीर्ति कृत पद-व्यवस्था, सहजकीर्ति कृत ऋजुप्राज्ञव्याकरण, साधुसुन्दर कृत धातुरत्नाकर-क्रियाकल्पलता, विशालकीर्ति कृत प्रक्रियाकौमुदी टीका, तिलक गणि कृात प्राकृतशब्दसमुच्चय, भक्तिलाभ कृत बालशिक्षा-व्याकरण, ज्ञानतिलक कृत सिद्धान्तचन्द्रिका टीका, जिनहेमसूरि कृत सिद्धान्त-रत्नावली। (७) कोष-साहित्य :-कोष-साहित्य में सहजकीर्ति कृत सिद्ध शब्दार्णव-नामकोष, साधुसुन्दर कृत शब्दरत्नाकर, साधुकीर्ति कृत विशेष नाममाला और चारित्रसिंह कृत अभिधान चिन्तामणि नाममाला आदि नाम उल्लेखनीय हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों ने विभिन्न कोशों पर टीका-ग्रन्थ भी लिखे हैं। उल्लेखनीय (१२) भूमिका 2010_04 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाएँ हैं-जिनप्रभसूरि रचित अनेकार्थ-संग्रह-टीका, धर्मवर्धन रचित अमरकोष टीका, उपाध्याय श्रीवल्लभ रचित हैमनिघण्टु कोष टीका। (८) काव्य-लक्षण-छन्द-साहित्य :-साहित्य एवं काव्य-क्षेत्र में खरतरगच्छ का अनुदान विशेष उपलब्धिपूर्ण है। काव्य के लक्षणों, छन्दों के नियमों का खरतरगच्छीय विद्वानों ने पूर्ण विवरण दिया है। 'छन्दोनुशासन' इस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। कुशललाभ का पिङ्गलशिरोमणि पिंगल छन्द शास्त्र का सबसे पहला और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पिंगलऋषि प्रणीत छन्द-शास्त्र पर आधारित है। प्रसिद्ध छन्दशास्त्रीय ग्रन्थ 'वृत्तरत्नाकर' पर क्षेमहंस, उपाध्याय मेरुसुन्दर और समयसुन्दर के महत्त्वपूर्ण व्याख्या-ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। 'वाग्भटालंकार' पर जिनवर्धनसूरि, क्षेमहंस, उदयसागर, ज्ञानप्रमोद, राजहंस, समयसुन्दर, साधुकीर्ति, मेरुसुन्दर आदि विद्वान मुनियों की टीकाएँ प्राप्त हुई हैं। विद्ग्धमुखमण्डन पर जिनप्रभसूरि, मेरुसुन्दर, श्रीवल्लभ, शिवचन्द्र, विनयसागर की व्याख्याएँ उपलब्ध हुई हैं। काव्य-लक्षण छन्द से सम्बन्धित जो और भी ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं, उनमें से कुछेक के नाम निम्नलिखित हैं-बुद्धिसागरसूरि का छन्दशास्त्र, वाचक धर्मनन्दन का छन्द-तत्त्वसूत्र, जिनप्रबोधसूरि का वृत्तप्रबोध, ज्ञानसागर का मालापिंगल, मन्त्रिमण्डन का अलंकारमण्डन, ज्ञानमेरु का कविमुखमण्डन, गुणरत्न का काव्यप्रकाशटीका, कीर्तिवर्द्धन का चतुरप्रिया, उदयचन्द्र का पाण्डित्यदर्पण, अनूपशृंगार, महिमसिंह का रसमंजरी आदि। (९) वास्तु-मुद्रा-रत्न-धातु-साहित्य :-एतद्-सम्बन्धित ठक्कुर-फेरु की पाँच रचनाएँ प्राप्त हुई हैं-वास्तुसार प्रकरण, द्रव्य-परीक्षा, धातुत्पत्ति, भूगर्भप्रकाश और रत्नपरीक्षा। खरतरगच्छ-परम्परा की ये पाँचों कृतियाँ काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। (१०) मंत्र-साहित्य :-खरतरगच्छ की परम्परा में विविध विद्वानों ने मन्त्र-सम्बन्धित साहित्य का सृजन किया है। उनमें से कुछ प्रतिष्ठित ग्रन्थ इस प्रकार हैं-पूर्णकलश कृत महाविद्या, जिनप्रभसूरि रचित सूरिमन्त्रकल्प, संघतिलकसूरि रचित वर्धमान विद्या-कल्प। (११) ज्योतिष-साहित्य :-खरतरगच्छीय साहित्यकारों ने ज्योतिष पर गहनतम विवेचन किया है और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित की है। ज्योतिष-साहित्य से सम्बन्धित खरतरगच्छीय प्राचीनतम ग्रन्थ वर्धमानसूरि (१२ वीं शती) का शकुनरत्नावली उपलब्ध है। ज्योतिष सम्बन्धित उल्लेखनीय एवं सर्वाधिक ग्रन्थ खरतरगच्छीय मुनियों ने १८वीं शताब्दी में लिखे हैं । इस शताब्दी में लिखित ३० से अधिक ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। ज्योतिष सम्बन्धित खरतरगच्छीय महत्त्वपूर्ण साहित्य निम्न हैं-वर्धमानसूरि रचित शकुनरत्नावली, मुनिसुन्दर रचित करणराज-गणित, लक्ष्मीवल्लभ रचित कालज्ञानभाषा, रायचन्द्र रचित अवयदी शकुनावली, लाभवर्द्धन रचित अङ्कपस्तार, हीरकलश रचित जोइसहीर, पुण्यतिलक रचित ग्रहायु, महिमोदय रचित ज्योतिषरत्नाकर, पंचांगानयन-विधि, प्रेम-ज्योतिष, जन्मपत्री पद्धति, कीर्तिवर्द्धन रचित जन्म भूमिका (१३) 2010_04 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका-ज्योतिष, रामविजय रचित मुहूर्तमणिमाला, भूधरदास रचित भौधरी-ग्रहसारणी, रामचन्द्र रचित सामुद्रिक भाषा, चिदानन्द रचित स्वरोदय । (१२) महाकाव्य तथा टीका-साहित्य :-खरतरगच्छ की विद्वद्परम्परा ने महाकाव्य एवं टीकासाहित्य की सैकड़ों कृतियाँ माँ भारती के भण्डार के लिए अर्पित की हैं, जिनका इतिहास, समाज एवं आत्मोत्थान से गहरा सम्बन्ध है। जिन महाकाव्यों एवं टीका-ग्रन्थों की खरतरगच्छीय विद्वानों ने रचना की है, वे जीवन की विषाक्तता मिटाने के लिए अमृत-वर्षण हैं, शास्त्रीय शब्दार्थों को समझने के लिए एक विनम्र मार्गदर्शन है। प्रमुख ग्रन्थों के नाम निम्नलिखित हैं उपाध्याय चन्द्रतिलक रचित अभयकुमार चरित महाकाव्य, मंत्री मंडन रचित कादम्बरी मंडन, काव्य मंडन, चम्पू मंडन, चन्द्रविजय, महोपाध्याय समयसुन्दर रचित अष्टलक्षी, धर्मचन्द्र रचित कर्पूरमंजरी-पट्टक-टीका, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ रचित कुमारसम्भव-टीका, जिनसमुद्रसूरि रचित तत्त्वबोध-नाटक, विनयसागर रचित नलवर्णन-महाकाव्य, कीर्तिरत्नसूरि विरचित नेमिनाथ-महाकाव्य, उपाध्याय लक्ष्मीतिलक रचित प्रत्येक बुद्ध-महाकाव्य, उपाध्याय श्रीवल्लभ रचित विजय देव माहात्म्य महाकाव्य, विद्वद् प्रबोध-काव्य, उपाध्याय जिनपाल रचित सनत्कुमार चक्री-चरित्र महाकाव्य, ललितकीर्ति रचित शिशुपाल-वध महाकाव्य-टीका सन्देह-ध्वान्त-दीपिका, जिनराजसूरि रचित नैषधकाव्य टीका। (१३) कथामूलक काव्य-साहित्य :-शताधिक प्राप्त कथामूलक काव्य ग्रन्थों में से कुछेक ग्रन्थों के नाम उल्लेखनीय हैं-वर्धमानसूरि लिखित उपमितिभवप्रपंचकथासार, देवभद्रसूरि लिखित कथारत्नकोष, सोमतिलकसूरि लिखित कुमारपाल प्रबन्ध, संघतिलकसूरि लिखित धूर्ताख्यान, जिनप्रभसूरि लिखित विविध तीर्थकल्प, उपाध्याय जयसागर लिखित पृथ्वीचन्द्र चरित्र, गुणसमृद्धि महत्तरा लिखित अंजनासुदरी-कथा, महोपाध्याय समयसुन्दर लिखित कालिकाचार्य कथा, कथाकोष, द्रौपदी-संहरण, जिनराजसूरि लिखित जैन रामायण, वादी हर्षनन्दन लिखित आदिनाथ-व्याख्यान, कीर्तिसुन्दर लिखित वाग्विलास कथा संग्रह, राजलाभ लिखित स्वप्राधिकार, उपाध्याय क्षमाकल्याण लिखित श्रीपालचरित्र-टीका, उपाध्याय लब्धिमुनि लिखित जिनदत्तसूरि चरित, जिनचन्द्रसूरि चरित, जिनकुशलसूरि चरित आदि । (१४) रास-चौपाई आदि काव्य-साहित्य :-काव्य के रूप में खरतरगच्छीय मुनियों ने जो साहित्य हिन्दी जगत् को दिया है वह सरल, उपयोगी और युग के यथार्थ दर्पण का प्रदर्शक है। वह धार्मिक, व्यवस्थामूलक तथा नैतिक पृष्ठभूमि में प्रतिष्ठित है। भाषा, वर्णन-कौशल, साहित्यक तत्त्व, विचार आदि सभी दृष्टियों से खरतरगच्छीय साहित्य भारतीय काव्य-परम्परा के गौरव को बढ़ाता है। इन काव्यों में खरतरगच्छीय साहित्यकारों ने उन व्यक्तियों को चरित्रनायक के रूप में ग्रहण किया है, (१४) भूमिका 2010_04 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो समाज के लिए आदर्शभूत हैं। इनमें कुछ चरित्र जैन आगमों एवं आगमेतर साहित्य में से ग्रहण किये गये हैं तथा कुछ काल्पनिक भी हैं। रास-चौपाई आदि के निर्माण में खरतरगच्छीय मुनियों ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। खरतरगच्छीय मुनियों द्वारा लिखित सहस्राधिक रास, चौपाई आदि उपलब्ध हैं। इनमें विनयप्रभ उपाध्याय द्वारा रचित गौतमस्वामी रास ने सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है। विक्रम की १७वीं एवं १८वीं शती में खरतरगच्छीय साहित्यकारों ने विपुल रास चौपाई लिखे हैं। इस क्षेत्र में खरतरगच्छ के हजारों ग्रन्थ हैं। (१५) गीत आदि साहित्य-खरतरगच्छ में हिन्दी भाषी भक्त कवियों में सर्वप्रथम महोपाध्याय कवि समयसुन्दर का नाम उल्लेख्य है। उनके पाँच सौ से अधिक भक्तिपरक गीत अब तक उपलब्ध हो चुके हैं। खरतरगच्छीय भक्ति काव्य परम्परा में दो कवियों के नाम यहाँ विशेष उल्लेखनीय है, वे हैं योगीराज आनन्दघन एवं उपाध्याय देवचन्द्र । समग्र जैन भक्त कवियों में इनकी तुलना के कवि इने-गिने मिलेंगे। खरतरगच्छीय भक्त कवियों ने भक्तिपरक स्वतन्त्र गीत लिखने के साथ चौबीस तीर्थंकरों का स्तुतिपरक साहित्य भी निबद्ध किया है। खरतरगच्छ में स्तुतिपरक साहित्य पृथक्-पृथक् रूपों में प्राप्त होता है। भक्तिपरक बीसी-साहित्य में जिनराजसूरि, जिनहर्ष, विनयचन्द्र, देवचन्द्र, ज्ञानसार आदि कवियों की 'बीसी' उल्लेखनीय है। चौबीसी-साहित्य में जिनलाभसूरि, जिनहर्ष, आनन्दघन, देवचन्द्र आदि की चौबीसियाँ उल्लेखनीय हैं। क्षमाप्रमोद कृत चौबीस जिन-पंचाशिका भी द्रष्टव्य है। ___पूजापरक-साहित्य भी सुविशाल है। खरतरगच्छ में पूजा-साहित्य की रचना करने वालों में उपाध्याय देवचन्द्र, चारित्रनन्दी, सुमतिमण्डन, ऋद्धिसार, जिनहरिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि के नाम प्रमुख हैं। (१६) औपदेशिक साहित्य :-जनहित के लिए उपदेश देना मुनि का धर्म है, अतः उसके साहित्य में उपदेशपरक तथ्यों की बहुलता होनी स्वाभाविक है। यों तो प्रत्येक मुनि का साहित्य किसी-न-किसी औपदेशिक उद्देश्य से समन्वित होता है, पर यहाँ हम मात्र उसी साहित्य का उल्लेख करना चाहेंगे जो विशुद्ध आद्योपान्त उपदेश-परक ही है। यथा-जिनेश्वरसूरि लिखित उपदेशकोष, जिनचन्द्रसूरि लिखित संवेगरंगशाला, जिनवल्लभसूरि लिखित धर्मशिक्षाप्रकरण, जिनदत्तसूरि रचित गणधरसार्धशतक-प्रकरण, जिनरत्नसूरि लिखित उत्तमपुरुष-कुलक, राजहंसलिखित जिनवचनरत्न-कोष, अभयचन्द्र लिखित रत्नकरण्ड, पुण्यनन्दी लिखित रूपकमाला, चारित्रसिंह लिखित शीलकल्पद्रुम-मंजरी, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ कृत भावना-विलास, पुण्यशील लिखित ज्ञानानन्द-प्रकाश, जिनलाभसूरि लिखित आत्म-प्रबोध आदि। (१५) भूमिका 2010_04 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त सभी ग्रन्थ बृहत् एवं संस्कृत-निबद्ध हैं। मरुगुर्जर-भाषा (प्राचीन हिन्दी भाषा) में भी औपदेशिक साहित्य की रचना हुई। यह साहित्य गीतों एवं पदों में रचित है। उपदेशपरक हजारों पद मिलेंगे। एकएक कवि ने सैकड़ों उपदेशपरक पद एवं गीत लिखे हैं। स्वतन्त्र पदों एवं गीतों के अलावा सामूहिक रूप में भी मिलते हैं। कवियों ने उन्हें पच्चीसी, बत्तीसी, बावनी, सित्तरी, बहुत्तरी, सईकी आदि नाम दिये हैं। ८. साम्प्रदायिक सौहार्द खरतरगच्छ के मुनियों की साम्प्रदायिक उदारता सभी गच्छों के लिए एक आदर्श है। खरतरगच्छ के बहुत से विद्वान् आचार्यों ने अन्य गच्छों के साधुओं को विद्यादान दिया है, उनके सहयोग एवं सहकार से साहित्य का निर्माण एवं संशोधन किया है, उनके विविध शासन-प्रभावक कार्यों में अपनी सन्निधि दी है। अन्य गच्छीय या साधुओं को यथोचित सम्मान देना भी इस गच्छ का प्रमुख वैशिष्ट्य खरतरगच्छ के विद्वान मुनियों ने अन्य धर्म के ग्रन्थों पर विद्वत्तापूर्ण व्याख्या-ग्रन्थ लिखे हैं। खरतरगच्छीय मुनियों ने तपागच्छीय संतों का भी गुणगान किया है। उपाध्याय श्रीवल्लभ ने आचार्य विजयदेवसूरि के सम्बन्ध में 'विजयदेव-माहात्म्य' और महोपाध्याय समयसुन्दर ने महातपस्वी पुंजा ऋषि के सम्बन्ध में श्री पुंजा ऋषि रास लिखकर खरतरगच्छ की उदारवादिता का प्रकृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं, समयसुन्दर ने अपने समकालीन तपागच्छीय प्रभावक आचार्य हीरविजयसूरि की मुक्त कंठ से स्तुति भी की है। जिनहर्ष ने सत्यविजय निर्वाण रास लिखा है। ९. अन्य विशेषताएँ जैन धर्म संघ को खरतरगच्छ की देन बहुत आयामी है। जहाँ उसने सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र समन्वित साधना के द्वारा अपने अन्तर-व्यक्तित्व को निखारा, तो वहीं विश्वहित के लिए विविध नैतिक मापदण्डों को अपनाया। खातरगच्छ ने शासन-हित एवं मानव जाति के अभ्युदय के लिए जो-जो कार्य किये, उनमें से कतिपय बिन्दुओं पर हमने चर्चा की है। इनके अतिरिक्त भी सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय मंच पर खरतरगच्छ का अनुदान अप्रतिम है। भगवान महावीर के शासन के उन्नयन हेतु तो खरतरगच्छ समग्ररूप से समर्पित रहा है। खरतरगच्छाचार्यों की पावन निश्रा में हजारों जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएँ हुई हैं। भारत के विभिन्न जैन तीर्थों की चतुर्विध संघीय पद-यात्राएँ हुई हैं। जिन तीर्थों की समुचित व्यवस्था के लिए श्री आनन्द जी कल्याण जी पेढी जैसी राष्ट्रीय प्रबन्ध समितियाँ इस गच्छ ने ही स्थापित की हैं। प्राचीन हस्तलिखित धर्म-शास्त्रों का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थालय 'जैसलमेर ज्ञानभण्डार' की संस्थापना भी खरतरगच्छ द्वारा ही हुई है। जैनों के प्रमुख तीर्थों में नाकोड़ा तीर्थ एक है। इसकी स्थापना भी खरतरगच्छ द्वारा ही हुई (१६) भूमिका ___Jain Education international 2010_04 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। तीर्थराज सम्मेतशिखर, पावापुरी, क्षत्रियकुंड, चम्पापुरी, राणकपुर आदि तीर्थों में भी खरतरगच्छ का ही प्रभुत्व था, और है भी। महातीर्थ शत्रुजय पर भी एक समय में खरतरगच्छ का सर्वाधिक प्रभाव था। वहाँ निर्मित 'खरतरवसही की ट्रॅक' इसी गच्छ की देन है। तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ तो सर्वत्र पूजनीय हैं, किन्तु गुरुओं की मूर्तियों को प्रतिष्ठित एवं प्रसारित करने का श्रेय खरतरगच्छ को ही है। खरतरगच्छ भले ही एक परम्परा हो, किन्तु इसमें हुए दादा गुरुदेवों के प्रति निष्ठा प्रत्येक जैन के मन में है। आज भारत में दादा गुरुदेवों के दस लाख से भी ज्यादा भक्त हैं। ___ खरतरगच्छ में केवल धर्माचार्य ही नहीं पैदा हुए, वरन् बड़े-बड़े दानवीर भी जन्मे हैं। कर्मचन्द बच्छावत जैसे प्रबुद्ध महामन्त्री और मोतीशाह सेठ जैसे महादानवीर इसी गच्छ के समर्थक थे। खरतरगच्छ साध्वी-समाज के विकास के लिए भी उदार-दृष्टिकोण रखता है। भारत पुरुष-प्रधान देश है, किन्तु खरतरगच्छ ने कभी भी नारी-जाति अथवा साध्वी-समाज के साथ उपेक्षामूलक व्यवहार नहीं किया। समग्र जैन परम्परा में खरतरगच्छ ने ही सबसे पहले साध्वी को प्रवचन देने का अधिकार दिया। परवर्ती काल में दूसरे गच्छों ने भी इस क्रान्तिकारी चरण का अनुमोदन एवं अनुसरण किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि खरतरगच्छ धर्मसंघ की एक ऐतिहासिक परम्परा है और इसका अपना सुविस्तृत इतिहास है। प्रस्तुत ग्रन्थ : एक ऐतिहासिक प्रयत्न महोपाध्याय विनयसागर जी द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रन्थ 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' इस गच्छ के गौरवमय महापुरुषों के जीवन चरित्र एवं उनके कृतित्व से परिचित कराता है। इस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि से प्रारम्भ हुई ज्ञान और चारित्र का पर्याय बनी यह गौरवमय यात्रा आज भी अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है। खरतरगच्छ का एक हजार वर्ष का इतिहास जैन धर्म के विकास में अहं भूमिका अदा करता है। कई वर्षों में खरतरगच्छ के निष्ठाशील अनुयायियों की यह हार्दिक अभिलाषा थी कि इस गच्छ का तब से लेकर अब तक का एक हजार वर्ष का इतिहास किसी एक ही ग्रन्थ में उपलब्ध हो जाये, तो श्रेष्ठ कार्य होगा। खरतरगच्छ में कई शाखाएँ, उपशाखाएँ प्रगट हुई, अतः इनके इतिहास का लेखन एक दुष्कर कार्य था। इसके इतिहास के लेखन के लिए ऐसे किसी विद्वान की आवश्यकता थी जो खरतरगच्छ के प्रति निष्ठाशील भी हो और इतिहास का पारंगत विद्वान भी। आत्मतोष की बात है कि महामनीषी विनयसागरजी ने यह भगीरथ कार्य अपने कन्धों पर उठाया और 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' नाम से भूमिका (१७) 2010_04 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल ग्रन्थ तैयार किया। वे इस क्षेत्र के राष्ट्रीय स्तर के विद्वान हैं। इतिहास के बारे में उनका ज्ञान काफी विस्तृत है। महोपाध्याय विनयसागर जी ने बचपन से ही अपना जीवन जैन धर्म के शास्त्र, दर्शन, इतिहास एवं परंपरागत अध्ययन में लगाया है। वे इतिहासवेत्ता भी हैं, साथ ही साथ संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं पर भी उनकी गहरी पकड़ है। उनके द्वारा लिखित सम्पादित कई ग्रन्थ एवं शास्त्र आज देश-विदेश में शोधकर्ताओं द्वारा उपयोग में लिये जा रहे हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में विनयसागर जी ने खरतरगच्छ के गौरवमय इतिहास को 'ऐतिहासिक संदर्भो एवं प्रमाणों के साथ सीधी-सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। निश्चय ही, यह ग्रन्थ खरतरगच्छ परम्परावालों के लिए उपयोगी है ही, साथ ही अन्य परम्परावालों के लिए भी इसकी पूरी उपादेयता है। ग्रन्थ का लेखन स्वयं एक इतिहास है और इतिहास प्रेमी लोगों के लिए 'मील का पत्थर'। इसी के जरिये हम अपने अतीत के गौरव को निहार सकते हैं। खरतरगच्छ ने अतीत में जिस गौरव को अर्जित किया, यदि यह फिर से दोहराया जा सके, तो खरतरगच्छ का भविष्य भी उतना ही गौरवपूर्ण होगा, जितना कि कभी इसके बीते दिनों में था। हमारा अतीत क्या था, यह जानने के लिए ही प्रस्तुत ग्रन्थ की उपयोगिता है। निश्चय ही प्रस्तुत ग्रन्थ हमारे लिए 'प्रकाश-स्तम्भ' का काम करेगा, जिसकी रोशनी में हम नई सार्थक दिशाओं की तलाश कर सकते हैं। आशा है, विनयसागर जी के अन्य ग्रन्थों की तरह यह भी विद्वद् समाज में समादृत होगा। सर्वजनहिताय लिखे गये इस ग्रन्थ लेखन की सार्थकता इसी में है कि हम इसका अधिकाधिक प्रसार और उपयोग करें और अपने पुस्तकालय में इसकी प्रति सहेज कर रखें। साधुवाद एवं शुभकामना के साथ अमृत प्रेम। -श्री चन्द्रप्रभ संबोधि-धाम, कालयाना रोड़, जोधपुर (राज.) (१८) भूमिका 2010_04 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्वकथ्य भगवान् श्री महावीर की विशाल शिष्य-सम्पदा और गरिमापूर्ण पट्ट-परम्परा रही है। धर्मसंघ में भगवान् महावीर के शासन की जो पट्ट-परम्परा वर्तमान समय में अविच्छिन्न रूप से चल रही है, वह गणधर सुधर्मास्वामी से मानी जाती है। इतने विशाल श्रमण-संघ का संचालन, संरक्षण और व्यवस्थापन का कार्य कठिन था। अतः परमगीतार्थों ने इसे कुल, गण, संघ में विभाजित किया। सब के उपाचार्य अलग-अलग होते और इन सब के मुख्य संचालक गणनायक होते। कल्पसूत्र के आधार पर कहा जा सकता है कि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी में क्षमाश्रमण देवर्धिगणि के समय तक यह श्रमण-संघ आठ गण, सत्ताईस कुल, पैंतालिस शाखा के रूप में प्रचलित था और इनके अधिकारी, शासक और व्यवस्थापक वर्ग को क्रमशः गणधर, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि तथा गणावच्छेदक आदि के रूप में सम्मानित किया जाता था। प्राचीन पुरालेखों एवं ग्रंथ-प्रशस्तियों के आधार पर मज्झमिका, उच्चा, निर्वृत्तिकुल, विद्याधरगच्छ आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं । सम्भवतः चन्द्रकुल ही चन्द्रगच्छ के रूप में प्रवर्तित हुआ हो। वर्तमान में केवल कौटिकगण, वज्रशाखा और चन्द्रकुल के नाम ही प्राप्त हैं जो कि सभी गच्छों में मान्य हैं। शेष गण, शाखा और कुल समय के प्रवाह में विलीन हो चुके हैं। परम्परा श्रमण भगवान् महावीर के शासन की जो पट्ट-परम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है वह इस प्रकार है१. गणधर तुल्य युगप्रधान परम्परा - जिसमें श्रुतधर, पूर्वधर, परमगीतार्थों की गणना की गई है। ये गणधरों के तुल्य, युग के सर्वश्रेष्ठ प्रभावशाली शासनप्रभावक गीतार्थ आचार्य माने जाते हैं। २. अविच्छिन्न पट्टधर-परम्परा - इसमें भगवान् महावीर से लेकर जो पट्ट परम्परा में पदासीन आचार्य हुए हैं, उनकी गणना की जाती है। १. गणधर तुल्य युगप्रधान परम्परा - भगवान् महावीर की परम्परा के इतिहास में आचार्यों की जो सर्वमान्य सूची उपलब्ध है वह कल्पसूत्र की स्थविरावली ही है। समय के साथ जो शाखाएँ निकलती चली गईं उनके संबंध में व्यवस्थित सूचना उस स्थविरावली से उपलब्ध नहीं हो पाती क्योंकि उस व्यापक सूची में सभी आचार्यों के नाम सम्मिलित हैं। भ० महावीर की परम्परा में सर्वप्रथम युगप्रधानों की परम्परा को व्यवस्थित रूप देने का महत्त्वपूर्ण कार्य युगप्रधान जिनदत्तसूरि ने किया। उन्होंने भ० महावीर के पट्टधरों की पट्टावली का रूप दे इसे उनसे ही आरंभ किया। युगप्रधान जिनदत्तसूरि ने गणधरसार्द्धशतक प्रकरण में गणधर तुल्य जिन आचार्यों का उल्लेख किया है। वे निम्न हैं- गौतम स्वामी/ स्वकथ्य 2010_04 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मस्वामी, जम्बूस्वामी, आर्य प्रभव, आर्य शय्यंभव, आर्य सुहस्ति, आर्य भद्रबाहु, आर्य स्थूलभद्र, आर्यमहागिरि, आर्य समुद्र, आर्य भद्रगुप्त, आर्य सिंहगिरि, आर्य वज्र, आर्य रक्षित, वाचक उमास्वाति, आचार्य हरिभद्रसूरि ___ तत्पश्चात् अपनी पूर्व-परम्परा का उल्लेख करते हुए निम्नांकित पट्ट परम्परा के युगप्रधान तुल्य आचार्यों का उल्लेख किया है- देवसूरि > नेमिचन्द्रसूरि > उद्योतनसूरि > वर्धमानसूरि > जिनचन्द्रसूरि > अभयदेवसूरि > जिनवल्लभसूरि। इन आचार्यों के गुण-गौरव का गान करते हुए और इनके गीतार्थ शिष्य-प्रशिष्य परम्परा के आचार्यों का स्मरण किया है। श्री जिनप्रभसूरि ने प्राभातिक नामावली में युगप्रधान आचार्यों का इस प्रकार उल्लेख किया है सिद्धार्थ, जंबूस्वामि, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, आर्य सुहस्ति, सिंहगिरि, धनगिरि, आर्यसमित, वैरस्वामि, आर्यरक्षित, दुब्बलिकापुष्यमित्र, घृतपुष्यमित्र, वस्त्रपुष्यमित्र, वज्रसेन, नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृत्ति, उद्देहिक, कोट्याचार्य, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, सिद्धसेन दिवाकर, उमास्वाति वाचक, आर्य श्याम वाचक, गोविंद वाचक, रेवती, नागार्जुन, आर्य खपट, यशोभद्रसूरि, मल्लवादी, वृद्धवादी, बप्पहभट्टि, कालकसूरि, शीलांकसूरि, हरिभद्रसूरि, सिद्धर्षि, पादलिप्तसूरि, देवसूरि, नेमिचंद्रसूरि, उद्योतनसूरि, वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचंद्रसूरि, जिनभद्रसूरि ? ) अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि। पट्ट परम्परा के आचार्य - इस परम्परा में भी श्रुतधर, पूर्वधर, गीतार्थ, श्रेष्ठतम आचार्यों के उल्लेख प्राप्त होते है:- १. भगवान् महावीर > २. आर्य सुधर्म > ३. आर्य जम्बू > ४. आर्य प्रभव > ५. आर्य शय्यंभव > ६. आर्य यशोभद्र > ७. आर्य सम्भूति विजय > ८. आर्य भद्रबाहु > ९. आर्य स्थूलभद्र > १०. आर्य महागिरि > ११. आर्य सुहस्ति > १२. आर्य सुस्थित > १३. आर्य इन्द्रदिन्नसूरि > १४. आर्य दिन्नसूरि > १५. आर्य सिंहगिरि > १६. आर्य वज्रस्वामी > १७. वज्रसेनसूरि > १८. चन्द्रसूरि > १९. समन्तभद्रसूरि > २०. देवसूरि > २१. प्रद्योतनसूरि > २२. मानदेवसूरि > २३. मानतुंगसूरि > २४. वीरसूरि > २५. जयदेवसूरि > २६. देवानन्दसूरि > २७. विक्रमसूरि > २८. नरसिंहसूरि > २९. समुद्रसूरि > ३०. मानदेवसूरि > ३१. विबुधदेवसूरि > ३२. जयानंदसूरि > ३३. रविप्रभसूरि > ३४. यशोभद्रसूरि > ३५. विमलचन्द्रसूरि > ३६. देवसूरि > ३७. नेमिचन्द्रसूरि > ३८. उद्योतनसूरि। यह परम्परा गुणविनयोपाध्यायकृत गुर्वावली गीत और क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह से ली गई है। गुणविनयगणि ने ३४. यशोभद्रसूरि के पश्चात् ३५. जिनभद्रसूरि ३६. हरिभद्रसूरि ३७. देवचन्द्रसूरि ३८. नेमिचन्द्रसूरि ३९. उद्योतनसूरि नाम दिये हैं। शेष पूर्ववत् हैं। इस गुर्वावली में गौतम स्वामी और सुधर्मस्वामी को अलग-अलग क्रमांक देने से ३९ नं० पर उद्योतनसूरि आते हैं। दोनों को एक ही मानने पर ३८ नं० पर उद्योतनसूरि आते हैं। उद्योतनसूरि से कई गच्छ उद्भूत हुए थे, उनमें खरतरगच्छ, बृहद्गच्छ आदि प्रमुख हैं। अतः उद्योतनसूरि के बाद की पट्ट-परम्परा का वर्णन आगे किया जाएगा। श्री मुनिसुन्दरसूरि संदर्शित गुर्वावलि पट्ट-परम्परा में ३५वें क्रमांक पर विमलचन्द्रसूरि और ३६वें पर उद्योतनसूरि आते हैं और धर्मसागरोपाध्याय प्रणीत तपागच्छ पट्टावली में ३४ क्रमांक पर विमलचन्द्रसूरि, ३५ पर उद्योतनसूरि आते हैं। इनके अनुसार पूर्ण पट्ट परम्परा इस प्रकार है- १. भगवान् महावीर के पट्टधर (२०) स्वकथ्य 2010_04 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मस्वामी, २. जम्बूस्वामी, ३. प्रभवस्वामी, ४. शय्यंभवसूरि, ५. यशोभद्रस्वामी, ६. सम्भूतिविजयभद्रबाहुस्वामी, ७. स्थूलभद्रस्वामी, ८. आर्यमहागिरी-आर्य सुहस्ति, ९. सुस्थितसूरि-सुप्रतिबद्धसूरि, १०. इन्द्रदिन्नसूरि, ११. दिनसूरि, १२. सिंहगिरि, १३. वज्रस्वामी, १४. वज्रसेनसूरि, १५. चन्द्रसूरि, १६. समंतभद्रसूरि, १७. वृद्धदेवसूरि, १८. प्रद्योतनसूरि, १९. मानदेवसूरि, २०. मानतुंगसूरि, २१. वीरसूरि, २२. जयदेवसूरि, २३. देवानन्दसूरि, २४. विक्रमसूरि, २५. नरसिंहसूरि, २६. समुद्रसूरि, २७. मानदेवसूरि, २८. विबुधप्रभसूरि, २९. जयानंदसूरि, ३०. रविप्रभसूरि, ३१. यशोदेवसूरि, ३२. प्रद्युम्नसूरि, ३३. मानदेवसूरि ३४. विमलचन्द्रसूरि, ३५. उद्योतनसूरि। कई सूचियों में वृद्धदेवसूरि के पूर्व समन्तभद्रसूरि का भी नाम प्राप्त होता है। वस्तुतः क्रमांक १८ श्रीचन्द्रसूरि के पश्चात् की परम्परा का व्यवस्थित रूप प्राप्त नहीं होता है और इनका इतिहास तिमिराच्छन्न है। क्रमांक भी प्राप्त नहीं है। अतः खरतरगच्छ की परम्परा के अनुसार ३८वें पाट पर उद्योतनसूरि को मानना ही अभीष्ट है। चौरासी गच्छ क्षमाश्रमण देवर्द्धि गणि के पश्चात् का क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं होता है। चौरासी गच्छों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं। क्षमाकल्याण उपाध्याय रचित खरतरगच्छ पट्टावली में लिखा है "चैत्यवासी जिनचन्द्राचार्य के शिष्य वर्धमान जिनचैत्य की चौरासी आशातना का अधिकार पढ़ने पर चैत्यवास से विरक्त होकर उद्योतनसूरि के शिष्य बने। इधर उद्योतनसूरि ने अपने तियासी शिष्यों के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा से लौटते हुए सिद्धवड़ पर विश्राम किया और वहाँ मध्यरात्रि के समय आकाश में शकट के मध्य में बृहस्पति का प्रवेश करते हुए देखकर विचार किया कि 'यह समय सर्वश्रेष्ठ है जिस किसी शिष्य के मस्तक पर हाथ रखा जाए तो वह प्रसिद्धिमान होगा,' उसी समय वासक्षेप के अभाव मे काष्ट-छगणादि का चूर्ण लेकर, अभिमंत्रित कर, ८३ शिष्यों पर निक्षिप्त कर सभी को आचार्य पद प्रदान किया। वर्धमानसूरि पहले ही आचार्य बन चुके थे। अतः ८४ आचार्य हुए और उनसे पृथक्-पृथक् गच्छों की स्थापना हुई।" यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि खरतरगच्छ की प्राचीन गुर्वावलियों में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है कि उद्योतनसूरि के ८४ शिष्य थे। इस घटना के कोई प्रामाणिक उल्लेख भी नहीं हैं। संभव है उन्होंने किसी सन्दर्भ से यह घटना प्राप्त की है। युगप्रधान जिनदत्तसूरि ने गणधरसार्द्धशतक में अपने पूर्वजों के गुण-गौरवों का स्मरण करते हुए भी इस घटना का उल्लेख नहीं किया है। गणधरसार्द्धशतक के टीकाकार सुमतिगणि (रचना वि०सं० १२८५) और 'खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि' के रचनाकार श्री जिनपालोपाध्याय (रचना वि०सं० १३०५) ने भी इस घटना का कहीं उल्लेख नहीं किया है। उनके स्वकथ्य (२१) 2010_04 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार वर्धमानसूरि के गुरु ८४ स्थानों के अधिपति थे। इन्हीं ८४ स्थान/मठों को परवर्ति विद्वानों ने ८४ गच्छ मान लिये हों, ऐसा संभव है। क्षमाकल्याणोपाध्याय के पूर्व किसी भी प्राचीन पट्टावलिकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। तपागच्छ परम्परा में श्री गुणरत्नसूरि स्वरचित गुरुपर्वक्रमवर्णन (पद्य १८ से २०) में लिखा है - 'विक्रम सं० ९९४ में उद्योतनसूरि संघ के साथ आबू के समीप टेलीपुर में बृहद्वट (विशाल बड़े वृक्ष) के नीचे शुभ मुहूर्त देखकर अपने पद पर ८ आचार्यों को प्रतिष्ठित किया था। विशाल बड़ के नीचे यह संस्थापना होने से यह गच्छ बृहद् गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसके प्रथम आचार्य सर्वदेवसूरि हुए।' इसी प्रकार महोपाध्याय धर्मसागर रचित तपागच्छ पट्टावली स्वोपज्ञ वृत्ति में लिखा है - 'श्री विमलचन्द्रसूरि के पट्ट पर उद्योतनसूरि हुए। आबू की यात्रा करते हुए टेली ग्राम की सीमा में विशाल वट-वृक्ष की छाया में बैठे हुए श्रेष्ठतम मुहूर्त देखकर वीर सम्वत् १४६४ और विक्रम सम्वत् ९९४ में अपने पट्ट पर सर्वदेवसूरि आदि ८ आचार्यों को स्थापित किया।' कितने ही पट्टावलिकार कहते हैं - 'केवल सर्वदेवसूरि को ही स्थापित किया था। वट-वृक्ष के नीचे सूरि पद देने से यह गच्छ वट गच्छ/बृहद् गच्छ के नाम से जग में प्रसिद्ध हुआ।' इन दोनों प्राचीन उल्लेखों से भी स्पष्ट है कि तपागच्छ की परम्परा में भी उद्योतनसूरि के द्वारा केवल १ अथवा ८ आचार्य ही अपने पट्ट पर स्थापित किये गये थे न कि ८४ । अतः यह विचारणीय प्रश्न बनता है कि ८४ गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि थे, यह धारणा किस प्रकार प्रचलित हो गई? यह विद्वानों के लिए शोध का विषय है। बृहद्गच्छ के संस्थापक उद्योतनसूरि और खरतरगच्छीय वर्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि के समय में भी अन्तर है। अतः दोनों उद्योतनसूरि पृथक्-पृथक् हैं, यह मानने में कोई संदेह नहीं है। दूसरी बात चौरासी गच्छों के जो नामोल्लेख मिलते हैं, उनमें से कई गच्छ पूर्ववर्ती और कई गच्छ परवर्ती हैं जो कई शताब्दियों में प्रचलित हुए हैं। अतः इस घटना के साथ सम्बन्ध जोड़ना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरि ने अपने 'जैन गच्छमत प्रबन्ध' नामक पुस्तक में (अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, पादरा से प्रकाशित) में ९९ गच्छों के नाम इस प्रकार दिये हैं १. निर्ग्रन्थ गच्छ २. कोटिक गच्छ ३. वनवासी गच्छ ४. उपकेश गच्छ ५. वज्र शाखा गच्छ ६. नागिल गच्छ ७. खण्डिल्ल शाखा गच्छ ८. निर्वृत्तिकुल राजचैत्र गच्छ . ९. ब्रह्मद्वीप गच्छ १०. हर्षपुरीय गच्छ ११. मल्लधारी गच्छ १२. सांडेर गच्छ १३. वड गच्छ १४. कोरंट गच्छ १५. कूर्चपुरीय गच्छ (२२) स्वकथ्य 2010_04 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चैत्यवास मत गच्छ ४४. बृहद् खरतर गच्छ ७२. चैत्रवास गच्छ १७. नाणावल गच्छ ४५. पिप्पलक खरतर गच्छ ७३. वागड गच्छ १८. चित्रवाल गच्छ ४६. खरतरगच्छ मधुकरा शाखा ७४. भिन्नमाल गच्छ १९. विधिपक्ष गच्छ ४७. तपा गच्छ वृद्ध पौषालिक ७५. धर्मघोष गच्छ २०. सार्ध पूर्णिमा गच्छ (अचंल) ४८. तपा गच्छ लघु पौषालिक ७६. देवनन्दित गच्छ २१. खरतर गच्छ ४९. तपा गच्छ विजयदेवसूरि गच्छ ७७. खरतरगच्छ वेगडशाखा २२. आगमिक गच्छ ५०. तपा गच्छ आनन्दसूरि गच्छ ७८. रालद्रा गच्छ २३. स्तवपक्ष गच्छ ५१. सागर गच्छ ७९. सीदाघटीय गच्छ २४. द्विवंदनिक गच्छ ५२. प्रश्नवाहन कुल ८०. श्री पल्लिय गच्छ २५. जीराउला गच्छ ५३. शेषुर गच्छ ८१. कच्छोलिवाल गच्छ २६. निम्बजीय गच्छ ५४. कूवड गच्छ ८२. हारीज गच्छ २७. हस्तिकुंडी गच्छ ५५. हुंबड गच्छ ८३. सैद्धांतिक गच्छ २८. राज गच्छ ५६. उपकेश गच्छ ८४. हीरापल्ली गच्छ २९. रुद्रपल्लीय गच्छ ५७. द्विवन्दनिक वृद्ध शाखा ८५. जात्योद्धार गच्छ ३०. वायटीय गच्छ ५८. वृद्ध तपा गच्छ ८६. काशहृदीय गच्छ ३१. उकेश गच्छ ५९. कोरंटा तपा गच्छ ८७. महुकर गच्छ ३२. पूनमिया गच्छ ६०. कडवो पंथ मत ८८. सीद्रानी गच्छ ३३. तपा गच्छ ६१. बीज गच्छ (विजय गच्छ) ८९. जाखडीया गच्छ ३४. विशावल गच्छ ६२. कमलकलश गच्छ ९०. छित्रावाल गच्छ ३५. थारापद्रीय गच्छ ६३. कतकपुरा गच्छ ९१. चतुर्दशी पक्ष ३६. कृष्णराजर्षि गच्छ ६४. पायचंद (पार्श्वचन्द्र गच्छ) ९२. त्रीभविया गच्छ ३७. पुरन्दर गच्छ ६५. कासद्रा गच्छ ९३. रत्नाकर गच्छ ३८. कमला गच्छ ६६. श्री शरवाल गच्छ ९४. जेरंड गच्छ ३९. चान्द्र गच्छ ६७. ब्रह्माण गच्छ ९५. जांगिड गच्छ ४०. विद्याधर गच्छ ६८. नाणकीय गच्छ ९६. किन्नरस गच्छ ४१. निवृत्ति गच्छ ६९. पिप्पलिया गच्छ ९७. नागर गच्छ ४२. नागपुरी तपा गच्छ ७०. भावडार गच्छ ९८. भावदेवाचार्य गच्छ ४३. लघु खरतर गच्छ ७१. भावरहेर गच्छ ९९. निगमप्रभावक गच्छ उक्त ८४ गच्छों के नामों पर विमर्श करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन गच्छों के नामों की उत्पत्ति कई प्रकार से हुई है। जैसे - १. प्रतिष्ठित आचार्य के नाम से, २. आचार्य की विशिष्ट प्ररूपणा के नाम से, ३. ग्राम के नाम से और ४. गोत्र के नाम से। स्वकथ्य (२३) 2010_04 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आचार्य के नाम से - आचार्य कृष्णर्षि के नाम से कृष्णर्षिगच्छ; पार्श्वचन्द्रसूरि के नाम से पार्श्वचन्द्रसूरिगच्छ। २. आचार्यों के विचारभेद/मान्यताभेद से भी गच्छों की उत्पत्ति हुई है। जैसे :- अंचलगच्छ, पूर्णिमागच्छ, सैद्धान्तिक गच्छ, द्विवन्दनीकगच्छ, त्रिस्तुतिगच्छ आदि गच्छ। ३. ग्रामों के नाम से - उपकेशपुर से उपकेशगच्छ, कोरटा से कोरंटागच्छ, पाली से पल्लीवालगच्छ, भीमपल्ली (भीलड़ी) से भीमपल्लीगच्छ, रुद्रपल्ली से रुद्रपल्लीगच्छ, सांडेराव से संडेरकगच्छ, जीरापल्ली से जीरापल्लीगच्छ, नागपुर से नागौरीगच्छ, हस्तिकुण्डी से हस्तिकुण्डीगच्छ, निम्बाज से निम्बाजगच्छ आदि। ३. गोत्र के नाम से - प्रसिद्ध आचार्य के गोत्र से अथवा उनके अनुयायिओं के गोत्र से भी कुछ गच्छों का उद्भव हुआ है। जैसे - रांका गोत्र (श्री पूरणचन्द्र नाहर, जैन लेख संग्रह के आधार से), रांकागच्छ, हुम्बड़ गोत्र से हुम्बड़गच्छ आदि। उक्त गच्छों के नामों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि - क्रमांक ४ उपकेशगच्छ की पुनरावृत्ति क्रमांक ५६ पर हुई है। क्रमांक ३१ उकेश उपकेश का ही नाम है। इसी प्रकार क्रमांक ३८ कमलागच्छ भी उपकेशगच्छ का ही नाम है। क्रमांक १३ वडगच्छ से निश्रित तपागच्छ है और क्रमांक ३३. तपागच्छ की शाखाएँ और उपशाखाएँ निम्न हैं- ४७. तपागच्छ वृद्ध पौषालिक ४८. तपा गच्छ विजयदेवसूरि गच्छ ४९. तपा गच्छ विजयदेवसूरि गच्छ ५० तपा गच्छ आनन्दसूरि गच्छ ५१. सागर गच्छ ५८. वृद्ध तपा गच्छ ६३. कमलकलश गच्छ ९९. निगमप्रभावक गच्छ। क्रमांक ४४ बृहद् खरतरगच्छ की निम्न शाखाएँ हैं- ४३. लघु खरतर गच्छ ४५. पिप्पलक खरतर गच्छ ४६. खरतरगच्छ मधुकरा शाखा, ७७. खरतरगच्छ वेगडशाखा ८७. महुकर गच्छ। क्रमांक १७. नाणावल गच्छ और क्रमांक ६८. नाणकीय गच्छ एक ही है। क्रमांक २५. जीराउला गच्छ और क्रमांक ८४. हीरापल्ली गच्छ एक ही प्रतीत होते है। जीरापल्ली के स्थान पर हीरापल्ली लिख दिया गया हो। चौरासी गच्छ की उद्भव की कल्पना से पूर्व ही निम्न गच्छ विद्यमान थे। जैसे - क्रमांक १. निर्ग्रन्थ गच्छ २. कोटिक गच्छ ३. वनवासी गच्छ ५. वज्र शाखा गच्छ ६. नागिल गच्छ ८. निर्वृत्तिकुल राजचैत्र गच्छ ९. ब्रह्मद्वीप गच्छ ३६. कृष्णराजर्षि गच्छ ३९. चान्द्र गच्छ ४०. विद्याधर गच्छ ४१. निवृत्ति गच्छ ५२. प्रश्रवाहन कुल आदि। उक्त सूची में से कई गच्छों के नाम ऐसे है जो कि बहुत बाद में (१६वीं शताब्दी तक) गच्छ के रूप में व्यवहरित हुए हैं, अतः वे अर्वाचीन ही हैं। जैसे - क्रमांक १९. विधिपक्ष गच्छ २०. सार्ध पूर्णिमा गच्छ (अंचल), खरतरगच्छ एवं उसकी शाखाएँ, (२४) स्वकथ्य 2010_04 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ एवं उसकी शाखाएँ और उप-शाखाएँ, क्रमांक ४२. नागपुरी तपा गच्छ, क्रमांक ६०. कडवो पंथ मत, ६१. बीज गच्छ (विजय गच्छ) ६४. पायचंद (पार्श्वचन्द्र गच्छ)। चौरासी गच्छों के नामों में कई स्वतंत्र गच्छ हैं और कई उनकी शाखा प्रशाखाएँ हैं। जैसे - पौर्णमासी से सार्द्धपौर्णमासी, चन्द्रगच्छ से राजगच्छ, उसी से धर्मघोषगच्छ, प्रश्रवाहनकुल से हर्षपुरीय और उससे मलधारी और उसी से विजयगच्छ आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस किसी शताब्दी में चौरासी संख्यात्मक गच्छों की कल्पना उद्भूत हुई थी, उस समय में विद्यमान/प्रचलित गच्छों के नामों को, शाखा-प्रशाखाओं को सम्मिलित कर चौरासी की संख्या पूर्ण की गई हो। चैत्यवास भगवान् महावीर के शासन में साध्वाचार का विशुद्ध पालन करने के लिए उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन ही मुख्य आधार माना है। कुछ विशिष्ट कारणों से शासन की रक्षा, धर्म-प्रचार, राजाओं को प्रतिबोध और काल की परिस्थितियों को समक्ष रखते हुए अपवाद मार्ग को भी स्वीकार किया गया। अपवाद मार्ग को अंगीकार करने पर प्रायश्चित्त का विधान भी किया गया है। काल के प्रभाव से उत्सर्ग मार्ग धीमे-धीमे कैंसर की तरह अपवाद के रूप में परिणत होता गया। मानव सुविधावादी है, तनिक भी सुविधा मिलने पर फिसलन की ओर आकृष्ट हो जाता है और उस मार्ग पर घिसटता हुआ चला जाता है। आर्य सुहस्तिसूरि सम्प्रति राजा को प्रतिबोध देने के कारण उसके निकट सम्पर्क में आए। इधर बिहार में भीषण दुष्काल भी पड़े। इन कारणों से सम्भव है कुछ अपवाद भी स्वीकार किये गये हों, इधर आर्य महागिरि जैसे उत्कृष्ट संयमधारी ने पृथक् होकर जिनकल्पीमार्ग स्वीकार किया। सम्भवतः शिथिलता का यह प्रथम चरण हो। वज्रस्वामी के आकाश-गमन से पुष्प लाने आदि कथानकों से भी इस प्रकार के कुछ बीज प्राप्त होते हैं। यही शिथिलता क्रमशः पनपती हुई, सुविधावाद की ओर बढ़ती हुई ८वीं शताब्दी में चैत्यवास के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई थी। कुछ कथानकों के अनुसार आचार्य हरिभद्रसूरि भी चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, किन्तु वे इस परम्परा से विमुख हो कर विशुद्धाचार की ओर अग्रसर हो गये। उनके हृदय में चैत्यवास शूल की तरह खटकता रहा। यही कारण है कि उन्होंने अपने "संबोधप्रकरण' में हार्दिक रुदन करते हुए चैत्यवासियों की शिथिलता का जो चित्रण किया है, वह द्रष्टव्य है। _ 'ये मुनि-वेशधारी तथाकथित श्रमण को आवास देने वालों के यहाँ या राजा के यहाँ भोजन करते हैं, बिना कारण ही अपने लिए लाए गए भोजन को स्वीकार करते हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमण-जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, कौतुक कर्म, भूत-कर्म, भविष्य-फल एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम से धन-संचय करते हैं, ये घृत-मक्खन आदि स्वकथ्य (२५) ___ 2010_04 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य प्रमाण भोजी होते हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो साधु- समूह ( मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं । ' फिर ये करते क्या हैं? आचार्य लिखते हैं- 'सवारी में घूमते हैं, अकारण कटि-वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का प्रतिलेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । ' 'अनैषणीय पुष्प, फल और पेय ग्रहण करते हैं। भोज - समारोहों में जाकर सरस आहार ग्रहण करते हैं। जिन - प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन आदि कर्म करते हैं । नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं। स्त्रियों के समक्ष गीत गाते हैं। आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण धारण करते हैं। चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते हैं, जिन - मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक - कृत्य निमित्त जिन - पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन - दान ( चढावा) करवाते हैं। धन प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग - सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत - गुरु के निमित्त नंदिकर्म, बलिकर्म आदि करते हैं। पाट-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन - आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं । ये तो ज्ञान के भी विक्रेता हैं। ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य-संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं। ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और कर्मबन्धन होता है । ' ऐसे वेशधारियों/शिथिलाचारियों को फटकारते हुए पुनः वे कहते हैं - 'यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके भी शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ- वेश क्यों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, किन्तु मुनि - वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे । ' शास्त्र - विरुद्ध आचरण करने वाले को अपूजनीय और अवन्दनीय मानते हुए आचार्य हरिभद्र आक्रोश भरे शब्दों में पुन: कहते हैं - 'ऐसे दुश्शील, साधु-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है ? अरे, इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष - मार्ग के वैरी, आज्ञा भ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो । अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे, इन अधर्म और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले साधुता के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे ( दुराचारियों के ( २६ ) 2010_04 स्वकथ्य Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूह) को राग या द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है।' इन वेश विडम्बकों के कार्यकलापों और गर्हित जीवन को देखते हुए पुन: आचार्य कहते हैं- 'जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है।' उपालम्भपूर्वक इन कठोर भर्त्सनाओं का इस चैत्यवास समाज पर कुछ असर पड़ा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। किन्तु यह विषवल्लरी निरन्तर वेग के साथ बढ़ती रही और ११वीं शताब्दी में इनका विकृत स्वरूप राज्यमान्य भी हो गया। इस समय तो वे राजकुमारों को युद्ध का शिक्षण भी देने लगे थे। यहीं तक नहीं अपितु गुजरात में राजाओं के द्वारा यह आदेश पत्र भी निकलवा दिया था कि 'गुर्जर धरा की सीमा पर कोई भी संविग्न आचारशील क्रियाशील सुविहित साधु प्रवेश भी न कर सकें।' भूल से कोई सुविहित साधु सीमा में प्रवेश भी कर जाए तो उन्हें राज्यादेश से निष्कासित कर दिया जाता। राज्यादेश प्राप्त होने के कारण ये चैत्यवासी आचार्यगण निरंकुश होकर स्वच्छंद आचरण करने लगे थे और स्वनिर्मित ग्रंथों के द्वारा स्वहित-आचार की पुष्टि भी करते थे। इतना ही नहीं यदि सुविहित आचारसम्पन्न साधु उस सीमा में प्रवेश कर जाता तो उन्हें भोजन, पानी (आहार, पानी) और रहने को स्थान भी नहीं दिया जाता। यदि कोई इन्हें आहार, पानी और स्थान देता तो वह दण्डनीय अपराधी होता। वैसे तो यह चैत्यवास सारे उत्तर भारत में व्याप्त था किन्तु इसका गढ़ गुजरात ही माना जाता था। मेदपाट (मेवाड़) भी इससे अछूता न था। यहाँ भी आचार-सम्पन्न साधुओं को भोजन, पानी और स्थान नहीं मिलता था। शास्त्रार्थ-विजय वर्धमानसूरि चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य थे। ये जिनचन्द्राचार्य चौरासी स्थानों के अधिपति/मठपति थे। वर्धमान सिद्धान्तों की वाचना को ग्रहण करते हुए जिन मंदिर/प्रतिमा की चौरासी आशातनाओं को पढ़कर चैत्यवास से विरक्त हो गये और गुरु से अनुमति लेकर श्री उद्योतनसूरि के समीप सम्यक् प्रकार से आगम तत्त्वों की जानकारी प्राप्त कर उनके पास उप-सम्पदा ग्रहण की। उद्योतनसूरि ने उन्हें पूर्णतयः मेधा-सम्पन्न और योग्य जानकर आचार्य पद पर स्थापित किया। वर्धमानसूरि ने वेद-विद्या सम्पन्न श्रीधर और श्रीपति को अपना शिष्य बनाया। जिनेश्वर और बुद्धिसागर नाम रखा और क्रमश: इनको आचार्य पद भी प्रदान किया। अन्य अनेक शिष्यों को भी दीक्षित किया। वर्धमानसूरि चैत्यवास त्याग कर सुविहित बने थे अतः चैत्यवास शल्य की तरह उनके हृदय में सदा खटकता रहता था। जब वे दृष्टिपात करते थे तो सारा देश चैत्यवासमय दृष्टिगोचर होता था। गुजरात में चैत्यवासियों की दुर्दम्य अधर्म लीला देखकर वे सदा यही चाहते थे कि 'गुजरात से चैत्यवास स्वकथ्य (२७) 2010_04 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को धूलि-धूसरित किया जाए।' इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर वे गुजरात के पाटण नगर अणहिलपुर पत्तन पहुँचे, जहाँ उन्हें रहने को 'स्थान न मिला' न खाने को 'आहार-पानी'। राजपुरोहित सोमेश्वर ने जिनेश्वर की वाग्मिता, वैदुष्य, चारों वेदों पर आधिपत्य/अधिकार देखकर उन्हें अपने आवास में ठहरने को स्थान दिया और भोजन-पानी की व्यवस्था की। चैत्यवासियों को आचार-सम्पन्न साधुओं का नगर प्रवेश और राज पुरोहित द्वारा स्थान देना काँटे की तरह खटकने लगा और उन्होंने अनेक प्रकार के षड्यन्त्र रचकर उनको गुजरात की सीमा से बाहर निकालने का प्रयत्न भी किया। राज-पुरोहित सोमेश्वर द्वारा राजा दुर्लभराज को समझाने पर शास्त्रार्थ का समय निश्चित किया गया। चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य सूराचार्य आदि शास्त्रार्थ के लिए पंचासरा पार्श्वनाथ में आए। महाराजा दुर्लभराज ने इस सभा की अध्यक्षता ग्रहण की। इधर से वर्धमानसूरि भी जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के साथ सभा-स्थल पर पहुँचे। राजा ने दोनों का सम्मान किया। वर्धमानसूरि की नि:संगता और साधुत्व से दुर्लभराज यह सोचकर प्रसन्न भी हुए कि ये वास्तव में विशुद्ध आचार-पालक साधुगण हैं, षड्यंत्रकारी गुप्तचर नहीं। शास्त्रार्थ का विषय था - साधुजनों का आचार कैसा हो ? इधर चैत्यवासियों की ओर से शास्त्रार्थ के लिए सूराचार्य को अधिकृत किया गया और वर्धमानसूरि ने अपनी ओर से जिनेश्वसूरि को अधिकार प्रदान किया। जिनेश्वरसूरि ने आगम ग्रंथों - दशवैकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों के आधार से अप्रतिबद्धविहारी अप्रमत्त साधुजनों के आचार-विचार को प्रतिष्ठित किया। आगमिक उल्लेखों के सामने चैत्यवासी आचार्य निरुत्तर हो गये। विजयपताका वर्धमानसूरि को प्राप्त हुई। कहा जाता है कि महाराजा दुर्लभराज ने 'आपका पक्ष खरा है, सत्य है' इस विरुद से सम्मानित किया। इस विजय के कारण समस्त गुर्जर-धरा पर लगे राजकीय प्रतिबन्ध समाप्त हो गये और सुविहित साधु अपनी श्रमणचर्या का पालन करते हुए सुखपूर्वक विचरण करने लगे। वसतिवास प्रारम्भ हुआ। महाराजा दुर्लभराज के मुख से विजय सूचक 'खरा' शब्द ही 'खरतरगच्छ' का आविर्भावक बना। कई विद्वान् परम्पराग्रह इत्यादि कारणों से कुछ प्रश्न खड़े करते हैं१. महाराजा दुर्लभराज के समक्ष शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं। २. प्रभावकचरित्रकार प्रभाचन्द्रसूरि प्रभावकचरित के अन्तर्गत सूराचार्य चरित्र में इस शास्त्रार्थ का उल्लेख भी नहीं करते हैं। ३. खरतरगच्छ पट्टावलियों में इस शास्त्रार्थ का जो सम्वत् दिया है, वह भ्रामक है। ४. जिनेश्वरसूरि के शिष्यों ने विजयसूचक कहीं 'खरतर' शब्द का उल्लेख नहीं किया। इन प्रश्रों का समाधान संक्षिप्त पद्धति से प्रस्तुत कर रहा हूँ। (२८) स्वकथ्य 2010_04 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. युगप्रधान जिनदत्तसूरि (समय ११३७ से १२११ तक) स्वप्रणीत गणधरसार्द्धशतक गाथा (६४ से ६८), सुगुरुपारतंत्र्यस्तव गाथा (९ से ११) और सुगुरुगुणस्तव सप्ततिका (गाथा ४९ से ५१) में स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि अणहिलपुर पाटण में महाराजा दुर्लभराज की राज्यसभा में साध्वाचार को लेकर शास्त्रार्थ हुआ और इस विजय के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण गुर्जर धरा में वसतिवास का प्रचार हुआ। श्री सुमतिगणि ने गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति में इन श्लोकों की व्याख्या करते हुए शास्त्रार्थ और विजय का पूर्ण वर्णन दिया है। श्री जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली (रचना सम्वत् १३०५) में भी इस घटना का सांगोपांग वर्णन दिया है। श्री प्रभाचन्द्रसूरि भी प्रभावक चरित के अन्तर्गत अभयदेवसूरि चरित में (पद्य ४४ से ८९ तक) इस शास्त्रार्थ घटना का सांगोपांग उल्लेख करते हैं कि अणहिलपुर पत्तन में दुर्लभराजा की सभा में शास्त्रार्थ हुआ था और इस विजय के बाद समस्त गुजरात में वसतिवास की परम्परा स्थापित हुई थी। __ अतः स्पष्ट हो जाता है कि दुर्लभराज की राजसभा में यह शास्त्रार्थ अवश्य हुआ था। २. प्रभाचन्द्राचार्य का प्रभावकचरित के अन्तर्गत सूराचार्य चरित में इस शास्त्रार्थ की घटना का कहीं उल्लेख नहीं है। इस प्रसंग में ये मौन ही रहते हैं। प्रभावकचरित की रचना वि०सं० १३३४ में हुई है। वे इस सूराचार्य चरित में इस घटना का उल्लेख नहीं करते। इस सम्बन्ध में पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मुनि 'जिनविजयजी' कथाकोश प्रकरण की प्रस्तावना पृष्ठ ४१ में मेरे मत का समर्थन करते हुए लिखते हैं 'यों तो प्रभावकचरित में सूराचार्य के चरित का वर्णन करने वाला एक स्वतंत्र और विस्तृत प्रबन्ध ही ग्रथित है जिसमें उनके चरित की बहुत सी घटनाओं का बहुत कुछ ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण वर्णन किया गया है; लेकिन उसमें कहीं भी उनका जिनेश्वर के साथ इस प्रकार के वाद-विवाद में उतरने का कोई प्रसंग वर्णित नहीं है। परंतु हमको इस विषय में उक्त प्रबन्धकारोंका कथन विशेष तथ्यभूत लगता है। प्रभावकचरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशाली अग्रणी थे। ये पंचासर पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवाद प्रिय थे। अतः शास्त्राधार की दष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था। इसलिये इसमें कोई सन्देह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित हो कर जिनेश्वर का पक्ष राजसम्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये, संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का, उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंग को उक्त रूप में आलेखित कर, अपना मौनभाव ही प्रकट किया हो।' स्वकथ्य (२९) 2010_04 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राज्यसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए । ३. सम्वत् भ्रामक है अर्वाचीन पट्टावलिकारों ने पट्टावलियों में कहीं १०८० सम्वत् का उल्लेख किया है तो किसी ने १०२४ का। यह वस्तुतः श्रवण परम्परा पर आधारित है। इसको आधार मानकर कुछ लोग समय के विषय में निरर्थक ही विवाद उपस्थित करते हैं । इस सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त है कि युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं। इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्रुति, गीतार्थश्रुति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्य काल में । वस्तुतः समग्र लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौनधारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की है अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । महाराजा दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना हुई है। जिनेश्वरसूरि के शिष्यों ने विजयसूचक कहीं 'खरतर' शब्द का उल्लेख नहीं किया ४. वर्धमानसूर और जिनेश्वरसूरि ने महाराजा दुर्लभराज के मुख से निकले हुए 'आपका मार्ग खरा . है', इस विरुद को विशेष महत्त्व नहीं दिया और उसके स्थान पर उनके समय से सुविहित शब्द का प्रचलन हुआ । सुविहित अर्थात् भगवान् महावीर प्रतिपादित आगम ग्रंथ सम्मत श्रमणाचार का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले होता है । इस शब्द का जिनेश्वरसूरि के पूर्व साधुजनों / आचार्यों के लिए प्रयोग प्राप्त नहीं होता है । वर्धमानसूरि चन्द्रकुलीय थे । चन्द्रकुल के साथ खरतर विरुद शब्द का लगाना उपयुक्त न समझा । नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की व्याख्या (रचना सं० १९२८) इनके लिए चान्द्रे कुले सद्वनकल्पकक्षे, चन्द्रकुल, समवायांग की टीका प्रशस्ति में 'निःसम्बन्धविहारहारिचरितान्' ज्ञातासूत्र की टीका में निस्संबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा और श्रीसंविग्नविहारिणः शब्दों का, औपपातिकसूत्र की टीका - प्रशस्ति में 'चन्द्रकुल और नि:संबन्धविहारस्य' तथा स्थानांगसूत्र की टीका के प्रारम्भ में 'चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरित श्रीवर्द्धमानाभिधानमुनिपातिपादोपसेविनः प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरण-विधप्रणायिनःप्रबुद्धप्रतिबन्धकप्रवक्तृप्रवीणाप्रतिहतवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य सुविहितमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य' का उल्लेख किया है । चन्द्रकुल के साथ शास्त्रविहित आचार का पालन करने वाले सुविहित विशेषण का प्रयोग प्राप्त होता है । आचार्य वर्धमान और जिनेश्वर ने चैत्यवास- उन्मूलन के लिए जो ज्योतिशिखा प्रज्वलित की थी, उस ज्योति-शिखा को प्रचण्ड रूप से प्रज्वलित करने वाले आचार्य जिनवल्लभसूरि, आचार्य जिनदत्तसूरि, जिनपतिसूरि, द्वितीय जिनेश्वरसूरि आदि हुए हैं। जिनवल्लभसूरि ने निषेध के साथ विधिमार्ग को प्रधानता दी इसलिए इनके समय से ये सुविहित विधिपक्षानुयायी कहलाने लगे । जन-समूह इन्हें खरतर कहता रहा किन्तु इन आचार्यों ने अपने साथ इस विरुद का प्रयोग नहीं किया । चैत्यवास प्रथा के निरसन के साथ (३०) 2010_04 - स्वकथ्य Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही लोग जिह्वा पर चढ़ा शब्द इनके लिए 'खरतर संघ' अथवा 'खरतर गच्छ' का प्रयोग करने लगा। इस परम्परा ने इस लोक श्रुति को १२७० के पश्चात् ही अपने लिए कोटिकगण, वज्रशाखा चन्द्रकुल के साथ 'खरतरगच्छ' विरुद को अपना लिया जो आज तक अविच्छिन्न रूप से खरतरगच्छ के नाम से अभिहित होने लगा और हो रहा है। नये युग का सूत्रपात गुर्जर-धरा पर चैत्यवासियों पर विजय और चैत्यवास का जड़ से उन्मूलन होने से एवं उनके खर, तीक्ष्ण,कठोर, कठिन, सुविहित आचार का पालन करने से जिनेश्वरसूरि ने सुविहितों के जीवन में नये प्राण फूंक दिये। यहाँ से एक नये युग का प्रारम्भ हुआ। जिनेश्वरसूरि के वैदुष्य और सुविहित आचार का प्रभाव समस्त भारत के उद्भट विद्वान् जैनाचार्यों पर भी पड़ा और वे शिथिलाचार का त्याग कर सुविहित आचार की ओर कदम बढ़ाने लगे। इस विराट प्रभाव का अंकन करते हुए पुरातत्त्वाचार्य मुनि 'जिनविजयजी' कथाकोश प्रकरण की प्रस्तावना पृष्ठ ६ पर लिखते हैं - _ 'जिनेश्वरसूरि के प्रबल पाण्डित्य और प्रकृष्ट चारित्र का प्रभाव इस तरह न केवल उनके निज के शिष्यसमूह में ही प्रसारित हुआ, अपितु तत्कालीन अन्यान्य गच्छ एवं यतिसमुदाय के भी बड़े-बड़े व्यक्तित्वशाली यतिजनों पर उसने गहरा असर डाला और उसके कारण उनमें से भी कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुकरण में, क्रियोद्धार और ज्ञानोपासना आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का बड़े उत्साह के साथ उत्तम अनुसरण किया। इनमें बृहद्गच्छ के नेमिचन्द्र और मुनिचन्द्रसूरिका संप्रदाय तथा मलधारगच्छीय अभयदेवसूरिका समुदाय एवं पूर्णतल्ल गच्छानुयायी प्रद्युम्नसूरि का शिष्य-परिवार विशेष उल्लेख योग्य है। मुनिचन्द्रसूरि की शिष्य-सन्तति में वादी देवसूरि, भद्रेश्वरसूरि, रत्नप्रभसूरि, सोमप्रभसूरि आदि बड़े ख्यातिमान्, महाविद्वान् और समर्थ ग्रंथकार हुए। इन्हीं की शिष्य परम्परा में आगे जा कर जगच्चन्द्रसूरि और उनके शिष्य देवेन्द्रसूरि तथा विजयचन्द्रसूरि आदि प्रख्यात आचार्य हुए, जिनसे श्वेताम्बर संप्रदाय में पिछले ५००६०० वर्षों में सबसे अधिक प्रतिष्ठाप्राप्त तपागच्छ नामक संप्रदायका प्रचार और प्रभाव फैला। वर्तमान में श्वेताम्बर संप्रदाय में सबसे अधिक प्रभाव इसी गच्छ का दिखाई दे रहा है।' 'मलधारगच्छीय अभयदेवसूरि के शिष्य - प्रशिष्यों में हेमचन्द्रसूरि (विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यादि के कर्ता) लक्ष्मणगणी, श्रीचन्द्रसूरि आदि बड़े समर्थ विद्वान् हुए जिनके चारित्र और ज्ञान के प्रभाव ने तत्कालीन जैन समाज की उन्नति में विशेष प्रशंसनीय कार्य किया। पूर्णतल्ल गच्छ में देवचन्द्रसूरि और उनके जगत्प्रसिद्ध शिष्य कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि और उनके शिष्य रामचन्द्र, बालचन्द्र आदि हुए। हेमचन्द्रसूरि की सर्वतोमुखी प्रतिभा ने जैन साहित्यको कैसा गौरवान्वित किया और उनके अप्रतिम सदाचरण तथा अलौकिक तपस्तेज ने जैन समाज को कितना समुन्नत बनाया यह इतिहास प्रसिद्ध है।' इसी प्रकार मनि जिनविजयजी इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में 'जिनेश्वरसूरि से जैन समाज में नूतन युग का प्रारम्भ' शीर्षक से देते हुए लिखते हैं स्वकथ्य (३१) 2010_04 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इनके प्रादुर्भाव और कार्यकलाप के प्रभाव से जैन श्वेताम्बर समाज में एक सर्वथा नवीन युग का आरम्भ होना शुरु हुआ। पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा । त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नये संगठन होने शुरु हुए। त्यागी अर्थात् यतिवर्ग जो पुरातन परम्परागत गण और कुल के रूप में विभक्त था, वह अब नये प्रकार के गच्छों के रूप में संघटित होने लगा । देवपूजा और गुरूपास्तिकी जो कितनीक पुरानी पद्धतियां प्रचलित थीं उनमें संशोधन और परिवर्तन के वातावरण का सर्वत्र उद्भव होने लगा। इसके पहले यतिवर्ग का जो एक बड़ा समूह चैत्यनिवासी हो कर चैत्यों की संपत्ति और संरक्षा का अधिकारी बना हुआ था और प्रायः शिथिलक्रिया और स्वपूजानिरत हो रहा था, उसमें इनके आचार-प्रवण और भ्रमणशील जीवन के प्रभाव से, बडे वेग से और बडे परिमाण रूप में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । इनके आदर्श को लक्ष्य में रख कर, जैसा कि हम ऊपर सूचित कर आये हैं, अन्यान्य अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकारका और शिथिलाचारका त्याग कर, संयम की विशुद्धि के निमित्त उचित क्रियोद्धार करने लगे और अच्छे संयमी बनने लगे। संयम और तपश्चरण के साथ-साथ, भिन्न-भिन्न विषयों के शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञान संपादन का कार्य भी इन यतिजनों में खूब उत्साह के साथ व्यवस्थित रूप से होने लगा। सभी उपादेय विषयों के नये नये ग्रंथ निर्माण किये जाने लगे और पुरातन ग्रंथों पर टीका-टिप्पण आदि रचे जाने लगे। अध्ययन-अध्यापन और ग्रंथ निर्माण के कार्य में आवश्यक ऐसे पुरातन जैन ग्रंथों के अतिरिक्त ब्राह्मण और बौद्ध संप्रदाय के भी, व्याकरण, न्याय, अलंकार, काव्य, कोष, छन्द, ज्योतिष आदि विविध विषयों के सभी महत्त्व के ग्रंथों की पोथियों के संग्रहवाले बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार भी स्थापित किये जाने लगे । ' 4 'अब ये यतिजन केवल अपने स्थानों में ही बद्ध हो कर रहने के बदले भिन्न-भिन्न प्रदेशों में घूमने लगे और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप, धर्म के प्रचार का कार्य करने लगे। जगह जगह अजैन क्षत्रिय और वैश्य कुलों को अपने आचार और ज्ञान से प्रभावित कर, नये नये जैन श्रावक बनाए जाने लगे और पुराने जैन गोष्ठी - कुल नवीन जातियों के रूप में संगठित किये जाने लगे। पुराने जैन देवमन्दिरों का उद्धार और नवीन मन्दिरों का निर्माण कार्य भी सर्वत्र विशेष रूप से होने लगा। जिन यतिजनों ने चैत्यनिवास छोड़ दिया था उनके रहने के लिए ऐसे नये वसतिगृह बनने लगे जिनमें उन-उन यतिजनों के अनुयायी श्रावक भी अपनी नित्य नैमित्तिक धर्मक्रियाएं करने की व्यवस्था रखते थे। ये ही वसतिगृह पिछले काल में उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध हुए । मन्दिरों में पूजा और उत्सवों की प्रणालिकाओं में भी नये नये परिवर्तन होने लगे और इसके कारण यतिजनों में परस्पर, शास्त्रों के कितनेक विवादास्पद विचारों और शब्दार्थों पर भी वाद-विवाद होने लगा, और इसके परिणाम में कई नये-नये गच्छ और उपगच्छ भी स्थापित होने लगे। ऐसे चर्चास्पद विषयों पर स्वतंत्र छोटे-बड़े ग्रंथ भी लिखे जाने लगे और एकदूसरे संप्रदाय की ओर से उनका खण्डन - मण्डन भी किया जाने लगा । इस तरह इन यतिजनों में पुरातन प्रचलित प्रवाह की दृष्टि से, एक प्रकार का नवीन जीवन प्रवाह चालू हुआ और उसके द्वारा जैन संघ का नूतन संगठन बनना आरम्भ हुआ । ' (३२) 2010_04 स्वकथ्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इस तरह तत्कालीन जैन इतिहास का सिंहावलोकन करने से ज्ञात होता है, कि विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नूतन युग की उषा का आभास होने लगा था जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि के क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवन कार्य ने इस युग-परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्तस्वरूप दिया। तब से ले कर पिछले प्रायः ९०० वर्षों में, इस पश्चिम भारत में, जैन धर्म का जो सांप्रदयिक और सामाजिक स्वरूप का प्रवाह प्रचलित रहा उसके मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन सबसे अधिक विशिष्ट प्रभाव रखता है और इस दृष्टि से जिनेश्वरसूरि को, जो उनके पिछले शिष्य-प्रशिष्यों ने, युगप्रधान पद से सम्बोधित और स्तुतिगोचर किया है वह सर्वथा ही सत्य वस्तुस्थिति का निदर्शक है।' इस शास्त्रार्थ-विजय से जो साधु और श्रावक वर्ग में नव चेतना प्रादुभूत हुई और समाज में जो विकास हुआ उसका सारा श्रेय खरतरगच्छ को देते हुए 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास', चतुर्थ भाग* के पृष्ठ ४५५ में लिखा गया है - श्वेताम्बर परम्परा में आज जितने गच्छ विद्यमान हैं, उनमें सबसे प्राचीन गच्छ कौन-सा है तथा किस गच्छ ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, यह वस्तुतः एक गहन शोध का विषय है। इस विषय में नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह तथ्य प्रकाश में आता है कि वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा के जितने गच्छ गतिशील हैं, उनमें वर्द्धमानसूरि एवं उनके यशस्वी शिष्य जिनेश्वरसूरि के अद्भुत साहस के परिणामस्वरूप विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुआ और कालान्तर में 'खरतरगच्छ' के नाम से विख्यात हुआ 'खरा' गच्छ सर्वाधिक प्राचीन गच्छ है। सर्वाधिक प्राचीन होने के साथ-साथ 'खरा गच्छ' ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान के लिये और बाह्याडम्बरों के घटाटोप से आच्छन्न जैन धर्म के वास्तविक आगमिक स्वरूप को कतिपय अंशों में पुनः प्रकाश में लाने की दिशा में भी ऐसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक योगदान दिया, जो जैनधर्म के इतिहास में सदा सर्वदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा। खरतरगच्छ की पट्ट-परम्परा खरतरगच्छ/सुविहित-परम्परा का उद्भव वर्धमानसूरि से ही माना जाता है। महाराजा दुर्लभराज की राजसभा में जो चैत्यवासी आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें एक पक्ष का नेतृत्व वर्धमानसूरि ने ही किया था। उन्होंने अपनी उपस्थिति में ही शास्त्रार्थ करने का अधिकार अपने शिष्य जिनेश्वरसूरि * निर्देशन - स्थानकवासी समाज के पूज्य आचार्य श्री हस्तिमलजी महाराज, लेखक एवं मुख्य सम्पादक - श्री गजसिंह राठौड़, मुख्य सम्पादक - श्री प्रेमराज बोगावत, सम्पादक मण्डल - श्री देवेन्द्रमनि शास्त्री, डा० नरेन्द्र भानावत, प्रकाशक जैन इतिहास समिति, जयपुर, प्रकाशन सन् १९८७ स्वकथ्य (३३) 2010_04 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दिया था। जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की किन्तु उसका नेतृत्व वर्धमानसूरि का ही रहा, अतः विजय और विरुद भी उन्हीं का ही माना जाना चाहिए। जिनपालोपाध्याय ने खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली का प्रारम्भ भी वर्धमानसूरि से ही किया है। इसी समय से खरतरगच्छ की परम्परा मानी जाती है। यह परम्परा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। पट्टधर आचार्यों की पट्ट-परम्परा इस प्रकार है - ३९. श्री वर्द्धमानसूरि ४०. श्री जिनेश्वरसूरि ४१. श्री जिनचन्द्रसूरि ४२. श्री अभयदेवसूरि ४३. श्री जिनवल्लभसूरि ४४. युगप्रधान जिनदत्तसूरि (प्रथम दादा) ४५. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ४६. श्री जिनपतिसूरि ४७. श्री जिनेश्वसूरि (द्वितीय) (द्वितीय दादा) ४८. श्री जिनप्रबोधसूरि ४९. श्री जिनचन्द्रसूरि ५०. श्री जिनकुशलसूरि (तृतीय दादा) ५१. श्री जिनपद्मसूरि ५२. श्री जिनलब्धिसूरि ५३. श्री जिनचन्द्रसूरि ५४. श्री जिनोदयसूरि ५५. श्री जिनराजसूरि ५६. श्री जिनभद्रसूरि ५७. श्री जिनचन्द्रसूरि ५८. श्री जिनसमुद्रसूरि ५९. श्री जिनहंससूरि ६०. श्री जिनमाणिक्यसूरि ६१. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ६२. श्री जिनसिंहसूरि (चतुर्थ दादा) ६३. श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) ६४. श्री जिनरत्नसूरि ६५. श्री जिनचन्द्रसूरि ६६. श्री जिनसुखसूरि ६७. श्री जिनभक्तिसूरि ६८. श्री जिनलाभसूरि ६९. श्री जिनचन्द्रसूरि ७०. श्री जिनहर्षसूरि ७१. श्री जिनसौभाग्यसूरि ७२. श्री जिनहंससूरि ७३. श्री जिनचन्द्रसूरि ७४. श्री जिनकीर्तिसूरि ७५. श्री जिनचारित्रसूरि ७६. श्री जिनविजयेन्द्रसूरि श्री जिनलाभसूरि से जिनविजयेन्द्रसूरि तक की परम्परा 'श्रीपूज्य' परम्परा कहलाती है। इस परम्परा में शिथिलाचार प्रवेश कर चुका था अतः प्रीतिसागरगणि के पौत्र शिष्य और अमृतधर्मगणि के शिष्य श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय ने क्रियोद्धार कर संविग्न परम्परा की स्थापना की। इसी प्रकार श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि और श्री मोहनलालजी महाराज भी क्रियोद्धार कर संविग्न पक्षीय बने। अतः इन तीनों की संविग्न साधुपरम्परा की सूची प्रस्तुत की जा रही है६९. प्रीतिसागरगणि > अमृत्धर्मगणि > क्षमाकल्याणोपाध्याय > धर्मानंद > राजसागर > (३४) स्वकथ्य 2010_04 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखसागर > भगवान्सागर > छगनसागर > त्रैलोक्यसागर > जिनहरिसागरसूरि > जिनानंदसागरसूरि > जिनकवीन्द्रसागरसूरि > गणनायक हेमेन्द्रसागरजी > जिनोदयसागरसूरि, जिनकांतिसागरसूरि > जिन महोदयसागरसूरि > गणनायक उपाध्याय कैलाशसागर। जिनकृपाचन्द्रसूरि मूलतः इसी मूल-परम्परा के र्कीतिरत्नसूरि के सन्तानीय थे। उन्होंने भी क्रियोद्धार कर संविग्न पक्ष धारण किया। उनकी परम्परा की नामावली इस प्रकार है - जिनकृपाचन्द्रसूरि > जिनजयसागरसूरि > उपाध्याय सुखसागर > मुनि कांतिसागर । मोहनलालजी महाराज भी खरतरगच्छ की मंडोवरा शाखा के अनुयायी थे। वे भी शिथिलाचार का त्याग कर संवेगी मुनि बने। इनकी परम्परा खरतरगच्छ, तपागच्छ दोनों गच्छों में चली। यहाँ केवल खरतरगच्छ परम्परा की सूची दी जा रही है। उनकी परम्परा इस प्रकार है - मोहनलालजी महाराज > जिनयशःसूरि > जिनऋद्धिसूरि > जिनरत्नसूरि > बुद्धिमुनिगणि > जयानन्दमुनि। खरतरगच्छ की इस मान्य परम्परा को विच्छिन्न/खण्डित एवं मनोकल्पित सिद्ध करने के प्रयास में 'नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के थे, ऐसा मानने पर हम खरतरगच्छ के उप-जीव्य न हों?' इस धारणा से कुछ विद्वानों का यह अभिमत है कि खरतरगच्छ की उत्पत्ति जिनवल्लभसूरि से मानी जा सकती है। जिनवल्लभसूरि चैत्यवासी आचार्य के शिष्य होने पर भी उन्होंने नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के पास उप-सम्पदा ग्रहण की थी इस बात को 'जिनवल्लभगणि' स्वयं अपनी ‘अष्टसप्तति' में स्वीकार करते हैं। युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि 'गणधरसार्द्धशतक' में जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर मानते हैं। 'पल्ह कवि' (१२वीं शताब्दी) 'जिनदत्तसूरि स्तुति' (पद्य ४) में जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार करते हैं। यही नहीं जिनवल्लभसूरि के स्वर्गवास के ४ वर्ष पश्चात् ही 'चन्द्रकुलीय धनेश्वरसूरि' सम्वत् ११७१ में सुक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण की १४२ पद्य की व्याख्या करते हुए लिखते हैं - "जिणवल्लहगणि" त्ति जिनवल्लभगणिनामके न मतिमता सकलार्थसङ्ग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण 'लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम्।" इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्य मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत 'त्रिदशतरंगिणी गुर्वावली' में भी जिनवल्लभ को अभदेवसूरि का पट्टधर स्वीकार किया है। 'राजगच्छ पट्टावली' में भी (विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह, सम्पादक आचार्य जिनविजय पृष्ठ ६४) में भी लिखा है। यदि जिनवल्लभ अभयदेवसूरि के परमप्रिय शिष्य न होते तो अभयदेवसूरि से शिक्षा प्राप्त करने वाले 'कहारयणकोस' इत्यादि के निर्माता देवभद्राचार्य इनको कभी भी जिनवल्लभ को आचार्य पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर घोषित नहीं करते। रुद्रपल्लीय परम्परा भी अपना प्रादुर्भाव अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभ के सहपाठी जिनशेखरसूरि से ही स्वीकार करते हैं। स्वकथ्य (३५) ___JainEducation International 2010_04 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्रपल्लीय शाखा द्वारा निर्मित समस्त साहित्य से भी इस बात की पुष्टि होती है। खरतरगच्छ की परम्परा के अतिरिक्त अन्य कोई भी परम्परा जिनेश्वरसूरि से सम्बद्ध नहीं है। अतः विद्वानों की यह धारणा भी उपयुक्त एवं संगत नहीं है कि जिनवल्लभसूरि अभयदेव के शिष्य नहीं थे। खरतरगच्छ इतिहास लेखन के साधन जयसोमोपाध्याय गुरुपर्वक्रम, समयसुन्दरोपाध्याय खरतर-गुरु-पट्टावली और महोपाध्याय क्षमाकल्याण खरतरगच्छ पट्टावली, सूरि-परम्परा प्रशस्तियाँ, ग्रंथ-रचना प्रशस्तियाँ, ग्रंथ-लेखन प्रशस्तियाँ, शिलालेखमूर्तिलेखों आदि साधनों से ही खरतरगच्छ के आचार्यों के सम्बन्ध में हमें जानकारी प्राप्त होती रहती थी। महोपाध्याय क्षमाकल्याण कृत खरतरगच्छ पट्टावली का आधार सब से अधिक रहा है। इस पट्टावली का भी प्रकाशन सर्वप्रथम सम्वत् १९८७ में स्वर्गीय श्री पूर्णचन्दजी नाहर के द्वारा हुआ। क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित खरतरगच्छ पट्टावली की रचना वि०सं० १८३० में हुई है। यह पट्टावली श्रवण परम्परा पर आधारित है। ८, ९ शताब्दी पूर्व के आचार्यों के वृत्तान्त एवं घटनाओं में कुछ भूल हो, यह स्वाभाविक है। जैन-साहित्य के प्रौढ़ मनीषी श्री अगरचन्दजी श्री भंवरलालजी नाहटा खरतरगच्छ परम्परा के असाधारण विद्वान् थे। उनकी निरन्तर खोज से अनेकों ऐसे रास - कवि पल्ह रचित जिनदत्तसूरि स्तुतिः, कवि सोममूर्ति गणि कृत श्री जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाह वर्णन रास, श्री जिनपतिसूरि पंचाशिका, श्री जिनेश्वरसूरि चतुःसप्ततिका विवेकसमुद्र गणि कृत श्री जिनप्रबोधसूरि चतुःसप्ततिका, तरुणप्रभाचार्य कृत श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी, श्री तरुणप्रभाचार्य कृत श्री जिनलब्धिसूरि चहुत्तरी, कवि ज्ञानकलश कृत श्री जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास, उपाध्याय मेरुनन्दन गणि कृत श्री जिनोदयसूरि विवाहलउ, कवि सुमतिरंग कृत श्री कीर्तिरत्नसूरि (उत्पत्ति) छन्द, वेगड खरतरगच्छ गुर्वावली, खरतरगच्छ पिप्पलक शाखा गुरु पट्टावली चउपइ, श्री जिनशिवचंदसूरि रास आदि ग्रंथ प्राप्त हुए, जो कि तत्कालीन आचार्यों के समय विद्वान् श्रमणों या भक्तों द्वारा रचित हैं। उन्होंने उन ऐतिहासिक कृतियों की शोध के दौरान प्रेस कॉपी तैयार की और कुछ कृतियाँ ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह में प्रकाशित भी कीं, कुछ कृतियाँ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित की और कुछ कृतियाँ अभी तक अप्रकाशित उनके संग्रह में सुरक्षित हैं। इनके द्वारा प्रकाशित कृतियों से खरतरगच्छ इतिहास पर नया प्रकाश पड़ता है। शोध-खोज के दौरान उन्हें एक असाधारण ऐतिहासिक अमर कृति भी प्राप्त हुई जिसका नाम है - 'खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली'। इसकी रचना सम्वत् १३०५ में जिनपालोपाध्याय ने की थी। उसके पश्चात् आचार्यों का ऐतिहासिक जीवन-चरित्र सम्वत् १३९५ तक का तत्कालीन किसी विद्वान् मुनि ने लिखा है। इस कृति का प्रारम्भ वर्धमानसूरि से लेकर जिनपद्मसूरि के विद्यमान तक का है। इस रचना (३६) स्वकथ्य 2010_04 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वैशिष्ट्य है कि इसमें वर्णित सारी घटनाएँ आँखों देखी हैं। आचार्यों का पदाभिषेक, विहार, नगरस्थ राजाओं का सम्पर्क, राज्यसभाओं में शास्त्रार्थ, प्रतिष्ठा समारोह, मुनि दीक्षाएँ, पद- समारोह, भिन्न-भिन्न नगरस्थ आचार्यों से सम्पर्क और उनके साथ शास्त्रार्थ आदि का सजीव वर्णन इसमें उपलब्ध होते हैं। इसकी ऐतिहासिकता इसी से स्पष्ट है जिन राजाओं का वर्णन किया है, वे उस समय शासक थे और जिस सम्वत् और मास में उन्होंने प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं उनमें से कुछ प्रतिमाएँ आज भी विद्यमान हैं। इसकी एक मात्र हस्तलिखित प्रति क्षमाकल्याणोपाध्याय संग्रह, सुगनजी का भण्डार, बीकानेर में उपलब्ध है। इस ग्रंथ - रत्न की प्राप्ति से नाहटा बन्धुओं को पुत्र - जन्मोत्सव की तरह असीम हर्ष हुआ और उन्होंने किसी साधारण विद्वान् से प्रतिलिपि करवाई । इस प्रतिलिपि को आचार्य प्रवर श्री जिनहरिसागरसूरिजी महाराज के पास हिन्दी अनुवाद हेतु भिजवाई। आचार्यश्री ने भी किसी पंडित से हिन्दी अनुवाद करवाया । अशुद्ध प्रति का अनुवाद भी उन्होंने पंडिताउ भाषा में कर डाला । इस कारण वह अनुवाद प्रामाणिक अनुवाद नहीं बन सका । दैनंदिन डायरी के समान ऐतिहासिक घटनाओं से ओत-प्रोत इस कृति को देखकर पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने इसका संशोधन-सम्पादन कर 'खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली' के नाम से भारतीय विद्या भवन, मुंबई द्वारा सन् १९५६ में प्रथम संस्करण प्रकाशित किया था। इसी ग्रंथ का दूसरा संशोधित संस्करण मेरे द्वारा सम्पादित होकर प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से सन् २००० में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रंथ की ऐतिहासिक महत्ता को प्रदर्शित करते हुए जिनविजयजी लिखते हैं 'सिंघी जैन ग्रंथमाला में खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली नामक एक संस्कृत गद्य ग्रंथ छप रहा है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा । इस ग्रंथ में विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारंभ में होने वाले आचार्य वर्द्धमानसूरि से लेकर १४वीं शताब्दी के अन्त में होने वाले जिनपद्मसूरि तक के खरतरगच्छ के मुख्य आचार्यों का विस्तृत चरित वर्णन है। गुर्वावली अर्थात् गुरु-परम्परा का इतना विस्तृत और विश्वस्त चरित वर्णन करने वाला ऐसा कोई और ग्रंथ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । प्रायः ४००० श्लोक परिमाण यह ग्रंथ है और इसमें प्रत्येक आचार्य का जीवन चरित्र इतने विस्तार के साथ दिया गया है कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रंथ में, किसी भी आचार्य का नहीं मिलता। पिछले कई आचार्यों का चरित्र तो प्रायः वर्ष वार के क्रम से दिया गया है और उनके विहार-क्रम का तथा वर्षा निवास का क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । किस आचार्य ने कब दीक्षा ली, कब आचार्य पदवी प्राप्त की, किस-किस प्रदेश में विहार किया, कहाँ-कहाँ चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, कितने शिष्य - शिष्याएँ आदि दीक्षित किये, कहाँ पर किस विद्वान् के साथ शास्त्रार्थ या वाद-विवाद किया, किस राजा की सभा में कैसा सम्मान आदि प्राप्त किया - इत्यादि बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्य-पूर्ण बातों का इस ग्रंथ में बड़ी विशद रीति से वर्णन किया गया है। गुजरात, मेवाड, मारवाड, सिन्ध, वागड, पंजाब, और बिहार आदि अनेक देशों के, अनेक गाँव में रहने सैकडों ही धर्मिष्ठ और धनिक श्रावक-श्राविकाओं के कुटुंबों का और व्यक्तियों का नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहां पर, कैसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आदि धर्म कार्य किये, इसका निश्चित विधान मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रंथ, अपने ढंग की एक अनोखी कृति जैसा है। हम इसका हिन्दी अनुवाद के साथ संपादन कर रहे हैं। इस ग्रंथ के आविष्कारक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा हैं और इन्होंने 2010_04 स्वकथ्य ( ३७ ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही हमें इस ग्रंथ के संपादन की सादर प्रेरणा की है । ' भारतीय विद्या, पुस्तक १, अंक ४, पृष्ठ २९९ इस ग्रंथ का प्रकाशन होने के पश्चात् खरतरगच्छ का ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक इतिहास लिखने का मार्ग प्रशस्त हो गया । प्रकाशन का प्रारम्भिक इतिहास सन् १९५५ में मेरा चातुर्मास महासमुन्द में था । इसी समय युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि को ८०० वर्ष पूर्ण हो गये थे । भारतवर्षीय खरतरगच्छ संघ ने अजमेर में ही अष्टम शताब्दी समारोह मनाने का निर्णय किया। मुझसे अनुरोध किया गया कि मैं इस सम्मेलन में अजमेर अवश्य पहुँचूँ। चातुर्मास पश्चात् विहार करता हुआ मैं कोटा पहुँचा । उसी समय अष्टम शताब्दी समारोह के संचालकों ने मेरे कंधों पर 'खरतरगच्छ का इतिहास' प्रकाशन करने का भार सौंपा। कोटा में कुछ अस्वस्थ रहा, इस कारण विघ्नबाधाएँ उपस्थित हो गईं। तत्पश्चात् इतिहास लेखन का कार्य प्रारम्भ किया । पूर्व अनुवाद को समक्ष रखते हुए संशोधन, सम्पादन, यत्र-तत्र परिवर्तन करना पड़ा। वर्धमानसूरि से जिनपद्मसूरि तक का जीवन चरित का आधार यह ‘खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली' ही रही और उसके पश्चात् जिनपद्मसूरि से लेकर जिनलाभसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि का इतिहास क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित खरतरगच्छ पट्टावली के आधार पर सारांश लेखन किया। लेखन के साथ संशोधन और प्रकाशन कार्य भी मेरे ऊपर था । अतः जैसे-तैसे दो माह के अत्यल्प समय में इस कार्य को सम्पन्न कर अजमेर पहुँचा । अष्टम शताब्दी समारोह १९, २०, २१ मई १९५६ को था अतः उस सम्मेलन के समय कुछ प्रतियाँ ही अजमेर पहुँच पाईं। यह पुस्तक 'खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड' के रूप में दादा जिनदत्तसूरि अष्टम् शताब्दी समारोह स्वागत कार्य समिति, अजमेर से प्रकाशित हुआ । मेरे दृष्टि में ही अत्यल्प समय में किया हुआ यह कार्य संतोषजनक नहीं था अतः खरतरगच्छ के विद्वद्न गणि श्री बुद्धिमुनिजी महाराज को भेजा। उन्होंने भी वैदुष्य पूर्ण संशोधन किया। तत्पश्चात् मैंने और साहित्य वाचस्पति भँवरलालजी नाहटा ने इसको सर्वांगीण रूप देने का प्रयत्न किया। रासादि अनेक प्राचीन कृतियों के आधार पर टिप्पण देकर इसे परिमार्जित भी किया। इस सामग्री के आधार पर महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागरजी ने श्री वर्धमानसूरि से लेकर द्वितीय जिनेश्वरसूरि तक का इतिहास 'खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास' नाम से पुस्तक लिखी और वह प्रकाशित भी हुई। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन का इतिहास साहित्य सेवा करते हुए मेरी वर्षों से अभिलाषा थी कि खरतरगच्छ का एक प्रामाणिक इतिहास प्रकाशित हो, जो आदर्श स्वरूप हो और भविष्य में शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो । इसी दृष्टि से वर्षों सामग्री एकत्रित करता रहा और लेखन करता रहा। जीवन के शेष वर्ष भी खरतरगच्छ के से साधन, (३८) 2010_04 स्वकथ्य Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सेवा में पूर्ण हों, इस दृष्टि से इसकी मैंने प्रकाशन योजना बनाई, इस ग्रंथ का निम्नानुसार संयोजन किया गया है खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (क) इसमें खरतरगच्छ संस्थापक वर्धमानसूरि से लेकर वर्तमान परम्परा में श्री पूज्य आचार्य जिनचन्द्रसूरि तक का वृत्तांत हो । (ख) खरतरगच्छ की १० शाखाएँ हैं १. मधुकर शाखा ४. बेगड़ शाखा ७. भावहर्ष शाखा १०. मण्डोवरी शाखा (ग) चार उपशाखाएँ १. क्षेमकीर्ति शाखा ३. सागरचन्द्रसूरि शाखा प्रायः इन शाखाओं का इतिहास अज्ञात ही है । इसमें से प्रारम्भिक पाँच शाखाओं का अस्तित्व दो-तीन दशाब्दी पूर्व ही विलीन हो गया और शेष पाँच शाखाएँ भी कुछ दशाब्दी पूर्व विद्यमान थीं, वे भी विलीन हो गईं। इन शाखाओं का जो भी इतिहास ज्ञात हो, उसका लेखन हो । २. रुद्रपल्लीय शाखा ५. पिप्पलक शाखा ८. आचार्य शाखा १. सुखसागरजी का समुदाय २. जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का समुदाय ३. मोहनलालजी महाराज का समुदाय इन उप-शाखाओं के यतिगण भी प्रायः समाप्त हो गए हैं। इन उप-शाखाओं का भी जो कुछ स्फुट वर्णन प्राप्त हो, उस सामग्री का लेखन हो । ३. लघु खरतर शाखा ६. आद्यपक्षीय शाखा ९. जिनरंगसूरि शाखा (घ) संविग्न परम्परा • शिथिलाचार से क्षुब्ध होकर कई सम्माननीय यतिगणों ने क्रियोद्धार कर, संविग्न पक्षीय बन कर शुद्ध साध्वाचार का पालन करते रहे। वर्तमान समय में संविग्न पक्षीय के तीन समुदाय हैं २. जिनभद्रसूरि शाखा ४. कीर्तिरत्नसूरि शाखा 2010_04 जिनकृपाचन्द्रसूरिजी के समुदाय के कोई साधु-साध्वी नहीं रहे और मोहनलालजी महाराज उदारदर्शी और समभावी आचार्य थे, इनका समुदाय दोनों गच्छों में विभक्त था । अतः खरतरगच्छ समुदाय के साधुओं का ही वर्णन किया जाए। (ङ) प्राचीन साध्वीवर्ग का इतिहास प्राचीन साध्वीवर्ग का कोई इतिहास प्राप्त नहीं होता स्वकथ्य ( ३९ ) — Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। मध्यकाल में तो इसका कोई इतिहास ही नहीं है। इसलिये गुर्वावली आदि के आधार पर कुछ नामों का उल्लेख अवश्य किया जाए। (च) वर्तमान साध्वी समुदाय का इतिहास - सुखसागरजी के समुदाय का साध्वीवर्ग दो समुदाय में विभक्त है - १. श्री लक्ष्मीश्रीजी का समुदाय २. श्री शिवश्रीजी का समुदाय। इन दोनों समुदायों का तथा वर्तमान समय में विद्यमान प्रमुख साध्वियों का परिचय दिया जाए। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का साध्वी समुदाय और खरतरगच्छीय मोहनलालजी महाराज का साध्वी समुदाय इस समय में विद्यमान नहीं है। भावी प्रकाशन योजना खरतरगच्छ के गणनायकों, आचार्यों, उपाध्याय आदि पदधारकों, मुनियों, प्रवर्तिनियों, साध्वियों एवं श्रीपूज्यों तथा यतियों का सारे भारतवर्ष में निरन्तर विचरण रहा है। यही कारण है कि भारत के कोनेकोने में खरतरगच्छ का बाहुल्य रहा है। आचार्यों के उपदेश से श्रावक समुदाय ने बड़े-बड़े संघ निकाले। बड़े-बड़े तीर्थों पर नव-निर्माण करवाए, हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाईं। भारत के प्रमुख-प्रमुख तीर्थ भी खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित हुए हैं, किन्तु इन प्रतिष्ठित मूर्तिलेखों, शिलालेखों का एक स्थान पर संग्रह नहीं हुआ है, अतः अभी तक प्रकाशित समस्त लेख संग्रहों से खरतरगच्छ के लेखों का एकत्रीकरण किया जाए और वर्तमान में जो भी प्रतिष्ठाएँ हुई हैं, उनके लेख प्राप्त कर एक संकलन तैयार कर और उन लेखों को 'खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' के नाम से प्रकाशित किया जाए। लगभग २,७६० प्रतिष्ठा लेखों का संकलन किया जा चुका है। खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची खरतरगच्छीय मनीषियों द्वारा निर्मित साहित्य के सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी 'कथाकोश प्रकरण' के पृष्ठ ५ पर लिखते है : 'इस खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े बडे प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद, वैद्यकविशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और सांप्रदायिक उत्कर्ष की प्रवृत्ति के सिवा, खरतरगच्छानुयायी विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटीबड़ी सैकड़ों-हजारों ग्रंथकृतियां जैन भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन धर्म की ही दृष्टि से महत्त्व वाली है, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के (४०) स्वकथ्य 2010_04 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है।' "साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान् यति-मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं। इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र केवल अपने धर्म या संप्रदाय की बाड से बद्ध नहीं है। वे जैन और जैनेतर वाङ्मय का समान भाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं। व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों का उन्होंने बड़े आदर से आकलन किया है और इन विषयों के अनेक अजैन ग्रंथों पर उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण टीकाएँ आदि रच कर तत्तद् ग्रंथों और विषयों के अध्ययन कार्य में बडा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है। खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें हम यहाँ पर बहुत ही संक्षेप में, केवल सूत्ररूप से, उल्लिखित कर रहे हैं।' यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि श्वेताम्बर समाज के समस्त गच्छों द्वारा निर्मित साहित्य तुला के एक पलड़े में रखा जाए और दूसरे पलड़े में खरतरगच्छ के मनीषियों द्वारा साहित्य को रखा जाए तो खरतरगच्छ द्वारा निर्मित साहित्य का पलड़ा भारी रहेगा। दिल्ली में आयोजित मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी समारोह, सन् १९६९ के समय मेरे द्वारा लिखित 'खरतरगच्छ साहित्य सूची' के नाम से एक संक्षिप्त पुस्तक प्रकाशित हुई थी। अतः इस सूची में नये ग्रंथों का समावेश कर, परिवर्तित एवं परिवर्धित कर, ग्रंथनामानुक्रम से और कृतिनामानुक्रम से प्रकाशित की जाए जो 'खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची' के नाम से प्रकाशित हो। लेखन और सम्पादन-पद्धति खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास में निम्नलिखित लेखन-पद्धति अपनाई गई है(क) श्री जिनपालोपाध्याय ने श्री वर्धमानसूरि से लेकर जिनेश्वरसूरि द्वितीय के वि० सं० १३०५ तक का जीवन चरित 'खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि' के नाम से लिखा है और वि० सं० १३०६ से १३९५ तक का जिनेश्वरसूरि द्वितीय से लेकर जिनपद्मसूरि का वृत्तांत किसी प्रौढ़ विद्वान् श्रमण ने समासबहुल और सालंकृत भाषा में लिखा है। इसी को मूलाधार के रूप में स्वीकार करते हुए इस ग्रंथ का प्रामाणिक अनुवाद देने का प्रयत्न किया। जिनपालोपाध्याय की दीक्षा वि० सं० १२२५ में हुई थी और स्वर्गवास १३०७ में। अतः वि० सं० १२२५ से लेकर १३०५ तक का इतिहास आँखों देखी घटना के रूप में है। इसके पूर्व का इतिहास श्रवण-परम्परा पर आधारित है। वि० सं० १३०६ से १३९५ तक का इतिहास भी दैनंदिन डाइरी के समान इतिहास के रूप में आलेखित हुआ है। यह सामग्री मुद्रित पृष्ठ २०८ तक है। इस इतिहास के साथ कतिपय आचार्यों के सम्बन्ध में ग्रंथान्तरों एवं प्रशस्तियों से जो विशेष ज्ञातव्य प्राप्त होता है और इन आचार्यों के द्वारा प्रतिष्ठित शिलालेख और मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं, उनके शिलालेख भी विशेष के अन्तर्गत भिन्न टाईप में भिन्न रूप में दिये गये हैं। __ आचार्य जिनपद्मसूरि का शेष वृत्तांत वि० सं० १३९६ से लेकर जिनचन्द्रसूरि (वर्तमान) तक का स्वकथ्य (४१) 2010_04 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास मुख्यतः क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत खरतरगच्छ पट्टावली के आधार से लिया गया है। इसमें भी अन्य पट्टावलियों, ग्रंथांतरों, रासों, ग्रंथप्रशस्तियों और मूर्तिलेखों से जो विशेष जानकारी प्राप्त होती है वह टिप्पणी के रूप में दी गई है। यह सामग्री पृष्ठ २०९ से २५९ तक मुद्रित है। प्रौढ़ विद्वान् आचार्यों द्वारा निर्मित साहित्य का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। इन सब का उल्लेख 'खरतरगच्छ बृहद् साहित्य-सूची में किया गया है। (ख) खरतरगच्छ की जो मुख्य १० शाखाएँ हैं। उनमें से कई शाखाओं की पट्टावलियाँ और दफ्तर बहियाँ प्राप्त नहीं है जो पट्टावलियाँ प्राप्त हैं: वह भी बहुत संक्षिप्त में हैं। अतः मूर्तिलेखों एवं ग्रंथ-प्रशस्तियों के आधार पर लिखा गया है। यही कारण है कि कई आचार्यों के पदाभिषेक और स्वर्गवास सम्वत् भी प्राप्त नहीं हैं। आचार्य शाखा का इतिहास प्राप्त गुर्वावलि के आधार से लिया गया है। जिनरंगसूरि शाखा और जिनमहेन्द्रसूरि (मंडोवरा) शाखा का इतिहास यतिवर्य श्री रामपालजी एवं कोतवाल यतिवर्य मोतीचन्दजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर लिया गया है। यह सामग्री पृष्ठ २६० से ३२६ तक मुद्रित (ग) खरतरगच्छ की चार उप-शाखाओं का कोई क्रमबद्ध वृत्त प्राप्त नहीं है और न कोई गुर्वावली इत्यादि ही प्राप्त है, अतः स्फुट पत्रों, ग्रंथ-प्रशस्ति तथा लेखन प्रशस्तियों के आधार से जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसे ही देने का प्रयत्न किया गया है। क्षेमकीर्ति उपशाखा की तो शोध करने पर और भी परम्पराएँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी प्रकार जिनभद्रसूरि उपशाखा की भी यही स्थिति है। कीर्तिरत्नसूरि शाखा का इतिहास (मेरे संग्रह में सुरक्षित कीर्त्तिरत्नसूरि की उत्पत्ति, शंखवाल गोत्र की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा लिखित है) के आधार पर दिया गया है। यह उपशाखाओं का इतिहास पृष्ठ ३२७ से ३५१ तक मुद्रित है। (घ) खरतरगच्छ की संविग्न परम्परा का इतिहास वर्तमान समय में चल रहा है अतः उससे सम्बन्धित आचार्यों के जीवन-चरित और पूज्य मुनिजनों से जो जानकारी प्राप्त हुई है उसे देने का प्रयत्न किया गया है और इसमें इनके वंश-वृक्ष भी दिये गये हैं। यह सामग्री पृष्ठ ३५२ से ३९८ तक मुद्रित है। (ङ) खरतरगच्छ साध्वी-परम्परा का प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं है। खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली में उल्लिखित महत्तराओं, प्रवर्तिनियों एवं साध्वी वर्ग के जो भी नाम प्राप्त होते हैं, उनका संकलन लेख के रूप में डॉ० शिवप्रसाद ने किया था, वही मुद्रित किया है। (छ) सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का इतिहास उद्योतश्रीजी से लिया गया है। उनकी दो शिष्याएँ हुईं - लक्ष्मीश्रीजी और शिवश्रीजी। दोनों की परम्पराएँ पृथक्-पृथक् चल रही हैं। लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या पुण्यश्रीजी हुई और उनकी परम्परा आज भी विशालरूप में चल रही है, अतः इस परम्परा की प्रवर्तिनियों एवं प्रमुख-प्रमुख साध्वियों का संक्षिप्त में परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। इसी प्रकार शिवश्रीजी की परम्परा भी आज विशाल रूप में विद्यमान है, उसकी प्रवर्तिनियों और प्रमुख-प्रमुख साध्वियों का परिचय दिया गया है। (४२) स्वकथ्य 2010_04 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान समय में दोनों समुदाय का जो साध्वी वर्ग है। उनमें से कुछ ने समय-समय पर पत्र लिखने पर भी अपना परिचय लिख कर नहीं भेजा, उनके सम्बन्ध में जो भी जानकारी मुझे प्राप्त हुई है, उसी के आधार पर लेखन किया गया है। यह सामग्री पृष्ठ ४०८ से ४२५ तक मुद्रित है। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि और मोहनलालजी महाराज की समुदाय का साध्वीवर्ग आज विद्यमान नहीं है, अतः उनका परिचय नहीं लिखा गया है। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि समुदाय की विदुषी साध्वी महेन्द्रप्रभाश्रीजीडॉ० साध्वी लक्ष्यपूर्णाश्रीजी आदि विद्यमान हैं। अध्येताओं, शोधार्थियों की सुविधा के लिए इसमें चार परिशिष्ट दिए गये है:प्रथम परिशिष्ट - इसमें खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास के अन्तर्गत आए हुए आचार्यों, उपाध्यायों, मुनिवरों, महत्तराओं, प्रवर्तिनियों एवं साध्वियों के नाम अकारानुक्रम से दिए गये हैं। इसमें उनकी शाखाओं, उपशाखाओं का उल्लेख किया गया है। (पृष्ठ ४२६ से ४६३) द्वितीय परिशिष्ट - इस इतिहास में आगत श्रावक-श्राविकाओं के विशेष नाम अकारानुक्रम से दिए गये हैं। (पृष्ट ४६४ से ४८१) तृतीय परिशिष्ट - इस इतिहास में आए हुए राजाओं, मंत्रियों, दण्डनायकों, राज्याधिकारियों और सत्ताधारीजनों के विशेष नामों को अनुक्रमणिका में किया गया है। (राजा, मंत्री, राज्याधिकारी आदि का उल्लेख भी किया गया है।) (पृष्ठ ४८२ से ४८७) चतुर्थ परिशिष्ट - इस इतिहास गत ग्राम, नगर, स्थानों के विशेष नामों की सूची अकारानुक्रम से दी गई है। (पृष्ठ ४८८ से ५०४) आभार अन्त में, मैं अपना आभार-ज्ञापन सर्वप्रथम खरतरगच्छ के अधिनायक आचार्य श्री वर्धमानसूरि एवं आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के प्रति समर्पित करूँगा जिनसे प्रारम्भ हुई खरतरगच्छ की दिव्य किरण ने एक हजार वर्ष तक जैन-धर्म को आलोकित किया है और इस धर्म का अभिवर्धन किया है। प्रस्तुत इतिहास के लेखन में जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, गुणविनयोपाध्याय, क्षमाकल्याणोपाध्याय आदि रचित गुर्वावलियों, पट्टावलियों, मूर्तिलेखों, ग्रंथ-प्रशस्तियों, लेखन-प्रशस्तियों और अन्य ग्रंथों आदि से सामग्री का चयन किया गया है, अत: उन सभी पूज्य मुनिवृन्दों, मनीषियों और लेखकों के प्रति सादर प्रणति। मेरे निवेदन पर पूज्य मुनिराज श्री जयानन्दजी महाराज, उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी महाराज, विदुषी साध्वी श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी महाराज, विदुषी साध्वी श्री हेमप्रभाश्रीजी महाराज, विदुषी साध्वी श्री सुरंजनाश्रीजी महाराज और विदुषी साध्वी श्री सुलोचनाश्रीजी महाराज एवं श्री सुलक्षणाश्रीजी महाराज तथा अध्यक्ष, दादाबाड़ी श्री जिनकुशलसूरिजी, जिनचन्द्रसूरिजी ट्रस्ट, चेन्नई, श्री सुरेन्द्र कुमारजी लुणिया अध्यक्ष, कुलपाक तीर्थ आदि ट्रस्टों ने एवं व्यक्तिगत रूप से श्री पी०सी० श्रीमाल हैदराबाद एवं श्री (४३) स्वकथ्य 2010_04 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशलचन्दजी सिंघवी हैदराबाद आदि श्रेष्ठियों ने इस ग्रंथ के संयुक्त प्रकाशक बन कर 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' प्रकाशन का जो लाभ लिया एवं अखिल भारतवर्षीय श्री खरतरगच्छ महासंघ के उपाध्यक्ष श्री ललित कुमार नाहटा के प्रयत व प्रेरणा से जो भी प्रकाशन सहयोगी बने है, उन सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। चारित्रचूडामणि, परम शान्तमूर्ति गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के अपूर्व वात्सल्य और अमोघ आशीर्वाद का ही फल है कि उनका सान्निध्य पाकर मैं साहित्य-सेवी बन सका और इस इतिहास के लेखन में सक्षम हो सका। प्रसिद्ध विचारक महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी ने मेरे कथन को स्वीकार कर इस इतिहास की सांगोपांग भूमिका लिखी है। भूमिका में इन्होंने विविध आयामों से खरतरगच्छ की महत्ता और समाज को जो उदारता से देन दी है, उसका विशाल पैमाने पर लेखा-जोखा भी प्रस्तुत किया है। मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता समर्पित करता हूँ। प्राकृत भारती के संस्थापक श्री डी०आर० मेहता और एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री मंजुल जैन ने इसको संयुक्त प्रकाशन के रूप में सहयोग देकर मेरे इस कार्य को प्रगति प्रदान की है, उसके लिए मैं इन दोनों संस्थाओं के पदाधिकारियों का आभार व्यक्त करता हूँ। गच्छ और परम्पराओं के चिंतक एवं लेखक डॉ. शिवप्रसाद, सम्पादक श्रमण (पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी) का मुझे जो सहयोग मिला, उसके लिए उन्हें साधुवाद भी और आशीर्वाद भी। सर्वाधिक आभार एवं साधुवाद मैं आत्मीय संत महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागरजी महाराज के प्रति समर्पित करता हूँ जिन्होंने न केवल इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण अवलोकन कर मुझे महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये, अपितु इसके मुद्रण-प्रकाशन का दुरूह कार्य भी अपने मार्गदर्शन में सम्पन्न करवाने का अप्रतिम सहयोग प्रदान किया। मैं उनका अभिवादन करता हूँ। __ अन्त में आत्मीय भाई श्री सुरेन्द्र बोथरा, आयुष्मान मंजुल, पुत्रवधु नीलम, पुत्र विशाल, पौत्री तितिक्षा और पौत्र वर्धमान के स्नेह, समर्पण और सहयोग के लिए ढेर सारे साधुवाद और अन्तरंग आशीर्वाद। - म० विनयसागर (४४) स्वकथ्य 2010_04 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा गुरुदेवों के प्रसिद्ध तीर्थस्थल DOOODOODOORDADDIAN DADE DE DEDONDO COCOOOOOOOO.GIJOOOOOOOO HOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOL DDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDD दादा श्री जिनदत्तसूरि दादावाड़ी, अजमेर मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि दादावाड़ी, महरौली GAN Ravivartoon (MONOCONDONTHONDONG fadaNGANGAND pod GEORGARANG Cooleroecond दादा श्री जिनकुशलसूरि दादावाड़ी, मालपुरा · दादा श्री जिनचन्द्रसूरि दादावाड़ी, बिलाड़ा 2010_04 For Private & Personal use only , Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ के अधिष्ठायक श्री अम्बिकादेवी श्री पद्मावतीदेवी महाबलीपुरम, दिल्ली 444444 TECENE Merrertiseertirerrrrrrrette श्री भैरवदेव, नाकोड़ा श्री भोमियाजी, सम्मेतशिखर 2010_04 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sowaload दादा जिनदत्तसूरि जी, काष्ठपट्टिका, जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर दादा जिनदत्तसूरि जी आशीर्वाद मुद्रा में, जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर प्राचीन काष्ठपट्टिका में दादा गुरुदेव Resanal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा जिनदत्तसूरि जी काष्ठपट्टिका, बारहवीं सदी हिवरक्षित थीमतिनार SIDHONECONOCOCIVODOORLD मालललललललाव दादा जिनदत्तसूरि जी काष्ठपट्टिका, बारहवीं सदी, जैसलमेर ज्ञान भण्डार SPHORNOOOL Sokola PORDSATYAparatonym) GOOGoGOOGGAGGAO ताड पत्र में दादा गुरुदेव आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि : प्राचीन चित्र 2010_04 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा गुरुदेवों एवं आचार्यों की प्राचीन मूर्तियाँ दादा श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज चौदहवीं सदी, जवेरीवाड़, पाटन दादा श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज पन्द्रहवीं सदी, छोटा मन्दिर, मालपुरा NODAVARIANCATARIANRANCE दादा श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि जी महाराज _Jain Education Inteपन्द्रहवीं सदी दादावाड़ी, महरौली For Private & Fersonal use on पन्द्रहवीं सदी, देवकुलपाटकwwwjanelibrary.org | Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यों की प्राचीन मूर्तियाँ आचार्य जिनभद्रसूरि जी महाराज सोलहवीं सदी, शांतिनाथ मन्दिर, नाकोड़ा यु. दादा जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ऋषभदेव मन्दिर, बीकानेर आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि जी महाराज महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याण जी म. Jan Education In नाकोड़ा तीर्थ स्थापक, नाकोड़ा For Private & Personal use सुगन जी का उपासरा, बीकानेर Ambrary.org, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो युगप्रधान-मुनीन्द्रेभ्यः।। खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य-गुर्वावलि [ मङ्गलाचरणम् ] वर्धमानं जिनं नत्वा, वर्धमान-जिनेश्वराः। मुनीन्द्रजिनचन्द्राख्याऽभयदेवमुनीश्वराः॥१॥ श्रीजिनवल्लभसूरिः, श्रीजिनदत्तसूरयः। यतीन्द्रजिनचन्द्राख्यः, श्रीजिनपतिसूरयः॥२॥ एतेषां चरितं किञ्चिन्, मन्दमत्या यदुच्यते। वृद्धेभ्यः श्रुतवेतृभ्यस्तन्मे कथयतः शृणु॥३॥ अन्तिम तीर्थंकर 'वर्धमान' श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करके वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि इन आचार्यों का यत्किञ्चित् जीवन चरित्र मैं अपनी मन्द-बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, जो मैंने परम्परा के जानने वाले वृद्धों से ज्ञात किया है। मेरे कथन को आप सुनिये आचार्य श्री वर्धमानसूरि १. अभोहर देश में चौरासी देव-घरों के मालिक चैत्यवासी जिनचन्द्र नाम के एक आचार्य थे। उनका वर्धमान नामक शिष्य था। उस शिष्य को शास्त्र पढ़ते समय जिन मन्दिर विषयक चौरासी आशातनाओं का वर्णन पढ़ने में आया। उनका विचार करते हुए वर्धमान के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि-"यदि इन चौरासी आशातनाओं का रक्षण किया जाय तो आत्म-कल्याण हो।" उसने अपना यह विचार गुरु को निवेदन किया। गुरुजी ने मन में सोचा कि-"इसका मन ठीक नहीं है।" इसलिए उसे आचार्य पद पर स्थापित कर दिया। आचार्य पद मिलने पर भी उनका मन चैत्य-गृह में वास करके रहने में स्थिर नहीं हुआ। इसलिए अपने गुरु की सम्मति से वह कुछ मुनियों को साथ लेकर दिल्ली-१ वादली आदि १. भारतवर्ष की राजधानी, जिसे योगिनीपुर भी कहते थे। वादली नगर भी उसी प्रदेश में है जहाँ से वदलिया (श्रीमाल) गोत्र हुआ। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास _ 2010_04 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशों की तरफ निकल आया। उस समय वहाँ पर श्री उद्योतनाचार्य नाम के सूरि विराज रहे थे। उनके पास वर्धमान ने आगम-शास्त्र के तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया और उन्हीं के समीप उपसंपदा अर्थात् पुनर्दीक्षा ग्रहण की। क्रमशः वे वर्धमानसूरि बन गये। इसके बाद उन वर्धमानसूरि को इस बात की चिन्ता हुई कि-"सूरि-मन्त्र का अधिष्ठाता देव कौन है?" इसके जानने के लिये उन्होंने तीन उपवास किए। तीसरा उपवास समाप्त होते ही धरणेन्द्र नामक देव प्रगट हुआ। धरणेन्द्र ने कहा कि-"सूरि-मन्त्र का अधिष्ठाता मैं हूँ।" और फिर उसने सूरि-मन्त्र के पदों का अलग-अलग फल बताया। इससे आचार्यमन्त्र स्फुरायमान हो गया। फिर वे वर्धमानसूरि सारे मुनि परिवार सहित स्फुरायमान हो गए। विशेष वृद्धाचार्यप्रबन्धावली के अनुसार उद्योतनसूरि अरण्यवासी (वनवासी) गच्छ के नायक थे। वृद्धाचार्य-प्रबन्धावली एवं क्षमाकल्याणकृत खरतरगच्छ पट्टावली में कहा गया है कि दण्डनायक विमल द्वारा निर्मित विमलवसही के प्रतिष्ठापक उक्त वर्धमानसूरि ही थे। सूरिमन्त्र सिद्ध होने के पश्चात् ये स्फुराचार्य के नाम से भी विख्यात हुए। इनके द्वारा रचित उपदेशपदटीका (वि०सं० १०५५), उपदेशमालाबृहद्वृत्ति, उपमितिभवप्रपंचाकथासमुच्चय आदि ग्रन्थ मिलते हैं। दुर्लभराज की सभा में हुए शास्त्रार्थ (वि०सं० १०८० के आसपास) के पश्चात् ही इनका निधन हुआ। 卐卐 आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि २. इसी अवसर में पण्डित जिनेश्वर गणि ने -जो वर्धमान सूरि के शिष्य थे, निवेदन किया कि "भगवन्! यदि कहीं देश-विदेश में जाकर प्रचार न किया जाय तो जिनमत के ज्ञान का फल क्या है? सुना है कि गुर्जर देश बहुत बड़ा है और वहाँ चैत्यवासी आचार्य अधिक संख्या में रहते हैं, अत: वहाँ चलना चाहिए।" यह सुनकर श्री वर्धमानाचार्य ने कहा-"ठीक है, किन्तु शकुन-निमित्तादि देखना परमावश्यक है, इससे सब कार्य शुभ होते हैं।" फिर वे वर्धमानसूरि सत्तरह शिष्यों को साथ लेकर भामह नामक बड़े व्यापारी के संघ के साथ चले। क्रम से प्रयाण करते हुए पाली पहुँचे। एक समय जब श्री वर्धमानसूरि पण्डित जिनेश्वरगणि के साथ बहिर्भूमिका (शौचार्थ) जा रहे थे, उन्हें सोमध्वज नाम जटाधर-जोगी मिला और उसके साथ मनोहर वार्तालाप हुआ। वार्तालाप के प्रसंग में सोमध्वज ने गुण देखकर आचार्य वर्धमान से प्रश्न किया का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरंच्युग्रप्रवाची च को, वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः। चन्द्रः पृच्छति मन्दिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को, दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को वा भुवि भ्राजते॥१॥ १. जिनेश्वरसूरि का पूर्ववृत्त देखने के लिए देखें-प्रभावकचरितान्तर्गत अभयदेवसूरिचरित पृष्ठ १६१ से १६३ । २. पाली (जोधपुर डिवीजन)। (२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दौर्गत / दरिद्रता का नाश करने वाली वस्तु क्या है? विष्णु-ब्रह्मा-शिव का वाचक वर्ण क्या है? पथिक लोग अपने किस श्रम को आदर / सुखपूर्वक दूर करते हैं? चन्द्र पूछता है कि देवमन्दिरों में शोभा बढ़ाने वाली वस्तु क्या है? और जगत् में चतुरता तथा न्याय आदि गुणों से विश्व विख्यात होकर कौन प्रकाशमान है? । इन पाँचों प्रश्नों का उत्तर “सोमध्वज" इस प्रकार एक ही पद में सूरि जी ने दिया। साहित्यकारों ने इसका नाम “द्विर्व्यस्त समस्त जाति" रखा है, इसका अर्थ यह कि दो बार सन्धि विश्लेष करके तीसरी बार समस्त वाक्य को पढ़ना, अर्थात्-प्रथम संधि विश्लेष में "सा-ऊम्-अध्वजः" से प्रथम के ३ और द्वितीय संधि विश्लेष में "सोमः ध्वजः" से चौथे एवं समस्त वाक्य "सोमध्वजः" से पांचवें प्रश्न का उत्तर निम्नलिखित प्रकार से मिलता है-दौर्गत-दारिद्रय का नाश करने वाली सालक्ष्मी है। ऊम् यह वर्ण ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों का वाचक है अर्थात् इस पद से तीनों ही ग्रहण किये जाते हैं। पथिक लोग अध्वज यानी मार्गजनित श्रम को बड़े चाव से दूर करना चाहते हैं। हे सोम! - चंद्र! देवताओं के मन्दिरों में शोभा बढ़ाने वाली वस्तु ध्वज अर्थात् ध्वजा है। मन्दिरों की शोभा ध्वजा से बढ़ती है। चतुराई और नीति में विश्वविख्यात् यदि कोई है तो वह आप सोमध्वज "सोमध्वज" यह उत्तर सुनकर वह तपस्वी बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सूरि जी की बहुत भक्ति की। फिर उसी भामह सेट के संघ के साथ चलते हुए गुजरात की प्रसिद्ध नगरी अणहिलपुर पाटण में पहुंचे। वहाँ नगर के बाहर मण्डपिका अर्थात् सरकारी चुंगी घर में ठहरे। उस समय वहाँ उसके आस-पास कोट नहीं था, जिससे सुरक्षा हो और शहर में सुसाधुओं का कोई भक्त श्रावक भी नहीं था, जिसके पास जाकर स्थानादि की याचना की जा सके। वहाँ विराजमान मुनि-वृन्दसह आचार्य को ग्रीष्म से आक्रान्त देखकर पण्डित जिनेश्वर ने कहा-"पूज्यपाद! बैठे रहने से कोई कार्य नहीं होता!" आचार्य ने कहा- "हे सच्छिष्य! क्या करना चाहिए?" तब पण्डित जिनेश्वर ने प्रार्थना की-"यदि आप आज्ञा दें तो सामने जो बड़ा घर दिखाई दे रहा है, वहाँ जाऊँ।" आचार्य ने उत्तर दिया-"जाओ।" गुरु का वन्दन कर वे वहाँ से चले। वह घर श्री दुर्लभराज के पुरोहित का था। उस समय पुरोहित अपने शरीर में अभ्यंग-मर्दन करा रहा था। उसके सामने जाकर आशीर्वाद दिया श्रिये कृतनतानन्दा, विशेषवृषसङ्गताः। भवन्तु तव विप्रेन्द्र!, ब्रह्म-श्रीधर-शङ्कराः॥ [हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! भक्तों को आनन्द देने वाले, क्रम से हंस, शेषनाग और वृषभ (बैल) पर चढ़ने वाले ब्रह्मा, विष्णु, शिव आपकी लक्ष्मी की वृद्धि करें।] इसको सुनकर पुरोहित बहुत प्रसन्न हुआ और हृदय में विचार किया कि यह साधु कोई बड़ा विचक्षण-बुद्धिमान ज्ञात होता है। उसी पुरोहित के घर में कई छात्र वेद पाठ कर रहे थे, उसे सुनकर संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० जिनेश्वर गणि ने उनसे कहा- "इस तरह पाठ मत करो किन्तु इस प्रकार करो।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा-"शूद्रों को वेद पठन-पाठन का अधिकार नहीं है, तो तुम कैसे जान सके कि यह पाठ अशुद्ध है।" पण्डित जिनेश्वर ने कहा-"सूत्र और अर्थ से चारों वेदों को जानने वाले हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं।" तब प्रसन्न होकर पुरोहित ने पूछा-"आप कहाँ से पधारे हैं और यहाँ कहाँ विराज रहे हैं?" गणि जी ने उत्तर दिया-"हम दिल्ली प्रान्त से आये हैं और इस देश में हमारे विरोधी मनुष्य होने के कारण हमें कोई ठीक स्थान नहीं मिला है। अभी शहर के बाहर चुंगी घर में ठहरे हुए हैं। मेरे गुरु महाराज साथ हैं, हम सब अठारह मुनि हैं।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा-"यह चतुःशाल वाला मेरा मकान है। इसमें एक तरफ पर्दा बाँधकर एक मार्ग-द्वार से प्रवेश करके एक शाला में आप सब सुखपूर्वक विराजें। भिक्षा के समय मेरा सेवक आपके साथ रहने से ब्राह्मणों के घरों से आपको सुखपूर्वक भिक्षा प्राप्त हो जावेगी।" इस प्रकार पुरोहित के आग्रह से ये लोग उसके चतुःशाल के एक भाग में आकर ठहर गये। तब यह बात पाटन शहर में फैल गई कि "वसति निवासी कोई नवीन यति लोग आये हैं।" स्थानीय देव-गृह-निवासी यतियों ने भी यह बात सुनी। उन्हें इनका आगमन अच्छा मालूम नहीं हुआ और उन्होंने सोचा कि यदि रोग को उठते ही नाश कर दिया जाय तो अच्छा है। तब उन्होंने अधिकारियों के बालकों को-जो उनके पास पढ़ते थे-बतासे आदि मिठाई देकर प्रसन्न किया और उनके द्वारा नगर में यह बात फैलाई-"ये परदेश से मुनि रूप में कोई गुप्तचर आये हैं, जो दुर्लभराज के राज्य के रहस्य को जानना चाहते हैं।" यह बात सारी जनता में फैल गई और क्रमशः राजसभा तक जा पहुँची। तब राजा ने कहा-"यदि यह ठीक है और ऐसे क्षुद्र पुरुष आये हैं तो इनको किसने आश्रय दिया है?" तब किसी ने कहा-"राजन् ! आपके गुरु ने ही अपने घर में ठहराया है।" उसी समय राजा की आज्ञा से पुरोहित वहाँ बुलाया गया। राजा ने पुरोहित से पूछा-"यदि ये धूर्त पुरुष हैं तो इनको तुमने अपने यहाँ क्यों स्थान दिया?" पुरोहित ने कहा-"यह बुराई किसने फैलाई है? मैं लाख रुपयों की बाजी मारने के लिए ये कौड़ियाँ फेंकता हूँ, इनमें दूषण सिद्ध करने वाला इन कौड़ियों का स्पर्श करे।" परन्तु कोई भी ऐसा न कर सका। तब पुरोहित ने राजा से कहा-"देव! मेरे घर में ठहरे हुये यतिजन साक्षात् मूर्तिमान धर्मपुञ्ज से दिखाई देते हैं, उनमें किसी प्रकार का दूषण नहीं है।" यह सुनकर सूराचार्य आदि स्थानीय चैत्यवासी यतियों ने विचार किया-"इन विदेशी मुनियों को शास्त्रार्थ में जीत कर निकाल देना होगा।" उन्होंने पुरोहित से कहा-"हम तुम्हारे घर में ठहरे हुए मुनियों के साथ शास्त्र विचार करना चाहते हैं।" पुरोहित ने कहा-"उनसे पूछकर जैसा होगा वैसा मैं उत्तर दूंगा।" फिर उसने घर जाकर उन मुनियों से कहा"महाराज! विपक्षी लोग आप पूज्यों के साथ शास्त्र-विचार करना चाहते हैं।" उन्होंने कहा-"ठीक ही है, तुम डरो मत और उनसे यह कहना-अगर आप लोग उनके साथ वाद-विवाद करना चाहते हैं तो वे श्री दुर्लभराज के सामने जहाँ तुम शास्त्रार्थ के लिए कहोंगे, वहाँ करने को तैयार हैं।" इसको सुनकर उन्होंने सोचा कि यहाँ के सब अधिकारी हमारी वशीभूत हैं, इनसे कोई भय नहीं है। अतः राजा के समक्ष राज-सभा में ही शास्त्र-विचार किया जाय। तब पञ्चासरीय पार्श्वनाथ भगवान् के बड़े (४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर में अमुक दिन शास्त्र-चर्चा होगी, ऐसा निवेदन पुरोहित की ओर से सर्व साधारण को कर दिया गया। अवसर पाकर पुरोहित ने एकान्त में राजा से कहा-"देव! आगन्तुक मुनिजनों के साथ स्थानीय यति शास्त्र-विचार करना चाहते हैं और विचार न्यायवादी राजा की अध्यक्षता में किया जाना शोभा देता है। अतः आप कृपा करके उस अवसर पर सभा भवन में अवश्य विराजें।" इस पर राजा ने कहा-"ठीक है, यह तो हमारा कर्तव्य है।" तदनन्तर नियत दिन उसी बड़े मन्दिर में श्री सूराचार्य आदि स्थानीय चौरासी आचार्य अपनेअपने मान-सम्मान के साथ आकर बैठ गये। फिर प्रधान पुरुषों ने राजा को आमंत्रित किया। वह भी आकर अपने स्थान पर बैठ गया। तब राजा ने पुरोहित से कहा-"जाओ, तुम अपने मान्य मुनियों को बुला लाओ!" तब पुरोहित ने वहाँ जाकर श्री वर्धमानसूरिजी से प्रार्थना की-"स्थानीय आचार्य परिवार सहित वहाँ आ गये हैं और श्री दुर्लभराज नरेश पञ्चासरीय मन्दिर में आपके पधारने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजा ने उन स्थानीय आचार्यों को ताम्बूल देकर सम्मानित किया है।" पुरोहित के मुख से यह बात सुनकर श्री वर्धमानसूरिजी ने श्री सुधर्मा स्वामी, श्री जम्बू स्वामी आदि चौदह पूर्वधर युगप्रधान सूरियों का हृदय में ध्यान किया और पण्डित जिनेश्वर आदि कई एक गीतार्थ विचक्षण साधुओं को साथ लेकर शुभ शकुन से सभा भवन को चले। वहाँ पहुँचने पर राजा से निवेदित स्थान पर पण्डित जिनेश्वर द्वारा बिछाये हुए आसन पर आचार्य श्री बैठ गए। राजा इन्हें भी ताम्बूल भेंट करने लगा। तब सब उपस्थित जनता के समक्ष गुरुवर बोले"राजन् ! साधु पुरुषों को पान खाना उचित नहीं है, क्योंकि शास्त्रों में कहा है कि : ब्रह्मचारियतीनां च, विधवानां च योषिताम्। ताम्बूलभक्षणं विप्रा!, गोमांसान विशिष्यते॥ [ब्रह्मचारी, यति और विधवा स्त्रियों को ताम्बूल भक्षण करना गौ माँस के समान है।]" यह सुनकर वहाँ उपस्थित विवेकवान जैन संघ की आचार्य के प्रति बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई। शास्त्रार्थ-विचार के विषय में गुरुजी बोले-"हमारी तरफ से पण्डित जिनेश्वर उत्तर-प्रत्युत्तर करेंगे और ये जो कहेंगे, वह हमें मान्य होगा।" इसे सुनकर सभी ने कहा कि ऐसा ही हो। इसके बाद पूर्व पक्ष ग्रहण करते हुए, सर्व प्रधान सूराचार्य ने कहा-"जो मुनि वसति में निवास करते हैं, वे प्रायः षड्दर्शन से बाह्य हैं। इन षड्दर्शनों में क्षपणक, जटी आदि का समावेश है, इनमें से यह कोई भी नहीं हैं।" ऐसा अर्थ निर्णय करने के लिए नूतन वादस्थल नामक पुस्तक पढ़ने के लिए उन्होंने अपने हाथ में ली। उस अवसर पर "भावी में भूत की तरह उपचार होता है" इस न्याय का अवलम्बन करके श्री जिनेश्वरसूरि ने कहा-"श्री दुर्लभराज! आपके राज्य में क्या पूर्वपुरुषों से निर्धारित नीति चलती है या आधुनिक पुरुषों की निर्माण की हुई नवीन नीति?" तब राजा ने कहा-"पूर्व पुरुषों की बनाई हुई नीति ही हमारे देश में प्रचलित है, नवीन राजनीति नहीं।" तदन्तर जिनेश्वरसूरि ने कहा"महाराज! हमारे जैन मत में भी ऐसे ही पूर्व पुरुष जो गणधर और चतुर्दश पूर्वधर हो गये हैं, उन्हीं संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५) 2010_04 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बताया हुआ मार्ग प्रमाणस्वरूप माना जाता है, दूसरा नहीं।" तब राजा ने कहा-"बहुत ठीक है।" तदन्तर जिनेश्वरसूरि ने कहा-"राजन् ! हम लोग बहुत दूर देश से आये हैं, अतः अपने पूर्वाचार्यों के बनाये हुये सिद्धान्त ग्रन्थ हम अपने साथ नहीं लाये हैं। इसलिए, महाराज! इन चैत्यवासी आचार्यों के मठों से पूर्वाचार्यों के विरचित सिद्धान्त-ग्रन्थों की गठरी मंगवा दीजिए, जिनके आधार पर मार्गअमार्ग का निर्णय किया जा सके।" तब राजा ने उन चैत्यवासी यतियों को सम्बोधित करके कहा"ये वसतिवासी मुनि ठीक कहते हैं। पुस्तकें लाने के लिये मैं अपने सरकारी पुरुषों को भेजता हूँ। आप अपने यहाँ सन्देश भेज दें जिससे इनको वे पुस्तकें सौंप दी जायँ" वे चैत्यवासी यति जान गये थे कि इनका पक्ष ही प्रबल रहेगा, अत: चुप्पी साधकर बैठे रहे। तब राजा ने ही राजकीय पुरुषों को सिद्धान्त-ग्रन्थों की गठड़ी लाने के लिए शीघ्र भेजा। वे गये और शीघ्र ही पुस्तकों का बंडल ले आये। उसे लाते ही उसी समय वह खोला गया। देव-गुरु की कृपा से उसमें सबसे पहिले चतुर्दश पूर्वधर प्रणीत "दशवैकालिक सूत्र" हाथ में आया। उसमें भी सबसे पूर्व यह गाथा निकली अन्नटुं पगडं लेणं, भइज सयणासणं। उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं॥ [साधु को ऐसे स्थान में रहना चाहिए जो स्थान साधु के निमित नहीं, किन्तु अन्य किसी के लिए बनाया गया हो, जिसमें खान-पान और सोने की सुविधा हो, जिसमें मल-मूत्र त्याग के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हो और जो स्त्री, पशु, पण्डग आदि से वर्जित हो।] इस प्रकार की वसति में साधुओं को रहना चाहिए, न कि देव मन्दिरों में । यह सुनकर राजा ने कहा-यह तो ठीक ही कहा है। और जो सब अधिकारी लोग थे, उन्होंने जान लिया कि हमारे गुरु निरुतर हो गए हैं। तब वहाँ पर सब अधिकारी लोग पटवे से लेकर श्रीकरण मंत्री पर्यन्त राजा से प्रार्थना करने लगे-"ये चैत्यवासी साधु तो हमारे गुरु हैं।" इन लोगों ने समझा था कि राजा हमें बहुत मानता है। इसलिए हमारे लिहाज से हमारे साधुओं के प्रति भी पक्षपात करेगा ही। पर राजा पक्षपाती नहीं था, वह तो न्यायप्रिय था। इस अवसर को देखकर जिनेश्वरसूरि ने कहा-"महाराज ! यहाँ कोई श्रीकरण अधिकारी का गुरु है, तो कोई मंत्री का, तो कोई पटवों का गुरु है। अधिक क्या कहें, इनमें सभी का परस्पर गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना हुआ है। और भी हम आपसे पूछते हैं कि इस लाठी का सम्बन्ध किसके साथ है?" राजा ने कहा-"इसका सम्बन्ध मेरे साथ है।" तब जिनेश्वरसूरि ने कहा-"महाराज! इस तरह सब कोई किसी न किसी का सम्बन्धी बना ही हुआ है। यहाँ हमारा कोई सम्बन्धी नहीं है।' यह सुनकर राजा बोला-"आप मेरे आत्म-सम्बन्धी गुरु हैं।" इसके बाद राजा ने अपने अधिकारियों से कहा-"अरे, अन्य सभी आचार्यों के लिये रत्न पट्ट से निर्मित सात-सात गादियाँ बैठने के लिए हैं और हमारे गुरु नीचे आसन पर बैठे हैं, क्या हमारे यहाँ गादियाँ नहीं हैं? इनके लिये भी गादियाँ लाओ।" यह सुनकर आचार्य जिनेश्वरसूरि ने कहा-"राजन् ! साधुओं को गादी पर बैठना उचित नहीं है।" शास्त्रों में कहा है : खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति नियतमेवासंयमः स्याद्विभूषा, नृपतिककुद! एतल्लोकहासश्च भिक्षोः। स्फुटतर इह सङ्गः सातशीलत्वमुच्चै-रिति न खलु मुमुक्षोः सङ्गतं गब्दिकादि॥ [मुमुक्षु को गादी आदि का उपयोग करना योग्य नहीं है। यह तो शृङ्गार की एक चीज है, जिससे अवश्य ही असंयम-मन का चांचल्य होता है। इससे लोक में साधु की हँसी होती है। यह स्पष्टतया आसक्तिकारक है और इससे अत्यंत सुखशीलता बढ़ती है। इसलिए "हे राजन् ! इसकी हमें आवश्यकता नहीं है।"] ___इस प्रकार इस पद्य का अर्थ राजा को सुनाया। राजा ने पूछा-"आप कहाँ निवास करते हैं?" सूरिजी ने कहा-"महाराज ! जिस नगर में अनेक विपक्षी हों, वहाँ स्थान की प्राप्ति कैसी?" उनका यह उत्तर सुनकर राजा ने कहा-''नगर के करडि हट्टी नामक मुहल्ले में एक वंशहीन पुरुष का बहुत बड़ा घर खाली पड़ा है, उसमें आप निवास करें।" राजा की आज्ञा से उसी क्षण वह स्थान प्राप्त हो गया। राजा ने पूछा-"आपके भोजन की क्या व्यवस्था है?" सूरिजी ने उत्तर दिया-"महाराज ! भोजन की भी वैसी ही कठिनता है।" राजा ने पूछा-"आप कितने साधु हैं?" सूरिजी ने कहा"अठारह साधु हैं।" राजा ने पुनः कहा-"एक हाथी की खुराक में आप सब तृप्त हो सकेंगे?" तब सूरिजी ने कहा-"महाराज! साधुओं को राजपिण्ड कल्पित नहीं है। राजपिण्ड का शास्त्र में निषेध है।" राजा बोला-"अस्तु, ऐसा न सही। भिक्षा के समय राज कर्मचारी के साथ रहने से आप लोगों को भिक्षा सुलभ हो जायेगी।" फिर वाद-विवाद में विपक्षियों को परास्त करके राजा और राजकीय अधिकारी पुरुषों के साथ उन्होंने वसति में प्रवेश किया। इस प्रकार प्रथम ही प्रथम गुजरात में वसति मार्ग की स्थापना हुई। ३. दूसरे दिन विपक्षियों ने सोचा कि हमारे दोनों उपाय व्यर्थ हो गए। अब इनको यहाँ से निकालने का और कोई उपाय सोचना चाहिए। उन्होंने सोचा-राजा पटरानी के वश में है। वह जो कहती है, वही करता है। इसलिए किसी प्रकार रानी को प्रसन्न करके उसके द्वारा इन्हें निकलवाना चाहिए। बस फिर क्या कहना था? सभी अधिकारीगण अपने-अपने गुरुओं के कथन से आम, केले, दाख आदि फलों से भरी हुई डालियाँ तथा कई आभूषण सहित सुन्दर-सुन्दर वस्त्रों की भेंट लेकर रानी के पास गए। जिस तरह भक्त लोग भगवान् के सामने बलि-भेंट पूजा रखते हैं, उसी तरह उन्होंने रानी के आगे यह भेंट धरी। इससे रानी प्रसन्न हुई और उनका वांछित कार्य करने को उद्यत हुई। उसी समय राजा को रानी से कोई बात पुछवाने की आवश्यकता आ पड़ी। राजा ने एक नौकर को जो दिल्ली प्रान्त का रहने वाला था-रानी के पास भेजा और कहा कि यह बात रानी से कह १. तुलना कीजिए-ततः प्रभृति सञ्जझे, वसतीनां परम्परा। महभ्दिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः (८९) (प्रभावक चरित्र)। २. इसी विजय के उपलक्ष में आचार्य जिनेश्वर सूरि की पूर्ण व कठोर साधुता के कारण इनकी परम्परा यहीं से सुविहित-विधि-खरतर पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुई। देखें-महो० विनय सागर लिखित "वल्लभ भारती"। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ। महाराज! कह आता हूँ। ऐसा कह कर वह तुरन्त रानी के समीप गया और राजा का प्रयोजन उससे निवेदन किया। उसने उस समय वहाँ अनेक उक्त प्रकार की भेंट लेकर बैठे हुए बड़ेबड़े अधिकारियों को उपस्थित देखकर सोचा कि यह तो हमारे देश से आये हुए आचार्यों को निकालने का उपाय सोचा जाना प्रतीत होता है। अतः मुझे भी उनका कुछ पक्ष पोषण करने के लिए राजा से कहना चाहिए। ऐसा विचार करता हुआ वह राजा के पास पहुँचा और बोला-"महाराज ! आपका सन्देश रानी को निवेदन कर दिया है, किन्तु महाराज! मैंने वहाँ पर एक बड़ा कौतुक देखा।" राजा ने पूछा-"भद्र! सो कैसा?" सेवक ने कहा-"रानी अर्हद स्वरूप हो रही है। जैसे अर्हद् भगवान् की प्रतिमा के आगे बलि-पूजा-रचना की जाती है, उसी प्रकार महारानी के आगे भी अधिकारियों ने पूजा-सामग्री का ढेर लगा रखा है। तरह-तरह के भूषण-वसन भेंट चढ़ाये जा रहे हैं।" यह सुनकर राजा समझ गया कि-जिन न्यायवादी मुनियों को मैंने गुरु रूप में स्वीकार किया है, उनका दुष्ट लोग अब भी पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। राजा ने उसी संवाददाता पुरुष को शीघ्र रानी के पास भेजकर कहलवाया-"तुम्हारे सामने इन लोगों ने जो भेंट धरी है, उसमें से यदि तुमने एक सुपारी भी ले ली है तो तुम मेरी नहीं और मैं तुम्हारा नहीं-अर्थात् तुम्हारा हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा। तुम तुम्हारे हम हमारे।" राजा का यह आदेश सुनकर रानी भयभीत हुई और बोली"जो पुरुष जो वस्तु लाया है, उसे अपने घर ले जाये। मुझे इन वस्तुओं से कोई प्रयोजन नहीं है।" इस प्रकार उन विपक्षियों का यह प्रयत्न भी निष्फल हुआ। ४. फिर उन्होंने चौथा उपाय सोचा कि-"यदि राजा विदेशी मुनियों को बहुत अधिक मानेगा तो हम सब देवस्थानों को शून्य छोड़कर विदेशों में चले जावेंगे।" यह समाचार किसी ने राजा के पास पहुँचा दिया। राजा ने स्पष्ट कहा कि-"यदि उन्हें यहाँ रहना पसन्द नहीं है तो वे खुशी से जा सकते हैं।" वे लोग झुंझलाकर वहाँ से निकल गये। उनके जाने के बाद देव-मन्दिरों में पूजा के लिए ब्राह्मणों को पुजारी बनाकर रख लिया गया। वे चैत्यवासी यति-जन घटनाचक्र के वश हो देव मन्दिरों को छोड़कर चले तो गये, किन्तु मन्दिरों से बाहर रहने में उन्हें बड़ी कठिनता प्रतीत होने लगी। खान, पान, स्थान, यान, आसन, आभूषण आदि वैभव-सुख-उपभोग के वे इतने परवश (दास) हो चुके थे कि मन्दिरों के बिना उनके सारे आनन्द में इतनी महती बाधा उपस्थित हो गई, जिसको वे किसी प्रकार भी नहीं सह सके और मानापमान का त्याग करके वे लोग भिन्न-भिन्न बहानों से एक-एक करके सब ही वापिस मन्दिरों में आकर रहने लग गए। ५. श्रीवर्धमानसूरि भी राज-सम्मानित होकर अपने शिष्य परिवार सहित उस देश में सर्वत्र विचरण करने लगे। अब कोई भी किसी प्रकार से इनके सामने बोलने की क्षमता नहीं रखता था। इसके बाद श्री जिनेश्वरसूरि की योग्यता और विद्वत्ता देखकर शुभ लग्न में उन्हें अपने पाट पर स्थापित किया और उनके भाई बुद्धिसागर को आचार्य पद दिया एवं उनकी बहिन कल्याणमति को श्रेष्ठ "महत्तरा" पद दिया गया। इसके पश्चात् उसी तरह ग्राम-ग्रामान्तरों में विचरण करते हुए आचार्य जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसन्नचंद्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि अनेकों (८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दीक्षा देकर अपने शिष्य बनाये । इन्हीं दिनों वर्धमानसूरि जी का शरीर वृद्धावस्था के कारण शिथिल हो गया था । अतः आबू तीर्थ में सिद्धान्त विधि से अनशन लेकर देवगति को प्राप्त हुए । ६. तत्पश्चात् जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र और अभयदेव को गुणपात्र जानकर सूरि पद से विभूषित किया और वे श्रमण धर्म की विशिष्ट साधना करते-करते क्रम से युगप्रधान पद पर आसीन हो गये । धनेश्वर जिनका जिनभद्र नाम था - को तथा हरिभद्र को सूरिपद और धर्मदेव, सुमति, विमल इन तीनों को उपाध्याय पद से अलंकृत किया। धर्मदेवोपाध्याय और सहदेव गणि ये दोनों भाई थे । धर्मदेव उपाध्याय ने हरिसिंह और सर्वदेव गणि को एवं पण्डित सोमचन्द्र को अपना शिष्य बनाया। सहदेव गणि ने अशोकचन्द्र को अपना शिष्य बनाया, जो गुरुजी का अत्यन्त प्रिय था । उसको जिनचन्द्रसूरि ने अच्छी तरह शिक्षित करके आचार्य पद पर आरुढ़ किया । इन्होंने अपने स्थान पर हरिसिंहाचार्य को स्थापित किया । प्रसन्नचन्द्र और देवभद्र नामक दो सूरि और थे। इनमें देवभद्रसूरि सुमति उपाध्याय के शिष्य थे। प्रसन्नचन्द्र आदि चार शिष्यों को अभयदेवसूरि जी ने न्याय आदि शास्त्र पढ़ाये थे । इसीलिए जिनवल्लभगणि ने चित्रकूटीय प्रशस्ति में लिखा है सत्तकं न्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवसकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकीर्तिः, स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥ [जिन आचार्य अभयदेवसरि जी के शिष्य उत्तम तर्क न्याय व चर्चा से विभूषित चतुर वाणी वाले, सर्वविद्यारूपी समुद्र को पी लेने में अगस्त्य ऋषि की तुलना में आने वाले, सर्वत्र विस्तारित होने वाली महान् कीर्ति वाले और श्रुत व चारित्र की लक्ष्मी से शोभित होने वाले आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि, आचार्य श्री वर्धमानसूरि यतिपति, हरिभद्रसूरि व मुनीश देवभद्रसूरि आदि अनेकों आज भी शासन रूपी प्रासाद के स्तंभतुल्य हैं ।] ७. श्री जिनेश्वरसूरि वहाँ से विहार करके आशापल्ली नामक नगरी में गये । वहाँ आपके कई दिन व्याख्यान हुए । व्याख्यान में बड़े-बड़े विचक्षण पुरुष उपस्थित हुआ करते थे । वहाँ पर महाराज ने अनेक अर्थों एवं वर्णन से संयुक्त वैदुष्यपूर्ण लीलावतीकथा नामक ग्रन्थ की रचना की । वहाँ से डिण्डियाणा' ग्राम में गये। आपके पास अधिक पुस्तकें नहीं थीं, इसलिए गाँव के निवासी चैत्यवासी आचार्यों से व्याख्यानार्थ पुस्तकें माँगी । उन चैत्यवासियों का अन्तःकरण ईर्ष्या-द्वेष से मलिन था, अतः उन्होंने पुस्तकें नहीं दी। जिनेश्वरसूरि दिन के उत्तरार्ध में रचना करते और प्रातःकाल व्याख्यान करते। चातुर्मास में कथावाचकों के हितार्थ कथाकोश की रचना की। उन दिनों उसी ग्राम में कुछ १. वर्तमान में इसे डीडवाणा कहते हैं। जो जोधपुर के पर्वतसर डिवीजन में है । २. सिंघी जैन ग्रन्थमाला से मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित स्वोपज्ञ वृत्ति सह प्रकाशित हो चुकी है। १. टि०पृ० १६१ - १६६ १. विशेष अध्ययन करने के लिए देखें महोपाध्याय विनयसागर लिखित वल्लभभारती । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (९) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वियों के साथ मरुदेवी नाम वाली गणिनी आई हुई थीं। उसने वहाँ चालीस दिन का संथारा लिया था। श्रीजिनेश्वरसूरि जी ने समाधिकाल में संलेखना पाठ सुनाया और कहा था-"आर्ये! इस शरीर को त्याग कर दूसरे भव में आप जहाँ उत्पन्न हों, वह स्थान हमें बतला दीजियेगा।" उसने भी कहा-"अवश्य निवेदन करूँगी।" पंच परमेष्ठी का ध्यान करती हुई वह स्वर्ग को सिधार गई। वहाँ से परमर्द्धिक देवलोक में उत्पन्न हुई। उन्हीं दिनों एक श्रावक युगप्रधान आचार्य का निश्चय करने के लिए उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर जाकर उपवास करने लगा। उसकी यह प्रतिज्ञा थी कि जब तक कोई भी देवता मुझे युगप्रधान नहीं बतला देगा, तब तक मैं निराहार रहूँगा। सौभाग्य से उन्हीं दिनों ब्रह्मशान्ति नामक यक्ष, जो भगवान् का परिचारक था-तीर्थंकर वन्दना के लिये महाविदेह क्षेत्र में गया था। वहाँ पर देवरूप धारिणी मरुदेवी ने उसके द्वारा जिनेश्वरसूरि जी के पास यह संदेश भेजा मरुदेवि नाम अज्जा गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छंमि। सग्गंमि गया पढमे, देवो जाओ महिड्डीओ॥ टक्कलयंमि विमाणे दुसागराओ सुरो समुप्पन्नो। समणेस-सिरिजिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु॥ टक्कउरे जिणवंदण-निमित्तमिहागएण संदिटुं । चरणंमि उजमो भे कायव्वो किं व सेसेसु॥ [आपके गच्छ में जो मरुदेवी नामक गणिनी आर्या थी, वह प्रथम स्वर्ग में जाकर महर्धिक देव हुई है। वह टक्कल नामक विमान में है और दो सागर आयुष्य के परिमाण से उत्पन्न हुई है। मुनीन्द्र जिनेश्वरसूरि को यह समाचार मेरी ओर से कह देना और कहना कि महर्द्धि देव देहधारिणी मरुदेवी जिन वन्दना के लिये टक्कलपुर में आई थी, वहाँ पर संदेश दिया है कि आप चारित्र के लिए अधिक से अधिक उद्यम करें। शेष अन्य कार्यों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।] उस ब्रह्मशान्ति नामक यक्ष ने यह संदेश जिनेश्वरसूरि को नहीं सुनाया, किन्तु गिरनार पर्वत के शिखर पर युग-प्रधान का निश्चय करने के लिये उपवास करने वाले उस श्रावक को उठाया और उसके पहनने के वस्त्र पर म.स.ट.स.ट.च. ये अक्षर लिख दिये और कहा कि पाटन में जाओ और वहाँ पर जिस आचार्य के हाथ से धोने पर ये अक्षर मिट जायें, उसी को युगप्रधान आचार्य समझ लेना। वह श्रावक वहाँ से चलकर पाटन आया और अनेक उपाश्रयों में गया तथा अनेक आचार्यों को वे अक्षर दिखाये किन्तु उनके तात्पर्य को कोई भी नहीं जान सका। बाद में सौभाग्यवश वह उस उपाश्रय में पहुँचा जहाँ जिनेश्वरसूरि विराज रहे थे। सूरिजी ने उन अक्षरों को बाँच कर जान लिया कि तीन गाथाओं के ये आदि अक्षर हैं। फिर उनको वस्त्र पर से धो दिया और संदेश के रूप में मरुदेवी की कही हुई तीनों गाथाएँ ज्यों की त्यों लिख दीं। इस बात को देखकर उसको यह निश्चय हो गया कि ये ही युगप्रधान आचार्य हैं और मुख्य रूप से उनको अपना गुरु स्वीकार किया। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित धर्म को अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार से प्रदीप्त करके श्री जिनेश्वरसूरि जी देवलोक पधार गये। (१०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष जिनेश्वर एवं बुद्धिसागरसूरि प्रभावकचरित के अनुसार आचार्य जिनेश्वर और बुद्धिसागरसूरि मध्यदेश के निवासी और कृष्ण नामक एक ब्राह्मण के पुत्र थे। इनका बचपन का नाम श्रीधर और श्रीपति था। दोनों ही भाई बड़े प्रतिभावान थे। इन्होंने अल्पवय में ही ब्राह्मणीय परम्परा के अनेक धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया और देशाटन हेतु घूमते-घूमते धारा नगरी के श्रेष्ठी लक्ष्मीधर के यहाँ पहुँचे । श्रेष्ठी इनकी विद्वत्ता से अत्यधिक प्रभावित हुआ। एक बार श्रेष्ठी के घर आग लग जाने से उसका दीवारों पर लिखा हिसाब-किताब भी नष्ट हो गया। भ्राताद्वय ने अपनी तीव्र स्मरणशक्ति से पुनः उक्त हिसाब-किताब को बतलाकर अपनी विद्वत्ता और उपादेयता सिद्ध कर दी। इस घटना से प्रभावित हो उक्त श्रेष्ठी इन्हें और भी ज्यादा सम्मान देने लगा। श्रेष्ठी लक्ष्मीधर ने ही आचार्य वर्धमानसूरि से इनकी भेंट करायी। वर्धमानसूरि के तप और तेज से ये दोनों भाई अत्यन्त प्रभावित हुए और अन्ततः उनसे दीक्षित होकर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि के नाम से विख्यात हुए। गुरु की प्रेरणा से ये सुविहितमार्ग का प्रचार करते हुए अणहिल्लपुरपाटन पहुंचे जहाँ चैत्यवासियों के साथ दुर्लभराज की राजसभा में इनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें इनका सुविहितपक्ष सबल सिद्ध हुआ। चैत्यवास : जैन मुनिजनों का मुख्य कर्त्तव्य है केवल आत्मकल्याण में लीन रहना, इसके लिये उन्हें शम, दम, तप आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करना अनिवार्य है। जीवनयापन के लिये उन्हें भिक्षा में जो कुछ भी रूखा-सूखा आहार प्राप्त हो जाये और वह भी शास्त्रोक्त विधि से, उसे ही ग्रहण करना। भिक्षा के अतिरिक्त उन्हें श्रावकों से किसी प्रकार का संसर्ग रखना वर्जित था। वर्षाऋतु के अतिरिक्त उन्हें एक स्थान पर रहना भी निषिद्ध है। जैन सूत्रों में जैन मुनि को निम्नलिखित बातों का पालन करना अनिवार्य था१. सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग। २. किसी भी स्थान पर स्थायी रूप से न रहना। ३. मधुकरी वृत्ति से ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करना। ४. ब्रह्मचर्य का पालन करना। ५. स्त्री-पशु रहित स्थान में ठहरना । ६. अंगराग, ताम्बूल, तेल आदि का प्रयोग न करना। ७. किसी प्रकार का व्यापार न करना और न ही उससे प्राप्त धन रखना। ८. क्षमा, लघुता आदि दशविध यतिधर्म का पालन करना । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ उक्त नियमों का चैत्यवासी मुनिजन सर्वथा उल्लंघन कर रहे थे। आचार्य हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में इन चैत्यवासी मुनिजनों की कटु आलोचना की है। आगे की शताब्दियों में तो चैत्यवास का स्वरूप और भी विकृत होता गया। श्वेताम्बर समाज में ऐसे मुनिजनों का बाहुल्य हो गया जो सदैव चैत्यों में रहते थे, इसी कारण ये चैत्यवासी कहलाने लगे। समाज में इनका अत्यन्त प्रभाव था। किन्तु जैन शास्त्रों में वर्णित निर्ग्रन्थ मुनि के आचारों से उनका जीवन पूर्णतः असंगत हो गया था। ऐसे ही मुनिजनों ने सुविहितमार्गीय वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि का पाटण में प्रवेश करने पर सशक्त विरोध किया था जिन्हें जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरभूमि को सुविहितमार्गीय मुनिजनों के लिये खोल दिया। खरतरविरुद एवं शास्त्रार्थ का समय : आचार्य वर्धमानसूरि की अध्यक्षता में उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि ने चैत्यवास के विरुद्ध जो आन्दोलन चलाया वह मुख्यरूप से चैत्यवासियों के उन्मूलन का आन्दोलन था। उनकी यह विचारधारा हमें उनके एवं उनके शिष्यों द्वारा रचित विभिन्न ग्रन्थों में दिखाई देती है। तत्कालीन अन्य ग्रन्थकारों ने भी इसका उल्लेख किया है। वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा आरम्भ किये गये चैत्यवास विरोधी आन्दोलन / क्रांति को उनके अनुयायी जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि ने अपने-अपने ढंग से जारी रखा, परिणाम स्वरूप चैत्यवास की परम्परा १३वीं शताब्दी के अन्त तक नष्टप्रायः हो गयी। प्रारम्भ में आचार्य वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि से उद्धृत इस शास्त्रोक्त परम्परा को सुविहितमार्ग नाम प्राप्त हुआ। अभयदेवसूरि तक प्रायः यही नाम प्रचलित रहा। आगे जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि के समय यह परम्परा विधिमार्ग के नाम से जानी गयी और यही आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से शास्त्रार्थ में विजयी होने पर राजा ने जिनेश्वरसूरि को खरतर उपाधि प्रदान की और उनकी शिष्यसन्तति खरतरगच्छीय कहलायी। दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद् प्रदान किया हो अथवा नहीं किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि शास्त्रार्थ में उनका पक्ष सबल अर्थात् खरा सिद्ध हुआ और उसी समय से सुविहितमार्गीय मुनिजनों के लिये गूर्जर भूमि विहार हेतु खुल गया। मुनि जिनविजय आदि विभिन्न विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार किया है। कुछ अर्वाचीन विद्वानों ने यह शंका प्रकट की है कि पट्टावलियों में शास्त्रार्थ सम्बन्धी जो भिन्न-भिन्न तिथियाँ मिलती हैं उस समय यहाँ दुर्लभराज का शासन ही नहीं था अतः शास्त्रार्थ की चर्चा निरर्थक है। यह सत्य है कि उत्तरकालीन खरतरगच्छीय पट्टावलियों में शास्त्रार्थ सम्बन्धी (१२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न-भिन्न तिथियाँ मिलती हैं किन्तु उनमें से एक तिथि (वि०सं० १०८०) तो दुर्लभराज के निकटतम ही है। दुर्लभराज का शासन वि०सं० १०७६ तक ही रहा और उत्तरकालीन पट्टावलियाँ, जो गीतार्थ परम्परा पर ही आधारित हैं, यदि उनमें दो-चार वर्ष का अन्तर है तो वह सामान्य बात ही है। प्राचीन पट्टावलियों में शास्त्रार्थ की तिथि नहीं दी गयी है किन्तु शास्त्रार्थ और उसमें विजय प्राप्त होने की स्पष्ट चर्चा है अतः यह सुनिश्चित है कि शास्त्रार्थ हुआ और उसमें जिनेश्वरसूरि का पक्ष सबल रहा। चैत्यवास विरोधी यह संगठन उस समय सुविहितमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि अपने कठोर आचार के कारण विशेष विख्यात हुए और इनके समय में यह परम्परा विधिमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुई और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है यही विधिमार्ग शनैः शनैः खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रवर्तित सुविहितमार्गीय आन्दोलन उत्तरकाल में खरतरगच्छ के रूप में हमारे सामने आया। खरतरगच्छीय परम्परा एक स्वर से वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव आदि को खरतरगच्छीय स्वीकार करती है। विभिन्न विद्वानों ने इस पर शंका प्रकट की है और कहा है कि इस समय तक खरतरगच्छ शब्द ही प्रचलन में नहीं आया था। यह सत्य है कि इस समय खरतर शब्द का प्रचलन नहीं रहा किन्तु जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं खरतर शब्द से पहले इसके लिये सुविहितमार्ग एवं विधिमार्ग जैसे शब्द प्रचलित रहे और वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव आदि को सभी विद्वान् सुविहितमार्गीय ही बतलाते हैं। स्वयं खरतरगच्छीय परम्परा भी उन्हें अपना पूर्वज मानती है और कोई भी अन्य परम्परा स्वयं को इनसे सम्बद्ध नहीं करती अतः यह स्पष्ट है कि वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव खरतरगच्छीय नहीं अपितु खरतरगच्छीय जिनवल्लभ, जिनदत्त, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि के पूर्वज अवश्य थे और ऐसी स्थिति में उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा अपने पूर्वकालीन आचार्यों को अपने गच्छ का बतलाना स्वाभाविक ही है। श्वेताम्बर परम्परा में जैनदर्शन का सर्वप्रथम ग्रन्थ प्रमालक्ष्म-स्वोपज्ञवृत्तिसह जिनेश्वरसूरि द्वारा ही रचित है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही सर्वप्रथम व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ बुद्धिसागरव्याकरण बुद्धिसागरसूरि द्वारा रचित है। ___आचार्य जिनेश्वरसूरि के ख्यातिनाम शिष्यों में संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि, नवाङ्गटीकाकार अभयदेवसूरि, सुरसुन्दरीचरित्रकार धनेश्वरसूरि, अपरनाम जिनभद्रसूरि, हरिभद्रसूरि, धर्मदेवगणि, सुमतिगणि, सहदेवगणि, विमलगणि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जिनेश्वरसूरि का निधन वि०सं० ११०८ के पश्चात् और ११२० के पूर्व सुनिश्चित है। (१३) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि में ८. आचार्य जिनेश्वरसूरि के पश्चात् सूरियों में श्रेष्ठ जिनचन्द्रसूरि हुये, जिनके अष्टादश-नाममाला का पाठ तथा अर्थ सब अच्छी तरह जिह्वाग्र उपस्थित था । सब शास्त्रों के पारंगत इन महाराज ने अठारह हजार श्लोक प्रमाण वाली संवेगरंगशाला' की सं० १९२५ में रचना की । यह ग्रंथ भव्य जीवों के लिये मोक्ष रूपी महल के सोपान सा है । आपने जावालिपुर में जाकर श्रावकों की सभा में ‘“चीवंदणमावस्सय’' इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद कहे थे उनको उन्हीं के शिष्य ने लिखकर तीन सौ श्लोकों के परिमाण का दिनचर्या ३ नामक ग्रन्थ तैयार कर दिया, जो श्रावक समाज के लिये बहुत ही उपकारी सिद्ध हुआ है । वे जिनचन्द्रसूरि भी अपने काल में जिन धर्म का यथार्थ प्रकाश फैलाकर देवगति को प्राप्त हुये । नवाङ्गी-टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ९. तदनन्तर नवाङ्गी व्याख्याकार युगप्रधान श्रीमद् अभयदेवसूरि हुये । इन्होंने नौ अंगों की व्याख्या करने में जो अपने बुद्धि की कुशलता प्रकट की है उसका स्वरूप इस प्रकार है साधुओं की चर्या में अग्रगण्य श्री अभयदेवसूरि जी क्रम से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए शम्भाण नामक ग्राम में गये। वहाँ पर किसी रोग के कारण आपका शरीर अस्वस्थ हो गया। जैसे-जैसे औषधि आदि का प्रयोग किया गया वैसे-वैसे घटने के बजाय रोग अधिक से अधिक बढ़ता ही गया । तनिक भी आराम नहीं हुआ। चतुर्दशी के दिन चार योजन दूर रहने वाले श्रावक भी महाराज के साथ पाक्षिक प्रतिक्रमण करने को आया करते थे। महाराज ने किसी समय अपने शरीर को अधिक रोग ग्रस्त जानकर सब श्रावकों को बुलाकर आदेश दिया, "आगामी चतुर्दशी के दिन हम . संथारा लेंगे। इसलिए मिथ्या दुष्कृत दान- क्षमतक्षामणा के वास्ते आप लोगों की उपस्थिति आवश्यक है।" सूरि जी के इस आदेशानुसार अनेक भक्तजन आ पहुँचे। उसके बाद त्रयोदशी के दिन अर्धरात्रि के समय शासनदेवी प्रगट हुई और उसने सूरि जी से कहा - " सोते हो या जागते हो?" दुर्बलतावश मन्द स्वर से सूरि जी ने कहा- "जागता हूँ।" देवी ने कहा- " शीघ्र उठिये और उलझी हुई सूत्र की इन नौ कूकड़ीयों को सुलझाइये।" सूरि जी बोले - " समर्थ नहीं हूँ, माँ ।" देवी बोली - "क्यों, शक्ति 卐卐卐 १. इसका संशोधन आचार्य देवभद्र और श्रीजिनवल्लभ गणि ने किया था। २. जावालिपुर " जालौर " को कहते हैं जो वर्तमान में जोधपुर डिवीजन में है। इसका स्वर्णगिरी नाम भी कई ग्रन्थों में मिलता है जो पहाड़ पर बसा था, प्राचीन तीर्थ रूप में प्रसिद्ध है । ३. संभवतः यह ग्रंथ प्राप्त नहीं है । (१४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों नहीं है? अभी तो बहुत वर्षों तक जीवित रहोगे। नव अंगों की व्याख्या तुम्हारे ही हाथों से होगी।" आचार्य ने कहा-"मेरे शरीर की तो यह अवस्था है, मैं व्याख्या कैसे कर सकूँगा?" तब देवी ने उन्हें उपदेश दिया-" स्तम्भनकपुर में सेढी नदी के किनारे खाखर (पलाश) पत्तों के नीचे पार्श्वनाथ भगवान् की स्वयंभू प्रतिमा विद्यमान है। उस प्रतिमा के आगे भक्ति भाव से स्तवना कर देववंदन कीजिए। आपका शरीर स्वस्थ हो जायेगा।" ऐसा कहकर देवी अदृश्य हो गई। प्रात:काल होते ही गुरुजी अन्तिम मिथ्या-दुष्कृत दान देंगे-इस अभिप्राय से स्थानीय और बाहर रहने वाले सब श्रावक एकत्रित होकर आये और पूज्यश्री को वन्दना की। पूज्यश्री ने कहा-"हम पार्श्वनाथ भगवान् की वन्दना करने के लिए स्तम्भनकपुर जायेंगे। अब यहाँ नहीं रहेंगे और अब संथारा भी नहीं लिया जायेगा।" सूरीश्वर के विचार में सहसा परिवर्तन देखकर श्रावकों को विश्वास हो गया कि महाराज श्री को अवश्य ही किसी न किसी शासन देव का उपदेश हुआ है। उन्होंने निवेदन किया-"भगवन् ! हम लोग भी भगवदर्शन के लिए आपके साथ चलेंगे।" यात्रार्थी श्रावकों का संघ तैयार हो गया। महाराज के लिए यान का प्रबन्ध किया गया। शुभ शकुन में सारा ही संघ वहाँ से रवाना हो गया। रोग के कारण महाराज की भूख सर्वथा बंद सी हो गई थी। परन्तु देव-गुरु की कृपा से मार्ग में पहले ही प्रयाण में महाराज की भूख कुछ-कुछ जागृत हुई और षड् रसों की अभिलाषा होने लगी। चलते-चलते जब धवलका' नामक ग्राम में पहुँचे, तब तक तो सूरिजी का शरीर सब पीड़ा दूर होकर स्वस्थ हो गया। स्वस्थ होने पर आचार्यश्री ने वाहन का त्याग कर दिया और पैदल ही यात्रा करते हुए स्तम्भनकपुर पहुंचे। वहाँ पर श्रावक लोग श्री पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा को शासनदेवी के कहने के अनुसार खोजने लगे। परन्तु उन्हें कहीं भी दिखाई नहीं दी। हताश होकर गुरुजी से आकर पूछा-"भगवन् ! प्रतिमा किस स्थान पर है?" गुरु महाराज ने कहा-"ढाक के पत्तों के ढेर के नीचे देखो।" गुरुजी की आज्ञानुसार पत्तों को हटाने पर सब ने देदीप्यमान प्रतिमा देखी। वहाँ के निवासियों से भक्त वृन्द को ज्ञात हुआ कि यहाँ पर एक गाय प्रतिदिन आकर भगवान् की प्रतिमा को स्नान कराने के लिये दूध झारती थी। भगवान् की प्रतिमा के दर्शन करके श्रावक बड़े आनन्द विभोर हुये और गुरुजी से आकर निवेदन किया-"भगवन् ! आपके बतलाए हुए स्थान पर प्रतिमा प्राप्त हो गई है।" श्रावकों के ये वचन सुनकर आचार्य भगवद्वन्दना के लिये चले। वहाँ प्रतिमा के दर्शन करके भक्तिपूर्वक स्तुति करते हुए आचार्यजी ने खड़े-खड़े ही शासनदेवी की सहायता से "जय तिहुयण' आदि ३२ पद्यों के स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र में अन्तिम दो गाथायें देवताओं का आकर्षण करने वाली थीं। इसलिये देवताओं ने आचार्य महाराज से कहा-"भगवन् ! नमस्कार सम्बन्धी तीस गाथाओं १. वर्तमान में खंभात को मानते हैं पर वहाँ तो समुद्र में मही नदी सम्मिलित होती है। अत: खेड़ा के निकट सेढी नदी के तीर पर बसा हुआ हाल मौजूद थांभण नामक ग्राम ही स्तंभनकपुर समझना चाहिए जहाँ पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट हुई थी। २. यह गुजरात प्रान्त का वर्तमान "धोलका" दादा श्रीजिनदत्तसूरिजी की जन्मभूमि है और कलिकुण्ड पार्श्वनाथ का प्राचीन तीर्थ भी है जिसका जीर्णोद्धार हो गया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१५) _ 2010_04 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स्तोत्र पाठ से ही हम प्रसन्न होकर पाठ करने वालों का कल्याण करेंगे। अन्तिम दो गाथाओं के पाठ से तो हमको प्रत्यक्ष उपस्थित होना पड़ेगा, जो हमारे लिये कष्टदायी होगा। अतः स्तोत्र में से अन्त की दो गाथाओं का संहरण कर दीजिये।" देवताओं के अनुरोध से आचार्य ने स्तोत्र में से वे दो गाथाएँ कम कर दीं। वहाँ पर आचार्य महाराज ने सारे समुदाय के साथ देववन्दन किया और संघ समुदाय ने अनेक उपचारों से विस्तारपूर्वक पूजा कर उस प्रतिमा की वहाँ स्थापना की और वहाँ पर एक सुन्दर विशाल देव मन्दिर का निर्माण किया गया। तभी से विश्व में श्री अभयदेवसूरि द्वारा स्थापित सब मनोरथों का पूर्ण करने वाला यह श्री पार्श्वनाथ स्वामी का तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। १०. वहाँ से विहार कर आचार्य महाराज पाटण शहर में आ गए। वहाँ पर स्वर्गीय जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित "करडि हट्टी" वसति में रहे। सब प्रकार की सुविधा देखकर स्थानांग, समवायांग, विवाहप्रज्ञप्ति आदि नौ अंगों की टीका का प्रणयन प्रारम्भ किया। व्याख्या करते समय कहीं-कहीं पर जब-जब उन्हें सन्देह होता तो वे जया-विजया-जयन्ती-अपराजिता नामक शासनदेवियों का स्मरण करते थे। वे देवियाँ महाविदेह क्षेत्र में विराजमान तीर्थंकर भगवान् से पूछकर जब तब उनका सन्देह निवारण करती थीं। ११. उन्हीं दिनों में चैत्यवासी आचार्यों में प्रधान द्रोणाचार्य ने भी सिद्धान्त व्याख्या-आगम वाचना प्रारम्भ की। अपने-अपने शास्त्र लेकर सभी चैत्यवासी आचार्य उनके पास श्रवण करने हेतु आने लगे। महाराज अभयदेव जी भी वहाँ जाया करते थे। उनको द्रोणाचार्य अपने पास आसन पर बिठलाते थे। सिद्धान्तों की व्याख्या करते समय जिन-जिन गाथाओं में आलापकों में द्रोणाचार्य को सन्देह होता था, वहाँ वे आचार्य अभयदेवसूरि जी से इतने मंद स्वर से ऐसे बोल देते थे कि दूसरों को कुछ सुनाई नहीं देता। इस तरह होते हुए किसी दिन जिस स्थल का व्याख्यान होने वाला था उसी स्थल की व्याख्यावृत्ति आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी ने लाकर द्रोणाचार्य को दी और कहा-"इसे देख एवं विचार कर आप सिद्धान्त का व्याख्यान करें।" जो कोई भी उस व्याख्या को अर्थ-विचारणा पूर्वक देखता था, वह आश्चर्यचकित हो उठता था। किन्तु द्रोणाचार्य ने जब उस व्याख्या को पढ़ी तो उन्हें तो बड़ा ही विस्मय हुआ। वे सोचने लगेक्या यह व्याख्या गणधरों की बनायी हुई है या अभयदेवसूरि की? जब उन्हें मालूम हुआ कि अभयदेवसूरि की ही बनाई हुई हैं, तब तो द्रोणाचार्य के मन में अभयदेवसूरि के प्रति सम्मान का भाव बहुत बढ़ गया। दूसरे दिन व्याख्यान के समय जब अभयदेवसूरि व्याख्या श्रवण करने आये तब द्रोणाचार्य गद्दी से खड़े होकर उनका स्वागत करने के लिये सम्मुख गये। अपने आचार्य के द्वारा विधिमार्गानुयायी आचार्य के प्रति प्रतिदिन इस प्रकार आदर देखकर वहाँ आने वाले सब चैत्यवासी आचार्य रुष्ट हो गये। सभास्थल से उठकर सब के सब अपने-अपने स्थान में जाकर कहने लगे-"अभयदेवाचार्य में हमसे कौन सा गुण अधिक है? जिसके कारण हमारे प्रधान आचार्य भी उनका इतना आदर करते हैं। ऐसा करने से हमारी प्रतिष्ठा तो सर्वथा नष्ट ही हो गई। और फिर हम तो कुछ भी नहीं रहे।" द्रोणाचार्य तो बड़े बुद्धिमान और गुणों के पक्षपाती थे, उन्होंने (१६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक नूतन श्लोक बनाकर मठों में सब चैत्यवासी आचार्यों के पास भिजवाया : आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतैमातुं नाऽध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत्। एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम्॥ [आजकल घर-घर में अनेक आचार्य हैं, जिनकी महिमा को भी साधारण पुरुष समझ नहीं सकते और जो अपने सच्चरित्रों से सारे संसार को पवित्र कर रहे हैं। यद्यपि यह सब कुछ सत्य है, फिर भी मैं विद्वान् लोगों से पूछता हूँ कि इस समय जगत् में कोई एक आचार्य भी ऐसा बतलावें जो किसी एक गुण में भी इन अभयदेवसूरि की समानता कर सकता हो!] इस श्लोकबद्ध सूचना को पढ़कर सब आचार्य ठंडे पड़ गये। तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अभयदेवसूरि से कहा-"आप सिद्धान्तों की जो वृत्तियाँ बनावेंगे उनका लेखन और संशोधन मैं करूँगा।" वहाँ पर रहते हुए श्री अभयदेवसूरि जी ने दो पारिग्रहिक-परिग्रहधारी-गृहस्थों को प्रतिबोध देकर सम्यक्त्व मूल द्वादश व्रतधारी बनाया। वे दोनों ही शान्ति के साथ श्रावक धर्म का पालन करके देवलोक में पहुँचे। देवलोक से तीर्थंकर वन्दना के लिये महाविदेह क्षेत्र में गये। वहाँ पर सीमंधर स्वामी और युगमंधर स्वामी की वन्दना की। उनके पास से धर्म सुनकर पूछा-"हमारे गुरु श्री अभयदेवसूरि जी कौन से भव में मोक्ष पधारेंगे?" दोनों तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा-"तीसरे भव में मुक्ति जायेंगे।" यह सुनकर वे दोनों देव बड़े प्रसन्न हुए और अपने गुरु श्री अभयदेवसूरि के पास जाकर वन्दना करके भगवान् की कही हुई बात सुनाई और वहाँ से वापिस लौटते समय उन्होंने इस अग्रिम गाथा का उच्चारण किया भणियं तित्थयरेहिं महाविदेहे भवंमि तइयंमि। तुम्हाण चेव गुरवो मुत्तिं सिग्धं गमिस्संति॥ [महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकरों ने यह बात कही है कि तुम्हारे गुरु तीसरे भव में शीघ्र ही मुक्ति को जायेंगे।] इस गाथा को स्वाध्याय करती हुई महाराज की एक साध्वी ने सुना। उसने आकर वह गाथा महाराज को सुनाई। महाराज ने कहा-"हमको पहले ही देव सुना गये।" तदनन्तर किसी समय वहाँ से सूरिजी विहार करके पाल्हऊदा नामक ग्राम में पधारे। वहाँ पर बहुत से श्रमणोपासक महाराज के भक्त थे। उनके कई जहाज समुद्र में चला करते थे। उन्होंने जहाजों को किराने के माल से लाद कर विदेश में भेजा था। वहाँ यात्री लोगों की जुबानी अफवाहकिंवदन्ती-सुनाई दी कि किराने से भरे हुए जहाज डूब गये। इस दुःखद बात को सुनकर श्रावक अत्यन्त उदास हो गए और इसी कारण वे उस दिन श्री अभयदेवसूरि जी की वन्दना करने को ठीक समय पर नहीं जा सके। श्री सूरिजी ने किसी कारणवश उन्हें याद किया, तब वे गये और वन्दना संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१७) _ 2010_04 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके बैठ गये। तब महाराज ने उनसे वन्दनार्थ आने में देर हो जाने का कारण पूछा। श्रावक बोले"महाराज! जहाजों के डूबने की किंवदन्ती सुनकर हम लोग बहुत दुःखित हो उठे हैं और यही कारण है कि आज हमारा वन्दन करने भी आना नहीं हुआ।" महाराज ने उनका यह कथन सुनकर जहाज सम्बन्धी कुछ बात जानने के लिए एकाग्र चित्त से क्षण भर कुछ ध्यान लगाया। फिर श्रावकों से कहा-"आप लोग इस विषय में चिन्तित न हों। कोई चिन्ता करने की बात नहीं है।" फिर दूसरे दिन किसी मनुष्य ने आकर समाचार सुनाये कि -"आप लोगों के जहाज सकुशल समुद्र पार पहुँच गये हैं।" इस शुभ समाचार को पाकर श्रावक लोग सब मिलकर महाराज के पास आये और निवेदन किया-"भगवन्! आपने जो आज्ञा की थी वह सत्य हुई। इस किराने के व्यापार में जितना लाभ होगा उसका आधा द्रव्य हम लोग सिद्धान्त की पुस्तकों की लिखाई में व्यय करेंगे।" "इससे आपकी मुक्ति होगी, यह सर्वथा युक्त है। आपका यह कर्त्तव्य ही है।" इस तरह महाराज ने उनकी सराहना प्रशंसा की। उन लोगों ने प्रोत्साहित होकर श्री अभयदेवसूरि विरचित सिद्धांत वृत्ति की अनेक पुस्तकें लिखवाई। वहाँ से विहार करके श्री सूरिजी वापस पाटण आ गये। उन दिनों चारों दिशाओं में यह प्रसिद्धि हो गई कि इस समय श्री अभयदेवसूरि जी ही सब सिद्धान्तों के पारंगत हैं। विशेष जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर अभयदेवसूरि हुए। इनका जीवन वृत्तान्त हमें प्रभावकचरित पृ० १६१-१६६ में प्राप्त होता है। इसके अनुसार वि०सं० १०८0 के पश्चात् आचार्य जिनेश्वरसूरि विहार करते हुए मालवा प्रदेश की राजधानी धारानगरी पधारे। यहाँ के निवासी श्रेष्ठी महीधर के पुत्र अभयकुमार ने आचार्यश्री के व्याख्यान से प्रभावित होकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर अभयदेव मुनि नाम प्राप्त किया। गुरु के पास ही अभयदेव ने स्वशास्त्र और परशास्त्र का विधिवत अध्ययन किया। आपकी योग्यता से प्रभावित होकर आचार्य जिनेश्वरसूरि ने इन्हें सूरि पद प्रदान किया और ये आचार्य अभयदेवसूरि के नाम से विख्यात हुए। स्थानांग सूत्र आदि नव अंग ग्रन्थों की टीका का रचनाकाल विक्रम संवत् ११२० से ११२८ के मध्य का है। टीकाओं का प्रारम्भ भी पाटण में हुआ था और पूर्णता भी पाटण में हुई थी। पार्श्वनाथ की प्रतिमा पहले प्रकट हुई अथवा नौ अंगों पर वृत्ति पहले लिखी गयी, इस प्रश्न पर लम्बे समय से ही रचनाकारों में मतभेद चला आ रहा है। सुमतिगणि कृत गणधरसार्धशतकवृत्ति, उपा० जिनपाल द्वारा रचित युगप्रधानचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरि कृत विविधतीर्थकल्प आदि के अनुसार पहले प्रतिमा प्रकट हुई फिर नौ अंगों पर टीका की रचना हुई। इसके विपरीत प्रभावकचरित, प्रबन्धचिन्तामणि एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह में पहले टीकाओं की रचना का और फिर पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रकटीकरण होने की चर्चा है। वस्तुतः कौन का कार्य पहले हुआ इस पर विचार करना आवश्यक है। टीकाओं की रचना में अहर्निश जागरण एवं रचना के प्रारम्भ होने से लेकर पूर्ण होने तक अतिउग्र आयम्बिल तप के सेवन से आचार्यश्री का शरीर रोगग्रस्त हो गया। साथ ही (१८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जनों/विरोधियों के कुवाक्यों ने मन पर भी आघात पहुंचाया। इसी कारण वे अनशन करने को तैयार हो गये थे। यह जिनशासन का सौभाग्य ही था कि अनशन का पूर्वनिश्चित कार्यक्रम स्थगित हो गया और उसके स्थान पर उन्होंने दूसरा ही कार्य किया। यह कार्य था स्तम्भनपुर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रकटीकरण। चूँकि जनसामान्य में चमत्कारों के प्रति अधिक श्रद्धा रहती है और साहित्यसृजन केवल विद्वान् ही जान पाते हैं। इस दृष्टि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्राप्ति चमत्कारपूर्ण रूप से प्राप्त होने और उसके दर्शन से आचार्यश्री का रोग शान्त होने वाली बात जनसामान्य में पूर्व में स्थान प्राप्त कर सकी । वस्तुतः नवाङ्ग टीका का कार्य आचार्य ने पूर्व में ही किया था और उपरि उल्लिखित निरन्तर जागरण और लम्बे काल के आयम्बिल तप के कारण शरीर जर्जरित हो गया, उसी समय वे स्तम्भनक पधारे जहाँ प्रतिमा का चमत्कारिक रूप से प्रकटीकरण हुआ। क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत पट्टावली के पृष्ठ २३ के अनुसार पार्श्वनाथ की प्रतिमा यथास्थान न मिलने पर अभयदेवसूरि ने जयतिहुअण स्तोत्र द्वारा प्रभु की स्तवना प्रारम्भ की। इस स्तोत्र का १६वाँ पद्य “फणिफणफारफुरन्त' का उच्चारण करने के साथ ही भूमि से स्तम्भन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। अभयदेवसूरि के विद्वान् शिष्यों में प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, देवभद्रसरि, जिनवल्लभसूरि आदि का नाम उल्लेखनीय है। श्वेताम्बर परम्परा के पिछले सभी गच्छ एवं पक्ष के विद्वानों ने अत्यन्त आदर एवं सत्यनिष्ठा के साथ अभयदेवसूरि का स्मरण किया है और इनके वचनों को पूर्णतया आप्तवचन की कोटि में रखा है। अपने समकालीन विद्वत् समाज में भी इनका सर्वोच्च स्थान रहा। अभयदेवसूरि का निधन वि०सं० ११३८ के आसपास माना जाता है। नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि-परम्परा 1. अभयदेवसूरि 2. प्रसन्नचंद्रसूरि 3. देवभद्रसूरि 4. देवानन्दसूरि 5. विबुधप्रभसूरि 6. देवप्रभसूरि 7. पद्मप्रभसूरि आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा के आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि और श्री देवभद्रसूरि इन दोनों आचार्यों के विद्यागुरु आचार्य अभयदेवसूरि थे। इन दोनों का यत्किञ्चित प्राप्त उल्लेख पूर्व में ही आचार्य अभयदेव, आचार्य जिनवल्लभ और आचार्य जिनदत्तसूरि चरित्रों में आ चुका है। अवशिष्ट आचार्यों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता और पद्मप्रभसूरि के पश्चात् यह परम्परा कहाँ तक चली, ज्ञात नहीं है। किन्तु आबू इत्यादि से प्राप्त मूर्ति लेखों के आधार पर यह निश्चित है कि साधु परम्परा १५वीं शती के पूर्वार्द्ध तक चलती रही है। परम्परा शब्द से यहाँ पर शिष्य प्रशिष्यादि क्रम भावि परम्परा नहीं, किन्तु आचार्यश्री संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९) _ 2010_04 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समुदाय-वर्ति तत्काल व पश्चात् काल-भावि प्रभावशाली विद्वान आचार्यों की नामावली समझना चाहिए, क्योंकि प्रसन्नचन्द्राचार्य और देवभद्राचार्य का पारस्परिक गुरु शिष्य का सम्बन्ध नहीं है। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एवं गणधरसार्द्धशतक वृत्ति आदि के कथनानुसार श्री प्रसन्नचन्द्राचार्य की दीक्षा तो वसतिमार्ग-प्रकाशक, खरतर-विरुद संप्रापक, सुविहित शिरोमणि आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि जी के कर-कमलों से हुई थी, परन्तु शिष्य थे श्री अभयदेवसूरि जी महाराज के और श्री देवभद्राचार्य शिष्य थे आO श्री जिनेश्वरसूरि जी के हस्तदीक्षित उपाध्याय श्री सुमति गणि के। जैसे कि स्वयं देवभद्राचार्य अपने रचित कथारत्नकोष की प्रशस्ति में लिखते हैं ताण जिणचंदसूरी, सीसो सिरिअभयदेवसूरिवि। रवि-ससहरव्व पयड़ा, अहेसि सिय गुणमऊहेहिं ॥ ३॥ तेसिं अस्थि विणेओ, समत्थ-सत्थऽत्थपारपत्त मई। सूरी पसन्नचंो, न नामओ अत्थओ वि परं॥ ४॥ तस्सेव गेहिं सिरि सुमइ - वायगाणं विणेयलेसेहिं। .. सिरिदेवभद्दसूरीहिं, एस रइसो कहाकोसो॥ ५॥ __ [उन (आचार्य श्री जिनेचरसूरि जी महाराज) के शिष्य आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी एवं श्री अभयदेवसूरि जी भी हुए, जो उज्ज्वल गुण रूप किरणों से सूर्य और चन्द्रमा की भाँति भूतल में प्रसिद्ध थे। उनके शिष्य समस्त शास्त्रों के अर्थ में पार प्राप्त मति (निपुण बुद्धि) वाले आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि हुए जो कि केवल नाममात्र से ही नहीं, किन्तु अर्थ से भी प्रसन्नचन्द्र (निर्मलचन्द्र तुल्य) ही थे। उन (प्रसन्नचन्द्राचार्य के चरण सेवक एवं वाचक श्री सुमति गणि के शिष्यलेश श्री देवभद्रसूरि ने इस कथा (रत्न) कोष की रचना की।] इससे यह स्पष्टतया जाना जाता है कि उपरोक्त परम्परा नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि की शिष्य-प्रशिष्यादि क्रम-भावि परम्परा नहीं है। यदि इसे क्रम-भावि परम्परा मानी जाय तो श्री देवभद्रसूरि को आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य मानने चाहिए और ऐसा मानना स्वयं देवभद्राचार्य के ही कथन से विरुद्ध होता है। क्योंकि? कथारत्नकोष के ऊपर उल्लिखित अवतरण में स्वयं देवभद्राचार्य अपने को आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि के सेवक लिखते हैं, नहीं कि शिष्य । शिष्य तो वे अपने को वाचक श्री सुमति गणि के ही लिखते हैं, अतः इस परम्परा को गुरुशिष्यादि क्रम-भावि परम्परा न मान कर आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी की परम्परा में हुए प्रभावशाली विद्वान आचार्यों की नामावली ही मानना उचित है। 第勇 (२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि १३. उस समय में आशिका नगरी में कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि नाम के एक मठाधीश आचार्य रहते थे। उस नगरी में जितने श्रावकों के बालक थे, वे सब उनके पास मठ में पढ़ते थे। उसी आशिका में एक श्रावक पुत्र जिनवल्लभ नाम का था। उसका पिता उसे बचपन में ही छोडकर स्वर्ग सिधार गया था, अत: माता ने ही उसका पालन-पोषण किया था। जब उसकी आयु पढ़ने योग्य हुई, तब माता ने उसको अन्य बालकों के साथ पढ़ने के लिए मठ में भेजना शुरु किया। अन्य सभी सहपाठियों की अपेक्षा वह अधिक पाठ याद कर लेता था। एक दिन जब वह जिनवल्लभ मठ से पढ़कर घर जा रहा था तो मार्ग में उसको एक टीपना मिला, जिसमें सर्पाकर्षणी तथा सर्पमोक्षणी नामक दो विद्याएँ लिखी हुई थीं। उसमें बतायी हुई विधि के अनुसार जिनवल्लभ ने पहले पहली विद्या के मंत्रों का उच्चारण किया। उसके प्रभाव से सब दिशाओं से सर्प ही सर्प आने लगे, उन्हें देखकर विद्या के प्रभाव को जानकर वह जरा भी नहीं घबड़ाया और दूसरी सर्पमोक्षणी विद्या का यथाविधि उच्चारण करके उन आते हुए सो को वापस लौटा दिया। यह समाचार जब गुरु जिनेश्वरसूरि जी ने सुना तो उनका हृदय उस बालक पर आकर्षित होने लगा और वे जान गये कि यह बालक बड़ा गुणी है। तब उन्होंने किसी भी प्रकार से उसको अपने अधिकार में ले लेने का दृढ़ संकल्प किया। सूरि जी ने अनेक प्रलोभन देकर उस बालक को अपने वश में करके उसकी माता को मधुर वचनों से समझा बुझा कर पाँच सौ रुपये दिलाये और जिनवल्लभ को अपना शिष्य कर लिया। उसे छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, ज्योतिष तथा लक्षणादि सब विद्याओं का अध्ययन कराया। किसी समय उन आचार्य श्री का ग्रामान्तर जाने का संयोग उपस्थित हुआ। जाते समय मठ आदि के संरक्षण का भार जिनवल्लभ को सौंप कर बोले-"सावधानी से कार्य करना। हम भी अपना कार्य सिद्ध करके शीघ्र ही वापस आते हैं।" शिष्य ने प्रार्थना की-"सब बराबर करूँगा, श्रीमान् निश्चिंत होकर पधारें और कार्य समाप्त करके शीघ्र ही वापस लौट आवें।" गुरुजी के चले जाने के बाद दूसरे दिन ही जिनवल्लभ ने सोचा, भण्डार में पुस्तकों की भरी हई पेटी धरी है। उसे खोलकर देखना चाहिए कि पुस्तकों में क्या-क्या लिखा है क्योंकि पुस्तकों से ही सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह विचार करके उसने पेटी खोलकर सिद्धान्त की एक पुस्तक निकाली। उसमें लिखा हुआ देखा-"साधु को गृहस्थों के घरों से ४२ दोषों से रहित भिक्षा-मधुकरी वृत्ति से लेकर संयम पालने के लिए देह निर्वाह करना चाहिए।" इस प्रकार के विचारों को देखकर उसने सोचा-"संयम और आचार ही मुक्ति में ले जाने वाला मार्ग है। हमारे वर्तमान आचार से तो हमें मुक्ति की प्राप्ति नितान्त दुर्लभ है।" इस प्रकार गंभीर वृत्ति से विचार करते हुए जिनवल्लभ जी ने पुस्तक को जैसी की तैसी यथास्थान रख दी और मठ के संचालन के कार्य में पूर्ववत् संलग्न हो गए। कुछ दिन बाद गुरु जी आ गये और मठ को पहले से सुव्यवस्थित देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करने लगे कि-"यह बड़ा चतुर है। वास्तव में जैसा हमने सोचा है यह वैसा ही निकलेगा। किन्तु, इसने जैन सिद्धान्त के बिना सभी विद्याएँ पढ़ी हैं, अब इसे जैन सिद्धान्त का संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२१) 2010_04 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास कराना चाहिए और वह सिद्धान्त, विद्या इस समय अभयदेवसूरि जी के पास सुनते हैं। इसलिए इस जिनवल्लभ को उनके पास भेजकर सिद्धान्तों का ठीक ज्ञान प्राप्त कराना चाहिए और तदनन्तर इसको अपनी गद्दी पर बिठा देना चाहिए।" ऐसा निश्चय करके वाचनाचार्य बनाकर और भोजन आदि प्रबन्ध के लिए पाँच सौ मोहरें देकर तथा सेवा के लिए जिनशेखर नामक साधु के साथ जिनवल्लभ को सिद्धान्त ज्ञानार्थ श्री अभयदेवसूरि के पास भेज दिया। अणहिलपुर पाटण जाते हुए दोनों साधु मार्ग में आये मरुकोट में रात्रि रहे। वहाँ माणू श्रावक के बनाये जिन मन्दिर में प्रतिष्ठा की। वहाँ से चलकर पाटण पहुँचे और वहाँ लोगों से अभयदेवसूरि जी का स्थान पूछ कर उनकी वसति में पहुँचे। गुरु जी के दर्शन करके भक्ति-श्रद्धा के साथ उनकी वन्दना की। गुरु जी को सामुद्रिक चूड़ामणि का ज्ञान था। अत: इनको देखते ही शारीरिक लक्षणों से जान गए कि-यह कोई भव्य जीव है। सूरिजी ने पूछा-"तुम्हारा यहाँ आगमन किस प्रयोजन से हुआ है?" जिनवल्लभ ने उत्तर दिया-"भगवन् ! हमारे गुरु ने सिद्धान्तवाचन-रसास्वादन के लिए मकरन्द के लोभी भ्रमर के सदृश मुझ को श्रीमान् के चरण-कमलों में भेजा है।" इस उत्तर को सुनकर अभयदेवसूरि ने विचार किया"यद्यपि यह चैत्यवासी गुरु का शिष्य है, तथापि योग्य है। इसकी योग्यता, नम्रता और शिष्टता देखकर सिद्धान्त-वाचना देने को हृदय स्वतः चाहता है। शास्त्र में बतलाया है मरिज्जा सह विज्जाए कालंमि आगए विउ। अपत्तं च न वाइज्जा पत्तं च न विमाणए॥ [अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले ही मर जाये, परन्तु कुपात्र को शास्त्र-वाचना न देवे और पात्र के आने पर वाचना न देकर उसका अपमान न करे।] इस प्रकार शास्त्रीय वाक्यों से पूर्वापर का विचार करके सूरिजी ने उससे कहा-" जिनवल्लभ! तुमने बहुत अच्छा किया जो सिद्धान्त-वाचना के लिए मेरे पास आये।" तदनन्तर अच्छा दिन देखकर महाराज ने उसको सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। गुरुजी जिस समय सिद्धान्त-वाचना देते उस समय जिनवल्लभ बड़ा प्रसन्न होकर एकाग्र चित्त से सुधारस की तरह उपदेशामृत का पान करता था। उसकी ज्ञान-पिपासा और उपदेशामृत-ग्रहण करने की अद्भुत प्रतिभा को देखकर गुरुजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। आचार्यश्री ने प्रसन्न होकर इस प्रकार सिद्धान्त- वाचना देना प्रारम्भ किया कि थोड़े ही समय में वह परिपूर्ण हो गई। १४. उन्हीं दिनों में कोई एक ज्योतिषी आचार्य का अनन्य भक्त हो गया। उसने महाराज से प्रार्थना की-"यदि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो मुझे दीजिये। मैं उसको अच्छा ज्योतिषी बना दूंगा।" आचार्य ने उसका यह कथन सुनकर अपने योग्य शिष्य इस जिनवल्लभ गणि को ज्योतिष पढ़ाने के लिये उसके पास भेज दिया। ज्योतिषी ने बड़ी उदारता से अपनी योग्यता के अनुसार उसको ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान कराया। यथाविधि विद्याध्ययन पूर्ण कर लेने के अनन्तर जिनवल्लभ जी ने अपने आशिका नगरीस्थ दीक्षा गुरुजी के पास चले जाने की इच्छा की और वहाँ से विहार करने के (२२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए शुभ मुहूर्त निकाल कर विद्या गुरु श्री अभयदेवसूरि जी महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगने गये। गुरुजी ने जाने की आज्ञा देते हुए आदेश दिया-"मैंने सारे सिद्धान्त अपनी जानकारी के अनुसार तुम्हें पढ़ा दिये हैं। तुमको अपने जीवन में सिद्धान्त के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। हे वत्स! शास्त्र के प्रतिकूल किसी भी प्रकार का व्यवहार मत करना।" जिनवल्लभ गणि ने कहा-"भगवन् ! श्रीमान् की आज्ञा के अनुसार ही सदा बर्ताव करूँगा।" गुरुजी की आज्ञा पाकर जिनवल्लभ जी शुभ दिन देख वहाँ से चलकर जिस नार्ग से पहले गये थे-उसी मार्ग से फिर मरुकोट आ पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने देव मन्दिर में सिद्धान्तों के अनुकूल एक विधि लिखी, जिससे अविधि चैत्य भी मुक्ति-साधक विधि-चैत्य बन सकता है। वह विधि यह है अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि। जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि त्याज्ञात्रेयमनिश्चिते विधिकृते श्रीजैनचैत्यालये॥ [इस मन्दिर में उत्सूत्रभाषी मनुष्यों का आना-जाना व बर्ताव नहीं होगा। रात्रि में स्नात्र महोत्सव नहीं होना चाहिए। साधुओं का ममताभावअधिकार इस मन्दिर में नहीं रहना चाहिए। रात्रि के समय स्त्रियों का आना-जाना इस मन्दिर में नहीं होगा। ज्ञाति-जाति का दुराग्रह न होगा, यानि किसी जाति-ज्ञाति का आधिपत्य इस मन्दिर पर नहीं रहेगा और श्रावक लोग परस्पर ताम्बूल का देना-लेना व भक्षण करना इस मन्दिर में नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार की ये शास्त्रविहित आज्ञायें किसी की निश्रा रहित और विधिपूर्वक स्थापित इस जिन-मन्दिर में प्रवर्तित रहेगी। अभिप्राय यह था कि इस विधि का पालन करना चाहिए, जिससे धर्म-क्रिया मुक्ति का साधन बने।] . तदनन्तर अपने गुरु श्री जिनेश्वरसूरि जी के पास जाते हुए आशिका नगरी से तीन कोश दूरी पर माइयड़ नामक ग्राम में जाकर ठहरे। वहाँ एक पुरुष को हस्तलेख देकर गुरुजी के पास भेजा। उस पत्र में लिखा था-"आपकी कृपा से सुगुरु श्री अभयदेवसूरि जी से सिद्धान्त-वाचना ग्रहण करके मैं माइयड़ ग्राम में आया हूँ। आप कृपा करके मेरे से यहीं आकर मिलें।" पत्र को पढ़कर गुरुजी ने विचार किया कि-"जिनवल्लभ को यहाँ आना चाहिए था। हमको वहाँ बुलाने जैसा अनुचित कार्य उसने किस कारण किया।" अस्तु। दूसरे दिन गुरु जिनेश्वराचार्य अनेक नागरिकों के साथ अपने प्रिय शिष्य से मिलने के लिये पूर्वोक्त ग्राम में आये। जिनवल्लभ जी गुरु जी का स्वागत करने उनके सम्मुख आये और वन्दना की। कुशल-क्षेम पूछने पर जिनवल्लभ जी ने अपने अध्ययन कार्य का सारा वृतास्त कह सुनाया। गुरु के साथ में आये हुए कई एक ब्राह्मणों के प्रश्न करने पर उनका समाधान करने के लिए दुर्भिक्ष-सुभिक्ष-वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में जिनवल्लभ जी ने ज्योतिष विद्या के बल से कई एक आश्चर्यकारी बातें बताईं, जिनको सुनकर गुरुजी भी आश्चर्य-चकित हो गए। तब गुरु ने जिनवल्लभ गणि से पूछा- "तुम अपने स्थान पर न आकर बीच में ही क्यों ठहर गये?" जिनवल्लभ जी ने कहा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२३) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवन् ! सुगुरु के मुख से जिनवचनामृत को पीकर विष के समान देवगृह - निवास को सेवन करने की इच्छा कैसे करूँ?" जिनेश्वराचार्य ने कहा - " मेरा विचार था कि तुम्हें अपनी गादी पर बिठला कर और गच्छ, मठ, मन्दिर, श्रावक आदि का सब कार्य भार तुम्हारे हाथ में सौंप कर फिर किसी सुयोग्य गुरु द्वारा वसतिमार्ग स्वीकार करूँगा।" जिनवल्लभ जी बोले - " यदि यही विचार है तो फिर देरी क्यों की जा रही है? क्योंकि विवेक का फल तो यही है कि योग्य बात को स्वीकार किया जाये और अनुचित का परित्याग किया जाये।" यह सुनकर गुरु ने कहा - " हम में ऐसी निःस्पृहता नहीं है कि जो मठ, मन्दिर, श्रावक, वाटिका आदि की संरक्षा का भार किसी योग्य उत्तराधिकारी पुरुष को दिये बिना ही सुयोग्य गुरु के पास जाकर वसतिमार्ग स्वीकार कर लें । अतः किसी योग्य पुरुष को मठादि का दायित्व देकर वसतिमार्ग स्वीकार करूँगा और तुम्हारी यही इच्छा हो तो अभी भले ही वसतिवास स्वीकार कर लो।" तब श्री जिनवल्लभ जी अपने दीक्षा गुरु श्री जिनेश्वरसूरि की सम्मति मिलने पर गुरु को वन्दन कर वहाँ से पीछे पुनः पाटण आ गये और श्री अभयदेवसूरि जी के चरणों में शीघ्र ही आकर भक्तिपूर्वक वन्दना की। उनके आने से श्री अभयदेवसूरि का हृदय आनन्द से उमड़ पड़ा और वे मन ही मन सोचने लगे कि - "हमने इसके विषय में जैसा विचार किया था, यह वैसा ही सिद्ध हुआ । यह मेरे पाट पर बैठने योग्य है । परन्तु यह चैत्यवासी आचार्य का दीक्षित है, इस कारण गच्छ के सब साधु लोग मेरे इस कार्य से सहमत नहीं होंगे।" यह सोचकर उन्होंने गच्छ के आधारभूत वर्धमानाचार्य को गुरु पद गच्छनायकत्व पर आसीन किया और जिनवल्लभ गणि को अपनी ओर से उपसम्पदा प्रदान कर उन्हें आज्ञा दी कि - "तुम हमारी आज्ञा से सब जगह विहार करो। " श्री अभयदेवसूरि जी ने एक समय प्रसन्नचन्द्राचार्य को एकान्त में बुलाकर कहा - " मेरे पाट पर अच्छा लग्न देखकर जिनवल्लभ गणि को स्थापित कर देना । " परन्तु दैवयोग से इस प्रस्ताव को कार्य रूप में परिणत करने का सुअवसर नहीं आया था कि प्रसन्नचन्द्रसूरि देवलोक चले गये । उन्होंने स्वर्गवास के पूर्व कपड़वंज में देवभद्राचार्य को पूर्वोक्त प्रस्ताव सुनाकर कहा कि- " मैं गुरुदेव की इस आज्ञा को पूर्ण नहीं कर सका हूँ । अत: तुम इस आदेश को कार्यरूप में जरूर लाना ।" देवभद्राचार्य ने यह बात सुनकर कहा - "जैसा समय- संयोग होगा, अवसर मिलने पर इस आज्ञा का पालन किया जायेगा। आप अपनी आत्मा को सन्तोष दीजिए।" 44 १५. श्री अभयदेवसूरि के देवलोक पहुँच जाने के बाद वाचनाचार्थ जिनवल्लभ गणि कितने ही दिनों तक पाटण के आस-पास विहार करते रहे । परन्तु गुजरात के लोग, चैत्यवासी आचार्यों का अत्यधिक संपर्क होने के कारण अर्ध-विदग्ध थे । अतः इनमें प्रतिबोध-विधान की सफलता न देखकर महाराज का मन वहाँ रहने को नहीं चाहा। इसलिए अपने साथ दो अन्य साधुओं को लेकर शुभ शकुन देखकर भव्य जीवों को भगवद्भाषित धर्मविधि का उपदेश देने के लिए चित्रकूट (चित्तौड़) आदि देशों में विहार कर गये। उन देशों में अधिकतर चैत्यवासी साधुओं का प्रभाव तथा निवास था । जनता भी उन्हीं की अनुयायिनी थी। अधिक क्या कहें? अनेक ग्रामों में विहार करते हुये महाराज श्री चित्तौड़ पहुँचे। यद्यपि वहाँ पर विरोधी वर्ग ने जनता में महाराज के विरुद्ध बहुत बड़ा आन्दोलन खड़ा किया, तथापि वे लोग महाराज (२४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कुछ भी अनिष्ट करने में समर्थ न हो सके, क्योंकि पाटण में रहते हुए ही महाराज की प्रसिद्धि को सब जनता सुन ही चुकी थी। वहाँ जाकर महाराज ने अपने ठहरने के लिए वहाँ के लोगों से स्थान माँगा। उन्होंने किसी स्थान का प्रबन्ध कर देने के बजाय हँसीपूर्वक कहा-"यहाँ एक सूना चण्डिका का मन्दिर है यदि आप उसमें ठहरें तो।" महाराज ने उनके कुटिल अभिप्राय का ज्ञान कर लिया कि "टूटेफूटे और सूने मठ में भूत-प्रेत पिशाचों की शंका होती है। इसी से ऐसा स्थान मेरे अनिष्ट की बुद्धि से ये लोग बतला रहे हैं। परन्तु कोई चिन्ताजनक बात नहीं है। देव-गुरु की कृपा से सब शुभ ही होगा।" ऐसा सोचकर जिनवल्लभ गणि ने कहा-"भले वही सही, तुम आज्ञा दो जिससे वहाँ ठहरें।" लोगों ने कहा-"भले वहाँ ठहरो।" तदनन्तर गणि जी देव-गुरु का ध्यान करने के साथ देवी की अनुज्ञा ले करके उनके निर्दिष्ट स्थान पर ही गये। उस स्थान की अधिष्ठात्री देवी चण्डिका महाराज के ज्ञान, ध्यान और सदनुष्ठान से प्रसन्न हो गई। जिस चण्डिका का लोगों को बड़ा भारी भय था और जिससे कई लोगों का अनिष्ट भी हो चुका था, वही चण्डिका आज इन गणि जी के तप प्रभाव को देखकर, जो अन्यों के लिए भक्षिका थी, इनकी रक्षिका हो गई। महाराजश्री के इस आश्चर्यकारक अपूर्व प्रभाव को देखकर सब लोग चकित हो गए। गणिजी साधारण व्यक्ति नहीं थे। ये सब विद्याओं के पारदर्शी विद्वान् थे। शास्त्र ज्ञान के भण्डार थे। अनेक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे। जिनेन्द्र मत प्रचारक श्री हरिभद्रसूरि के अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थों के अभिज्ञ थे। परदर्शनियों के न्यायकन्दली, किरणावली आदि न्याय ग्रन्थ तथा पाणिनी आदि आठों वैयाकरणों के सूत्र और अर्थ इनको कण्ठस्थ थे। चौरासी नाटक, सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र, पंच महाकाव्य आदि सभी काव्य ग्रंथ तथा जयदेव प्रभृति कवियों द्वारा रचित छन्द ग्रन्थों १. सोलहवीं शताब्दी के समर्थ कवि श्रीमान् क्षेमराज मुनि अपने स्वोपज्ञ उपदेशसप्ततिका टीका में लिखते हैं कि-गणिवर जी अपने शिष्य परिवार सह चित्तौड़ पधारे, वहाँ के जैन गृहस्थों से उतरने योग्य स्थान की याचना की, वे सभी लोग प्रायः चैत्यवासियों के भक्त थे, अतः द्वेष बुद्धि से चण्डिका देवी का मन्दिर बता दिया। वह देवी अत्यन्त चण्ड स्वभावी होने के कारण उसके मन्दिर में जो कोई रात में ठहरता उसे वह मार ही डालती। गणिजी तो अपने भाग्य के भरोसे पर अटल श्रद्धा रखते हए देवगुरु का स्मरण करके वहाँ के की अनुमति लेकर और देवी से अवग्रह की याचना करके निश्चिन्त होकर वहाँ गये। समयानुसार प्रतिक्रमणादि क्रियानंतर स्वाध्यायादि करने पूर्वक संथारापोरसी पढ़कर सो गये। आपके भाग्यबल व चारित्रविशुद्धि के प्रभाव से यद्यपि देवी ने आपको कोई उपद्रव नहीं किया। फिर भी आपका एक बाल शिष्य अर्द्धरात्रि को लघुशंका निवारण निमित्त उठा, उस समय बाल स्वभाव के सहज स्वभाव से कुतूहल वश देवी की आँखें उखाड़ दीं। उससे कुपित हुई देवी ने उस बाल शिष्य की दोनों आँखें खींच निकाली। उसकी पीड़ा से वह बाल शिष्य एकदम रोने लगा, अतः गुरुजी उठे और शिष्य से सारी हकीकत जानी। तुरन्त ही अपने ध्यान बल से देवी को बुलाया और कहा कि-"अरे चण्ड स्वभावि देवी चण्डिका! बिना आँखों के इस शिष्य की दशा क्या होगी? इसने बाल स्वभाव सुलभ कुतूहल वश तेरी मूर्ति की आँखें उखाड़ दीं तो यह इसकी अज्ञान दशा है, उसके लिए क्षमा कर और इसकी आँखें जल्दी अच्छी कर दे। गुरु महाराज की इस आज्ञा को अंगीकार कर देवी ने अपनी दैवी शक्ति से तुरन्त ही शिष्य की दोनों आँखें कमल पत्र के जैसी स्वच्छ बना दी। उनके इस विशिष्ट आचार के प्रभाव व उपदेश से ऐसी दष्ट देवी भी शान्त हो गई। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास । (२५) 2010_04 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वे विशेष मर्मज्ञ थे। महाराज के इस प्रकार के विशेष ज्ञान की सारे चित्तौड़ में खूब प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य मतानुयायी ब्राह्मण आदि सभी लोग अपने-अपने सन्देहों का निवारण करने के लिए महाराज के पास आने लगे। जिस-जिस को जिस-जिस शास्त्र में सन्देह उत्पन्न होता था, महाराज सब शास्त्र विषयक यथार्थ उत्तर देते हुए सब की शंकाएँ दूर करते थे। अब तो धीरे-धीरे श्रावक लोग भी कुछकुछ आने लगे। सिद्धान्त-वचनों को सुन कर और तदनुसार क्रिया को देखकर साधारण, सङ्घक प्रभृति श्रावकों ने सन्तोषपूर्वक वाचनाचार्य जिनवल्लभ गणि को गुरु के रूप में स्वीकार किया। गुरु उपदेश से प्राप्त की हुई ज्योतिष विद्या के बल से जिनवल्लभ गणि जी को अतीत तथा अनागत (भूत-भविष्य) का पूर्ण ज्ञान था। एक समय साधारण नामक एक श्रावक ने महाराज से परिग्रह-परिमाण व्रत के निमित्त प्रार्थना की। गुरुजी ने व्रत ग्रहण की उसे आज्ञा दे दी और पूछा-"कितना परिग्रह परिमाण लेना चाहते हो?" साधारण बोला-"महाराज! सर्व संग्रह २० हजार का करूँगा।" फिर गणि जी ने कहा-"यह तो बहुत थोड़ा है, और अधिक करो।" गुरु जी की आज्ञा से परिग्रह परिमाण एक लाख का किया। गुरु जी के प्रभाव से साधारण श्रावक के लक्ष्मी की वृद्धि होने लगी, लक्ष्मी के बढ़ने से सारे संघ की सहायता करने लगा। साधारण श्रावक की तरह अन्य श्रावक भी महाराज की आज्ञा में प्रतिदिन अधिकाधिक प्रवृत्त होने लगे। १६. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को श्री महावीर भगवान् का गर्भापहार कल्याणक आता है। उस दिन जिनवल्लभ गणि जी ने सब श्रावकों के सामने कहा-"यदि देव मन्दिर में जाकर भगवान् के समक्ष देव वन्दना की जाय तो अत्युत्तम हो। पाँच कल्याणक तो हैं ही जो सभी तीर्थंकरों के नियमित हमेशा होते हैं, परन्तु उनके अतिरिक्त भगवान् महावीर देव का छठा भी कल्याणक गर्भापहार है क्योंकि (पंच हत्थुतरे होत्था साइणा परिनिव्वुए) इस सिद्धान्त-वाक्य से इसका होना स्पष्ट सिद्ध है। यहाँ पर कोई विधि-चैत्य तो है नहीं। इसलिए चैत्यवासियों के मन्दिर में चलकर देव वन्दनादि धर्मानुष्ठान करें।" तदनन्तर श्रावकों ने कहा-"भगवन् ! यदि आपकी यह सम्मति है तो ऐसा ही करें।" फिर सब श्रावक स्नान कर के पवित्र वस्त्र पहन कर पूजा की पवित्र सामग्री लेकर गणि जी के साथ मन्दिर के लिए रवाना हुए। जिस मन्दिर में उनको जाना था उसके मुख्य द्वार पर बैठी हुई चैत्यवासिनी आर्या ने श्रावक समुदाय के साथ आते हुये गुरु जी को देखकर पूछा-"आज के दिन कौन सा विशेष पर्व है?" किसी ने उत्तर दिया कि-"वीर गर्भापहार नाम के छठे कल्याणक के निमित्त पूजा करने के लिये ये सब लोग आ रहे हैं।" उस आर्या ने विचार किया-"आज तक किसी ने भी यह छठा कल्याणक का पर्व यहाँ नहीं मनाया। ये लोग ही आज पहले पहल नये रूप से इस पर्व को मनायें यह युक्तिसंगत नहीं है।" ऐसा निश्चय करके वह साध्वी द्वार पर आड़ी पड़ गई और उन आगन्तुकों से बोली-"मेरे जीते जी आप लोग मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकते।" उसका इस प्रकार दुराग्रह देख कर वे मन्दिर में नहीं गये और श्रावक संघ के साथ वापस अपने स्थान पर चले गये। बाद में श्रावकगण कहने लगे-"यहाँ श्रावक लोगों के बड़े-बड़े मकान हैं। उनमें से किसी एक मकान पर चतुर्विंशति जिन पट्टक को रखकर देववन्दना आदि समस्त धर्म कार्य को किया (२६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए तो क्या अनुचित है?" गुरु जी ने कहा-"बहुत अच्छा, ऐसा ही करें।" इस प्रकार गुरुदेव की सम्मति मिलने पर बड़े समारोह से कल्याणक उत्सव मनाया गया। गुरु जी को बड़ा सन्तोष हुआ। किसी दूसरे दिन सभी श्रावकों ने एकत्र होकर मंत्रणा की और गुरु जी से निवेदन किया-"अविधि प्रवृत्त विरोधियों के मन्दिर में हम लोग विधिपूर्वक धार्मिक अनुष्ठान के लिए स्थान नहीं पावेंगे अतः यदि गुरु महाराज की आज्ञा मिल जाय तो एक चित्तौड़ में पहाड़ के ऊपर और एक नीचे-दो मन्दिर बनवा लिए जाएँ।" श्रावक समुदाय के इस प्रस्ताव से सन्तुष्ट होकर गुरुजी ने कहा जिनभवनं जिनबिम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात्। तस्य नरामरशिवसुख - फलानि करपल्लवस्थानि॥ [जो कोई पुरुष जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा, जिन पूजा और जिनमत का आराधन करेगा। उस मनुष्य के देव लोक और मनुष्य लोक के एवं मोक्ष प्राप्ति तक के सुख रूपी फल हस्तगत ही समझें।] इस प्रकार की देशना से सब श्रावक वृन्द महाराज के अभिप्राय को जान गए। लोगों में यह बात प्रसिद्ध हो गई कि ये लोग दो मन्दिर बनवायेंगे। इस बात को सुन कर प्रह्लादन के सब से बड़े सेठ बहुदेव ने अभिमान पूर्वक कहा-"ये आठ कापालिक (भिखारी) दो मन्दिर बनवायेंगे और राजमान्य होंगे अर्थात् इन बेचारों की क्या शक्ति है।" यह बात महाराज ने भी सुनी। संयोगवश बाहिर भूमि जाते समय एक दिन वह सेठ स्वयं महाराज से मिल गया। तब महाराज ने उससे कहा"हे भद्र! तुम्हें कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए। देखो, भविष्य में इनमें से कोई राजमान्य भी हो सकेगा जो तुमको जेल से छुड़ायेगा।" तदनन्तर साधारण आदि श्रावकों ने बड़े उत्साह के साथ दो देव मन्दिर बनवाने आरम्भ कर दिये जो देव-गुरु की कृपा से थोड़े ही समय में तैयार भी हो गए। पहाड़ के ऊपर के मन्दिर में पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा की स्थापना की गई और नीचे के मन्दिर में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित की गई। दोनों ही मन्दिरों की प्रतिष्ठा शास्त्र-विधि के अनुसार बड़े समारोह से श्री जिनवल्लभ गणि जी ने कराई। इस गुरुतर कार्य के किये जाने से महाराज की सर्वत्र ख्याति हो गई कि वास्तविक गुरु ये ही हैं। १७. श्वेताम्बर साधु वर्ग के प्रमुख तथा सर्व शास्त्र-विषय के प्रखर पण्डित आये हुए हैं, ऐसा सुन कर कोई पण्डिताभिमानी ज्योतिषी ब्राह्मण एक दिन महाराज के पास आया। श्रावकों ने आसन देकर उसे आदरपूर्वक बैठाया। महाराज ने उससे पूछा-"आपका निवास कहाँ है?" उसने उत्तर दिया-"यहीं है?" फिर गुरु महाराज ने पूछा-"किस शास्त्र में आपका अधिकतर अभ्यास है? आप किस शास्त्र के पण्डित हैं?" ब्रा०-ज्योतिष शास्त्र में है। गणि-चन्द्र-सूर्य लग्नों को अच्छी तरह जानते हो? ब्रा०-खूब अच्छी तरह, क्या यहीं पर बिना गणित किये ही एक-दो-तीन लग्न बताऊँ? उसकी बातों से गणि जी जान गये कि यह अभिमानी है और विद्या से गर्वित होकर यहाँ आया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२७) 2010_04 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि- आपका शास्त्रीय ज्ञान बहुत उत्तम 1 - आपको भी लग्न विषय में कुछ अभ्यास है ? ब्राह्मण-: गणि- हाँ, लग्न विषयक कुछ-कुछ अनुभव है । ब्रा० - तो आप कोई लग्न बतलाइये । गणि-कहो, कितने लग्न कहूँ, दस या बीस । यह वचन सुनकर ब्राह्मण को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ, अतः मौन रह गया। फिर गणि जी ने कहा - " पण्डित जी ! बतलाइये, आकाश में जो यह दो हाथ की बदली दिखाई देती है, कितना पानी बरसायेगी।'' ब्राह्मण को इस प्रथ का उत्तर न सूझा, अतः शून्य दृष्टि होकर इधर-उधर देखने लगा । गणि जी ने उसी समय कहा - " पण्डित जी ! यह बादल का दो हाथ का टुकड़ा दो घड़ी में सारे आकाश में फैल जाएगा और इतना बरसेगा कि दो चौड़े-चौड़े पात्र अपने आप जल से भर जायेंगे । ' ब्राह्मण के वहाँ पर ही बैठे रहते महाराज की भविष्यवाणी के अनुसार उस बादली ने इतना पानी बरसाया कि वे दोनों बड़े पात्र थोड़ी देर में पानी से परिपूर्ण हो गए। यह चमत्कार देखकर ब्राह्मण ने महाराज को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और प्रार्थना की कि - " जब तक यहाँ रहूँगा आपकी चरण वन्दना करके भोजन करूँगा। मुझे ज्ञात नहीं था कि आप इस प्रकार के महात्मा हैं।" इस घटना से गणि जी की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई। सब लोग कहने लगे कि श्वेताम्बर साधुओं का शास्त्र विषयक ज्ञान बहुत अधिक है। १८. किसी समय मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को सिद्धान्त - वाचना के लिए जिनवल्लभ गण के पास भेजा । गणि जी भी उनको अधिकारी समझ कर सिद्धान्त - वाचना देने को सहमत हो गए। वे दोनों अपने मन में महाराज के प्रति द्वेष रखते थे । अतः वे सर्वदा महाराज का अहित सोचा करते थे। गणि जी के श्रावकों को बहकाने के विचार से वे उनसे प्रीति का व्यवहार करने लगे । एक समय उन्होंने अपने गुरु के पास भेजने के लिए एक पत्र लिखा। उस लिखित पत्र को बस्ते में रखकर वाचना-ग्रहण करने के लिए वाचनाचार्य के पास आये और गणि जी के निकट वन्दना करके बैठ गये। पढ़ने के लिए बस्ता खोला तो उस नूतन पत्र पर महाराज की दृष्टि पड़ गई। महाराज ने पत्र को ले लिया और पढ़ने लगे। उस पत्र को महाराज के हाथों से ले लेने का उनका साहस न हुआ । उस लेख में लिखा था - " जिनवल्लभ गणि के कई श्रावकों को तो हमने अपने अनुकूल कर लिया है। थोड़े ही दिनों में सबको ही अपने अधीन कर लेने का दृढ़ संकल्प है।" महाराज को उनकी मनोवृत्ति का पूरा ज्ञान हो गया। इस पर महाराज ने उस पत्र को फाड़ डाला और एक आर्या छंद रच कर कहा (२८) 2010_04 आसीज्जनः कृतघ्नः क्रियमाणघ्नस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्कों भविता लोकः कथं भविता ॥ खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [किये हुए उपकार को न मानने वाले कृतघ्न पुरुष पहिले भी थे, किन्तु प्रत्यक्ष में किये जाने वाले उपकार को न मानने वाले भी कृतघ्न पुरुष तो इस समय देखे जाते हैं। इससे मुझे रह-रह कर विचार आता है कि आगे होने वाले लोग कैसे होंगे?] महाराज ने उनसे कहा-"विद्या गुरु के प्रति तुम्हारे ऐसे अशुभ भाव पुनः चिन्तनीय हैं। अत: अब वाचना लेने की जरूरत नहीं है।'' वे अत्यन्त लज्जित हो कर अपने स्थान पर वापस चले गये, फिर कभी देखने में ही नहीं आये। १९. किसी समय जब जिनवल्लभ गणि जी बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे, उस समय महाराज की विद्वत्ता की प्रशंसा सुन कर आया हुआ एक पण्डित रास्ते में ही उनसे मिला और किसी राजा के वर्णन के लक्ष्य से एक समस्या पद उनके सामने रखा-"कुरंगः किं भुंगो मरकत मणिः किं किमशनिः।" महाराज ने कुछ थोड़ा सा सोचकर तत्काल ही उस समस्या की पूर्ति कर दी और उसे सुना दी चिरं चित्तोद्याने वसति च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विषयविषमोहं हरसि च। नृप! त्वं मानाद्रिं दलयसि रसायां च कुतुकी, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः॥ [हे राजन् ! आप मृगनयनी सुन्दरियों के चित्तरूपी उद्यान में विचरते हैं, इसलिए आपके विषय में उद्यानचारी हरिण की आशंका होती है। उन्हीं सुन्दरियों के मुख-कमलों का पान करते हैं, इसलिए आप में भ्रमर का सन्देह होता है। आप कामिनियों की वियोग विष से उत्पन्न हुई मूर्छा को दूर करते हैं, अतः आप मरकत मणि जैसे शोभित होते हैं और मानिनियों के मान रूपी पर्वत को चूर-चूर कर देते हैं, अतः आपके विषय में वज्र की आशंका होने लगती है।] इस प्रकार सुन्दर साभिप्राय समस्या-पूर्ति को सुन कर वह आगन्तुक पण्डित अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि-"लोक में आपकी जैसी प्रसिद्धि हो रही है वास्तव में आप वैसे ही हैं, आपकी यह प्रसिद्धि यथार्थ है।" महाराज श्री की प्रशंसा करता हुआ चरणों में वन्दना करके वह चला गया। तदनन्तर गुरु जी भी अपने वास स्थान पर आ गये। वहाँ पधारने पर श्रावकों ने प्रार्थना की"आज आपको बाहर से आने में बहुत अधिक समय लगने का क्या कारण हुआ?" तब आपके संग में जाने वाले शिष्य ने समस्या सम्बन्धी सारी बातें कहीं, जिसे सुनकर श्रावकों को बड़ी प्रसन्नता हुई। २०. किसी समय गणदेव नामक एक श्रावक यह सुनकर कि महाराज के पास सुवर्ण बनाने की सिद्धि है। अतः सुवर्ण प्राप्ति के लिए चित्तौड़ में आकर तन-मन-धन से महाराज की सेवा करने लगा। महाराज ने उसके अभिप्राय को जान लिया और उसे योग्य समझकर धीरे-धीरे ऐसी देशना दी कि जिससे अल्प समय में ही उसको वैराग्य भाव प्राप्त हो गया। जब वह अच्छी तरह विरक्त हो गया तब महाराज ने उससे कहा-'भद्र ! क्या तुम्हें सुवर्ण सिद्धि बतलाऊँ?" उसने कहा-"भगवन् ! अब संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२९) 2010_04 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे सुवर्ण सिद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है, मेरे पास के ये बीस रुपये ही पर्याप्त हैं। इनके द्वारा ही मैं व्यापार करता हुआ श्रावक धर्म का पालन करूँगा । अधिक परिग्रह सर्वथा दुःख का कारण है । " महाराज ने विचारा-'' इसकी जन्म कुण्डली और हस्त रेखा से विदित होता है कि इसके द्वारा भव्य पुरुषों में धर्म-वृद्धि होगी ।" उसमें वक्तृत्व शक्ति बहुत उत्तम थी, इसके लिए उसको धर्म तत्त्वों का उपदेश करके उसे धर्म प्रचार के लिए बागड़ देश की ओर भेज दिया। अपने निर्मित " कुलक" लेख भी उसको पढ़ा दिये थे जिनके द्वारा उसने वहाँ लोगों को विधिमार्ग का पूर्ण स्वरूप बतलाकर अधिकांश जनता को गणि जी के मन्तव्यों का अनुयायी बना दिया । २१. गणि जी महाराज के व्याख्यान में अच्छे-अच्छे विद्वान् मनुष्य आया करते थे। अधिकतर ब्राह्मण लोग अपने-अपने सन्देहों को निवारण करने के लक्ष्य से आया करते थे । एक दिन व्याख्यान में निम्नोक्त गाथा आई [ सम्यक्त्व के चौथे आचार अमूढ दृष्टिपने का वर्णन करते हुए इस गाथा में कहा गया है किजिस मनुष्य की दृष्टि (मति) धिग्जातियों (ब्राह्मणों) को, गृहस्थों को या पासत्थे आदि को देख कर भी मुग्ध नहीं बनती, यानि शंकायुक्त नहीं बनती, यानि शंकायुक्त नहीं होती उसे शास्त्रकार अमूढदृष्टि कहते हैं ।] धिज्जाईण गिहीण य, पासत्थाईण वा विदट्ठणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिट्ठि तयं बिंति ॥ इस गाथा में ब्राह्मणों को धिग्जातीय कहा है उसे सुन कर ब्राह्मण लोग रुष्ट होकर उठ गये और व्याख्यान सभा से बाहर चले गये। सब ने एकत्र होकर सर्वसम्मति से निश्चय किया कि - " इनके साथ शास्त्रार्थ किया जाए और उसमें इनको पराजित किया जाए ।" उनके इस निश्चय को सुनकर गण जी के हृदय में अणु मात्र भी भय की उत्पत्ति न हुई, क्योंकि विद्या, बुद्धि, प्रतिभाबल में उनका तीर्थंकरों के समान प्रभाव था । अतः मर्यादाभङ्ग भीतेरमृतमयतया धैर्यगाम्भीर्ययोगात्, न क्षुभ्यन्त्येव तावन्नियमितसलिला: सर्वदैते समुद्राः । आहो क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये दैवयोगात्तदानीं, न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ॥ [सर्वदा नियमित जल वाले ये समुद्र अमृतमय होने के कारण धीरता व गंभीरता के योग से एवं मर्यादा भंग के भय से प्रथम तो कभी क्षोभित होते ही नहीं, फिर भी कदाचित् दैवयोग से यदि ये समुद्र क्षोभ को प्राप्त हो गए तो पृथ्वी व पहाड़ - पर्वत एवं सूर्य-चन्द्र तक कोई नहीं रहने का, सारा जगत एकार्णव जलमय ही हो जाएगा ।] (३०) महाराज श्री ने इस श्लोक को भोजपत्र पर लिख कर एक योग्य मनुष्य के हाथ में देकर कहा-‘“इस पत्र को ब्राह्मणों की सभा में ले जाओ और उनमें सबसे बड़े मुख्य ब्राह्मण को दे 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओ।" आपकी आज्ञानुसार वह पत्र एक मुख्य ब्राह्मण के हाथ में सौंप दिया गया। उसने अपनी ज्ञानप्त दृष्टि से श्लोक के अभिप्राय को जान कर सोचा-"हम तो केवल एक-एक शास्त्र के विद्वान् हैं और ये सब विद्या के भण्डार हैं। इनके साथ हम शास्त्रार्थ कैसे कर सकेंगे?" ऐसा विचार कर उस विवेकशील ब्राह्मण ने सबको समझा कर शान्त किया। २२. किसी समय धारा नगरी के राजा श्री नरवर्म देव की राजमान्य पण्डित सभा की प्रसिद्धि सुनकर दक्षिण दिशा से दो पण्डित उत्सुक होकर उनका पाण्डित्य देखने की इच्छा से आये और राजकीय पण्डित सभा में "कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" की समस्या रख कर सभासद स्थानीय पण्डितों से उसकी पूर्ति करने को कहा। सब राज पण्डितों ने अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के अनुसार समस्या पूर्ति की, किन्तु उससे आगन्तुक विद्वानों को सन्तोष नहीं हुआ। उस अवसर पर किसी ने राजा से निवेदन किया-"राजन् ! इनका मन राजकीय पण्डितों द्वारा की गई समस्या पूर्ति से संतुष्ट हुआ हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।" राजा ने उनसे पूछा-"क्या कोई और भी ऐसा विद्वान् है जिसके द्वारा समस्या पूर्ति कराई जाकर इन दोनों को प्रसन्न किया जाय।" तब कोई विवेकी पुरुष बोला"देव! चित्तौड़ में जैन श्वेताम्बर साधु जिनवल्लभ गणि सब विद्याओं में पारंगत हैं-ऐसा सुना जाता है।" राजा ने तत्काल शीघ्रगामी दो ऊँट सवारों को पत्र देकर साधारण श्रावक के पास भेजा। उसमें लिखा था-"साधारण! आप अपने गुरु जी से इस समस्या की सुन्दरातिसुन्दर पूर्ति करा के शीघ्र भिजवावें।" यह पत्र साधारण के पास सायं काल में प्रतिक्रमण के समय पहुँचा। साधारण ने वह राज पत्र गुरु जी को सुनाया। गुरु जी ने प्रतिक्रमण क्रिया को समाप्त करके समस्या पूर्ण करके लिख दी रे रे नृपाः! श्रीनरवर्मभूप-प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गैः। कण्ठे कुठारः कमठे ठकारश्चके यदश्वोग्रखुराग्रघातैः॥ [रे रे राजाओं! जिसने अपने घोड़ों के तीक्ष्ण खुराग्र घात से भूतल के नीचे रहे हुए कच्छप पर ठपकार किया है उस नरवर्म राजा को प्रसन्न करने के वास्ते तुम नत मस्तक होकर अपने कण्ठ के पास कुहाड़ा धारण करो।] __इस समस्या-पूर्ति को लेकर प्रयाण करने वाले वे दोनों राजकीय पुरुष रातों-रात चल कर शीघ्रातिशीघ्र धारा नगरी को आ पहुँचे और राज सभा में आकर वह पूर्ति पण्डितों के सामने धर दी। उसको देख उन आगन्तुक पण्डितों की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे बोले-"इस सभा में तो इस प्रकार उद्भट कविता करने वाला ऐसा कवि नहीं है। यह पूर्ति तो इनके अतिरिक्त किसी अन्य कवि द्वारा की हुई है।" राजा ने वस्त्र-द्रव्यादि से उनका सत्कार करके उनको विदा किया। २३. तदनन्तर गणि महाराज भी चित्तौड़ से विहार करके क्रमशः विचरण करते हुए धारा नगरी में आये। किसी ने राजा को सूचना दी, "राजन् ! समस्या पूर्ति करने वाले वे श्वेताम्बर साधु महाराज आजकल यहाँ धारा नगरी में ही आये हुए हैं।" राजा का मन तो महाराज की प्रतिभा से पहले ही संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३१) _ 2010_04 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकृष्ट हो रहा था अतः अपने अनुचर से कहा-"स्वामी महाराज को शीघ्र यहाँ सम्मान के साथ लाओ। उनका उपदेश सुनेंगे।" राजा के आदेश से महाराज बुलाये गये। आपके उपदेशामृत से राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और प्रार्थना करने लगा-"महाराज ! मैं आपको तीन लाख रुपये या तीन गाँव देना चाहता हूँ।" महाराज ने कहा-"राजन् ! हम लोग व्रती साधु हैं। हमने धनादि परिग्रह का त्याग कर दिया है अतः धनादि संग्रह हम नहीं करते, फिर भी यदि आपका यही आग्रह है तो चित्तौड़ में श्रावकों ने दो मन्दिर बनवाये हैं, उनकी पूजा निमित्त आप अपने महसूल-दान में से प्रतिदिन दो रुपये दिलाते रहिये।" यह सुन कर महाराज के इतने भारी त्याग को देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ और महाराज की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा और यह दान मेरा सदा शाश्वत हो जाएगा ऐसा समझ कर गणि जी के कथनानुसार दोनों मन्दिरों में राजा ने वृत्ति नियत कर दी। २४. उसी समय नागपुर (नागौर) के श्रावकों ने नेमिनाथ भगवान् का नवीन मन्दिर और मूर्ति बनवाई थी। वहाँ के श्रावकों का यह विचार हुआ कि-"उस मन्दिर और मूर्ति की प्रतिष्ठा श्री जिनवल्लभ गणि को गुरु बना कर उनके हाथ से करावें।" ऐसा एक मत से विचार करके उन्होंने बड़े आदर सम्मानपूर्वक महाराज श्री को अपने यहाँ बुलाया। पूज्य श्री ने शुभ दिन और शुभ लग्न में नेमिनाथ स्वामी का मन्दिर व मूर्ति की यथा विधि प्रतिष्ठा की। इस पुण्य कार्य के प्रभाव से वहाँ के प्रायः सभी श्रावक लक्षाधीश हो गये। उन्होंने श्री नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा के रत्न जटित आभूषण बनवाये, यही धनवृद्धि का सदुपयोग है। नरवरपुर के श्रावकों के मन में भी यह भाव उत्पन्न हुआ"गणि जी को गुरु स्वीकार करके उनके द्वारा देव मन्दिर की प्रतिष्ठा करावें।" ऐसा सोच कर महाराज श्री को आदर से बुलाया। उन्होंने आकर श्रावकों की इच्छानुसार प्रतिष्ठा सम्बन्धी सब कार्य विधिपूर्वक करवा दिया। गणिवर्य महाराज ने नागपुर और नरवर दोनों ही स्थानों के मन्दिरों पर रात्रि में भगवान् के नैवेद्यादि भेंट चढ़ाना, रात्रि में स्त्रियों के आगमन व डांडिये रमण आदि के निषेध के लिए शिलालेख के रूप में विधि लिखवा दी, जिसको "मुक्ति साधक विधि' नाम से कहा है। तदनन्तर मरुकोट्ट नगरस्थ श्रावकों ने गणि जी महाराज से अपने यहाँ पधारने की प्रार्थना की। उनकी इस विनती को स्वीकार करके महाराजश्री विक्रमपुर होते हुए मरुकोट्ट पधारे। वहाँ के श्रद्धालु श्रावकों ने महाराज को एक अति सुन्दर स्थान पर ठहराया, जिसमें भोजन-भजन आदि के लिए अलगअलग स्थान बने हुए थे। महाराज वहाँ पर सुखपूर्वक विराजे। श्रावकों ने प्रार्थना की-"महाराज ! आपके मुखारविन्द से जिन वाणी के रसामृत का आस्वादन करना चाहते हैं।" महाराज ने कहा"श्रावक लोगों का उपदेश सुनना ही धर्म है। आप लोगों की इच्छा हो तो "उपदेशमाला" का प्रारम्भ किया जाए?'' श्रावकों ने कहा-"यह तो हमने पहले भी सुनी है। फिर महाराज के मुखारविंद १. यह मन्दिर धनदेव सेठ ने बनवाया था, जिसका उल्लेख तत्कालीन देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के ही पुत्र कवि पद्मानंद अपने वैराग्यशतक में इस प्रकार करते हैं :"सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्यागंजः, पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियांमानन्द सम्पत्तये॥" (३२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भी सुन लेंगे।" उनकी इच्छानुसार महाराज ने शुभ दिन देख कर व्याख्यान प्रारम्भ किया। "संवच्छरमुसभजिणो" इस एक गाथा की व्याख्या में छः मास का समय व्यतीत हो गया। इस प्रकार के दृष्टान्त उदाहरण और सिद्धान्तों के उपदेशामृत से श्रावकों को अभूतपूर्वक लाभ मिला और वे तृप्त नहीं हुए। श्रावक बोले-"भगवन् ! व्याख्यान में ऐसी अपूर्व वर्षा या तो तीर्थंकर भगवान् ही कर सकते हैं या आपने ही की है।" इस प्रकार श्रावक लोग महाराज की देशना की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। २५. एक दिन व्याख्यान देकर महाराज श्रावकों के साथ देव मन्दिर से आ रहे थे। अपने निवास स्थान पर जाते समय मार्ग में महाराज ने एक अश्वारुढ़ दूल्हे को देखा, जिसके साथ में कई कुटुम्बी, बन्धुवर्ग तथा जनेतियों का समूह था और पीछे-पीछे मनोहर मांगलिक गायन करती हुई महिलाओं का झुण्ड चल रहा था। वह सजधज कर विवाह करने जा रहा था। उसे देखकर महाराज बोले-"देखो संसार की परिस्थिति कैसी विचित्र है? ये स्त्रियाँ जो इस समय उत्साह से मंगल गान कर रही हैं, रोती हुई लौटेंगी।" वह वर राजा वधू के घर पहुँच कर घोड़े से नीचे उतरा और मकान पर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा कि दैवयोग से उसका पाँव फिसल गया और वह गिर कर घरट के कीले पर आ पड़ा। फिर क्या था, वह कीला उसके पेट में घुस गया। पेट के दो विभाग हो गये, चमड़ा फट गया और वह मर गया। उन स्त्रियों को रोती हुई वापस आती देख कर सब श्रावक लोग महाराज के इस भविष्यविषयक ज्ञान से चकित हो गए और महाराज की खूब स्तुति करने लगे कि महाराज तो त्रिकालज्ञ हैं। इस प्रकार श्रावकों में धर्म-भावना बढ़ाकर तथा अपने अद्भुत चमत्कारों से सब को चकित करके महाराज श्री वहाँ से नागपुर (नागौर) पधारे। २६. उन्हीं दिनों में देवभद्राचार्य जी विचरते हुए गुजरात प्रान्त के मुख्य नगर पाटण में आये। वहाँ आने पर उन्होंने सोचा प्रसन्नचंद्राचार्य ने पूर्व में मुझ से कहा था कि-"जिनवल्लभ गणि को अभयदेवसूरि जी महाराज के पाट पर स्थापित कर देना। इस कार्य के सम्पादन करने का इस समय उचित अवसर है।" ऐसा निश्चय करके उन्होंने जिनवल्लभ गणि जी के पास नागौर पत्र भेजा। उसमें लिखा था, "समुदाय के साथ आप शीघ्र ही चित्तौड़ आवें। वहाँ हम सब मिल कर पूर्व विचारित कार्य को सफल करेंगे।'' पत्र को पढ़कर गणि जी परिवार सहित चित्तौड़ आ गए। उधर देवभद्राचाय भी आ पहुँचे। पण्डित सोमचंद्र को भी आह्वान पत्र भेजा था किन्तु वे समय पर न आ सके। शुभ मुहूर्त देखकर श्री देवभद्रसूरि ने श्री जिनवल्लभ गणि को सूरि पद प्रदान कर श्री अभयदेवसूरि जी महाराज के पट्ट पर स्थापित कर दिया। पदारूढ़ होने का समय आषाढ़ शुक्ला ६ सं० ११६७ वि० और स्थान चित्तौड़ शहर में वीर प्रभु का विधि चैत्यालय था। उपदेश सुनने के लिए आने वाले अनेक भव्यजन युगप्रधान श्री अभयदेवसूरि जी के चरण सेवक युगप्रधान श्री जिनवल्लभसूरि को तथा उनके उपदेशामृत को सुनकर मोक्ष मार्ग के पथिक हो गये। तदनन्तर श्री देवभद्राचार्य जी पाट महोत्सव सम्बन्धी सब कार्य सम्पन्न करके विहार करते हुए अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच गये। वि०सं० ११६७ मिती कार्तिक कृष्णा १२ रात्रि को चतुर्थ प्रहर में श्री जिनवल्लभसूरि जी तीन दिन का अनशन संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३३) 2010_04 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए, चतुर्विध संघ को मिथ्यादुष्कृत दान देकर चौथे देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए। विशेष जिनवल्लभसूरि की एक अपूर्व रचना है वीरचैत्यप्रशस्ति । विविध छन्दों में रचित ७८ श्लोकों की रचना होने के कारण यह अष्टसप्तति के नाम से भी प्रसिद्ध है। चित्तौड़ स्थित महावीर चैत्य की प्रतिष्ठा के समय यह प्रशस्ति वि०सं० ११६३ में रची गयी थी और शिलापट्ट पर उत्कीर्ण कर महावीर चैत्य में लगायी गयी थी । वस्तुतः यह प्रशस्ति जिनवल्लभ की आत्मकथा है । इसमें जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से लेकर ११६३ तक की जीवन में घटित घटनाओं का संक्षिप्त किन्तु सरस आलेखन हुआ है। दुर्भाग्य से वह जिनालय मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दिया गया किन्तु किसी सुविज्ञ विद्वान ने इस शिलापट्ट प्रशस्ति की प्रतिलिपि कर ली थी उसकी एकमात्र प्रति L.D. Institute Ahmedabad में सुरक्षित है । इस प्रशस्ति अर्थात् अष्टसप्ततिका का उल्लेख और उद्धरण जिनपतिसूरि, जिनपालोध्याय आदि ने अपने ग्रन्थों में किया है। प्रशस्ति का सार निम्न है : १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. परमारवंशीय राजा भोज, उदयादित्य और चित्रकूटाधिपति नरवर्म का उल्लेख ऐतिहासिक महत्त्व का है। स्वयं को कूर्चपुरगच्छीय आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य बतलाते हुए चैत्यवास उन्मूलक जिनेश्वरसूरि का गुणगान करते हुए सुविहित पक्षीय आचार्य अभयदेव का शिष्य बनने का उल्लेख किया है । चित्रकूट के प्रमुख श्रेष्ठियों - अम्बक, केहिल, वर्धमान इत्यादि के इसमें नाम प्राप्त होते हैं। स्वकीय उपासकों में धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्धमान पुत्र वीरदेव, माणिक्य, पल्लिका निवासी प्रद्युम्रवंशीय सुमति, वैद्य क्षेमसरीय, सर्वदेव के पुत्र रासल्ल, धनदेव, वीरक, खंडेलवंशीय मानदेव, पद्मप्रभ, पल्लक, शालिभद्र पुत्र साधारण, सढक इत्यादि के नाम भी इसमें प्राप्त होते हैं। (३४) चित्तौड़ में विधि चैत्य निर्माण की आवश्यकता क्यों हुई? इसका कारण बताते हुए उपासकों द्वारा महावीर और पार्श्वनाथ के एक-एक चैत्यों का निर्माण हुआ । विधि चैत्यों में किस प्रकार उपासना की जाये, इसका शास्त्रीय मार्ग भी दिखाया गया है । इन चैत्यों के व्यय के लिये चित्रकूटाधिपति नरवर्मा ने जो दान दिया था, उसका भी इस प्रशस्ति में उल्लेख है । यह प्रशस्ति सूत्रधार जसदेवपुत्र रामदेव ने शिलापट्ट पर उत्कीर्ण की थी । 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रशस्ति में, गुर्वावली और परवर्ती रचित साहित्य में पार्श्वनाथ और महावीर के दो मंदिरों की जिनवल्लभसूरि द्वारा प्रतिष्ठा का उल्लेख प्राप्त होता है। महावीर चैत्य की प्रशस्ति यही है। पार्श्वनाथ मंदिर भी नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। इस मंदिर का एक शिलाखंड भी चित्तौड़ की गंभीरा नदी में बने पुल के खम्भे में लगाया हुआ था और आज यह चित्तौड़ के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस विधि चैत्य की प्रशस्ति चित्रकाव्यमय है। उत्कीर्ण प्रशस्ति का मूलपाठ निम्नलिखित to ॐ १. (निर्वाणार्थी विधत्ते) वरद सुरुचिरावस्थितस्थानगामिन्सर्बो (पी)२. (ह स्तवं ते) निहतवृजिन हे मानवेन्द्रादिनम्य (1) संसार-क्लेशदाह (स्त्व)३. (यि) च विनयिनां, नश्यति सावकानां देव ध्यायामि चित्ते तदहमृषि४. (वर) त्वां सदा वच्मि वाचा (I)-१॥ नन्दन्ति प्रोल्लसन्तः सततमपि हठ (क्षि)५. (प्तचि) त्तोत्थमलं प्रेक्ष्य त्वां पावनश्रीभवनशमितसंमोहरोहत्कुत६. (र्काः।) भूत्यै भक्तव्याप्तपार्था समसमुदितयोनिभ्रामे मोहवार्डों ७. (स्वा) मिन्पोतस्त्वमुद्यत्कुनयजलयुजि स्याः सदा विश्ववं (ब) धो (I) २ ॥ ८. नवनं पार्थाय जिनवल्लभमुनिविरचितमिह इति नामांकं च (क्रे ) ९. (स) त्सौभाग्यनिधे भवद्गुणकथां सख्या मिथः प्रस्तुतामुक्षिप्तैकत१०. संभ्रमरसादाकर्णयन्त्याः क्षणात् । गंडाभौगमलंकरोति विश (दं) ११. (स्वे) दांवु (बु) सेकादिव प्रोद्गच्छन्पुलकच्छलेन सुतनौः शुगारकन्दांकु१२. (रः) |॥ १॥ पुरस्तादाकर्णप्रततधनुषं प्रेक्ष्य मृगयुं चलत्तारां चा (रु प्रि)१३. (य) सहचरी पाशपतितां (ताम्)। भयप्रेमाकूताकुल-तरल-चक्षुर्मुहु१४. (र) हो कुरङ्ग सर्वागं जिगमिषति तिष्ठासति पुनः॥ २ ॥ सद्वृत्त (र)१५. (म्यप) दया मत्तमातङ्गगामिनी । दोषालकमुखी तन्वी तथा१६. (पि) रतये नृणां (णाम्) ॥ ३॥ क्षीरनीरधिकल्लोल-लोललोचनया१७. नया । क्षा (ल) यित्वेव लोकानां स्थैर्य धैर्यं च नीयते ॥ ८॥ जिनपालोध्याय आदि कई कविपुंगवों ने जिनवल्लभसूरि को शिशुपालवध महाकाव्यकार माघ कवि से भी अधिक उट्भट विद्वान् बतलाया है। जो इनके प्राप्त काव्यों के आधार पर सिद्ध भी होता है। श्रृंगारशतक भी इन्हीं की रचना है जो श्रृंगाररस से ओत-प्रोत है। आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण करने के पश्चात् घोर शृंगारमय रचना करना किंचित् भी सम्भव नहीं, अतः यह कह सकते हैं कि चैत्यवास में रहते हुए ही उक्त रचना की होगी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३५) _ 2010_04 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि सिद्धान्त, कर्म, गुणस्थान आदि विषयों के मर्मज्ञ विद्वान् थे। सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्धशतक), आगमिकवस्तुविचारसार (षडशीति) और पिण्डविशुद्धि आदि ग्रन्थ इसके साक्ष्य हैं। इनके स्वर्गवास के ३ वर्ष बाद से ही उस समय के अन्य गच्छों के धुरन्धर और प्रौढ़ विद्वानों ने इनकी विभिन्न कृतियों पर टीका रचकर इनको प्रामाणिक विद्वान् माना है। ऐसे टीकाकारों में धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य, मलयगिरि, श्रीचन्द्रसूरि, उदयसिंहसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, महेश्वरसूरि, चक्रेश्वरसूरि, यशोभद्रसूरि, यशोदेवसूरि, अजितदेवसूरि, संवेगदेवगणि, कनककुशल आदि अन्य गच्छीय एवं खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, रामदेवगणि, पुण्यसागरोपाध्याय, साधुसोमोपाध्याय, मेरुसुन्दर उपा०, चारित्रवर्धन उपा०, समयसुन्दर उपा०, गुणविनय उपा० आदि पचासों विद्वानों ने इनके सैद्धांतिक साहित्य, औपदेशिक साहित्य और स्तोत्र साहित्य पर टीकायें रचकर इनकी सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है। जैन साहित्य में जिनवल्लभ जैसा असाधारण विद्वान् शायद ही कोई हो कि जिनके ग्रन्थों पर इतने अधिक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलायी हो और सम्मान के साथ जिनको स्मरण किया हो। विधिमार्गीय जिनवल्लभसूरि को नवाङ्ग टीकाकार आचार्य अभयदेव का शिष्य मानने पर 'हम खरतरगच्छ के उपजीव्य न हो जायें', इसको ध्यान में रखते हुए १७वीं शताब्दी से ही कुछ परम्परावादी विद्वानों ने इनके विरुद्ध विषवमन करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसे विद्वानों में सर्वप्रथम धर्मसागर उपाध्याय का उल्लेख किया जा सकता है। धर्मसागर जी ने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा और विद्वत्ता का उपयोग दुराग्रह, कलह-प्रेम और छिन्द्रान्वेषण में ही किया, जिसके कारण तत्कालीन गणनायकों-विजयदानसूरि और हीरविजयसूरि द्वारा उन्हें गच्छ बहिष्कृत किया गया और उनके उत्सूत्र प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण करवाना पड़ा। २० वीं शती में आनन्दसागरसूरि, आदि विद्वानों ने पुनः धर्मसागर जी के चरणचिह्नों पर चलना प्रारम्भ कर जिनवल्लभसूरि के विषय में विभिन्न विवाद उठायें हैं जो इस प्रकार हैं१. जिनवल्लभसूरि ने आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण नहीं की थी। २. षट्कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्र प्ररूपणा थी। ३. उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण वे संघ-बहिष्कृत थे। ४. पिण्डविशुद्धि और सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभ नामक दूसरे आचार्य थे। इनका संक्षिप्त उत्तर निम्नलिखित है१. उपसम्पदा :- जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि जिनवल्लभसूरि मूल में कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और आचार्य अभयदेव से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर सुविहित साधुओं के आचार-व्यवहार को समझ कर चैत्यवास त्याग कर अभयदेव के पास उन्होंने उपसम्पदा ग्रहण की थी। इस बात को न केवल खरतरगच्छीय अपितु अन्य गच्छीय विद्वानों जिनमें तपागच्छीय विद्वान् भी सम्मिलित हैं, ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में स्वीकार किया है। (३६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (i) आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य और अभयदेवसूरि के सतीर्थ्य जिनचन्द्रसूरि ने वि०सं० ११२५ में रचित संवेगरंगशाला की पुष्पिका में लिखा है कि अपने शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य की प्रार्थना पर गुणचन्द्र गणि (देवभद्रसूरि)और जिनवल्लभ गणि ने इस ग्रन्थ को संशोधित किया। इससे स्पष्ट है कि यदि जिनवल्लभसूरि चैत्यवास त्याग कर अभयदेव के शिष्य न बने होते तो प्रसन्नचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि, वर्धमानसूरि जैसे समर्थ विद्वानों की उपस्थिति में जिनचन्द्रसूरि एक चैत्यवासी मुनि से किस प्रकार अपने ग्रन्थ का संशोधन कराते? (ii) जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण किये वगैर देवभद्रसूरि द्वारा उन्हें अभयदेवसूरि के पट्ट पर बैठाना असम्भव था। (iii) सूक्ष्मार्थ-विचार-सारोद्धार (सार्धशतक) प्रकरण पर बृहद्गच्छीय धनेश्वरसूरि ने वि०सं० ११७१ में टीका की रचना की। इसके १५२ वें पद्य की टीका में वे स्वयं लिखते हैं कि सार्धशतक के प्रणेता नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य थे। इससे भी स्पष्ट है कि अभयदेवसूरि ने इन्हें उपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर दिया था। (iv) धर्मसागर जी के पूर्वज तपागच्छीय हेमहंससूरि ने कल्पान्तर्वाच्य में लिखा है कि नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि हुए जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। (v) उपसंपदा का अर्थ है "उपसम्पत् इतो भवदीयोऽमित्यभ्युपगमः अर्थात् अब मैं आपका हूँ।" इस प्रकार की स्वीकृति देना ही उपसम्पदा कहलाती है। जिनवल्लभ स्वरचित चित्रकूटीय महावीर चैत्य-प्रशस्ति में स्वयं को कूर्चपुरगच्छीय आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य बतलाते हुए अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा और श्रुतसम्पदा प्राप्त करने का उल्लेख करते हैं लोकाय॑कूर्चपुरगच्छमहाघनोत्थ - मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरसूरिशिष्यः । प्राप्तः प्रथां भुवि गणिर्जिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च | जिनवल्लभ स्वयं स्वरचित प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक में मेरे सद्गुरु अभयदेवसूरि हैं, ऐसा कहते हैं। पाके धातुरवाचि कः? क्क भयतो भीरो मनः प्रीयते? सालङ्कारविदग्धया वद कया रज्यन्ति विद्वज्जनाः? पाणौ किं मुरजिबिभर्ति? भुवि तं ध्यायन्ति का के सदा? के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुता विश्रुताः? श्रीमद्भयदेवाचार्याः जिनवल्लभसूरि के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरिजी लिखते हैं कि कूर्चपूरीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि ने चैत्यवास का परित्याग कर अभयदेवसूरि के पास श्रुतसम्पदा प्राप्त की और देवभद्रसूरि ने चित्तौड़ में अभयदेवसूरि के पद पर इनको स्थापित किया। इतोऽप्यभयदेवाख्य-सूरेः श्रीश्रुतसम्पदां। समवाप्य ततो मत्वा, चैत्यवासोऽस्ति पापकृत् ॥ १॥ श्रीमत्कूर्चपुरीय-श्रीसूरेजिनेश्वरस्य शिष्येण। जिनवल्लभेनगणिना, चैत्यवासः परित्यक्तः ॥ २ ॥ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३७) 2010_04 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृताङ्गीगणभद्रेण, देवभद्रेण सूरिणा। श्रीचित्रकूटदुर्गेऽस्मिन्, सोऽपि सूरिपदे कृतः॥ ३ ॥ किन्तु जिनवल्लभीय प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक पद्य १५९ "ब्रूहि श्रीजिनवल्लभ स्तुतिपदं कीदृविधाः के सताम्?" के उत्तर के रूप में "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः” प्रदान किया है। यहाँ जिनेश्वरसूरि के लिए 'मद्गुरवः' और अभयदेवसूरि के लिए 'सत्गुरुवः' शब्दों का प्रयोग है, प्रारम्भिक गुरु चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि थे, उपसम्पदादायक गुरु अभयदेवसूरि थे। जिनेश्वरसूरि के पास ही समस्त प्रकार के साहित्य का अध्ययन कर और उनकी अनुमति से ही अभयदेवसूरि के पास आगमों का अध्ययन किया था और उनकी स्वीकृति से ही उन्होंने अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण की थी। अतः श्रद्धा और भक्ति के कारण जिनेश्वरसूरि को मेरे गुरु के रूप में स्मरण करते हैं तो यह शिष्टाचार का द्योतक है। यहाँ उन्होंने जिनेश्वरसूरि को सद्गुरु से सम्बोधित नहीं किया है। अभयदेवसूरि के पास यदि उन्होंने उपसम्पदा ग्रहण नहीं की होती तो देवभद्राचार्य जैसे गीतार्थ आचार्य उनको कदापि अभयदेव के पट्ट पर स्थापित नहीं करते। आचार्य जिनेश्वर से प्रारम्भ खरतरगच्छ की मूल परम्परा, समस्त शाखाएँ और उपशाखाएँ एक स्वर से जिनवल्लभ को नवाङ्गीटीकाकार अभयदेवसूरि का ही पट्टधर स्वीकार करती हैं। खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य प्रभानन्दसूरि तो ऋषभ पञ्चाशिका टीका की रचना प्रशस्ति में अपनी परम्परा के पूर्वज अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनशेखरसूरि ही मानते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध है कि जिनवल्लभसूरि आचार्य अभयदेव के शिष्य थे और इसमें किसी भी प्रकार की शंका का कोई स्थान नहीं रह जाता है। २. षट्कल्याणक :- प्रत्येक तीर्थंकर के पाँच कल्याणक होते हैं-च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण । महावीर का एक अन्य कल्याणक भी होता है वह है गर्भापहार । २४ तीर्थंकरों में केवल महावीर ही ऐसे हैं जिनका जीव पहले ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में आता है, वहाँ से ८२ दिन बाद उनका स्थानान्तरण त्रिशला के गर्भ में होता है। देवानन्दा के गर्भ में जब महावीर का जीव आता है तो वे चौदह स्वप्न देखती हैं। वही जीव जब त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित हो जाता है तो त्रिशला भी चौदह स्वप्न देखती हैं। इस प्रकार गर्भापहरण को मिलाकर कुल ६ कल्याणक महावीर के होते हैं। प्राचीन ग्रन्थकारों-शीलांक, हेमचन्द्र, तपागच्छीय शांतिचन्द्रगणि, पृथ्वीचन्द्रसूरि, विनयचन्द्रसूरि, तपागच्छीय कुलमण्डनसूरि, जयचन्द्रसूरि, सोमसुन्दरसूरि, अंचलगच्छीय धर्मशेखरसूरि के शिष्य उदयसागर, अंचलगच्छीय माणिकऋषि, उपकेशगच्छीय रामतिलक गणि के शिष्य गणपति, अंचलगच्छीय मेरुतुंगसूरि, आगमिकगच्छीय जयतिलकसूरि आदि ने अपनी कृतियों में महावीर के गर्भापहार को भी कल्याणक मान कर उनके ६ कल्याणक स्वीकार किये हैं। अतः इस सम्बन्ध में कोई भी विवाद उठाना निरर्थक है। विशेष अध्ययन के लिये द्रष्टव्य-श्री मणिसागरजी (आचार्य श्री जिनमणिसागरसूरि) लिखित पुस्तक षट्कल्याणक निर्णय नामक पुस्तक। (३८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. उत्सूत्र प्ररूपक :- • जिनवल्लभसूरि ने सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की १४वीं कारिका के उत्तरार्ध में शक्तिविशेष को भी संहनन स्वीकार किया है। जिनवल्लभ से पूर्ववर्ती आचार्य हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि, चन्द्रगच्छीय धनेश्वरसूरि, तपागच्छीय देवेन्द्रसूरि आदि ने भी शक्तिविशेषरूप संहनन को स्वीकार किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह जिनवल्लभ की अपनी प्ररूपणा नहीं है, उसकी मान्यता व्यापक है। इस सम्बन्ध में जो भी चर्चा पूर्व में उठायी गयी या आज उठाई जा रही है, वह मात्र गच्छद्वेष पर ही आधारित है। संघ आचार्य जिनवल्लभ प्रणीत संघपट्टक की ३३वीं कारिका पर लिखी गयी जिनपतिसूरि की टीका के अपूर्ण वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर उसका मनमाना अर्थ धर्मसागर उपाध्याय और २०वीं शती के विद्वान् सागरानन्दसूरि, विजयप्रेमसूरि आदि ने किया है। वस्तुतः चैत्यवासी संघ से जिनवल्लभसूरि बहिष्कृत थे, किन्तु सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रधान थे । ४. पिण्डविशुद्धिकार :- १७वीं शती के तपागच्छीय विद्वान् सोमविजयगणि ने स्वरचित "सेनप्रश्न" में पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ को खरतरगच्छीय जिनवल्लभ से भिन्न माना है । किन्तु सुमतिगण ने गणधर सार्धशतकवृत्ति में जिनवल्लभ की अन्य कृतियों के साथ-साथ पिण्डविशुद्धि का भी उल्लेख किया है जिसका समर्थन धनेश्वरसूरि ने अपनी सार्धशतकटीका में किया है। पिण्डविशुद्धिदीपिका के रचनाकार उदयसिंहसूरि ( ई०स० १२४५ - रचनाकाल ) पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता के लिये “सुविहितसूत्रधार" विशेषण का प्रयोग करते हैं जो निश्चित रूप से जिनवल्लभसूरि के लिये ही है । स्वयं धर्मसागरजी भी अपनी कृति "प्रवचनपरीक्षा" में जिनवल्लभ के लिये यही विशेषण प्रयुक्त करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ ही हैं। पं० लालचन्दभगवान् गांधी ने स्वसम्पादित अपभ्रंश काव्यत्रयी में भी इसी बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है । : यदि हम मान भी लें कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि नहीं है तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वे जिनवल्लभ कौन थे? किस गच्छ के थे? इस प्रश्न का कोई भी उत्तर नहीं है। तत्कालीन ३-४ शताब्दियों में खरतरतगच्छीय जिनवल्लभ को छोड़कर कोई भी ऐसे व्यक्ति की उपलब्धि जैन साहित्य के इतिहास में नहीं दिखाई देती जो पिण्डविशुद्धि का कर्त्ता माना जा सके । अतः यह स्पष्ट है कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि से पृथक् कोई अन्य आचार्य नहीं हैं । इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य " वल्लभभारती", पृ० ६२-८४ । जिनवल्लभरि के प्रमुख सहपाठी जीवन भर साथ देने वाले जिनशेखर थे| युगप्रधान जिनदत्तसूरि के समय वि०सं० १२०५ के आसपास इनसे शाखा भेद हुआ। ये रुद्रपल्लीय के रहने वाले थे अतः भविष्य में इस परम्परा का इधर ही अधिक विचरण रहने में इस शाखा का आगे यही नामकरण हो गया जो कि खरतरगच्छ की ही एक शाखा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 蛋蛋蛋 (३९) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि २७. पहले किसी समय श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य उपाध्याय श्री धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञा में रहने वाली विदुषी साध्वियों ने धोलका में चातुर्मास किया था। वहाँ पर क्षपणक-भक्त वाछिग की धर्मपत्नी बाहड़ देवी अपने पुत्र के साथ इन आर्याओं के पास धर्मकथा सुनने को आया करती थी। उस श्राविका का धर्म-प्रेम देखकर साध्वियाँ विशेष रूप से धर्मकथायें सुनाया करती थीं। ये आर्याएँ सामुद्रिक शास्त्र के बल से पुरुष सम्बन्धी शुभाशुभ लक्षण भी जानती थीं। बाहड़ देवी के पुत्र के शरीर में वर्तमान प्रधान-लक्षणों को वे अच्छी तरह से जान गईं। उन लक्षणों का लाभ उठाने के लिए वे श्राविका को बारम्बार समझाती थीं। आर्याओं के कहने-सुनने से वह उनका कथन मान गई और अपने पुत्र को शिष्य बनाने के लिए देने को तैयार हो गई। चातुर्मास समाप्त होने पर आर्याओं ने धर्मदेवोपाध्याय को समाचार दिया कि-"हमने यहाँ पर एक पात्र रत्न पाया है। यदि आपको योग्य लगे तो स्वीकार करें।" संवाद पाते ही धर्मदेवोपाध्याय उत्तम शकुन लेकर शीघ्रातिशीघ्र वहाँ पहुँचे। बालक को देखकर अतीव प्रसन्न हुए। शुभ लग्न, मुहूर्त एवं तिथि देख वि०सं० ११४१ में दीक्षा देकर उस बालक को सोमचन्द्र नाम से अपना शिष्य बनाया। उपाध्याय जी ने नवदीक्षित सोमचन्द्र को श्री सर्वदेव गणि को सौंप दिया और गणिजी से कहा कि-"तुम इसकी देख-रेख करो तथा इसे साधु सम्बन्धी क्रिया-कलापों को सिखाते हुए बहिर्भूमिका आदि के लिए साथ ले जाया करो।" इस बालक का जन्म सं० ११३२ में हुआ था। दीक्षा के समय इसकी अवस्था नौ वर्ष की थी। प्रतिक्रमण सूत्र वगैरह इसने घर पर रहते ही याद कर लिये थे। अशोकचन्द्राचार्य ने इनको बड़ी दीक्षा दी। दीक्षा लेने के बाद, पहले ही दिन सर्वदेव गणि इनको साथ लेकर बहिर्भूमिका के लिए गये। सोमचन्द्र बालक था, अज्ञान दशा थी। इसलिए खेत में से उगे हुए बहुत से चने के पौधों को इसने जड़ से उखाड़ दिया, (ऐसा करना साध्वाचार्य के विपरीत था)। सर्वदेव गणि ने इस अनुचित व्यवहार को देखकर उसे शिक्षा देने के लिए सोमचन्द्र से रजोहरण और मुखवस्त्रिका ले ली और कहा कि-"तुम अपने घर जाओ। दीक्षा लिए बाद साधु को हरी वनस्पति का तोड़ना वनस्पतिकाय की विराधना है।" इस तर्जन-गर्जन को सुनकर बालक सोमचन्द्र बोला-"आप घर जाने के लिए कहते हैं सो तो ठीक, परन्तु पहले मेरे मस्तक पर जो चोटी थी उसे दिला दीजिए, तो लेकर अपने घर चला जाऊँ।" इस उत्तर को सनकर गणि जी को आश्चर्य हआ और मन ही मन कहने लगे-"इस बात का हमारे पास कोई प्रत्युत्तर नहीं है।" इस बात को स्थान पर जाकर गणि जी ने धर्मदेवोपाध्याय से कही। उसे सुनकर उपाध्याय जी ने सोचा-"इन लक्षणों से जाना जाता है कि यह अवश्य ही योग्य होगा।" २८. सोमचन्द्र मुनि पत्तन में सर्वत्र घूम-घूम कर अच्छे-अच्छे विद्वानों से लक्षण पंजिका आदि शास्त्रों को परिश्रम के साथ पढ़ने लगे। एक दिन सोमचन्द्र मुनि स्थानीय भावड़ाचार्य की धर्मशाला में पंजिका पढ़ने जा रहे थे। मार्ग में अन्य मतावलम्बी किसी उद्धत मनुष्य ने कहा-"अरे श्वेताम्बर साधु! यह कपलिका (कँवली-पढ़ने का बस्ता) किस लिए ग्रहण की है?" सोमचन्द्र मुनि ने तत्काल (४०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही उत्तर दिया- " तुम्हारा मुख मर्दन करने के लिए और अपने मुख की शोभा बढ़ाने के लिये ।" वह पुरुष इसका कुछ भी उत्तर न दे सका और अपना सा मुँह लेकर चला गया । सोमचन्द्र मुनि धर्मशाला बहुत से राज्याधिकारियों के पुत्र पंजिका पढ़ते थे, सोमचन्द्र मुनि भी वही पञ्जिका पढ़ते थे । एक दिन अध्यापक ने योग्यता की जाँच करने के लिए पूछा - " सोमचन्द्र ! न विद्यते वकारो यत्र स नवकारः अर्थात् वकार जिसमें न हो वह नवकार यह अर्थ ठीक है न?" सोमचन्द्र मुनि ने कहा"नहीं, "नवकरणं नवकारः" नवकार शब्द का अर्थ नव करण यानि आत्म कल्याण के साधन रूप नव पद है जिसमें वह नवकार, ऐसा होना चाहिए।" ऐसा उत्तर सुन कर अध्यापक ने विचारा कि'बराबर उत्तर देने वाला है - इसके साथ उत्तर - प्रत्युत्तर करना जरा टेढ़ी खीर है ( ऐरा - गैरा पंच कल्याणी इसके साथ भिड़ नहीं सकता) । " 44 एक समय लुंचन का दिन होने से सोमचन्द्र मुनि पाठशाला न जा सके। पाठशाला का यह नियम था कि यदि एक भी विद्यार्थी अनुपस्थित हो तो उस दिन पाठशाला बंद रखी जाए। उस दिन गर्विष्ठ अधिकारी- पुत्रों ने आचार्य से कहा- " भगवन् ! कृपया पाठ पढ़ाइये । सोमचन्द्र के स्थान पर हमने पत्थर रख दिया है, इसे आप सोमचन्द्र ही समझ लीजिए।" आचार्य ने उन सब के अनुरोध से प्रचलित पाठशालीय नियम को तोड़कर उस दिन सब को पाठ पढ़ाया। दूसरे दिन सोमचन्द्र मुनि पाठशाला आये । उनको अपने कतिपय साथियों से पहले दिन की बातों का पता लगा । सोमचन्द्र मुनि ने अध्यापक आचार्य से कहा- " आपने बड़ा उत्तम काम किया जो मेरी अनुपस्थिति में मेरे स्थान पर पत्थर रख कर काम निकाल लिया । परन्तु आप कृपा करके आज तक पढ़ाया हुआ पंजिका पाठ मुझसे भी पूछिए और इनसे भी, जो जवाब न दे सके उसे ही पत्थर समझना चाहिए।" अध्यापक गुरु ने कहा- " सोमचन्द्र ! तू सुगन्ध युक्त कस्तूरिका की तरह प्रज्ञादि गुणों से युक्त है । मैं तेरे को भली-भाँति जानता हूँ परन्तु इन मूर्खों ने पढ़ाने के लिये बार-बार अनुरोध किया, अतः ऐसा किया। तुम हमें क्षमा करो!" २९. जब सोमचन्द्र मुनि अन्य शास्त्रों को पढ़ कर तैयार हो गए तब हरिसिंहाचार्य ने इनको समस्त शास्त्रों की वाचना दी और अपने पास की मंत्र पुस्तिका एवं वह कपलिका (कँवली-पुठा) भी जिससे स्वयं उन्होंने विद्याभ्यास किया था, दे दी। देवभद्राचार्य ने प्रसन्न होकर अपना कटाखरण (काष्ठोत्कीर्णक-काष्ठ पट्टिका पर लिखने का एक उपकरण ) दिया, जिससे उन्होंने महावीरचरित आदि चार कथा शास्त्र काष्ठ की पट्टिका पर लिखे थे । पण्डित सोमचन्द्र गणि इस प्रकार सर्व सिद्धान्तों के ज्ञाता होकर विचरने लगे । ज्ञानी, ध्यानी, मनोहारी और आह्लादकारी सोमचन्द्र गणि को देखकर उपासक वर्ग अतीव आनन्दित होता था । ३०. गच्छ के प्रधान और वयोवृद्ध श्री देवभद्राचार्य (जो गच्छ के संचालक थे) ने जब आचार्य जिनवल्लभसूरि का देवलोक गमन सुना तो इन्हें बड़ा दुःख हुआ । कहने लगे - " स्वर्गीय गुरु श्री अभयदेवसूरि जी के पट्ट को जिनवल्लभसूरि जी उज्ज्वल कर रहे थे परन्तु क्या किया जाए? संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (४१) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सारा काम ही चौपट हो गया)।" देवभद्राचार्य के हृदय में यह बात आई कि-"श्री जिनवल्लभसूरि जी युगप्रधान थे। उनके स्थान पर किसी वैसे ही योग्य को नहीं बैठाया गया तो हमारी गुरु भक्ति का क्या मूल्य है? हमारे गच्छ में उनके पाट पर बैठने योग्य कौन है?" ऐसा विचार करते हुये उनका लक्ष्य पण्डित सोमचन्द्र गणि की तरफ गया। उपासक वर्ग भी इन्हीं को चाहते हैं और यह ज्ञानध्यान-क्रिया में भी निपुण है, इसलिए यही योग्य है। सर्वसम्मति से इसका निर्णय करके सोमचन्द्र को लिखा गया कि-"तुमको श्री जिनवल्लभसूरि के पाट पर स्थापित किया जाएगा इसलिए जहाँ तक हो सके शीघ्र ही चित्तौड़ चले आओ।" स्वर्गीय आचार्य को भी यह बात अभीष्ट थी। श्री जिनवल्लभसूरि के पाट महोत्सव पर तुम बुलाने पर भी नहीं पहुँच सके थे। ऐसा न हो कि इस समय भी तुम लापरवाही कर जाओ। पाट पर बैठने के लिए बहुत से उम्मीदवार खड़े हुए थे (परन्तु संघ के संचालक देवभद्राचार्य ने उनकी आशालताओं पर तुषारपात कर दिया)। पत्र पहँचते ही पण्डित सोमचन्द्र गणि शीघ्र विहार कर चित्तौड़ आ गये और देवभद्राचार्य भी आ गये। समाज को पाट महोत्सव की सूचना दी गई अतः साधारण जनता केवल इतना ही जानती थी कि श्री जिनवल्लभसूरि जी के पट्ट पर किसी योग्य व्यक्ति को सूरि पद दिया जायगा। यह पद किसको और कब दिया जायगा? इस बात का किसी को पता नहीं था। श्री देवभद्रसूरि ने सोमचन्द्र गणि को एकान्त में बुलाकर कहा-"श्री जिनवल्लभसूरि जी से प्रतिष्ठित, साधारण, साधु आदि श्रावकों से पूजित श्री महावीर स्वामी के विधि चैत्य में समस्त संघ के समक्ष आगामी दिन श्री जिनवल्लभसूरि के पाट पर हम तुमको स्थापित करेंगे। लग्न का निश्चय कर लिया गया है।" इस कथन को सुनकर पण्डित सोमचन्द्र गणि ने कहा-"आपने जो कहा सो ठीक है, पर मेरी प्रार्थना यह है कि कल के दिन स्थापना कीजियेगा तो योग ऐसा है जिससे मैं अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकूँगा। इसलिए आज से सातवें दिन शनिवार को जो लग्न है, उस लग्न में यदि मैं पाट पर बैठाया जाऊँगा तो मैं निर्भय होकर सर्वत्र ही विचरूँगा और श्री जिनवल्लभसूरि जी के अभिमत मार्ग में मेरे द्वारा चतुर्विध संघ की अधिकाधिक वृद्धि हो सकेगी।" श्री देवभद्राचार्य ने कहा-"बहुत अच्छा, वह लग्न क्या दूर है? उस दिन ही सही।" निश्चित दिन आने पर वि०सं० ११६९ वैशाख सुदि प्रतिपदा को सायं काल के समय श्री जिनवल्लभसूरि जी के पाट पर बड़े आरोह-समारोह के साथ पण्डित सोमचन्द्र गणि स्थापित किये गये और श्री संघ की ओर से नाम परिवर्तन कर इनका नाम श्री जिनदत्तसूरि रखा गया। पद स्थापना विधि के अनन्तर बाजे-गाजे के साथ निवास स्थान पर आये। सभी साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं ने विधिपूर्वक वन्दना की। इसके पश्चात् श्री देवभद्राचार्य ने द्वादशावर्त वंदना कर कहा"महाराज! यहाँ पर उपस्थित सब लोगों की आपके मुखारविंद से उपदेशामृत पान करने की अभिलाषा है, देशना दीजिये।" इस प्रार्थना को स्वीकार करके आचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी ने अमृत के समान कर्णप्रिय सिद्धान्तोदाहरणों से युक्त देशना दी, जिसे सुन कर उपस्थित जनता अतीव प्रमुदित हुई और कहने लगी-" देवभद्राचार्य को धन्यवाद है कि जिन्होंने सुपात्रों के स्थान में सुपात्र को ही पदारूढ़ किया और स्वर्गीय आचार्य जिनवल्लभसूरि जी ने इस लोक को त्यागते समय जो कहा था कि (४२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हमारे पद पर सोमचन्द्र गणि को स्थापित करना; उसे देवभद्राचार्य ने सफल किया है।" तदनन्तर श्री देवभद्राचार्य ने आचार्य जिनदत्तसूरि से प्रार्थना की-"आप कुछ समय तक पाटण सिवाय अन्य प्रदेशों में विचरण करें।" यह सुनकर जिनदत्तसूरि ने कहा-"बहुत अच्छा, ऐसा ही करेंगे।" ३१. एक समय जिनशेखर नामक साधु ने कलह आदि कुछ अनुचित कार्य किया, इसलिए देवभद्राचार्य ने उसे समुदाय से बाहर निकाल दिया। जब जिनदत्तसूरि जी बहिर्भूमिका के लिए बाहर गये तो उनकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ जिनशेखर मार्ग में ही महाराज के पैरों में आ गिरा और बड़ी दीनता के साथ कहने लगा-"महाराज! मेरे से यह भूल हो गई। आप एक बार क्षमा करें। आगे से इस प्रकार की उदण्डता कभी नहीं करूँगा।" दया के समुद्र श्री जिनदत्तसूरि जी ने भी कृपा करके उसे समुदाय में ले लिया। देवभद्राचार्य को यह मालूम होने पर उन्होंने आचार्य श्री से कहा-"इसको समुदाय में लेकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया। यह आपको कभी भी सुखावह न होगा।" यह सुन कर आचार्य श्री ने कहा-"यह सदा से ही स्वर्गीय आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि जी की सेवा में रहा है, इसको कैसे निकाला जाय? जब तक निभेगा तब तक निभायेंगे।" तत्पश्चात् देवभद्राचार्य जी अन्यत्र विहार कर गये। ३२. आचार्यश्री जिनदत्तसूरि जी ने "किस तरफ विहार करना चाहिए?" इसके निर्णयार्थ देवगुरुओं के स्मरण निमित्त तीन उपवास किए। उनके ध्यान बल से आकृष्ट होकर श्री हरिसिंहाचाय देवलोक से आये और बोले-"हमको स्मरण करने का क्या कारण है?" जिनदत्तसूरि जी ने कहा"मुझे किस तरफ विहार करना चाहिए? यह निर्णय प्राप्त करने के लिये मैंने आपको स्मरण किया है।" "मारवाड़ आदि की तरफ विहार करो।" ऐसा उपदेश देकर हरिसिंहाचार्य अदृश्य हो गये। देवयोग से उन्हीं दिनों मारवाड़ के रहने वाले मेहर, भाखर, वोसल, भरत आदि श्रावक व्यापारवाणिज्य के लिए वहाँ आये हुए थे। वे लोग गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी के दर्शन करके तथा उनका प्रवचन सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और उनको सदा के लिए अपना गुरु बनाया। उनमें भरत तो शास्त्रज्ञान के लिये वहीं रह गया और बाकी सब अपने-अपने घर जाकर कुटुम्बियों के सम्मुख गुरुजी के गुण-वर्णन करने लगे। इस प्रकार मारवाड़ में महाराज की प्रशंसा का सूत्रपात हो गया। वहाँ से विहार करके पूज्य श्री नागपुर पहुंचे। नागपुर के श्रावकों में मुख्य सेठ धनदेव महाराज की खूब सेवा भक्ति करता रहा। किसी दिन वह महाराज से कहने लगा कि-"महाराज! यदि आप मेरे वचन के अनुसार करें तो सब के पूज्य बन सकते हैं।" गुरु महाराज ने कहा-"कैसे?" धनदेव ने कहा"यदि आप अपने व्याख्यान में "आयतन-अनायतन" का झगड़ा छोड़ दें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सभी श्रावक आपके आज्ञाकारी बन जायँ।" उसका कथन सुनकर सूरि जी बोले"धनदेव! शास्त्रों में लिखा है-"श्रावक गुरु वचनानुसार चलें, किन्तु यह कहीं भी देखने में नहीं आया कि गुरु श्रावकों की आज्ञा का पालन करे (उत्सूत्र भाषण महान् दोष है)। यदि तुम कहते हो कि "अधिक परिवार के अभाव में हमारी मान-पूजा नहीं होगी" तो तुम्हारा यह कथन भी ठीक नहीं है। मुनिवरों ने कहा है : संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैवं मंस्था बहुपरिकरो जनो जगति पूज्यतां याति। येन घनतनययुक्तापि शूकरी गूथमश्राति॥ [अर्थात् आप यह न समझिये कि अधिक परिवार वाला आदमी जगत् में अवश्य ही पूज्य हो जाता है। पुत्र-पौत्रों के अधिक परिवार को साथ रखती हुई सूकरी मैले को खाती है।]" यह कथन धनदेव को नहीं भाया। प्रत्युत कर्ण-कटु मालूम हुआ। किसी को अच्छा लगे या न लगे, गुरुजनों को तो युक्तियुक्त ही कहना चाहिए। गुरु महाराज के ये वचन वहाँ बैठे हुए कतिपय विवेकशील पुरुषों को बड़े अच्छे मालूम हुए। महाराज श्री नागपुर (नागौर) से अजमेर गये। वहाँ पर ठाकुर आशाधर, साधारण, रासल आदि श्रावक इनके अनन्य भक्त थे। श्री जिनदत्तसूरि प्रतिदिन वहाँ पर बाहड़देव के मन्दिर में देववन्दना के लिए जाया करते थे। एक दिन वहाँ पर मन्दिराध्यक्ष चैत्यवासी आचार्य आ गया। वह इन महाराज से (दीक्षा-पर्याय आदि) प्रत्येक बात में छोटा था, तथापि मन्दिर में इनके साथ शिष्टाचार का पालन नहीं करता था। ठाकुर आशाधर आदि श्रावकों ने महाराज से कहा-"यहाँ आने से क्या फायदा, जबकि आपके साथ युक्त सद्व्यवहार नहीं बरता जाय।" उसी दिन से (मन्दिर में जाकर किया जाने वाला देव-वन्दना आदि) व्यवहार रुक गया। इसके बाद सब श्रावकों का एक समूह अजमेर के तत्कालीन राजा अर्णोराज के पास गया और राजा से निवेदन किया कि "हमारे गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज यहाँ आपकी नगरी में पधारे हैं।" राजा ने कहा-"यदि आये हैं तो बड़े आनन्द की बात है, आप लोग मेरे पास किस कार्य के लिए आये हैं। उस काम को कहो।" श्रावक बोले-"महाराज, हमको एक ऐसे भूमि खण्ड की जरूरत है, जहाँ पर हम लोग देव-मन्दिर, धर्मस्थान और अपने कुटुम्ब के लिये कुछ घर बनवा लें।" उनकी यह प्रार्थना सुन कर राजा ने कहा-"शहर से दक्षिण की ओर जो पहाड़ है उसके ऊपर और नीचे जो तुम्हारे जंचे सो बनवा लो। तुम्हारे गुरुजी के दर्शन हम भी करेंगे।" श्रावकों ने यह सारा वृत्तान्त गुरुजी से आकर कहा। सुनकर गुरुजी कहने लगे-"जबकि राजा स्वयं ही दर्शनों की अभिलाषा प्रकट करता है, तो आप लोग उनको अवश्य बुलावें। उनके यहाँ आने में अनेक लाभ हैं।" अच्छा दिन देखकर श्रावक लोगों ने राजा को आमंत्रित किया। राजा साहब आये और गुरुजी को सम्मान के साथ वन्दना की। आचार्य श्री ने राजा को इस प्रकार आशीर्वाद दिया श्रिये कृतनतानन्दा विशेषवृषसंगताः। भवन्तु भवतां भूप! ब्रह्मश्रीधरशंकराः॥ [हे राजन्! भक्तों को आनन्द देने वाले क्रम से गरुड़, शेषनाग और बैल पर चढ़ने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आपको कल्याणकारी हों।] महाराजश्री की विद्वत्ता देख कर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा-"भगवन् ! सदा हमारे यहाँ ही रहिये।" गुरुजी बोले-"राजन् ! आपने कहा तो ठीक, परन्तु हम साधुओं की मर्यादा ऐसी है कि हमें (४४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्थान पर अधिक दिन नहीं ठहरना चाहिए। सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से हमें सर्वत्र विहार करना पड़ता है। हाँ हम यहाँ पर सदा आते-जाते रहेंगे, जिससे कि आपको मानसिक सन्तोष होता रहे।" आचार्य श्री के साथ वार्तालाप से अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ राजा वहाँ से उठकर अपने स्थान को गया। उसके जाने के बाद पूज्यश्री ठाकुर आशाधर से बोले इदमन्तरमुपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति संपदियम्। विपदि नियतोदयायां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः॥ _ [स्वभाव से ही चंचल, यह लक्ष्मी जब तक पास में है, तब तक परोपकार जरूर करना चाहिए। विपत्ति का आना निश्चित है। विपत्ति आने पर धोखा करते रहो तो फिर परोपकार करने का मौका हाथ आना कठिन है। विपत्ति संपत्ति में यही अंतर है।] इसलिए आपको स्तंभन, शत्रुजय और गिरिनार के मन्दिरों के समान श्री पार्श्वनाथ स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी तथा श्री नेमिनाथ स्वामी के मन्दिर बनवाने चाहिए। उन मन्दिरों के ऊपर अम्बिका देवी की छतरी और नीचे गणधर आदि के स्थान बनाने चाहिए। आप सम्पत्तिशाली हैं। लक्ष्मी के सदुपयोग का यह अच्छा अवसर है। आप इससे लाभ उठाइये। लक्ष्मी का सर्वदा स्थायी रहना बड़ा मुश्किल है। ३३. आशाधर ठाकुर को इस प्रकार कर्त्तव्य का उपदेश देकर सूरीश्वर जी शुभ शकुन देखकर वागड़ देश की ओर विहार कर गए। पहले से ही वहाँ के लोग श्री जिनवल्लभसूरि जी महाराज के अनन्य भक्त थे। उनका देवलोकगमन सुन कर वहाँ वालों को बड़ा खेद हुआ था, परन्तु जब उन्होंने सुना कि उनके पाट पर विराजमान श्री जिनदत्तसूरि जी बड़े ही ज्ञानी, ध्यानी तथा महावीर स्वामी के वदनारविन्द से निकले हुए और सुधर्मा स्वामी गणधर रचित सिद्धान्तों के बड़े अच्छे ज्ञाता हैं, तो उनके आनन्द की कोई सीमा न रही। जब लोगों ने आकर यह समाचार सुनाया कि क्रियाकुशल, युगप्रधान, तीर्थंकरों के समान सद्गुरु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज अजमेर से विहार करके हमारी तरफ आ रहे हैं, तो लोग उनके दर्शनों के लिए बड़े ही आतुर हो उठे। जब महाराज वहाँ पधारे तो उनके दर्शन करके लोगों को हार्दिक सन्तोष हुआ। श्रावक लोगों ने महाराज से अनेक प्रकार से प्रश्न किये। सूरि जी ने केवलज्ञानी की तरह उन सब को यथोचित्त उत्तर दिया। महाराज के उपदेश से प्रभावित होकर कई लोगों ने सम्यक्त्व, कइयों ने देशविरति तथा कइयों ने सर्वविरति व्रत धारण किया। सुनते हैं कि वहाँ पर महाराज ने बावन साध्वियाँ और अनेक साधुओं को दीक्षा दी। ३४. उसी समय साधु जिनशेखर को उपाध्याय पद देकर कतिपय मुनियों के साथ विहार करा कर रुद्रपल्ली (वर्तमान रुदौली, उत्तरप्रदेश) भेज दिया। वहाँ पर वह अपने नाती-गोतियों (स्वजन वर्ग) की श्रद्धा वृद्धि करने के लिए तप करने में प्रवृत्त हो गया। चैत्यवासी जयदेवाचार्य ने अपने स्थान पर आने-जाने वाले लोगों से सुना कि जिनवल्लभसरि जी के पाट पर आरूढ सर्व गुण सम्पन्न, श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज आजकल हमारे इस (बागड़) प्रान्त में आये हुए हैं। उन्होंने सोचा इनका आना हमारे लिए बड़ा ही कल्याणकारी है। स्वर्गीय श्री जिनवल्लभसूरि जी ने चैत्यवास को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४५) 2010_04 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग कर श्री अभयदेवसूरि जी के पास वसति मार्ग स्वीकार किया था। तभी से हमारा मानसिक झुकाव वसति मार्ग की ओर है। वे अपने परिवार के साथ श्री जिनदत्तसूरि जी के दर्शन एवं वन्दना के लिए उनके पास आये। वन्दनादि शिष्टाचार के बाद सिद्धान्तानुसार मधुर वचनों से सूरि जी ने उनके साथ कुछ देर तक संभाषण किया। महाराज के मधुर वचनों से मुग्ध हुए जयदेवाचार्य ने अपने मन में सोचा कि-"जन्म-जन्मान्तर में हमारे गुरु ये ही हो।" शुभ दिनों में श्री जयदेवाचार्य ने उनके पास चारित्रोपसंपदा ग्रहण की। शास्त्रों में वर्णित सनत्कुमार चक्रवर्ती ने जिस प्रकार त्याग के बाद साम्राज्य-सम्पत्ति की ओर मुँह मोड़ कर नहीं देखा, वैसे ही श्री जयदेवाचार्य ने मठ, मन्दिर, उद्यान, कोश, खजाना आदि को छोड़कर उनकी तरफ जरा भी लक्ष्य नहीं किया। श्री जिनप्रभाचार्य नाम के एक चैत्यवासी आचार्य रमल विद्या के अच्छे जानकार होने से लोगों में खूब प्रसिद्ध हो चुके थे। वे घूमते-फिरते किसी समय तुर्कों के राज्य में चले गए। वहाँ पर उनको ज्ञानी समझ कर एक यवन ने पूछा-'मेरे हाथ में क्या वस्तु है?" सूरि जी ने गणित करके बतलाया कि-"तुम्हारे हाथ में बादाम, खड़िया मिट्टी का टुकड़ा और उसके साथ एक बाल भी है।" उसको बाल का पता नहीं था। जब मुट्ठी खोलकर देखा तो मृत्तिका खण्ड के साथ एक केश भी है। इस ज्ञान-बल को देख कर वह तुर्क बड़ा प्रसन्न हुआ और सूरि जी का हाथ पकड़ कर चूमता हुआ अपनी मातृ भाषा में "चंगा-चंगा" ऐसे बोला। (वह मुसलमान कोई बड़ा आदमी था। उसने चाहा कि इस साधु को अपने साथ में रखू) आचार्य ने सोचा-"ये यवन लोग प्रायः दुष्ट विश्वासघाती हुआ करते हैं। इनका कोई भरोसा नहीं, कदाचित् मुझे मार डालें।" इस कारण आचार्य जी वहाँ से रातोंरात भाग निकले और क्रमशः अपने देश में आ गये। देश में आने पर चैत्यवासियों में प्रसिद्ध श्री जयदेवाचार्य को श्री जिनदत्तसूरि जी के पास वसतिमार्ग के आश्रित हुए जान कर उनकी भी इच्छा वसतिमार्ग सेवन की हुई, परन्तु वसतिमार्ग के नियमों को असिधारा के समान कठिन समझ कर मन में झिझक गये। वसतिमार्ग के आचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी को अपना गुरु बनाया जाय या नहीं? इस बात का निश्चय करने के लिए उन्होंने रमल का पाशा डाला। प्रथम बार पाशा डालने पर गणित करने से श्री जिनदत्तसूरि जी का नाम आया। दूसरी बार भी पाशा डालने पर उन्हीं का नाम आया। तीसरी बार जब गणित करने लगे तो आकाश से एक अग्नि का गोला गिरा और आकाशवाणी हुई-"यदि तुम्हें शुद्ध धर्म मार्ग से प्रयोजन है तो क्यों बारम्बार गणित करते हो? इन्हीं को अपना गुरु मानकर धर्माचरण करो।" इस वाणी से संशय रहित होकर जिनप्रभाचार्य ने श्री जिनदत्तसूरि जी से चारित्रोपसंपदा ग्रहण की और अपनी आत्मा को सन्तोष दिया। उन्हीं दिनों में वहाँ रहते हुए अतिशय ज्ञानी श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के पास आकर चैत्यवासी श्री विमलचन्द्र गणि ने अपनी सम्प्रदाय के दो आचार्यों को उनके अनुयायी बने जानकर स्वयं भी वसतिमार्ग को स्वीकार किया। उसी समय जिनरक्षित और शीलभद्र नामक दो भ्राताओं ने भी अपनी माता के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। वैसे ही स्थिरचंद्र और वरदत्त नाम के दो भाइयों ने भी प्रव्रज्या स्वीकार की। (४६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहीं पर बागड़ देश में एक जयदत्त नाम का चैत्यवासी मुनि बड़ा मंत्रवादी था। उसके पूर्वज मंत्र विद्या में विख्यात थे, परन्तु वे पूर्वज क्रुद्ध हुई देवी से नष्ट कर दिये गए थे। केवल यह एक बचा था। यह वहाँ से भागा और जिनदत्तसूरि जी की शरण में आकर दीक्षित हो गया। सूरि जी ने दुष्ट देवता से इसकी रक्षा की। गुणचन्द्र गणि को भी सूरि जी ने यहीं बागड़ में दीक्षा दी। इनको जब ये श्रावक अवस्था में थे, तुर्क लोग पकड़ कर ले गये थे। इनका हाथ देखकर तुर्कों ने सोचा कि अपना भण्डारी अच्छा होगा। अतः यह कहीं भाग न जाए इस कारण से इनको जंजीर से जकड़ दिया गया था। परन्तु इन्होंने कैद की कोठरी में पड़े-पड़े नमस्कार मंत्र का एक लक्ष जाप किया। उस जाप के प्रभाव से सायंकाल जंजीर अपने आप छिन्न-भिन्न हो गई। वहाँ से निकल कर वे ढ़लती रात में एक दयालु बुढ़िया के घर में छिप कर रहे। बुढ़िया ने दया करके इनको अपनी धान्य कोठी में छिपा लिया था। तुर्कों ने इधर-उधर इनकी खूब खोज की, परन्तु ये मिले नहीं। रात में वहाँ से निकल कर जैसे-तैसे अपने घर आये। इस घटना से वैराग्य उत्पन्न होने से इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। रामचन्द्र गणि अपने पुत्र के साथ अन्य गच्छ की अपेक्षा उत्तम साधन जानकर सूरि का आज्ञाकारी बना। इसी प्रकार ब्रह्मचंद्र गणि ने भी इनसे व्रत ग्रहण किया। श्री जिनदत्तसूरि जी के पास जब साधु-साध्वियों का विशाल समुदाय हो गया, तो इन्होंने उनके सहयोगियों को चुन-चुन कर वृत्ति-पंजिका आदि टीका ग्रन्थ पढ़ने के लिये धारा नगरी में भेजा। उनमें जिनरक्षित, शीलभद्र, स्थिरचन्द्र, वरदत्त आदि साधु और श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री आदि साध्वियों के नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं। वहाँ पर इन्होंने श्रावक महानुभावों की सहायता से विद्याभ्यास किया। __ वहाँ से जिनदत्तसूरि जी महाराज ने रुद्रपल्ली की तरफ विहार किया। रास्ते के एक गाँव में एक श्रावक प्रतिदिन जबरदस्त व्यन्तर देव से सताया जाता था। वह गाँव मार्ग में आ गया। उस व्यन्तर पीड़ित श्रावक के पुण्य से महाराज वहीं ठहर गये। उस श्रावक ने महाराज के पास जाकर अपनी शरीर की अवस्था बताई। महाराज समझ गये कि इसके शरीर में जो व्यन्तर है वह बड़ा भयानक है और मंत्र-तंत्रों से साध्य नहीं है। महाराज ने गणधरसप्ततिका की रचना करके टिप्पण में लिखकर उसके हाथ में दिया और कहा-"तुम अपनी दृष्टि और मन इसमें स्थिर रखो।" ऐसा करने से वह व्यन्तर पहले दिन बीमार की शय्या तक पहुँचा, दूसरे दिन गृह द्वार तक और तीसरे दिन आया ही नहीं। वह पीड़ित श्रावक एकदम स्वस्थ हो गया। वहाँ से चलकर महाराज रुद्रपल्ली पहुंचे। जिनशेखरोपाध्याय जी वहाँ पहले से थे ही। महाराज का आगमन सुनकर स्थानीय श्रावक वृन्द को साथ लेकर वे उनके सम्मुख आये। बड़े आरोह-समारोह तथा गाजे-बाजे के साथ पूज्य श्री का नगर में प्रवेश कराया गया। रुद्रपल्ली के एक सौ बीस श्रावक कुटुम्बों को जिन धर्म में स्थिर किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी और ऋषभदेव स्वामी के दो मन्दिरों की सूरि जी ने प्रतिष्ठा की। कई श्रावकों ने (४७) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशविरति और कइयों ने सर्वविरति व्रत धारण किये। सर्वविरति व्रतधारकों में देवपाल गणि आदि मुख्य थे। उपदेश आदि से सब लोगों को समाधान देकर "जयदेवाचार्य को हम यहाँ भेज देंगे" ऐसा कह कर महाराज पुनः पश्चिम देश की ओर विहार कर गये। ३५. श्री जिनदत्तसूरि जी वहाँ से फिर बागड़ देश में आये। वहाँ व्याघ्रपुर में जयदेवाचार्य से भेंट हुई। महाराज ने जयदेवाचार्य को योग्य शिक्षा भलामण देकर रुद्रपल्ली भेज दिया और स्वयं व्याघ्रपुरी में रह कर श्री जिनवल्लभसूरि प्ररूपित, चैत्यगृहविधि स्वरूप "चर्चरी" काव्य की रचना की। उसको टिप्पन के आकार में लिखकर मेहर, वासल आदि श्रावकों को ज्ञान के लिए विक्रमपुर भेजा। विक्रमपुर में देवधर के पिता सण्हिया के घर के पास की पौषधशाला में एकत्रित होकर श्रावकों ने वह चर्चरी टिप्पण खोला। उसी समय उन्मत्त देवधर ने अचानक कहीं से आकर "चर्चरी टिप्पन क्या है कच्चरी टिप्पन है" ऐसे बोलते हुए चर्चरी टिप्पन श्रावकों के हाथ से छीन कर फाड़ डाला। ये लोग उस उन्मत्त का कुछ भी न कर सके। उसके पिता से शिकायत की तो उसने कहा"यह तो उन्मत्त है, इसका क्या इलाज किया जाय? तथापि हम उसे समझा देंगे। यह भविष्य में ऐसी हरकत नहीं करेगा।" श्रावकों ने सर्वसम्मति से पूज्यश्री को एक पत्र दिया। उसमें भेजी हुई चर्चरी पुस्तक के फाड़े जाने का हाल लिख दिया। पत्र लिखित समाचारों को जानकर पूज्य श्री ने दूसरा चर्चरी टिप्पन लिखवा कर भेजा और उसके साथ पत्र में यह भी लिखा कि-"देवधर को खोटी-खरी कुछ भी मत कहना। देव-गुरुओं की कृपा से यह थोड़े ही दिनों में सुधर जाएगा।" "चर्चरी" काव्य के दूसरे टिप्पन को पाकर सब श्रावकों ने एकत्र होकर उसे खोला और पढ़ने से सब को अतीव सन्तोष हुआ। देवधर को मालूम हुआ कि दूसरा टिप्पन आ गया है, तो उसने सोचा कि-"एक तो मैंने फाड़ डाला था। फिर भी आचार्य ने दूसरी बार भेजा है, तो जरूर इस पुस्तक में कुछ रहस्य छिपा हुआ है। जैसे भी हो यह बात जाननी चाहिए, प्रच्छन्नतया देखू इसके अन्दर क्या लिखा है?" एक दिन श्रावक लोग अपने नित्य नियम से निवृत्त होकर चर्चरीटिप्पन को स्थापनाचार्य के पास आले में रखकर पौषधशाला के कपाट बंद करके चले गए। देवधर को मौका मिल गया। वह अपने घर के उपरिभाग से उतरकर पौषधशाला में आ गया और यथास्थान रखे हुए उक्त टिप्पन को बड़े चाव से पढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों पढ़ता गया त्यों-त्यों गाथाओं का अर्थ समझने से मन में आह्लाद आने लगा। "अनायतनं बिम्बं", "स्त्री पूजां न करोति'' ये दो पद उसकी समझ में नहीं आए। पुस्तकोल्लिखित जैन धर्म के उच्च रहस्यों को समझकर उसके मन में जैन सिद्धान्तों के प्रति बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई और उसने अपने मन में यह संकल्प किया कि मैं भी इस मार्ग का अनुसरण करूँगा। इधर जिनदत्तसूरि जी महाराज ने बागड़ देश में रहते हुये जिन साधु-साध्वियों को विद्याभ्यास करने के लिए धारा नगरी भेजे थे, उन सब को वहाँ से बुला लिए और सभी को सिद्धान्तों का अभ्यास कराया। अपने दीक्षित जीवदेवाचार्य को मुनीन्द्र (आचार्य) पद की उपाधि दी और अन्य शिष्यों को वाचनाचार्य के पदों से सम्मानित किया, जिनके शुभ नाम ये हैं-वाचनाचार्य जिनरक्षित (४८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि, वा० शीलभद्र गणि, वा० स्थिरचन्द्र गणि, वा० ब्रह्मचन्द्र गणि, वा० विमलचन्द्र गणि, वा० वरदत्त गणि, वा० भुवनचंद्र गणि, वा० वरनाग गणि, वा० रामचन्द्र गणि, वा० मणिभद्र गणि और श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री, ज्ञानश्री, जिनश्री इन पाँच आर्याओं को महत्तरा पद से विभूषित किया। इसी प्रकार स्वर्गीय हरिसिंहाचार्य के सुयोग्य शिष्य मुनिचंद्र जो उपाध्याय पदवी धारक थे। इन मुनिचन्द्र जी ने श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज से प्रार्थना की थी कि-"यदि मेरा कोई योग्य शिष्य आपके पास आ जाये तो कृपया आप उसे आचार्य पद देने की उदारता दर्शावें।" महाराज ने यह बात स्वीकार कर ली। कुछ काल के बाद उनके शिष्य जयसिंह को, दिये हुए वचन के अनुसार चित्तौड़ में आचार्य की उपाधि दी और उसी जयसिंह के शिष्य जयचन्द्र को भी पाटण में समवसरण में मुनीन्द्र (सूरि) पद पर स्थापित किया और महाराज ने दोनों को उपदेश दिया कि-"देखो, रीति से पालन करना, कहीं क्रिया-काण्ड में असावधानी न होने पावे।" जीवानन्द को उपाध्याय पदारूढ़ किया। यहाँ यदि इन आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य प्रभृति प्रत्येक मुनिवरों का पद-स्थापना के स्थान, योग्यता, शिष्य-प्रशिष्य आदि का वर्णन करने लगें तो एक बड़ा विस्तृत ग्रंथ बन जाएगा। इसलिए संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिनदत्तसूरि जी महाराज ने आचार्यादि समस्त पदधारियों को भविष्य के लिए कर्त्तव्य समझा कर सब के विहार आदि के स्थान निश्चित कर दिये और महाराज स्वयं अजमेर की ओर प्रस्थान कर गये। अजमेर के भक्तिमान श्रावकों ने गाजे-बाजे के साथ ठाठबाट से पूज्य श्री का नगर प्रवेश कराया। ३६. वहाँ पर ठाकुर आशाधर आदि ने पहाड़ पर तीन देव मन्दिर एवं अम्बिका देवी आदि के स्थान बनवाये थे। श्रावकों की प्रार्थना से श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने अच्छा लग्न देखकर देवमन्दिरों के मूल निवेश में वासक्षेप किया और शिखर आदि मन्दिर के पार्श्ववती स्थानों में उन-उन मूर्तियों की स्थापना करवाई। यह पहले कहा जा चुका है कि विक्रमपुर में सण्हिया पुत्र देवधर चर्चरी टिप्पन के पढ़ने से सुविहित-पक्ष के प्रति अनुरक्त एवं भक्तिमान हो गया था। उसी देवधर ने कुटुम्ब के पन्द्रह श्रावकों को एकत्रित करके अपने पिता एवं सेठ आसदेव को सम्बोधन करके कहा-"श्री जिनदत्तसूर जी महाराज से यहाँ विक्रमपुर में पधारने हेतु विहार करने के लिये प्रार्थना करनी चाहिए।" यद्यपि ये लोग चैत्यवासी आचार्यों में श्रद्धा रखते थे, परन्तु प्रभावशाली देवधर के विरुद्ध बोलने का किसी को साहस नहीं हुआ। श्रावकों को साथ लेकर वह अजमेर के लिए चल पड़ा। मार्ग की थकावट दूर करने के लिए नागपुर में ठहरा। धनी मानी देवधर का विक्रमपुर से आना नागपुरवासियों को विदित हो गया। ३७. उस समय वहाँ पर चैत्यवासी देवाचार्य विशेष रूप से प्रसिद्ध हो रहे थे। देवधर भी कुछ सामान्य व्यक्ति नहीं था, खूब ख्याति प्राप्त था। वह "विक्रमपुर से आया है" ऐसा देवाचार्य ने सुना, इधर देवगृह में व्याख्यान का समय होने से देवाचार्य बैठे थे। तब देवधर अपने चरण प्रक्षालनादि कर देव-गृह में आया, प्रभु वन्दन कर आचार्य की वन्दना की। फिर दोनों ओर से सुखशाता और कुशलप्रश्न का शिष्टाचार हुआ। तत्पश्चात् श्रावक देवधर ने पूछा-"भगवन् ! जिस मन्दिर में रात्रि के समय स्त्रियों का प्रवेश आदि होता हो, उसे कैसा चैत्य कहना चाहिए?" इस प्रश्न को सुनकर देवाचार्य ने संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४९) ____ 2010_04 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोचा-"इसके कान में जिनदत्तसूरि का मंत्र प्रवेश कर गया मालूम होता है।" तदनन्तर देवाचार्य ने प्रकट में कहा-"श्रावक जी! रात्रि में स्त्री प्रवेशादि उचित नहीं है।" देवधर - तो आप लोग फिर निवारण क्यों नहीं करते? आचार्य - लाखों आदमियों के मध्य में किस-किस को निवारण किया जाए? देवधर - भगवन् ! जिस देव मन्दिर में जिनाज्ञा न चलती हो, जहाँ जिनाज्ञा की अवहेलना करके लोग स्वेच्छा से बर्तते हों उसे जिनगृह कहा जाय या जनगृह? इसका जवाब दीजिये। आचार्य - जहाँ पर साक्षात् जिन भगवान् की प्रतिमा भीतर विराजमान दिखाई देती हो उसे जिनमन्दिर क्यों नहीं कहना चाहिए? देवधर - आचार्य जी! इतना तो हम मूर्ख लोग भी समझ सकते हैं कि जहाँ पर जिसकी आज्ञा न मानी जाती हो, वह उसका घर नहीं कहा जा सकता। केवल पाषाणमय अर्हत् मूर्ति को भीतर रख देने से और अर्हन्तों की आज्ञा को त्याग कर मनमाना व्यवहार करने मात्र से ही जिन मन्दिर क्यों कर हो सकता है? आप इस बात को जानते हुये भी प्रचलित प्रवाह को नहीं रोकते हैं। यह मैंने आपको वन्दन कर सूचित कर दिया कि आप रोकते नहीं, प्रत्युतः इसको पुष्ट करते हैं। इसलिए ऐसे गुरुओं को आज से मेरी यह अन्तिम वन्दना है। अब से जहाँ तीर्थंकरों की आज्ञा का यथार्थ रूप से पालन होता है, उसी मार्ग का मैं अनुसरण करूँगा। इस प्रकार कह कर देवधर वहाँ से उठकर चल दिया। इस प्रश्नोत्तर को सुनकर साथ वाले स्वकुटुम्बी श्रावकों की भी विधिमार्ग में स्थिरता हो गई। देवधर श्रावक- वृन्द के साथ वहाँ से अजमेर गया। जिनदत्तसूरि जी महाराज की सेवा में पहुँच कर उसने भक्ति भाव पूर्वक वन्दना की। उनका अभिप्राय जान कर श्री सूरि जी ने देशना दी। देशना सुनने से देवधर के समस्त संशय दूर हो गये। देवधर आदि श्रावकों ने महाराज से विक्रमपुर विहार करने के लिए प्रार्थना की। अजमेर से देव-मन्दिर, प्रतिमा, अम्बिका, गणधर आदि की धूमधाम से प्रतिष्ठा करके सूरि जी महाराज देवधर के साथ विक्रमपुर आ गये। वहाँ पर बहुत से आदमियों को प्रतिबोध दिया और श्री महावीर स्वामी की स्थापना की। - ३८. वहाँ से पूज्य गुरुदेव उच्चानगरी गये। मार्ग में जो विघ्नकारी भूत-प्रेत आदि मिले उनको भी प्रतिबोध दे दिया, तो फिर उच्चावासी लोगों को उपदेश दिया, इसमें तो कहना ही क्या है? वहाँ से वे नरवर गये। नरवर के बाद त्रिभुवनगिरि गये। वहाँ के कुमारपाल (यादव) नाम के राजा को सदुपदेश दे प्रतिबोध दिया। वहाँ बहुत से साधु सन्तों को विहार करवाया एवं भगवान् शान्तिनाथ देव की प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से उज्जैन जाकर व्याख्यान के समय महाराज को छलने के लिए श्राविकाओं के वेश में आयी हुई चौसठ योगिनियों को प्रतिबोधित दिया। एक समय महाराज चित्तौड़ पधारे थे। नगर में प्रवेश के समय विघ्नप्रेमी लोगों ने काले सर्प को रस्सी से बाँध कर सूरिजी के सम्मुख ले आये। श्रावकों ने अपशकुन समझ कर गाजे-बाजे बंद (५०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवा दिये और सब पर विषाद छा गया तथा वे सब अत्यन्त दुःखी हुए। उनकी यह स्थिति देखकर ज्ञान के सूर्य श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज बोले-"आप लोग उदास क्यों हो गये हैं? जैसे यह काला सर्प रस्सी से बंधा है इसी तरह दूसरा भी जो हमारे प्रति द्वेष करते हैं वे भी इसी प्रकार जंजीरों से बांधे जाकर राजा द्वारा जेल खाने में डाले जायेंगे। इस बात का सूचक यह शकुन बहुत अच्छा है इसलिए जुलूस को आगे चलने दो?" जब कुछ दूर आगे पहुँचे तो दुष्टों ने अपशकुन के लिए ही एक नकटी औरत को सामने भेजा, वह आकर खड़ी हुई। उसको आगे खड़ी देखकर उसी की भाषा में पूज्य गुरुदेव बोले-"आई भल्ली''। उस दुष्टा ने प्रत्युत्तर दिया-"भल्लइ धाणुक्कई मुक्की।" कुछ हँसकर प्रतिभाशाली पूज्य श्री बोले-"पक्खहरा तेण तुह छिन्ना।" इसके बाद वह निरुत्तर हो वहाँ से चली गई। महाराज का प्रभाव देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इन महाराज ने अपने जीवन में अनेक आश्चर्यकारी कार्य किए। देवता लोग नौकरों की तरह सर्वदा इनका हुक्म उठाया करते थे। महाराज करुणा के समुद्र थे। महाराज श्री ने धारापुरी, गणपद्र आदि अनेक नगर, पुर, ग्रामों में महावीर, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, अजितनाथ आदि तीर्थंकरों की प्रतिमा, मन्दिर और शिखरों की स्थापना की थी। इन्होंने अपने ज्ञान बल से अपने बाद पाट की उन्नति करने वाले, रासल श्रावक के पुत्र जिनचन्द्रसूरि को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। उन्होंने इस भवन में भव्य पुरुषों को उसी प्रकार प्रतिबोध दिया जैसे सूर्य कमलों को बोध देता है। इस प्रकार श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज का यह जीवन चरित्र अति संक्षेप से कहा गया है। अस्तु! उस नकटी औरत के हट जाने पर महाराज बड़े समारोहपूर्वक नगर में प्रविष्ट हुए और वहाँ पर कई दिनों तक रह कर तीर्थंकर प्रतिमाप्रतिष्ठा आदि बहुत से महोत्सव करवाये। वहाँ से प्रस्थान करके आचार्य श्री अजमेर गये। अजमेर में वि०सं० १२०३ फाल्गुन सुदी ९ (नवमी) को जिनचन्द्रसूरि को दीक्षा दी गई। अन्य मनुष्यों से दुःसाध्य अति कठिन तपोबल के प्रभाव से बहुत ही उत्तमोत्तम विद्याएँ व मंत्र-तंत्र तथा यंत्रों के प्रभाव को महाराज श्री जिनदत्तसूरि जी ने जान लिये थे अतः ये महात्मा भक्तों के वांछित मनोरथ सफल करने में चिन्तामणि रत्न के समान थे। इन्होंने वि०सं० १२०५ को वैशाख सुदि षष्ठी के दिन रासल मंत्री के कुल रूपी आकाश मंडल में चलते हुए सूर्य मण्डल जैसे प्रतापशाली श्री जिनचन्द्रसूरि को अपने पाट पर बैठाया। उस समय श्री जिनचन्द्रसूरि की अवस्था केवल नौ ही वर्ष की थी, परन्तु इतनी छोटी अवस्था में ही ये महात्मा बड़े-बड़े विद्वानों के कान कतरते और सौभाग्य-भाजन अनेक गुणों के निधान थे। अपनी उपस्थिति में जिनचन्द्रसूरि को उत्तराधिकार देकर तथा करने योग्य समस्त कार्यों को विधिपूर्वक सम्पन्न करके अजमेर में ही वि०सं० १२११ में आषाढ़ वदि एकादशी को श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज इस अस्थिर संसार को त्याग कर देवताओं को दर्शन देने के लिए इन्द्र की प्रसिद्ध नगरी अमरावती पधार गये। १. प्रस्तुत गुर्वावली के अतिरिक्त अन्य सभी पट्टावलियों तथा चरित्रों में स्वर्गगमन की तिथि आषाढ़ शुक्ल ११ ही उल्लिखित है तथा परम्परा से मान्य भी है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (५१) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष जिनदत्तसूरि :- परवर्ती समस्त खरतरगच्छीय गुर्वावलीकारों एवं अनेक ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों एवं खरतरगुरुगुणवर्णनछप्पय में उल्लेख किया है कि महादेवी अम्बिका प्रदत्त युगप्रधान पद को ये अलंकृत करते थे। अम्बिकादत्त वह श्लोक निम्नलिखित है : दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीय पादाब्जतले लुठन्ति । मरुस्थली कल्पतरुः सभूजीयात्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः॥ ठकुरफेठ ने "खरतरगच्छीययुगप्रधान चतुष्पदिका" में अम्बिकादेवी के स्थान पर शासनदेवी का उल्लेख किया है। इसी समय से अम्बिकादेवी खरतरगच्छ की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रसिद्ध हुई। ग्रन्थकारों में इनके सम्बन्ध में जो विशेष जानकारी प्राप्त होती है, वह इस प्रकार है :एक लाख तीस हजार व्यक्तियों को मदिरा, मांस इत्यादि हिंसाजनक कार्यों का त्याग करवा कर उन्हें ओसवाल जाति में सम्मिलित कर ५२ गोत्रों की इन्होंने स्थापना की थी। यही कारण है कि सम्पूर्ण जैन समाज में श्रद्धालु उपासकों ने इनको प्रथम दादा गुरुदेव के नाम से सर्वदा स्मरण किया है। भारत के कोने-कोने में इनके चमत्कारों से प्रभावित होकर उपासना हेतु मन्दिरों में, स्तूपों में, दादावाड़ी शब्द से प्रचलित स्थानों में इनकी प्रतिमा और चरणचिह्न स्थापित हुए हैं और आज भी यह क्रम जारी है। इनके चमत्कारों से प्रभावित होकर लाखों जैन एवं जैनेतर भक्त इनकी आज भी पूजा एवं उपासना करते हैं और उनके मनोवांछित कार्य भी पूर्ण होते दिखाई देते हैं। सोमराजादि देवगण, पीर एवं योगिनियाँ भी इनके समक्ष सदैव उपस्थित रहा करती थीं। ये जैन आगम के तो उट्भट विद्वान् थे ही और प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत आदि भाषाओं पर भी इनका पूर्ण आधिपत्य था। चर्चरी, उपदेशरसायन आदि अपभ्रंश भाषा में रचित कृतियाँ अपभ्रंशकालीन रचनाओं में उत्कृष्ट कृतियाँ मानी जाती हैं। गुर्वावलीकार जिनपालोपाध्याय ने इनके स्वर्गवास की तिथि आषाढ़ वदि ११ लिखा है किन्तु इस गुर्वावली के अतिरिक्त अन्य समस्त गुर्वावलियों एवं जीवनवृत्तान्तों में स्वर्गगमन की तिथि आषाढ़ शुक्ल ११ का ही उल्लेख प्राप्त होता है और यही तिथि आज मान्य भी है। __कहा जाता है कि जिनदत्तसूरिजी महाराज की वह चादर जो दाह संस्कार के समय प्रज्ज्वलित चिता में भी जली नहीं थी, वह जैसलमेर ज्ञान भंडार में आज भी सुरक्षित है और पूजित है। जैसलमेर ज्ञान भंडार में उनके नामांकित स्वयं के स्वाध्याय के लिये कई ग्रन्थ प्राप्त होते हैं और उस समय उन ग्रन्थों की सुरक्षा हेतु चित्रित ४-५ काष्ठ पट्टिकायें प्राप्त होती हैं जिनमें (५२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी पर जिनदत्तसूरि के सम्मुख त्रिभुवनगिरि (वर्तमान-तिहुणगढ-भरतपुर) के राजा कुमारपाल बैठे हैं। किसी में सोमचन्द्र (दीक्षानाम) तो उनके सम्मुख दूसरे आचार्य बैठे हैं। इनमें से कुछ काष्ठ पट्टिकायें आज भी जैसलमेर ग्रन्थ भंडार में हैं और कुछ इधर-उधर चली गयी हैं। अजयमेरु नरेश अर्णोराज इनके भक्त थे। इनके द्वारा प्रदत्त जिस भूमि पर विधि चैत्य का निर्माण हुआ था उस चैत्य को विदेशी आक्रमणकारियों ने मस्जिद के रूप में बदल दिया। उक्त मंदिर के कई अवशेष इस मस्जिद के लगे हैं। यह मस्जिद आज अढ़ाई दिन का झोंपड़ा कहलाता है। अजमेर में मदार नामक एक टेकरी (छोटी पहाड़ी) है, उसके बारे में कहा जाता है कि वह जिनदत्तसूरि की साधनाभूमि थी। आज से ६० वर्ष पूर्व तक उस मदार पर चरणचिह्न तक विद्यमान थे, परन्तु वे आज वहाँ नहीं हैं, साथ ही स्थानीय जैन समाज का भी उस टेकरी से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। ___जिनदत्तसूरि के सम्बन्ध में कुछ असत् प्रलाप धर्मसागर जी ने किया, किन्तु उसका तत्काल ही उपा० जयसोम, उपा० गुणविनय आदि ने अपनी रचनाओं में सचोट उत्तर दे दिया था, अतः उसका यहाँ उल्लेख करना अनावश्यक प्रतीत होता है। स्व० श्री भंवरलाल जी नाहटा के मतानुसार महावीर स्वामी का मंदिर, डागों की गवाड़, बीकानेर में वि०सं० ११७६ मार्गसिर वदि ६ का एक लेख है। यह लेख एक परिकर पर उत्कीर्ण है। इसमें जांगलकूप दुर्ग नगर में विधि चैत्य-महावीर चैत्य का उल्लेख है। इसी वर्ष, माह और तिथियुक्त एक अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। यह अभिलेख चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर में संरक्षित एक प्रतिमा के परिकर पर उत्कीर्ण है। इन दोनों लेखों में "वीरचैत्ये विधौ” और “विधिकारिते" शब्द से ऐसा लगता है कि ये जिनदत्तसूरि द्वारा ही प्रतिष्ठापित रहे हैं। कुछ ऐसी भी जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिन पर स्पष्ट रूप से “प्रतिष्ठितं खरतरगणाधीश्वर श्रीजिनदत्तसूरिभिः" ऐसा शब्द उत्कीर्ण है। इसकी लिपि परवर्तीकालीन है। दूसरे इस समय तक खरतरगच्छ शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ था, अतः ये लेख अप्रमाणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं है। (बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक २१८३) 卐卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५३) 2010_04 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि : ३९. विक्रम संवत् १२१४ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने त्रिभुवनगिरि में सज्जनों के मन को हरने वाले श्री शान्तिनाथ प्रासाद के शिखर पर बड़े ठाठ-बाट के साथ सुवर्णकलश और सुवर्णमय ध्वजदण्ड का आरोपण किया। इसके बाद हेमदेवी गणिनी नाम की आर्या को प्रवर्तिनी पर देकर वि०सं० १२१७ में फाल्गुन शुक्ल दशमी के दिन मथुरा पहुँच कर पूर्णदेव गणि, जिनरथ, वीरभद्र, वीरजय, जगहित, जयशील, जिनभद्र आदि सहित श्री जिनपतिसूरि को दीक्षित किया । श्रा० क्षेमंधर नामक धनीमानी सेठ को उन्होंने प्रतिबोध दिया और उपर्युक्त वर्ष में ही वैशाख शुक्ल दशमी को मरुकोट में भगवान् चन्द्रप्रभस्वामी के विधिचैत्य में सुवर्णकलश और सुवर्णमय ध्वजदण्ड का आरोपण किया। ये कलश व ध्वजदण्ड साधु सेठ गोल्लक ने अपने निज के धन व्यय से तैयार करवाये थे । इस महोत्सव में सेठ क्षेमंधर ने पाँच सौ द्रम्म देकर माला ग्रहण की। वहाँ से महाराज उच्चानगरी में पहुँचे। वहाँ सं० १२९८ में ऋषभदत्त, विनयचन्द्र, विनयशील, गुणवर्द्धन और वर्द्धमानचन्द्र आदि पाँच साधु तथा जगश्री, सरस्वती, गुणश्री- तीन साध्वियाँ दीक्षित कीं। इन महाराज के शासन काल में साधु-साध्वियों की संख्या बढ़ने लगी। तत्पश्चात् सं० १२२१ में ये महाराज सागरपाड़ा पधारे। वहाँ पर श्रा० गणधर द्वारा बनाये गये श्री पार्श्वनाथ विधिचैत्य में देवकुलिका प्रतिष्ठित की। अजमेर पधार कर स्वर्गीय श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की । तदनन्तर बब्बेरक ग्राम में जाकर वाचनाचार्य गुणभद्र गणि, अभयचन्द्र, यशचन्द्र, यशोभद्र और देवभद्र इन पाँच शिष्यों को दीक्षा दी और इनके साथ देवभद्र की धर्मपत्नी को भी अधिकारिणी समझकर दीक्षित किया । आशिका नगरी में नागदत्त मुनि को वाचनाचार्य का पद दिया । महावन में श्रे० देवनाग निर्मापित श्री अजितनाथ भगवान् के मन्दिर की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की । इसी प्रकार इन्द्रपुर में वा० गुणचन्द्र गणि के पिता महलाल श्रावक द्वारा बनवाये हुए सुवर्णमय दण्डकलश, ध्वजा आदि की श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने प्राचीन पार्श्वनाथ भुवन में प्रतिष्ठित कर, अम्बिका शिखर पर भी सुवर्णकलश की स्थापना कर पूज्य श्री रुद्रपल्ली की ओर विहार कर गये । रुद्रपल्ली से आगे नरपालपुर में महाराज गये । 44 वहाँ पर ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान से गर्वित एक ज्योतिषी महाशय से पूज्य श्री की मुलाकात हुई । वाद-प्रतिवाद चलने पर महाराज ने कहा कि - "चर - स्थिर - द्विस्वभाव इन तीन स्वभाव वाले लग्नों में किसी लग्न का प्रभाव दिखाओ ।" ज्योतिषी जी के इन्कार करने पर सूरिजी ने कहा'स्थिर स्वभाव वाले वृष लग्न की स्थिरता का प्रभाव देखिये; वृष लग्न के उन्नीस से तीस अंशों तक के समय में और मृगशीर्ष मुहूर्त में श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के सामने एक शिला अमावस्या के दिन स्थापित की। यह १७६ वर्षों तक स्थिर रहेगी।" ऐसा कहकर पण्डित को जीत लिया। पण्डित लज्जित होकर अपने स्थान को गया । सुनते हैं उस शिला के ऊपर की भींत अब भी उक्त स्थान में ज्योंकि त्यों वर्तमान है । (५४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. महाराजश्री नरपालपुर से लौटकर फिर रुद्रपल्ली चले आये। वहाँ पर छोटी अवस्था वाले जिनचन्द्रसूरि जी किसी दिन चैत्यवासी मुनियों के मठ के पास होकर अपने शिष्यों के साथ बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे। मठाधीश श्री पद्मचन्द्राचार्य ने उनको देखकर मात्सर्यवश पूछा-"कहिए आचार्य जी! आप मजे में हैं?" पूज्यश्री ने कहा-"देव और गुरुओं की कृपा से हम आनन्द में हैं।" पद्माचन्द्राचार्य फिर बोले-"आप आज कल किन-किन शास्त्रों का अभ्यास कर रहे हैं?" महाराज के साथ वाले मुनि ने कहा-"पूज्यश्री आजकल "न्याय-कन्दली" ग्रन्थ का चिन्तन करते हैं।" पद्मचन्द्राचार्य-"तमोवाद (अंधकार प्रकरण) का चिन्तन किया है।" पूज्यश्री-"हाँ, तमोवाद प्रकरण देखा है।" पद्मचन्द्राचार्य-"अच्छी तरह से मनन कर लिया?" पूज्यश्री-"हाँ, कर लिया।" पद्मचन्द्राचार्य-"अंधकार रूपी है या अरूपी? अंधकार का कैसा रूप है?" पूज्य श्री-“अंधकार का रूप कैसा ही हो। इस समय इसके विवेचन की आवश्यकता नहीं है। राज सभा में प्रधान-प्रधान सभ्यों के समक्ष शास्त्रार्थ की व्यवस्था की जाये। तदनन्तर वादी-प्रतिवादी अपने-अपने युक्ति प्रमाणों के द्वारा इस विषय का मर्मोद्घाटन करें। यह निश्चित है कि स्वपक्ष स्थापन करने पर भी वस्तु अपना स्वरूप नहीं छोड़ती।" पद्मचन्द्राचार्य-"पक्ष स्थापना मात्र से वस्तु अपना स्वरूप छोड़े या न छोड़े, परन्तु तीर्थंकरों ने तम को द्रव्य कहा है। यह सर्वसम्मत है।" पूज्यश्री-“अन्धकार को द्रव्य मानने में कौन इन्कार करता है? परन्तु आचार्य जी प्रतिवादी को जीतना ऐसे-वैसे नहीं हो सकता।" इस प्रकार पूज्यश्री जिनचन्द्रसूरि जी वार्तालाप के समय ज्यों-ज्यों शिष्टता और विनयदर्शित किया वैसे-वैसे पद्मचन्द्राचार्य दर्प सीमा को पार कर गये। कोप के आवेग से उनकी आँखें लाल हो गईं और कहने लगे-"मैं जब प्रमाण रीति से "अन्धकार द्रव्य है" इसे स्थापित करूँगा, तब क्या तुम मेरे सामने ठहरने की योग्यता रखते हो?" पूज्यश्री-"किसकी योग्यता है, किसकी नहीं" इसका पता राज सभा में लगेगा। (यहाँ पर व्यर्थ ही पागल की तरह प्रलाप करना मुझे नहीं आता)। पशुओं की जंगल ही रणभूमि है। आप मुझे कम उम्र का समझ कर अपनी शक्ति को अधिक न बघारिए। मालूम है छोटे शरीर वाले सिंह की दहाड़ सुनकर पर्वताकृति गजराज मारे भय के भाग जाते हैं।" संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५५) 2010_04 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दोनों आचार्यों का यह विवाद सुनकर कौतुक देखने के लिए वहाँ पर बहुत से नागरिक लोग इकट्ठे हो गये। दोनों पक्ष के श्रावक अपने-अपने आचार्य का पक्ष लेकर एक-दूसरे को अहंकार दिखाने लगे। अधिक क्या कहें, यह मामला राज्याधिकारियों के समक्ष उपस्थिति किया गया। दोनों ओर से नियम कायदे निश्चित कर शास्त्रार्थ की व्यवस्था निर्धारित की गई। जिनचन्द्रसूरि जी जब दृढ़ता के साथ शास्त्रार्थ करने लगे, तो शास्त्रार्थ के प्रारम्भ में ही पद्मचन्द्राचार्य फिसल गये। उनका गर्व शास्त्रार्थ की प्रथमावस्था में ही भग्न हो गया। राजकीय अधिकारियों ने बड़ी सावधानी से वस्तु स्थिति को समझ कर उपस्थित दर्शकों के सामने ही राज्य की ओर से श्री जिनचन्द्रसूरि जी को विजय पत्र दिया। चारों ओर से सूरीश्वर का जय-घोष होने लगा। जिन शासन की लोगों में बड़ी प्रभावना हुई। इस आशातीत विजय के उपलक्ष्य में महाराज को बधाई देने के लिए अत्यन्त प्रसन्न हुए श्रावकों ने उत्सव मनाया। तत्पश्चात् पूज्यश्री के भक्त श्रावक "जयतिहट्ट" इस नाम से प्रसिद्ध हुये और पद्मचन्द्राचार्य के श्रावक लोगों के आक्षेप तथा उपहास के पात्र बनकर "तर्कहट्ट" इस नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार यशस्वी आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी कई दिनों तक वहाँ रहे। बाद में सिद्धान्तों में बतायी हुई विधि के अनुसार एक सार्थवाह के साथ वहाँ से विहार किया। ४१. मार्ग में चोर सिंदानक ग्राम के पास सारे ही संघ ने पड़ाव डाला। वहाँ पर म्लेच्छों ने भय से संघ को आकुल-व्याकुल देखकर पूज्यश्री ने पूछा-"आप क्यों व्याकुल हो रहे हैं?" संघ वालों ने कहा-"भगवन् ! आप देखिए म्लेच्छों की सेना आ रही है। इधर इस दिशा में धूल का बवंडर उठ रहा है और कान लगाकर ध्यान से सुनिये, फौज का होहल्ला सुनाई दे रहा है।" महाराज ने सावधान होकर सबसे कहा-"संघ स्थित भाइयों! धैर्य रखो, अपने ऊंट, बैल आदि चतुपष्दों को एकत्रित कर लो। प्रभु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज सब का भला करेंगे।" इसके बाद पूज्य श्री ने मंत्र ध्यानपूर्वक अपने दण्ड से संघ के पड़ाव के चारों और कोटाकार रेखा खींच दी। संघ के तमाम आदमी उस सीमा में घुसकर बैठ गये। उन लोगों ने घोड़ों पर चढ़े हुये, पड़ाव के पास होकर जाते हुये हजारों म्लेच्छों को देखा परन्तु म्लेच्छों ने संघ को नहीं देखा, केवल कोट को देखते हुये दूर चले गये। संघ के समस्त लोग निर्भय होकर आगे चले। दिल्ली में समाचार पहुँचा कि पिछले ग्राम से संघ के साथ पूज्य आचार्यश्री आ रहे हैं। खबर पाते ही दिल्ली के मुख्य-मुख्य श्रावक वन्दना करने के लिए बड़े समारोह के साथ सन्मुख चले। ठाकुर नोहट, सेठ पाल्हण, सेठ कुलचन्द्र और सेठ महीचंद आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नगर के मुखिया धनी, मानी, सेठ-साहूकार सुन्दर वस्त्राभूषण पहन कर अपने-अपने परिवार को साथ लेकर हाथी, घोड़ा, पालकी आदि श्रेष्ठ सवारियों पर चढ़ कर जब दिल्ली से बाहर जा रहे थे, तब अपने महल की छत पर बैठे हुए दिल्ली नरेश महाराजा मदनपाल (अनङ्गपाल) ने उन्हें जाते देखकर विस्मय के साथ मंत्रियों से पूछा-"आज ये नगर निवासी बाहर क्यों जा रहे हैं?" मंत्रियों ने कहा-"राजन् ! अत्यन्त सुन्दराकृति, अनेक शक्ति सम्पन्न इनके गुरु आये हैं। ये लोग भक्तिवश उनके सन्मुख जा रहे हैं।'' राजा लोग मनमौजी होते हैं, मन्त्रियों का कथन सुनकर राजाधिराज के मन में (५६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अभिलाषा हुई है कि ऐसे प्रभावशाली गुरु का दर्शन हम भी करें और उसी समय अश्वशालाध्यक्ष को आदेश दिया-"महासाधनिक! हमारे मुख्य घोड़े को सजाओ तथा नगर में उद्घोषणा करवा दो कि सब राजपूत घुड़सवार यहाँ आवें और लोक सजधज के साथ हमारे साथ चलें।" भूपति का आदेश पाते ही हजारों क्षत्रिय वीर अश्वारुढ़ होकर नरपति के साथ हो लिये। श्रावक लोगों के पहुंचने के पहले ही महाराजा मदनपाल पूज्य गुरुदेव के पास पहुँच गये। वहाँ पर पूज्यश्री के साथ वाले संघ के श्रेष्ठिगणों ने प्रचुर भेंट (नजराना) देकर राजा का सत्कार किया। पूज्य गुरुदेव ने भूपति जानकर कर्णप्रिय मधुर वाणी से राजा को धर्मोपदेश दिया। देशना सुनकर राजा ने कहा-"आचार्यवर! आपका शुभागमन किस स्थान से हुआ है?" पूज्यश्री ने कहा-"हम इस समय रुद्रपल्ली से आ रहे हैं।" राजा ने कहा-"आपश्री अपने चरण-विन्यास से मेरी नगरी (दिल्ली) को पवित्र कीजिए।" राजा के यह वाक्य सुनकर आचार्य महाराज मन ही मन सोचने लगे-"पूज्य गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने दिल्ली-प्रवेश का निषेध किया था। राजा चलने के लिए आग्रह कर रहा है। ऐसी स्थिति में क्या करें?" इस प्रकार आचार्यश्री दुविधा में पड़कर कुछ भी उत्तर नहीं दे सके। आचार्यश्री की मौन मुद्रा देखकर राजा बोले-"भगवन् ! आप चुप क्यों हो गये? क्या मेरे नगर में आपका कोई प्रतिपक्षी है? क्या आपके मन में यह आशंका है कि मेरे परिवार से उपयोगी आहार-पानी नहीं मिलेगा? अथवा और कोई कारण है, जिससे मार्ग में आये हुए मेरे नगर को छोड़कर आप अन्यत्र जा रहे हैं?" यह सुनकर आचार्यश्री ने कहा-"राजन्! आपका नगर धर्म-प्रधान क्षेत्र है।" यह सुनते ही बीच में महाराजा ने कहा-"तो फिर उठिये, दिल्ली पधारिये। आप विश्वास रखिये मेरी नगरी में आपकी तरफ कोई अंगुली उठाकर भी नहीं देख सकेगा।" इस प्रकार दिल्लीश्वर महाराजा मदनपाल के बारम्बार अनुरोध से जिनचन्द्रसूरि जी दिल्ली के प्रति विहार करने को प्रस्तुत हो गये। यद्यपि स्वर्गीय आचार्य श्रीजिनदत्तसूरि जी के दिल्ली गमन निषेधात्मक अन्तिम उपदेश के त्यागने से उनके हृदय में मानसिक पीड़ा अवश्य थी, परन्तु भावी के वश होकर आचार्यश्री राजा के प्रेम भक्ति के प्रभाव में आकर दिल्ली चल दिये, अस्तु। जैनाचार्य के शुभागमन के उपलक्ष्य में सारा नगर सजाया गया। चौबीस प्रकार के बाजे बजने लगे। भाट-चारण लोग विरुदावली पढ़ने लगे। गगनचुम्बी विशाल भवनों पर ध्वजा पताकाएँ फहराने लगीं। वसंत आदि मांगलिक गाने गाये जा रहे थे। नर्तकियाँ नाच रही थीं। महाराज के मस्तक पर छत्र विराजमान हो रहा था। लाखों आदमी जुलूस के साथ चल रहे थे। स्वयं दिल्लीपति महाराजा मदनपाल अपनी बाँह पकड़ाये हुये महाराजश्री के आगे चल रहे थे। वन्दरवार और तोरणों से सभी गृह-द्वार सजाये गये थे। "चौबीसी" गाती हुई हजारों रमणियों का झुण्ड छतों पर से आचार्यश्री के दर्शन करके अपने को धन्य मान रही थीं। ऐसे अभूतपूर्व समारोह के साथ सूरीश्वर ने भारत की परम्परागत प्रधान राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया। महाराज के विराजने से नगर-निवासियों में राजा से रंक तक नवजीवन का संचार हो गया। उपदेशामृत की झड़ी से अनेक लोगों की सन्तप्त आत्मा को शान्ति पहुँची। इस प्रकार वहाँ रहते हुये कई दिन बीत गये। ४२. एक दिन दयालु स्वभाव वाले महाराज ने अनन्य भक्त श्रेष्ठि कुलचन्द्र को धनाभाव के संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५७) _ 2010_04 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण अर्थ- दुर्बल देखकर केसर, कस्तूरी, गोरोचन आदि सुगन्धित पदार्थों की स्याही से मंत्राक्षर लिखकर एक " यन्त्रपट " दिया और कहा - " कुलचन्द्र ! इस यन्त्रपट को अपनी मुट्ठी भर अष्ट गंध चूर्ण से प्रतिदिन पूजन करना । यन्त्र पर चढ़ा हुआ यह चूर्ण पारे आदि के संयोग से सुवर्ण बन जाएगा।" पूज्यश्री की बताई हुई विधि के अनुसार यंत्र की पूजा करने से श्रेष्ठि कुलचन्द्र कालान्तर में करोड़पति हो गया । ४३. नवरात्र की नवमी के दिन पूज्यश्री नगर के उत्तर द्वार होकर बहिर्भूमिका के लिये जा रहे थे। मार्ग में मांस के लिए लड़ती हुई दो मिथ्या दृष्टि वाली देवियों को देखा । करुणार्द्र हृदय सूरिजी ने उनमें से अधिगाली नामक देवी को प्रतिबोध दिया। उस देवी ने सदुपदेश से शान्त-चित्त होकर पूज्यश्री से निवेदन किया- " भगवन्! आज से मैं मांस-बलि का त्याग करती हूँ, परन्तु कृपा करके मुझे रहने के लिए स्थान बतलाइये, जहाँ पर रहते हुये मैं आपके आदेश का पालन कर सकूँ ।" उसके सन्तोष के लिए पूज्यश्री ने कहा- "देवीजी ! श्री पार्श्वनाथ भगवान् के विधिचैत्य में तुम चले जाओ और वहाँ प्रवेश करते हुए दक्षिण स्तम्भ में रहो।" देवी को इस प्रकार आश्वासन देकर महाराज पौषधशाला में गए। श्रेष्ठि लोहट, कुलचन्द्र, पाल्हण आदि प्रधान श्रावकों से कहा-' -" पार्श्वनाथ मन्दिर में प्रवेश करते दक्षिण स्तम्भ में अधिष्ठायक मूर्ति बनवा दो । वहाँ मैंने एक देवी को स्थान दिया है।" आदेश पाते ही श्रावकों ने सब कार्य सम्पन्न कर दिया। पूज्यश्री ने प्रतिष्ठा करवा दी। अधिष्ठातृ का नाम अतिबल रखा गया । श्रावकों की ओर से उसके लिए अच्छे भोग का प्रबन्ध कर दिया गया। अतिबल ( नामक प्रतिष्ठित देवता) भी श्रावकों के अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करने में प्रवृत्त हुआ । I वि०सं० १२२३ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज चतुर्विध संघ से क्षमा प्रार्थना करके अनशन विधि के साथ द्वितीय भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन इस संसार को त्याग करके देवलोक को प्रयाण कर गये। ४४. शरीर त्यागते समय महाराज ने अपने पार्श्ववर्ती लोगों से कहा था कि- "नगर से जितनी दूर हमारा दाह संस्कार किया जायेगा, नगर की आबादी उतनी ही दूर तक बढ़ेगी।" इस गुरुवचन को याद करके उपासकगण महाराजश्री के मृत शरीर को अनेक मण्डपिकाओं से मण्डित विमान में रखकर शहर से बहुत अधिक दूर ले गए। वहाँ पर भूमि पर रखे हुए पूज्यश्री के विमान को देखकर तथा जगत्त्रय को आनन्ददायक गुणों का स्मरण करके प्रधानगीतार्थ साधु गुणचन्द्रगणि शोकाश्रु पूर्ण गद्गद्वाणी से महाराज जी की स्तुति करने लगे (५८) चातुर्वर्ण्यमिदं मुदा प्रयतते त्वद्रूपमालोकितुं, मादृक्षाश्च महर्षयस्तव वचः कर्तुं सदैवोद्यताः । शक्रोऽपि स्वयमेव देवसहितो युष्मत्प्रभामीहते, तत्किं श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरो ! स्वर्गं प्रति प्रस्थितः ॥ १ ॥ 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यं च निरर्थकं समभवनिर्लक्षणं लक्षणं, मन्त्रैर्मन्त्रपरैरभूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम्। कैवल्याज्जिनचन्द्रसूरिवर! ते स्वर्गाधिरोहे हहा! सिद्धान्तस्तु करिष्यते किमपि यत्तन्नैव जानीमहे ॥ २॥ प्रामाणिकैराधुनिकैर्विधेयः, प्रमाणमार्गः स्फुटमप्रमाणः॥ हहा! महाकष्टमुपस्थितं ते, स्वर्गाधिरोहे जिनचन्द्रसूरे!॥३॥ [हे सुगुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज! चारों वर्गों के लोग सदैव आपका दर्शन करने के लिए नित्य सहर्ष प्रयत्न किया करते थे। तथैव मेरे जैसे साधुगण सर्वदा आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत रहा करते थे। फिर भी आप हम निरपराध लोगों को छोड़कर स्वर्ग पधार गये। इसका एकमात्र कारण हमारी समझ में यही आया है कि देवताओं के साथ स्वयं देवराज इंद्र भी बहुत समय से आपके दर्शनों की प्रतीक्षा करता था॥ १॥ आपश्री के स्वर्ग पधारने से साहित्य-शास्त्र निरर्थक हो गया, अर्थात् आप ही उसके पारगामी मर्मज्ञ थे। वैसे ही न्यायशास्त्र लक्षण-शून्य हो गया। आपका आश्रय टूट जाने से निराधार मंत्रशास्त्र के मंत्र परम्पर में मंत्रणा करते हैं कि अब हमें किसका सहारा लेना चाहिए, अर्थात् आप मंत्र शास्त्रों के अद्वितीय ज्ञाता थे। इसी प्रकार ज्योतिष की अवान्तर भेद रमल विद्या ने आपके वियोग में वैराग्यवश मुक्ति का आश्रय लिया है। अब सिद्धान्त शास्त्र क्या करेंगे? इसका हमें ज्ञान नहीं है ॥ २॥ आधुनिक मीमांसकों के लिए मीमांसा शास्त्र का प्रमाण मार्ग अप्रमाण स्वरूप हो गया है, क्योंकि उसका विशेषज्ञ अब इस धराधाम पर नहीं रहा। श्रीजिनचन्द्रसूरि जी! आपके स्वर्गाधिरोहण से सब शास्त्रों में हलचल मच गई है ॥ ३॥] इस प्रकार गुरु-गुण-गान करते-करते गुणचन्द्र गणि अधीर हो गये। आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। इसी तरह अन्य साधु वर्ग भी गुरु-स्नेह से विह्वल हो परस्पर में पराङ्मुख होकर अश्रुपात करने लगे। उपस्थित श्रावक वर्ग भी वस्त्रांचल से नेत्र ढांक कर हिचकियाँ लेने लगे। क्षणान्तर में गुणचन्द्र गणि स्वयं धैर्य धारण करके इस अप्रिय दृश्य को रोकने के लिए साधुओं को सम्बोधन करके कहने लगे-"पंचमहाव्रतधारी मुनिवरों! आप लोग असंतोष न करें और अपनीअपनी आत्मा को शान्ति दें। पूज्यश्री ने स्वर्ग सिधारते समय मुझे आवश्यक कर्त्तव्य का सब निर्देश कर दिया है। जिस तरह आप लोगों के मनोरथ सिद्ध होंगे वैसा ही किया जायेगा। इसलिए आप लोग मेरे पीछे-पीछे चले आवें।" इस तरह दाह संस्कार स्थान में साधु योग्य क्रियाकलाप को सम्पादित कर सब मुनिजनों के साथ सर्वादरणीय भाण्डागारिक गुणचन्द्र गणि पौषधशाला में आ गये। कुछ दिन दिल्ली में रहने के बाद चतुर्विध संघ के साथ भाण्डागारिक गुणचन्द्र गणि बब्बेरक की तरफ विहार कर गये। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५९) 2010_04 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष मणिधारी जिनचन्द्रसूरि :- प्रस्तुत गुर्वावली में जिनपालोपाध्याय ने जिनचन्द्रसूरि के बचपन के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है बल्कि इसके लिये रासलनन्दन शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु पं० बेचरदासजी दोशी ने अपनी लघुकाव्यकृति जिनचन्द्रसूरिकाव्यकुसुमांजलि में इनके बचपन का नाम सूर्यकुमार दिया है । अत्यल्प अवस्था में भी ये न्याय और दर्शन के उद्भट विद्वान् थे । यह बात गुर्वावली में उल्लिखित पद्मचन्द्राचार्य से हुए शास्त्रार्थ से स्पष्ट है । यह उल्लेखनीय है कि तम अर्थात् अन्धकार द्रव्य है या नहीं, इस विषय पर इनका पद्मचन्द्राचार्य से शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें इन्हें विजय प्राप्त हुई थी। जैसलमेर ज्ञान भंडार में आचार्य आनन्दवर्धनकृत ध्वन्यालोकलोचन की एक प्रति संरक्षित थी । इस प्रति की लेखन प्रशस्ति निम्नलिखित है १. २. ३. ४. ५. पूर्णं चेदं काव्यालोकलोचनं ... लब्धप्रसिद्धेः श्रीमदाचार्याभिनवगुप्तस्य ॥ छ ॥ समाप्तं चेदं लोचनग्रन्थः ॥............... ध सु? रवौ ॥ श्रीमजिनवल्लभसूरिशिष्यः श्रीमज्जिनदत्तसूरिः प्रवरविधिधर्मसर ... प्रतिवादिकरटिकरटविकटर दपा ... चरणेन्दीवरमधुकरो विज्ञातसकलशास्त्रार्थः.. जिनचन्द्रनाम्नाऽलेखि.. इस पुष्पिका की अंतिम पंक्ति में जिनदत्तसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि ( जिनचन्द्रनाम्नाऽलेखि) का नाम स्पष्टतः लिखा गया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उन्होंने स्वयं लिखा था या स्वयं के लिए लिखवाया था। इस पुष्पिका में 'संवत्' का अंश नष्ट हो जाने से यह अनुमान करना असंगत न होगा कि जिनचन्द्रसूरि का पदाभिषेक सं० १२११ और स्वर्गवास सं० १२२३ है, अतः यह ग्रन्थ भी सं० १२११ और सं० १२२३ के मध्य में लिखा गया होगा । (६०) पुष्पिका में प्रदत्त 'प्रतिवादिकरटिकरटविकटरद........ विज्ञातसकल-शास्त्रार्थ' विशेषणों से स्पष्ट है कि आचार्य स्वमत और परमत के समस्तशास्त्रों के उद्भट विद्वान् और प्रतिवादियों के लिये पंचानन के समान हैं। जिनपालोपाध्याय प्रणीत 'खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में लिखा है कि आचार्य का रुद्रपल्ली में पद्मचन्द्राचार्य के साथ तम (अन्धकार) द्रव्य है या नहीं ? इस विषय पर शास्त्रार्थ हुआ था और इसमें मणिधारीजी विजयी रहे थे । पूर्वोक्त विशेषणों से इस प्रसङ्ग की प्रासंगिक रूप में पुष्टि होती है । न जिनविजय जी ने भारतीय विद्या, भाग-३ में इसके अन्तिम पत्र की प्रतिलिपि प्रकाशित है । उक्त प्रतिमुनि जिनविजय जी सम्पादन हेतु जैसलमेर से ले आये, परन्तु न तो वे उसे सम्पादित ही कर सके और न ही जैसलमेर ग्रन्थ भंडार को लौटा सके। उनके स्वर्गवास के 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात् यह प्रति आज राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में संरक्षित है। मुनि जी ने इसका लेखनकाल वि०सं० १२०४ माना है और अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया है। कागज पर लिखित होने के कारण यह अब तक भारत में प्राप्त प्राचीनतम प्रतिलिपि है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने भी जिनदत्तसूरि प्रवर्तित वर्णन जैन बनाने की परम्परा में जैनेतरों को प्रतिबोध देकर मंत्रिदलीय (महतियाण) ज्ञाति की स्थापना कर जिनशासन की प्रभावना की । इस ज्ञाति के लोग अधिकांशतः उत्तरप्रदेश और बिहार प्रान्त में निवास करते थे। संभवतः यह जाति बाद में श्रीमाल जाति में सम्मिलित हो गयी । इनके भालस्थल पर मणि थी, इसीलिये ये मणिधारी के नाम से भी जाने जाते रहे। द्वितीय दादागुरु के रूप में भी इन्हें पूज्य माना जाता है। इनका स्वर्गवास स्थल मेहरौली (दिल्ली) है, जहाँ इनके प्राचीनतम चरणचिह्न स्थापित हैं । यह स्थान भी चमत्कारपूर्ण माना जाता है। परवर्ती गुर्वावलीकारों के अनुसार इन्होंने अपनी मृत्यु से पूर्व ही श्रावकों से कहा था कि दाह संस्कार के समय एक पात्र में दूध वहाँ पर रखा जाये, किन्तु वियोगव्यथा में श्रावकगण यह बात भूल गये । एक योगी को यह बात किसी तरह ज्ञात हो गयी थी और उसने उक्त विधि से वह मणि प्राप्त कर ली। यह भी कहा जाता है कि उक्त योगी ने अपनी वृद्धावस्था में जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर को तदनुरूप अतिशययुक्त मानकर और उनकी परीक्षा लेकर वह मणि उन्हें सौंप दी। बाद में वह मणि कहाँ गयी इसका कुछ पता नहीं लगता । बाडी पार्श्वनाथ ग्रन्थ भंडागार, पाटन में सटीक हैमानेकार्थसंग्रह की वि०सं० १२८२ में लिखी गयी प्रति संरक्षित है। इसके पद्यांक ५-६ का सारांश यह है कि मरुकोट्ट नगर के राजा सिंहबल की सम्मति से धर्कटवंशीय गोल्ल नामक श्रावक ने चन्द्रप्रभ का मंदिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा जिनचन्द्रसूरि से करवायी । इस प्रशस्ति में जिनचन्द्रसूरि के लिये वादिगजकेशरी ऐसा विशेषण प्रयुक्त किया गया है। यह प्रशस्ति जिनपतिसूरि के श्रावक शिष्य द्वारा लिखवायी गयी थी। (द्रष्टव्य-मुनि जिनविजय जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, भाग -१, प्रशस्ति क्रमांक ८) 蛋蛋 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (६१) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि ४५. वहाँ पर संघ के प्रधान पुरुषों की सम्मति लेकर बड़े गाजे-बाजे और ठाठ-बाट के साथ जिनचन्द्रसूरि के पाट पर आचार्य योग्य छत्तीस गुणों से अलंकृत चौदह वर्ष की आयु वाले नरपति स्वामी नाम के ब्रह्मचारी को बिठाया गया। पाट पर आरूढ़ होने के पश्चात् इनका नाम परिवर्तन करके जिनपतिसूरि रखा गया। पाटारोहण सम्बन्धी सारा कार्य स्वर्गीय जिनदत्तसूरि जी महाराज के वयोवृद्ध शिष्य श्री जयदेवाचार्य के तत्वावधान में सम्पन्न हुआ। जिनपतिसूरि जी का जन्म वि०सं० १२१० में विक्रमपुर में हुआ था। उनकी दीक्षा सं० १२१७ की फाल्गुन शुक्ला १० को हुई थी और वे सं० १२२३ कार्तिक सुदि १३ को पाट पर आरूढ़ हुए। इनकी दीक्षा में अनेक देश-देशान्तरों से लोग आये थे। आगन्तुकों के आथित्य में एक हजार १०००/- रुपयों का व्यय भार श्री सेठ मानदेव जी ने उठाया था। श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के समय में वाचनाचार्य पद को धारण करने वाले श्री जिनभद्राचार्य को आचार्य पद देकर श्रीसंघ ने द्वितीय श्रेणी का आचार्य बनाया। उसी स्थान पर श्री जिनपतिसूरि जी ने सर्वप्रथम पद्मचन्द्र, पूर्णचन्द्र नाम के दो गृहस्थों को प्रतिबोध देकर साधु-व्रत में दीक्षित किया। तत्पश्चात् सं० १२२४ में विक्रमपुर में गुणधर, गुणशी, पूर्णरथ, पूर्णसागर, वीरचंद्र और वीरदेव को क्रम से तीन नन्दियों की स्थापना करके दीक्षा दी। महाराज ने जिनप्रिय मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया। सं० १२२५ में पुष्करणी नामक नगर में सपत्नीक जिनसागर, जिनाकर, जिनबन्धु, जिनपाल, जिनधर्म, जिनशिष्य, जिनमित्र को पंचमहाव्रतधारी बनाया। महाराज ने पुनः विक्रमपुर में आकर जिनदेवगणि को दीक्षा दी। इसके बाद सं० १२२७ में पूज्यश्री उच्चानगरी में आये और वहाँ पर धर्मसागर, धर्मचन्द्र, धर्मपाल, धर्मशील, धनशील, धर्ममित्र और इनके साथ धर्मशील की माता को भी दीक्षित किया। जिनहित मुनि को वाचनाचार्य का पद दिया गया। वहाँ से महाराज मरुकोट आये, मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और शीलसागर की बहन अजितश्री को संयम व्रत दिया। सं० १२२८ में पूज्यश्री सागरपाड़ा पहुँचे। वहाँ पर सेनापति अम्बड़ तथा दुसाझ गोत्रीय सेठ साढ़ल के बनाये हुये अजितनाथ स्वामी तथा शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी वर्ष बब्बरेक गाँव में भी विहार कर पधारे। वहाँ से आशिका नगरी के श्रावकों को पता लगा कि महाराज पास के गाँव में पधार गये हैं, तो आशिका के राजा भीमसिंह को साथ लेकर श्रावक वर्ग महाराज के पास पहुंचा। वन्दना-नमस्कार व्यवहार के बाद आज पूज्यश्री ने कुशल प्रश्न किया तो राजा ने स्वरूपवान और लघुवय वाले आचार्य के वचनों में अत्यधिक मधुरता देखकर कुछ उपदेश सुनाने के लिए प्रार्थना की। सूरीश्वर ने राजनीति के साथ धर्म का उपदेश दिया। अवसर देखकर राजा ने केलिवश कहा-"भगवन् ! हमारे नगर में एक दिगम्बर महाविद्वान् हैं। क्या उसके साथ आप शास्त्रार्थ करेंगे?" महाराज की सेवा में बैठे हुए जिनप्रिय उपाध्याय ने कहा-"राजन्! हमारे धर्म में चल कर (६२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी से विवाद करना उचित नहीं माना है, परन्तु यदि कोई अभिमानी पंडित अपना सामर्थ्य दिखलाता है और जिनशासन की अवहेलना करता हुआ हमें व्यर्थ ही खिन्न करता है तो, हम पीछे नहीं हटते हैं। जैसे-तैसे उसका मान-मर्दन करके ही हमें शान्ति मिलती है।" राजा ने पूज्यश्री की तरफ इशारा करते हुए कहा कि-"क्या ये ठीक कहते हैं?" पूज्यश्री ने कहा-"बिल्कुल ठीक कहते हैं?'' फिर उपाध्याय जी बोले-"ज्ञान की अधिकता से हमारे गुरु समर्थ ही हैं, परन्तु धार्मिक मर्यादा के अनुसार ज्ञान का अभिमान नहीं करते हुये भी अपनी शक्ति से धर्म में बाधा देने वाले प्रतिवादी को सब लोगों के सामने घमंड के पहाड़ से नीचे उतार सकते हैं।" फिर राजा ने पूछा-"आचार्य जी! आपके ये पण्डित जी क्या कहते हैं?" पूज्यश्री ने कहा ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः। अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते॥१॥ [ज्ञान, अभिमान और मोह को दूर करता है, जो मनुष्य ज्ञान को पाकर भी घमंड करे, उसका वैद्य कोई नहीं है। जिसको अमृत भी जहर लगे, उस पुरुष की चिकित्सा किस प्रकार की जाय? अर्थात् विद्या का पहला फल विनय प्राप्ति है।] इस प्रकार अनेक प्रकार के सदुपदेशों से राजा का हृदय आवर्जित हो गया। राजा ने कहा"आचार्यवर! अब देर क्यों करते हैं? हमारे नगर में प्रवेश करने के लिए काफी समय लगेगा।" अधिक क्या कहें, राजा तथा श्रावकों का अनुरोध मान कर महाराज आशिका को गये। भूपति भीमसिंह जी व चतुर्विध संघ के साथ पूर्वोक्त दिल्ली प्रदेश की तरह आशिका में प्रवेश किया। ४६. वहाँ पर रहते हुए किसी दिन अपने बहुत से अनुयायी साधुओं के साथ महाराज बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे। उस समय सामने से आते हुए महा प्रामाणिक दिगम्बराचार्य नगर द्वार के पास मिल गये। महाराज ने सुखशाता प्रश्न के बहाने उसके साथ वार्तालाप शुरु किया। उसी प्रसंग में सज्जनता के विवेचन के लिए श्लोकों की व्याख्या चल पड़ी। किसी पद की व्याख्या में मतभेद होने के कारण विवाद जरा कुछ अधिक बढ़ गया। उस प्रसंग को सुनने के लिए उत्सुक कतिपय नागरिक पुरुष एवं राजकीय पुरुष भी वहाँ उपस्थित हो गये। पूज्यश्री की सिंह गर्जनवत् स्फूर्ति एवं प्रमाण सहित युक्ति तथा तर्कों को देख सुन कर सभी लोग कहने लगे-"छोटे से श्वेताम्बराचार्य ने पण्डितराज दिगम्बराचार्य को जीत लिया।" वहाँ पर उपस्थित मंत्री दीदा, कक्करिउ, काला आदि राजकीय कर्मचारियों ने राजसभा में जाकर राजा भीमसिंह के समक्ष कहा-राजाधिराज! आप उस दिन जिन आचार्य के सम्मुख गए थे, उन अल्पवयस्क आचार्य ने स्थानीय दिगम्बराचार्य को जीत लिया। राजा सुनकर बहुत प्रफुल्लित हुआ और बोला-क्या यह बात सत्य है? संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (६३) 2010_04 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे बोले-राजन्! यह बात एकदम सत्य है। इसमें हँसी नहीं है। राजा ने पूछा-कहाँ और किस प्रकार उनका शास्त्रार्थ हुआ? उन्होंने प्रसन्नचित्त से शहर के दरवाजे के पास जो जिस प्रकार सारी जनता के समक्ष चर्चा-वार्ता हुई वह सारी कह सुनाई। सुनकर राजा जी कहने लगे-“पुरुषार्थ प्राणियों के समस्त सम्पत्तियों का हेतु है। इस विषय में बड़ेपन और छोटेपन का कोई मूल्य नहीं है। मैंने उनकी आकृति देख कर उसी दिन जान लिया था, इनके आगे दिगम्बर हो या और कोई विद्वान, ठहर नहीं सकता।" इस प्रकार राजा ने भरी सभा में जिनपतिसूरि जी की अधिकाधिक प्रशंसा की। इसी वर्ष फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन देवमन्दिर में श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा की स्थापना करके पूज्यश्री सागरपाट पधारे और वहाँ देवकुलिका की प्रतिष्ठा की। ४७. सूरीश्वर जी वहाँ से सं० १२२९ में धनपाली पहुंचे और वहाँ पर श्री संभवनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना और शिखर की प्रतिष्ठा की। सागरपाट में पंडित मणिभद्र के पट्ट पर विनयभद्र को वाचनाचार्य का पद दिया। सं० १२३० में विक्रमपुर से विहार करके स्थिरदेव, यशोधर, श्रीचंद्र और अभयमति, जयमति, आसमति, श्रीदेवी आदि साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर संयमी बनाया। संवत् १२३२ में पुनः विक्रमपुर आकर फाल्गुन सुदि १० को भांडागारिक गुणचन्द्र गणि स्मारक-स्तूप की प्रतिष्ठा की। उपर्युक्त वर्ष में ही श्रावकों के आग्रह से देवमन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने के लिए जिनपतिसूरि जी महाराज फिर आशिका नगरी आये। उस समय आशिका का वैभव देखने ही योग्य था। नगरी के बाहर राजा भीम सिंह को प्रसन्न करने के लिये आने वाले अधीनवर्ती राजाओं के तम्बू लगे हुये थे। एक और राजकीय फौज-पल्टनों जमघट लगा हुआ था। राजकीय महल, प्रासादादि एवं बागबगीचों के मनोहर दृश्य देखने से आशिका नगरी चक्रवर्ती की राजधानी सी लगती थी। वहाँ पर पार्श्वनाथ मन्दिर तथा शिखर पर चढ़ाये जाने वाले सुवर्णमय-ध्वज कलश महोत्सव पर नाना देशों से आये हुए दर्शनार्थी यात्रियों का अधिकाधिक जमघट हो रहा था। महाराज के साथ विक्रमपुर से भी हजारों श्रावक आये थे। सूरिजी महाराज चतुर्दश विद्याओं के विशेष रूप से जानकार थे और बुद्धि में बृहस्पति के समान थे। इन महाराज का उपदेश मुनियों के मनरूपी कमल को विकसित करने में सूर्यमंडल के समान था। महाराज का नगर प्रवेश बड़े समारोह के साथ किया गया। प्रवेश के समय शंख, भेरी आदि नाना प्रकार के बाजे बज रहे थे। अनेक लोग आदरपूर्वक सहर्ष महाराज के दीर्घायुष्य के हेतु वारणा कर रहे थे। नृत्य और गायन हो रहा था। युगप्रधान गुरुओं के नामोच्चारण के साथ स्तुतिगान करने वाले गंधों को दिये जाने वाले द्रव्य से कुबेर का धनाभिमान विदीर्ण हो रहा था। वैसे ही अपने पूर्वजों के नाम सुन-सुन कर लोगों को अत्यधिक आनन्द आ रहा था। हजारों आदमी पूज्यश्री के पीछे चल रहे थे। इस प्रकार महान् सम्मान के साथ श्रीमान् पूज्य आचार्य जी का नगर प्रवेश हुआ। उस समय महाराज के साथ ८० साधु थे। सभी साधु लब्धिधारी जैसे शास्त्रार्थ में अनेकों विद्वानों को (६४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरा कर धन्यवाद प्राप्त किये तथा महाराज के चरण-कमलों में भ्रमरवत् अनुरक्त थे। ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया के दिन बड़े विधि-विधान के साथ पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण का बना हुआ ध्वजा-कलश आरोपित किया गया। उसी महोत्सव के शुभ अवसर पर दुसाझ साढल श्रावक की ताऊ नामक पुत्री ने ५०० मोहरें देकर माला पहनी। आचार्यजी ने धर्मसागर गणि और धर्मरुचि गणि को व्रती बनाया। कन्यानयन के विधि-चैत्यालय में आषाढ़ महीने में विक्रमपुरवासी गृहस्थावस्था के सम्बन्ध से श्री जिनपतिसूरि जी के चाचा साह मानदेवकारित श्री महावीर भगवान् की प्रतिमा स्थापित की। व्याघ्रपुर में पार्श्वदेव गणि को दीक्षा दी। सं० १२३४ में फलवद्धिका (फलौदी, मेड़ता रोड़) के विधिचैत्य में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा स्थापित की। लोक-यात्रा आदि व्यवहार में दक्ष श्री जिनमत गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया। यद्यपि जिनमत गणि के लोकोत्तर असाधारण गुणों को देखकर उन्हें आचार्य पद दिया जाना था, परन्तु अपने निज के धर्मध्यान और शास्त्र-ज्ञान के मनन में हानि की संभावना से इन्होंने आचार्य पद स्वीकार नहीं किया। आचार्य को सारे गच्छ की देखभाल करनी पड़ती है। अतः समयाभाव के कारण धर्मध्यान और शास्त्राभ्यास होना अति कठिन है। इसी प्रकार गुणश्री नामक साध्वी को महत्तरा का पद दिया गया। वहीं पर श्री सर्वदेवाचार्य और जयदेवी नाम की साध्वी को दीक्षा दी गई। सं० १२३५ में महाराज श्री का चातुर्मास अजमेर में हुआ। वहाँ पर श्री जिनदत्तसूरि जी के पुराने स्तूप का जीर्णोद्धार करवाकर उसका विशाल आकार वाला बनवाया। देवप्रभ और उसकी माता चरणमति को दीक्षा देकर शान्ति प्रधान जैन धर्म की छत्र छाया में आश्रय दिया। अजमेर में ही सं० १२३६ में सेठ पासट की बनवाई हुई महावीर मूर्ति की स्थापना की। अम्बिका के शिखर की भी प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से जाकर सागरपाड़े में भी अम्बिकाशिखर की स्थापना की। सं० १२३७ में बब्बेरक गाँव में जिनरथ को वाचनाचार्य का पद दिया। सं० १२३८ में आशिका में आये और वहाँ दो बड़ी जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। ४८. सूरि महाराज सं० १२३९ में फलवर्द्धिका (फलौदी) आये और वहाँ पर श्रावकों की भक्ति और महाराज श्री का प्रभाव देखकर नट-भट-विदों की संगत में रहने वाले, वृथा अभिमानी, उपकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य मत्सर वश, ईर्ष्यावश या अज्ञान से, बहुत धनी श्रावकों के घमण्ड से अथवा कुकर्म विपाक से महाराज श्री के विहार किये बाद पीछे से भाटों के द्वारा इस बात का प्रचार कराने लगा कि पद्मप्रभाचार्य ने जिनपतिसूरि को हरा दिया। जिनपतिसूरि जी के भक्त श्रावकों ने जब यह मिथ्या संवाद सुना तो उन्हें बड़ा रोष आया। वे सब मिलकर पद्मप्रभाचार्य के पास गए और बोले- पद्मप्रभाचार्य महाशय! आप बड़े मिथ्याभाषी हैं। आप पाप से नहीं डरते? आपने जिनपतिसूरि जी को किस समय और कहाँ पराजित किया था? झूठमूठ ही भाटों से अपनी विरुदावली पढ़वाते हो? इनका कथन सुनकर पद्मप्रभाचार्य बोले-यदि आप लोग इस बात को मिथ्या समझते हैं, तो आप अपने गुरु जी को फिर बुला लीजिए। मैं फिर उन्हें जीतने को तैयार हूँ। (६५) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस बात को सुनकर वे बोले-"असाधारण शौर्यशाली सिंह यदि अपने समान प्रकृति वाले सिंह से स्पर्धा करे तो वह उचित भी हो सकता है, परन्तु गीदड़ होकर यदि तुम सिंह के साथ स्पर्धा करना चाहते हो तो निश्चय ही मरण की इच्छा रखते हो।" दूसरे पक्ष के श्रावक भी वहाँ आ गये। दोनों दलों में विवाद होने लगा। उन्होंने होड़ के साथ शास्त्रार्थ का क्रम निर्धारित किया। इस झगड़े का समाचार अजमेर में श्री जिनपतिसूरि जी के पास पहुँचा। महाराज ने विपक्षी की पराजय के लिए तथा संघ की प्रसन्नता के वास्ते जिनमत उपाध्याय को वहाँ भेजा। फिर भी संघ वालों ने विचार किया-" पद्मप्रभाचार्य मिथ्याभाषी हैं, कह देगा पहले मैंने जिनपतिसूरि को जीत लिया था, इसलिए वे तो मेरे सामने ठहर नहीं सकते थे, अतएव अपने पंडित को भेजा है अतः आचार्य महाराज स्वयं ही इसको जीते!" यह निश्चय करके जिनमत उपाध्याय को साथ लेकर सभी श्रावक महाराज के पास अजमेर गये। अजमेर में उस समय राजा पृथ्वीराज चौहान राज्य करते थे। अजमेर के राजमान्य श्रावक रामदेव ने राजमहलों में जाकर राजा से प्रार्थना की-पृथ्वीपते! हमारे गुरु महाराज का एक श्वेताम्बर साधु के साथ शास्त्रार्थ होना निश्चित हुआ है। इसलिए निवेदन है कि विद्वान् मंडली मंडित आप की सभा में वह शास्त्रार्थ हो! ऐसी हमारी कामना है। अतएव आप कृपा करें और इसके लिए मौका दें। शास्त्रार्थप्रेमी राजा पृथ्वीराज ने कहा-इसके लिए अभी ही अवसर है। सेठ रामदेव ने निवेदन किया-स्वामिन् ! दूसरा साधु पद्मप्रभ यहाँ नहीं है फलवर्द्धिका (फलौदी) में है। विनोदी राजा ने कहा-भाटों को भेज कर उसे मैं बुला दूँगा। तुम अपने गुरु को तैयार करो। सेठ रामदेव ने कहा-राजन् ! हमारे गुरु तो यहाँ ही हैं। राजा ने भाटों के लड़कों को भेजकर फलौदी से पद्मप्रभाचार्य को बुलाया। इसी बीच महाराज ने दिग्विजय करने के निमित्त नरानयन की तरफ अपनी विशाल सेना के साथ प्रस्थान किया। उस समय सेठ रामदेव ने राजा से फिर अर्ज किया-राजन्! हमारे लिए क्या आदेश दिया है। प्रतिज्ञापालक राजा पृथ्वीराज ने कहा-तुम अपने गुरु जी से कहो कि कार्तिक शुक्ला सप्तमी का दिन शास्त्रार्थ के लिए निश्चित है। सेठ रामदेव ने आ० श्री जिनपतिसूरि जी से कहा, अतः वे नर-समूह के साथ में श्री जिनमतोपाध्याय, पं० श्री स्थिरचन्द्र, वाचनाचार्य मानचन्द्र आदि मुनिवृन्द को साथ लेकर उस दिन नरानयन राजसभा में जा पहुंचे। पद्मप्रभ भी भाटों के लड़कों के साथ वहाँ आ पहुँचा। राजा ने अपने प्रधानमंत्री कैमास को आज्ञा दी कि-"मैं पीछे आऊँ वहाँ तक तुम पंडितराज वागीश्वर, जनार्दन गौड़ और विद्यापति आदि राज पंडितों के समक्ष इनका शास्त्रार्थ होने दो।" ऐसा कहकर राजा पृथ्वीराज व्यायाम करने के लिए व्यायाम घर की ओर चले गये। (६६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा भवन में प्रधानमंत्री (कैमास) पूज्यश्री की मनोहर मूर्ति को देखकर हर्षपूर्वक कहने लगाअहो! जगत् में कई एक ऐसे शांत एवं गंभीर मूर्ति महात्मा हैं कि जिनके दर्शन से नेत्रों को अतीव आनन्द मिलता है और कई दिगम्बर ऐसे मिलते हैं जिनके देखने से नैराश्य छा जाता है और आँखों को उद्वेग होता है, दूर से ही पिशाच जैसे दिखाई देते हैं। मंत्री का यह कथन सुनकर पूज्यश्री कहने लगे पंचैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम्॥ १॥ [चाहे जिस धर्म के अनुयायी हों, सभी ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, त्याग (अपरिग्रह) और ब्रह्मचर्य ये पाँच नियम पवित्र ही माने हैं। इस कारण इन पाँच नियमरूप महाव्रतधारियों की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिए।] इस प्रकार श्री जिनपतिसूरि जी व्याख्या करके कैमास को समझा रहे थे। इसी बीच में ही उनकी बात काट कर ईर्ष्यालु पद्मप्रभाचार्य प्रधानमंत्री को निम्न श्लोक सुनाने लगा प्राणा न हिंसा न पिबेच्च मद्यं वदेच्च सत्यं न हरेत्परस्वम्। परस्य भार्या मनसा न वाञ्छे स्वर्गं यदीच्छे विधिवत्प्रविष्टुम्॥ [अर्थ-किसी के प्राणों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, मद्य नहीं पीना चाहिए और पराई स्त्री की मन से भी वांछा नहीं करनी चाहिए। जिस पुरुष को विधिपूर्वक स्वर्ग-प्रवेश की इच्छा हो, वह उपर्युक्त कार्यों को भूल-चूक कर भी न करे।] इन श्लोक को सुनकर पूज्यश्री बोले-अहा हा! कैसा बढ़िया शुद्ध उच्चारण है? पद्मप्रभाचार्य-आप मेरी हँसी उड़ाते हैं? पूज्यश्री-महानुभाव पद्मप्रभ! इस पंचम आरे में लोगों का ज्ञान अधूरा है, किसकी हँसी की जाए और किसकी न की जाए? पद्मप्रभाचार्य-तो फिर आपने यह आक्षेप कैसे किया कि कैसा शुद्ध उच्चारण है। पूज्यश्री-महाशय! पण्डितों की सभा में शुद्ध उच्चारण करने से ही मुख की शोभा है। पद्मप्रभाचार्य-क्या कोई ऐसा भी है जो मेरे बोले हुए श्लोकों में अशुद्धियाँ निकाल सके। पूज्यश्री-यदि ऐसा घमंड है तो उसी श्लोक को फिर से बोलिये। जनार्दन, विद्यापति आदि राजपण्डितों ने भी कहा-"पण्डित महानुभावों! श्री पद्मप्रभाचार्य जी श्लोक बोलते हैं, उसे आप लोग जरा सावधान होकर सुनें।" श्री पद्मप्रभाचार्य भीतर से तो क्षुब्ध हो रहा था, फिर भी धृष्टता के साथ श्लोक बोलने लगा। सब सदस्यों को साक्षी बना कर पूज्यश्री ने उसके श्लोक में दस अशुद्धियाँ दिखलाईं और कहा-महापुरुष! इस प्रकार बोलने से शुद्ध समझा जाता है संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (६७) 2010_04 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणान्न हिंस्यान्न पिबेच्च मद्यं वदेच्च सत्यं न हरेत्परस्वम् । परस्य भार्यां मनसा न वाञ्छेत्, स्वर्गं यदीच्छेद्विधिवत्प्रवेष्टुम् ॥ पद्मप्रभ० - आचार्य जी ! आप इस वचन चातुरी से बेचारे भोले आदमियों को ठगते हैं । पूज्य श्री - यदि शक्ति हो तो आप भी ऐसा करें । मंत्री कैमास बोला - आप लोगों ने पहले-पहले ही यह शुष्क वाद क्यों छेड़ा? यदि आप लोगों में कुछ विद्वता की शक्ति है तो आप दोनों में से एक महात्मा किसी एक विषय को लेकर उसकी स्थापना करें और दूसरा उसका खण्डन करें । पूज्य श्री - पद्मप्रभाचार्य ! मंत्रीश्वर का कथन बहुत ठीक है । अतएव आप किसी पक्ष का आश्रय लेकर बोलिए । वह बोला- आचार्य ! जिनशासन के आधारभूत ऐसे अनेक आचार्यों को सम्मत है वह दक्षिणावर्त आरती के परित्याग का क्या कारण है? विद्वानों का कथन है कि "वक्रो वक्रोक्तयैव निर्लोठ्यः " कुटिल को कुटिलता से ही दबाना चाहिए, इस अभिप्राय को लेकर पूज्यश्री बोले- क्या आपके कथनानुसार बहुजन सम्मत वस्तु को आदरणीय समझना चाहिए। यदि ऐसा है तो मिथ्यात्व का आदर क्यों नहीं करते? इसे भी अनेक आदमियों ने अपना रखा है। पद्मप्रभ-वृद्ध परम्परागत जो कुछ भी हो उसका हम आदर करते हैं । पूज्य श्री - वृद्ध परम्परागत न होने पर भी चैत्यवास को आपके पूर्वजों ने क्यों अपनाया? पद्मप्रभ - कैसे माना जाय कि चैत्यवास वृद्ध परम्परागत नहीं है । पूज्य श्री - क्या भगवान् महावीर के समवसरण में या किसी जिन मन्दिर में गणधर गौतम स्वामी के भोजन-शयन का कहीं वर्णन आया है? इसका उत्तर न आने से पद्मप्रभाचार्य लज्जित होकर बोले- आचार्य ! "कर्ण स्पृष्टे कटिं चालयसि " कान छूने पर कटि प्रदेश को हिलाने जैसा करते हो? मैंने पूछा था कि- दक्षिणावर्तारात्रिकावतारण विधि परम्परागत है फिर भी आप लोगों ने इसका त्याग क्यों किया? इसी बीच में आप ले आये चैत्यवास के प्रसंग को । पूज्य श्री - मूर्ख ! ' वक्रे काष्ठे वक्रो वेधः क्रियते' टेढ़े काठ में टेढ़ा ही वेध किया जाता है। क्या यह न्याय आपको याद नहीं है? अथवा जो कुछ भी हो। अब आप सावधान होकर सुनिये। आपने कहा -दक्षिणावर्तीरात्रिकावतारण विधि वृद्ध परम्परागत है, यह कैसे जाना जाये ? क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में तो आरात्रिकावतारण विचार है ही नहीं । किन्तु महावीर स्वामी के बाद होने वाले बहुश्रुत विद्वानों ने जनकल्याण के लिए इन विधियों का अनुष्ठान आचरित किया है। अब प्रश्न यह होता है कि उनसे अनुष्ठित विधि दक्षिणावर्त थी या वामावर्त? इस संशय को दूर करने के लिए किसी युक्ति (६८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अनुसंधान करना चाहिए । इस विषय में " न शवमुष्टि न्यायः कर्त्तव्यः " जैसे मुर्दे की मुट्ठी बन्द हुए बाद खुलती नहीं, वैसे ही हठ करना योग्य नहीं है, किन्तु जो युक्ति युक्त हो, उसे मानना चाहिए, इससे विपरीत को नहीं । इस बात को सुनकर सभी सभासद बोले- पद्मप्रभ ! आचार्यश्री ठीक कहते हैं । तत्पश्चात् सभी की सम्मति से प्रमाणपूर्वक पूज्य श्री उसी सभा में सभी के शरीर में रोमांच पैदा करने वाली धाराप्रवाही देव वाणी (संस्कृत) से बोलकर वामावर्त्तारात्रिकावतारण की यथावत् स्थापना की। इस प्रकरण का हम यहाँ अधिक विस्तार नहीं करेंगे। यदि विशेष देखता हो तो वहाँ प्रद्युम्नाचाय कृत वादस्थल नामक ग्रंथ पर पूज्य श्री का बनाया हुआ वादस्थल ग्रन्थ है, उसमें देख सकते हैं । यहाँ ग्रन्थ गौरव के भय से नहीं लिखा है। अधिक क्या कहें? इस पर सभी सभ्यों ने पूज्य श्री का जय जयकार किया । ४९. इसी अवसर पर राजा पृथ्वीराज भी सभा में आ गये और राजसिंहासन पर बैठकर पूछने लगे मंडलेश्वर ! कहो कौन जीता और कौन हारा? मंडलेश्वर ने पूज्यश्री की तरफ अंगुली निर्देश करके कहा- ये जीते हैं । पद्मप्रभ इस बात से चिढ़कर बोला- राजन् ! मंडलेश्वर रिश्वत लेने में प्रवीण हैं, गुणियों के गुण ग्रहण करने में प्रवीण नहीं हैं । इस बात को सुनकर क्रुद्ध हुआ मंडलेश्वर बोला - रे मुण्ड श्वेतपट ! अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। ये आचार्य बैठे हैं और ये सब सभासद उपस्थित हैं। मैंने रिश्वत ले ली है तो मैं मौनधारण किये बैठा रहूँगा। बड़ी खुशी है यदि आप अभी भी महाराजा श्री पृथ्वीराज के समक्ष आचार्य को जीत लें, तो मैं मान लूँगा कि पहले भी आप ही जीते । पद्मप्रभाचार्य मंडलेश्वर कैमास की नाराजगी का ख्याल करके कुछ सहम गये और बोलेमहानुभाव ! मैं यह नहीं कहता कि आपने आचार्य जी के पास से किसी तरह की रिश्वत ली है। आपके समझने में कुछ भ्रम हो गया है । मेरा कथन यह है कि आचार्य जिनपतिसूरि जी ने अपना गला फाड़ कर जबरदस्ती से समस्त आचार्यों के अभिमत दक्षिणावर्तारात्रिकावतारण विधि को अमान्य ठहरा कर आपके हृदय में विपरीत विश्वास जमा दिया है। इस कथन को सुनकर पूज्यश्री बोले- महात्मन् पद्मप्रभ! विधि सब आचार्यों को अभिमत है, यह कथन आपका सत्य नहीं है । क्यों हमारी आज्ञा में रहने वाले आचार्यों को यह मान्य नहीं है। पद्मप्रभाचार्य-क्या आप अन्य आचार्यों से अधिक ज्ञानवान हैं जो आप उनके अभिमत अर्थ को नहीं मानते। १. कैमास को मंडलेश्वर की उपाधि मिली हुई थी इसलिए इसको "मंडलेश्वर" सम्बोधन दिया गया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (६९) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूज्यश्री- पद्मप्रभ! क्या अन्य आचार्य हमारी आज्ञा में वर्तमान आचार्यों से विशेषज्ञ हैं जो वे हमारे आचार्यों के सम्मत वामावर्तारात्रिक विधि को नहीं मानते? इत्यादि वक्रोक्तियों के द्वारा पूज्यश्री ने राजा पृथ्वीराज के समक्ष पद्मप्रभाचार्य को निरुत्तर कर दिया। इसके बाद पद्मप्रभाचार्य राजा को सम्बोधन करके बोला-यदि आप आज्ञा दें तो अभी आपकी सभा में बैठे हुए सम्मानित सभ्यों का मनोरंजन करने के लिए कुछ कुतूहल दिखलाऊँ। जैसे कि आकाश मण्डल से उतर कर आपकी गोद में बैठी हुई अत्यन्त सुन्दर विद्याधरी को दिखला सकता हूँ। बड़े से बड़े पहाड़ को अंगुल प्रमाण में बना कर दिखा दूंगा। हरि हर आदि देवों को आकाश में नाचते हुए दिखला दूंगा। जिसमें बड़ी-बड़ी तरंगमालाएँ हिलोरें ले रही हैं, ऐसे आते हुए समुद्र के दर्शन करा दूंगा। आपकी इस नगरी को आकाश में निराधार आबाद हुई दिखा दूंगा। इस कथन को सुनकर सभासद बोले- पद्मप्रभ! आपने यदि ऐसी इन्द्रजाल कला ही सीखी है, तो फिर आचार्य जी के साथ शास्त्रार्थ के झगड़े में क्यों पड़े? राजाधिराज से इनाम पाने के लिए लाखों ऐन्द्रजालिक आते रहते हैं। उनके साथ आप भी अपना खेल दिखलावें। प्रसन्नचित आ० पद्मप्रभ ने कहा-राजपण्डितों! यह आचार्य (जिनपतिसूरि) अपने आप को समस्त कलाओं का पारंगत मानता है। इसलिए यदि आज महाराजा पृथ्वीराज की राजसभा में आप लोगों के समक्ष इसके पर्वत समान अखर्व-गर्व को चूर-चूर न किया जाएगा, तो सन्निपात के रोगी की तरह इसमें वायु बहुत बढ़ जाएगी, फिर इसका इलाज जरा मुश्किल हो जाएगा और यह इससे प करन लग जाएगा।" इस कथन पर जरा हँसते हए आचार्यजी को देख कर वह बोला-"आचार्यजी ! क्या हँसते हैं? यह हँसी का समय नहीं, परीक्षा का समय है। अगर शक्ति है तो आप सब लोगों के चित्त में चमत्कार पैदा करने वाला अपना कोई कला-कौशल दिखलाइये, नहीं तो इस सभा से बाहर निकल जाइये। इसके बाद पूज्यश्री ने श्री जिनदत्तसूरि जी के नाम मंत्र का स्मरण कर कहा- पद्मप्रभ! पहले आप अपनी आत्मशक्ति की स्फुरणा के अनुसार पूर्वोक्त इन्द्रजाल को दिखलाइये। तत्पश्चात् जो समयोचित्त होगा वह हम भी करेंगे। कौतुक देखने के लिए उत्कण्ठित राजा पृथ्वीराज ने उत्सुकता से कहा- पद्मप्रभ! लो आचार्य ने भी अनुमति दे दी है, अब शीघ्रतापूर्वक स्वेच्छानुसार नाना प्रकार के कौतुक दिखलाइये। पद्मप्रभ के पास दिखलाने को क्या धरा था, वह तो सार शून्य था। पूज्यश्री के पुण्य प्रभाव के वश आकुल व्याकुल होकर, पद्मप्रभ बोला-"आज रात को देवी की पूजा कर अभीष्ट देवता का आह्वान करके एकान्तचित्त से मंत्रों का ध्यान करूँगा और कल प्रातः अनेक प्रकार के इन्द्रजाल दिखलाऊँगा।" इस कथन को सुनकर पद्मप्रभाचार्य की पोल को देखकर सभासदों में हँसी के फव्वारे छूटने लगे, सभी लोगों ने दुर्वाक्य कह कर उसकी हँसी उड़ाई। (७०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्लज्जों का शिरोमणि पद्मप्रभाचार्य पूज्यश्री की प्रसन्नाकृति देखकर उनसे बोला-आचार्य जी! क्या हँसते हैं यदि आप भले हैं तो अभी इसी समय ही कुछ दिखलायें। पूज्यश्री कुछ हँस कर बोले- पद्मप्रभ! स्वस्थ होकर बताओ, इन्द्रजाल किसे कहते हैं? वह बोला-आप ही बतलाइये। पूज्यश्री-देवानां प्रिय! असंभव वस्तु की सत्ता के आविर्भाव को इन्द्रजाल कहते हैं। पद्मप्रभ-कैसे? पूज्य श्री- पद्मप्रभ! आज वह इन्द्रजाल तुम्हारी आँखों के सामने ही हुआ, क्या देखते नहीं। पद्मप्रभ-वह क्या हुआ है? पूज्यश्री ने उत्कर्षपूर्वक कहा-महानुभाव! क्या तुमने यह बात स्वप्न में भी सोची थी कि मैं उत्तमोत्तम आसनों पर बैठे हुए हजारों मुकुटधारी नरपतियों से ठसाठस भरी हुई महाराजा पृथ्वीराज की सभा में जाकर हार जाऊँगा और लोगों का हास्य पात्र बनने के लिए असंबद्ध प्रलाप करूँगा, परन्तु दैवयोग से हमारी उपस्थिति में तुम्हारे लिये यह असंभावित बात बन गई। जिस इन्द्रजाल को आप दिखलाना चाहते हैं उसमें और इसमें क्या भेद है? पद्मप्रभाचार्य उपहास की परवाह न करता हुआ राजा को लक्ष्य करके दुष्ट अभिप्राय से कहने लगा-महाराज! आपने अतुल पराक्रम से प्रतापी राजाओं को हरा-हराकर अपने आज्ञाकारी बना लिया है। राजा लोग आपकी आज्ञा को अमृत की तरह वांछनीय मानते हैं। इस समय इस समस्त भूमण्डल के आप ही एक अद्वितीय शासक हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि आपके शासक होते हुए भी यह आचार्य रुपये पैसे का लोभ-लालच दे देकर भाट लोगों के मुख से अपने आपको युगप्रधान विख्यात करा रहे हैं। राजा ने कहा- पद्मप्रभ! युगप्रधान शब्द का क्या अर्थ है? पद्मप्रभाचार्य ने अपना मनोरथ पूरा होता हुआ समझकर सहर्ष कहा-राजन्! युग शब्द का अर्थ है "काल" प्रधान शब्द का अर्थ है सर्वोत्तम, अर्थात वर्तमान काल में जो सर्वोत्तम हो, उसको युगप्रधान कहते हैं। अब आप ही विचारिए कि युगप्रधान आप हैं या यह साधु? इस बीच पूज्यश्री बोले-मूर्ख पद्मप्रभ! अनर्गल प्रलाप कर हमारे सामने ही राजा को प्रतारणा देना चाहते हो? इसके बाद आचार्यश्री राजा को संबोधित कर कहने लगे-महाराज! सब प्राणियों की रुचि भिन्न-भिन्न है। किसी को कोई वस्तु प्रिय है और किसी को कोई नहीं। जो जिनको अभीष्ट है, उसके प्रति नाना प्रकार के हार्दिक प्रेमपूर्वक शब्दों का प्रयोग लोग करते हैं। जिस प्रकार मण्डलेश्वर कैमास एवं राज्य के प्रधान लोग आपके प्रति अनेक प्रकार के आदर सूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उसी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (७१) 2010_04 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार प्रिय वस्तु का लोग अनेक तरह से अभिवादन करते हैं, इसमें कोई बुराई की बात नहीं तथा उनके सेवकगण भी उनके लिए इसी प्रकार के शब्द व्यवहार करते हैं। यह पद्मप्रभाचार्य राज्य सभा में मनमानी बातें करता हुआ सब के साथ शत्रुता प्रकट करता है। इस कथन को सुनकर राजा ने कहा-आचार्य जी! आप ठीक कहते हैं। यह तो लोकाचार है, कोई विशेष बात नहीं। राजा के ध्यान में यह बात भी आ गई कि पद्मप्रभाचार्य ईर्ष्यावश चुगली कर रहा है। राजा पृथ्वीराज ने जनार्दन, विद्यापति आदि अपने राजपण्डितों से कहा कि-आप लोग सावधान होकर परीक्षा करें कि इन दोनों में कौन महाविद्वान है। इनमें से जो योग्य विद्वान हो उसको जयपत्र दिया जाये और उसका ही सत्कार किया जाये। पण्डितों ने कहा-राजाधिराज ! न्याय, व्याकरण आदि विषयों में आचार्य जिनपतिसूरि जी प्रौढ़ विद्वान हैं। इस बात की हमने परीक्षा कर ली है। अब आपकी आज्ञा से इनके साहित्य विषयक अनुभव की जाँच करते हैं। राज-पण्डित बोले-आप दोनों महाशय राजा पृथ्वीराज ने भादानक के नरपति को जीत लिया इस विषय को लेकर कविता कीजिए। महाराज ने क्षण मात्र एकाग्र चित्त होकर उक्त विषय पर निम्न पद्य प्रस्तुत किया यस्यान्तर्बाहुगेहं बलभृतककुभः श्रीजयश्रीप्रवेशे, दीप्रप्रासप्रहार - प्रहतघट - तटप्रस्तमुक्ता वलीभिः । नूनं भादानकीयै रणभुवि करिभिः स्वस्तिकोऽपूर्यतोच्चैः, पृथ्वीराजस्य तस्यातुलबलमहसः किं वयं वर्णयामः॥ [अतुल बलशाली इस राजा पृथ्वीराज का हम कहाँ तक वर्णन करें। इन्होंने अपने सैन्य बल से तमाम दिशाओं को जीत लिया है। अतएव जयलक्ष्मी ने आकर इनकी भुजाओं को अपना घर बना लिया है। प्रथम ही प्रथम नवोढा वधू घर में प्रवेश करती है, उस समय गृह द्वार में स्वस्तिक का निर्माण किया जाता है, वैसे ही इनकी भुजाओं में जयलक्ष्मी प्रवेश के समय रणभूमि में भदानक राजा के हाथियों ने तीखे भालों की मार से फटे हुए अपने कुंभस्थल से निकले हुए गज-मुक्ताओं से स्वस्तिक पूर्ति की है।] इस श्लोक को बनाकर आचार्य ने इसकी व्याख्या की। देखा-देखी पद्मप्रभाचार्य ने भी पूर्वापर को बिना सोचे ही शीघ्रतया संक्षेप में एक श्लोक बनाकर सुनाया। पूज्यश्री ने कहा-श्लोक तो चार चरणों का ही देखा और सुना है। पद्मप्रभाचार्य! यह विचित्र श्लोक पाँच चरणों वाला क्यों बनाया है? तदनन्तर उसी श्लोक में सदस्य लोगों को पाँच अशुद्धियाँ दर्शाई। ईर्षावश पद्मप्रभाचार्य ने भी कहा-आचार्य ने जो यस्यान्तर्बाहुगेहम् श्लोक कहा यह तात्कालिक रचना नहीं है, पहले का अभ्यास किया हुआ है। (७२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितों ने कहा-आप धैर्य धारण कीजिए, हम जानते हैं। राजपण्डितों ने कहा-आचार्यप्रवर! आप कृपा करके गद्यबद्ध शैली में पृथ्वीराज के सभामण्डप का वर्णन करें। पूज्यश्री मन ही मन सभा वर्णन की वर्णना करके खड़िया से जमीन पर लिखने लगे। जैसे "चञ्चन्मेचकमणिनिचयरुचिररचनारचितकुट्टिमोच्चरन्मरीचिप्रपञ्चखचितदिक् चक्रवालम्, सौरभभरसम्भूतलोभवशबम्भ्रम्यमाणझङ्कारभृतभुवनभवनाभ्यन्तरभूरिभ्रमरसम्भृतविकीर्णकुसुमसम्भारविभ्राजमानप्राङ्गणम्, महानीलश्यामलनीलपट्टचेलोल्लसदुल्लोचाञ्चललम्बमानानिलविलोलबहलविमलमुक्ताफलमालातुलितजलपटलाविरलविगलदुज्ज्वलसलिलधारम्, दिग्विक्षिप्तवलक्षचक्षुः कटाक्षलक्षविक्षेपक्षोभितकामुकपक्षामुक्तमौक्तिकाद्यनर्घपञ्चवर्णनूतनरत्नालङ्कारविसरनिः सरकिरणनिकुरुम्बचुम्बिताम्बरारब्धनिरालम्बनविचित्रकर्मप्रविशत्कुसुमायुधराजधानी-विलासवारविलासिनीजनम्, क्वचिच्चूतांकुररसास्वादमदकलकण्ठकलरवसमाननवगानगानकलाकुशलगायनजनप्रारब्धललितकाकलीगेयम्, क्वचिच्छुचिचरित्रचारुवचनरचनाचातुरीचञ्चुनीतिशास्त्रविचारविचक्षणसचिवचक्रचर्च्यमाणाचारानाचारविभागम्, क्वचिदासीनोद्दामप्रतिवाद्यमन्दमदभिदुरोद्यदनवद्यहृद्यसमग्रविद्यासुन्दरीचुम्ब्यमानावदातवदनारविन्दकोविदवृन्दारकवृन्दम्, उद्धतकन्धरविविधमागधदर्ण्यमानोद्धरधैर्यशौर्यौदार्यवर्धिष्णु, मुधाधामदीधितिसाधारणयशोराशिधवलितवसुन्धराभोगनिविशमानसामन्तचक्रम्, प्रसरन्नानामणिकिरणनिकरविरचितवासवशरासनसिंहासनासी नदोर्दण्ह चण्डिमाडम्बरखण्डिताखण्डवैरिभूमण्डलनमन्मण्डलेश्वरपटलस्पर्धोद्भटकिरीटतटकोटिसंकटविघटित-विसंकटपादविष्टरभूपालम्, अपि चोद्यानमिव पुन्नागालंकृतं श्रीफलोपशोभितं च, महाकविकाव्यमिव वर्णनीयवर्णाकीर्णं व्यञ्जितरसं च, सरोवरमिव राजहसावतंसं पद्मोपशोभितं च, पुरन्दरपुरमिव सत्या(?)धिष्ठितं विबुधकुलसंकुलं च, गगनतलमिव लसन्मङ्गलं कविराजितं च, कान्तावदनमिव सदलङ्कारं विचित्रचित्रञ्च ।" - [राजा पृथ्वीराज का सभा भवन कैसा सुन्दर है। चमकती हुई सुन्दर मणिओं से उसकी भीत और आँगन बनाया गया है। उन्हीं मणियों की रुचिर रचना से रचित फर्श से निकलने वाली किरणों से इसके चारों ओर की दिशाएँ जगमगा रही हैं। जिसकी सुगन्ध के लोभ से आगत भ्रमरों के गर्जन से सारे ही सभा-भवन का मध्य भाग भर गया है, ऐसे फूलों के गुच्छे सभा मण्डप के आँगन में बिखरे हुए हैं। इस सभा में उत्तम नील मणि के समान नीले रंग के रेशमी वस्त्र का चन्दुआ तना हुआ है। उसके चारों ओर लगी हुई और हवा से हिलती हुई चंचल मुक्तामालाएँ ऐसी मालूम होती हैं मानो किसी जलाशय के चारों ओर निर्मल जल धारा टपकती हों। जिसमें कामदेव की राजधानी के उपयुक्त सुन्दरी-वेश्यायें विद्यमान हैं, उनके सुन्दर कटाक्षों से कामीजनों का हृदय क्षुभित हो रहा है। वेश्याओं के धारण किये गए मोती आदि अनेक वर्ण वाले महामूल्य रत्नजटित आभूषणों से विस्फुरित फैली हुई रंग-बिरंगी किरणों के समूह से निरालंब ही आकाश में विचित्र चित्रकारी सी हो रही है। सभा भवन में किसी स्थान पर आम की मंजरी खाने से मस्त हुई कोयल के कलरव के समान नूतन संगीत कला में निपुण कलावंत गंधर्व लोगों से काकली स्वर में सुन्दर गान किया जा रहा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (७३) 2010_04 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । कहीं पर सदाचार सम्पन्न सुन्दर वचनों की रचना - चातुरी में प्रसिद्ध, नीतिशास्त्र के विचार में विचक्षण ऐसा मंत्रिमण्डल आचार - अनाचार का विचार कर रहा है। इसी सभा में किसी स्थान पर उत्कट प्रतिवादियों को परास्त करने में समर्थ, उत्तमोत्तम समस्त विद्याएँ जिनकी जिह्वा पर नृत्य कर रही हैं, ऐसा विद्वद् वृन्द विद्यमान है । यहाँ पर अनेक उद्धत कन्धरा वाले अनेक मागध-भाट लोग राजाओं की अत्यन्त धीरता, गंभीरता और उदारता का बखान कर रहे हैं । चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत-यश के द्वारा धवल की हुई पृथ्वी को भोगने वाले, अनेक छोटे-बड़े सामन्त राजा आआकर जिसमें प्रवेश कर रहे हैं। जिसमें राजा नाना वर्ण की मणियों के जड़ाव से बनाये हुए इन्द्र धनुषाकार सिंहासन पर बैठे हुए हैं। जिसने अपने बाहुबल से तमाम शत्रु समुदाय को छिन्न-भिन्न कर दिया है, ऐसे राजा पृथ्वीराज के चरण-कमलों में अनेक राजा लोग किरीट-मुकुटाच्छादित मस्तक को झुकाते हैं। जैसे बगीचा पुन्नाग और श्रीफल के वृक्षों से शोभित होता है वैसे ही यह सभाभवन हस्ति तुल्य पुष्टकाय वाले पुरुषों से तथा लक्ष्मी के वैभव से शोभित है । जैसे महाकवियों का काव्य व्याख्या करने योग्य वर्णों से पूर्ण तथा श्रृंगार, हास्य, करुण आदि रसों से युक्त रहता है, वैसे ही यह सभाभवन ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों से युक्त है तथा अभिलाषा को व्यञ्जित करने वाला है । जैसे सरोवर की शोभा राजहंस और कमलों से होती है वैसे ही आपके सभा भवन की शोभा राजा और पद्मा लक्ष्मी से है । इन्द्र की नगरी अमरावती में कोई भी मिथ्याभाषी नहीं हैं तथा उसमें सदैव देवताओं की भीड़ बनी रहती है, वैसे ही इस सभा में सब सत्यवक्ता हैं और इसमें विद्वानों की भीड़ सदैव लगी रहती है। आकाश में जिस प्रकार मंगल और शुक्र ग्रह शोभावृद्धि करते हैं वैसे ही आपकी सभा में गानादि मांगलिक कार्य तथा कवि लोग शोभा बढ़ाने के हेतु हैं । कान्ता के मुख की शोभा अच्छेअच्छे अलंकारों से व विचित्र फूल पत्तियों से है, तथैव इस सभा मण्डप की शोभा भी सुन्दर सजावट से है एवं विविध प्रकार के चित्रित चित्रों से है । ] महाराज वर्णन कर ही रहे थे कि बीच में ही राजपण्डित लोग बोले- आचार्य ! पकते हुए अनाज के एक दाने की तरह हमने आपकी साहित्य - विषयक योग्यता पहचान ली। अब आप कृपया इस वर्णन को अन्तिम क्रिया पद देकर समाप्त कीजिए। महाराज ने अपने सभा - वर्णनात्मक निबन्ध का उपसंहार करते हुए कहा एवंविधं श्रीपृथ्वीराजसभामण्डपमवलोक्य कस्य न चित्रीयते चेतः ? [ अर्थात्-त्- महाराज पृथ्वीराज के ऐसे सभा मण्डप को देखकर किस पुरुष का चित्त आश्चर्यमग्न नहीं होता ? ] आचार्य ने इस निबन्ध ( सभावर्णन) को विस्तार व्याख्या सहित फिर से बांच सुनाया । पण्डित लोगों ने विद्वत्तापूर्ण सभावर्णन सम्बन्धी निबंध को सुनकर आश्चर्यमग्न हो सिर हिलाया । पद्मप्रभाचार्य ने कहा-पण्डित महानुभावों! यह रचना भी कादम्बरी, वासवदत्ता आदि काव्यों से ली हुई जान पड़ती है । (७४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितों ने जवाब दिया- मूर्ख ! कादम्बरी आदि की कथाएँ हमारी अच्छी तरह से देखी हुई हैं। इसलिए आप चुप रहिए, अधिक टीका टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। हमारे हाथों अपने मुँह पर धूल गिरवाने की कोशिश न करिये । ५०. पण्डितों ने पूज्यश्री को लक्ष्य करके कहा - " अब आप प्राकृत भाषा में श्लेषालंकार द्वारा द्वयर्थक (दो अर्थ वाली ) गाथा की रचना करके पृथ्वीराज महाराज के अन्तःपुर और वीरयोद्धाओं का वर्णन करें।" पूज्यश्री ने मन ही मन मुहूर्त पर्यन्त खूब विचार करके गाथा की रचना करके इस प्रकार कह सुनाई - वरकरवाला कुवलयपसाहणा उल्लसंतसत्तिलया । सुंदरिबिंदु व्व नरिंद! मंदिरे तुह सहंति भडा ॥ [हे राजन्! आपके महल में कमल के फूलों से श्रृंगारित सुन्दर हाथों वाली, ललाट तट पर केशर कस्तूरी के तिलक को धारण करने वाली सुन्दरियाँ विराजमान हैं और अच्छे-अच्छे खङ्गधारी, भूमण्डल के अलंकार, जिनकी शक्ति रूप लता दिनों-दिन बढ़ रही है ऐसे शूरवीर योद्धा आपके महल में सुन्दरियों के ललाट बिन्दु (तिलक) की तरह शोभायमान हैं ।] यह श्लोक द्व्यर्थक है । इस गाथा की व्याख्या आचार्यश्री ने बड़े विस्तार से की। पूज्य श्री का पाण्डित्यपूर्ण प्रवचन सुनकर बड़ी श्रद्धा भक्ति से उनके मुख की तरफ देखते हुए लोगों को देखकर निर्लज्ज पद्मप्रभाचाय बोला-‘“आचार्य! मेरे साथ वाद शुरू करके अब दूसरों के आगे अपने आपको भला दर्शाते हो?" पूज्यश्री ने उसी समय नन्दिनी नामक छंद में एक श्लोक बनाकर कहा सह पृथिवीनरेन्द्र ! समुपाददे रिपोरवरोधनेन सिन्धुरावली । भवतां समीपमनुतिष्ठतया स्वयं न हि फल्गुचेष्टितमहो! महात्मनाम्॥। [हे नरेन्द्र पृथ्वीराज ! आपने शत्रुओं के पास जाकर उनको कैद करके उनके हाथियों की कतार छीन ली। आश्चर्य है कि महापुरुषों का पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता ।] आचार्यश्री ने सभा के समक्ष इस नूतन श्लोक को सुनाकर पद्मप्रभाचार्य से पूछा कि "वह कौन से छंद का श्लोक है?" राजपण्डित बोले - " आचार्यवर! इस अज्ञानी के साथ बोलने से आपको क्लेश के सिवा और कोई लाभ नहीं है । " इसके बाद पण्डित लोग बोले - " अब खङ्ग बन्ध नाम के चित्रकाव्य की रचना करके दिखलावें । " आचार्यश्री ने तत्क्षण ही जमीन पर रेखाकार तलवार बनाकर दो श्लोकों से उसकी पूर्ति कर दी - लसद्यशः गः सिताम्भोज ! पूर्णसम्पूर्णविष्टप ! । पयोधिसमगाम्भीर्य ! धीरिमाधरिताचल ! ॥ १ ॥ ललामविक्रमाक्रान्त लब्धप्रतिष्ठ! भूपाला - वनीमव कलामल ! ॥ २॥ परक्ष्मापालमण्डल । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 - (७५) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आपके निर्मल यशः सरोज से सारा जगत् भरा हुआ है। आप गंभीरता में समुद्र के समान हैं और आपने धीरता में अचल (पहाड़ों) को मात कर दिया है। आपने अपने प्रशंसनीय पराक्रम से अन्य नरपतियों के समुदाय को दबा दिया है। हे राजन्! आप सारे जगत् में प्रतिष्ठा पाये हुए हैं, चतुःषष्ठि कलाओं के जानकार हैं। ऐसे आप चिरकाल तक पृथ्वी का शासन करते रहें।] ___ आचार्यश्री द्वारा निर्माण किए गए इस चित्रकाव्य को पढ़कर पण्डित लोग बड़े प्रसन्न हुए। पूज्यश्री की खूब प्रशंसा करने लगे, उसे सुनकर पद्मप्रभाचार्य मन ही मन जल-भुन गया और बोला-"पण्डितवर्ग! रिश्वत में एक हजार मुद्रा मैं भी दे सकता हूँ, अतः आप लोग मेरी भी प्रशंसा करें।" इस असत्य आक्षेप को सुनकर प्रधानमंत्री कैमास ने कहा-रे मुण्डिक! महाराज पृथ्वीराज के सामने भी जो कुछ यद्वा-तद्वा बोलता है, मालूम पड़ता है तुम कण्ठ पकड़वाने की फिक्र में हो। यह सारा दृश्य देखकर राजा बोला-आप सभ्यों को समदृष्टि रखनी चाहिए। कैमास आदि बोले-राजन्! ये महाशय गोरूप (वृषभ) के समान हैं, यदि वृषभ को कुछ ज्ञान हो तो इन्हें भी हो। राजा ने कहा-इस बात का परिचय तो इसकी सूरत-शक्ल देखने से ही मिल रहा है और यह भी हम जान गये हैं कि आचार्य जी विद्वान् हैं। परन्तु, न्यायमयी हमारी सभा में किसी को पक्षपात आदि के विषय में कुछ कहने का अवसर न मिले, इस कारण सब विषयों में पद्मप्रभाचार्य की भी परीक्षा करनी योग्य है। पण्डितों ने कहा-कृपानाथ! पद्मप्रभाचार्य को कविता करने का ज्ञान नहीं है। आचार्य रचित श्लोकों में यह छंद ही नहीं पहचानता। आचार्यश्री ने तर्क और दलीलों से (वामावर्तारात्रिक अवतारण) को सिद्ध कर दिया। उसके मुकाबले में यह कोई जवाब नहीं दे सका। अतः यह तर्कशास्त्र को बिल्कुल ही नहीं जानता है। इसे तो केवल विरुद्ध बोलना आता है। खैर, जो कुछ भी हो, आप श्रीमान् की आज्ञा से विशेष रूप से समान बर्ताव करेंगे। राजपण्डित बोले-आचार्य जी! और पद्मप्रभाचार्य जी! आप दोनों निम्नलिखित समस्या की पूर्ति करें चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः। पूज्यश्री ने तत्क्षण ही सोचकर कहा चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः। भूपालसन्दोहनिषेवितक्रम! क्षोणीपते! केन किमत्र संगतम्॥ [अर्जुन ने बाणों से दोनों दन्तों को काट डाला। उसने क्रम से इसको यह नारद है ऐसा जाना। नरेन्द्र मण्डल से सेवित पृथ्वीराज ! इन दोनों समस्याओं में किसके साथ किसका सम्बन्ध है?] (७६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके उत्तर में सभ्य लोगों ने कहा-आचार्य जी! ऐसी समस्याओं की पूर्ति से कोई लाभ नहीं। इसकी परस्पर में कोई संगति नहीं। यह असंगति हटाने के लिए ही हमने आपसे पूछा था किन्तु आपने तो उसी असंगति का समर्थन किया है। सरल काव्य रचना की अपेक्षा समस्या-पूर्ति में यही तो कठिनता है कि उसके असंगति दोष को हटा कर उसे संगत बनाना पड़ता है। - पूज्यश्री ने कहा-पण्डित महानुभावों! इस प्रकार भी समस्या-पूर्ति होती है। देखिये, एक समय राजा भोज की सभा में किसी बाहर से आये हुए पण्डित ने समस्या-पूर्ति के लिए निम्नलिखित तीन चरण कहे सा ते भवानुसुप्रीताऽवद्यचित्रकनागरैः। आकाशेन बका यान्ति। उसी समय सभा में स्थित राजकीय पण्डित ने देव! किं केन संगतम् यह चतुर्थ चरण कहकर पूर्ति कर दी। ___आचार्य का यह कथन सुनकर राजपण्डितों ने कहा-हाँ! इस तरह भी समस्या-पूर्ति हो जाती है। यदि समस्यापूरक पद्मप्रभाचार्य सदृश कोई हो तो, परन्तु काव्य-रचना की शक्ति रखने वाले आप सरीखों के लिए इस प्रकार की असंगति बिना हटाये सामान्य समस्या-पूर्ति करना शोभाजनक नहीं है। तत्पश्चात् पूज्यश्री ने क्षणभर गंभीरतापूर्वक विचार कर इस प्रकार पदों की योजना की चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, कीर्त्या भवान् यः करिणो रणाङ्गणे। दिदृक्षया यान्तमिलास्थितो हरिः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः॥ [रणांगग (संग्राम के मैदान) में हाथियों के जिस दन्त द्वय (दो दाँतों) को अर्जुन ने बाणों से काटा। उसी दन्त द्वय को आपने अपनी धवल कीर्ति से काट डाला अर्थात् आपने अपनी कीर्ति की उज्ज्वलता से हाथी के दाँतों की उज्ज्वलता को पराजित कर दी है और आकाश मार्ग से जाते हुए इस (नारद) को देखने की इच्छा से भूतल पर रहे श्रीकृष्ण ने क्रमश: जाना कि यह नारद है।] इसकी व्याख्या सुनकर आश्चर्य रस में निमग्न हुए राजपण्डितों ने कहा-आचार्य! भगवती सरस्वती की एक आप ही पर बड़ी भारी कृपा है। इसी कारण आप जिस विषय को लेते हैं, उसी में भगवती आपकी सहायता करती है। पास में बैठे हुए जिनमतोपाध्याय ने कहा-पण्डित महोदय! आचार्यजी के विषय में आप लोगों का यह कथन अक्षरशः सत्य है। इन पर यदि वाग्देवी प्रसन्न न होती, तो सरस्वती के पुत्रस्वरूप आप विद्वानों से इनकी मुलाकात कैसे होती? पण्डितों ने पद्मप्रभाचार्य से कहा-महाशय! आप भी कुछ कहिये। वह बोला-"आप एक क्षण ठहरिये मैं कुछ सोच रहा हूँ।" उन्होंने मखौल उड़ाते हुए कहा"छः मास तक सोचते रहिए।" सर्व पण्डितों ने एक राय होकर कहा-सर्वप्रधान मण्डलेश्वर कैमास जी! आपने आज तक श्री जिनपतिसूरि आचार्य के समान कोई विद्वान् देखा? संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (७७) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बोला-आज से पहले नहीं देखा। इसी समय राजा ने अपने सामने तबेले में बंधे हुए घोड़ों की तरफ अंगुली निर्देश करते हुए कहाआचार्यश्री! उधर देखिए तो, ये हमारे घोड़े किस कारण से इस प्रकार उछल रहे हैं, इनका वर्णन करिये ! आचार्यश्री ने कुछ देर सोच कर कहा-राजन् ! सुनिये ऊर्ध्वस्थितश्रोत्रवरोत्तमाङ्गा जेतुं हरेरश्वमिवोधुराङ्गाः। खमुत्प्लवन्ते जवनास्तुरङ्गास्तवाऽवनीनाथ! यथा कुरङ्गाः॥ १॥ [हे पृथ्वीपते! ऊर्ध्व स्थित कानों से सुन्दर-शोभनीय मस्तक वाले आपके ये वेग वाले तेज घोड़े हरिणों की तरह आकाश की ओर उछल रहे हैं। मालूम होता है ये ऊँचे होकर सूरज के घोड़ों को जीतना चाहते हैं।] ___ इस अर्थ को सुनने से प्रसन्न मुख राजा को देखकर पण्डित लोग बोले-आचार्य! उदयगिरि नाम के हाथी पर चढ़े हुए महाराज पृथ्वीराज किस प्रकार शोभते हैं? इसका वर्णन करें। पूज्यश्री ने मन ही मन कल्पना करके इस तरह वर्णन किया विस्फूर्जद्दन्तकान्तं लसदुरुकटकं विस्फुरद्धातुचित्रं, .. पादैर्विभ्राजमानं गरिमभृतमलं शोभितं पुष्करण। पृथ्वीराजक्षितीशोदयगिरिमभिविन्यस्तपादो विभासि, त्वं भास्वान् ध्वस्तदोषः प्रबलतरकराक्रान्तपृथ्वीभृदुच्चैः॥ [हे पृथ्वीराज भूपति! आप जब अपने उदयगिरि हाथी पर आरूढ़ होते हैं, तब आपकी शोभा उदयाचल पर स्थित सूर्य के समान हो जाती है। आपके हाथी के दन्त आपके आरोहण हेतु चमकते हैं, उदयाचल के शिखर भी सूर्य की किरणों से चमकते हैं। हाथी के दन्तों में सुवर्णमय कड़े सोहते हैं और पर्वत का मध्य भाग सुहावना है। हाथी उसके शरीर पर की हुई चित्रों की सजावट से सुन्दर है और उदयगिरि गेरु आदि रंग-बिरंगे खनिज पदार्थों से मनोहर लगता है। यह हाथी चार चरणों से अच्छा लगता है और वह उदयाचल आस-पास के छोटे पहाड़ों से। दोनों ही गुरुता (भारीपन) को लिए हुए हैं। पर्वत कमल और जलाशयों से सुन्दर है और गजेन्द्र शुण्डादण्ड से। हे राजन् ! आप देदीप्यमान और निर्दोष हैं। सूर्य चमकीला और रात्रि को मिटाने वाला है। आपने अपने प्रबल भुजदण्डों से बड़े-बड़े राजाओं को दबा दिया है और सूर्य ने अपनी किरणें बड़े ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर पहुँचा दी है। (यह श्लोक दो अर्थ वाला है। सूर्य, राजा और पर्वत, हाथी इनकी समता इसमें समान विशेषणों से बतलाई गयी है।)] ___ इस श्लोक के अर्थ को सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न होकर सूरिजी को पारितोषिक देने को तत्पर हुए, तभी राजपण्डितों ने कहा-"नृपते! चारों दिशाओं में, सैकड़ों कोश के मण्डल में ऐसे महान् विद्वान् हैं जो विद्या की अधिकता से फूटते हुए पेट पर सोने का पट्टा बाँधते सुने जाते हैं। उन (७८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब में से व्याकरण, धर्मशास्त्र, साहित्य, तर्क, सिद्धान्त और लोक व्यवहार को जानने में आचार्य अधिक हैं। अधिक क्या कहें, ऐसी कोई विद्या बाकी रही हुई नहीं है, जो इनके मुख-कमल में आकर न विराज गयी हो।" असहनशील, निर्लज्ज पद्मप्रभाचार्य ने अपने करने की समस्या-पूर्ति को बिना किए ही मौका देखकर पूज्यश्री की समालोचना करनी शुरु की-राजन्! कलहशील, झगड़ालू कई एक मनुष्यों के पास विद्या का न होना ही भला है, क्योंकि ऐसे लोग विद्याबल से निरन्तर लोगों के साथ कलह किया करते हैं और लोगों के आगे बुरा आदर्श खड़ा करते हैं। देखिये लिखा है विद्या विवादाय धनं मदाय, प्रज्ञाप्रकर्षाऽपरवञ्चनाय। अभ्युन्नतिर्लोकपराभवाय, येषां प्रकाशे तिमिराय तेषाम्॥ [जिन पुरुषों की विद्या विवाद (झगड़ा) करने के लिए है और धन गर्व (घमण्ड) पैदा करने के लिए है बुद्धि की अधिकता दूसरों को ठगने के लिये है और उन्नति लोगों का तिरस्कार करने के वास्ते है। उनके लिए प्रकाश भी अन्धकार के समान है। ऐसा कहना कोई अत्युक्ति नहीं है।] पूज्यश्री ने कहा-भद्र पद्मप्रभ! यदि आप नाराज नहीं हो तो हम एक हित की बात कहें। उसने कहा-कहिए। आचार्य बोले-महानुभाव! इस प्रकार अशुद्ध श्लोक का उच्चारण करते हुए आप जैसे एक भी पंच महाव्रतधारी साधु को देखकर मिथ्यात्वी लोग समझेंगे कि इन श्वेताम्बर साधुओं को शुद्ध श्लोक तक बोलना नहीं आता तो और शास्त्र-विचार तो क्या जान सकेंगे। इसलिए लोकोपहास से बचने के लिए आज के बाद "प्रज्ञाप्रकर्षः परवञ्चनाय और येषां प्रकाशस्तिमिराय तेषाम्" इस प्रकार बोला कीजिए। दूसरे इस प्रसंग में जो (विद्या विवादाय) श्लोक कहा वह सर्वथा प्रसंग विरुद्ध है, क्योंकि हमने तुमसे नहीं कहा था कि तुम हमारे साथ वाद-शास्त्रार्थ करो। तुमने ही फलौदी में हमारे भक्त श्रावकों के आगे कहा था कि-अपने गुरु को यहाँ ले आओ, मैं उनको हराने में समर्थ हूँ। अपना कन्धा हिलाता हुआ पद्मप्रभ बोला-हाँ! मैंने कहा था। पूज्यश्री-किसकी शक्ति के भरोसे पर? पद्मप्रभ-मेरी अपनी निजी शक्ति के भरोसे पर। पूज्यश्री-अब वह तुम्हारी शक्ति क्या कौओं ने चर ली? पद्मप्रभ-नहीं, नहीं। पूज्यश्री-तो फिर कहाँ गई? पद्मप्रभ-मेरी भुजाओं के बीच विद्यमान है, परन्तु बिना अवसर प्रकाशित नहीं की जाती। पूज्यश्री-उसके प्रकाशित करने का अवसर कब आयेगा। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (७९) 2010_04 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मप्रभ-राजा साहब की आज्ञा लेकर अपनी शक्ति का परिचय दूंगा। पूज्यश्री-शीघ्रता कीजिये। इसके बाद पद्मप्रभाचार्य अपने मन में सोचने लगा-इस आचार्य ने शारीरिक प्रभाव से, वचन चातुरी से, विद्याबल से और वशीकरणादि मंत्र के प्रयोग से यहाँ पर उपस्थित सभी राजा और राजपुरुषों को अपने अनुरागी भक्त बना लिये हैं और मैंने अपने भक्त श्रावक लोग जो उस प्रकार की राज-प्रसन्नता के कारण प्रसन्न मुख थे उनके मुख पर भी कालिमा लगा दी। क्या करें? कोई भी उपाय फल नहीं देता। अस्तु, तथापि पुरुषेण सता पुरुषकारो न मोक्तव्यः अर्थात् कुछ भी हो किन्तु पुरुष को पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। इस कहावत के अनुसार अब भी जैसे-तैसे हिम्मत करके इस आचार्य के साथ समता/बराबरी प्राप्त करना योग्य है। तभी इस देश में रहना हो सकेगा। अन्यथा लोगों में होने वाले उपहास एवं अनादर को हम नहीं सह सकेंगे। इस दुःख से हमें और हमारे श्रावकों को यह देश ही त्यागना पड़ेगा। इस प्रकार गहराई के साथ खूब सोच कर वह राजा से कहने लगा-"महाराज! मैंने छत्तीस संख्या में दण्ड नामक आयुध प्रकार के अभ्यास से (शस्त्र) मल्ल विद्या में परिश्रम किया है। इसलिए इस आचार्य को मेरे साथ कुश्ती लड़ाइये।" राजा पृथ्वीराज जैन-साधुओं के आचार-व्यवहार से अनभिज्ञ था और कुश्ती का कौतुक देखने की इच्छा थी, इसलिए पूज्यश्री की ओर इस अभिप्राय से देखने लगा कि ये भी कुश्ती के लिए तैयार हो जायें। पूज्यश्री ने आकृति और चेष्टाओं से राजा का अभिप्राय जानकर कहा-राजन् ! बाहु युद्ध आदि क्रीड़ाएँ हाथियों की है। वे अपने शुण्डा-दण्ड से बल की आजमाईश किया करते हैं। एक-दूसरे के गले चिपट कर झगड़ना बालकों के लिए शोभादायक है, बड़ों के लिये नहीं। शस्त्र लेकर परस्पर में लड़ते हुए राजपूत ही अच्छे लगा करते हैं। इस कार्य को यदि बनिये करें तो उनकी शोभा नहीं होती। दन्त-कलह करना वेश्याओं का काम है न कि राज-रानियों का। अब आप ही बतलाइये, पद्मप्रभाचार्य का यह युद्ध निमंत्रण कैसे स्वीकार करें? यह हमारा काम नहीं है। पण्डित लोग तो अपने-अपने शास्त्र ज्ञान के अनुसार उत्तर-प्रत्युत्तर देते हुए ही अच्छे लगा करते हैं। आचार्यश्री के इस कथन के मध्य में ही राजपण्डितों ने भी राजा से कहा-महाराजाधिराज! हम लोग पण्डिताई के गुण से ही आप श्री के पास से जीविका पाते हैं, न कि मल्ल विद्या गुण से। कदाचित् आप हमें मल्ल-युद्ध में प्रवृत्त होने की आज्ञा दें तो हम उस आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हैं। पूज्यश्री बोले- पद्मप्रभ! इस सभा में अपने मुँह ऐसी बात करते हुए तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती। वे फिर राजा से बोले-राजन् ! यदि इसकी शक्ति हो तो यह हमारे साथ शुद्ध प्राकृत भाषा, संस्कृत भाषा, मागधी भाषा, पिशाच भाषा, शूरसेनी भाषा, अपभ्रंश भाषा आदि भाषाओं में गद्य (८०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य रचना करे अथवा व्याकरण, छन्द, अलंकार, रस, नाटक, तर्क, ज्योतिष और सिद्धान्त ग्रन्थों पर विचार करे। यदि हम पीछे हटें तो, यह जैसा कहे वैसा करने को तैयार हैं, परन्तु हमारे हाथ से लोक-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध, मल्ल युद्धादि कार्य करवाना चाहता है। इस कार्य को हम किसी भी तरह करने को तैयार नहीं है और इसके न करने से हमारा कोई हल्कापन भी न समझा जाएगा। कारण, इसी तरह कल कोई किसान कहे कि-अगर आप पण्डित हैं, तो हमारे साथ हल चलाना आदि कृषि काम करिये, क्या हम उसका कहना मान लेंगे? और यदि हम उसके कथनानुसार उस कार्य को नहीं करें तो, क्या हमारी पण्डिताई चली जाएगी? नहीं, कदापि नहीं जा सकती। यदि यह हमको जीतना ही चाहता है तो कठिन से कठिन कूट श्लोक, प्रश्नोत्तर, गुस क्रिया और कारक आदि जो इसके मन में आवे सो पूछे। अथवा वह चाहे जिस तरह भी अपनी मर्जी के अनुसार किसी भी सांकेतिक लिपि में कोई श्लोक लिखे, यदि हम इसके हृदय स्थित छन्द को न बता दें तो हमें हारा हुआ समझा जाय। किन्तु शर्त यह रहे कि यह उस छन्द को पहले ही सभ्य पुरुषों को हम न सुने वैसे कान में कहकर बतला दे, जिससे कि फिर यह अपनी बातों को बदल न सके। अथवा यह किसी छन्द के केवल स्वर या केवल व्यञ्जनों को ही लिख दे, हम यदि इसके हृदय स्थित श्लोक को न बता दें तो हम हार गये। एक बार सुने हुए श्लोक या श्लोकाक्षरों को अनानुपूर्विक (विपरीत क्रम से) यह लिख कर बतावे, या हम बताते हैं। और वर्तमान समय में प्रचलित बाँसुरी से गाई जाने वाली राग-रागिनियों के नाम परिचय देतु हुए तत्कालिक गायन स्वरूप कविता द्वारा अन्य किसी से बताए हुए कोष्ठक की पूर्ति यह करके दिखाये या हम करके दिखलाते हैं। आचार्य के इस कथन को सुनकर राजा ने कहा-आचार्य जी महाराज! आप सब राग-रागिनियों को पहचानते हैं? पूज्यश्री ने कहा-महाराजाधिराज! यदि किसी पण्डित के साथ शास्त्रार्थ हो तो बात करें। इस अज्ञानी मनुष्य के साथ विवाद करने से तो केवल अपना कण्ठ-शोषण करना है। इसके उत्तर में राजा ने कहा-आचार्य! आपको चिन्तित होने की कोई आवश्यकता नहीं। अपनी बतायी हुई कोष्ठक पूर्ति सम्बन्धी कला को आप दिखलावें जिससे हमारी उत्कण्ठा पूरी हो। पूज्यश्री बोले-हाँ, मल्लयुद्धादिक बिना इस प्रकार की आज्ञा से हमें भी हार्दिक सन्तोष मिलता है। राजाज्ञा से सभा में उसी समय तत्काल बनायी हुई नई बाँसुरी बजाई गई, उसमें निकलती हुई नईनई राग-रागिनियों का आचार्यश्री ने परिचय दिया और तत्काल ही राजा पृथ्वीराज के न्यायप्रियता आदि गुण वर्णन स्वरूप श्लोकों की रचना करके उन्हीं श्लोकों के अक्षरों को सर्वाधिकारी कैमास से निर्दिष्ट कोठों की पूर्ति की। सूरिजी महाराज की सर्व तंत्रों में स्वतंत्र प्रतिभा को देख कर उस सभा में ऐसा कौन मनुष्य था जिसके मन रूपी कमल पर आश्चर्य लक्ष्मी ने अधिकार न जमा लिया हो? संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (८१) 2010_04 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीव प्रसन्न होकर राजा पृथ्वीराज ने कहा-आचार्य! आप जीत गये हैं। हम आपके विजय की मुक्त-कण्ठ से घोषणा करे हैं। अब आपके जीतने के बारे में किसी के भी मन में किसी भी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं रह गया है। मैंने अपने धर्म के प्रभाव से हजारों प्रदेशों पर प्रभुता प्राप्त की है और सत्तर (७०) हजार घोड़ों पर मेरा आधिपत्य है। मैं समझता हूँ कि कोई भी प्रतिपक्षी मेरे समान दर्जे को अभी तक प्राप्त नहीं कर सका है। परन्तु इसी देश में जिसमें मैं हूँ-आपको मैं समान श्रेणी का मानता हूँ, क्योंकि आपने भी समस्त देशों के धर्माचार्यों को जीत कर उन पर आधिपत्य-प्रभुता प्राप्त की है। आचार्य महोदय! आज तक हमें ऐसा मालूम नहीं था कि आप इस प्रकार के रत्न हैं। इसलिए जान में या अनजान में हमने आपके प्रति जो कुछ अनुचित व्यवहार किया हो, उसे आप क्षमा करें। इस प्रकार कहते हुए नरपति ने आचार्यश्री के आगे क्षमा प्रार्थना के लिए दोनों हाथ जोड़े। बदले में पूज्यश्री ने हर्ष वश होकर निम्नोक्त श्लोक से आशीर्वाद दिया और राजा की भूरि-भूरि प्रशंसा की बम्भ्रम्यन्ते तवैतास्त्रिभुवनभवनाऽभ्यन्तरं कीर्तिकान्ताः, स्फूर्जत्सौन्दर्यवर्या जितसुरललना योषितः संघटन्ते। प्राज्यं राज्यं प्रधानप्रणमदवनिपं प्राप्यते यत्प्रभावात्, पृथ्वीराज! क्षणेन क्षितिप! स तनुतां धर्मलाभः श्रियं ते॥ [हे पृथ्वीराज नृपते! जिस धर्म के प्रभाव से तेरी कीर्ति त्रिलोकी में फैल रही है, जिस धर्म के प्रभाव से ही अत्यन्त सौन्दर्य गुणवाली, देवागंनाओं को मात करने वाली सुन्दरी स्त्रियाँ तुझे मिल रही है और जिस धर्म के ही प्रताप से प्रधान-प्रधान राजाओं को जीत कर तुझे यह विशाल राज्य मिला है, वह धर्मलाभ तेरी राज्य लक्ष्मी को दिनों-दिन बढ़ावे।] राजा और आचार्य दोनों में इस प्रकार का शिष्टाचार देखकर पद्मप्रभाचार्य उदासीनता से कहने लगा-महाराज! इस सभा में अब तक केवल आप ही समदर्शी थे, अब आप भी अपने मंत्री आदि परिवार की देखा-देखी आचार्य की तरफदारी करने लग गये हैं। राजा ने कहा- पद्मप्रभाचार्य! आप हमारे हाथ से क्या करवाना चाहते हैं? अगर आप में कोई पाण्डित्य कला है तो आप आचार्य के साथ बोलिए, हम न्याय करेंगे। अगर कुछ नहीं जानते हैं तो उठिये अपने घर जाइये। ___वह बोला-राजन् ! न्यायाधीश पृथ्वीराज की राज-सभा में यदि कोई कला-कौशल का अभिमान रखता है तो वह मेरे साथ आवे। इस प्रकार रण-निमंत्रण देता हुआ मैं सबके ऊपर ऊँचा हाथ उठाऊँगा। इसी अभिप्राय से मैंने दण्ड (लाठी) चलाने के छत्तीस भेद सीखे हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि बड़ी परिश्रम से सीखी हुई मेरी यह कला आपकी सभा में भी यदि सफल न होगी तो फिर कहाँ होगी। ५१. इस अवसर पर महाराज पृथ्वीराज का कृपापात्र होने के कारण मण्डलेश्वर कैमास का समकक्ष और श्री जिनपतिसूरि जी का अनन्य भक्त सेठ रामदेव बोला कि-"स्वामिन् ! कृपया मेरी (८२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बात सुनें-मेरे जन्म के समय पिताजी को ज्योतिषियों ने कहा था कि सेठ वीरपाल! आपके पुत्र की जन्मपत्री से जाना जाता है कि तुम्हारा पुत्र राजमान्य धनवान और दानी होगा। ज्योतिषियों के इस वचन में विश्वास करके पिताजी ने अपने किसी एक पण्डित के द्वारा बाल्यकाल से ही मुझे बहत्तर कलाओं का अभ्यास करवाया है। उसमें मेरे पिताजी का यह आशय था कि राजसभा में अनेक प्रकार के पुरुष आया करते हैं, कोई किसी बात में मेरे पुत्र का अनादर न कर सके? आपकी कृपा से आज तक आपकी सभा में मेरी ओर किसी ने वक्र दृष्टि से नहीं देखा है। उन अभ्यस्त कलाओं में से अन्यान्य बहुत सी कलाओं का परिणाम (नतीजा) मैंने देख लिया है, परन्तु इस बाहुयुद्ध कला का मौका कभी नहीं आया है। आज मानो मेरे पुण्यबल से खिंचा हुआ ही आपकी सभा में पद्मप्रभाचाय आ गया है। इसलिए यदि आपकी आज्ञा हो और पद्मप्रभाचार्य को यह बात स्वीकार हो तो, सीखी हुई बाहु युद्ध कला का फल भी देख लिया जावे।" द्वन्द्व-युद्ध प्रिय राजा ने कहा-इसमें क्या हर्ज है, सेठ आप शीघ्रता से तैयार हो जाओ। पद्मप्रभाचार्य जी! आप भी उठें, अपनी अभ्यस्त कला का फल प्राप्त करें। राजा के आदेश को पाकर दोनों ने लंगोट कस लिये। गुत्थम-गुत्थी होकर अपने-अपने बल की जाँच करने लगे। थोड़ी देर बाद सेठ रामदेव ने पद्मप्रभाचार्य को पछाड़ दिया। राजा पृथ्वीराज ने रामदेव सेठ को सम्बोधित करते हुए व्यंग वचनों में कहा-"सेठ! सेठ! इसके कान लम्बे हैं, तोड़ना मत।" हास्य में कहे इस निषेध का एक प्रकार की आज्ञा मानकर सेठ रामदेव ने उसके कान को हाथ से पकड़ कर पूज्यश्री की तरफ देखा। पूज्यश्री ने मस्तक हिला के कहा-"इस कार्य से जिन-शासन की निन्दा होती है, इसलिए ऐसा मत करो।" इस काण्ड को लेकर लोगों में काफी हचचल मच गई। परस्पर अधिकता से अनेक बातें करने लगे, जैसे-"मैंने यह पहले ही कह दिया था कि सेठ जीतेगा। कारण पद्मप्रभाचार्य ने छत्तीस दण्ड कलाओं का अभ्यास किया है और सेठ जी ने इनसे दूनी कलाएँ सीखी हैं।' इस प्रकार इकट्ठी हुई भीड़ में से लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार बातें बनाने लगे। तदनन्तर राजा के आदेश से रामदेव सेठ पद्मप्रभाचार्य को छोड़ कर अलग हो गया, वह भी उठ खड़ा हुआ और अपने कपड़ों की धूल झाड़ने लगा। इस अवसर पर राजा का संकेत पाकर राज-पुत्रादि राजकीय पुरुषों ने गला पकड़ कर उसे ऐसा धक्का दिया कि राजसभा की एक से दूसरी पेड़ी पर गिरते हुए उस बेचारे का सिर फूट गया। क्रमशः पेड़ियों के पास जमीन पर गिरने से क्षण मात्र के लिए वह मूर्छित हो गया। वहाँ खड़े हुए किसी मनुष्य ने उसके पहनने की प्रच्छादिका (धोती) खींच ली। महाराज श्री जिनपतिसूरि जी से यह नहीं देखा गया। इस कार्य को उन्होंने जिन-शासन की निन्दा करवाने वाला समझा। महाराज ने दया के परिणाम से अपने निज के भक्त श्रावक से उसको प्रच्छादिका (धोती) दिलाई और वहीं एकत्रित हुए जनसमूह में से किसी एक मनुष्य ने हाथ का सहारा देकर उसे बैठा दिया। वही मनुष्य दूसरे हाथ से उसके सिर पर यह कहता संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ___ 2010_04 (८३) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ थपकियाँ देने लगा कि हमारा ठाकुर शास्त्रार्थ में जीत गया । वहाँ खड़े हुए हजारों आदमियों में से कतिपय धूर्तों ने बेचारे पद्मप्रभाचार्य के मस्तक पर थप्पियाँ लगाते हुए धवलगृह नाम के राजमहल से उसे बाहर निकाल दिया । पूज्यश्री ने श्वेत वस्त्र - खण्ड पर किसी सिद्धहस्त चित्रकार के हाथ से श्लोकाकार प्रधान छत्र बंध की रचना कर राजा को दिया। राजा ने बड़े चाव से उस छत्राकार चित्र को देखकर श्लोक को पढ़ा पृथ्वीराय ! पृथुप्रतापतपन प्रत्यर्थिपृथ्वीभुजां, का स्पर्धा भवताऽपरार्द्धार्य (र्च्य) महसा सार्धं प्रजारञ्जने । येनाऽऽजौ हरिणेव खङ्गलतिकासंपृक्तिमत्पाणिना, दुर्वाराऽपि विदारिता करिघटता भादानकोर्वीपतेः ॥ [ सूर्य के समान विस्तीर्ण प्रताप वाले हे नृपति पृथ्वीराज ! अन्य जनों से अर्च्य (आदरणीय) तेज वाले आपने भदानक राजा की हस्ति-सेना को सिंह की तरह खङ्ग रूप लतिका के संसर्ग वाले हाथ से यानि हाथ में ली हुई तलवार से छिन्न-भिन्न कर दी है, ऐसे आपके साथ प्रजारंजन करने में शत्रु पक्ष के राजाओं की स्पर्द्धा ( समानता की चाहना ) किस काम की? यानि शत्रु लोग प्रजारंजन करने में आपकी समानता किसी तरह भी नहीं कर सकते । ] यह छत्रबन्ध वृत्त पढ़ा, पण्डितों ने दो प्रकार से उसका व्याख्यान किया। उसी चित्रपट में चित्रित दो राजहंसियों के ऊपर लिखी हुई ये दो गाथाएँ राजा ने पढ़ी (८४) 2010_04 कयमलिणपत्तसंगहमसुद्धवयणं मलीमसकमं व । माणसहियं पिअवरं परिहरियं रायहं सकुलं ॥ परिसुद्धो भयपक्खं रत्तपयं रायहंसमणुसरइ । तं पुहविरायरणसरसि जयसिरी रायहंसि व्व ॥ [किया है मलिन पत्रों (पाँखों) का संग्रह जिसने यानि जिसकी पाँखें मैल से भरी हुई हैं, जिसका वचन अशुद्ध (अस्पष्ट या कर्णकटु ) है, जिसके क्रम (चरण) मलिन (कीचड़ से लिप्त ) हैं, जो मान सहित ( अभिमान / घमण्ड युक्त या मानसरोवर वासी) है और प्रिय है मोती आदि उत्तम पदार्थ जिसको, ऐसे दूषणान्वित राजहंस के समुदाय को छोड़कर जिसकी दोनों पाँखें शुद्ध (उज्ज्वल) हैं, जिसके चरण कीचड़ आदि से अलिप्त होने के कारण लाल वर्ण हैं। ऐसे राजहंस का अनुसरण जैसे राजहंसी करती है, वैसे रण/संग्राम रूप मानसरोवर में जयश्री ने हे भूपति पृथ्वीराज! आपका वरण किया है मलिन (असदाचारी) पात्रों (मनुष्यों) का संग्रह जिसने, जिसका वचन अशुद्ध है यानि जिसकी भाषा कठोर है, जिसका क्रम (वर्तन) मलिन है यानि जो स्वयं असदाचारी है, जो (अभि) मान सहित (घमंडी) है, जिसको वर (साधुवर) प्रिय है यानि अपने में उत्तमता न होने पर भी दुनिया के मुख से अपने आपको भला-भला कहलाने की लालसा खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखता है, वैसे अनेक दोषों से दूषित राजाओं के समूह को छोड़ कर जिसके मातृ-पितृ रूप दोनों पक्ष शुद्ध (निर्दोष) हैं, जो रक्त पद (अपने अनुरागियों का आश्रय स्थान) है। जिसके चरण तल लाल रंग के हैं, ऐसे गुणान्वित आपका अनुसरण करती, जैसे राजहंसी नाना प्रकार के दोषों वाले अन्य हंसों के समुदाय को छोड़कर अनेक सुगुणों से आकीर्ण राजहंस का आश्रय लेती है वैसे रण मैदान में जयश्री भी अनेक दोषों से दूषित अन्य राजाओं को छोड़ कर राजहंस के समान आपको प्राप्त होती है।] इन दोनों गाथाओं की व्याख्या पूज्यश्री ने बड़े विस्तार से की। गाथाओं के अर्थ को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा मन ही मन विचारने लगा कि इन आचार्य का कोई अभीष्ट सिद्ध करूँ। बाद में राजा ने कहा-"आचार्य महाराज! आपको मेरे अथवा आपके गुरु की शपथ है, आप मेरे से कुछ अपने वांछित पदार्थ की याचना अवश्य करें। जिस देश अथवा नगर में आपका मन प्रसन्न रहता हो, उसी का पट्टा आप मुझ से ले लीजिये।" पूज्यश्री ने कहा-महाराज! मेरा कथन सुनिये-जिसने अपनी ही कमाई से एक लाख रुपयों की पूँजी पैदा की है, सा० माणदेव जिसका नाम है, ऐसा एक श्रावक विक्रमपुर में रहता है। वह गृहस्थावस्था के सम्बन्ध से मेरा चाचा होता है। मेरे दीक्षा लेने के समय उसने बड़े प्रेमपूर्वक मुझसे कहा था कि, बेटा! मैं अपने बाल-बच्चों को अनेक प्रकार से आनन्द विलास करते हुए कैसे देखुंगा, इस अभिप्राय से मैंने अनेक कष्टों को यह कर इतना धन कमाया है। बेटा! तूने यह मन में क्या विचारा है? जो तू गृहस्थावास से उद्विग्र हुआ सा दिखलाई देता है। तेरा मन हो तो दस-बीस हजार रुपये देकर तुझे विदेश भेज दूं, अथवा यहाँ ही कोई दुकान खुलवा दूं, या किसी सुयोग्य सुन्दरी कुलीन कन्या से तेरा विवाह करवा दूं, अथवा और जो कुछ तेरे मन में मनोरथ हो तो बलता उसको भी पूर्ण करूँ? इत्यादि अनेक तरह से मुझे समझाया। परन्तु मैंने तो इन सब बातों की तरफ कुछ भी ख्याल न देकर गुरु के उपदेश से उत्पन्न हुए गाढ़ वैराग्य से सर्व संग परित्याग कर दिया। वह मैं आज आपके दिये हुए देश या नगरी की कैसे इच्छा कर सकता हूँ। राजा ने कहा-तो और कुछ कार्य फरमाइये, जिससे मैं आपकी कुछ सेवा कर मेरे मन में उत्पन्न हुए हर्ष को सफल कर सकूँ। राजा और आचार्य इन दोनों का संवाद सुनकर परम उत्कण्ठित हुए सेठ रामदेव ने कहाकृपानाथ! आप गुरु महाराज को विजय पत्र भेंट करने की कृपा करें। राजा ने कहा-सेठ रामदेव! आज तो समय बहुत हो गया है, हमारे हाथ में अवकाश भी नहीं हैं। किन्तु मैं अपने महलवाड़े से दो दिन के बाद कार्यवश अजमेर आऊँगा। वहाँ आने पर अवश्य ही जय-पत्र अर्पण कर दूंगा। सेठ रामदेव ने कहा-जैसी आपकी आज्ञा, परन्तु मेरी एक प्रार्थना है कि यहाँ से बड़े समारोह के साथ हमारे गुरु का अजमेर में प्रवेश हो, ऐसी आज्ञा फरमा दीजिए। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (८५) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने प्रधानमंत्री कैमास को कहा-मण्डलेश्वर! नगर सजा कर बड़े ठाठ-बाट और शानशौकत के साथ सेठ रामदेव के गुरु का नगर प्रवेश करवा देना और इनके उपाश्रय में पहुँचा देना। ५२. इसके बाद आचार्यश्री वहाँ से उठकर मंत्रीश्वर कैमास आदि राजकीय प्रधान-पुरुषों से वार्तालाप करते हुए नगर की ओर चले। उनके पीछे-पीछे राजपूतों की घुड़सवार पलटन चल रही थी। उस समय महाराज अपने कानों से अपनी मधुर कीर्ति सुन रहे थे। चारों ओर अनेक लोगों द्वारा की हुई 'जय हो-चिरंजीव हों" आदि का घोष ग्रहण कर रहे थे। यद्यपि सिद्धान्तानुसार जैन मुनियों को छत्र धारण नहीं करना चाहिए, परन्तु जैन धर्म के उद्योत एवं प्रभावना के लिए वे महाराज पृथ्वीराज द्वारा दिये गये मेघाडम्बर नाम के छत्र को धारण किये हुए थे। नगर में स्थान-स्थान पर खूब उत्साह से सुन्दरियाँ नृत्य कर रहीं थीं। श्रावक लोग उस खुशी के अवसर पर गरीब लोगों को दान दे रहे थे। तालियाँ देते हुए मनोहर धवल-मंगल गाने गाये जाते रहे। भाट लोग गौतम गणधर आदि प्रधान-प्रधान पूर्वजों के गुणवर्णन के साथ विरुदावली पढ़ रहे थे। महाराज पृथ्वीराज की सभा में इन आचार्यश्री ने पंडित पद्मप्रभाचार्य को जीत लिया, इस अर्थ को लेकर तत्काल बनायी हुई चौपाइयाँ पढ़ी जा रही थीं। जगह-जगह शंख आदि पाँचों प्रकार के बाजे बज रहे थे। उस समय राजाओं से अलंकृत अजमेर शहर में पहुँच कर क्रमशः जिन-चैत्यों की परिपाटी-चैत्यवन्दन करके महाराज पौषधशाला में पहुँचे। ५३. दो दिन बाद अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए दल बल सहित राजा पृथ्वीराज अजमेर अपने महलों में आये। वहाँ से जय-पत्र को हाथी के हौदे में रख कर नगर के मुख्य-मुख्य स्थानों से होकर राजा पृथ्वीराज स्वयं पौषधशाला में आये और पूज्यश्री के हाथों में जय-पत्र अर्पित किया। बदले में पूज्यश्री ने आशीर्वाद दिया और श्रावक लोगों ने नजरें भेंट कर राजा साहब का स्वागत किया। इस महोत्सव में सेठ रामदेव ने अपने घर से सोलह हजार रुपये खर्च किए थे। इसके बाद आचार्य महाराज अजमेर से विहार करके वि०सं० १२४० में विक्रमपुर आये। वहाँ पर अपने साथ के १४ मुनियों सहित पूज्यश्री ने छः माह तक गणियोग तप किया। वहाँ से चलकर वि०सं० १२४१ में फलौदी आकर जिणनाग, अजित, पद्मदेव, गणदेव, यमचंद्र और धर्मश्री, धर्मदेवी नाम के साधु-साध्वियों को दीक्षा दी। वहाँ पर वि०सं० १२४२ माघ सुदि पूर्णिमा के दिन पं० श्री जिनमतोपाध्याय जी का स्वर्गवास हुआ। इसके बाद वि०सं० १२४३ में खेड़ा नगर में महाराज ने चातुर्मास किया। वहाँ से ग्रामानुग्राम विचरते हुये पुनः अजमेर की ओर पधार गये। वि०सं० १२४४ में अणहिलपुर पाटण नगर में स्थानीय जैन बन्धुओं की ओर से किसी निमित्त को लेकर कोई इष्ट गोष्टी हो रही थी। वहाँ पर भण्डशालिक (भणशाली) गोत्रीय किसी श्रावक ने किसी वश्याय नामक उप पद वाले अभयकुमार नाम के श्रावक को बातों-बातों में कहा-"अभयकुमार! तेरी सज्जनता, धनाढ्यता और राजमान्यता से हम लोगों को क्या फायदा हुआ, जब तुमने समर्थ होकर भी हमारे गुरु श्री जिनपतिसूरि जी को उञ्जयन्त, शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा नहीं कराई।" (८६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कथन को सुन कर वह वश्याय अभयकुमार भंडशाली से बोला-"आप खिन्न न होइये। (तुम्हारे कथनानुसार) तीर्थ-यात्रा सम्बन्धी कार्य करवा दिया जाएगा।" इस प्रकार कह कर वह नगर के अधिपति महाराज भीमसिंह और उनके प्रधानमंत्री जगदेव नामक प्रतिहार के पास गया। प्रार्थना करके खुद राजा के हाथ से अजमेर निवासी खरतरगच्छ-संघ के नाम से एक आज्ञा पत्र लिखवा कर अपने घर ले आया। भंडशाली को अपने घर बुला कर उसकी राय से खरतरगच्छ संघ के नाम पत्र लिखे गए। उस राजकीय आदेश को तथा अपनी ओर से श्री जिनपतिसूरि जी की सेवा में लिखे गये प्रार्थना पत्र को देकर श्री संघ के पास अजमेर भेजा। श्री जिनपतिसूरि जी महाराज राजा के हुकमनामे को तथा अभयकुमार के प्रार्थना पत्र को पढ़कर एवं अजमेरवासी श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार करके संघ के साथ तीर्थ-वन्दना के लिये चले। ५४. पूज्यश्री के दो शिष्य यतिपाल गणि और धर्मशील गणि, त्रिभुवनगिरि में यशोभद्राचार्य के पास अनेकान्तजयपताका, न्यायावतार, तर्क, साहित्य, अलंकार आदि के ग्रंथों का अभ्यास करते थे। वे दोनों अपने गुरु जी की आज्ञा पाकर त्रिभुवनगिरि वासी श्री संघ के साथ न्याय पढ़ने में सहायता देने वाले शीलसागर एवं सोमदेव यति को साथ लेकर तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थित हुए श्री गुरु जी की सेवा में आ सम्मिलित हुए और यह समाचार भी कहा कि-"आपकी सेवा में आते हुए हम लोगों को यशोभद्राचार्य ने कहा है कि-"यदि पूज्यश्री की आज्ञा हो तो मैं भी यात्रार्थ आकर आपके साथ सम्मिलित हो आऊँ। महाराज जब गुजरात देश में पधारेंगे तब मैं प्रतिहारी की तरह आगे-आगे चलूँगा, ताकि कोई भी प्रतिवादी महाराज के साथ शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न कर सके। इस प्रकार अपने गुरुओं का बहुमान करने से मेरे भी कर्मों का संचय अवश्य ही कुछ हलका होगा। परन्तु उन्हें साथ लाने की आपकी आज्ञा न होने से यशोभद्राचार्य को हमने आने से निषेध कर दिया।" इसके उत्तर में पूज्य श्री ने कहा-"बहुत अच्छा हो यदि तुम उस आचार्य को ले आओ। क्या अब भी वे किसी प्रकार लाये जा सकते हैं?" वे बोले-“हे प्रभो! वह यहाँ से बहुत दूर हैं, इसलिए अब उनका आना बड़ा कठिन है।" जिस प्रकार चार्तुमास में चौदह हजार नदियों के प्रवाह-गंगा प्रवाह में जाकर मिलते हैं, वैसे ही विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलौदी, दिल्ली, वागड़ और मांडव्यपुर आदि नगरों के निवासी भव्यजनों के संघ एक-दूसरे की स्पर्धा से आ-आकर अजमेर वाले संघ में मिलने लगे। पूज्यश्री भी अपने विद्या गुण से, तपोगुण से, आचार्य मंत्रादि की शक्ति से, श्रावक लोगों की भक्ति से, संसार से होने वाली विरक्ति से और बृहस्पति के समान सुयोग्य मनुष्यों के या निज वाणी के संसर्ग के स्थान-स्थान पर जिन धर्म का उद्योत करते हुए श्रीसंघ के साथ चन्द्रावर्ती नगरी पहुँचे। ५५. वहाँ पर संघ के मध्य में स्थित रथारूढ़ जिनप्रतिमा के वन्दन के लिए पन्द्रह साधु और पाँच आचार्यों के साथ पूर्णिमा गच्छ के प्रामाणिक श्री अकलंकदेवसूरि जी आये। परन्तु रथस्थित संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (८७) _ 2010_04 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा-स्नान-महोत्सव-दर्शन के लिए आये हुए लोगों का मेला लगा हुआ देख कर वे लौट गये और कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। जब पूज्यश्री को ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपनी ओर से आदमी भेजकर पुछवाया कि-"आचार्य महानुभाव! क्या कारण हुआ कि चैत्यवन्दन बिना किए ही आप वापस लौट गये।" उन्होंने आगन्तुक मनुष्य को जवाब दिया कि-"जो यहाँ आचार्य हैं, वे क्या हमारे साथ बड़े-छोटे का व्यवहार करेंगे?" उस मनुष्य ने आकर आचार्यश्री से कहा, तो पूज्यश्री ने उसी मनुष्य के साथ कहलवा भेजा कि-"आप खुशी से आइये, व्यवहार-पालन में कोई भी त्रुटि नहीं की जायेगी।" इस आश्वासन को पाकर वे आये और छोटे-बड़े के हिसाब से जिस प्रकार से वन्दना की परम्परा होनी चाहिए थी वह की गई। तत्पश्चात् आगन्तुक आ० अकलंकदेवसूरि ने लोगों से पूछा-श्रीमान् आचार्यजी का शुभ नाम क्या है? पास में बैठे किसी मुनि ने कहा-पूज्यश्री का नाम श्री जिनपतिसूरि है। अकलंकदेव-आचार्यश्री ! आपका यह अयुक्त नाम किस कारण से रखा गया? पूज्यश्री-कैसे जाना कि यह नाम अयुक्त है? अकलंकदेव-यह तो अच्छी तरह स्पष्टता से जाना जाता है कि "जिन" शब्द से सभी केवलियों का बोध होता है। उनका "पति" तीर्थंकर ही हो सकता है। अपने आपको जिनपति (तीर्थंकर) नाम से कहलाते हुए आप परमेश्वर तीर्थंकरों की बड़ी भारी आशातना कर रहे हैं। इसलिए जिनपतिसूरि नाम ठीक नहीं है। पूज्यश्री ने कहा-आचार्यजी! आप ही की एक विवक्षा/व्याख्या को यदि विद्वान लोग प्रमाणभूत मान लें तो किसी प्रकार यह कथन ठीक हो सकता है। परन्तु विद्वान् लोग आगा-पीछा बहुत विचारते हैं। अगर वे लोग ऐसा नहीं विचारें तो उनके विचारकपने की बहुत कुछ हानि हो सकती है। आपके इस कथन को सुनकर हम ऐसा समझते हैं कि आपने केवल लोकरंजन के लिए व्याख्यान देना सीख लिया है और ग्रंथों का अभ्यास छोड़ दिया है। नहीं तो इस "जिनपति" शब्द में आपको इस प्रकार भ्रम क्यों होता? आपको मालूम है कि व्याकरण शास्त्र में केवल एक तत्पुरुष समास ही नहीं है, किन्तु और भी पाँच समास वर्णित किये गये हैं। जैसा कि कहा है षट् समासा बहुव्रीहिर्द्विगुर्द्वद्वन्स्तथाऽपरः। तत्पुरुषोऽव्ययीभावः कर्मधारय इत्यमी॥ व्याकरण में बहुव्रीहि, द्विगु, द्वन्द्व, तत्पुरुष, अव्ययीभाव तथा कर्मधारय ये छः समास कहे गये हैं। समास उसे कहते हैं, जिसके द्वारा अनेक पदार्थों का एक पद बनाया जाए। इसी प्रकार अर्थ की विचित्रता दिखलाने के लिए किसी एक अन्य पण्डित ने भी इन समासों के नाम से एक आर्या छंद की रचना की है। जैसे (८८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विगुरपि सद्वन्द्वोऽहं गृहे च मे सततमव्ययीभावः। तत्पुरुष! कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥ [कोई पण्डित किसी धनी-मानी पुरुष के पास जाकर अपनी घरेलू स्थिति का वर्णन करता हुआ आर्थिक सहायता की याचना करता हुआ कहता है कि-धनाढ्य पुरुष! मेरे दो गाये हैं, मैं सपत्नीक हूँ, मेरे पास घर में खर्च करने के लिये कुछ भी नहीं है। आप कृपया उस कार्य को धारण करें, जिससे मेरे पास खाने के लिए बहुत से चावल हो जायें। अन्न की त्रुटि न रहे।] इस श्लोक में वक्ता की चातुरी से छः प्रकार के समासों के नामों का परिचय भी दे दिया गया अकलंकदेव-आपके इस कथन से प्रकृत विषय में क्या सिद्ध हुआ? पूज्यश्री-इसके कहने का अभिप्राय यह है कि जो अर्थ किसी एक समास से ठीक न बैठता हो, उसकी संगति दूसरे समास से ठीक बैठ जायेगी। आपने उतावले होकर कैसे कह दिया कि नाम अयुक्त है। अकलंकदेव-अच्छा आप ही बतलाइये कि कौन से समास से जिनपति नाम सुसंगत होता है। पूज्यश्री-जिनः पतिर्यस्यासौ जिनपति: अर्थात् जिन है पति जिसका वह पुरुष जिनपति कहा जाता है। बतलाइये, इस प्रकार बहुव्रीहि समास करने से कौन सा गुण अथवा दोष होता है? अकलंकदेव-आचार्य जी! बहुव्रीहि समास करने पर दोष कोई नहीं होता बल्कि अपने आपके लिए जैनत्व सूचक गुण होता है। परन्तु इस प्रकार की कष्ट कल्पना करके लोगों को क्यों चक्कर में डाला जाये? सीधा ही जिनपत्तिसूरि नाम क्यों न रख लिया जाये? पूज्यश्री-जिनको व्याकरण शास्त्र का अच्छी तरह ज्ञान है, उनके लिए ऐसे शब्द का अर्थ लगाने में कोई कठिनाई नहीं होती है। व्याकरण के जानकार लोग संदिग्ध एवं कठिन व अशुद्ध शब्दों को भी शुद्ध बना लेते हैं और उनका अर्थ भी भली-भाँति निकाल लेते हैं। फिर ऐसे-ऐसे साधारण शुद्ध शब्दों की तो बात ही क्या! अकलंकदेव-अस्तु, नाम के बारे में हम कुछ नहीं कहते, यह यों ही सही। परन्तु हम पूछते हैं कि सिद्धान्तों में संघ के साथ यात्रा करना साधुओं के लिए क्या उचित बतलाया है? कि जिसके आधार पर आप संघ के साथ चले हैं। पूज्यश्री-किसी एक उत्सूत्रभाषी को छोड़कर ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो थोड़ा बहुत सिद्धान्त का आश्रय लिये बिना ही किसी धर्म कार्य में प्रवृत्त होता हो। अकलंकदेव-आचार्य जी! आप बड़े धृष्ट (उद्दण्ड) हैं। सिद्धान्तविरुद्ध कार्य करते हुए भी सिद्धान्तों की दुहाई दे रहे हैं। पूज्यश्री-इसका पता तो अब लग जायेगा कि कौन उद्दण्ड है और कौन नहीं है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (८९) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंकदेव-आप ही अकेलों ने सिद्धान्त देखा है, औरों ने थोड़े ही देखा है? पूज्यश्री-यदि दूसरे भी सिद्धान्तों को देखे हुए होते, तो अवश्य ही इस प्रकार नहीं बोलते। अकलंकदेव-आचार्य जी! पंच महाव्रतधारी साधु को तीर्थ-यात्रा में संघ के साथ ही नहीं जाना चाहिए-इत्यादि निषेधक वाक्य हम सिद्धान्तों में दिखलावें, या आप संघ के साथ जाने के सम्बन्ध में प्रमाण दिखलाइये। अथवा सिद्धान्तों को दूर रखिये आप गुरुजी के वचनों को तो न भूलिए। देखिए उन्होंने क्या कहा है विहिसमहिगयसुयत्थो संविग्गो विहियसुविहियविहारो। कइयाऽहं वंदिस्सामि सामि तं थंभणयनयरे ॥ [हे स्वामि पार्श्व प्रभो ! मैं विधिपूर्वक सूत्रार्थ को प्राप्त करके वैराग्य के साथ सुविहित (साधु योग्य अप्रतिबद्ध) विहार करता हुआ स्तंभनक नगर (खंभात) में पहुँच कर आपको वंदन कब करूँगा।] इस गाथा में वैराग्य के साथ विधिपूर्वक विहार कहा गया है। जिसका यह आशय है कि संघ में आसक्त न होकर आरम्भ-समारम्भ के बिना विहार करें। संघ के साथ रहने से अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ हुए बिना नहीं रह सकते। अतः साधु को तीर्थयात्रा में संघ को साथ नहीं लेना चाहिए। पूज्यश्री-आचार्य जी! आप इस बात पर व्यर्थ ही इतना जोर क्यों लगा रहे हैं कि हम सिद्धान्ताक्षरों को दिखला दें। अपने आपकी शक्ति का तभी प्रदर्शन करना चाहिए जबकि सिद्धान्तों में न होते हुए भी किन्हीं असत्य अक्षरों को आप दिखला दें और यदि दिखला भी दें तो विद्वान् लोग उन्हें मानेंगे नहीं, अतः आप का जोर लगाना व्यर्थ है। जो अक्षरसिद्धान्त ग्रन्थों में लिखा है, आप विश्वास रखिये वे तो औरों ने भी जरूर देखे ही होंगे। अतः उनको दिखाने के लिए इतना प्रयत्न करना कोई अर्थ नहीं रखता। अकलंकदेव-परन्तु आपका भी सिद्धान्त के कथन का आश्रय लेकर ही हम संघ के साथ यात्रा में चले हैं यह कथन युक्त नहीं है। पूज्यश्री-हाँ, आपका यह कथन युक्त हो सकता है यदि हम सिद्धान्तानुसार किसी भी तरह आपको संतुष्ट न कर सकें, परन्तु आपको भी चाहिए कि मत्सर भाव को त्याग कर सावधान होकर हमारा कथन सुनें। यदि हमारी बताई हुई युक्ति सिद्धान्तानुसारिणी हो, तब तो उसे माने अन्यथा नहीं। मृत मनुष्य की मुट्ठी की तरह किसी बात को पकड़ कर बैठ जाना प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। अकलंकदेव-हाँ, आपके इस कथन को हम मानते हैं, आप उस युक्ति का प्रतिपादन करें। पूज्यश्री-आचार्य महानुभाव! आचार्य उसी पुरुष को बनाना चाहिए जिसने अनेक देश देखे हों तथा अनेक देशों की भाषाएँ जानी हों। यह बात तो सिद्धान्त में है, यह बात आप मानते हैं? (९०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलंकदेव-हाँ, है। पूज्य श्री-कारणवश हमको छोटी उम्र में ही आचार्य पद पर बैठाया गया है। इसलिए अब कतिपय देशों का देशाटन और भिन्न-भिन्न भाषाओं से परिचय हो जाये, अतः इस संघ के साथ तीर्थयात्रा को चले हैं। इसे यों कहना चाहिए कि शंख और क्षीर युक्त, कस्तूरी और कपूर से मिल गई, आपके तरफ से किये गए आक्षेप का यह पहला उत्तर। श्रीसंघ ने हमसे बड़ी प्रार्थना की कि-महाराज गुजरात में अनेक चार्वाक (नास्तिक) रहते हैं। वहीं हम लोग तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। यदि कोई हमारे सामने तीर्थयात्रा निषेध के प्रमाण उपस्थित करेगा तो, हम उसे कोई भी उत्तर नहीं दे सकेंगे क्योंकि हम सिद्धान्तों के रहस्य से अनभिज्ञ हैं। इससे जिनशासन की हीनता जानी जायेगी। इसलिए आप हमारे साथ तीर्थवन्दन के लिये चलें। इस प्रकार संघ की अभ्यर्थना से हम आये हैं। यह दूसरा उत्तर । संघ के साथ यात्रा करने से साधुओं के नित्य-नियम में व्याघात होने की संभावना से सिद्धान्त ग्रंथों में संघ के साथ यात्रा करने का निषेध लिखा है। हम भी मानते हैं कि यदि नित्य-कर्म में बाधा पहुँचे तो संघ के साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। परन्तु इस संघ में सायं प्रातः दोनों वक्त प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य पालन और एक समय भोजन आदि अभिग्रह धारण करके श्रावक लोग तीर्थ-वंदन के लिये चले हैं। अब आप ही बतलाइये कि हमारे आवश्यक नित्य नियम में बाधा पहुँचाना कैसे संभव है? ___ इस प्रकार की अनेक युक्तियों को सुनकर प्रसन्न हुए श्री अकलंकदेवसूरि जी बोले-आचार्य महोदय ! खरतराचार्य इस शब्द को सुनने से ही हमने जान लिया था कि आप किसी प्रबल अवलम्बन के बिना इस लोकापवाद को अपने ऊपर नहीं लेते? परन्तु ऐसा सुनते हैं कि मारवाड़ के लोग बड़ी बोली बोलने वाले होते हैं। आज हमने सुना कि संघ के साथ आचार्य भी आये हैं। देखें, ये आचार्य किस-किस प्रकार बोलते हैं, इनका आचार-व्यवहार, वेष, भाषा आदि किस प्रकार का है। इन बातों को देखने के लिए हम लोग कौतुकवश यहाँ आये हैं। आपके साथ जो हमने तर्क-वितर्क किया, वह केवल शैली जानने के लिए ही किया गया है। किसी अन्य अभिप्राय से नहीं। इस प्रसंग में हमारी ओर से यदि कुछ अनुचित कहा गया हो तो हमें क्षमा करें। पूज्यश्री-आचार्य जी ! इष्ट-गोष्ठी (स्नेहवार्ता) में भी तो कुछ का कुछ कहने में आ जाता है तो फिर वाद-विवाद का कहना ही क्या? यानि विवाद छिड़ने पर तो उचितानुचित का ध्यान ही नहीं रहता। इसलिए हमारी ओर से भी आपके प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया गया हो तो उसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं। अकलंकदेवसूरि जी बोले-आचार्य जी महाराज! हम इस देश में सुना करते थे कि खरतरगच्छ के आचार्य वादलब्धि से सम्पन्न हैं। यह सुनी हुई बात कहाँ तक सत्य है, इसका निश्चय करने के लिए हम यहाँ आये थे, परन्तु आज यहाँ पर आपके भाषण की रीति देखकर हमारे चित्त से संशय चला गया। हम यह जानते हैं कि प्रसिद्धि निर्मूल नहीं हुआ करती। आचार्य जी! हमारे साधुओं के वहरने (गोचरी) जाने में अति विलम्ब हो रहा है। इसलिए हम आपसे विदा लेते हैं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (९१) 2010_04 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री ने कहा-क्या आज आप हमारे अतिथि नहीं होंगे? प्रसन्नचित्त से अकलंकदेव जी बोले-अतिथि तो वे हुआ करते हैं, जो देशान्तर से आये हों? हम तो यहाँ के ही रहने वाले हैं। इसलिए आपके पाहुणे (अतिथि) कैसे हो सकें? बल्कि आप हमारे अतिथि हो सकते हैं। पूज्यश्री ने कहा-आपका कहना सही है। इस प्रकार प्रेम पूर्ण बातें करके वे लोग हर्षित चित्त से उपाश्रय को चले गये। ५६. इसके बाद दूसरे दिन वहाँ (चन्द्रावती नगरी) के श्रावक द्वादशावर्त वन्दनक देने के लिये पूज्यश्री के पास आये और प्रार्थना की कि-"भगवान् ! आप हमारी वन्दना स्वीकार कर लीजिये।" पूज्यश्री-"जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसे करो।" यह कहकर शान्त मुद्रा धारण करके विराज गए। तत्पश्चात् वे श्रावक लोग श्री जिनवल्लभसूरि जी के दर्शाए हुए विधिमार्ग के अनुसार वन्दना करने लगे। हर्षित होकर पूज्यश्री ने कहा-'हे महाभाग्यशाली श्रावकों! गुजरात में आठ पट वाली मुख-वस्त्रिका से वन्दना की जाती है, आप लोगों ने चार पट वाली से क्यों दी?" उन श्रावकों ने जवाब दिया कि- "हे भगवन् ! स्वर्गीय श्री अभयदेवसूरि जी महाराज ने हमें ऐसे ही करने की शिक्षा दी थी।" इस प्रकार अपने पूर्वजों की बात सुनकर महाराज को अतीव हर्ष हुआ। इस प्रकार चन्द्रावती नगरी में. दो-चार दिन विश्राम करके महाराज संघ को साथ लिए हुए कासहृद (कांसिदरा) पहुँचे। वहाँ पर उस समय चैत्यवन्दन के लिए महाप्रामाणिक, पौर्णमासिक गच्छावलम्बी श्रीतिलकप्रभसूरि अनेक साधु परिवार सहित संघ के उतारे में आये। परस्पर में सुख-शान्ता सम्बन्धी प्रश्न किया गया। अपने गुरु की चरण-सेवा करने से जिसकी कीर्ति चारों ओर फैल रही थी, जिसने हीरों से जड़ी हुई सुन्दर रेशमी पोशाक पहन रखी है, स्वर्ग के आभरणों से अलंकृत-कामदेव के समान जिसका सुन्दर शरीर है, ऐसे मांडवी निवासी जौहरी सेठ लक्ष्मीधर श्रावक की ओर अंगुली निर्देश करते हुए तिलकप्रभसूरि ने पूज्यश्री से पूछा-"क्या आपके संघ के संघपति ये ही हैं?" १. यह कासहृद (कांसिदरा) तो आबू रोड (खराड़ी) से मारवाड़ की तरफ आबू पर्वत के जोड़ में अभी बसा हुआ है और चन्द्रावती का उद्वसित स्थान खराड़ी से पालनपुर की तरफ थोड़ी ही दूर बताया जाता है। इसमें यह विचारणीय है कि-आचार्यश्री जिनपतिसूरि जी महाराज शत्रुजयादि तीर्थ यात्रा निमित्त अजमेर के संघ सहित मारवाड़ आ रहे हैं तो, चन्द्रावती (खराड़ी से पालनपुर तरफ) आके फिर पीछे कासिंदरा (खराड़ी से मारवाड़ तरफ) कैसे गये होंगे? अतः संभव है कासहृद स्थान वर्तमान कासिंदरा न होकर गुजरात की तरफ में कासहृद नाम का कोई अन्य स्थान हो, या तो चन्द्रावती का उद्वस स्थान जो खराड़ी से पालनपुर तरफ के मार्ग में बताया जाता है वह न होकर खराडी से मारवाड तरफ कासिंदरा के आगे कहीं हो, यदि ऐसा न माना जाय तो जिनपालोपाध्याय लिखित युगप्रधानाचार्य गुर्वावली का लेखन आगे-पीछे होना अवश्य मानना पड़ेगा। (९२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके उत्तर स्वरूप पूज्यश्री बोले-आचार्य! श्रावक मात्र को संघपति नाम देना क्या ठीक है? तिलकप्रभ-लोक में ऐसी ही भाषा बोली जाती है। पूज्यश्री उपहासपूर्वक बोले-ग्रामीण जन सुलभ भाषा का सहारा लेकर जवाब देते हैं। इसमें कोई शास्त्रीय युक्ति हो। तिलकप्रभ-आप भी तो कोई प्रमाण नहीं दे रहे हैं, लोक प्रसिद्ध भाषा को केवल अपने कथन मात्र से ही छुड़वाने का आदेश देते हैं। पूज्यश्री-वाक्यशुद्धि नामक अध्ययन के अर्थ को जानने वाले साधु लोग बहुलता से लोकप्रसिद्ध शब्दों को छोड़ देते हैं। आचार्य जी! लोगों के साथ हमारा किसी प्रकार का मत्सर नहीं है, जिससे कि हम उनकी भाषा को प्रमाणभूत न मानें। परन्तु कहने का सारांश यह है कि व्रतधारी को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए, जिसके बोलने से माननीय पुरुषों की लघुता न होती हो। तिलकप्रभ-इस भाषा में क्या बड़ों की लघुता होती है? पूज्यश्री-इस बात को सभी कोई जानते हैं। तिलकप्रभ-कैसे? पूज्यश्री-आचार्यश्री ! संघ शब्द से साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं का समुदाय ग्रहण किया जाता है। लिखा है-"साहूण, साहुणीणय सावय साविय चउव्विहो संघो।" इस चतुर्विध संघ के पति तीर्थंकर या आचार्य ही हुआ करते हैं। तिलकप्रभ-अकेले श्रावक समुदाय के लिए भी संघ शब्द का प्रयोग देखा जाता है। पूज्यश्री-कारण में कार्य का उपचार होने से ऐसा लगता है, जैसे 'अष्टतमायुः' अर्थात् आठ वर्ष की आयु है। 'आयुर्घतम्' घी आयु बढ़ाने वाला है। यह सब ही है, परन्त इस प्रकार सब जगह उपचार के भरोसे शब्दों का प्रयोग करने से मिथ्या-दृष्टि लोगों में कहीं उपहास भी हो सकता है। वह लक्ष्मीधर श्रावक गृहस्थ है। इसके किसी कुत्सित कार्य को देखकर लोग मजाक उड़ाते कहेंगेजैनियों में यह सर्व प्रधान है, अन्य सब इससे नीचे हैं क्योंकि यह संघ का पति है। इसके कुत्सित कर्त्तव्य को देखकर स्थाली पुलाक न्याय से समझ लेना कि जैनियों के कर्त्तव्य कैसे हुआ करते हैं, हमारे कथन का यह सारांश निकलता है। इसलिए आचार्य जी! भविष्य में इस उपचार के भरोसे शब्दों का प्रयोग करना छोड़ दें। हाँ, श्रावक के लिए संघपति शब्द का प्रयोग अन्य रीति से हो सकता है। मैं दिखलाता हूँ। तिलकप्रभ-कैसे? पूज्यश्री-बहुव्रीहि समास का आश्रय लेने से जैसे कि 'संघः पतिर्यस्यासौ संघपतिः, श्रावक मात्रः' अर्थात् संघ है पति जिसका वह संघपति प्रत्येक श्रावक हो सकता है। तिलकप्रभ-मैंने महर्द्धिक श्रावक के लिए संघपति शब्द का प्रयोग किया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (९३) 2010_04 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री-हाँ, भ्रान्ति वश अनेक जगह लोग ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार अनेक तरह से बड़े विस्तार के साथ सैद्धान्तिक युक्तियों का प्रकाशन करते हुए महाराजश्री ने श्रावक के लिए प्रयोग किये जाने वाले संघपति शब्द का खण्डन किया। महाराज की इस युक्ति-प्रत्युक्तियों के सामने तिलकप्रभसूरि निरुत्तर हो गए। उनको चुप हुआ देख कर सुख-वार्ता पूछने के बहाने महाराज ने फिर बोल-चाल शुरू की-“साम्प्रंत यूयमत्रैव स्थाष्णवः अर्थात् अब आप क्या यहाँ ही ठहरेंगे?" तिलकप्रभाचार्य ने हँसते हुए कहा-"अहो आचार्य अत्रैव" इस पद को कहते हुए आपने वाक्य-शुद्धि नाम के अध्ययन की निपुणता दर्शा दी। कारण वहाँ कहा है कि "तहैव सावजणुमोइणो गिरा, ओहारिणी जा उ परोवघायणी" अर्थात् सावध का अनुमोदन करने वाली तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली, निश्चयात्मक वाणी साधु को बोलने योग्य नहीं है। इत्यादि ग्रंथ-वाक्यों से जाना जाता है कि मुनि एकान्त निश्चय रूप भाषा न बोले। आप शास्त्राज्ञा के विरुद्ध "यहाँ ही ठहरोगे क्या?" ऐसा निश्चयात्मक वचन बोलते हैं। सरल प्रकृति वाले पूज्यश्री बोले-आपने बहुत अच्छी बात सुझाई। कारण कि निश्चयात्मक वचन यदि व्यर्थ चला जाय तो साधु पर मिथ्या-भाषण का दोष आता है और ऐसा होने से व्रत भंग होता है। इसलिए साधु को एकान्त वचन बोलना कल्पता नहीं है। परन्तु आचार्य जी! आपने हमारा अभिप्राय नहीं जाना, इसलिये अब हम न्यायशास्त्र की रीति से अपना अभिप्राय प्रकाशित करेंगे। तर्कशास्त्र पढ़ने का यही फल है कि अभिमान छोड़कर अपना जैसा-तैसा जो भी वाक्य हो उसका जैसे हो सके वैसे समर्थन किया जाय। और "काकतालीय न्याय" से गंगा-जमुना के प्रवाहों की तरह आज अपनी मुलाकात भाग्यवश हो गई है। इसलिए अभिनिवेश (आग्रह) को छोड़कर तर्क रीति से इष्ट गोष्ठी की जाय तो अपने समागम की सफलता है। तिलकप्रभाचार्य ने कहा-हाँ, आपके कथन को मैं अक्षरशः मानता हूँ। पूज्यश्री-आचार्य! हम पूछते हैं कि साधु निश्चयात्मक वचन बिल्कुल बोले ही नहीं या कभी बोल भी सकता है। यदि कभी किसी प्रसंग में साधु को एकान्त वाणी बोलनी तो कब और कौन सी बोलनी चाहिए? “निश्चयात्मक वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिए।" इस प्रथम पक्ष को यदि लें तो आपके निज वचन का खण्डन होता है, और अइयम्मि य कालम्मि य पच्चुप्पन्नमणागए। निस्संकिय भवे जंतु एवमेयं तु निद्दिसे ॥ [भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में जो संशय-रहित हो उसी बात में "यह ऐसे ही है" ऐसा निश्चयात्मक भाषा साधु को बोलनी उचित है।] इस सिद्धान्त-वाक्य के साथ विरोध पड़ता है। "कभी-कभी साधु निश्चय-भाषा बोल सकता है।" यदि इस दूसरे पक्ष को ग्रहण किया जाय तो फिर हमको कोई उपालंभ नहीं मिल सकता। क्योंकि हमने आपके इस अभिप्राय के अनुसार ही निश्चयात्मक भाषा का उच्चारण किया है और (९४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जी! जिस वाक्य में निश्चय सूचक पद का साक्षात् निर्देश न किया गया हो, वहाँ पर "सर्व वाक्यं सावधारणम्" इस न्याय के अनुसार अर्थात् सब वाक्यों के साथ निश्चय रहा हुआ है, बिना निश्चय के कोई वाक्य नहीं होता। अपनी बुद्धि से ऐसे शब्द की कल्पना अवश्य कर लेनी चाहिए। न मानने से कहीं भी व्यवस्था नहीं रहेगी। जैसे "पटमानय" अर्थात् कपड़ा लाओ। इस वाक्य में ऐसे निश्चय अर्थ को न लेने से कपड़े की जगह और ही कोई चीज क्यों नहीं लानी चाहिए? और "पटं नयेत्' इसके सुनने से कपड़े के सिवा और ही किसी वस्तु को क्यों नहीं ले जानी चाहिए? और "अर्हन् देवः सुसाधुर्गुरुः" इत्यादि वाक्यों में भी परमपद प्राप्ति के कारण अर्हन् ही देव हैं। इससे अर्हन् देव ही हैं, अदेव नहीं हैं। इसी प्रकार एकमात्र मोक्ष-मार्ग का उपदेशक होने से सुसाधु ही गुरु है। इन वाक्यों को सावधारण माने बिना उपर्युक्त पदों में व्यवस्था नहीं हो सकती। इसी प्रकार सिद्धान्त-ग्रन्थों के वाक्य भी सावधायण होने से ही मनोहर हैं, अन्यथा नहीं। यथा-"धम्मो मंगलमुक्किटुं" इत्यादि वाक्यों से यह निश्चय होता है कि धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल रूप है, न कि दही-दूब आदि। या तो यों कहा जाय कि-धर्म मंगल ही है अमंगल नहीं, अथवा धर्म उत्कृष्ट मंगल ही है, न कि दही-दूब आदि। यह सब सुनकर तिलकप्रभसूरि ने कहा-आचार्य जी! अयोग व्यवच्छेद, अन्य योग व्यवच्छेद अथवा अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के लिए बुद्धिमान लोग एवकार का प्रयोग करते हैं, तो आपके कहे हुये "साम्प्रतं यूयमत्रैव स्थाष्णवः" अर्थात् अब आप यहाँ ही ठहरेंगे। इस वाक्य में प्रयुक्त एवकार शब्द से उपर्युक्त तीनों में से किस का व्यवच्छेद किया गया है? यदि आप कहें कि यहाँ अयोग व्यवच्छेद है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि विशेषण से आगे कहा हुआ एवकार अयोग व्यवच्छेद के लिए समर्थ हुआ करता है और यहाँ तो विशेषण का ही अभाव है। यदि अन्ययोग व्यवच्छेद के लिए एवकार को माना जाय तो वह भी ठीक नहीं। क्योंकि हम लोग हवा की तरह उद्यत विहारी रहते हैं, अतः हमारे लिए स्थानान्तर-योग का निषेध अशक्य है और यदि कहें कि अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के लिए एवकार है सो भी युक्ति-युक्त नहीं। क्योंकि क्रिया के साथ पढ़ा हुआ एव शब्द ही अत्यन्तायोग निवारण में समर्थ है, किन्तु केवल नहीं। यहाँ क्रिया का सर्वथा अभाव है। इसलिए विचार मर्यादा की कसौटी पर कसने से यह आपका शब्द अयोग्य ठहरता है। तिलकप्रभसूरि की ओर से कहे गये निष्कर्ष को सुनकर पूज्यश्री ने जरा आवेश में तेजी से कहा-हाँ, आपके कथनानुसार हमारा यह "एव" शब्द अयुक्त हो सकता है, यदि हम इसका किसी प्रकार समर्थन न कर सकें तो। परन्तु इसके समर्थन के लिये पहले हमने अनेकों युक्तियाँ दर्शाई, अब फिर आपके प्रश्न उत्तर देने के लिए हम अनेकों युक्तियाँ दिखलाते हैं। देखिये-वर्णनीय वस्तु में सन्देह अथवा विरोध उपस्थित होने पर उसे हटाने के लिए विचक्षण लोग अवधारण अर्थ वाले एवकार शब्द का प्रयोग करते हैं। जैसे कई लोग अपने युक्ति बल से आत्मा के अस्तित्व का समर्थन करते हैं, वैसे ही दूसरे लोग युक्तियों द्वारा ही आत्मा की सत्ता का खण्डन करते हैं और आत्मा का साक्षात्कार अन्य घट-पटादि पदार्थों की तरह किसी को होता नहीं। इसलिए आत्मा है या नहीं, इस संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास JainEducation International 2010_04 (९५) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशय में पड़े हुए शिष्य के प्रति यानि उसके सन्देह को मिटाने के लिये तथा जो वस्तु अपने निज के स्वरूप से या अन्य के स्वरूप से कही न जा सके अर्थात् जिसके साथ किसी दूसरी चीज का स्थिर सम्बन्ध न बताया जा सके, ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जैसे कि आकाश का फूल, वैसे ही सुख दुःखादि कोई वस्तु नहीं है । अब विचारना यह है कि सुख दुःखादि के साथ आत्मा का सम्बन्ध है या नहीं? इस सम्बन्ध में एकान्त निश्चय देना कठिन है । क्योंकि आत्मा के साथ सुख-दुःखादि का भेद या अभेद सिद्ध करने के लिए हेतु नहीं मिलता। यदि अभेद कहा जाय तो आत्मा द्वारा होने वाली सुख-दुःखदायिनी क्रियाओं में विरोध आता है, क्योंकि नित्य सुख - दुःखादि के साथ अभिन्न रूप आत्मा में क्रिया का होना असंभव है । यदि सुख-दुःख आदि के साथ आत्मा का भेद मानें तो भी ठीक नहीं घटता, क्योंकि क्रम से होने वाले बीजाकुंरादि भिन्न पदार्थों की तरह सुख - दुःखादि के साथ आत्मा का समवाय सम्बन्ध (नित्य सम्बन्ध), जैसा कि अन्य लोग मानते हैं वैसा है। जैसा कि अन्य लोग मानते हैं वैसा है नहीं, इत्यादि प्रकार की युक्तियों से आत्मा है ही नहीं ऐसी विपरीत श्रद्धा वाले शिष्य के प्रति आत्मा सम्बन्धी निश्चय कराने के लिये गुरु को निश्चयात्मक वाक्य बोलना पड़ता है, जैसे कि - " अस्ति एव आत्मा" अर्थात् आत्मा अवश्य है । क्योंकि प्रत्येक प्राणी में जो चैतन्य और ज्ञान देखा जाता है, यह आत्मा के बिना हो नहीं सकता। किसी स्थान पर प्रयोग किया हुआ वह अवधारण रूप “एव" शब्द चाहे एकादि पदार्थ का निराकरण करता है, किन्तु हमारे द्वारा प्रयुक्त यह " एव" शब्द अयोग- अन्य योग- अत्यन्तायोग तीनों का ही निराकरण (व्यवच्छेद) निम्नोक्त प्रकार से करता है । “साम्प्रतं यूयमत्रैव स्थाष्णवः " अर्थात् अब आप यहाँ ही ठहरेंगे। हमारे इस वाक्य में कहे गए सप्तम्यन्त एतत् शब्द से निष्पन्न " अत्र" पद से मास कल्पादि योग्य इतर क्षेत्रों से इस क्षेत्र का कुछ व्यवच्छेद होता है या नहीं? यदि नहीं होता है तब तो इस पद का प्रयोग ही व्यर्थ है और यदि होता है तो " अत्र " पद विशेषण हो गया और प्रकरणवश नगर विशेष्य होता है । विशेषण के आगे कहा हुआ " एव" शब्द वर्तमान काल की अपेक्षा से इस नगर के साथ आपका अयोग सुतरां सिद्ध हो जाता है। और यह सिद्ध होने पर इस नगर के अयोग का व्यवच्छेद " एव" कार करता है और वर्तमान काल की अपेक्षा से ही अन्य नगरादि के योग का भी स्वयं " एव" कार ही व्यवच्छेदित करता है, इसी प्रकार अत्यन्तायोग भी समझ लीजिये । इसी अभिप्राय से हमने उक्त वाक्य में "साम्प्रतम्" पद का प्रयोग किया है। इन युक्तियों से हमारे कथित वाक्य में " एव" कार का प्रयोग सर्वथा युक्ति युक्त है। हाँ, एक बात और है, कामचार - यथेच्छा विचरने वाले गुरु आदि के विषय में यदि एव शब्द का प्रयोग कहीं किया जाय तो व्याकरण के नियम के अनुसार पूर्व अवर्ण का लोप होता है। जैसे" हे गुरु! इहैव तिष्ठ, अन्यत्रैव वा तिष्ठ" अर्थात् हे गुरुजी ! यहाँ ठहरो या अन्यत्र ठहरो, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करो। गुरु आदि के सिवा अन्य लोगों के प्रति, "इहैव तिष्ठ, मा यासी: क्वापि " अर्थात् यहाँ ही ठहरो, अन्य जगह कहीं भी मत जाओ। ऐसा आज्ञा द्योतक वाक्य कहा (९६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। इन दोनों वाक्यों में एक जगह अवर्ण का लोप हुआ है और दूसरी जगह नहीं हुआ है, इस रहस्य को व्याकरण-शास्त्र के जानकार अच्छी तरह से समझ सकेंगे। पुनः पूज्यश्री ने हँसकर कहा-क्या आप हमारे नियोग से इतने बड़े परिवार के साथ यहाँ ठहरे हुए है? तिलकप्रभाचार्य ने कहा-यहाँ हम आपके नियोग से नहीं ठहरे हैं, फिर भी आपने नियोग सूचक पद का प्रयोग किया है। इसलिए आपका "अत्रैव" शब्द अपशब्द है। उत्तर में पूज्यश्री ने कहा-प्रयोगों के अर्थ को बिना जाने ही अपशब्द कहना उचित नहीं है। तिलकप्रभ-आपके कथन मात्र से ही मेरे में अज्ञानता का आरोप नहीं हो सकता। पूज्यश्री बोले-यह बात यों ही है। तिलकप्रभाचार्य ने कहा-तो फिर आप बतलाइये, आपका यह “एव" शब्द किस अर्थ में है। पूज्यश्री बोले-वैसे तो "एव" शब्द के अनेक अर्थ हैं, परन्तु पहले हम इसको एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ बतलाते हैं। आप जरा सावधान होकर सुनिये-"वचनमेव वचनमात्रम्" इत्यादि प्रयोग में स्वार्थ में ही "एव" शब्द प्रयुक्त है। इसी प्रकार हमारे वाक्य में भी समझिये। अब दूसरा अर्थ सुनिये। जहाँ-तहाँ संभावना अर्थ में "अपि" शब्द का प्रयोग किया हुआ देखा जाता है, वैसे ही यह "एव" शब्द भी संभावना अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐसे प्रयोग विद्वानों द्वारा किये हुए बहुधा देखे जाते हैं। जैसे कि हरिभद्रसूरि के वाक्यों में "वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम्" अर्थात् भगवन् आपका शरीर ही वीतरागता का परिचय दे रहा है। और भी यत्र तत्रैव गत्वाहं भरिष्ये स्वोदरं बुधाः। मां विना यूयमत्रैव भविष्यथ तृणोपमाः॥ [हे पण्डितों! मैं जहाँ कहीं जाकर अपना पेट भर लूँगा, परन्तु आप लोग मेरे बिना तृण तुल्य बन जाओगे।] ___ इसी प्रकार यह एवकार योग्य ही है, इस एवकार में आप किसी प्रकार अर्थ सम्बन्धी आपत्ति खड़ी नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त प्रश्न करते समय प्रश्नकर्ता सावधारण वाक्य बोले या निरवधारण वाक्य बोले, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। उसके वचन में कोई ऊहापोह नहीं किया जाता, यह लौकिक मर्यादा है। कारण प्रश्नकर्ता अनजान है इसीलिए पूछता है। हाँ, वही मनुष्य परिचय प्राप्त करने के बाद यदि अन्य समय में सावधारण (निश्चयात्मक) वचन बोले, तो उसके वचन में शक्ति भर दोष दर्शाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से समालोचक की बड़ी शोभा होगी। परन्तु शिष्ट जनों की इस रीति को भूल कर आपने अपनी पण्डिताई का उत्कर्ष दिखाने के लिए ही प्रयत्न किया है। इस बात को हम भली-भाँति समझ गये। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (९७) 2010_04 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अपने से प्रयुक्त श्री जिनपतिसूरि जी के मुख कमल से एवकार के विषय में सैकड़ों उत्तर सुनकर गुणग्राही तिलकप्रभाचार्य जी अतिशय प्रमुदित मन से कहने लगे - " आचार्य ! आप समस्त गुजरात में सिंह की तरह निडर होकर विचरें। आपके सम्मुख प्रतिमल्ल रूप से कोई नहीं ठहर सकेगा। मैंने आपके प्रभाव को अच्छी तरह से जान लिया है। इस शुभ वचन को सुनकर महाराज के पास में बैठे हुए एक मुनि ने अपने कपड़े की खूँट में शकुन ग्रंथी बाँधी । अपने या अपने प्यारे के सम्बन्ध में कोई शुभ संवाद सुनकर कपड़े में गाँठ लगाने की प्रथा अब भी मारवाड़ में प्रचलित है । 11 इस अभूतपूर्व अपने योग्य पण्डित गोष्ठी से तिलकप्रभसूरि को अत्यन्त आनन्द हुआ। अतएव पूज्यश्री की अधिकाधिक प्रशंसा करते हुये वे अपने उपाश्रय को चले गये । ५७. इसके बाद संघ वहाँ से चलकर आशापल्ली पहुँचा। वहाँ पर साधु क्षेमंधर सेठ अपने पुत्र प्राचार्य की वन्दना करने के लिए वादीदेवाचार्य की पौषधशाला में गये । वन्दना व्यवहार के बाद प्रद्युम्नाचार्य ने कुशलवार्ता के बहाने सेठ के साथ वार्तालाप करते हुये कहा - " सेठजी ! वाद -लब्धि द्वारा जगत्त्रय विख्यात श्री देवाचार्य प्रदर्शित और पितृ-परंपरागत मार्ग को छोड़कर आप कुमार्ग में लग गये हो, इसका क्या कारण है?" उत्तर में सेठ क्षेमंधर ने कहा- मैं आपको मस्तक से वन्दना करता हुआ निवेदन करता हूँ कि मैंने अपनी समझ से अच्छा किया है जो खरतरगच्छ में सब विद्याओं के पारंगत सिद्धान्तानुयायी श्री जिनपतिसूरि जी को अपना गुरु माना है, यह कोई बुरी बात नहीं है । जरा गुस्से में आकर प्रद्युम्नाचार्य ने कहा- सेठजी ! मारवाड़ के रूखे मुल्क में जड़ लोगों को पाकर आपके ये गुरु सर्वज्ञ माने जाते हैं सो ठीक है, जहाँ और वृक्ष नहीं होता, वहाँ अरण्ड को भी कल्पवृक्ष मान लिया जाता है। लेकिन हमारा मन तो इस बात को जान कर बड़ा दुःख पाता है कि परमगुरु श्री देवसूरि के वचनामृत से पूर्ण आप लोगों की कर्णपुटी रूप नहर से सींचे गये हृदय क्षेत्र में जो विवेकांकुर पैदा हुआ था, उस पर जिन प्रवचन के विरुद्ध प्ररूपण करने में प्रवीण धूर्त लोगों के उपदेश का पाला पड़ गया, यह महान् अनर्थ हुआ । खैर "बीती ताहि विसारिये" के अनुसार अब भी आप हमसे मिल लिये यह अच्छा हुआ । सेठ क्षेमंधर ने कहा-आचार्य ! हमारे गुरु मारवाड़ को छोड़कर इस समय गुजरात में आपके पास नगारे के धौंसे के साथ आ पहुँचे हैं। यदि आप उनके सम्मुख हों तो आपको उनकी असलियत का पता लग जाय । नकली हँसी हँसते हुए प्रद्युम्नाचार्य ने कहा- सेठ शास्त्रार्थ में अपनी प्ररूपणा को स्थिर करने के लिए आप अपने गुरु को शीघ्र तैयार करें, हम तैयार हैं। अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को महाराज से प्रतिबोध मिल जाय तो अच्छा है, इस अभिप्राय से महाराज के पास आकर सेठ क्षेमंधर कहने लगा- "महाराज ! आप मेरे पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को आयतन (९८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनायतन सम्बन्धी विषय को समझा कर अपना शिष्य बना लें। मैं अभी पौषधशाला में उसको वन्दना करने के लिए गया था, वह इस विषय में परामर्श करने के लिए तैयार सा दिखता है।" सुनकर पूज्यश्री ने कहा-सेठ! बहुत अच्छा, ऐसा करने को हम तैयार हैं। इस शास्त्रार्थ की तैयारी को देखकर भणशाली गोत्रीय संभव और वाहित्र गोत्रीय उद्धरण आदि संघ के प्रधान पुरुषों ने परस्पर में परामर्श करके महाराज से कहा-"महाराज! जिस खास प्रयोजन को लेकर आप पधारे हैं, पहले उसे करना चाहिए और वाद-विवाद आदि पश्चात् करियेगा?" सेठ क्षेमंधर ने भी इसे ठीक समझा। पूज्यश्री ने कहा-भले आप लोग जैसा उचित समझें, हम वैसा करने को तैयार हैं। क्षेमंधर सेठ ने प्रद्युम्नाचार्य के पास जाकर कह दिया-आचार्य! इस समय सारा संघ उत्कण्ठावश तीर्थवन्दना के लिए उतावला है, अतः जाने की जल्दी है। लौटते समय हमारे आचार्यश्री आपके साथ आयतन-अनायतन संबंधी विचार अवश्य करेंगे। प्रद्युम्नाचार्य ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा-देखो, लौटती वक्त इस स्थान से बच कर मत निकल जाना। वहाँ से प्रस्थान करके सारा संघ स्तम्भनक (खंभात), उज्जयंत (गिरनार) आदि तीर्थों में जाकर ठहरा, वहाँ पर महा द्रव्यस्तव एवं महा भावस्तव से तीर्थ वन्दना तथा पूजा की गई। इससे आगे मार्ग की गड़बड़ी आदि के कारण संघ शत्रुजय तीर्थ में नहीं जा सका। ५८. जब संघ लौटकर आने लगा तब संघ में से पूज्यश्री के अनन्य भक्त श्रावकों में कई एक मनुष्य कौतुक वश संघ के पहुंचने से पहले ही आशापल्ली नगरी में आ पहुँचे और वहाँ पर किसी एक स्थानीय व्यापारी की दुकान पर बैठ गये। उन लोगों से दुकानदार व्यापारी ने पूछा-"संघ के साथ कोई आचार्य भी हैं?" उन लोगों ने कहा-"हाँ हाँ।" पुनः दुकानदार कहने लगा-"हाँ, धरामण्डल में आचार्य अनेक हैं, परन्तु प्रद्युम्नाचार्य के समान तो भरत क्षेत्र में कोई नहीं है।" इस बात को सुनकर उन लोगों को बड़ी हँसी आई और वे बोले कि-"सेठजी! यह आपने बहुत सच कहा। मालूम होता है, आपके समान भी संसार में कोई नहीं है तो फिर आचार्य के समान तो भला होता ही कहाँ से? किन्तु, इस बात को हम भी मानते हैं कि जो प्रद्युम्नाचार्य से समग्र गुणों में अधिक हैं, वे भला प्रद्युम्नाचार्य के समान कैसे कहे जा सकते हैं।" जब आशापल्ली वासियों को सूचना मिली कि श्रीसंघ नगर के समीप पहुँच गया तब प्रद्युम्नाचार्य के भक्त अभयड दण्डनायक नामक नगर कोतवाल के तत्त्वावधान (मुख्यता) में स्थानीय लोगों को एक बड़ा समुदाय संघ के संमुख पहुँचा। बड़े समारोह के साथ नगर-प्रवेश कराकर संघ को योग्ययोग्य स्थानों में ठहराया गया। पूज्य श्री को स्वच्छ-सुन्दर स्थान रहने के लिए दिया गया। वहाँ आचार्यश्री अपने मुनि-मण्डल के साथ ठहरे। (९९) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ क्षेमंधर फिर से पूज्यश्री की आज्ञा लेकर प्रद्युम्नाचार्य को वन्दना करने उनके उपाश्रय में गये। आचार्य ने भी बहुमानपूर्वक सेठजी से तीर्थ-वन्दना सम्बन्धी बातें पूछ कर पूर्व प्रतिज्ञा को याद दिलाते हुए कहा कि-सेठजी! क्या आप अपना यह वचन भूल गए? उत्तर में क्षेमंधर ने कहा-भला मैं उस बात को कैसे भूला सकता हूँ। उस प्रयोजन से तो यहाँ आना ही हुआ है। प्रद्युम्नाचार्य ने अपने मन में सोचा-इस अवसर से हमें लाभ उठाना चाहिए। संघ में हमारे कई एक सांसारिक बन्धु आये हुये हैं, शास्त्रार्थ के बहाने उन सब को हम प्रतिबोध दे सकेंगे। मन में इस प्रकार निश्चय करके वे सेठ क्षेमंधर से कहने लगे-सेठजी ! तो अब विलम्ब किस बात का है? सेठ ने कहा-उठिये, अभी चलिये, देरी का क्या काम? इस प्रकार के वचन सुन सेठ क्षेमंधर के साथ प्रद्युम्नाचार्य श्री जिनपतिसूरि जी के पास आये। साधु संप्रदाय के नियमानुसार बड़े-छोटे के हिसाब से दोनों ओर से वन्दनानुवंदन का व्यवहार प्रदर्शित किया गया। तत्पश्चात् पूज्यश्री ने प्रद्युम्नाचार्य से पूछा-आपने कौन-कौन से ग्रन्थ देखें हैं? नई उम्र में स्वभावतः पैदा होने वाले अहंकार के अधीन होकर प्रद्युम्नाचार्य बोले कि-वर्तमान काल में विद्यमान सभी ग्रंथ हमने देखे हैं। इस अहंकार भरे वाक्य को सुनकर पूज्यश्री ने विचारा कि-यदि हम इसके वाक्यों में पहले ही पहले नुकताचीनी करेंगे तो, यह आकुल-व्याकुल होकर कुछ का कुछ बोलने लग जायगा। ऐसा होने से इसके शास्त्रीय ज्ञान का स्वरूप नहीं जाना जायेगा। अतः पूज्यश्री ने कहा-आप अपने अभ्यस्त शास्त्रों के नाम तो बतलाइये? उसने कहा-हैमव्याकरण आदि लक्षण शास्त्र, माघ काव्य आदि महाकाव्य, कादम्बरी आदि कथा, महाकवि मुरारि आदि के प्रणीत आदि अनेकों नाटक, जयदेव आदि अनेकों कवि रचित छन्दःशास्त्र, कन्दली, किरणावली, अभयदेवीय न्याय तर्क, काव्यप्रकाशादि अलंकार और सभी सिद्धान्त (आगम) हमने आनुपूर्विक देखे हैं। पूज्यश्री मन ही मन विचारने लगे-इसने तो खूब गाल बजाये। इसका शास्त्रीय ज्ञान इतना है या नहीं? जरा जाँच तो करें। पूज्यश्री ने पूछा-आचार्य! लक्षण का क्या स्वरूप है और कितने भेद हैं? प्रद्युम्नाचार्य-काव्यप्रकाश के अनुसार लक्षण के स्वरूप और भेदों का विवेचन करने लगा। तब पूज्यश्री ने विचारा कि यदि हम बीच में ही इसे रोकेंगे-टोकेंगे, तो यह इसी पर अड़ जायगा। आयतन-अनायतन विषयक चर्चा नहीं हो सकेगी। इसलिए इसे बेरोक-टोक बोलने दिया जाय, जिससे यह अहंकार की चरम सीमा तक पहुँच जाय । इसलिए पूज्यश्री ने ऐसा कोई वचन नहीं कहा, जिससे उसका मनम्लान हो। (१००) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड __ 201004 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्नाचार्य ने काफी देर तक अपनी गल-गर्जना करके पूज्यश्री से प्रश्न किया-आचार्य! अनायतन किस सिद्धान्त में कहा है? जो आप व्यर्थ ही भोले-भाले लोगों को इस प्रकार बहका रहे हैं। पूज्यश्री ने जवाब दिया- दशवैकालिक, ओघनियुक्ति, पंचकल्प, व्यवहार आदि सिद्धान्त ग्रंथों में अनायतन विषयक विवेचन ठीक तौर से किया गया है। प्रद्युम्नाचार्य बोले-भगवन् ! गाढ़ अभ्यास के कारण सम्पूर्ण ओघनियुक्ति मुझे अपने नाम की तरह अनुभूत है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उसमें अनायतन सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है। जवाब में पूज्यश्री ने कहा-आचार्य! अन्य सिद्धान्तों को दूर रहने दीजिए, यदि हम किसी तरह ओघनियुक्ति से सिद्ध कर आपको यह मान्य करा दें कि देवगृह और जिनप्रतिमा अनायतन होती है, तब तो आप हमारी जीत हुई मानोगे? उत्तर में प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-हाँ! यह बात हमें स्वीकार है। परन्तु आज तो देर बहुत हो गई है, वार्तालाप का समय कल प्रात:काल का निश्चित रखिये। पूज्यश्री ने कहा-क्या हर्ज है ऐसा ही सही। प्रद्युम्नाचार्य हाथ से हाथ मिलाये हुए सेठ क्षेमंधर को साथ लेकर अपनी पौषधशाला में चले गए। वहाँ पर सेठ रासल के पिता सेठ धणेश्वर ने सेठ क्षेमंधर को सुनाते हुए जिनपतिसूरि जी के पैर में फोड़े पर बंधी हुई पाटी को लक्ष्य कर व्यंग्य वचन कहा-"आपके गुरुजी के पैर में बंधे हुए चीर-कटक (कपड़े के टुकड़े) का प्रमाण कल सुबह मालूम होगा।" इस बात को सुनकर क्रोधवश लाल नेत्र होकर सेठ क्षेमंधर ने कहा-रे लम्पट ! तेरे बडवाओं (पूर्वजों) से तो कही अधिक मान पूज्यश्री के पैर में बंधे हुए चीर-कटक का है। इस तू-तू मैं-मैं को शान्त करते हुए प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-तुच्छ कारण को लेकर आप लोगों का कलह करना अच्छा नहीं है। प्रात:काल सब के लिए अच्छा होगा और सभी के मान-प्रमाण माने जायेंगे। इसके बाद प्रद्युम्नाचार्य को वन्दना करके क्षेमंधर सेठ पूज्यश्री के पास आ गये वहाँ पर यदपसरति मेषः कारणं तत् प्रहर्तु, मृगपतिरपि कोपात् संकुचत्युत्पतिष्णुः। हृदयनिहितवैरा गूढमन्त्रोपचाराः, किमपि विगणयन्तो बुद्धिमन्तः सहन्ते॥ [जिसके हृदय-मंदिर में विद्वेषाग्नि धधक रही हो, जिसकी गुप्त मन्त्रणा दुर्जेय हो, ऐसे बुद्धिमान लोग अनुकूल समय की प्रतीक्षा में शत्रुओं से किये जाने वाले किसी भी दुर्व्यवहार को कोई चीज नहीं गिनते हुए चुप-चाप सहन कर लेते हैं। जैसे कि-लड़ाई में मेढ़े का पीछे की ओर हटना हार का चिह्न नहीं है, किन्तु जोर से टक्कर देने के लिये है। सिंह का सिकुड़ना-कमजोरी एवं भीरुता का चिह्न नहीं है, किन्तु वह अपने शिकार पर ऊँची छलांग मारने के लिए सिकुड़ता है।] धीर पुरुषों की भी यही नीति है। वे प्रथम ही प्रथम दुश्मन के साथ नम्रता से पेश आयेंगे। बाद में अपने पराक्रम का परिचय देंगे। प्रद्युम्नाचार्य के साथ चर्चा को प्रारंभ करते हुए, पूज्यश्री ने भी इसी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१०१) 2010_04 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श को अपनाया था। परन्तु स्थूल बुद्धि के श्रावक लोग पूज्यश्री के इस अभिप्राय को न जानते हुए कहने लगे-"महाराज! प्रद्युम्नाचार्य ने अपने गाल फुला-फुला कर बहुत कुछ कहा और उसके विरुद्ध आप कुछ भी नहीं बोले, यह कहाँ तक उचित है? जरा आप ही सोचें।" इसके उत्तर में महाराज कहने लगे-श्रावक लोगों शान्त रहो, धैर्य धारण करो, उतावले मत बनो। कहावत है-एक ही सपने में रात खत्म नहीं हुआ करती। इधर ये बातें हो रही थी, उधर प्रद्युम्नाचार्य की तरफ का हाल सुनिये-प्रद्युम्नाचार्य ने शास्त्रार्थ का रण-निमंत्रण स्वीकार तो कर लिया, परन्तु अब मान-हानि का भय आ खड़ा हुआ। अतः प्रद्युम्नाचार्य ने अपने पक्ष के अनेक आचार्य पंडितों को बुलाया और उनके साथ बैठ कर अत्यन्त प्रकाशमान दीपकों के प्रकाश में रात्रि भर "ओघनियुक्ति" की मूल सहवृत्ति पुस्तकों को वांची, देखी, परन्तु घोर परिश्रम करते हुए भी "अनायतन के स्वरूप" को बतलाने वाला स्थल प्रकरण उन्हें नहीं मिला। बड़ी निराशा हुई। आखिर उपायान्तर न देख कर पूछने के लिए पूज्यश्री के पास अपने आदमी को भेजा। पूज्यश्री ने उनके प्रश्न के अनुसार स्थल बतला दिया। बताये हुए उद्देश को देखते हुए अनायतन संबंधी प्रसंग मिल गया। उस स्थल में से अनायतन प्रतिपादक गाथाओं के टीका-पाठ को अन्यान्य टीका-पाठ के साथ जोड़ के खूब चिंतन किया यानि अपनी अभीष्ट सिद्धि हो वैसी युक्ति प्रयुक्तियों का विचार किया। तत्पश्चात् प्रात:काल होते ही हजारों नागरिक लोगों के साथ एवं अपने भक्त अभयड नामक दण्डनायक (नगर कोतवाल) के हाथ से हाथ मिलाये हुए और स्थानान्तरों से बुलाये हुए अनेक आचार्यों से परिवृत्त हुए प्रद्युम्नाचार्य पूज्यश्री जिनपतिसूरि जी म० से अलंकृत मकान पर आ पहुँचे। आने के साथ अपने क्षुद्र स्वभाव के कारण वन्दनादि शिष्ट व्यवहार किये बिना ही नीचे के भूमितल पर सभी आचार्य लोग जल्दी से बैठ गये। आ० श्री जिनपतिसूरि जी भी इनके आगमन की सूचना मिलने पर अपने परिवार के साथ नीचे आये। देखा तो कोई योग्य जगह बैठने को है नहीं, अतः महाराज की वैयावच्च (सेवा) करने वाले जिनागरगणि ने उन लोगों की कपट क्रिया जान कर कहा- भगवन् !आपका आसन कहाँ बिछाऊँ? तीन तरफ का हिस्सा इन्होंने रोक लिया है। पूज्यश्री ने कहा-और तो कोई बैठने योग्य जगह नहीं, अत: यहीं बिछा दो। शिष्य ने कहा-महाराज! यहाँ बैठने से योगिनी सन्मुख पड़ेगी। पूज्यश्री ने कहा-भले हो, गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज सब भला करेंगे, तू यहीं आसन बिछा! ऐसा कह कर महाराज आसन बिछवा कर पूज्य श्री उसी स्थान पर विराज गये। उस समय भरी में सेठ क्षेमंधर और वाहित्र गोत्रीय उद्धरण आदि ने खड़े हो हाथ जोड़ कर आचार्य जी से विनती की कि-"प्रभो! यह बड़े-बड़े आचार्यों का सम्मेलन आज अनेक दिनों में हमें देखने को मिला है, इसलिए यदि आप लोग संस्कृत भाषा में बोलें तो हमारे कानों को बड़ा सुहावना लगेगा।" (१०२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री ने कहा-"हाँ, इसमें क्या बुरा है? परन्तु यह बात आप प्रद्युम्नाचार्य से भी स्वीकार करवा लें।" श्रावकों ने प्रद्युम्नाचार्य से प्रार्थना की-भगवन् ! लोगों में सुनते हैं कि देवता लोग परस्पर में सदैव संस्कृत भाषा ही बोलते हैं। परन्तु देवदर्शन हमें दुर्लभ है और संस्कृत सुनने की हम लोगों की बड़ी इच्छा है। इसलिए आप लोग हमारे ऊपर परम अनुग्रह करके संस्कृत भाषा बोलेंगे तो हमारी देव-दर्शनेच्छा पूर्ण हो जायगी। कारण कि आप दोनों आचार्यों ने अपनी सुन्दराकृति से देवताओं को भी मात कर दिया है। हँस कर प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-श्रावक लोगों! क्या आप लोग संस्कृत भाषा समझ जायेंगे? वे बोले-हाँ, महाराज! आपका कहना युक्त ही है। मारवाड़ में पैदा होने वाले इतना भी नहीं जानते कि बेर का मुख ऊपर है, नीचे है या बांई ओर है। महाराज! कहाँ पूज्यश्री, कहाँ आप और कहाँ हम लोग। फिर भी आज यह आप लोगों का शुभ संयोग हमारे महाभाग्य से हो ही गया है। आप लोगों के शुभ संभाषण से यदि हम लोगों के कानों को सुख मिले तो यह बड़े सन्तोष की बात होगी। इस तरह के दुर्लभ समागम के होने की आगे बहुत कम संभावना है। इस प्रकार श्रावकों का अत्यधिक अनुरोध देखकर प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-बहुत अच्छा, आप लोग कहते हैं तो वैसा ही करेंगे। प्रद्युम्नाचार्य अपने साथ एक खड़िया का टुकड़ा व पट्टी आदि लिखने का साधन ले आये थे। उसे देख कर पूज्यश्री ने कहा-यह खड़िया का टुकड़ा क्यों लाये हैं? प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-संस्कृत बोलते हुए यदि कदाचित् कोई अपशब्द (अशुद्ध प्रयोग) बोलने में आ जाय तो उसको सिद्ध करने के वास्ते। आचार्यश्री ने कहा-मुख जबानी शब्द-सिद्धि करने का सामर्थ्य जिसमें न हो उसको संस्कृत भाषा में बोलने का अधिकार ही क्या है? वास्ते इसे अलग रखिये। दूसरे यह पट्टी किस वास्ते लायी गई है? प्रद्युम्नाचार्य-बोलने में आ जाने वाले अपशब्दों को लिख लेने के वास्ते। पूज्यश्री-जो मनुष्य बोले जाते अपशब्दों को अपने हृदय में धारण कर रख नहीं सकता है वह वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने की इच्छा कैसे रख सकता है? अतः आप इस पट्टी को भी दूर हटा दीजिये। इस प्रकार आक्षेपपूर्वक आचार्यश्री के कहने पर प्रद्युम्नाचार्य ने वह खड़िया और पट्टी दोनों ही अलग रख दिये। बाद में नैयायिक पद्धति से "अनायतन' विषय को लेकर दोनों आचार्य संस्कृत भाषा में खंडन-मंडनात्मक भाषण करने लगे। उस समय जैन शास्त्रों में वर्णित भरतेश्वर और बाहुबलि के युद्ध की तरह उन दोनों आचार्यों का वाग्युद्ध देखने योग्य था। प्रद्युम्नाचार्य के तात्कालिक शास्त्रार्थ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१०३) 2010_04 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शैली, युक्ति व प्रमाण देखने की जिन्हें इच्छा हो वे सज्जन प्रद्युम्नाचार्य कृत "वादस्थल' नामक ग्रंथ को देखें। इसी तरह जिनको श्री जिनपतिसूरि के अगाध पाण्डित्य का रसास्वादन लेना हो वे महानुभाव आचार्यश्री की रची हुई "वादस्थल'१ पुस्तक का अवलोकन करें। उससे विदित होगा कि महाराज ने किस प्रकार प्रद्युम्नाचार्य के वचनों का निराकरण करके सब लोगों के सामने खरतरगच्छ के मन्तव्यों की पुष्टि की है। इन दोनों ग्रन्थों के देखने से विद्वान पाठकों को अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। शास्त्रार्थ के तमाम विषय को यहाँ पर हमने इसलिए नहीं लिखा कि एक तो इतना सब विषय लिखने से पुस्तक का आकार-प्रकार बहुत बढ़ जायगा। दूसरे यह कि श्रावकों के आग्रह से ये शास्त्रार्थ सम्बन्धी कुछ परिमित बातें लिखी जाती हैं। अतः जो बातें श्रावकों के लिए उपयोगी भी सिद्ध हों वे ही लिखनी चाहिए और यदि वादस्थल लिखित सभी बातें लिखी जाती तो हम समझते हैं कि उस जटिल एवं कठिन विषय का सारांश साधारण पाठकों के समझ में आना ही कठिन था। फिर भी स्थान खाली न रहने के भाव से कुछ थोड़ी सी बातें लिखते हैं। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-जिस देवगृह (जिनमन्दिर) आदि में साक्षात् साधु निवास करते हैं, वह आपके कथनानुसार अनायतन ही सही, परन्तु बाहर रहते हुए साधु लोग जिस देवगृह की सारसंभाल करते हैं, उसे आप क्या कहेंगे। पूज्यश्री उनका कथन सुन कर खूब हँसे और बोले-आचार्य! आपने-अपने वक्तव्य में "सारा" शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द का संस्कृत भाषा में प्रयोग करते हुये आपने अपना वर्तमानकालवर्ती शास्त्रज्ञान का परिचय अच्छी तरह दे दिया। प्रद्युम्नाचार्य-क्या सारा शब्द नहीं है। पूज्यश्री-हाँ, बिल्कुल नहीं है। प्रद्युम्नाचार्य-सब लोगों में प्रसिद्ध 'सारा' शब्द को आप केवल अपने कथन मात्र से ही अपलापित नहीं कर सकते। पूज्यश्री-लोगों से आप का मतलब हल चलाने वाले, गोपालन करने वाले लोगों से है अथवा व्याकरणादि विद्याओं में पारंगत पण्डितगणों से? यदि आप कहें कि मेरा अभिप्राय हलवाहकादि से है, तो कहना पड़ेगा कि संस्कृत भाषा के बीच में हलवाहकादि की भाषा बोलते हुए आप पण्डितों की सभा में अपने आप का गौरव घटाते हैं और यदि आप कहें कि "सारा" शब्द के उच्चारण से मैं पण्डितों का अनुकरण कर रहा हूँ, तो आप कृपया इसकी पुष्टि-समर्थन के लिए किसी पण्डित को साक्षी रूप से उपस्थित करिये या किसी पण्डित ने किसी पुस्तक में "सारा" शब्द का प्रयोग किया हो तो हमें दिखलाइये। १. यहाँ दोनों ही कृतियाँ "वादस्थल" नाम से लिखी हैं, परन्तु जहाँ तक मेरा ख्याल है, चाहे जिनपतिसूरि जी की हो या प्रद्युम्नाचार्य की हो, दो में से एक की कृति "वादस्थानक" नाम की है। (१०४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस फटकार को सुन कर प्रद्युम्नाचार्य आकुल व्याकुल हो गया और बोला - जैसे सारण - वारण इत्यादि शब्दों का प्रयोग है वैसे ही सारा शब्द का प्रयोग हमने किया है। पूज्य श्री मजाक से हँस कर बोले- आचार्य जी ! आपने वर्तमान कालवर्ती शास्त्रों की जानकारी का बड़ा श्रेष्ठ परिचय दिया है । धन्य है आप और धन्य है आपका शास्त्र ज्ञान । प्रद्युम्नाचार्य अपनी कमजोरी का अनुभव करके कुछ-कुछ खिन्न होकर बोला- सिद्धान्त-ग्रन्थों का विचार प्रारंभ करके बीच में ही यह शब्दापशब्दों की विचारणा क्यों शुरु कर दी। आयतनअनायतन विषयक निर्णय करने के लिए प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रंथों की वाचना क्यों नहीं करते । पूज्यश्री ने कहा- हाँ, ऐसा करिये। उसी समय प्रद्युम्नाचार्य ने स्थापनिका (ठवणी - सांपड़ा) रख दी और उसके ऊपर ओघनियुक्तिसूत्रवृति पुस्तक के सब पानों-पत्रों से भरी हुई कपलिका (वस्ता) रख दी। पूज्यश्री ने कहा- ग्रन्थों को पढ़ कर सुनायेगा कौन? कपटाशय से प्रद्युम्नाचार्य ने कहा- मैं पढ़कर सुनाऊँगा । सरल हृदय वाले पूज्यश्री ने विचारा - " क्या क्षोभवश इसकी बुद्धि विचलित हो गई, जो यह हमारे सामने ग्रन्थों को वाँच - वाँच सुनाने को स्वीकार करता हुआ अपने आपकी लघुता को भी ध्यान में नहीं लाता । खैर, इसकी इच्छा।" ऐसा विचार के आचार्यश्री ने कहा- " भले, ऐसा करो। " तत्पश्चात् प्रद्युम्नाचार्य निम्नलिखित गाथाओं को वाँचने लगे नाणस्स दंसणस्स य, चरणस्सय तत्थ होइ उवघाओ । वज्जिज्ज वज्जभीरू, अणाययणवज्जओ खिप्पं ॥ ७७८ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । मूलगुणप्परिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७७९ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । उत्तरगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७८० ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७८१ ॥ आययणं पि य दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वम्मि जिणहराई, भावम्मि होइ तिविहं तु ॥ ७८२ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना आययणं तं वियाणाहि ॥ ७८३ ॥ सुंदरजणसंसग्गी, सीलदरिद्दं विकुणइ सीलड्डुं । जह मेरुगिरीजायं, तणं पि कणयत्तणमुवेइ ॥ ७८४ ॥ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१०५) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. व्याख्या-ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च "यत्र" अनायतने भवत्युपघातस्तद्वर्जयेदवद्यभीरुः साधुः। किं विशिष्टः अनायतनं वर्जयतीति अनायतनवर्जकः स एवं विधः क्षिप्रमनायतनमुघात इति मत्वा वर्जयेदिति ॥ ७७८ ॥ इदानीं विशेषतो अनायतनं प्रदर्शयन्नाह2. व्याख्या-सुगमा, नवरं-मूलगुणाः प्राणातिपातादयस्तान्प्रतिसेवन्त इति मूलगुणप्रतिसेविनस्ते यत्र निवसन्ति तदनायतनमिति ॥ ७७९ ॥ 3. व्याख्या-सुगमा, नवरं उत्तरगुणाः "पिण्डम्स जा विसोही" इत्यादि तत्प्रतिसेविनो ये॥ ७८० ॥ 4. व्याख्या-सुगमा, नवरं-लिंगवेषमात्रेण प्रतिच्छन्ना बाह्यतोऽभ्यरतः पुनर्मूलगुणप्रतिसेविन उत्तरगुणप्रतिसेविनश्च, ते यत्र तदनायतनमिति। उक्तं लोकोत्तरभावानायतनं, तत्प्रतिपादनाच्चोक्तमनायतनस्वरूपं ॥ ७८१ ।। इदानीमायतनप्रतिपादनायाह5. व्याख्या-आयतनयपि द्विविधं-द्रव्यविषये भावविषये च भवति। तत्र द्रव्ये जिनगृहादि, भावे भवति त्रिविधंज्ञानदर्शनचारित्ररूपमायतनमिति ।। ७८२ ॥ जत्थेत्यादि सुगमा। [जहाँ पर रहने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का व्याघात होता हो, उसे अनायतन कहते हैं अतः अनायतन को वर्जित करने वाला पापभीरु साधु उस स्थान को बहुत जल्दी छोड़ दे। जहाँ पर भिन्न चित्त वाले, अनार्य मूल गुणों के प्रतिसेवी यानि चरणसित्तरी रूप मूल गुणों में दोष लगाने वाले अनेक साधर्मी (वेष से समानता वाले साधु) रहते हों, उसे अनायतन जानो। जहाँ भिन्न-भिन्न चित्त वाले पिण्डविशुद्धयादि करणसितरी रूप उत्तर गुणों के दोष सेवन करने वाले साधर्मी रहते हैं, उसे भी अनायतन समझो। जहाँ पर भिन्न चित्त वाले, अनाचारी केवल साधु के चिह्न रजोहरणादि और वेश को धारण करने वाले बहुत से समान धर्मी रहते हैं, उसे अनायतन समझना चाहिए। द्रव्यायतन और भावायतन भेद से आयतन भी दो प्रकार का होता है। द्रव्यायतन में जिन गृह (मन्दिर) आदि की गणना है और भावायतन मूलगुण व उत्तरगुण के विषय में माना गया है। जहाँ भिन्न चित्त वाले बहुश्रुत और चारित्राचार सम्पन्न बहुत से सहधर्मी रहते हों उसे आयतन कहते हैं, इसी का नाम भावायतन भी है। ___अच्छे सदाचार सम्पन्न मनुष्यों का संसर्ग शीलरहित मनुष्यों को भी शीलवान बना देता है। जैसे स्वर्णाचल मेरु नाम के पहाड़ में उगा हुआ घास भी सुवर्ण बन जाता है।] । पूज्यश्री द्वारा बताई हुई इन गाथाओं की टीका को प्रद्युम्नाचार्य बाँचने लगे और आचार्य महाराज अस्खलित वाणी से इनकी हाथों-हाथ व्याख्या करने लगे। इसके बाद अपने मत की स्थापना के लिये जिसकी बुद्धि में कपट भरा हुआ है ऐसे प्रद्युम्नाचार्य ने सबकी आँखों में धूल झोंकते हुए उस (१०६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण को टालने के लिए एक साथ ही दो पन्नों को उलट दिया और जो गाथा बाँची उसको छोड़ के अन्य ही गाथा-वृति को बाँचने लगे। __पूज्यश्री के पास बैठे हुए जिनहितोपाध्याय ने इस चालाकी को देखकर प्रद्युम्नाचार्य का हाथ पकड़कर कहा-"आचार्य! इन छोड़े हुए पिछले दो पन्नों को बाँच कर आगे बाँचिये।" चालाकी के पकड़े जाने से प्रद्युम्नाचार्य आकुल-व्याकुल हो गये और यों ही आगे-पीछे के पन्नों को उलटने लगे। इस अवसर पर "हेड़ावाहक' उपाधि के धारण करने वाले श्रीमालवंशोत्पन्न वीरनाग नामक श्रावक ने मामा पदवीधारी अभयड नामक शहर के कोतवाल से कहा-मामा! आपके नगर में क्या उसी पुरुष को कैद किया जाता है, जो रात्रि में चोरी करे और दिन दहाड़े चोरी करने वाला यों ही छोड़ दिया जाता है? इस बात को सुनकर कोतवाल चौंका और इधर-उधर देखता हुआ बोला-हेड़ावाहक आप क्या कहते हैं? वीरनाग बोला-मामा साहब! देखिये-देखिये, तुम्हारे गुरु प्रद्युम्नाचार्य ने चालाकी से दो पन्नों को छिपा दिया। इस बात को सुनकर चिढ़े हुए अभयड दण्डनायक ने अपने हाथ में रही चमड़े की बेंत द्वारा वीरनाग की पीठ पर आघात किया। इधर प्रद्युम्नाचार्य भी चालू प्रकरण को बाँचने लगे और पूर्ववत् पूज्यश्री जी उसकी व्याख्या विस्तार से करते रहे। बीच में ही मानो पूज्यश्री के भाग्य-बल से प्रेरित प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-"आचार्य! इस रीति से तो देवगृह ही अनायतन होता है, प्रतिमा अनायतन नहीं समझी जाती और आप तो प्रतिमा को भी अनायतन बतलाते हैं।" पूज्यश्री हँस कर बोले-"आप स्थिरता रखिये। इस सभा के बीच आपने अपने मुख से देवगृह अनायतन होता है, यह तो स्वीकार कर लिया। इससे हमारे सभी मनोरथ सिद्ध हो गए।" प्रद्युम्नाचार्य बोले-तो क्या प्रतिमा भी अनायतन कही है? आचार्यश्री ने हँस कर कहा-जब कि देवगृह अनायतन सिद्ध हुआ तो प्रतिमा भी अनायतन सिद्ध ही समझिये। प्रद्युम्नाचार्य बोले-आपके कहने से समझें या इसमें कोई युक्ति या प्रमाण भी है? हँस कर पूज्यश्री बोले-युक्ति और प्रमाण रहित वचन हलवाहकादि गँवार लोग ही बोला करते हैं। हम नहीं बोलते। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-तो वह कौन सी युक्ति है? पूज्यश्री ने विचार कर कहा-सुनिये संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१०७) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवमिणं उवगरणं धारेमाणो विहीइ परिसुद्धं । होइ गुणाणाययणं अविहि असुद्धे अणाययणं ॥ ७६२॥ व्याख्या-"एवम्" उक्तन्यायेन उवकरणं धारयन् विधिना "परिशुद्धं" सर्व दोष वर्जित, किं भवति? गुणानामायतनं-स्थानं भवति । अथपूर्वोक्तविपरीतं क्रियते यदुताविधिना धारयति अविशुद्धं च तदुपकरणं, ततोऽविधिना अशुद्धं ध्रियमाणं तदेवोपकरणं "अनायतनं" अस्थानं भवतीति ॥ [इस प्रकार जो उपकरण उद्गमादि सर्व दोषों से रहित होते हुए शास्त्रोक्त विधि से धारण किया जाता है, वह (उपकरण) समस्त गुणों का आयतन (स्थान) होता है और जो इससे विपरीत हो यानि उद्गमादि दोष दूषित होने के साथ अविधि से धारण किया गया हो वह उपकरण अनायतन कहा जाता है। इसी तरह जिन प्रतिमा के लिए भी समझिये, यानि जो जिनप्रतिमा प्रमाणहीनत्वादि दोष मुक्त हो एवं जिसकी पूजा आदि में शास्त्रोक्त विधि का यथावत् पालन न होता हो उस जिन प्रतिमा को भी अनायतन क्यों न मानी जाय? अर्थात् अनायतन ही माननी चाहिए।]" पूज्यश्री के मुख से इस गाथा की व्याख्या सुनकर प्रद्युम्नाचार्य उदास हो मौन धारण करके चुपचाप बैठ गये। इसके बाद सेठ क्षेमंधर ने हाथ जोड़ कर प्रद्युम्नाचार्य से पूछा-जिनप्रतिमा अनायतन है या नहीं। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-सेठजी, इस गाथा के अर्थ से तो यही जाना जाता है कि जिनप्रतिमा भी अनायतन होती है। तत्पश्चात् क्षेत्रों में आनन्दाश्रु धारण करते हुये सेठ क्षेमंधर ने अपने मस्तक के केशों से प्रद्युम्नाचाय के चरण पोंछे और पुत्र स्नेह से बोला-वत्स! श्री जिनदत्तसूरि जी के मार्ग में लगे हुए मुझे इतने दिन हो गए, परन्तु मेरे मन में यह बात नहीं जमी थी कि लाखों रुपये लगा कर ऊँचे तोरण वाला जो देवगृह बनाया जाता है, वह भी अविधि के कारण अनायतन हो सकता है? आज तुम्हारे मुँह से ऐसा देवगृह भी अनायतन हो सकता है, यह बात सुन कर मुझ को बड़ी खुशी हुई। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-सेठ क्षेमंधर! दूसरे सिद्धान्तों के प्रमाण दिखला कर मैं यह सिद्ध करूँगा कि देवगृह अनायतन नहीं होता। पूज्यश्री से भी प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-आचार्य जी! हमारे नाम से अंकित पराजय सम्बन्धी रास काव्य और चौपाई बगैरह मत बनवाना और न किसी से पढ़वाना। इसके बाद पूज्यश्री ने सेठ क्षेमंधर के लिहाज के कारण बुलन्द आवाज से अपने संघ में यह घोषणा कर दी कि-"जो हमारी आज्ञा मानता हो उसे चाहिए कि प्रद्युम्नाचार्य के पराजय सम्बन्धी अर्थ से पूर्ण रास काव्य और चौपाई न बनावें और न पढ़ें पढ़ावें।" प्रेमाई हृदय होने के कारण आँखों में अश्रु लाकर सेठ क्षेमंधर ने कहा-"वत्स! मैंने तुम्हें बदनाम करने के लिए यह वाद प्रारम्भ नहीं कराया है। मेरा अभिप्राय तो यह था कि विद्यापात्र, (१०८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य-पद-प्राप्त मेरे पुत्र को प्रतिबोध दिलाकर युगप्रधान श्री जिनपतिसूरि जी का शिष्य बना दूं।" पिता पुत्र में जबकि इस प्रकार की बातें हो रही थी उसी समय अति प्रमुदित हुए श्रावकों के साथ अभयड दण्डनायक का हाथ पकड़ कर पूज्यश्री वहाँ से उठ कर मकान के ऊपर वाले तल्ले में चले गये। पीछे-पीछे अन्यान्य नागरिक लोग भी गये, उन लोगों के साथ अभयड दण्डनायक आचार्यश्री को वन्दना करके नीचे आ गया। प्रद्युम्नाचार्य भी मानसिक परिताप के कारण म्लान मुख हुए, लज्जावश पृथ्वी की ओर देखते हुए सेठ क्षेमंधर के साथ अपनी पौषधशाला में चले गये। वहाँ एकत्रित हुए अन्य तमाम कौतुहल प्रेमी लोग भी अपने-अपने घरों को गये। ५९. अपने गुरु प्रद्युम्नाचार्य के मानसिक कष्ट को देखकर दण्डनायक अभयड को बड़ा दुःख हुआ। इसी कारण सारे नगर में शून्यता छा गई और नगर के बाहर संघ में अति आनन्द हुआ। भाण्डशालिक (भणशाली), संभव, वैद्य सहदेव, ठ० हरिपाल, सेठ क्षेमंधर, वाहित्रिक उद्धरण और सेठ सोमदेव आदि प्रमुख लोगों की ओर से विजय के उपलक्ष में बड़े विस्तार के साथ एक महोत्सव मनाया गया। अभयड दण्डनायक ने सोचा-"ये लोग आगे जाकर मेरे गुरु की निन्दा करेंगे, इसलिए इन लोगों को किसी तरह यहाँ शिक्षा दे दी जाय तो बड़ा अच्छा हो।" ऐसा विचार कर अभयड दण्डनायक ने मालवा देश में स्थित गुर्जर कटक के प्रतिहार जगदेव के पास विज्ञप्ति पत्र सहित एक मनुष्य को भेजा और दूसरे ही दिन संघ को राजाज्ञा की आण देकर कहा-"महाराजाधिराज श्री भीमदेव की आण है कि आप लोग हमारी आज्ञा के बिना यहाँ से नहीं जा सकेंगे।" इतना ही नहीं संघ की चौकसी के लिए गुप्त रूप से एक सौ सैनिकों की गारद भी वहाँ डाल दी। संघ के लोग भी डर के मारे अपने-अपने मन में नाना प्रकार की संभावना करने लग गये। अपने पक्ष की विजय देखकर हिलोरें लेते हुए परम आनन्द के वश होकर भंडशाली सेठ संभव पूज्यश्री के पास आकर हर्ष पूर्ण गद्-गद् वाणी से कहने लगा-"प्रभो! हम आपके पराक्रम को जानते हैं। सिंह के बच्चे भी सिंह ही होते हैं न कि शृगाल। गुजरातियों में प्रायः कपट बाहुल्य है, इसलिए इन कपटियों के साथ शास्त्रार्थ करने में सफलता को भी विरला ही पाता है। मैंने आपको प्रद्युम्नाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने की अनुमति इसलिए ही तो नहीं दी थी कि-यदि इन कपटियों के कूट प्रयोग से कदाचित् कोई निन्दा हो जायगी तो फिर लोगों के सामने ऊँचा मस्तक करके बोल नहीं सकेंगे। परन्तु, महाराज आपने तो बड़ा ही अच्छा किया कि गुजरात प्रान्त में समस्त आचार्यों के मुकुटभूत प्रद्युम्नाचार्य को सब लोगों के सामने हरा कर, उसकी बोलती बंद करके दान्त खट्टे कर दिये। महाराज! आपके इस एक चरित्र से अत्यन्त हर्षित हुए स्वर्गस्थ गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज अमृतपान की अभिलाषा को भूल गए। प्रभो! आपके धैर्य को देखकर भगवती शासनदेवता भी आज अपने को सजीव हुई मानती है। भगवन् ! आपकी इस प्रकार की वाद-लब्धि को देखकर भगवती सरस्वती ने भी अपनी प्रसन्नता का प्रभाव जाना है। पूज्यवर! आपका इस प्रकार अपूर्व संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१०९) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहस देख कर इन्द्र आदि देव भी आपको मुँह माँगा वर देने को उत्कण्ठित हो रहे हैं।" इस प्रकार भंडशाली संभव ने महाराज की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके बाद श्रीमालवंश-भूषण वैद्य सहदेव, सेठ लक्ष्मीधर, ठाकुर हरिपाल, सेठ क्षेमंधर, वाहित्रिक उद्धरण आदि संघ-प्रधान पुरुषों ने महाराजश्री के पास आकर अभयड दण्डनायक का दुष्ट अभिप्राय कहा। महाराज ने खूब सोचकर जवाब दिया कि-"श्रावक महानुभावों! आप लोग किसी प्रकार से मन में परिताप न करें, श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज की चरण कृपा से सब भला होगा। परन्तु अब आप लोगों के प्रति मेरा आदेश यह है कि, श्री पाश्वनार्थ भगवान् की आराधना करने के लिए स्नात्र, कायोत्सर्ग आदि धार्मिक कृत्य करने के लिए आप सब लोग उद्यत हो जावें।" पूज्य श्री के उपदेश से सारा ही संघ धर्मकार्य में उद्यत हो गया। पूजा, धर्मध्यान करते-करते चौदह दिन बीत गए, परन्तु फिर भी वहाँ से संघ के निकलने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। तब संघ के लोगों में से दो सौ ऊँट वाले मनुष्य तैयार हुए और विचार कर निश्चय किया कि "कल प्रात:काल होते ही ऐसा कुछ साहस करेंगे, जिससे संघ के सब लोग अपने-अपने स्थानों पर पहुँच जायेंगे।" इधर अभयड दण्डनायक के भेजा हुआ मनुष्य वहाँ पहुँच कर सेनापति जगदेव पड़िहार की सेवा में हाजिर हुआ और अपने भेजने वाले मालिक का सन्देश कहते हुए वह पत्र उनके चरणों में भेंट किया। जगदेव की आज्ञा से उनके कर्मचारी ने पत्र को पढ़कर सुनाया। उसमें लिखा था कि"अपने देश में इस समय बड़े-बड़े धन सम्पन्न, सपादलक्ष देश का एक संघ आया हुआ है। यदि आपकी आज्ञा हो तो, सरकारी घोड़ों के लिए दानेका बन्दोबस्त कर दूं।" इस समाचार को सुनते ही राजा जगदेव आग-बबूला हो गया और उसी क्षण अपने आज्ञाकारी के हाथ से एक आज्ञा पत्र लिखवाया। उस पत्र का आशय यह था कि-"मैंने बड़े कष्ट से अजमेर के अधिपति श्री पृथ्वीराज के साथ सन्धि की है। यह संघ अजमेर सपादलक्ष देश का है। इसलिए इस संघ के साथ छेड़-छाड़ बिल्कुल भूल कर भी मत करना। यदि करोंगे, तो याद रखना, जीते जी तुमको गधे की खाल में सिला दूंगा।" राजाज्ञा से जवाब भेजा गया। उस मनुष्य ने भी शीघ्रगति से पहुँच कर दण्डनायक को पत्र दिया। आये हुए इस जवाब को पाकर अभयड की आशालताओं पर पाला पड़ गया। वह ठंडा हो गया और फलस्वरूप अभयड ने शीघ्र जाकर उन लोगों से क्षमा मांगते हुए बड़े आदर-सम्मान के साथ संघ को वहाँ से विदा किया। संघ वहाँ से चलकर अनहिलपाटन नगर पहुँचा। वहाँ पर पूज्यश्री ने अपने गच्छ के चालीस आचार्यों को अपनी मंडली में मिला करके नाना प्रकार के वस्त्र देकर उनका सम्मान किया। ६०. इसके बाद आचार्यश्री संघ के साथ लवणखेटक नाम के नगर में गये। वहाँ पर पूर्णदेव गणि, मानचन्द्र गणि, गुणभद्र गणि आदि को क्रम से वाचनाचार्य की पदवी दी। इसके बाद पुष्करण नाम की नगरी में जाकर सं० १२४५ के फाल्गुन मास में धर्मदेव, कुलचन्द्र, सहदेव, सोमप्रभ, सूरप्रभ, (११०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिचन्द्र, श्रीप्रभ, सिद्धसेन, रामदेव और चन्द्रप्रभ इन मुनियों को तथा संयमश्री, शान्तमति, रत्नमति, इन साध्वियों को दीक्षा दी। सं० १२४६ में श्रीपतन में श्री महावीर प्रतिमा की स्थापना की। सं० १२४७ (?) १२४८ में लवणखेड़ा में रहकर मुनि जिनहित को उपाध्याय पद दिया। सं० १२४९ में पुनः पुष्करिणी आकर मलयचन्द्र को दीक्षा दी। सं० १२५० में विक्रमपुर में आकर साधु पद्मप्रभ को आचार्य पद दिया और सर्वदेवसूरि नाम से उनका नाम परिवर्तन किया। सं० १२५१ में वहाँ से माण्डव्यपुर में आकर सेठ लक्ष्मीधर आदि अनेक श्रावकों को बड़े ठाठ-बाट से माला पहनाई। ६१. वहाँ से अजमेर के लिए विहार किया। वहाँ पर मुसलमानों के उपद्रव के कारण दो मास बड़े कष्ट से बिताये। तदनन्तर पाटण आये और पाटण से भीमपल्ली आकर चातुर्मास किया। कुहिपय ग्राम में जिनपाल गणि को वाचनाचार्य पद दिया। लवणखेड़ा में राणा केल्हण की ओर से विशेष आग्रह होने के कारण पुनः समतापूर्वक वाद-विचार, चर्चा के साथ दक्षिणावर्त आरात्रिकावतारण (जीमणी तरफ से आरती उतारना) स्वीकार किया। सं० १२५२ में पाटण आकर विनयानंद गणि को दीक्षित किया। सं० १२५३ में प्रसिद्ध भण्डारी नेमिचन्द्र श्रावक को प्रतिबोध दिया। इसके बाद मुसलमानों द्वारा पाटन नगर का विध्वंस होने पर महाराज ने घाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया। सं० १२५४ में श्री धारा नगरी में जाकर श्री शान्तिनाथ देव के मन्दिर में विधिमार्ग को प्रचलित किया। अपने तर्क सम्बन्धी परिष्कारों से महावीर नाम के दिगम्बर को अतिरंजित किया और वहीं पर रत्नश्री को दीक्षित किया। आगे चलकर यही भहासती प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ हुई। तत्पश्चात् महाराज ने नागद्रह नामक गाँव में चौमासा किया। सं० १२५६ की चैत्र वदि पंचमी के दिन लवणखेट में नेमिचंद्र, देवचन्द्र, धर्मकीर्ति और देवेन्द्र नाम के पुरुषों को व्रती बनाया। सं० १२५७ में श्री शान्तिनाथ देव के विशाल विधि मन्दिर की प्रतिष्ठा करनी थी, परन्तु प्रशस्त शकुन के अभाव में विलम्ब हो गया। इसलिए वही प्रतिष्ठा सं० १२५८ की चैत्र वदि ५ को की गई और विधिपूर्वक मूर्ति स्थापना तथा शिखर-प्रतिष्ठा भी की गई। वहाँ पर चैत्र वदि २ के दिन वीरप्रभ तथा देवकीर्ति नामक दो श्रावकों को साधु बनाया। सं० १२६० में आषाढ़ वदि ६ के दिवस वीरप्रभ गणि और देवकीर्ति गणि को बड़ी दीक्षा दी गई और उनके साथ ही सुमति गणि एवं पूर्णभद्र गणि को चारित्र दिया गया तथा आनन्दश्री नाम की आर्या को "महत्तरा" का पद दिया। तदनन्तर जैसलमेर के देवमन्दिर में फाल्गुन सुदि द्वितीया को श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना की। इसका उत्सव सेठ जगद्धर ने बड़े विस्तार के साथ किया। सं० १२६३ फाल्गुन वदि चतुर्थी को लवणखेड़ा में महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा की स्थापना की। उक्त स्थान में ही नरचन्द्र, रामचन्द्र, पूर्णचन्द्र और विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री, जिनश्री इन साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर धर्मदेवी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया। उसी अवसर पर वहाँ ठा० आभुल आदि बागड़ीय श्रावक समुदाय पूज्यश्री की चरण वन्दना करने को आया था। लवणखेड़ा में ही सं० १२६५ में मुनिचन्द्र गणि, मानभद्र गणि, सुन्दरमति और आसमति इन चार स्त्री-पुरुषों को मुनि व्रत में दीक्षित किया। सं० १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव, जिनभद्र तथा विजयचन्द्र को व्रती बनाया। गुणशील संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१११) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा देकर साध्वी बनाया। सं० १२६९ में जाबालीपुर में महं० कुलधर के द्वारा कारित श्री महावीर प्रतिमा को विधि-चैत्यालय में बड़े समारोह से स्थापित की। श्री जिनपाल गणि को उपाध्याय पद दिया। धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरा पद देकर प्रभावी नामान्तरण किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्र, गुणकीर्ति, मानदेव, चन्द्रश्री तथा केवलश्री इन पाँचो को दीक्षा देकर विक्रमपुर की ओर विहार कर गये। ६२. सं० १२७० में बागड़ी लोगों की प्रार्थना स्वीकार करके "बागड़" देश में गये। वहाँ जाकर दारिद्रेरक नाम के नगर में सैकड़ों श्रावक-श्राविकाओं को मालारोपण, सम्यक्त्व, परिग्रहपरिमाण, दान, उपधान, उद्यापन आदि धार्मिक कार्यों में लगाया और उस निमित बड़े विस्तार के साथ सात नन्दियाँ की। सं० १२७१ में बृहद्वार नगर में संमुखागत श्री आसराज राणक आदि समाज के मुख्य-मुख्य अनेक लोगों के साथ ठाकुर विजयसिंह द्वारा विस्तारपूर्वक किये गये प्रवेशोत्सव से प्रवेश हुआ और पूर्ववत् नन्दियों की रचना करके अनेकों उत्सव मनाये। वहाँ मिथ्यादृष्टि गोत्रदेवियों की पूजा आदि मिथ्या-क्रिया को बन्द कराया। इससे वहाँ के रहने वाले श्रावक वर्ग के हृदयों में अत्यधिक प्रमोद का संचार हुआ। सं० १२७३ में बृहद्वार में लोक प्रसिद्ध "गंगा दशहरा" पर्व पर गंगा यात्रा करने के लिये बहुत से राणाओं के साथ नगरकोट के महाराजाधिराज श्री पृथ्वीचन्द्र भी आये हुए थे। उनके साथ में मनोदानंद नाम का एक काश्मीरी पण्डित रहता था। उस पण्डित को जिनप्रियोपाध्याय के शिष्य श्री जिनदास अपरनाम श्री जिनभद्र ने जिनपतिसूरि जी के साथ शास्त्रार्थ करने को उकसाया। पण्डित मनोदानन्द ने जिनपतिसूरि जी की पौषधशाला के द्वार पर शास्त्रार्थ का आह्वान पत्र चिपकाने के लिए अपने एक विद्यार्थी को भेजा। वह विद्यार्थी दिन के दूसरे प्रहर के समय उपाश्रय में आकर पत्र चिपकाने लगा। उसी समय पूज्यश्री के शिष्य धर्मरुचि गणि ने विस्मय वश होकर अलग ले जाकर उससे पूछा-य्यहाँ तुम क्या कर रहे थे? ब्राह्मण बालक ने निर्भय होकर उत्तर दिया-राजपण्डित मनोदानन्द जी ने आपके गुरु श्री जिनपतिसूरि जी को लक्ष्य करके यह पत्र चिपकाने को दिया है। उस विद्यार्थी की बात सुनकर हंसते हुए धर्मरुचि गणि जी ने कहा-"रे ब्राह्मण बालक! हमारा एक सन्देश पण्डित जी को कह देना कि-पण्डित जी! श्री जिनपतिसूरि जी के शिष्य धर्मरुचि गणि ने मेरी जबानी कहलवाया है कि पं० मनोदानंद जी! यदि आप मेरा कहना मानें तो आप आज पीछे वृक्ष शाखा का अवलंबन करियेगा, पत्रावलंबन नहीं, यानि इस शास्त्रार्थ की आकांक्षा से आप पीछे हट जाएँ तथा अपना पत्र वापस ले लें, अन्यथा आपके दाँत टूट जायेंगे। अभी न सही, किन्तु बाद में आप अवश्य ही मेरी सलाह का मूल्य समझेंगे।" उसी विद्यार्थी से पं० मनोदानन्द के विषय में जानने योग्य सारी बातें पूछ कर उसे छोड़ दिया। (११२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मरुचि गणि ने यह समस्त वृत्तान्त पूज्यश्री के आगे निवेदन किया। वहाँ पर पूज्यश्री के पास उपस्थित ठ० विजय नामक श्रावक ने शास्त्रार्थ सम्बन्धी बात सुनकर अपने नौकर को उस पत्र चिपकाने वाले विद्यार्थी के पीछे भेजा और कहा कि-"तुम इस लड़के के पीछे-पीछे जाकर जाँच करो कि यह लड़का किस-किस स्थान पर जाता है। हम तुम्हारे पीछे ही आ रहे हैं।" इस प्रकार आदेश पाकर वह नौकर उस कार्य का अनुसंधान करने के लिए लड़के के चरण चिह्नों को देखता हुआ चला गया। अनेक पण्डित प्रकाण्डों को शास्त्रार्थ में पछाड़ने वाले प्रगाढ़ विद्वान यशस्वी श्री जिनपतिसूरि जी ने अपने आसन से उठ कर अपने अनुयायी मुनिवरों को कहा कि-"शीघ्र वस्त्र धारण करो और तैयार हो जाओ। शास्त्रार्थ करने को चलना है, स्वयं भी तैयार हो गये।" ____ महाराज को जाने के लिए तैयार हुए देखकर मुनि जिनपालोपाध्याय और ठा० विजयसिंह श्रावक कहने लगे-"भगवन्! यह भोजन का समय है, साधु लोग आहार वहोर करके आ गये हैं इसलिए आप पहले गौचरी करें। बाद में वहाँ जायें।" उन लोगों के अनुरोध से महाराज भोजन करके उठे। श्री जिनपालोध्याय जी ने महाराज के चरणों में वन्दना करके प्रार्थना की-प्रभो! मनोदानंद पण्डित को जीतने के लिए आप मुझे भेजें। आपकी कृपा से मैं उसे जीत आऊँगा। भगवन्! प्रत्येक साधारण मनुष्य से आप यदि इस प्रकार वाद-प्रतिवाद करने को स्वयं उठेंगे तो फिर हम लोगों को साथ लाने का क्या उपयोग है? उस मामूली पं० मनोदानंद को हराने के लिए आप इतने व्यग्र क्यों हो गये हैं। कहा भी है कोपादेकतलाघातनिपातमत्तदन्तिनः। हरेर्हरिणयुद्धेषु कियान् व्याक्षेपविस्तरः॥ [क्रोधवश अपने चरण की एक चपेट से मस्त हाथियों को मार डालने वाले सिंह को हरिणों के साथ युद्ध करने में विशेष व्यग्र होने की आवश्यकता? यानि बिल्कुल नहीं है।] राजनीति में भी पहले पैदल सेना युद्ध करती है और बाद में रण-विद्या विशारद सेनापति लड़ा करते हैं। पूज्यश्री ने कहा-उपाध्याय जी? आप जो कहते हैं वह यथार्थ है, किन्तु पण्डित की योग्यता कैसी है यह मालूम नहीं। उपाध्याय जी ने कहा-पण्डित कैसा भी क्यों न हो, सब जगह आपकी कृपा से विजय सुलभ है। पूज्यश्री ने कहा-कोई हर्ज नहीं हम भी चलते हैं, किन्तु बोलना तुम्हीं। उपाध्याय जी ने कहा-महाराज! आपकी उपस्थिति में लज्जा वश मेरी जबान बोलने में बराबर नहीं चलेगी। इसलिए आपका यहीं विराजना अच्छा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (११३) ___Jain Education international 2010_04 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार श्री जिनपालोपाध्याय का विशेष आग्रह देखकर महाराजश्री ने प्रसन्न मन से मन्त्र स्मरण के साथ मस्तक पर हाथ रख कर धर्मरुचि गणि, वीरभद्र गणि, सुमति गणि और ठाकुर विजयसिंह आदि श्रावकों के साथ उपाध्याय जी को मनोदानन्द पण्डित को जीतने के लिए भेज दिया। नगरकोट्टीय राजाधिराज श्री पृथ्वीचन्द्र की सुख पृच्छा निमित्त आये हुए अनेक राजा-राणाओं से भूषित उनके सभा भवन में पण्डितप्रवर श्री जिनपालोपाध्याय जी अपने परिवार के साथ पहुंचे। ६३. उपाध्याय जी ने सुन्दर श्लोकों द्वारा राजा पृथ्वीचन्द्र की समयानुकूल प्रशंसा करके वहाँ पर बैठे हुए पं० मनोदानन्द को सम्बोधन करके कहा-पण्डितरत्न ! आपने हमारी पौषधशाला के द्वार पर विज्ञापन पत्र किसलिए चिपकाया था। उसने कहा-आप लोगों को जीतने के लिए। उपाध्याय जी ने कहा-बहुत अच्छा, किसी एक विषय को लेकर पूर्व पक्ष अङ्गीकार कीजिए। पण्डित-आप लोग षड्दर्शनों से बहिर्भूत हैं। इस बात को मैं सिद्ध करूँगा, यही मेरा पक्ष है। उपाध्याय-इसे न्यायानुसार प्रमाण सिद्ध करने के लिए अनुमान स्वरूप बाँधिये। पण्डित-"विवादाध्यासिता दर्शनबाह्याः प्रयुक्ताचारविकलत्वात् म्लेच्छवत्" अर्थात् वाद-प्रतिवाद करने वाले जैन-साधु छहों दर्शनों से बहिष्कृत है, प्रयुक्त आचार से विकल (रहित) होने के कारण म्लेच्छों की तरह। श्री उपाध्याय जी हँस कर बोले-पण्डितराज मनोदानन्द! आपके कहे हुए इस अनुमान में कितने दूषण दिखलाऊँ? पण्डित-हाँ, आप अपनी शक्ति के अनुसार दिखलावें। परन्तु इसका भी ध्यान रहे कि उन सबका आपको समर्थन करना पड़ेगा। उपाध्याय-पंडितराज ! सावधान होकर सुनिये! आपने कहा कि-"विवादाध्यासिता दर्शनबाह्याः प्रयुक्ताचारविकलत्वात् म्लेच्छवत्" आपके कहे इस अनुमान में "प्रयुक्ताचारविकलत्वान्" यह हेतु निश्चित नहीं किन्तु अनेकान्तिक है। आपका उद्देश्य हम लोगों में षड्दर्शन बाह्यता सिद्ध करने का है अर्थात् षड्दर्शन बाह्य साध्य है। परन्तु षड्दर्शनों के भीतर माने हुये आपके विपक्षभूत बौद्ध, चार्वाकी आदि में भी यह आपका दिया हुआ हेतु चला जाता है-लागू होता है, क्योंकि वे भी आपके अभिमत वेद प्रयुक्त आचार से पराङ्मुख है। इसलिए अतिव्याप्ति नामक दोष अनिवार्य है। और आपका दिया हुआ "म्लेच्छवत्" यह दृष्टान्त भी साधन विकल है। आप म्लेच्छों में प्रयुक्त आचार की विकलता एक देश से मानते हैं या सर्वतोभावेन? यदि कहें कि एक देश से, तो वह ठीक नहीं, क्योंकि म्लेच्छ भी अपनी जाति के अनुसार कुछ न कुछ लोकाचार का पालन करते हुये दिखलाई देते हैं और लोकाचार सभी वेदोक्त ही हैं, इसलिए आपका कहा हुआ हेतु असिद्ध है यानि दृष्टान्त में नहीं घटता। यदि आप कहें कि म्लेच्छों में सम्पूर्ण वेदोक्त आचार नहीं पाया जाता, इसलिए वे दर्शन बाह्य (११४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, तो ऐसा कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि फिर तो आप भी दर्शन बाह्य हैं । वेदोक्त सम्पूर्ण आचारव्यवहार का पालन शायद आप भी नहीं कर सकते। इस प्रकार तर्क रीति से बोलते हुए उपाध्याय जी ने सभा में स्थित तमाम लोगों को अचम्भे में डाल दिया और अनेक दोष दर्शा कर मनोदानन्द के प्राथमिक कथन को अव्यवस्थित बतलाया। फिर भी मानी पण्डित मनोदानन्द धृष्टता से अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए अन्यान्य प्रमाण उपस्थित करने लगा। परन्तु उपाध्याय जी ने अपनी प्रचुर विशाल प्रतिभा के प्रभाव से राजा पृथ्वीचन्द्र आदि समस्त लोगों के सामने असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक आदि दोष दिखलाकर तमाम अनुमानों का खण्डन करके पं० मनोदानन्द को पराजित कर दिया। इतना ही नहीं, उपाध्याय जी ने प्रधान अनुमान के द्वारा अपने आपको षड्दर्शनाभ्यन्तरवर्ती होना भी सिद्ध कर दिया। ऐसे वाक्पटु जैन मुनि के समक्ष जब कोई उत्तर नहीं दे सका तब अतिलज्जित होकर पं० मनोदानन्द मन ही मन सोचने लगा कि-"यहाँ सभा में बैठने वाले राजा रईस लोगों को जैसा चाहिए वैसा शास्त्रीय ज्ञान का अभाव है। इसीलिए वे लोग अपने सामने अधिक बोलते हुए किसी व्यक्ति को देखते हैं तो समझ बैठते हैं कि यह पुरुष बहुत अच्छा बोलने वाला विद्वान है। अतः इस धारणा के अनुसार मुझे भी कुछ बोलते रहना चाहिए। लोग जान जायेंगे कि पं० मनोदानन्द भी एक अच्छा बोलने वाला वाक्पटु पुरुष है।" ऐसा सोचकर शब्दब्रह्म यदेकं यच्चैतन्यं च सर्वभूतानाम्। यत्परिणामस्त्रिभुवनमखिलमिदं जयति सा वाणी॥ [जो एक ब्रह्म शब्दमय है और जो सर्व भूतों (जीवों) का चैतन्य है एवं जिसका परिणाम यह समस्त त्रिभुवन है, वह वाणी जयवंती है।] इत्यादि पुस्तकों से याद किया हुआ पाठ बोलने लगा। ऐसा देख कर श्रीमान् उपाध्याय जी ने जरा कोपावेश में आकर कहा-"अरे निर्लज्जों के सरदार! ऐसा यह असंबद्ध क्यों बोल रहा है? मैंने प्रमाण और युक्तियों के बल से तुमको षड्दर्शनों से बहिर्भूत सिद्ध कर दिया है। अगर तुम्हारी कोई शक्ति है तो पौषधशाला के द्वार पर चिपकाये गये अपने शास्त्रार्थ पत्र के समर्थन के लिए कुछ सप्रमाण बोलो। पढ़ी हुई पुस्तकों के पाठ की यथावत् आवृत्ति करने में तो हम भी समर्थ हैं।" इसके बाद उपाध्याय जी की आज्ञा पाकर धर्मरुचि गणि, वीरप्रभ गणि और सुमति गणि ये तीनों मुनि श्री जिनवल्लभसूरि जी महाराज की बनाई हुई चित्रकूटीयप्रशस्ति, संघपट्टक, धर्मशिक्षा आदि संस्कृत प्रकरणों का पाठ ऊँचे स्वर से करने लगे। इनको धाराप्रवाह रूप धड़ा-धड़ संस्कृत पाठ का उच्चारण करते हुए देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी राजा रईस लोग कहने लगे-"ओ हो! ये तो सभी पण्डित हैं।" संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (११५) _ 2010_04 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार खाये हुए पण्डित मनोदानन्द का मुख मलिन देखकर राजाधिराज पृथ्वीचन्द्र ने विचारा"हमारे पण्डित मनोदानन्द जी की मुखच्छाया फीकी है, अगर यह राजपण्डित हार जायगा तो दुनिया में हमारी महान् लघुता सिद्ध होगी। इसलिए अभी उपस्थित जनता के आगे ही दोनों की समानता सिद्ध हो जाय तो अच्छा है।" ऐसा मन में निश्चय कर उपाध्याय जी की ओर लक्ष्य करके राजा कहने लगे-"आप बड़े अच्छे महर्षि महात्मा हैं।" वैसे ही मनोदानन्द जी की ओर मुख करके - "आप भी बड़े अच्छे पण्डित हैं।" पृथ्वीचन्द्र राजा के मुँह से यह वचन सुन कर उपाध्याय जी ने विचार किया-आज दिन से हम शास्त्रार्थ करने लगे थे, रात के तीन पहर बीत गये हैं। इस बीच हमने अनेक प्रमाण दिखलाए, अपनी दिमागी शक्ति खर्च की, लेकिन फल कुछ नहीं हुआ। हमने मनोदानन्द को पराजित करके उसकी जबान बंद कर दी, निरुत्तर बना दिया। फिर भी राजा साहब अपने पण्डित के पक्षपात के कारण दोनों की समानता दर्शा रहे हैं। अस्तु, कुछ भी हो, हमें जयपत्र लिये बिना इस स्थान से उठना नहीं चाहिए। स्कंधास्फालन पूर्वक उपाध्याय जी स्पष्ट बोले-महाराज! आप यह क्या कहते हैं, मैं कहता हूँ कि सारे भारत खण्ड में मेरे सामने टिकने वाला कोई पण्डित नहीं है। यदि यह मनोदानन्द पण्डित है तो मेरे साथ व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि किसी भी विषय में स्वतंत्रता से बोल सकता है। अगर इसकी शक्ति नहीं है, तो यह पौषधशाला वाले पत्र को अपने हाथ से फाड़ डाले। अरे यज्ञोपवीत मात्र को धारण करने की शक्ति वाले मनोदानन्द! श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के ऊपर पत्र चिपकाता है, किन्तु रे बटुक, तुझे मालूम नहीं कि इन्होंने सभी विद्याओं में निर्णय देने वाले यानि सभी विद्याओं के पारगामी श्री प्रद्युम्नाचार्य जैसे पण्डितराजों को भी सब लोगों के सामने धूल फांकते कर दिए हैं। इसी अवसर पर श्री पृथ्वीचन्द्र महाराज ने स्वयं उस शास्त्रार्थ के आह्वान पत्र को लेकर फाड़ डाला। उपाध्याय जी ने कहा-महाराज! इस पत्र को फाड़ने मात्र से ही मुझे सन्तोष नहीं होता। राजा ने पूछा-आपको सन्तोष किस बात से हो सकता है? उपाध्याय जी ने उत्तर दिया-हमें सन्तोष जयपत्र मिलने से होगा। कारण? राजन् ! हमारे सम्प्रदाय में ऐसी व्यवस्था है कि जो कोई हमारे उपाश्रय के द्वार पर पत्र चिपकाता है, दूसरे दिन उसी पुरुष के हाथ से जयपत्र लिखवाकर अपने उपाश्रय के द्वार पर लगवाया जाता है। इसलिए महाराज! आपसे निवेदन है कि आप अपने न्यायाधीशों से सम्मति लेकर आपकी राजसभा में हमारी सम्प्रदायी व्यवस्था जैसे वृद्धि प्राप्त हो वैसे करिये। पण्डित मनोदानन्द जी की मुखच्छाया को मलिन हुई देखकर यद्यपि राजा को ऐसा करने में मानसिक बड़ा दुःख होता था, परन्तु सभा में बैठने वाले न्याय विचार में प्रवीण बुद्धिमान प्रधान पुरुषों के अनुरोध से राजा को अपने सरिश्तेदार के हाथ से जयपत्र लिखवा कर जिनपालोपाध्याय के (११६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथों में देना पड़ा। उपाध्याय जी ने इसके बदले में धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देने के साथ महाराजाधिराजश्री पृथ्वीचन्द्र की अनेक श्लोकों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की। रात भर शास्त्रार्थ होते रहने के कारण प्रात:काल वहाँ से उठकर शंख ध्वनि आदि वाजित्रों के पंच शब्द द्वारा बधाई लेते हुए तथा जयपत्र को लिये हुए मुनिमण्डली को साथ लेकर उपाध्याय जी आचार्य प्रवर श्री जिनपतिसूरि जी के पास आये। पूज्यश्री ने अपने शिष्य के द्वारा होने वाली जिन शासन की प्रभावना से बड़े हर्ष का अनुभव किया और बड़े आदर सत्कार के साथ जिनपालोपाध्याय को अपने पास बिठला कर शास्त्रार्थ सम्बन्धी सारी बातें ब्यौरेवार पूछी। सं० १२७३ जेठ वदि १३ के दिन श्री शांतिनाथ भगवान् के जन्म-कल्याणक के अवसर पर इस जय के उपलक्ष में वहाँ के श्रावकों ने बड़े हर्षपूर्वक एक बृहत् जयोत्सव मनाया। ६४. वहाँ (बृहद्वार) से सं० १२७४ में विहार करके आते हुए पूज्यश्री ने मार्ग में भावदेव मुनि को दीक्षा दी। सेठ स्थिरदेव की प्रार्थना स्वीकार करके "दारिद्रेरक" गाँव में चातुर्मास किया। वहाँ भी पहले की तरह नन्दी स्थापना की। सं० १२७५ में जाबालिपुर आकर जेठ सुदि १२ के दिन भुवनश्री गणिनी, जगमति तथा मंगलश्री इन तीन साध्वियों को और विमलचन्द्र गणि एवं पद्मदेव गणि इन साधुओं को दीक्षा दी। सं० १२७७ में पालनपुर आकर अनेक प्रकार की धर्म प्रभावनाएँ कीं। वहाँ पर महाराज के नाभि के नीचे स्थान पर एक गाँठ पैदा हुई। उसकी वेदना सताने लगी और इसी वेदना के कारण पेशाब की रुकावट हो गई। उसके अत्यन्त कष्ट से महाराज ने अपनी आयु शेष हुई जानकर चतुर्विध संघ को एकत्रित करके मिथ्या दुष्कृत किया और संघ को यथोचित शिक्षा देकर कहा-"आप लोग मन में कोई तरह से खेद न करें और यह भी नहीं समझे कि जो आचार्य जीते जी अनेक लोगों से शास्त्रार्थ करके धर्म प्रभावना करते रहे हैं, अब उनके बिना काम कैसे चलेगा? कारण, हमारे पीछे भी सर्वदेवसूरि, जिनहितोपाध्याय और जिनपालोपाध्याय आदि हमारी तरह सब यथोचित उत्तर देने में समर्थ हैं। यह आप लोगों के मनोरथों को पूरा कर सकेंगे। इनके अतिरिक्त वाचनाचार्य सूरप्रभ, कीर्तिचन्द्र, वीरप्रभ गणि और सुमति गणि ये चारों ही शिष्य महाप्रधान (श्रेष्ठ) तैयार हुए है। इनमें एक-एक का भी अपूर्व सामर्थ्य है, ये गिरते हुए आकाश को भी स्थिर रखने में समर्थ हैं। परन्तु जब हम अपने पाट के योग्य बैठाने में किसी को छाँटते हैं, तो हमारे ध्यान में वीरप्रभ गणि आता है। हमारे शरीर में इस समय बड़ी व्याधि है। इसलिए यदि संघ कहे तो अभी भी हम उसे अपने पाट पर बैठा दें।" ___शोक और हर्ष दोनों का द्वन्द्व जिनके चित्त में मचा हुआ है, ऐसे संघ ने पूज्यश्री से निवेदन किया कि-"महाराज! वैसे तो जो आपके समझ में आता है, वहीं हमें मान्य है। परन्तु इस वक्त जल्दी में की हुई आचार्य पद की स्थापना, जैसी चाहिए वैसी शोभा के साथ नहीं हो सकेगी। इसलिए यदि आपकी आज्ञा हो तो यहाँ के श्रीसंघ की ओर से भेजी हुई आमंत्रण पत्रिकाओं को देखकर आये हुए समस्त संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (११७) 2010_04 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशवासी खरतरगच्छीय संघ समुदाय की उपस्थिति में बड़े आनन्द के साथ पाट महोत्सव मना कर वीरप्रभ गणि को बड़े ठाठ-बाट के साथ आचार्य पद पर स्थापित किया जाय।" पूज्यश्री ने कहा-"जो कुछ कर्त्तव्य समुदाय के ध्यान में आवे वही अच्छा है, हमको मान्य है।" इसके बाद सब लोगों से क्षमत-क्षामणा करके सब लोगों के चित्त में चमत्कार पैदा कर अनशन विधि के साथ श्री जिनपतिसूरि जी महाराज स्वर्ग को सिधार गये। ६५. तत्पश्चात् यद्यपि पूज्यश्री के वियोग से होने वाले परम दुःख से संघ का अन्त:करण किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया था, परन्तु उनके पीछे होने वाले देह संस्कार आदि कार्य को अत्यावश्यक समझ कर एक सुन्दर विमान में पूज्यश्री के शव की स्थापना कर उनके दाह-संस्कार के लिए तैयारी की गई। सं० १२७७ आषाढ़ शुक्ला दशमी को उस समय की प्रथा के अनुसार कर्ण को सुखदायक और हृदय को द्रवित कर देने वाली मेघ राग आदि रागिनियों को वारांगनाएँ गा रही थीं। उसी प्रकार प्राणहारी मृत्यु देव को उपालंभ देने वाले और भी नाना प्रकार के गायन गाये जा रहे थे। अनेक प्रकार के कमल गट्टा आदि वन फलों की उछाल हो रही थी। शंखादि पाँचप्रकार के तुमुल ध्वनि के बीच समस्त नागरिक लोगों के साथ चतुर्विध संघ के लोग महाराज की अर्थी को ले जा रहे थे। इसी अवसर पर महाराज श्री की बीमारी के समाचार सुन कर श्री जिनहितोपाध्याय जी जाबालिपुर से त्वरित गति विहार करके वहाँ (पालनपुर) आ पहुँचे। कणपीठ (धानमण्डी) में आने पर उनको महाराजश्री की श्मशान यात्रा के दर्शन हुए। पूज्यश्री की यह अवस्था देखकर शोक विह्वल हो, उनके गुण-गणों को याद करके जिनहितोपाध्याय जी १६ श्लोकों से इस प्रकार विलाप करने लगे श्रीजिनशासनकाननसंवर्द्धिविलासलालसे वसता। हा श्रीजिनपतिसूरे!, किमेतदसमञ्जसमवेक्षे? ॥ १॥ जिनपतिसूरे! भवता श्रीपृथ्वीराजनृपसदःसरसि। पद्मप्रभासिवदने नाऽरमिव जयश्रिया सार्धम् ॥ २॥ मथितप्रथितप्रतिवादिजातजलधेः प्रभो! समुद्धृत्य। श्रीसंघमनःकु ण्डे न्यधात् त्वमानन्दपीयूषम् ॥ ३ ॥ बुधबुद्धिचक्रवाकी षट्तर्कीसरिति तर्कचक्रेण। क्रीडति यथेच्छमुदिते जिनपतिसूरे! त्वयि दिनेशे॥ ४॥ तव दिव्यकाव्यदृष्टावेकविधं सौमनस्यमुल्लसति । द्राक् सुमनसां च तत्प्रतिपक्षाणां च प्रभो! चित्रम्॥५॥ (११८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुविभक्त्यनपेक्षं क्रियाकलापं त्वनन्यसाध्यमपि । यं साधयत् जिनपते! चमत्कृते कस्य नो जातः ॥ ६॥ मयि सति कीदृक् चासन्नयमत्र कविरिति नाम वहतीति । रोषादसुराचार्यं जेतुं किं जिनपते! स्वरगाः ? ॥ ७॥ भगवंस्त्वयि दिवि गच्छति हर्षात्त्वदभिमुखमक्षताः क्षिप्ताः । सुररमणीभिर्मन्ये सारीभूतास्त एवाभ्रे ॥ ८॥ इन्द्रानुरोधवशतो मध्ये स्वर्गे ययौ भवानित्थम् । जिनपतिसूरे ! सन्तो दाक्षिण्यधना भवन्ति यतः ॥ ९ ॥ वामपदघातलग्नेन्द्राण्यवतारितशरावपुटखण्डाः । स्वः श्रीविवाहकार्यं तव नूनं दिव्युडू भूताः ॥ १० ॥ जिनजननदिनस्नानाधानेच्छातः किमाकुलीभूय । त्वं पञ्चत्वं प्राप्तः सुरपतिवज्जिनपतिर्भगवान् ? ॥ ११॥ त्वदभिमुखमिव क्षिप्तानाशानारीभिरक्षतान् नूनम् । उपभोक्तुं वियदजिरे विचरति चन्द्रो मराल इव ॥ १२ ॥ नास्तिकमतकृदमरगुरुजयनायेवासि जिनपते ! स्वरगाः । परमेतज्जगदधुना विना भवन्तं कथं भावि ? ॥ १३ ॥ हा! हा! श्रीमज्जिनपतिसूरे! सूरे त्वयीत्थमस्तमिते । अहह कथं भविता नीतिचक्रवाकी वराकीयम् ॥ १४ ॥ करतलधृतदीनास्ये श्रीशासनदेवि! मा कृथाः कष्टम् । यन्मन्ये तव पुण्यैर्जिनपतिसूरिर्दिवमयासीत् ॥ १५ ॥ रे दैव ! जगन्मातुः श्रीवाग्देव्या अपि त्वयात्रेपि? । ना मन्ये यदमुष्याः सर्वस्वं जिनपतिरहारि ॥ १६ ॥ [ हा ! हे जिनपतिसूरि जी महाराज ! श्री जिन शासन रूपी बगीचे में प्रतिदिन वृद्धि पाते विलास की लालसा में बसता हुआ मैं यह क्या अयोग्य बनाव देख रहा हूँ ॥ १ ॥] [हे जिनपतिसूरि जी महाराज ! पद्मों (कमलों) से प्रभासित ( शोभित ) मुख (मध्यभाग) वाले सरोवर में जैसे पानी प्रविष्ट होता है, वैसे पद्मप्रभाचार्य आदि विद्वानों से सुशोभित अजमेर के महाराजा पृथ्वीराज की राजसभा रूप सरोवर में आपने जयश्री के साथ प्रवेश किया था ॥ २ ॥ ] संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास , 2010_04 (११९) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हे प्रभो जिनपतिसूरि जी महाराज! आपने मथित (पराजित) किये हुए वादियों के विशाल समुदाय रूपी समुद्र में से आनंदरूप अमृत को उद्भट करके श्री संघ के मन रूपी कुण्ड में स्थापित कर दिया है ॥ ३॥] _[हे जिनपतिसूरि जी महाराज! सूर्य जैसे आपका उदय होने पर विद्वान् लोगों की बुद्धि रूप चक्रवाकी (चकोरी) षड् दर्शनों की तर्क रूपी सरिता (नदी) में तर्क रूपी चक्र को लेकर इच्छानुसार क्रीड़ा करती है॥ ४॥] [हे प्रभो जिनपतिसूरि जी महाराज! आश्चर्य है कि आपकी काव्य दृष्टि में यानि आपके रचित काव्यों को देख कर सज्जन व दुर्जन दोनों को एक ही समान सौमनस्य (हर्षोल्लास) उत्पन्ना होता है ॥ ५ ॥] [हे जिनपतिसूरि जी महाराज! धातु व विभक्ति की अपेक्षा रखे बिना एवं अन्य विद्वानों से साधे न जाय वैसे क्लिष्ट क्रियाकलाप को भी आपने प्रतिवादियों के समक्ष जो सिद्ध कर बताया वह किसको चमत्कारकारक नहीं हुआ? यानि आपकी इस प्रकार अत्यद्भुत प्रयोग सिद्धि को देख कर सभी लोग आश्चर्य मुग्ध हो जाते हैं ॥ ६॥] [हे जिनपतिसूरि जी महाराज! यहाँ भूतल पर मेरे विद्यामान रहते हुए मेरे समीप में यह (शुक्र) "कवि" ऐसे नाम को कैसे वहन कर रहा है? इस रोष से क्या असुराचार्य (शुक्र नाम के ग्रह) को जीतने के लिए आप स्वर्ग में सिधार गये हैं? ॥ ७॥] [हे भगवन् जिनपतिसूरि जी महाराज! मैं मानता हूँ कि आपके स्वर्ग में जाते हुए देवांगनाओं ने हर्ष के कारण आपके सामने जो अक्षत उछाले वे ही आकाश मण्डल में तारे बन गये हैं ॥ ८॥] [हे जिनपतिसूरि जी महाराज! मैं कल्पना करता हूँ कि इन्द्र के अनुरोध (आग्रह) से आप इस प्रकार अकस्मात् स्वर्ग सिधार गये हैं, कारण कि-सत्पुरुष दाक्षिण्यता (लिहाज) रूप धन वाले हुआ करते हैं॥९॥] [हे पूज्य गुरुदेव जिनपतिसूरि जी महाराज! स्वर्गश्री के साथ आपका विवाह कार्य करने हेतु इन्द्राणी द्वारा बाँये पैर का प्रहार लगाने से उतरे हुए शराव संपुट के टुकड़े आकाश में निश्चय ही तारे, ग्रह व नक्षत्र रूप बन गये हैं ॥ १०॥] [हे भगवन् जिनपतिसूरि जी महाराज! आप जन्म कल्याण के दिन जिनेश्वर भगवंतों को जन्माभिषेक कराने के लिए उत्कंठित हुए इन्द्र महाराजा जैसे पंचत्व (पाँच रूप) धारण करते हैं, वैसे आप भी जिनेश्वर देवों को जन्माभिषेक कराने की उत्कट इच्छा के कारण क्या पंचत्व (स्वर्गवास) को प्राप्त हो गए हैं? ॥ ११ ॥] [हे गुरुवर्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज! जैसे मानसरोवर में हंस मोती चुगने को इधर-उधर घूमता है वैसे ही निश्चल आशा (दिशा या तृष्णा) रूप स्त्रियों ने आपके सामने उछाले हुए अक्षतों को चुगने के लिए चन्द्रमा आकाश में घूम रहा है ।। १२ ॥] (१२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [हे पूज्य जिनपतिसूरि जी महाराज! नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के नाम को वहन करने वाले सुर गुरु (बृहस्पति) को मानो जीतने न गए हों वैसे आप स्वर्ग सिधार गए हो, परन्तु प्रश्न होता है कि अब आपके बिना जगत् की क्या हालत होगी? ।। १३ ।।] _ [हा हा! हे श्री जिनपतिसूरि जी महाराज! बड़ा ही खेद है कि इस प्रकार अकस्मात् आप जैसे सूर्य के अस्त हो जाने पर रंक समान इस नीति रूप चक्रवाकी (चकोरी) की क्या दशा होगी? ॥ १४ ॥] [हथेली में स्थापित दीन (उदास) मुखवाली हे शासन देवी! तुम खेद मत करना, कारण? मैं मानता हूँ कि तुम्हारे पुण्य से आकृष्ट होकर आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज स्वर्ग सिधारे हैं ॥ १५॥] - [अरे भाग्य! मैं मानता हूँ कि तूने जगत् की माता सरस्वती देवी को भी लज्जित कर दी, जो कि उसके सर्वस्वभूत मनुष्य श्री जिनपतिसूरि जी को तूने हर लिया॥ १६॥] इत्यादि श्लोकों द्वारा अत्यन्त शोक पूर्ण हृदय से विलाप करते हुए उपाध्याय जी मूर्छित हो गए। मूर्छा हटने पर धैर्य धारण करके पूज्यश्री के चरणों में वन्दना करके स्वर्गवास के बाद साधु योग्य कृत्य करने के लिए जिनहितोपाध्याय जी साधु परिवार सहित श्रावक संघ के साथ शुद्ध स्थंडिल (श्मशान) भूमि पर आये। वहाँ पर अपने साधु नियम के अनुसार करने योग्य समस्त कार्य को करके उपाश्रय में आ गये। वहाँ पर गणधर श्री गौतमस्वामी आदि पूज्य पुरुषों के चरित्र का कीर्तन करके उपस्थित समस्त संघ को आह्लादित किया। इस स्थान पर यह भी समझ लेना चाहिए कि दाह संस्कार करके अन्य श्रावक लोग भी इस उपदेश में सम्मिलित हो गये थे। श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के शिष्यों ने जाबालिपुर में जाकर चातुर्मास किया।' | विशेष जिनपतिसूरि : शाह रयणकृत 'जिनपतिसूरिधवलगीतम्' के अनुसार मरुमंडल के विक्रमपुर में वि०सं० १२१० चैत्र सुदि ८ के दिन इनका जन्म हुआ था। इनके माता-पिता का नाम यशोवर्धन और सुहवदेवी था, जो मालूगोत्रीय थे। इनका बचपन का नाम नरपति था। वि०सं० १२१८ फाल्गुण वदि १० के दिन भीमपल्लीपुर में जिनचन्द्रसूरि (मणिधारी) ने इन्हें दीक्षा दी थी। १. युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में "तत्पश्चातुर्मासी कृता जावालिपुरे" ऐसा उल्लेख है। इससे आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी के स्वर्गवास बाद ही आगत चातुर्मास सब साधुओं ने जावालिपुर किया हो यह संभव कम लगता है, कारण? आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी का स्वर्गवास आषाढ़ सुदि दशमी को हुआ था। तत्पश्चात् ३-४ दिन में जालौर पहुँचना संभव नहीं है। विशेष अनिवार्य संयोगों के बिना आषाढ़ चौमासे के बाद साधु का विहार संभव नहीं होगा। अत: संभावना यही है कि "ततः" शब्द से संवत् १२७७ का चातुर्मास पालनपुर कर संवत् १२७८ का चातुर्मास जालौर किया है और चातुर्मास के पश्चात् संवत् १२७८ माघ सुदी ६ के दिन वीरप्रभ गणि को आचार्य पद प्रदान किया गया हो। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१२१) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न स्थानों पर अनेक आचार्यों के साथ इन्होंने ३६ शास्त्रार्थ किये थे और सभी में विजयपताका प्राप्त की थी। इसीलिये इनका विरुद षड़त्रिंशदवादिविजेता प्रचलित हो गया था। जयसिंह की राजसभा में भी इनका शास्त्रार्थ हुआ था। अनेक राजाओं ने इन्हें आदर प्रदान किया था और इनकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे। खरतरगच्छ की मान्य परम्परा के अनुसार इन्होंने अनेक जिन प्रतिमाओं की स्थापना की थी। जालन्धरा देवी को भी इन्होंने प्रसन्न किया था। मरुकोट्ट निवासी भंडारी नेमिचन्द्र ने १२ वर्ष तक इनके साथ ग्राम-नगरों में विचरण कर के विशद्ध आचरण से प्रभावित होकर इनके पास दीक्षा ग्रहण की थी। (नाहटा-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ६-७) श्रीजिनपतिसूरि पंचाशिका :- यह ५५ गाथा की प्राकृत भाषामय रचना है। इसमें रचयिता ने अपना नाम नहीं दिया है पर द्वितीय गाथा के “जिणवइणो निय गुरुणो" वाक्य से ज्ञात होता है कि यह रचना श्री जिनपतिसूरि जी के किसी शिष्य की ही है। आशापल्ली में प्रद्युम्नाचार्य के साथ शास्त्रार्थ का उल्लेख है अतः यह निश्चित है कि संवत् १२४५ के बाद की यह रचना है। इस कृति का सारांश है :-मरु मण्डल के विक्रमपुर निवासी यशोवर्द्धन की भार्या सूहवदेवी (जसभई) की कुक्षी से सं० १२१० की मिती चैत्र वदि ८ मूल नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही वैराग्य वासित होकर सं० १२१८ फाल्गुन वदि १० को अतिशय ज्ञानी सुगुरु जिनचन्द्रसूरि से दीक्षित हुए। गुरुदेव ने पहले से ही आपकी तीर्थाधिपतित्व की योग्यता का ख्यालकर जिनपति नाम निश्चय कर लिया था। बागड़ देश के बब्बेरकपुर में आपको आचार्य पद से अलंकृत किया। आप समस्त श्रुतज्ञान स्वसमय-परसमय के पारगामी और वादीभपंचानन थे। आपने अनेकों वादियों का दर्प दलन किया और शाकंभरी के राजा (पृथ्वीराज) के समक्ष "जयपत्र' प्राप्त किया। आशापल्ली में (शास्त्रार्थ-विजयज्ञरा) संघ को आनन्दित किया । आप गौतम स्वामी की भाँति लब्धिसम्पन्न, स्थूलिभद्र की भाँति दृढ़व्रती और तीर्थ प्रभावना में व्रजस्वामी की भाँति थे। आप वास्तविक अर्थों में युगप्रधान पुरुष थे। सं० १२२३ कार्तिक सुदि १३ को आपको आचार्य पद मिला था। कवि भत्तउ रचित जिनपतिसूरिगीत के अनुसार इनका जन्मनक्षत्र मूल था। इनका दीक्षा सम्वत् भी १२१८ उल्लिखित है। अजमेर में जयसिंह की राजसभा में इनका शास्त्रार्थ हुआ था। अनेक बिम्बों की इन्होंने खरतर-विधि से प्रतिष्ठा की थी। जालन्धरा देवी को इन्होंने प्रसन्न किया था। (नाहटा-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ८-९) सटीक हेमानेकार्थ संग्रह नामक पुस्तक की लेखन-प्रशस्ति के अनुसार धर्कट वंशीय पार्श्वनाथ का पुत्र गोल्ल श्रावक जिनदत्तसूरि सुगुरु की आज्ञा को चूड़ामणि की तरह धारण करता था। उसके चार पुत्र थे-लक्ष्मीधर, समुद्धर, मुणा और आसिग। आसिग के तीन पुत्र थे-वीरपाल, आशापाल और जयपाल । आशापाल जिनपतिसूरि का आज्ञाकारी था। इसके ३ पुत्र थे-कुलचन्द्र, वीरदेव और पद्मदेव । आशापाल की धर्मपत्नी सुष्मिणी ने यह ग्रन्थ वि०सं० १२८१ में लिखवाया था। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १०) (१२२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड _ 2010_04 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उपरोक्त विवरणों की समीक्षा : शाह रयण और कवि भत्तउ ने अजमेरस्थ जयसिंह की राजसभा में जिस शास्त्रार्थ का उल्लेख किया है, वह भ्रामक है। यह शास्त्रार्थ वि०सं० १२३९ में उपकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य के साथ अजमेर में अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सभा में हुआ था और इसका आँखों देखा विशद वर्णन जिनपालोध्याय ने किया है, अतः वही प्रामाणिक है। ___ उक्त गुर्वावली में आचार्य जिनपतिसूरि का उपकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य के साथ जो शास्त्रार्थ अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की राज्य सभा में विक्रम संवत् १२३९ में हुआ था/उस में आचार्य जिनपतिसूरि ने छत्र बन्ध चित्रकाव्य बनाकर पृथ्वीराज चौहान की कीर्ति का वर्णन किया था। उस वर्णन में भादानक विजय का उल्लेख है। इस भादानक विजय की पुष्टि प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ० दशरथ शर्मा ने अपनी पुस्तक Early Chauhan Dynasties पृष्ठ ८२-८३ पर किया है। इसी प्रकार मालवा के शासक प्रतिहार जगदेव ने अभयड दंडनायक को उसके पत्र का उत्तर देते हुए लिखा-“मैंने बड़े कष्ट से अजमेर के अधिपति श्री पृथ्वीराज के साथ सन्धि की है। यह संघ अजमेर-सपादलक्ष का है। इसलिए इस संघ के साथ छेड़-छाड़ बिल्कुल भूलकर भी मत करना।' इस सन्धि की पुष्टि भी डॉ० दशरथ शर्मा ने अपनी पुस्तक Early Chauhan Dynasties के पृष्ठ ८४ पर की है। जिनपतिसूरि न केवल शास्त्रार्थ विजेता ही थे बल्कि आगमसाहित्य के धुरन्धर विद्वान् भी थे। जिनेश्वरसूरि 'प्रथम' द्वारा रचित पंचलिङ्गीविवरण और जिनवल्लभसूरि द्वारा रचित संघपट्टक पर विशद टीका इनके पाण्डित्य को प्रदर्शित करती है। आचार्य जिनपतिसूरि का आचार्यत्वकाल भी दीर्घ समय तक रहा तो इनकी शिष्य परम्परा भी विपुल संख्या में थी। इनमें से कतिपय प्रमुख विद्वानों के नाम निम्न हैं-जिनपालोध्यायसनत्कुमारचक्रिचरितमहाकाव्य आदि; पूर्णभद्रगणि-पंचाख्यान आदि; सूरप्रभाचार्य कालस्वरूपकुलक वृत्ति; जिनरत्नसूरि-निर्वाणलीलावतीसार; नेमिचन्द्र भंडारी-षष्टिशतक; सुमतिगणिगणधरसार्धशतकबृहद्वृत्ति। 卐卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१२३) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि नया ६६. कुछ समय पश्चात् जालौर में सारे संघ की सम्मति से श्री जिनहितोपाध्याय, श्री जिनपालोपाध्याय आदि प्रधान - प्रधान साधुओं के साथ श्री सर्वदेवसूरि जी ने श्री जिनपतिसूरि जी महाराज की बताई हुई रीति के अनुसार आचार्य पद के योग्य, छत्तीस गुणों से युक्त, सौभाग्य भाजन, सर्वजन ग्राह्य वचन, मृदुभाषी, विनीत, दश प्रकार के यति धर्मों के आदि भूत, क्षमा के क्रीडा स्थान श्री वीरप्रभ गणि को सं० १२७८ माघ सुदि ६ के दिन स्वर्गीय आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी के पाट पर स्थापित किया। अब इनका नाम परिवर्तन कर जिनेश्वरसूरि रखा गया । यह पाट महोत्सव अनेक दृष्टियों से अनुपम हुआ था । इस शुभ अवसर पर बड़े भक्ति भाव से देश - देशान्तरों से अनेक धनीमानी भव्य लोग आए थे। उनकी ओर से स्थान-स्थान पर गरीबों के लिए सदावर्त खोले गये थे । जगह-जगह सुन्दरी ललनाएँ युगप्रधान गुरुओं की कीर्तिगान के साथ नृत्य कर रही थीं । उत्सव के दिनों में प्राणिवध के निषेध निमित्त अमारि घोषणा की गई थी। हजारों रुपये व्यय कर याचकों के मनोरथ पूरे किये गये थे। आये हुए लोग वेष और आभूषणों की छटा से इन्द्र की भी स्पर्धा कर रहे थे। उस समय जैन शासन की प्रभावना देखकर अन्यदर्शनी लोग भी निःसंकोच होकर शासन की प्रशंसा करते थे । अन्यमतावलम्बी लोग अपने-अपने देवों को बार-बार धिक्कारते हुए जैन धर्म पर मुग्ध हुए जाते थे। भाट लोग खरतरगच्छ की विरुदावली पढ़ रहे थे। चारों तरफ से अनेक प्रकार के आशीर्वादों की झड़ी लग रही थी । तीर्थ - प्रभावना के निमित्त तोरण बन्दरवार आदि से भगवान् महावीर का मन्दिर कि जिसमें यह सूरि पदारोहण होने को था, बड़े अच्छे ढंग से सजाया गया था। पाट महोत्सव के बाद माघ सुदि नवमी के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने यश: कलश गणि, विनयरुचि गणि, बुद्धिसागर गणि, रत्नकीर्ति गणि, तिलकप्रभ गणि, रत्नप्रभ गणि और अमरकीति गणि इन सात साधुओं को दीक्षित किया। जाबालिपुर के सेठ यशोधवल के साथ विहार कर के श्री भिन्नमालपुर गए। वहाँ पर ज्येष्ठ सुदि १२ के दिन श्रीविजय, हेमप्रभ, तिलकप्रभ, विवेकप्रभ और चारित्रमाला गणिनी, ज्ञानमाला, सत्यमाला गणिनी इन साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर निवृत्ति मार्ग के पथिक बनाये। इसके बाद वहाँ से विहार कर गए। बाद में सेठ जगद्धर की प्रार्थना स्वीकार करके पुनः श्रीमालनगर आये वहाँ महाराज का नगर प्रवेश अभूतपूर्व रीति से हुआ । आषाढ़ सुदि दशमी के दिन उन्हीं सेठजी के समवसरण की प्रतिष्ठा तथा श्री शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना की गई और जाबालीपुर में देव - मन्दिर रचना प्रारम्भ करवाई । जाबालीपुर में ही सं० १२७९ माघ सुदि ५ पंचमी के दिन अर्हत गण और विवेकश्री गणिनी, शीलमाला गणिनी, चन्द्रमाला गणिनी एवं विनयमाल गणिनी को संयम प्रदान किया। वहाँ से पुनः श्रीमालपुर में आकर सं० १२८० माघ सुदि १२ को शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर पर ध्वजा का आरोपण किया और ऋषभदेव स्वामी, श्री गौतमस्वामी, श्री जिनपतिसूरि, मेघनाद (१२४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रपाल और पद्मावती देवी इनकी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। तत्पश्चात् फाल्गुन कृष्णा प्रतिपदा के दिन कुमुदचंद्र और पूर्णश्री गणिनी, हेमश्री गणिनी को साधु-साध्वी बनाकर उनके त्रिविध सन्ताप का निवारण किया। वहाँ से विहार कर प्रह्लादनपुर (पालनपुर) में आये। वहाँ पर वैशाख सुदि १४ के दिन बड़ी धूम-धाम से पंचायती स्तूप में श्री जिनपतिसूरि जी की प्रतिमा की स्थापना की। इस स्तूप की विस्तार से प्रतिष्ठा श्री जिनहितोपाध्याय ने की। सं० १२८१ वैशाख सुदि ६ के दिन जाबालीपुर में विजयकीर्ति, उदयकीर्ति, गुणसागर, परमानन्द और कमलश्री, कुमुदश्री प्रभृति का दीक्षा कार्य सम्पन्न किया। उसी नगर में ज्येष्ठ सुदि ९ के दिन महावीर स्वामी के मन्दिर पर ध्वजारोपण किया। सं० १२८३ माघ वदि २ के दिन बाड़मेर में श्री ऋषभदेव चैत्य पर ध्वजा फहराई। माघ वदि ६ को श्रीसूरप्रभ को उपाध्याय पद देकर सम्मानित किया और उसी दिन मंगलमति गणिनी को प्रवर्तिनी पद तथा वीरकलश गणि, नन्दिवर्द्धन गणि, विजयवर्द्धन गणि को दीक्षा दी। तदनन्तर सं० १२८४ में बीजापुर जाकर श्री वासुपूज्यस्वामी की स्थापना की एवं आषाढ सुदि २ को अमृतकीर्ति गणि, सिद्धकीति गणि और चारित्रसुन्दरी गणिनी, धर्मसुन्दरी' गणिनी को दीक्षित किया। सं० १२८५ की ज्येष्ठ सुदि द्वितीया को कीर्तिकलश गणि, पूर्णकलश गणि तथा उदयश्री गणिनी को उपदेश देकर निग्रन्थनिग्रन्थिनी बनाये। ज्येष्ठ सुदि ९ को बीजापुर में श्री वासुपुज्य स्वामी के मन्दिर के शिखर पर बड़े समारोह के साथ ध्वजा का आरोपण किया। बीजापुर में ही सं० १२८६ फाल्गुन वदि पंचमी के दिन विद्याचन्द्र, न्यायचन्द्र और अभयचन्द्र गणि को साधु धर्म में दीक्षित करके लोकमान्य मुनि बनाये। सं० १२८७ फाल्गुन सुदि पंचमी को पालनपुर में जयसेन, देवसेन, प्रबोधचन्द्र, अशोकचन्द्र गणि और कुलश्री गणिनी, प्रमोदश्री गणिनी को दीक्षा देकर असार संसार से मुक्त किया। सं० १२८८ भाद्रपद सुदि १० को जाबालीपुर में में स्तूप-ध्वज की प्रतिष्ठा करवाई। इसी वर्ष आश्विन शुक्ला दशमी को पालनपुर में समुदाय सहित सेठ भुवनपाल ने राजकुमार श्री जगसिंह की उपस्थिति में ध्वजारोपण सम्बन्धी महामहोत्सव किया, जो श्री जिनपालोपाध्याय के हाथों से सम्पन्न हुआ। पौष शुक्ला एकादशी को जालौर में शरच्चन्द्र, कुशलचन्द्र, कल्याणकलश, प्रसन्नचन्द्र, लक्ष्मीतिलक गणि, वीरतिलक, रत्नतिलक और धर्ममति, विनयमति गणिनी, विद्यामति गणिनी, चारित्रमति गणिनी इन स्त्री-पुरुषों को दीक्षित किया। चित्तौड़ में ज्येष्ठ सुदि १२ को अजितसेन, गुणसेन और अमृतमूर्ति, धर्ममूर्ति, राजीमति,, हेमावली, कनकावली, रत्नावली गणिनी तथा मुक्तावली गणिनी की दीक्षा हुई। वहीं पर आषाढ वदि द्वितीया के दिन श्री ऋषभदेव, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ की मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। इन देवों की मूर्तियाँ सेठ लक्ष्मीधर व सेठ राल्हा ने बनवाई और प्रतिष्ठा में सेठ लक्ष्मीधर ने आठ हजार रुपये खर्च किए थे। मूर्तियों को स्नान कराने के लिए सरकारी गाजे-बाजे के साथ जलयात्रा का वरघोड़ा निकाला गया था। १. धर्मसुंदरी, जिनपतिसूरि के माल्हू वंश में खीवड़-लक्ष्मी की पुत्री थी। इन्हें सं० १३१६ माघ सुदि १४ को जालौर में प्रवर्तिनी पद मिला था। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१२५) _ 2010_04 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १२८१ में पूज्य श्री जिनेश्वरसूरि ने ठा० अश्वराज और सेठ राल्हा की सहायता से उज्जयन्त, शत्रुञ्जय और स्तंभनक इन प्रधान तीर्थों की यात्रा की थी। स्तम्भनक (खम्भात) में वादी यमदण्ड नाम के दिगम्बर पण्डित से पूज्यश्री का मिलाप होकर विद्वत्तापूर्ण वार्तालाप हुआ था। वहीं पर प्रसिद्ध महामंत्री श्री वस्तुपाल अपने परिवार सहित नगर प्रवेश के समय पूज्यश्री के सम्मुख आये थे। इससे उस समय जिन शासन की अच्छी प्रभावना हुई थी। सं० १२९१ वैशाख सुदि दशमी के दिन जाबालीपुर में आकर यतिकलश, क्षमाचन्द्र, शीलरत्न, धर्मरन, चारित्ररत्न, मेघकुमार गणि, अभयतिलक गणि, श्रीकुमार तथा शीलसुन्दरी गणिनी, चन्दनसुन्दरी इन साधु-साध्वियों को विधि-विधान से दीक्षा दी। ज्येष्ठ वदि द्वितीया रविवार के दिन शुभ मूहूर्त में मूल नक्षत्र पर श्री विजयदेवसूरि को आचार्य पद से विभूषित किया। सं० १२९४ में संघहित मुनि को उपाध्याय पद दिया। सं० १२९६ फाल्गुन वदि पंचमी को पालनपुर में प्रमोदमूर्ति, प्रबोधमूर्ति, देवमूर्ति गणि इन तीनों की दीक्षा विपुल धन व्यय के साथ की गई। ज्येष्ठ सुदि १० को उसी नगर में श्री शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा करवाई, यही मूर्ति आजकल पाटण में विद्यमान है। सं० १२९७ चैत्र सुदि १४ के दिवस देवतिलक और धर्मतिलक को पालनपुर में दीक्षा दी गई। सं० १२९८ वैशाख की एकादशी को जावालीपुर में समुदाय सहित महं० कुलधर ने (जिन चैत्य में) सूत्रधार गुणचन्द्र से बनवाये हुए सुवर्णमय दण्ड पर ध्वजा का आरोपण किया। सं० १२९९ के प्रथम आश्विन माह की द्वितीया के दिन प्रगाढ़ वैराग्य के वशीभूत होकर महामंत्री कुलधर ने दीक्षा धारण की। इनकी दीक्षा के समय जो महोत्सव किया गया वह राजा गण और नागरिक लोगों के आश्चर्य समुद्र को बढ़ाने में पूर्णिमा के चाँद के समान हुआ अर्थात् इतने बड़े वैभवशाली राजनीति पटु मंत्री को साधु होते हुए देखकर उन लोगों के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। दीक्षा के बाद मंत्री जी का नाम कुलतिलक मुनि रखा गया। ___सं० १३०४ वैशाख सुदि १४ के दिन जिनेश्वरसूरि जी ने विजयवर्द्धन गणि को आचार्य पद दिया और इनका नाम बदल कर जिनरत्नाचार्य रखा। त्रिलोकहित, जीवहित, धर्माकर, हर्षदत्त, संघप्रमोद, विवेकसमुद्र, देवगुरुभक्त, चारित्रगिरि, सर्वज्ञभक्त और त्रिलोकानन्द को संयम प्रदान किया। सं० १३०५ में आषाढ़ सुदि १० को पालनपुर में श्री महावीर स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी', श्री नेमिनाथ स्वामी, श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमाओं की तथा नन्दीश्वर तीर्थ के भावयुक्त पट्ट की प्रतिष्ठा की। __इति श्रीजिनचन्द्रसूरि-श्रीजिनपतिसूरि-श्रीजिनेश्वरसूरिसत्कसजनमनश्चमत्कारिप्रभावनावार्तानामपरिमितत्वे अपि तन्मध्यवर्तिन्यः कतिचित् स्थूलाः स्थूला वार्ताः श्रीचतुर्विधसंघप्रमोदार्थम्। ढिल्ली वास्तव्यसाधु-साहुलिसुत सा० हेमाभ्यर्थनया। जिनपालोपाध्यायरित्थं ग्रथिताः स्वगुरुवार्ताः॥ १. इसी प्रतिष्ठा की भ० ऋषभनाथ की दो प्रतिमाएँ घोघा के जिनालय में विद्यमान हैं जिनके लेख "घोघा ना अप्रकट जैन प्रतिमा लेखो" लेख में श्री महावीर जैन विद्यालय के स्वर्ण महोत्सव ग्रंथ में प्रकाशित हैं। (१२६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वैसे तो मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि, श्री जिनपतिसूरि और श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज के जीवन चरित्र में चमत्कार पैदा करने वाली अनेक बातें हैं, परन्तु दिल्ली निवासी साहुली सेठ के पुत्र श्री हेमचन्द्र सेठ की प्रार्थना से श्री जिनपालोपाध्याय ने चतुर्विध संघ के आमोद के लिए उनमें से मोटीमोटी और सरल बातें उपर्युक्त रीति से लिखी हैं।) वे स्वयं लिखते हैं : लोकभाषानुसारिण्यः सुखबोधा भवत्यतः। इत्येकवचनस्थाने क्वापि (च) बहूक्तिरपि॥ बालावबोधनायैव सन्ध्यभावः क्वचित्कृतः। इति शुद्धिकृच्चेतोभिः सद्धिर्जेयं स्वचेतसि॥ बुद्धये शुद्धये ज्ञानवृद्धयै जनसमृद्धये । चतुर्विधस्य संघस्य भण्यमाना भवन्त्वतः॥ (हमने इन आचार्यों के जीवन की बातें संस्कृत में लोकभाषा के मुहावरे के अनुसार लिखी हैं। इनमें काठिन्य नाममात्र की भी नहीं है। हर एक आदमी सुगमता से जान सकें, इसका ध्यान रखा गया है। इसीलिए कहीं-कहीं आचार्यादि के लिए एकवचन के स्थान में बहुवचन भी दे दिया गया है। साधारण संस्कृतज्ञों की जानकारी के लिए कहीं-कहीं सन्धि का अभाव भी किया गया है। शुद्धाशुद्ध का विचार करने वाले विद्वान् लोग हमारे इस अभिप्राय को जान लें। हमारी कही हुई प्रातःस्मरणीय आचार्यों के जीवन-चरित्र सम्बन्धी ये बातें चतुर्विध संघ के लिए बुद्धि, शुद्धि, ज्ञानवृद्धि और जन-समृद्धि को देने वाली हों।) [पाठक वृन्द! ऊपर के लेख से विदित होता है कि श्री जिनपालोपाध्याय जी ने श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज का जीवन-चरित्र यहीं तक लिखा है। उनका आगे का जीवन-चरित्र किसी अन्य विद्वान् मुनि का लिखा हुआ है।] ६८. इसके बाद श्री जिनेश्वरसूरि जी ने श्रीमाल नगर में सं० १३०६ जेष्ठ सुदि १३ के दिन कुन्थुनाथ और अरनाथ भगवान् की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की और सेठ धीधाक की प्रार्थना स्वीकार करके दूसरी बार ध्वजारोपण किया। ___ सं० १३०९ में मार्गशीर्ष शुक्ला १२ को समाधिशेखर, गुणशेखर, देवशेखर, साधुभक्त, वीरवल्लभ मुनि तथा मुक्तिसुन्दरी साध्वी को दीक्षा दी और उसी वर्ष माघ सुदि १० को शान्तिनाथ, अजितनाथ, धर्मनाथ, वासुपूज्य, मुनिसुव्रत, सीमंधरस्वामी, पद्मनाभ आदि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा सेठ विमलचन्द्र, सा० हीरा आदि धनी-मानी श्रावक समुदाय ने पूज्यश्री से करवाई। यहाँ पर यह बतला देना भी अनुचित न होगा कि किस-किस श्रावक-समुदाय के धनव्यय से किस-किस तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई थी। सेठ विमलचन्द्र ने नगर कोट में जो स्थापित है, उन श्री शान्तिनाथ जी की प्रतिष्ठा पर्याप्त धन व्यय करके करवाई। अजितनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा बल० साधारण श्रावक संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१२७) ___ 2010_04 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने, धर्मनाथ स्वामी की विमलचन्द्र पुत्र क्षेमसिंह ने, वासुपूज्य स्वामी की सब श्राविकाओं ने, मुनिसुव्रत स्वामी की थेहड़ नाम के गोठी ने, सीमंधर स्वामी की गोठी हीरा ने, पद्मनाभ स्वामी भगवान् की अतिशय भाव से प्रधान सेठ हालाक ने विपुल धनराशि खर्च करके विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। ध्यान रहे कि यह प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य पालनपुर में हुआ था। उसी वर्ष सहजाराम सेठ के सुपुत्र बच्छड़ ने बाड़मेर जाकर बड़े उत्सव के साथ दो स्वर्णकलशों की प्रतिष्ठा करवाई और आदिनाथ मन्दिर के शिखर पर चढ़ाये। __ सं० १३१० में वैशाख सुदि ११ को जावालीपुर (जालौर) में चारित्रवल्लभ, हेमपर्वत, अचलचित्त, लोभनिधि, मोदमन्दिर, गजकीर्ति, रत्नाकर, गतमोह, देवप्रमोद, वीरानन्द, विगतदोष, राजललित, बहुचरित्र, विमलप्रज्ञ और रत्ननिधान इन पन्द्रह साधुओं को प्रब्रज्या धारण कराई। इन पन्द्रह में चारित्रवल्लभ और विमलप्रज्ञ पिता-पुत्र थे। इन्होंने साथ ही दीक्षा धारण की। इसी वर्ष वैशाख की त्रयोदशी के दिन शनिवार स्वाती नक्षत्र में श्री महावीर भगवान् के विधि-चैत्य में राजाश्री उदयसिंह जी आदि बहुत से राजा लोगों की उपस्थिति में राजमान्य महामंत्री श्री जैत्रसिंह जी के तत्वावधान में प्रह्लादनपुर (पालनपुर), वागड़ आदि स्थानों के मुख्य-मुख्य श्रावकों की सन्निधि में चौबीसी जिनालय, एक सौ सत्तर तीर्थंकर, सम्मेतशिखर, नन्दीश्वर द्वीप, तीर्थंकरों की मातायें, हीरा श्रावक के पास में स्थित नेमिनाथ स्वामी, उज्जयिनी सत्क श्रीमहावीर स्वामी, श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी, श्री शान्तिनाथ स्वामी, एवं सेठ हरिपाल सत्क सुधर्मा स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि, सीमंधरस्वामी, युगमन्धर स्वामी आदि की नाना प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा अभूतपूर्व महामहोत्सव के साथ की और प्रमोदश्री गणिनी को महत्तरा की उपाधि देकर लक्ष्मीनिधि नाम दिया तथा ज्ञानमाला गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया। (यह महोत्सव क्रिया जालौर में हुई हो ऐसा संभव है।) ___ सं० १३११ वैशाख सुदि ६ को पालनपुर में श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के विधि-चैत्य में भीमपल्ली नगरी के मन्दिर में स्थित श्री महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सेठ भूवनपाल ने अपने निजोपार्जित धन के व्यय से कराई। संघ समुदाय की ओर से ऋषभदेव स्वामी की; बोहित्थ श्रावक की तरफ से अनन्तनाथ स्वामी की; मोल्हाक नाम के श्रावक द्वारा अभिनंदन स्वामी की; आम्बा के भाई भावसार केल्हण की ओर से बाड़मेर के लिए नेमिनाथ स्वामी की; सेठ हरिपाल के छोटे भाई सेठ कुमारपाल की तरफ से श्रीजिनदत्तसूरि जी की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा पूज्यश्री से करवाई गई। इसके बाद पालनपुर में खरतरगच्छ की नौका के कर्णधार, संस्कृत साहित्य के प्रौढ विद्वान वयोवृद्ध श्री जिनपालोपाध्याय जी ने अनशन करके इन्द्रादि देवों के गुरु बृहस्पति के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए स्वर्ग की ओर विहार किया। तत्पश्चात् सं० १३१२ वैशाख सुदि पूर्णिमा के दिन चन्द्रकीर्ति गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया गया और चन्द्रतिलकोपाध्याय नया नामकरण किया गया। उसी अवसर पर प्रबोधचंद्र गणि और लक्ष्मीतिलक गणि को वाचनाचार्य के पद से सम्मानित किया गया। इसके बाद ज्येष्ठ वदि १ को उपशमचित्त, पवित्रचित्र, आचारनिधि और त्रिलोकनिधि को प्रव्रज्या धारण करवाई गई। (१२८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १३१३ फाल्गुन सुदि चतुर्थी को जालौर में स्वर्णगिरि के ऊपर वाले मन्दिर में वाहित्रिक उद्धरण नाम के श्रावक से कारित श्री शान्तिनाथ भगवान् की मूर्ति की स्थापना की। चैत्र सुदि चतुर्दशी को कनककीर्ति, त्रिदशकीर्ति, विबुधराज, राजशेखर, गुणशेखर तथा जयलक्ष्मी, कल्याणनिधि, प्रमोदलक्ष्म और गच्छवृद्धि की दीक्षा हुई। इसके बाद स्वर्णगिरि शिखर पट के दूसरे मन्दिर में पद्रू और मूलिग नाम के श्रावकों ने बहुत सा धन खर्च करके वैशाख वदि १ को श्री अजितनाथ प्रतिमा की स्थापना करवायी। पालनपुर में आषाढ सुदि १० के दिन भावनातिलक और भरतकीर्ति को दीक्षा की गई और उसी दिन आचार्यश्री की आज्ञा से भीमपल्ली में श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा की स्थापना हुई। __ सं० १३१४ माघ सुदि १३ को इस नगरी के किले पर बनवाये हुए मुख्य मन्दिर पर ध्वजा चढ़ाई गई। यह कार्य श्री उदयसिंह राजा की देख-रेख में निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हुआ था। तदनन्तर पालनपुर में अग्रिम वर्ष की आषाढ़ सुदि १० को सकलहित और राजदर्शन को एवं बुद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसुन्दरी, रत्नवृष्टि इन साध्वियों को बड़े ही ठाठबाट से दीक्षा दी गई। ___ सं० १३१६ माघ सुदि १४ के दिन जालौर में धर्मसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी पद तथा माघ सुदि ३ को पूर्णशिखर और कनककलश को प्रवज्या दी गई। माघ सुदि ३ के दिन महाराज श्री चाचिगदेव के राजत्व में पद्रू और मूलिग नाम के श्रावकों ने स्वर्णगिरि में श्री शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर पर स्वर्णमय कलश और ध्वजदण्ड का आरोपण कराया। इसी प्रकार श्री सोमचन्द्र नाम के मंत्री ने बीजापुर में आषाढ़ सुदि ११ के दिन श्री वासुपूज्य भगवान् के मन्दिर पर स्वर्णकलश और स्वर्ण के बनाये हुए ध्वज दण्ड चढाये। सं० १३१७ माघ सुदि १२ को अधिक धन व्यय के साथ श्री लक्ष्मीतिलक गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया तथा पद्माकर नाम के व्यक्ति को दीक्षा दी गई। माघ सुदि १४ के दिन आचार्यश्री की आज्ञानुसार श्री जावालीपुर के शोभावर्द्धक श्री महावीर जिनेन्द्र के मन्दिर में स्थापित चौबीस देवकुलिकाओं पर पंचायत की तरफ से स्वर्णकलश और सोने के ध्वजदण्ड चढ़ाये गए। फाल्गुन सुदि १२ को श्री शान्तनपुर में अजितनाथ स्वामी के मन्दिर में ध्वजदण्ड की प्रतिष्ठा और ध्वजारोहण किया गया। यह प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य वाचनाचार्य पूर्णकलश गणि ने करवाया था। इसी प्रकार भीमपल्ली में श्री मांडलिक राजा के राजत्वकाल में वैशाख सुदि १० सोमवार के दिन राज्य के प्रधान दण्डनायक श्री मीलगण? (सीलण) की सन्निधि में सेठ श्री खीमड़ के पुत्र सेठ जगद्धर और उसके पुत्ररत्न सेठ श्री भुवन ने अपने कुटुम्ब व संघ समुदाय के साथ बड़ा धन खर्च कर श्री वर्द्धमान स्वामी के "मन्दिर-तिलक" नामक मन्दिर पर स्वर्णदण्ड और स्वर्णकलश चढ़वाये और उनकी प्रतिष्ठा भी उसी दिन करवायी। उस समय वहाँ पर श्री महावीर स्वामी के केवलज्ञान महोत्सव का दिन होने से पालनपुर आदि अनेक नगरों के श्रावकों के आने से मेला लग गया था। इसके अतिरिक्त वहाँ पर और भी बहुत सी जिन प्रतिमा व देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा करवाई गयी थी। जैसे कि सेठ हरिपाल और उसके भाई कुमारपाल ने संसार की तमाम सर्वश्रेष्ठ विद्याओं की चक्रवर्ती, चन्द्रमा के समान संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१२९) _ 2010_04 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवल क्रान्ति वाली, सकल संघ को सुबुद्धि देने वाली और एकावन अंगुल प्रमाण वाली "सरस्वती" प्रतिमा की प्रतिष्ठा बड़े समारोह से करवाई। सेठ राजदेव ने इकतीस अंगुल प्रमाण की शान्तिनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना कराई। सेठ मूलदेव और क्षेमंधर ने ऋषभदेव प्रतिमा, सेठ सावदेव के पुत्र पूर्णसिंह ने श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा, आजड़ पुत्र बोधाक ने श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा, सेठ धारसिंह ने श्री पार्श्वनाथ स्वामी और श्री भीमभुजबल पराक्रमयुक्त क्षेत्रपाल प्रतिमा, श्री ऋषभदेव और महावीर स्वामी की प्रतिमा पूनाणी उदा ने, चौबीस तीर्थंकरों के पट्ट और अजितनाथ स्वामी की प्रतिमा सेठ बालचन्द्र ने, ऋषभदेव की प्रतिमा सेठ भावड़ के सुत धांधल ने, शान्तिनाथ की प्रतिमा बोथरा शांतिग ने, ऋषभदेव की प्रतिमा आसनाग ने, महावीर स्वामी जी की तीन प्रतिमाएँ सेठ साढल के पुत्र धनपाल ने, शांतिनाथ की प्रतिमा सेठ भोजाक ने, दादा जिनदत्तसूरि और चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा सेठ हरिपाल तथा कुमारपाल ने, श्रीनेमिनाथ की प्रतिमा रूपचन्द्र के पुत्र नरपति ने, स्तंभनक पार्श्वनाथ की प्रतिमा सेठ धनपाल ने, चण्डे० () की प्रतिमा सेठ बीजा ने और अम्बिकादेवी की प्रतिमा श्री संघ ने स्थापित करवाई। द्वादशी के दिन सौम्यमूर्ति और न्यायलक्ष्मी नामक साध्वियों की दीक्षा धूमधाम से करवाई गई। सं० १३१८ पौष सुदि तृतीया के दिन संघभक्त को दीक्षा और धर्ममूर्ति गणि को वाचनाचार्य पद दिया गया। ___ सं० १३१९ मिगसिर सुदि ७ के दिन अभयतिलक गणि को उपाध्याय पद दिया गया। उसी वर्ष पं० देवमूर्ति आदि साधुओं को साथ लेकर श्री अभयतिलक उपाध्याय जी उज्जैन गए, वहाँ पर तपागच्छ के पंडित विद्यानन्द को जीत कर "प्रासुकं शीतलं जलं यतिकल्प्यम्" अर्थात् प्रासुक (अचित-निर्जीव) हुआ शीतल पानी यतिजनों को कल्पनीय है। इस बात को अनेक सिद्धान्तों के बल से अपने पक्ष का स्थापन करके राजसभा में जय-पत्र प्राप्त किया। इस कारण इन सूरि महाराज का पालनपुर आदि स्थानों में बड़े विस्तार से प्रवेशोत्सव हुआ था। सं० १३१९ माघ वदि पंचमी को विजयसिद्धि साध्वी की दीक्षा हुई। माघ वदि ६ को श्री चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा, अजितनाथ प्रतिमा और सुमतिनाथ की प्रतिमा की सेठ बुधचन्द्र ने बड़े महोत्सव से प्रतिष्ठा करवाई। सेठ भुवनपाल ने ऋषभदेवस्वामी की प्रतिमा, सेठ जसधर के पुत्र जीविग नामक श्रावक ने धर्मनाथ स्वामी की प्रतिमा, रत्र और पेथड़ श्रावक ने सुपार्श्वस्वामी की प्रतिमा, सेठ हरिपाल और उसके भाई कुमारपाल ने श्री जिनवल्लभसूरि मूर्ति और सिद्धान्तयक्ष मूर्ति की स्थापना एवं प्रतिष्ठा कराई। सेठ अभयचन्द्र ने श्री पतन में अक्षय तृतीया के दिन श्री शान्तिनाथ देव के मन्दिर पर दण्ड कलश चढ़ाये। ___ सं० १३२१ फाल्गुन सुदि २ के दिन गुरुवार को चित्तसमाधि और क्षान्तिनिधि नामक आर्याओं की दीक्षा हुई। सं० १३२१ फाल्गुन वदि ११ को पालनपुर में मन्दिर के एक गोख में तीन प्रतिमाओं की और ध्वजदण्ड की प्रतिष्ठा की। बाद में जैसलमेर के श्री संघ की प्रार्थना से श्री जिनेश्वरसूरि जी जैसलमेर १. यहाँ फाल्गुन वदि ग्यारस का उल्लेख गुजराती मास गणना के अनुसार दिया गया प्रतीत होता है। (१३०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँचे और वहाँ पर ज्येष्ठ सुदि १२ के दिन सेठ यशोधवल के बनवाये हुए देवगृह के शिखर पर दण्डध्वज का आरोपण किया और पार्श्वनाथ स्वामी स्थापना की। सं० १३२१ ज्येष्ठ सुदि पूर्णिमा के दिन विक्रमपुर में चारित्रशेखर, लक्ष्मीनिवास तथा रत्नावतार नाम के तीन साधुओं को दीक्षा दी। सं० १३२२ माघ सुदि १४ को विक्रमपुर में त्रिदशानन्द, शान्तमूर्ति, त्रिभुवनानन्द, कीर्तिमण्डल, सुबुद्धिराज, सर्वराज, वीरप्रिय, जयवल्लभ, लक्ष्मीराज और हेमसेन तथा मुक्तिवल्लभा, नेमिभक्ति, मंगलनिधि और प्रियदर्शना को तथा विक्रमपुर में ही वैशाख सुदि ६ को वीरसुन्दरी को दीक्षित किया गया। ___ सं० १३२३ मार्गशिर वदि पंचमी को नेमिध्वज को साधु और विनयसिद्धि तथा आगमसिद्धि को साध्वी बनाया। सं० १३२३ वैशाख सुदि १३ के दिन देवमूर्ति गणि को वाचनाचार्य पद दिया और द्वितीय ज्येष्ठ सुदि दशमी को जैसलमेर में श्री पार्श्वनाथ विधि चैत्य पर चढाने के लिए सेठ नेमिकुमार और गणदेव के बनवाये हुए स्वर्ण दण्ड और कलशों की प्रतिष्ठा की तथा विवेकसमुद्र गणि को वाचनाचार्य का पद दिया। आषाढ़ वदि १ को हीराकर को साधु पद प्रदान किया। सं० १३२४ मार्गशीर्ष कृष्णा १ शनिवार के दिन कुलभूषण, हेमभूषण दो साधु और अनन्तलक्ष्मी, व्रतलक्ष्मी, एकलक्ष्मी, प्रधानलक्ष्मी इन पांच (? चार) साध्वियों को गाजे-बाजे आदि प्रदर्शन के साथ दीक्षित किया। यह दीक्षा महोत्सव जावालीपुर (जालौर) में हुआ था। सं० १३२५ वैशाख सुदि १० को जावालीपुर में ही श्री महावीर विधि चैत्य में पालनपुर, खंभात, मेवाड़, उच्चा, वागड़ आदि स्थानों से आए हुए समुदायों के मेले में व्रत-ग्रहण, मालारोपण, सम्यक्त्वारोपण, सामायिक ग्रहण आदि तथा नन्दियाँ विस्तार से की गईं। वहाँ पर गजेन्द्रबल नाम का साधु तथा पद्यावती नाम की साध्वी बनाई गई। वैशाख सुदि १४ के दिन महावीर विधि-चैत्य में चौबीस जिन प्रतिमाओं की, चौबीस ध्वज दण्डों की, सीमंधर स्वामी, युगमंधर स्वामी, बाहु-सुबाहु स्वामी की एवं अन्य अनेक जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा बड़े विस्तार से हुई। वैसे ही ज्येष्ठ वदि ४ के दिन सुवर्णगिरि किले में स्थित श्री शांतिनाथ विधि-चैत्य में चौबीस देवकुलिकाओं में उन्हीं चौबीस जिन प्रतिमाओं की, सीमंधर स्वामी, युगमंधर स्वामी, बाहु-सुबाहु स्वामी की प्रतिमाओं की स्थापना सर्व समुदाय के मेले में बड़े उत्सव से की। उसी दिन धर्मतिलक गणि को वाचनाचार्य का पद दिया गया और वैसे ही वैशाख सुदि १४ को जैसलमेर के श्री पार्श्वनाथ विधि-चैत्य में सेठ नेमिकुमार और सेठ गणदेव के बनाये हुए सुवर्णदण्ड और सुवर्णकलशारोपण महोत्सव विशेष ठाठ से किया गया। ६९. सं० १३२६ में सेठ भुवनपाल के पुत्र अभयचन्द्र ने तथा मंत्री अजित सुत देदाक नाम के श्रावक ने रास्ते के प्रबन्ध भार को स्वीकार कर लिया। तभी से सेठ अभयचन्द्र, मह० अजित सुत मह० देदा, सेठ राजदेव, सेठ कुमारपाल, सेठ नीम्बदेव सुत सेठ श्रीपति, सेठ मूलिग और सेठ धनपाल आदि चारों दिशाओं के विधि संघ के प्रमुख सज्जनों ने शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा के लिए महाराज से बहुत प्रार्थना की। चतुर्विध संघ की उस प्रार्थना को स्वीकार करके श्री जिनरत्नाचार्य, श्री चन्द्रतिलकोपाध्याय, कुमुदचन्द्र आदि १३ साधु तथा श्री लक्ष्मीनिधि महत्तरा आदि मुख्य १३ साध्वियों संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१३१) 2010_04 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को साथ लेकर आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने पालनपुर से तीर्थयात्रा के लिए चैत्र वदि १३ को विहार किया। मार्ग में स्थान-स्थान पर विधि-मार्ग की प्रभावना करता हुआ यह विधिमार्गानुयायी श्री संघ श्री तारणगिरि (तारंगा ) महातीर्थ पहुँचा । वहाँ पर मह० देदाक ने पन्द्रह सौ द्रम्म देकर इन्द्रपद लिया। पूना जी के पुत्र सेठ पेथड़ ने चार सौ रुपयों में मंत्रिपद, कुलचन्द्र के पुत्र वीजड़ ने सौ रुपये देकर सारथी पद, सेठ राजाक ने एक सौ दस रुपये में भाण्डागारिक पद, महं० देदा की दो धर्मपत्नियों ने तीन सौ रुपये देकर आद्य चामरधारी पद, तेजपाल ने नब्बे रुपयों में छत्रधर पद और सेठ जयदेव तथा तेजपाल की पत्नियों ने पिछला चामरधारी पद प्राप्त किया। इसी प्रकार बीजापुर में श्री वासुपूज्य भगवान् के विधि - चैत्य में सेठ श्रीपति ने तीन सौ सोलह रुपये में माला ली। इस प्रकार कुल मिलाकर भण्डार में तीन हजार रुपयों का संग्रह हुआ । तदनंतर संघ खंभात पहुँचा । वहाँ पर बहुगुण के भाई थक्कण ने छः सौ सोलह रुपयों से इन्द्र पद पाया। साकरिया गोत्रीय सहजपाल ने एक सौ चालीस रुपयों में मंत्रिपद प्राप्त किया । साह पासु श्रावक ने दो सौ बत्तीस में दो आगे और दो पीछे इस तरह चामरधारियों के चारों पद लिए । सेठ सांगण के पुत्र ने अस्सी रुपये भेंट चढ़ाकर प्रतिहार का ओहदा प्राप्त किया । सेठ पासु के पुत्र ने सत्तर रुपये देकर सारथी का स्थान ग्रहण किया। भां० राजक के पुत्र नावंधर ने अस्सी रुपयों में भण्डारी का पद प्राप्त किया। बहुगुण ने चालीस रुपयों में छत्रधर पद प्राप्त किया। कां० पारस के पुत्र सोमा ने पचास रुपयों में छड़ीवाहक का पद लिया । पदधारियों की तरफ से कुल तेरह सौ आठ रुपये संग्रह किए गए। वैसे सारे संघ की तरफ से पांच हजार रुपये की आवक हुई। वहाँ से चलकर संघ शत्रुंजय महातीर्थ में पहुँचा । सा० मुलिंग ने एक हजार चार सौ चौहत्तर रुपये भेंट चढ़ाकर इन्द्र पद को धारण किया। महं० देदा के पुत्र महं० पूनसी (पुण्यसिंह) ने आठ सौ रुपयों में मंत्री पद प्राप्त किया । भां० राजा के पुत्र इसल ने चार सौ बीस में भांडागारिक पद प्राप्त किया। सेठ सालक ने दो सौ चौहत्तर में प्रतिहार का स्थान ग्रहण किया। महं० सामंत के पुत्र आल्हणसिंह ने दो सौ चौबीस में सारथी का स्थान पाया। सेठ धनपाल के पुत्र धींधा ने एक सौ सोलह में छत्रधर का पद पाया । छो० देहड़ ने दो सौ अस्सी में पारघिय पद लेकर अपने को कृतार्थ किया। पद्मसिंह ने एक सौ रुपये देकर छड़ीवाहक का पद लिया । बहुगुण ने साढ़े चार सौ में आद्य चामरधारी के प्रतिष्ठित पद को प्राप्त कर के अपने को संघ का प्रीतिपात्र बनाया। भां० राजा ने तथा सां० रूपा ने सौ रुपयों में पीछे की ओर का चामर ग्राही का स्थान ग्रहण किया । इन उपर्युक्त सब पदों से पांच हजार तीन सौ अड़तीस रुपये आय हुई। सा० पासू श्रावक ने अड़तीस द्रम्म से मूलनायक युगादिदेव (लेप्यमय) की मुखोद्घाटन माला . ली। सेठ पद्रू के पुत्र सेठ बाहड़ ने तीन सौ चार में मूलनायक युगादिदेव की माला पहनी। महं० देदा की माता हीरल श्राविका ने पांच सौ रुपये में मरु देवी स्वामिनी की माला पाई। सेठ राजदेव की माता तीवी श्राविका ने एक सौ चालीस में पुण्डरीक गणधर की माला ग्रहण की। उसके पुत्र मूलराज (१३२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने एक सौ सत्तर रुपये में कपर्दियक्ष की माला पहनी। इस प्रकार सब मिलाकर तीर्थ के खाते में सत्रह हजार रुपये की आय हुई। इसके बाद संघ वहाँ से चलकर उज्जयन्त महातीर्थ में पहुँचा। वहाँ पर शाह श्रीपति ने इक्कीस सौ रुपये भेंट देकर इन्द्र पद, सेठ हरिपाल के पुत्र पूर्णपाल ने छः सौ सोलह रुपये में मंत्री पद, पासू श्रावक ने दौ सौ नब्बे में प्रतिहार पद, भां० राजा के पुत्र आटा ने पांच सौ में भंडारी का पद, कां० मनोरथ ने दो सौ साठ में सारथी पद, सा० राजदेव के भतीजे भुवना ने डेढ़ सौ में पारिघिय पद, सा० राजदेव के पुत्र सलखण ने एक सौ चालीस में छड़ीवाहक पद, धनदेव ने एक सौ तेरह में छत्रधर पद, सेठ श्रीपति ने दो सौ में प्रथम चामरधारि पद और पिचासी रुपये में चतुर्थ चामरधारी पद, वै०सा० बहुगुण ने एक सौ साठ में द्वितीय चामरधारि पद और नब्बे में तृतीय चामरधारि पद, वै० हांसिल पुत्र वै० देहड़ ने पांच सौ सोलह में नेमिनाथ मुखोद्घाटन माला, सेठ अभयचन्द्र की माता तिहुअणपालही श्राविका ने एक सौ चालीस में राजीमती माला, सेठ श्रीपति की माता मोल्हा श्राविका ने पैंतीस में अम्बिका माला, पाल्हण के पुत्र देवकुमार ने एक सौ चवालीस में शांब माला, शाह अभयचंद्र के पुत्र वीरधवल ने एक सौ अस्सी में प्रद्युम्न माला, सेठ राजदेव के भाई भोला ने तीन सौ ग्यारह में कल्याण जयमाला, सेठ पासू की बहन रासल श्राविका ने दो सौ चालीस में श्री शत्रुजय ऋषभदेव माला, सेठ पासू की माता पाल्ही श्राविका ने एक सौ चौबीस में मरु देवी माला, सा० ऊदा के पुत्र भीमसिंह ने एक सौ आठ में पुण्डरीक माला, सेठ धनपाल ने अवलोकना शिखर माला तथा शाह राजदेव के भाई गुणधर के पुत्र बीजड़ ने चौबीस रुपयों में कपर्दियक्ष माला ग्रहण की। इस प्रकार मिलाकर ७०७९ रुपये हुए। इस संघ के द्वारा सब मिला कर शत्रुजय तीर्थ के देव भंडार में बीस हजार और उज्जयन्त तीर्थ के देव कोष में सत्रह हजार रुपये की आवक हुई। श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने उज्जयन्त तीर्थ में श्रीनेमिनाथ स्वामी की मूर्ति के समक्ष ज्येष्ठ वदि ....... के दिन प्रबोधसमुद्र, विनयसमुद्र को दीक्षा दी तथा मालारोपण आदि महोत्सव किया। इसके बाद संघ देवपत्तन में गया। वहाँ पर पतियाण (पटेल) लोगों द्वारा दिए हुए राजकीय वाजित्रादि उत्तम साधन के द्वारा बड़े ही ठाठ से चतुर्विध संघ सहित श्री जिनेश्वरसूरि जी ने सकल लोगों का हित करने वाली चैत्य-परिपटी की यानि समस्त जिन मन्दिरों के दर्शन किए। ऐसा करने से सब पतियाण लोक और उनका मालिक बहुत प्रसन्न हुआ। __इस प्रकार मार्ग में स्थान-स्थान पर महाप्रभावना करने से संघ ने अपने जन्म और सामर्थ्य को सफल किया। महाराज ने भी विधिमार्गीय संघ के साथ तीर्थयात्रा निर्विघ्न समाप्त करके अपने चिर संकल्पित मनोरथ को सफल किया। सेठ अभयचन्द्र ने आषाढ़ सुदि नवमी के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज आदि चतुर्विध संघ सहित जंगम जिन चैत्य जो संघ के साथ में था, उसका पालनपुर नगर में बड़े ही ठाठ से ऐसा महोत्सव कराया कि जिसे देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस प्रकार तीर्थयात्रा और नगर प्रवेश दोनों ही बृहत्कार्य श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज के पुण्य प्रभाव से निर्विघ्नता के साथ सम्पन्न हुए। इस प्रसंग में दानवीर व कर्मवीर सेठ अभयचन्द्र के गुणों का परिचय संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१३३) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देने वाले श्लोक तथा उनका भवार्थ यहां दिया जाता है सुमेरौ निर्मेरैरपि सपदि जग्मे तरुवरैटुंगव्या दिव्यन्ते सलिलनिधौ चिन्तामणिगणैः। (?) कलौ काले वीक्ष्यानवधिमभितो याचकगणं न तस्थौ के नाऽपि स्थिरमभयचन्द्रस्तु विजयी॥ धैर्यं ते स विलोकतानभय! यः शैलेन्द्रधैर्योत्मना, गाम्भीर्यं स तवेक्षतां जलनिधेर्गाम्भीर्यमिच्छुश्च यः। भक्तिं देवगुरौ स पश्यतु तव श्रीश्रेणिकं य स्तुते, यात्रां तीर्थपतेः स वेत्तु भवतो यः सांप्रती ज्ञीप्सति॥ [कलियुग में चारों तरफ अनगनित याचकों की फौज को देखकर कल्पद्रुम भागकर सुमेरु पहाड़ पर चले गए। कामधेनु देवलोक में और चिन्तामणि समुद्र में, इस तरह सभी अपने-अपने स्थान पहुँच गए। याचकों की अधिकता को देखकर सब की स्थिरता जाती रही। परन्तु हमें इस बात को प्रकाशित करते हुए महान् हर्ष होता है कि दानवीर अभयचन्द्र सदा विजयी हैं यानि उसकी स्थिरता ज्यों की त्यों रही।] __ "अभयचन्द्र ! जो मनुष्य धैर्य गुण से पर्वतों के इन्द्र-मेरु को जानना चाहता हो, वह तुम्हारे धैर्य गुण को देखे, जो समुद्र की गंभीरता (गहराई) को जानना चाहे वह तुम्हारी गंभीरता को देखे, जो भक्ति गुण से परिपूर्ण राजा श्रेणिक को जानना चाहे वह देव व गुरु के प्रति तुम्हारी अनन्य साधारण भक्ति को देखे और जो सम्प्रति राजा द्वारा की हुई तीर्थपति शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा का वृत्तान्त जानना चाहता हो वह तुम्हारे द्वारा की हुई तीर्थ यात्रा के वृत्तान्त को यथावत् समझे।") इसके बाद सं० १३२८ वैशाख सुदि चतुर्दशी के दिन जालौर में सेठ क्षेमसिंह ने श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के बड़ी मूर्ति की, महं० पूर्णसिंह ने ऋषभदेव की और महं० ब्रह्मदेव ने श्री महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा का महोत्सव किया। ज्येष्ठ वदि ४ को हेमप्रभा को साध्वी बनाया। सं० १३३० वैशाख वदि ६ को प्रबोधमूर्ति गणि को वाचनाचार्य का पद और कल्याणऋद्धि गणिनी को प्रवर्तिनी का पद दिया। तदनन्तर वैशाख वदि अष्टमी को सुवर्णगिरि में श्री चन्द्रप्रभु स्वामी की बड़ी प्रतिमा की स्थापना चैत्य के शिखर में की। ____७०. इस प्रकार प्रतिदिन संसारगत प्राणि मात्र के चित्त को चमत्कृत करने वाले अनेक सच्चरित्रों को करते हुए, श्री महावीर शासन की प्रभावना को बढ़ाते हुए, बढ़ती हुई आपदाओं की तरंगों से भयानक-संसार रूपी महासमुद्र में डूबते हुए प्राणी समूह को बचाते हुए, समस्त प्राणियों के मन में उत्पन्न होने वाले अनेकविध मनोरथों को कल्पवृक्ष की तरह पूर्ण करते हुए, अपनी वाक्पटुता से देवगुरु बृहस्पति को पराजित करने वाले, लोकोत्तर ज्ञानधन के भंडार, जावालीपुर (जालौर) में स्थित प्रभु श्री जिने श्ररसूरि जी महाराज ने अपना मृत्युकाल निकट आया जानकर समस्त संघ के सामने (१३४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक गुणों की खान वाचनाचार्य प्रबोधमूर्ति गणि को सं० १३३१ आश्विन वदि पंचमी को प्रात:काल संक्षेप विधि से अपने पाट पर अपने हाथ से स्थापित किया। उनका जिनप्रबोधसरि नाम दिया। पालनपुर में स्थित जिनरत्नाचार्य को यह सन्देश भिजवाया कि-"चार्तुमास के बाद सारे गच्छ और समुदाय के साथ अच्छे मुहूर्त में श्री जिनप्रबोधसूरि का आचार्य-पद-स्थापना महोत्सव खूब ठाठ से विधिपूर्वक करना।" इसके बाद पूज्यश्री ने अनशन ग्रहण कर लिया और विशेषता से पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए, अनेक आराधना सूत्र व स्तोत्रों का पठन करते हुए, प्राणी मात्र से क्षमा प्रार्थना करके शुभ ध्यान में निमग्न होकर आश्विन वदि ६ को दो घड़ी रात बीते बाद जिन शासन गगन के चमकते हुए चाँद श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज सदा के लिए इस संसार को त्याग कर स्वर्गीय देवों से परिचय बढ़ाने के लिए यह लीला संवरण करके स्वर्गधाम को पधार गये। प्रात:काल होने पर राजा-प्रजा आदि सारे समुदाय ने एकत्रित होकर गाजे-बाजे के साथ पूज्यश्री का दाह-संस्कार किया। सर्व समुदाय की सम्मति से सेठ क्षेमसिंह ने चिता-स्थान पर पूज्यश्री की यादगारी में एक सुन्दर स्तूप बनवा दिया। | विशेष जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' : सोममूर्ति गणि रचित जिनेश्वरसूरिसंयमश्रीविवाहवर्णन रास के अनुसार इनके सम्बन्ध में विशेष वर्णन इस प्रकार है :- मरुदेशस्थ मरुकोट निवासी नेमिचन्द्र भंडारी के ये पुत्र थे। इनकी माता का नाम रुक्मिणी था। वि०सं०व १२४५ मार्गशीर्ष सुदि ११ को इनका जन्म हुआ था। अम्बिका देवी के स्वप्नानुसार इनका जन्मनाम अम्बड़ रखा गया था। सं० १२५८ में चैत्र वदि २ को खेड़ नगर के शान्तिनाथ जिनालय में इन्हें जिनपतिसूरि ने दीक्षा देकर वीरप्रभ नाम रखा था। सं० १३३१ आश्विन वदि ६ को इनका निधन हुआ। श्री जिनेश्वरसूरि चतुःसप्ततिका यह ७४ गाथा की प्राकृत रचना है। इसमें भी रचयिता का नाम नहीं है। इसमें लिखा है-आपका जन्म मरुकोट निवासी भांडागारिक नेमिचन्द्र के यहाँ सं० १२४५ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ११ को लखमिणि माता की कुक्षी से हुआ। आपका जन्मनाम आंबड था । सं० १२५८ में खेड़पुर में श्री शांतिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा के अवसर पर श्री जिनपतिसूरिजी ने आपको दीक्षित कर वीरप्रभ नाम रखा। लक्षण, प्रमाण और शास्त्र सिद्धान्त के पारगामी होकर आपने मारवाड़, गुजरात, वागड़ देश में विचरण किया। सं० १२७८ माघ सुदि ६ के दिन जावालिपुर-स्वर्णगिरि में आचार्य श्री सर्वदेवसूरिजी ने इन्हें श्री जिनपतिसूरि जी के पट्ट पर स्थापित कर जिनेश्वरसूरि नाम रखा। यह पट्टाभिषेक भगवान् महावीर स्वामी के मंदिर में हुआ था। आपने १४ वर्ष की लघुवय में दीक्षा ली और ३४वें वर्ष में गच्छाधपति बने। आपने शत्रुजय, गिरनार, स्थंभनक पार्श्वनाथ आदि तीर्थों की यात्रा की। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ___ 2010_04 (१३५) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके समय में उकेशवंशीय ब्रह्मदेव ने श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति की प्रतिलिपि करायी थी। (जैन. पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० ८४-८५) इसकी लेखन प्रशस्ति में ब्रह्मदेव के पूर्वज और उनकी वंश-परम्परा का विस्तार से वर्णन किया गया है। उकेशवंशीय श्रावक खेतू द्वारा लिखित अभयकुमारचरित्रादि पुस्तक पंचक प्रति की लेखन प्रशस्ति के अनुसार वीरदेव के पौत्र पार्श्व के पुत्र मानदेव हुए। मानदेव के पुत्र यशोवर्धन जिनपतिसूरि की सदा उपासना करते थे। साधु खिम्बड़ की पुत्री सुन्दरी ने जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी। साधु लालण की पुत्री आम्बश्री (आम्बी) ने बीजापुर में पद्मप्रभ जिनालय का निर्माण कराया । आम्बी ने जिनप्रबोधसूरि के पास व्रत भी ग्रहण किया था। साधु लालण ने जावालिपुर में १२ देवकुलिकाओं पर सुवर्णकलश और ध्वजा स्थापित करायी थी। बीजापुर में वासुपूज्य विधिचैत्य में भी इन्होंने देवकुलिका-निर्माण कराया था। जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के आदेश से वासुपूज्य जिनालय में कुलचन्द्र ने देवकुलिका का १३२८ में निर्माण कराया था। वि०सं० १३२८ चैत्र ११ को बीजापुर में कुलचन्द्र ने २४ मातृकाओं की प्रतिष्ठा करायी थी। इस प्रशस्ति की रचना जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्रीकुमारगणि ने की थी। इस प्रशस्ति में मानदेव की विशालवंश परम्परा और उनके द्वारा किये गये सत्कृत्यों का विशद् वर्णन है। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० ८८-९१) ___ सं० १२९५ में लिखी गयी कर्मविपाक टीका की लेखन प्रशस्ति के अनुसार वि०सं० १२९५ में नलकच्छ के महाराजाधिराज जयतुगीदेवकल्याणविजय के शासनकाल में महाप्रधान धर्मदेव के कार्यकाल में चित्रकूट निवासी उकेशवंशीय आशापुत्र जिनवल्लभसूरि संतानीय श्री जिनेश्वरसूरि के चरणोपासक थे। शत्रुजय, उज्जयन्त आदि तीर्थों की यात्रा कर सुगुरु के उपदेश से समस्त जैन शास्त्रोद्धार का प्रतिलेखन कराते हुए सल्हाक ने स्वभ्रातृ देदा के साथ यह पुस्तिका लिखवायी। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ० १२०) क्षमाकल्याणोपाध्यायकृतपट्टावली में उल्लेख मिलता है कि अणहिल्लपत्तन में राजा कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्य से निवेदन किया कि, हे स्वामिन् यदि आप मुझे स्वर्णसिद्धि का उपाय बतलायें तो मैं सारे विश्व को ऋणरहित कर विक्रमादित्य की तरह नवीन संवत्सर का प्रवर्तन करूँ। आचार्य हेमचन्द्र ने उत्तर दिया कि आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्यों द्वारा लायी गयी बौद्ध पुस्तक में स्वर्णसिद्धि का उपाय है। वह पुस्तक खरतरगच्छ वालों के पास इस समय है। कुमारपाल ने अपने आदमियों (भृत्यों) को जिनेश्वरसूरि के पास भेजकर उस पुस्तक की उनसे माँग की। जिनेश्वरसूरि ने चित्रकूट के चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय के स्तम्भ से पुस्तक निकलवाकर उन्हें सौंप दी और यह संदेश भी दिया कि इस पुस्तक को नहीं खोलें और न ही पढ़ें, अपितु ग्रन्थभंडार में स्थापित कर दें। हेमचन्द्र के आदेश पर कुमारपाल ने पुस्तक को नहीं खोला किन्तु हेमचन्द्रसूरि की साध्वी बहन हेमश्री ने दुराग्रहवश पुस्तक को खोला और वह तत्काल ही अंधी हो गयी। ऐसा भयंकर प्रसंग देखकर राजा ने भयभीत होकर तत्काल ही वह पुस्तक भंडार में रखवा दी। उसी रात्रि अग्निकाण्ड में वह भंडार जलकर नष्ट हो गया, वह पुस्तक भी (१३६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी के साथ समाप्त हो गयी । धार्मिक दृष्टिकोण से यह घटना महत्त्वपूर्ण हो सकती है, परन्तु इतिहास की दृष्टि से इसका कोई महत्त्व नहीं है । समकालीन प्रमुख रचनाकार : लक्ष्मीतिलक उपाध्याय अभयतिलक उपाध्याय प्रत्येकबुद्धचरित, श्रावकधर्मबृहद्वृत्ति आदि हेमचन्द्राचार्यकृत संस्कृतद्वयाश्रयकाव्य पर टीका, न्यायालंकार टिप्पण आदि धर्मतिलक प्रबोधचन्द्रसूरि विवेकसमुद्र उपाध्याय सर्वराजगणि पूर्णकलश उपाध्याय कवि आसिगु, शाह रयण, शाह भत्तउ आदि भी इन्हीं के समकालीन रचनाकार रहे। गुर्वावली के अनुसार वि०सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १० को इन्होंने जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। इनमें से ४ लेख चिन्तामणि जी का मंदिर, बीकानेर में संरक्षित जिन प्रतिमाओं पर हैं, दो लेख नवखंडा पार्श्वनाथ मंदिर, घोघा (गुजरात) में प्राप्त प्रतिमाओं पर प्राप्त हैं तथा वि०सं० १३१० वैशाख सुदि १३ का एक लेख नेमिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है । यह प्रतिमा पार्श्वनाथ जिनालय, जालौर में है । इनका मूल पाठ निम्नानुसार है : १. सुमतिनाथ-पंचतीर्थी सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १० श्रीजिनपतिसूरिशिष्यैः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः सुमतिनाथ (?) प्रतिमा प्रतिष्ठिता कारिता सा० लोल् श्रावकेण । [ नाहटा - बीकानेर जैन लेख संगह, लेखांक १४२] लघुअजितशांतिवृत्ति सन्देहदोहावली बृहद्वृत्ति पुण्यसारकथानक, नरवर्मचारित्र आदि गणधरसार्धशतक लघुवृत्ति एवं पंचलिंगीलघुवृत्ति हेमचन्द्राचार्यकृत प्राकृतद्व्याश्रयकाव्यवृत्ति २. पंचतीर्थी सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १० श्रीजिनपतिसूरिशिष्यैः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्रीप्रतिष्ठिता श्रावक भुवनपाल भार्यया तिहुणपालही श्राविकया कारिता । [ नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १४४] 2010_04 ३. पंचतीर्थी सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १३ (११०) श्रीजिनपतिसूरिशिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठिता सा० भुवनपाल भार्यया तिहुणपालही श्राविकया कारिता । [ नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १४५] संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१३७) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पंचतीर्थी सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १३ (१०) श्रीजिनपतिसूरिशिष्य श्रीजिनेश्वरसूरिभिः श्री अमरनाथ (अरनाथ) प्रतिष्ठिता साक० लोलू श्रावकेण कारिता ॥ [नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक १४३] ५. संवत् १३०५ आषाढ़ सुदि १० श्री ऋषभराज प्रतिमा श्री जिन .....तिसूरि शिष्यैः श्री जिनेश्वर सूरिभिः प्रतिष्ठिताः। सा०.........श्रावकेण कारिताः । [घोघा, नवखण्डा पार्श्वनाथ मंदिर ] ६. संवत् १३०५ आषाढ़ सुदि १० श्री ऋषभनाथ प्रतिमा श्री जिन.. .. (लौ) लू श्री वकणकारिता ॥ जिनेसरसूरिभिः प्रतिष्ठित । सा०..... [ घोघा, नवखण्डा पार्श्वनाथ मंदिर ] ७. नेमिनाथ ॥ अर्हं ॥ संवत् १३१० वैशाख सुदि १३ श्रीनेमिनाथप्रतिमा श्रीजिनपतिसूरिशिष्यैः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठिता श्री जावालिपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्ये कारिता गोष्ठिक राजासुत हीरामोल्हा- मनोरथ श्रावकैः सत्परिकरश्च हीराभर्या धनदेवही मोल्हाभार्या कामदेवही श्रेयोर्थं कारितः । [जिनहरिसागरसूरि लेखसंग्रह, अप्रका०, पार्श्वनाथ मंदिर, जालौर ] (१३८) 2010_04 .. ति सूरि शिष्य श्री 蛋蛋 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि ७१. चातुर्मास समाप्त होने पर श्री जिनरत्नाचार्य जी श्री जिनेश्वरसूरि जी की आज्ञानुसार श्री जिनप्रबोधसूरि जी की पद-स्थापना खूब ठाठ से करने की इच्छा से जावालीपुर आ गए। श्रावकों की ओर से आमंत्रण पत्रिका पाकर चारों दिशाओं से अनेक नगरोपनगरों के लोग आकर जुट गये। श्री चन्द्रतिलकोपाध्याय, श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय, वाचनाचार्य पद्मगणि आदि मुख्य-मुख्य अनेक साधु लोग भी आये। प्रतिदिन अनाथ दुखियों को दान दिया जाने लगा। खान-पान-मिष्ठान्नादि सुख साधनों से आगन्तुक चतुर्विध संघ का आदर-सत्कार होने लगा। लोगों के मनमयूर को आनन्दित करने के लिए मेघाडम्बर के समान नाना प्रकार के नाच-कूद खेल किये जा रहे थे। उसी समय सं० १३३१ फाल्गुन वदि अष्टमी रवि के दिन गच्छ के नियन्ता, व्यवहार पटु, वयोवृद्ध श्री जिनरत्नाचार्य जी ने श्री जिनप्रबोधसूरि जी की पदस्थापना की। इसके बाद फाल्गुन सुदि पंचमी के दिन स्थिरकीर्ति', भुवनकीति दो मुनियों और केवलप्रभा', हर्षप्रभा, जयप्रभा, यशःप्रभा नामक चार साध्वियों को जिनप्रबोधसूरि जी ने दीक्षा दी। सं० १३३२ ज्येष्ठ वदि प्रतिपदा शुक्रवार के दिन श्री जावालीपुर में सभी देशों से आये हुए श्रीसंघ के मेले में श्रावक-शिरोमणि सेठ श्री क्षेमसिंह ने नमि-विनमि से परिवृत श्री ऋषभदेव, श्री महावीर स्वामी, अवलोकनशिखर, श्री नेमिनाथ, शाम्ब-प्रद्युम्न, श्री जिनेश्वरसूरि जी, धनद यक्ष इन सब की मूर्तियाँ और सुवर्णगिरि स्थित श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के चैत्य पर वैजयन्ती (ध्वजा) की प्रतिष्ठा करवाई। इसी अवसर पर दिल्ली निवासी दलिकहरु श्रावक ने श्री नेमिनाथ स्वामी की, सेठ हरिचन्द्र श्रावक ने शान्तिनाथ भगवान् की एवं और भी अनेक जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। ज्येष्ठ वदि ६ को सुवर्णगिरि में श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के मन्दिर पर ध्वजा का आरोपण किया गया। ज्येष्ठ वदि नवमी के दिन श्री जिनेश्वरसूरि के स्तूप में उनकी मूर्ति स्थापित की गई। उसी दिन विमलप्रभ मुनि को उपाध्याय पद, राजतिलक को वाचनाचार्य का पद प्रदान किया गया। ज्येष्ठ सुदि तृतीया के दिन गच्छकीर्ति, चारित्रकीर्ति, क्षेमकीर्ति नामक मुनियों को और लब्धिमाला, पुष्पमाला नामक साध्वियों को दीक्षित किया गया। ७२. सं० १३३३ माघ वदि १३ को जावालिपुर में कुशलश्री गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया गया। इसी वर्ष सेठ विमलचन्द्र के पुत्र सेठ क्षेमसिंह और सेठ चाहड़ के द्वारा बनाये हुए कार्यक्रम के अनुसार और इन्हीं दोनों श्रावकों द्वारा मार्ग-प्रबन्ध करने पर सेठ क्षेमसिंह, सा० चाहड़, हेमचन्द्र, हरिपाल, दिल्ली निवासी जेणू सेठ के पुत्र पूर्णपाल, सोनी धांधल के पुत्र भीमसिंह, मंत्री देदा के पुत्र मंत्री महणसिंह आदि सब दिशाओं में आकर इकट्ठे हुए विधिसंघ ने, शत्रुजय आदि महातीर्थों की १. ये दोनों भाई-बहन जिनपतिसूरि जी के गृहस्थ चाचा निबोध के वंशज लालण-आंबश्री के पुत्र-पुत्री थे, पुत्र कुमारपाल था। (जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह पृ० ८९) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१३९) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा के लिए महाराज से अत्यन्त अनुरोध किया। संघ की प्रार्थना अङ्गीकार करके जिनरत्नाचार्य, लक्ष्मीतिलकोपाध्याय, विमलप्रज्ञोपाध्याय, वाचक पद्मदेवगणि, वाचक राजतिलकगणि आदि सत्ताईस साधु, प्रवर्तिनी ज्ञानमाला गणिनी, प्र० कुशलश्री, प्र० कल्याणऋद्धि आदि इक्कीस साध्वियों से परिवृत्त हुए गुरु श्री जिनप्रबोधसूरि जी ने चैत्र वदि पंचमी के दिन जावालीपुर से तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान किया। श्रीसंघ स्थान-स्थान पर चमत्कार करने वाली विधिमार्ग की प्रभावना करता हुआ श्रीमाल पहुँचा। वहाँ पर शांतिनाथ भगवान् के विधि-चैत्य में इस आये हुए विधि-संघ की तरफ से चौदह सौ चौहत्तर रुपये मंदिर के भंडार में दिए गए। __इसी प्रकार पालनपुर वगैरह में बड़े विस्तार से चैत्य-परिपाटी आदि कार्यों में प्रभावना करके श्रीसंघ श्री तारण-तारंगा तीर्थ पहुँच गया। वहाँ पर सेठ निंबदेव के पुत्र साह हेमा ने ग्यारह सौ चौहत्तर रुपयों में इन्द्रपद ग्रहण किया। इन्द्र के परिवार ने इक्कीस सौ देकर मंत्री आदि पद प्राप्त किए। इस प्रकार कलश चढ़ाने आदि से सारे मिलाकर कोष में पाँच हजार दो सौ चौहत्तर रुपयों की आय हुई। वहाँ से श्रीसंघ ने बीजापुर पहुँच कर माला आदि ग्रहण करके श्री वासुपूज्य विधिचैत्य के कोष में चार हजार रुपये प्रदान किए। इससे आगे चलकर स्तम्भनक महातीर्थ में गोठी क्षेमधर के पुत्र गोठी यशोधवल ने ग्यारह सौ चौहत्तर रुपये देकर इन्द्र पद, इन्द्र के परिवार ने चौबीस सौ देकर मंत्री आदि के पद प्राप्त किये। श्रीसंघ की ओर से कुल आय सात हजार रुपयों की हुई। इसी प्रकार भृगुकच्छ तीर्थ में श्रीसंघ ने चार हजार सात सौ रुपये भेंट चढ़ाये। श्री शत्रुजयतीर्थ में युगादिदेव भगवान् के मन्दिर में दिल्ली वाले सेठ पूर्णपाल ने बत्तीस सौ में इन्द्रपद, इन्द्र के परिवार ने तीन हजार में मंत्री आदि के पद लेकर और सेठ हरिपाल ने माला पहन कर बयालीस सौ प्रदान किए। कलश आदि की बोली बोल कर संघ समस्त ने कुल पच्चीस हजार रुपये दिये। इस प्रकार दान देकर श्रीसंघ ने द्रव्य का सदुपयोग करके अक्षय कीर्ति उपार्जित की। ___ वहाँ पर युगादिदेव श्री ऋषभदेव भगवान् की मूर्ति के सामने श्री जिनप्रबोधसूरि जी ने ज्येष्ठ वदि सप्तमी को जीवानन्द साधु तथा पुष्पमाला, यशोमाला, धर्ममाला, लक्ष्मीमाला आदि साध्वियों को दीक्षा दी और विधिमार्ग की प्रभावना के लिए मालारोपण आदि महोत्सव बड़े विस्तार से किये। श्री श्रेयांसप्रभु के विधिचैत्य में श्रीसंघ ने सात सौ आठ रुपये दिए। इसके बाद गिरनार (उज्जयन्त) तीर्थ में सेठ मूलिग के पुत्र कुमारपाल ने साढ़े सात सौ में इन्द्र पद लिया। इन्द्र के परिवार वालों ने साढ़े इक्कीस सौ में मंत्री आदि पद प्राप्त किये। सेठ हेमचन्द्र ने अपनी माता राजू के वास्ते दो हजार में नेमिनाथ भगवान् की माला ली। इस प्रकार कुल तेईस हजार रुपये वहाँ के कोष में संगृहीत हुए। इस प्रकार तीर्थों में, गाँवों में, नगरों में, शहरों में, प्रवचन, शासन की शोभावर्द्धक विविध प्रभावनाओं से अपना धन और जन्म सफल करके तीर्थयात्रा की पूर्ति से सफल मनोरथ होकर यह श्रीसंघ जालौर आ पहुँचा। वहाँ सेठ क्षेमसिंह ने आषाढ़ सुदि चतुर्दशी के दिन चतुर्विध संघ सहित श्री जिनप्रबोधसूरि जी आदि चतुर्विध संघ सहित जिनालय जो श्रीसंघ के दर्शन-पूजन निमित्त साथ में था, उसका नगर (१४०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश विधि-मार्ग की प्रभावना के साथ निर्विघ्नता पूर्वक करवाया। यह प्रवेश महोत्सव जब तक सूरज-चाँद रहे, तब तक समस्त संघ को प्रमोद देने वाला हो। ७३. सं० १३३४ मार्गशिर सुदि १३ के दिन रत्नवृष्टि गणिनि को प्रवर्तिनी पद दिया गया। तदनन्तर भीमपल्ली नगरी में वैशाख वदि पंचमी के दिन सेठ राजदेव ने श्री नेमिनाथ स्वामी, श्री पार्श्वनार्थ स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि की मूर्तियों की प्रतिष्ठा तथा श्री शान्तिनाथ देव के मन्दिर में पर दण्ड-ध्वजा का आरोपण किया। इसी प्रकार सब समुदायों को बुलाकर महोत्सव के साथ सेठ वयजल ने श्री गौतमस्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। वैशाख वदि नवमी के दिन मंगलकलश को साधु दीक्षा दी गई। इसके बाद पूज्यश्री जी महाराज ज्येष्ठ सुदि द्वितीया के दिन विहार कर बाड़मेर गये। वहाँ पर सं० १३३५ में मार्गशिर वदि चतुर्थी के दिन पद्मकीर्ति, सुधाकलश, तिलककीर्ति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभ, हेमतिलक और नेमितिलक आदि को बड़े समारोह से दीक्षित किया। ७४. वहाँ से विहार कर पौष सुदि नवमी को चित्तौड़ गए और उसी दिन चित्तौड़ में सोनी श्री धांधल और उसके पुत्र भां० बाहड़ श्रावक ने सारे संघ समुदाय तथा राजा-रईस-नागरिक लोगों के साथ बड़े सजधज से महाराज का नगर-प्रवेश महोत्सव करवाया। फाल्गुन वदी पंचमी को श्री समरसिंह महाराज के राम राज्य में आस-पास के नगरों और ग्रामों से आने वाले लोगों का मेला लग गया। इसके अलावा चित्तौड़ में रहने वाले ब्राह्मण, जटाधारी तपस्वी, राजपुत्र, प्रधान क्षेत्रसिंह, कर्णराज आदि मुख्य-मुख्य नागरिक लोगों की उपस्थिति में महोत्सव हुआ। स्थानीय एकादश मन्दिरों के एकादश छत्रों सहित पालकियों से जुलूस की शोभा बढ़ रही थी। ठौर-ठौर पर बारह प्रकार के नांदी (वाजित्र) निनाद हो रहे थे। याचकों के मनोरथों को पूर्ण करने वाला दान दिया जा रहा था। उस समय चित्तौड़ के चौरासी नामक मोहल्ले में लोगों के चित्त में आश्चर्य पैदा करने वाली जलयात्रा के साथ श्री मुनिसुव्रत स्वामी, युगादिदेव, श्री अजितनाथ स्वामी, वासुपूज्य भगवान् की प्रतिमाओं तथा श्री महावीर समवसरण की स्थापना की गई। इसके साथ ही सेठ धनचन्द के पुत्र समुद्धर द्वारा बनाये गए और पूर्णगिरि में स्थित शान्तिनाथ विधि-चैत्य में पित्तलमय शांतिनाथ स्वामी का समवसरण एवं शाम्ब आदि अन्य मूर्तियों का तथा दण्डधारी द्वारपाल प्रतिमाओं का विधिमार्ग के जय-जयकार के साथ बड़े विस्तार से प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया गया। उसी दिन चौरासी मोहल्ले में श्री ऋषभदेव और नेमिनाथ स्वामी की मूर्ति की स्थापना हुई। फाल्गुन सुदि पंचमी को ही उसी चौरासी मोहल्ले में श्री ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, शाम्ब, प्रद्युम्नमुनि, अम्बिका और चत्वरहट्टी अम्बिका देवी के मन्दिरों में ध्वजा चढ़ाने के निमित्त एक बहुत बड़ा अपूर्व दर्शनीय महोत्सव किया गया। इस महोत्सव में सारे १. यह मूर्ति आज भी भीमपल्ली (भीलड़ियाजी) तीर्थपति भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के सम्मुख भूमिघर में उतरते हुए दाहिनी तरफ एक आले में विराजमान है। उसका लेख इस प्रकार है :संवत् १३३४ वैशाख वदि ५ बुधे श्री गौतमस्वामीमूर्तिः श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यश्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठिता। कारिता च सा० दो (बो)हित्थ पु (सु)त सा० वइजलेन मूलदेवादिभ्रातृसहिते (न) स्वश्रेयोर्थं कुटुंबश्रेयोऽर्थं च। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१४१) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य के भार को वहन करने वाले महाराजकुमार श्री अरिसिंह जी की उपस्थिति से और विशेषता आ गई थी। इन सभी महोत्सवों में धन तो पंचायत की ओर से खर्च किया गया था, परन्तु सोनी सेठ धांधलजी और उनके पुत्र बाहड़ ने अपना द्रव्य खर्च के साथ पूर्ण परिश्रम करके उत्सव को पूर्ण सफल बनाया था। - इसके बाद पूज्यश्री बद्रदहा गाँव में पधारे। वहाँ पर जिसकी प्रतिष्ठा कभी श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने करवाई थी, उसी पार्श्वनाथ विधिचैत्य का महण, झांझण आदि पुत्रों के साथ सेठ आह्लाक ने जीर्णोद्धार करवा कर उस पर चित्तौड़ में प्रतिष्ठित ध्वज-दण्ड का आरोपण फाल्गुन सुदि चतुर्दशी को विस्तार से करवाया। महाराज वहाँ से जाहेड़ा गाँव में गये। वहाँ पर सेठ कुमार आदि अपने कुटम्बियों के साथ सोमल श्रावक ने चैत्र सुदि तेरस के दिन सम्यक्त्वारोपादि नन्दिमहोत्सव बड़े विस्तार से किया। इसके बाद बरडिया स्थान में वैशाख वदि ६ को श्री पुण्डरीक स्वामी, श्री गौतमस्वामी, प्रद्युम्नमुनि, जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि और सरस्वती देवी की मूर्तियों की जलयात्रा महोत्सव के साथ निर्विघ्नता से प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न किया गया। वैशाख वदि सप्तमी को मोहविजय तथा मुनिवल्लभ को दीक्षा दी और हेमप्रभ गणि को वाचनाचार्य पद दिया। ७५. सं० १३३६ जेठ सुदि नवमी को युगप्रधान श्री आर्यरक्षितसूरि के चरित्र को याद करते हुये पूज्यश्री ने अपने पिता सेठ श्रीचन्द का अन्त समय जानकर शीघ्रतया चित्तौड़ से चलकर पालनपुर आकर उन्हें दीक्षित किया। उस समय भाग्य से देवपत्तनीय कोमलगच्छ के बहुत से श्रावक वहाँ आ गये थे। सेठ श्रीचन्द ने धन से दीन और अनाथ लोगों के मनोरथ पूर्ण किये थे। सेठ ने दान योग्य सातों क्षेत्रों में अपने धन को देकर अपने को सफल कर दिया था। संयम धारण के समय बारह प्रकार का नाद-निनाद हो रहा था। सेठ श्रीचन्द जी निरंतर शुद्धशील रूपी अलंकार को धारण किए हुए थे। पुण्यराग (धर्मप्रेम) रूपी अंगराग-केसरादि लेप से उनका शरीर सुवासित था। वे अनेक प्रकार के स्वाध्याय रस रूपी तांबूल से रंजित मुख वाले थे। इन पुण्यात्मा श्रीचन्द ने जिनका दीक्षित दूसरा नाम श्रीकलश रखा गया था, एक प्रकार के पुरोहित सोमदेव का चरित्र प्रगट कर दिया, क्योंकि उन्होंने भी अन्त समय में अपने पुत्र से दीक्षा धारण की थी। इन महात्मा श्रीचन्द जी ने अपने बढ़ते हुए वैराग्य से तीव्र असिधन के समान पापियों को दुष्प्राप्य साधुव्रत को धारण करके सत्रह दिनों में सत्रह प्रकार के असंयम को निर्दलित करने वाले अपूर्व चारित्र के द्वारा लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। उन्होंने अतिचार रहित प्रत्याख्यान किये थे। नई-नई आराधना रूप अमृतपान किया था। खंभात तीर्थ आदि अनेक संघों के वन्दन निमित्त आये भक्तजनों को धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देकर पवित्र किया था। ये साधुओं में रत्न के समान थे। दीक्षा धारण करने के कारण ये अपने कुल रूपी महल के सुवर्ण कलश हो गये थे। इन महामुनि श्रीकलश जी ने पंच परमेष्ठि महामंत्र के ध्यान को स्वर्ग में चढ़ने के लिए सोपान-श्रेणि (निसरणी) बनाकर उस पर आरूढ़ होकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। १. आरक्षितसूरि ने भी अपने पिता पुरोहित सोमदेव को अन्त समय में दीक्षा देकर संयमधारी बनाया था। (१४२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. सं० १३३७ में वैशाख वदि नवमी को गुरु श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज ने अपने चरणविन्यास से समस्त गुजरात प्रान्त के प्रधाननगर बीजापुर को पवित्र किया। इस शुभ अवसर में सेठ मोहन, सेठ आसपाल आदि समुदाय के मुख्य-मुख्य लोग और मंत्री विन्ध्यादित्य, ठाकुर उदयदेव, भां० लक्ष्मीधर आदि राज के मुखिया लोग तथा अन्य नागरिक महाजन लोगों के सम्मिलित होने पर सब मनुष्यों के आनन्ददायी बारह प्रकार के नन्दि बाजों के गुंजार में अनेक नृत्य कलाकार ठौर-ठौर अपनी नृत्यकला का परिचय दे रहे थे। दान के लोभी भाट लोग ऊँचे स्वर में स्तुति गान कर रहे थे। उत्तम उपदेश से आनन्दित मंत्री विन्ध्यादित्य, ठा० उदयदेव आदि राजप्रधान पुरुषों के द्वारा उनकी प्रशंसा हो रही थी, उन्होंने जिनेश्वरों की तरह श्वेत छत्र धारण कर रखा था। सारे नगर में स्थित देवाधिदेवों को वे नमस्कार करते जाते थे। इस प्रकार पूज्यश्री का प्रवेश महोत्सव बड़े ठाठ-बाट से हुआ। उत्कट महामिथ्यात्व के कारण आज से पहले कभी इस प्रकार का प्रवेश महोत्सव इस नगरवासियों ने नहीं देखा था। इसलिए नगरवासी समस्त सुन्दरियों के मन में इसके देखने से क्षोभ हुआ। याचकजनों के मनोरथ नाना प्रकार के दान द्वारा पर्ण किये गये। यह उत्सव अनेकों भव्यजनों के मन को हरने वाला सिद्ध हुआ। इस उत्सव के प्रभाव से स्थानीय तमाम विघ्न टल गए। कई कारणों को लेकर यह महोत्सव लोकोत्तर हुआ। श्रावकों ने मुक्त-हस्त होकर इसमें प्रचुर धन खर्च किया था, इसलिए इसमें अच्छा रंग आ गया था। ७७. तदनन्तर ज्येष्ठ वदि चौथ शुक्रवार का दिन आया। श्री सारंगदेव महाराजाधिराज के रामराज्य में महामात्य मल्लदेव के एक प्रति (अन्य) शरीर तुल्य बुद्धिसागर मंत्री विन्ध्यादित्य का शासनकाल था। सकल पृथ्वी की सारभूत गुजरात भूमि रूपी स्त्री के अलंकार रूप अनेक पुर-ग्राम आदि थे। उन सब में मुकुट के समान बीजापुर नगर था। उस नगर में मुकुट के माणिक्य समान श्री वासुपूज्य विधि-चैत्य था। उस चैत्य के दर्शनार्थ बड़े चाव से अनेक देशों से आने वाले सम्पत्तिशाली श्रीसंघ का मेला लगा। इस मेले में याचक लोगों से बजाये जाने वाले नन्दी बाजे के निनाद से दिग्अंगनाओं के कर्णछिद्र पूरित हो रहे थे। रोमांच और हर्ष पैदा करने वाली विरुदावली को हजारों आदमी पढ़ रहे थे। ठौर-ठौर पद प्रमुदित मनुष्य रासलीला कर रहे थे। बाजार के अनेक रास्तों पर सैकड़ों गायन मण्डलियाँ विविध प्रकार के गायन कर रही थीं। महामिथ्यात्व और महामोह आदि रूपी प्रबल शत्रुओं को पछाड़ने वाले तथा जिनशासन के स्तंभ-स्वरूप महाराज के आगे-आगे तीन छत्र व चामर-पालकी आदि चल रहे थे। उत्सव में जुलूस के आगे-आगे विद्यमान महामंत्री विन्ध्यादित्य, ठाकुर उदयदेव आदि राज्य के कर्ता स्वयं जुलूस का संचालन कर रहे थे। आनन्दपरवश पुरवासी सभी सम्प्रदायों के लोगों ने बाजारस्थ घरों की भींतों को एवं दुकान व देवमन्दिरों के विस्तार को अनेक प्रकार के आच्छादनों से आच्छादित कर दिये थे, अथवा अनेक लोगों की भीड़ से उपरोक्त सभी स्थान आच्छादित हो गये थे। इस प्रकार सारे भूमण्डल पर आश्चर्य पैदा करने वाला, भव्य लोगों के मन को हरने वाला सांगोपांग जलानयन महोत्सव (जलयात्रा का वर घोड़ा) अभूतपूर्व हुआ। दूसरे दिन भी उसी प्रकार महोत्सव होने लगे। जगह-जगह सदावर्त दिये जा रहे थे। सब जगह अहिंसा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१४३) 2010_04 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की घोषणा कर दी गई थी। ऐसे शुभ अवसर पर वहाँ के जिनालय निमित्त चौबीस जिन प्रतिमाओं व ध्वज-दण्डों का, जोयला ग्राम के वास्ते श्रीपार्श्वनाथ की और भी बहुत सी जिन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव विधिमार्ग के जय-जय घोष के साथ किया गया था। इस उत्सव के समय कृष्ण नाम के पंडित ने श्रीपंजिकाप्रबोध, श्रीवृत्तप्रबोध, श्रीबौद्धाधिकारविवरण आदि पूज्यश्री रचित ग्रन्थों को देखकर प्रमुदित चित्त होकर तुरग-पद समस्या, अनुलोम-प्रतिलोम आदि अनेक प्रकार से कहे हुए श्लोकों को सम्पूर्ण रूप से कहना आदि अनेक अवधान करके दिखलाये। उसने अनेक पण्डित तथा मंत्री विन्ध्यादित्य आदि उच्च श्रेणी के पुरुषों से भरी हुई सभा में अनेक छन्दों में बनाये हुए पवित्र श्लोकों से पूज्यश्री की स्तुति की। उस उत्सव में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं हुआ। इसका एकमात्र कारण पूज्यश्री का वह वज्र समान जप-तप ध्यान है जिसके द्वारा कलिकालोत्पन्न प्रत्यूह-समूह-शैल निर्दलित हो गया है। ये सभी महोत्सव सेठ मोहन और आसपाल आदि सकल संघ ने अपने लाखों रुपये खर्च करके असार संसार को सफल बनाने के लिए किए थे। इस महोत्सव के समय श्रीवासुपूज्य विधिचैत्य में संघ की ओर से तीस हजार रुपये की आय हुई। वहीं पर द्वादशी के दिन आनन्दमूर्ति तथा पुण्यमूर्ति नामक दो मुनियों को दीक्षा दी गई। इसके निमित्त भी विशेष महोत्सव हुआ। ___७८. सं० १३३९ फाल्गुन सुदि ५ के दिन, मंत्री पूर्णसिंह, भंडारी राजा, गो० जिसहड़ और देवसिंह, मोहा आदि की प्रधानता में आए हुए जावालीपुर के समस्त संघ के अतिरिक्त, प्रह्लादनपुरीय, बीजापुरीय, श्री श्रीमालपुरीय, रामशयनीय, श्रीशम्यानयनीय, बाड़मेरीय, श्री रत्नपुरीय आदि अनेक ग्रामनगरों से आई हुई संघों की पाँच सौ गाड़ियाँ इकट्ठी हुईं थीं। इन सब विधिमार्गानुगामी संघों के साथ श्री जिनरत्नाचार्य, देवाचार्य, वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गणि आदि नाना मुनियों को साथ लेकर तामसअज्ञान पटलों को हटाने वाले, समस्त जनता के वदनरूपी कुमुद (कमल) वन को विकसित करने वाले, सम्पूर्ण मनुष्यों के नेत्र चकोरों को वाङ्मय-अमृतवाणी से आनन्दित करने वाले, प्रतिग्राम तथा प्रतिनगर में विधिमार्ग के जय-जयकार के साथ अपने ऐश्वर्य को सफल करने वाले, पवित्रता की मूर्ति युगप्रधानाचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज ने फाल्गुन चातुर्मास में अतीव रमणीयता धारण करने वाले, सर्वविश्व के सारभूत, पर्वतोत्तम आबू पर्वत में जाकर वहाँ पर विराजमान श्री ऋषभनाथ और नेमिनाथ तीर्थंकरों की वन्दना की। यहाँ पर आनन्दमग्न श्रावक लोग अपने घरों की चिन्ता भूल गये। धन खर्च करके पुण्यानुबन्धी पुण्य का संचय करने वाले श्रावक लोग त्रिलोकी में अपने को धन्य मान रहे थे। इस उत्सव में आठ दिनों का समय लगा। इन दिनों में इन्द्रादि पद लेकर श्रावक लोगों ने सात हजार रुपये तीर्थ में समर्पण किये। तदनन्तर पूज्यश्री के प्रताप से अपने जन्म और वैभव को सफल करने वाले तथा बड़े-बड़े मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीसंघ ने आनन्दपूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव के साथ जावालिपुर में प्रवेश किया। १. वर्तमान में ये तीनों ही ग्रन्थ दुष्प्राप्य हैं। (१४४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. उसी वर्ष ज्येष्ठ वदि चौथ के दिन जगच्चन्द्र मुनि और कुमुदलक्ष्मी, भुवनलक्ष्मी को दीक्षा दी गई और पंचमी के दिन चंदनसुन्दरी गणिनी को महत्तरा पद दिया गया । उसका चन्दनश्री यह नामान्तर रखा गया। इसके बाद सम्मुख आये हुए श्रीसोम महाराज की विनती स्वीकार करके पूज्यश्री ने शम्यानयन में चातुर्मास किया । तदनन्तर अतुल बलशाली राजाओं के मुकुटों में लगे हुए रत्नों की किरण रूप पाणी प्रवाह से निज चरण-कमलों को धवलित करने वाले, भव्य लोगों को सम्यक्त्व सम्पादित करने वाले पूज्यश्री जैसलमेर पधारे। जैसलमेर नरेश कर्णदेव महाराज सम्पूर्ण सेना के साथ मुनीन्द्र के स्वागत के लिए सम्मुख पधारे। मुनीन्द्र श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज का जैसलमेर में सं० १३४० फाल्गुन चौमासी के दिन बड़े समारोह के साथ नगर प्रवेश महोत्सव हुआ । वहीं पर वैशाख सुदि अक्षय तृतीया के दिन उच्चापुर, विक्रमपुर, जावालिपुर आदि स्थानों से आये हुए संघ के मेले में सर्व संघ समुदाय सहित सेठ नेमिकुमार और गणदेव ने विपुल धन व्यय करके चौबीस जिन मन्दिर निमित्त जिन-प्रतिमा तथा अष्टापदादि तीर्थों की प्रतिमाओं का और उन्हीं के धवल दण्डों का प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े ही ठाठ से किया। इस अवसर पर धर्म कोष में छः हजार रुपयों की आय हुई। जेठ सुदि चतुर्थी के दिन मेरुकलश मुनि, धर्मकलश मुनि, लब्धिकलश मुनि तथा पुण्यसुन्दरी, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी, हर्षसुन्दरी इन साध्वियों का दीक्षा महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ । श्री कर्णदेव महाराज का विशेष आग्रह होने से वहाँ पर (जैसलमेर में ही) चातुर्मास करके नाना प्रकार के धर्मोपदेशों से नागरिक लोगों के मन में चमत्कार पैदा करके पूज्य श्री विक्रमपुर से आये हुए संघ की अत्यन्त भक्तिपूर्व प्रार्थना से विक्रमपुर पधारे। वहाँ पर बड़े ठाठ से प्रवेश कर युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज द्वारा संस्थापित मरुधर भूमि में कल्पवृक्षतुल्य श्री महावीर स्वामी के श्रेष्ठतीर्थ की विधिपूर्वक वंदना की । वहाँ पर उच्चापुर, मरुकोट आदि नाना स्थानों से आने वाले लोगों के मेले में श्री महावीर विधि - चैत्य में बड़े विस्तार के साथ सम्यक्त्वधारण, माला ग्रहण, दीक्षादान आदि नन्दि महोत्सव किया गया । यह कार्य सं० १३४१ फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिवस हुआ था। उस उत्सव के अवसर पर विनयसुन्दर, सोमसुन्दर, लब्धिसुन्दर, चन्द्रमूर्ति, मेघसुन्दर को साधु दीक्षा और धर्मप्रभा, देवप्रभा को साध्वी के रूप में दीक्षित किया । यह साधु-साध्वी छोटी उम्र के थे, इसलिए इनको क्षुल्लक क्षुल्लिका लिखा गया है। वहाँ पर श्री महावीर तीर्थ का प्रभाव बढ़ाने वाले, ज्ञान-ध्यान के बल से सब मनुष्यों के मन में आश्चर्य उत्पन्न करने वाले, स्वपक्षी - परपक्षी, जैन- जैनेतर सब लोग जिनके चरण-कमलों की आराधना कर रहे हैं, जिनके आचार - चारित्र बड़े पवित्र हैं, ऐसे पूज्यश्री के शरीर में भयंकर दाह ज्वर उत्पन्न हुआ। ज्वर की भयानकता देखकर ध्यान-बल से अपने आयुष्य का अत्यल्प परिमाण जानकर, निरन्तर विहार करके पूज्यश्री जावालिपुर आ गये। वहाँ पर सब लोगों के लिए आश्चर्यकारी श्री वर्द्धमान स्वामी के महातीर्थ में बारह प्रकार के नन्दि बाजों के बजते हुए, श्रेष्ठ धवल - मंगल गीतों के गाये जाते हुए, पुर-सुन्दरियों के नाचते हुए, दीन- अनाथ दुःखी लोगों को महादान दिये जाते हुए, अनेक ग्राम व अनेकों नगरों के श्रीसंघों की विद्यमानता में पूर्वजों के समान निर्मल चरित्र वाले श्री जिनप्रबोधसूरि संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१४५) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी ने सं० १३४१ श्री युगादिदेव भगवान् के पारणे से पवित्र की हुई वैशाख सुदि अक्षय तृतीया को बड़े आरोह- समारोह पूर्वक अपने पाट पर श्री जिनचन्द्रसूरि को स्थापित किया, जो अपने शरीर की शोभा से कामदेव को मात करने वाले थे, सब भव्य पुरुषों के मन- कमल को विकसित करने में सूर्य का सादृश्य रखने वाले थे, नाना गुण रत्नों की खान एवं अत्यधिक गंभीरता के गुण से समुद्र को भी परास्त करने वाले थे। उसी दिन राजशेखर गणि को वाचनाचार्य का पद दिया । इसके बाद वैशाख सुदि अष्टमी के दिवस पूज्यश्री ने सारे संघ को एकत्र करके खूब विस्तार से मिथ्या दुष्कृत दिया । दिनों-दिन बढ़ते हुए शुभभावों से जिन्होंने संसार के पदार्थों की अनित्यता जानकर चौतरफ बैठे हुए साधुओं द्वारा निरन्तर गेयमान समाराधनाओं को सुनते हुए, देव गुरुओं के चरण-कमलों की भली-भाँति आराधना करके, अपने मुख कमल से पंच परमेष्ठी नमस्कार महामंत्र का उच्चारण करते हुए, अपनी कीर्ति से पृथ्वी को धवल करके, उत्तम ज्ञान रूप लक्ष्मी के कण्ठ के हार तुल्य आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज वैशाख सुदि एकादशी के दिन सदा के लिए इस असार संसार को छोड़कर अमर पद को पहुँच गये। विशेष श्री जिनप्रबोधसूरि चतुःसप्ततिका :- यह रचना भी ७४ प्राकृत गाथाओं में है। इसके रचयिता विवेकसमुद्र गणि हैं । इन्होंने विक्रम सं० १३०४ में दीक्षा ग्रहण की । १३२३ में वाचनाचार्य बने । १३४२ में उपाध्याय बने । इस कृति का सारांश निम्न है ओसवाल साहू खींवड गोत्री श्रीचन्द्र और उनकी पत्नी सिरिया देवी के कुल में चन्द्रमा के सदृश आप थे । आपका जन्म गुजरात के थारापद्र नगर में सं० १२८५ में मिती श्रावण सुदि ४ के दिन पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ। आपका जन्मनाम मोहन रखा गया। सं० १२९७ मिती फाल्गुन वदि ५ के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने आपको पालनपुर में दीक्षित कर आपका नाम प्रबोधमूर्ति रखा जो कि स्वसमय परसमय ज्ञाता होने से सार्थक हो गया। सं० १३३१ के आश्विन कृष्ण ५ के दिन स्वयं श्री जिनेश्वरसूरि ने उन्हें अपने पट्ट पर विराजमान किया। उनके स्वर्गवास के पश्चात् श्री जिनरत्नसूरि जी ने दशों दिशाओं से आये हुए चतुर्विध संघ के समक्ष सं० १३३१ मिती फाल्गुन कृष्ण ८ के दिन जावालिपुर में नाना उत्सव महोत्सवपूर्वक श्री जिनप्रबोधसूरि का पट्टाभिषेक किया। आपने वृत्ति - पंजिका सहित दुर्ग-पद- प्रबोध नामक ग्रंथत्रय की रचना की । आप बड़े भारी विद्वान, प्रभावक और गच्छभार धुरा धुरंधर हुए । -: क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत पट्टावली के अनुसार प्रबोधमूर्ति की दीक्षा थारापद्र में हुई थी । आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व इन्होंने कातंत्रदुर्गप्रबोध टीका की रचना की थी। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली के अनुसार वि०सं० १३३७ और १३३८ के मध्य इन्होंने वृत्तप्रबोध, पंजिकाप्रबोध और बौद्धाधिकारविवरण की रचना की थी। ये कृतियाँ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। (१४६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० १३३३ का १, वि०सं० १३३४ के २ एवं वि०सं० १३३७ के ६ अभिलेख मिले हैं। इनकी वाचना निम्नानुसार है : १. शिलापट्ट-प्रशस्तिः सम्वत् १३३३ वर्षे ज्येष्ठ वदि १४ भौमे श्रीजिनप्रबोधसूरिसुगुरूपदेशात् उच्चापुरीवास्तव्येन श्रे० आसपाल सुत श्रे० हरिपालेन आत्मनः स्वमातृ हरिलायाश्च श्रेयोऽर्थं श्रीउज्जयन्तमहातीर्थे श्रीनेमिनाथदेवस्य नित्यपूजार्थं द्र० २००० शतद्वयं प्रदत्तं । अमीषां व्याजेन पुष्पसहस्र २००० द्वयेन प्रतिदिनं पूजा कर्त्तव्या श्रीदेवकीयआरामवाटिकासत्कपुष्पानि श्री देवक.......... पञ्चकुलेन श्रीदेवाय ऊटापनीयानि ॥ १. जिनविजय, प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-२, लेखांक ५४, नेमिनाथ मंदिर, गिरनार २. गौतमस्वामी-प्रतिमा सं० १३३४ वैशाखवदि ५ बुधे गौतमस्वामीमूर्तिः श्रीजिनेश्वरसूरि-शिष्य-श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठिता कारिता च सा० बोहिथ पुत्र सा० वइजलेन मूलदेवादि भ्रातृसहितेन स्वश्रेयोर्थं कुटुम्बश्रेयो) च। २. जैन तीर्थ सर्व संग्रह भाग-१, पृष्ठ ३६; यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग-१, पृष्ठ २२५ तथा दौलतसिंह लोढ़ा लेखांक ३३९ : पार्श्वनाथ मन्दिर भूमिगृह, भीलडिया ३. जिनदत्तसूरि-मूर्तिः संवत् १३३४ वैशाखवदि ५ श्रीजिनदत्तसूरिमूर्तिः श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्य श्रीजिनप्रबोधसूरि...... ३. जिनविजय, प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-२, लेखांक ५२४, जैन मंदिर टांग्ड़ियावाड़ा, पाटण ४. अजितनाथः सं० १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीअजितनाथबिम्बं श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्य श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं श्री मुनीचन्द्रसूरि वंशीय...... सा नाहडा तत्पुत्र शा भालु........ आत्मश्रेयोर्थं । शुभमस्तु । ४. शत्रंजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ८६, देरी नं० ९७/१ समवसरण परिकर, शत्रुजय ५. सुविधिनाथः सम्वत् १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीसुविधिनाथबिम्बं देवगृहिका च श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च सा० मोहणप्रमुखपुत्रैर्निजमातुः पदमल श्राविकायाः श्रेयोर्थं ॥ ५. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक १२२, खरतरवसही समवसरण/२ परिकर, शत्रुजय ६. श्रेयांसनाथः सम्वत् १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीश्रेयांसबिम्बं देवकुलिका च श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं ॥ सा० तिहुणसिंह सुत भीमसीह.......... आत्मश्रेयोऽर्थं ॥ ६. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११६, देरी नं० ९२ /५ खरतरवसही परिकर, शत्रुजय संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१४७) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. शान्तिनाथः सम्वत् १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीशान्तिनाथबिम्बं श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च उकेशवंशीय सा० शोलापुत्र सा० रत्नसिंह श्रावकेण आत्मश्रेयो निमित्तं ॥ ७. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक १२३, देरी नं० ९२/५ खरतरवसही परिकर, शत्रुजय ८. मुनिसुव्रतः सम्वत् १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिम्बं श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यैः श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च श्रेष्ठि रोहड सुतेन वासुजातिइकेन........ गोधिकेन स्वश्रेयोर्थं ॥ ८. शश्रृंजयगिरिराज दर्शन, लेखांक १२०, खरतरवसही समवसरण/१०६, खरतरवसही परिकर, शत्रुजय ९. शान्तिनाथः सम्वत् १३३७ ज्येष्ठ वदि ५ श्रीशान्तिनाथदेवबिम्बं श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठितं गोर्जरजातीय ठ० श्री भीमसिंह बृहत्भ्रातृ श्रेयोर्थं ठकर श्री उदयदेवेन प्रतिपन्नसारेण सुविचारेण कारितं ॥ ९. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक १२१, खरतरवसही समवसरण १ परिकर, शधुंजय समकालीन रचनाकारविवेकसमुद्रोपाध्याय पुण्यसारकथानक, नरवर्मचरित्र सोममूर्ति जिनेश्वरसूरिविवाहलो, निर्वाण लीलावती का संशोधन जगडू सम्यक्त्वमाइ चौपाई खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड (१४८) ___ 2010_04 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालकेवली श्री जिनचन्द्रसूरि ८०. इसके बाद श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सं० १३४२ वैशाख सुदि दसमी के दिन जावालीपुर के महावीर स्वामी के विधि-चैत्य में बड़े उत्सव के साथ प्रीतिचन्द्र तथा सुखकीर्ति नामक दो क्षुल्लक और जयमंजरी, रत्नमंजरी तथा शीलमंजरी नाम की तीन क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी। उसी दिन वाचनाचार्यों में श्रेष्ठ श्री विवेकसमुद्र गणि जी को अभिषेक (उपाध्याय) पद तथा सर्वराज गणि को वाचनाचार्य पद और बुद्धिसमृद्धि गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया। सप्तमी के दिन सम्यक्त्व-धारण, मालारोपण, सामायिक-ग्रहण, साधु-साध्वियों की बड़ी दीक्षा निमित्त नन्दी महोत्सव किया गया। वैसे ही ज्येष्ठ कृष्ण नवमी को धनिकों में श्रेष्ठ सेठ क्षेमसिंह के बनाए हुए सत्ताइस अंगुल प्रमाण वाले स्फटिकादि रत्नमय श्री अजितनाथ स्वामी के बिम्ब का और इन्हीं सेठ के बनाये हुए श्री युगादि-देव, श्री नेमिनाथ आदि (पाषाणमय) बिम्बों का, महामंत्री देदाजी के निर्माण कराये हुए युगादिदेव-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ स्वामी के बिम्बों का, भंडारी छाहड़ कारित श्री शान्तिनाथ स्वामी के विशालकाय बिम्ब का और वैद्य देहड़ि के बनाये गये सुवर्णमय अष्टापद चैत्य के ध्वजदण्ड का, वैसे ही और भी बहुतसी प्रतिमाओं का सकल लोक-मनश्चमत्कारकारी, सकल पापहारी प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े ही ठाठ से श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने श्री सामन्तसिंह महाराज के विजयराज्य में किया। इसी प्रतिष्ठा महोत्सव के अनुकूल समय में विशेष खुशी हुए श्री सामन्तसिंह की सन्निधि में स्वपक्ष-परपक्ष सभी को आह्लादकारी, सकल विधि-मार्ग में नवीन जीवन संचार कर देने वाला श्री इन्द्र महोत्सव, विधिमार्ग का प्रभाव बढ़ाने वाले, आनन्द में सराबोर, सद्भाव को बढ़ाने वाले सेठ क्षेमसिंह आदि समस्त श्रावकों ने प्रचुर द्रव्य व्यय करके संपादित किया। ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी के दिन वा० देवमूर्ति गणि को अभिषेक (उपाध्याय) पद देकर मालारोपण आदि नन्दि महोत्सव किया। सं० १३४४ मार्गसिर सुदि दशमी को जालौर में श्री महावीर विधि-चैत्य में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सेठ कुमारपाल के पुत्र पं० स्थिरकीर्ति गणि को खूब ठाठ से आचार्य पद दिया और उनका नया नाम श्री दिवाकराचार्य रखा गया। सं० १३४५ आषाढ़ सुदि तृतीया के दिन मतिचन्द्र, धर्मकीर्ति आदि भव्यजनों को दीक्षा दी गई। तथैव वैशाख वदि १ को पुण्यतिलक, भुवनतिलक तथा चारित्रलक्ष्मी को प्रव्रज्या ग्रहण करवाई और १. श्री जिनकुशलसूरि कृत श्री जिनचन्द्रसूरि चतुः सप्ततिका के अनुसार आप समियाणा के मंत्री देवराज की धर्मपत्नी कोमल देवी के पुत्र थे और मंत्री जैसल (जिल्हागर) के भ्राता थे। इनका जन्म नाम खंभराय था और श्री जिनकुशलसूरि जी के पितृव्य होते थे। इनका जन्म सं० १३२४ मार्गशीर्ष सुदि ४ को हुआ, सं० १३३२ ज्येष्ठ सुदि ३ को दीक्षित हो क्षेमकीर्ति नाम से प्रसिद्ध हुए। जैसलमेर नरेश गणदेव, जैत्रसिंह और समियाणा के समरसिंह, शीतलदेव आपके परम भक्त थे। आपने सम्राट कुतुबुद्दीन को अपने सद्गुणों से चमत्कृत किया। पट्टावलियों में इनका कलिकाल केवली विरुद लिखा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१४९) __ 2010_04 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजदर्शन गणि को वाचनाचार्य पद से विभूषित किया। सं० १३४६ में माह वदि प्रतिपदा के दिन सेठ क्षेमसिंह भां० (? भ्रा०) बाहड़ द्वारा बनाये गये स्वर्णगिरि पर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी मन्दिर के पास में स्थित (देवकुलिका में) श्री युगादिदेव और नेमिनाथ बिम्बों का एवं कुछ गहराई वाले बनाये गये मण्डपों में सम्मेतशिखर पर सिद्ध हुए बीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का स्थापना महोत्सव किया गया। फाल्गुन सुदि अष्टमी के दिन श्री शम्यानयन नगर (गढ़ सिवाणा) में सेठ बाहड़, भां० भीम, भां० जगसिंह और भां० खेतसिंह नामक श्रावकों के बनाए हुए भवन में चाहमान (चौहाण) वंशीय श्री सोमेश्वर महाराज द्वारा खूब ठाठ से प्रवेशोत्सव कराए हुए शान्तिनाथ देव का स्थापना महोत्सव बड़े विस्तार से करवाया तथा देववल्लभ, चारित्रतिलक, कुशलकीर्ति एवं रत्नश्री को संयमधारण कराया गया। दीक्षा के साथ-साथ मालारोपणादि महोत्सव भी हुआ। तत्पश्चात् चैत्र सुदि १ को जहाँ बाजार में सर्वत्र ध्वजा पताकाएँ फहरा रही हैं ऐसे पालनपुर में सं० माधव आदि मुख्य नागरिक लोगों के सम्मुख आने पर गाजे-बाजे के साथ सेठ अभयचन्द्र आदि की प्रमुखता में समस्त समुदाय ने महाराज का प्रवेशोत्सव करवाया। पालनपुर की तरह भीमपल्ली में भी वैशाख वदि चतुर्दशी को प्रवेश महोत्सव हुआ। वैशाख सुदि सप्तमी को सेठ अभयचंद्र की बनवाई हुई अद्भुत अत्यन्त सुहावनी शिला (पाषाण) मय श्री युगादि-देव की प्रतिमा, चौबीस जिनालयों (देवकुलिकाओं) में चौबीस जिन प्रतिमाएँ, इन्द्रध्वज, श्री अनन्तनाथ दण्डध्वज, श्री जिनप्रबोधसूरि के स्तूप (जालौर) में स्थापन करने निमित्त मूर्ति-दण्डध्वज एवं शिलामय व पित्तलमय अनेक प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा के निमित्त विस्तार से महोत्सव किया गया। ज्येष्ठ वदि सप्तमी को नरचन्द्र, राजचन्द्र, मुनिचन्द्र, पुण्यचन्द्र साधुओं और मुक्तिलक्ष्मी तथा मुक्तिश्री साध्वियों का दीक्षा महोत्सव महाप्रभावना के साथ हुआ। सं० १३४७ मार्गसिर सुदि ६ को पालनपुर में सुमतिकीर्ति को दीक्षा और नरचन्द्रादि साधुसाध्वियों की बड़ी दीक्षा तथा मालारोपणादि महोत्सव किया गया। इसके पश्चात् मार्गसिर सुदि १४ को खदिरालुका नगरी में सूरीश्वर के शुभागमन के उपलक्ष में स्थान-स्थान पर तोरणादि सजाये गये थे। मं० चंडाजी के पुत्र मं० सहणपाल ने नगर के सभी महाजन-ब्राह्मण आदि लोगों के समुदाय को साथ लेकर प्रवेश महोत्सव करवाया। मंत्री सहणपाल ने सारे संघ को एकत्र करके पूज्यश्री को श्री तारणगढ़ (तारंगाजी) तीर्थ के अलंकारभूत अजितनाथ स्वामी की तीर्थ यात्रा करवाई। वहाँ पर पौष वदि ५ को श्री बीजापुर के सेठ लखमसिंह तथा आसपाल आदि संघ समुदाय के साथ खदिरालुका की तरह प्रवेश महोत्सव करवाया। तत्पश्चात् सूरि महाराज जालौर पधारे, वहाँ पर सेठ अभयचन्द्र ने १. ये ही मुनिवर श्री कुशलकीर्ति जी समग्र जैन समाज के महान उपकारी, भक्तजनों की मनः कामनाओं को पूर्ण करने में कल्पवृक्ष व चिन्तामणि रत्न समान छोटे दादा श्री जिनकुशलसूरि महाराज हैं। गुर्वावली के इस कथनानुसार प्रतिष्ठा महोत्सव के दिन ही यदि दीक्षा महोत्सव भी हुआ तो गुरुदेव की दीक्षा दिन सं० १३४६ फाल्गुन सुदि ८ सिद्ध होता है। श्री तरुणप्रभाचार्य ने श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी में भी इसी दिन दीक्षा होना लिखा है। २. वर्तमान समय 'खेरालु' गाँव जो तारंगाजी के पास में है। (१५०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ सुदि एकादशी के दिन जिनप्रबोधसूरि जी के स्तूप में मूर्ति स्थापना करके ध्वज-दण्डारोपण महोत्सव करवाया। इसके बाद विहार कर बीजापुर पधारे, वहाँ चैत्र वदि ६ को अमररत्न, पद्मरत्न, विजयरत्न और मुक्तिचन्द्रिका को दीक्षा दी गई। इस अवसर पर मालारोपण, परिग्रह-परिमाणादि नन्दि महोत्सव भी किया गया। इस उत्सव में खंभात, आशापल्ली, बागड़, वटपद्र आदि स्थानों के अनेक श्रावक संघ सम्मिलित हुए थे। __सं० १३४८ वैशाख सुदि तृतीया के दिन पालनपुर में वीरशेखर साधु और अमृतश्री साध्वी को संयम धारण करवाया गया। त्रिदशकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद दिया गया। उसी वर्ष सुधाकलश, मुनिवल्लभ आदि साधुओं सहित पूज्यश्री ने गणियोग तप किया। सं० १३४९ भाद्रपद वदि अष्टमी के दिन सहधर्मियों की भक्ति के लिए सत्राकार (दानशाला) समान उदार मन वाले संघपति सुश्रावक अभयचन्द्र सेठ का अन्त समय जानकर उसको संस्तारक दीक्षा दी गई और उनका नाम अभयशेखर रखा गया। वहाँ पर मार्गसिर वदि की द्वितीया को यश:कीति. को दीक्षा दी गई। सं० १३५० वैशाख सुदि नवमी के दिन करहटेक, आबू आदि स्थानों की तीर्थ-यात्रा से अपना जन्म सफल करने वाले बरड़िया नगर के मुख्य श्रावक नोलखा वंश-विभूषण भां० सुश्रावक झांझण को स्वपक्ष-परपक्ष सभी को आश्चर्य देने वाली संस्तारक दीक्षा दी गई तथा नरतिलक राजर्षि नाम दिया गया। सं० १३५१ माघ वदि १ को पालनपुर के ऋषभदेव स्वामी के विधि-चैत्य में मंत्री तिहण सत्क युगादिदेव मूर्ति और श्रे० बीजा सत्क श्री नेमिनाथ प्रभु एवं सेठ जगसिंह द्वारा बनवाई महावीर मूर्ति आदि ६४० सुन्दर प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव समुदाय सहित मंत्री तिहुण और श्रे० बीजा श्रावक ने विस्तार से करवाया। माघ वदि पंचमी के दिन अनेक साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओं से परिवृत, पूज्यश्री ने बड़े विस्तृत नंदि महोत्सव से अनेकों को मालारोपण करवाया तथा विश्वकीर्ति साधु एवं हेमलक्ष्मी साध्वी को दीक्षा दी। ८१. सं० १३५२ में गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज की आज्ञा से वाचनाचार्य राजशेखर गणि, सुबुद्धिराज गणि, हेमतिलक गणि, पुण्यकीर्ति गणि और रत्नसुन्दर मुनि सहित विहार करके श्री बृहद्-ग्राम (बड़ गाँव) गये। वहाँ से बड़ गाँव के ठक्कुर रत्नपाल व सेठ चाहड़ नाम के मुख्य श्रावकों द्वारा भेजे हुए स्वकीय भ्राता ठ० हेमराज तथा भाणेज बांचू श्रावक अपने-अपने परिवार सहित एवं सेठ बोहिथ के पुत्र सेठ मूलदेव श्रावक ने बनारस, कौशम्बी, काकन्दी, राजगृह, पावापुरी, नालन्दा, क्षत्रियकुण्ड ग्राम, अयोध्या, रत्नपुर आदि नगरों की तीर्थ यात्रा की। ये नगर जिनेश्वरों के जन्म आदि कल्याणकों से पवित्र हुए हैं। परिवार सहित राजशेखर गणि ने हस्तिनापुर की यात्रा पहले की हुई थी। अत: इस श्रावक समुदाय के साथ हस्तिनापुर सिवाय अन्य तीर्थों की यात्रा की। इस प्रकार यात्रा करके वाचनाचार्य राजशेखर गणि ने राजगृह के पास उद्दण्ड विहार नाम के गाँव में चातुर्मास किया और मालारोपणादि नन्दि महोत्सव किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१५१) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर इसी वर्ष में नाना प्रकार के अद्भुत पुण्यों की वल्ली समान श्री भीमपल्ली से सेठ धनपाल के सुपुत्र सेठ भड़सिंह तथा सेठ सामल श्रावक के निकाले हुए संघ के साथ पालनपुर, भीमपल्ली, श्रीपत्तन, सत्यपुर आदि स्थानों से आने वाले स्वपक्षीय-परपक्षीय मेले के साथ अपनी वाक्पटुता से बृहस्पति का पराजय करने वाले उपाध्याय श्री विवेकसमुद्र गणि आदि उत्तम साधु मण्डली सहित जगत्पूज्य आचार्यप्रवर पूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करके शंखेश्वरपुर के अलंकार चूडामणि, वांछित वस्तु के पूरण करने में चिन्तामणि रत्न के तुल्य, संसार के दुःख रूप दावाग्नि को शांत करने में शीतल जल के समान श्री पार्श्वनाथ भगवान् की वन्दना की। वहाँ पर श्री संघ ने स्नात्र-पूजा, उद्यापन, ध्वजारोपादि महोत्सव किया। इसके बाद सारे संघ को साथ लेकर पूज्यश्री श्रीपत्तन आये। वहाँ पर श्री शान्तिनाथ भगवान् के विधि-चैत्य में विस्तार के साथ ध्वजारोपणादि महोत्सव किया और बाजे-गाजे के साथ स्त्रियों के उत्तम नृत्य करते हुए, सारे नगर के सभी मन्दिरों में बड़े विस्तार से चैत्य-परिपाटी करके पूज्यश्री भीमपल्ली आ गये। इसके बाद बीजापुर के श्रीसंघ की प्रार्थना से उन्होंने बीजापुर में चातुर्मास किया। वहाँ पर सं० १३५३ मार्गसिर वदि पंचमी के दिन श्रीवासुपूज्य भगवान् के विधिचैत्य में मुनिसिंह, तपसिंह तथा जयसिंह को दीक्षा और साथ ही मालोरापणादि नन्दि महोत्सव भी हुआ। ___इसके बाद संघ की प्रार्थना से महाराज जावालिपुर गए। वहाँ पर सेठ सलखण श्रावक के पुत्ररत्न सेठ सीहा श्रावक तथा मांडव्यपुर से आये हुए सेठ झांझण के पुत्र सा० मोहण द्वारा आबू तीर्थ की यात्रार्थ एक विशाल संघ तैयार किया गया। उस संघ के साथ जावालिपुर, शम्यानयन, जैसलमेर, नागपुर, रूणपुर, श्रीमालपुर, सत्यपुर, पालनपुर और भीमपल्ली आदि स्थानों से आने वाले अनेक धनी-मानी श्रावकवृन्द के साथ श्रीमाल जाति के भूषण दिल्ली निवासी सेठ वाल्हा श्रावक के पुत्र साह लोहदेव आदि प्रमुख श्रावकों का समुदाय सम्मिलित था। रास्ते में सर्वत्र अनिवारित भोजनालय खुले रहते थे एवं विशाल संघ समुदाय के जमघट से चैत्य परिपाटी आदि अनेक महोत्सव मनाये जाते थे। इस प्रकार के संघ के साथ जावालिपुर से वैशाख कृष्ण पंचमी के दिन विहार करके, प्रचुर मुनि मण्डली से सेव्यमान, चतुर्विध श्रीसंघ से संस्तूयमान, जगत्पूज्य पूज्यश्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज आबू तीर्थ के अलंकारभूत समस्त दौर्गत्य (दुर्भाग्य) को निवारण करने वाले जिनेश्वर श्री ऋषभदेव और नेमिनाथ जी की वन्दना की। अनेक शुभ कार्यों से कलिकाल रूपी चोर को भगा देने वाले, याचकों को मुँह माँगा दान देकर कल्पवृक्ष को पराजित करने वाले तथा शुभ परिणामों की धारा में अनेक जन्म-जन्मान्तरों के पाप-पुञ्ज को धो देने वाले समस्त विधिमार्ग संघ ने श्री इन्द्रपदादि ग्रहण, स्नात्रोत्सव और ध्वजारोपादि महोत्सवों से तीर्थ-फण्ड में बारह हजार रुपयों का दान दिया। इसके बाद परम आनन्द से रोमांचित होता हुआ अपने पुण्य रूपी राजा से सम्मानित, निर्मल अन्त:करण वाला श्री विधिमार्ग संघ वहाँ से चलकर वापिस जावालिपुर आ गया और बड़े ठाठ-बाट से नगर प्रवेश हुआ। ___ सं० १३५४ ज्येष्ठ वदि दशमी को जावालिपुर में महावीर विधि-चैत्य में शाह सलखण जी के पुत्र सेठ सीहाजी की लगन एवं भगीरथ प्रयत्न से दीक्षा और मालारोपण सम्बन्धी महोत्सव हुआ। (१५२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा लेने वाले साधु-साध्वियों के नाम वीरचन्द्र, उदयचन्द्र, अमृतचन्द्र और जयसुन्दरी थे। इसी वर्ष आषाढ़ सुदि द्वितीया को सिरियाणक गाँव में श्री महावीर स्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर सं० १३५५ में महावीर प्रतिमा की स्थापना महामहोत्सव से करवाई। इस स्थापनोत्सव में सारा धन व्यय सेठ भांडा श्रावक के पुत्र जोधा श्रावक ने किया था। सं० १३५६ में महाराजाधिराज श्री जैतसिंह की प्रार्थना से मार्गसिर वदि चतुर्थी को पूज्यश्री जैसलमेर पधारे। वहाँ पर पूज्यश्री का स्वागत करने के लिये स्वयं राजा साहब चार कोश सम्मुख आये थे। सेठ नेमिकुमार आदि समस्त समुदाय ने प्रचुर धन-व्यय करके बहुमानपूर्वक नगर में प्रवेश करवाया था। प्रवेश के समय तरह-तरह के बाजे बज रहे थे। बन्दीजनों ने सुन्दर-सुन्दर कविताएँ बनाकर पढ़ी थीं। उस खुशी में जगह-जगह नेत्र और मन को आनन्द देने वाले सुन्दर दृश्य सजाये गए थे। श्रावक और श्राविकाएँ रास, गीत और मंगल गायन करने में निमग्न थे। यह प्रवेश महोत्सव स्वपक्षीय तथा परपक्षीय सभी लोगों के मन में चमत्कार पैदा करने वाला हुआ था जिससे विधि मार्ग की खूब उत्तम प्रभावना हुई थी। पूज्यश्री सं० १३५६ में चातुर्मास भी वहीं रहे। सं० १३५७ मार्गसिर सुदि नवमी के दिन, श्री महाराज जैत्रसिंह जी के भेजे हुए गाजे-बाजों की ध्वनि के साथ मालारोपणादि महोत्सव तथा सेठ लखम और भांडारी गज के जयहंस तथा पद्महंस नाम के दो पुत्रों को दीक्षा महोत्सव सहर्ष किया। सं० १३५८ माघ शुक्ल दशमी को श्री पार्श्वनाथ विधि-चैत्य में बाजे-गाजे के साथ बड़े विस्तार से सम्मेतशिखरादि प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव पूज्यश्री के द्वारा सेठ केशव जी के पुत्र तोला श्रावक ने कराया। वहाँ पर फाल्गुन सुदि पंचमी के दिन सम्यक्त्वधारण तथा मालारोपण सम्बन्धी महोत्सव भी हुआ। सं० १३५९ में फाल्गुन सुदि एकादशी को सेठ मोकलसिंह, सा० वीजड़ आदि समुदाय की प्रार्थना से बाड़मेर जाकर पूज्यश्री ने श्री युगादिदेव तीर्थंकर को नमस्कार किया। वहाँ पर सं० १३६० में माघ वदि दशमी को सा० बीजड़, सा० स्थिरदेव आदि श्रावकों ने प्रचुर मात्रा में धन खर्च कर श्री जिनशासन की प्रभावना के लिये मालाधारणादि नन्दि महोत्सव बड़े ठाठ-बाट से करवाया। इसके अनन्तर श्री शीतलदेव महाराज की विनती और मं० नाणचन्द्र, मं० कुमारपाल तथा सेठ पूर्णचन्द्र आदि की प्रार्थना स्वीकार करके पूज्यश्री ने श्री शम्यानयन जाकर श्री शान्तिनाथ देव तीर्थ की वन्दना की। सं० १३६१ में द्वितीय वैशाख वदि ६ को मं० नाणचन्द्र, मं० कुमारपाल, भंडारी पद्म, सेठ पूर्णचन्द्र, साह रूपचन्द्र आदि स्थानीय पंचों ने जावालिपुर, सपादलक्ष (अजमेर के निकटवर्ती) आदि के अनेक ग्राम-नगर आदि स्थानों से आये हुये सहस्रों मनुष्यों के मेले में श्री पार्श्वनाथ आदि अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी प्रकार दशमी को अपने पराये सभी को आनन्द देने वाला मालारोपणादि नन्दि महोत्सव श्री देवगुरुओं की कृपा से विस्तारपूर्वक करवाया गया। इस अवसर पर पं० लक्ष्मीनिवास गणि एवं पं० हेमभूषण गणि को वाचनाचार्य का पद दिया गया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१५३) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. इसके पश्चात् जावालिपुर के संघ की प्रार्थना से जावालिपुर में जाकर पूज्य श्री ने वहाँ पर महावीर भगवान् को नमस्कार किया। सं० १३६४ की वैशाख वदि त्रयोदशी के दिन, मंत्री भुवनसिंह, सा० सुभट, मं० नयनसिंह, मं० दुस्साज, मं० भोजराज तथा सेठ सीहा आदि समस्त श्रीसंघ द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार के उत्सवों के साथ पूज्यश्री ने श्रीराजगृह आदि अनेक तीर्थों की यात्रावन्दन आदि से पुष्कल पुण्य संचय करने वाले वाचनाचार्य राजशेखर गणि को आचार्य पद प्रदान करके सम्मानित किया। इस उपलक्ष में समुदाय ने स्वपक्ष-परपक्ष सभी को आनन्द देने वाला मालारोपादि नन्दि महोत्सव भी किया। इसके बाद मार्ग में चोर-डाकू आदि के उपद्रव होने पर भी भणशाली दुर्लभ जी की सहायता से पूज्यश्री भीमपल्ली आये। पाटण के (खड़ा) कोटड़िका मोहल्ले में श्री शान्तिनाथ विधिचैत्य और श्रावक पौषधशाला आदि धार्मिक स्थानों के बनवाने वाले सेठ जैसल प्रभृति समुदाय की अभ्यर्थना से पूज्य महाराजश्री ने पाटण में आकर श्री शान्तिनाथ देव की वन्दना की। इसके बाद खंभात तीर्थ के कोटड़िका नामक पाड़े में, श्री अजितनाथ देव के विधि-चैत्यालय, श्रावक पौषधशाला आदि धर्म-प्रधान स्थानों के बनवाने में कुशल सेठ जैसल के साथ मंत्रणा करते हुए पूज्यश्री शेरीषक नामक गाँव में आकर श्री पार्श्वनाथ देव की वन्दना करके स्वपक्ष-परपक्ष को चमत्कार उत्पन्न करने वाले श्री जैसल श्रावक द्वारा कराये गये प्रवेश महोत्सव के साथ खंभात तीर्थ में प्रवेश करके, श्री अजितनाथ देव की वन्दना की। यह प्रवेश महोत्सव वैसा ही हुआ जैसा जिनेश्वरसूरि जी महाराज के पधारने पर मंत्री श्री वस्तुपाल जी ने करवाया था। सं० १३६६ ज्येष्ठ वदि द्वादशी को अनेक प्रकार के उज्ज्वल कर्त्तव्यों से, जिसने अपने पूर्वजों के कुल का उद्धार कर दिया है और साधर्मिक लोगों के प्रति वात्सल्य भाव वाले सेठ जैसल ने श्रीपत्तन, भीमपल्ली, बाडमेर, शम्यानयन आदि नगरों से आये हुए संघ को साथ लेकर अपने ज्येष्ठ भ्राता तोला श्रावक को संघ का धुर्यपद देकर तथा छोटे भाई लाखू को मार्ग-प्रबन्धक का पद देकर इस विषम पंचमकाल में देश में म्लेच्छों का भयंकर उपद्रव होते हुए भी देवालय-प्रचलन-महोत्सव मनाकर खंभात से आगे तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। उस संघ के साथ जयवल्लभ गणि, हेमतिलक गणि आदि ग्यारह साधु तथा प्रवर्तिनी रत्नवृष्टि गणिनी आदि पाँच साध्वियों से शुषूश्रित पूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी रवाना हुए। मार्ग में जगह-जगह चैत्यों में चैत्य परिपाटी आदि महोत्सव किये गये। अनेक प्रकार के बाजे बजाये गये। श्रावक लोगों ने मार्ग में जहाँ-तहाँ श्री देव-गुरुओं के गुण गाए। भाट लोगों ने अपनी नई-नई कविताएँ खूब पढ़ीं। चलते-चलते क्रम से सारा संघ श्री पीपलाउली ग्राम में पहुँचा। वहाँ पर श्री शत्रुजय महातीर्थ के दिखाई देने से श्रीसंघ ने बड़ा उत्सव मनाया। वहाँ से चलकर हर्ष की अधिकता के कारण विकसित रोम राजि से पवित्र तथा चतुर्विध संघ से परिवृत पूज्यश्री ने अपार संसार समुद्र में डूबते हुए लोगों के लिए प्रवहण समान श्री शत्रुजय महातीर्थ के अलंकार देवाधिदेव श्री ऋषभदेव जी को नमस्कार करने रूप यात्रा की। वहाँ पर सेठ सलखण के पुत्ररत्न सेठ मोकलसिंह आदि श्रावकों ने बड़े विस्तार से इन्द्रपदादि महोत्सव किए और ज्येष्ठ सुदि द्वादशी के दिन मालारोपण आदि नन्दि महोत्सव भी विस्तार से किया। (१५४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद सौराष्ट्र (सोरठ-काठियावाड़) देश के भूषण, गिरनार पर्वत में स्थित महातीर्थ रूप श्री नेमिनाथ प्रभु को नमस्कार करने के लिए चतुर्विध संघ सहित पूज्यश्री ने वहाँ से विहार किया। यद्यपि उस समय काठियावाड़ देश नजदीक से निकलती हुई मुसलमानों की सेनाओं से उपद्रवित था और जगह-जगह मारकाट मची हुई थी, परन्तु जगत् के नाथ श्री नेमिनाथ जी की कृपा से, श्री अम्बिका देवी के सान्निध्य से और पूज्यश्री के ज्ञान व ध्यानबल से सारा संघ निर्विघ्नता के साथ सुखपूर्वक उज्जयन्त तीर्थ की तलहटी में पहुँच गया। वहाँ जाकर शुभ अवसर में सकल संघ को साथ लेकर पूज्य श्री ने उज्जयन्त पर्वतराज के अलंकार, भाद्रपद मास में मेघ घटा के समान सौभाग्य से सुन्दर श्री नेमिनाथ भगवान् के चरण-कमल रूपी महातीर्थ की वन्दना की। यह पर्वत श्री नेमिनाथ जी महाराज के तीन कल्याणकों से पवित्र किया हुआ है। वहाँ पर सेठ कुलचन्द्र के कुल में प्रदीप के तुल्य सा० बींजड़ आदि सब श्रावकों ने मिलकर इन्द्रपद आदि महोत्सव किये। इस प्रकार श्री नेमिनाथ भगवान् की वन्दना करके ठौर-ठौर पर धर्म की अनेक प्रकार से प्रभावना करके श्रीसंघ सहित पूज्यश्री लौटकर पीछे खंभात आ गए। वहाँ पर पहले की तरह जैसल श्रावक ने संघ के साथ वाले देवालय का और पूज्यश्री का बड़े विस्तार से प्रवेश महोत्सव किया। महाराजश्री ने खंभात में ही चातुर्मास किया और मंत्रिदलीय ठ० भरहपाल की सहायता से पूज्यश्री ने स्तम्भपुर के अलंकारस्वरूप श्री पार्श्वनाथ की वन्दना की। ८४. चातुर्मास पश्चात् विहार कर बीजापुर आकर श्री वासुपूज्य देव को नमस्कार किया। वहाँ कुछ दिन रह कर सं० १३६७ में माघ वदि नवमी को श्री महावीर प्रभु आदि जिनेश्वरों की शैलमय अनेक प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा के साथ मालारोपणादि नन्दि महोत्सव किया। इसके बाद भीमपल्ली वाले श्रावकों की प्रार्थना से वहाँ जाकर तथा पालनपुर आदि से आने वाले समुदायों के मेले में अनेक प्रकार के दानों से श्री जिनशासन की प्रभावना बढ़ाते हुए पूज्यश्री ने तीन क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी। उनके नाम परमकीर्ति, वरकीर्ति, रामकीर्ति तथा पद्मश्री और व्रतश्री थे। उसी दिन श्रीसंघ ने मालारोपणादि नन्दि महोत्सव भी किया और पं० सोमसुन्दर गणि को वाचनाचार्य का पद दिया गया। उसी वर्ष सेठ क्षेमंधर, सा० पद्मा, सा० साढल के कुल में मुकुट समान अपनी भुजाओं से पैदा की हुई लक्ष्मी को भोगने वाले, प्रशंसनीय पुण्यशाली, स्थिरता-गंभीरता आदि गुणों को धारण करने वाले, तीर्थ-यात्रा से पवित्र गात्र वाले स्वर्गीय सेठ धनपाल के पुत्र, सब मनुष्यों को आनन्द देने वाले, भीमपल्लीपुरी निवासी, राजमान्य, श्रेष्ठ धर्मकार्य में कुशल, सेठ सामल ने पालनपुर, पाटण, जावालीपुर, शम्यानयन, जैसलमेर, राणुमकोट, नागपुर, श्रीरूणा, बीजापुर, सत्यपुर, श्रीमालपुर और रत्नपुर आदि स्थानों में कुंकुम पत्री भेजकर तीर्थ-यात्रा के लिए बड़े आदर-सम्मान के साथ श्रीसंघ को बुलाकर एकत्र किया। तीर्थयात्रा के लिए आये हुए विशाल संघ सहित सेठ सामल की गाढ़ अभ्यर्थना से पूज्यश्री भी चलने को तत्पर हुए। यद्यपि देश में सब जगह म्लेच्छ यवनों द्वारा भारी उपद्रव मचा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१५५) _ 2010_04 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था, तो भी शुभ-मुहूर्त देखकर सधवा श्राविकाओं से मंगल गान गाए जाते हुए, हस्त तालियों के आवाज होते हुए, तरह-तरह के सुन्दर बाजे बजते हुए, बड़े उत्साह के साथ अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की जन्म तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन, महामहिमशाली चतुर्विध संघ सहित, जगत्पूज्य पूज्यश्री ने देवालय के साथ भीमपल्ली से प्रस्थान किया। रास्ते में जगह-जगह शुभ शकुनों से प्रोत्साहित होते हुए, तीर्थ श्रीशंखेश्वर में पहुँच कर महाप्रभावशाली श्रीजिनेश्वर भगवान् को महाविशाल संघ के साथ विधि-विधान से आपने नमस्कार किया। वहाँ पर आठ दिन ठहर कर संघ ने बड़ा भारी महोत्सव किया। इसके बाद पाटला गाँव में नेमिनाथ प्रभु के प्राचीन तीर्थ को नमस्कार करके श्री राजशेखराचार्य, जयवल्लभ गणि आदि सोलह साधु और प्रवर्तिनी बृद्धिसमृद्धि गणिनी आदि पन्द्रह साध्वियों सहित सारे संघ का भार उठाने में अग्रगण्य सेठ श्री सामल, भणशाली नरसिंह के पुत्र आसाजी तथा संघ की रक्षा के लिए जिम्मेदार, साधु सामल के कुटुम्बी दुर्लभादि, भणशाली पूर्ण जी के पुत्र रतनचन्द तथा संघ में पाश्चात्य पद को निभाने वाले, उत्तम, औदार्यशाली, भणशाली लूणा आदि सहित समस्त संघ को साथ लिए हुए पूज्यश्री प्रतिग्राम, प्रति नगर, नृत्य-गान, उपदेश आदि से जिनशासन का प्रभाव बढ़ाते हुए नि:शंकतया सुखपूर्वक क्रमशः तीर्थ के अलंकारस्वरूप एवं त्रिलोकी में सारभूत, समस्त तीर्थ-परम्परा से परिवृत, सुर-असुर-नरेन्द्रों से सेवित, श्री ऋषभदेव भगवान् की वन्दना की और उज्जयन्त तीर्थ में पहुँच कर तीर्थ के मण्डन भूत, सकल पाप का खण्डन करने वाले, सुन्दरता के खजाने, यदुवंश भूषण, कल्याण-त्रय आदि नाना तीर्थों से विराजमान श्री नेमिनाथ स्वामी की नये-नये स्तुति-स्तोत्रों की रचना करके, सब महाजनों में प्रधान, गुणनिधान सेठ देवीसिंह के पुत्र और सेठ थालण के पुत्र सेठ कुलचन्द्र तथा देदा नाम के दो श्रावकों ने अपने प्रचुर धन को सफल करने के लिए इन्द्र पद ग्रहण किया। इसी प्रकार गोठी यशोधर के पुत्र गोठी स्थिरपाल ने उज्जयन्त तीर्थ में खूब द्रव्य खर्च करके अम्बिका देवी की माला ग्रहण की। इसके अतिरिक्त सेठ श्रीचन्द्र के पुत्र सा० जाल्हण, सा० चाहड़ के पुत्र सा० झांझण, सा० उद्धरण, नोलखा गोत्रीय नेमिचन्द्र, सेठ पूना, सेठ तिहुण, भां० पद्मचन्द्र का पुत्र भऊणा, सा० महणसिंह और सेठ भीमाजी के पुत्र लूणसिंह आदि अन्य उत्तम श्रावक महानुभावों ने भी तीर्थ पूजा, संघ पूजा, स्वधार्मिक वात्सल्य के कारण किये गए अनिवारि भोजनालय आदि पुण्य कार्यों में अगणित धन व्यय करके पुण्यानुबंधी पुण्य की उपार्जना की। इस प्रकार इस भयानक कलिकाल में भी, लोकोत्तर धर्म के निधान, स्पृहणीय पुण्यप्रधान, श्री विधि-संघ ने सब जनों के चित्त को हरने वाली तथा चमत्कार करने वाली तीर्थ-यात्रा निर्विघ्नता पूर्वक की। बड़ी प्रभावना के साथ समस्त तीर्थों की वन्दना करके सेठ सामलजी आदि संघ एवं मुनि मंडली सहित आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज आषाढ़ चातुर्मासी लगने की दिन श्री वायड़ ग्राम में आकर श्री महावीर स्वामी के जीवनकाल में बनाई हुई उनकी अलौकिक प्रतिमा का महाविस्तार (बड़े ठाठ) से वंदन किया। इसके बाद श्रावण मास के पहले पखवाड़े में प्रतिपदा के दिन धर्मभावनाशालिनी श्राविकाओं के नृत्य होते हुए, अन्य नागरिक स्त्रियों के मंगल गीत हुए, ठौर-ठौर में देखने योग्य तमाशों के होते हुए, (१५६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दी-लोगों के स्तुति-पाठ सुनते हुए, श्रावक लोगों द्वारा अनेक प्रकार के महादानों को दिए जाते हुए, संघ हित करने वाले लोकोत्तर प्रभाव वाले श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का भीमपल्ली नगरी में प्रवेश महोत्सव श्रीसंघ ने विस्तारपूर्वक एवं प्रभावना के साथ करवाया। __संघ में आने वाले देव-गुरु की आज्ञा का पालन में सदा तत्पर, सहधर्मी बन्धुओं के प्रेमी भणशाली श्री लूणा श्रावक ने यात्रा में श्रीसंघ के पृष्ठ-पोषक पद को निभाने व शासन की महाप्रभावना द्वारा समुपार्जित अपने समस्त पुण्यराशि को, दान-शील-तप और भावना रूप धर्म साधन में उद्यत, अपनी मातुश्री भण० धनी सुश्राविका को अर्पित किया और उसने परम श्रद्धा से उसका अनुमोदन किया। ___ वहाँ पर भीमपल्ली नगरी में ....... को स्थानीय पंचायत द्वारा निर्मित महोत्सव से प्रतापकीर्ति आदि दो क्षुल्लकों को बड़ी दीक्षा तथा तरुणकीर्ति, तेजकीर्ति, व्रतधर्मी तथा दृढ़धर्मी इन क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं की दीक्षा का महोत्सव करवाया। उसी दिन ठाकुर हांसिल के पुत्ररत्न ठाकुर देहड़ के छोटे भाई ठाकुर स्थिरदेव की पुत्री रत्नमंजरी गणिनी को (जिसे पूर्व में पूज्यश्री ने अपने हाथ से ही दीक्षा दी थी) पूज्यश्री ने महत्तरा पद प्रदान कर जयर्द्धि महत्तरा नाम रखा तथा प्रियदर्शना गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया। इसके बाद श्रीसंघ की प्रार्थना से पूज्यश्री नगरों में श्रेष्ठ नगर पाटण पधारे। वहाँ पर सं० १३६९ मार्गसिर वदि षष्ठी के दिन स्वपक्ष एवं परपक्ष में आश्चर्य पैदा करने श्रीसंघ द्वारा किये गए महामहोत्सव के साथ "जयति जिनशासनम्" के जय घोष के साथ उत्साहपूर्वक जगत् के पूजने योग्य पूज्यश्री ने चन्दनमूर्ति, भवनमूर्ति, सारमूर्ति और हरिमूर्ति नामके चार छोटे साधु बनाये। केवलप्रभा गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया और मालारोपणादि महानन्दि महोत्सव भी किया। सं० १३७० माघ शुक्ला एकादशी के दिन सारे संसार के लिए कल्पद्रुम के अवतार पूज्यश्री ने स्वपक्ष-परपक्ष को आनन्दित करने वाले, सकलसंघ की ओर से दीक्षा-मालारोपणादि नन्दि महोत्सव करवाया। इस महोत्सव में (ज्ञान) निधान मुनि और यशोनिधि, महानिधि नाम की दो साध्वियों को दीक्षा दी। इसके बाद भीमपल्ली के संघ समुदाय की अभ्यर्थना से पूज्यश्री भीमपल्ली आये। वहाँ पर सं० १३७१ फाल्गुन सुदि एकादशी के दिन पूज्यश्री ने भीमपल्ली के साधुराज श्यामल आदि संघ के द्वारा अमारि घोषणा, अनिवारित अन्न क्षेत्र, संघ पूजा, सहधार्मिक वात्सल्य आदि नाना प्रकार के उत्सव के साथ सब मनुष्यों के मन को हरने वाले व्रत-ग्रहण, मालारोपण आदि नन्दि महोत्सव करवाये। उस महोत्सव में त्रिभुवनकीर्ति मुनि को तथा प्रियधर्मा, यशोलक्ष्मी, धर्मलक्ष्मी नामक साध्वियों को दीक्षा दी। ८५. बाद में श्रीसंघ की गाढ़ अभ्यर्थना से पूज्यश्री वहाँ से जावालिपुर को विहार कर गये। वहाँ पर सं० १३७१ ज्येष्ठ वदि दशमी के दिन मंत्री भोजराज तथा देवसिंह आदि संघ के प्रमुख लोगों द्वारा आयोजित तथा अपने-पराये सभी को आनन्द देने वाला मालारोपणादि नन्दि महोत्सव बड़ी शान से हुआ। उस अवसर पर देवेन्द्रदत्त मुनि, पुण्यदत्त मुनि, ज्ञानदत्त, चारुदत्त मुनि और पुण्यलक्ष्मी, ज्ञानलक्ष्मी, कमललक्ष्मी तथा मतिलक्ष्मी साध्वियों को दीक्षा दी। इसके बाद जालौर को म्लेच्छों ने संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१५७) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंग कर दिया । इसलिए महाराज ने श्री शम्यानयन, श्रीरूणापुर, श्रीबब्बेरक आदि नाना स्थानों में रहने वाले लोगों को सन्तोष देकर रूणा से विहार किया, सो श्रीमालवंश भूषण, जिनशासन प्रभावक सकल स्वधार्मिक वत्सल सेठ मानल के पुत्र सा० माल्हा सा० धांधू आदि भाइयों के साथ तथा मरुदेशीय समस्त सपादलक्ष परगने के नगर गाँवों में रहने वाले सकल श्रावकों के तीन सौ गाडों के झुण्ड के साथ फलवर्द्धिका (फलौदी) जाकर सम्पूर्ण अतिशयों के निधान, म्लेच्छों से व्याकुल सम्पूर्ण सपादलक्ष रूप खारे समुद्र में अमृत भरे कुण्ड के तुल्य श्री पार्श्वनाथ भगवान् का प्रथम यात्रा महोत्सव किया। इस यात्रा महोत्सव में विधि-संघ के श्रावकों ने श्री इन्द्र पद आदि अनेक पदों को ग्रहण करके, अनिवारित उत्तम भोजन दान, श्री स्वधार्मिक वात्सल्य, श्रीसंघ पूजा आदि अनेक प्रकार से जिनशासन की प्रभावना बढ़ाते हुए अपने अपरिमित धन को सफल किया। इसके बाद नागपुर के श्रावकों की प्रार्थना स्वीकार करके पूज्यश्री नागौर गए। वहाँ से सेठ लोहदेव, सा० लखण, सा० हरिपाल आदि उच्चापुरीय विधि-संघ की अत्यन्त प्रबल प्रार्थना से, ज्ञान, ध्यान तथा बलशाली श्री मेघकुमार देव से मार्ग में सुरक्षित, अनेक साधुओं से परिवृत श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने गर्मी का मौसम होते हुए भी अनेक म्लेच्छों से संकुल महामिथ्यात्व से परिपूर्ण, सिन्ध प्रान्त की निर्जल - नीरस भूमि में धर्मकल्पद्रुमका पौधा लगाने के लिये विहार किया। उस देश के अलंकारभूत उच्चापुरी के समीपवर्ती देवराजपुर में उच्चापुरीय विधि - संघ के श्रावकों द्वारा प्रवेश महोत्सव कराये जाने पर पूज्य श्री महामिथ्यात्व के राज्य को उखाड़ने के लिए कुछ दिन वहीं ठहरे। वहाँ पर तमाम सिन्ध देश के श्रावकों की अत्यन्त गाढ़ प्रार्थना से सं० १३७३ में मार्गसिर वदि चतुर्थी के दिन पूज्यश्री ने समस्त अज्ञानी लोगों को सम्यक्त्व देने के हेतु आचार्य - पद-स्थापना, व्रत-ग्रहण तथा मालारोपणादि महामहोत्सव प्रारम्भ किए। पश्चात् महोत्सव के दिन आरम्भ-सिद्धि रात्रि में अपने ज्ञान-ध्यान के अतिशय से युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि की याद दिलाने वाले पूज्यश्री ने परस्पर में राजाओं के अत्यधिक युद्धों के कारण उजड़ते हुए देशों में, चोरडाकुओं के अनेक उपद्रवों से परिपूर्ण होते हुए मार्ग में भी अपने ज्ञान - बल से कुशलता का निश्चय करके चातुर्मास के बीच में ही अपने शिष्यरत्र राजचन्द्र मुनि जो कि पाटण में प्रसिद्ध विद्वान् महोपाध्याय विवेकसमुद्र जी के पास रहकर व्याकरण- तर्क साहित्य - अलंकार - ज्योतिष - स्वकीय- परकीय सिद्धान्तों को भली-भाँति जान चुके थे। ये आचार्य में होने वाले गुणों से विभूषित थे । उनको लिवाने के लिए सेठ वीसल और महणसिंह को देवराजपुर से गुजरात की भूमि के मुकुट समान मुख्य नगर पा भेजा । उपाध्याय जी ने आचार्यश्री की आज्ञा के अनुसार पुण्यकीर्ति गणि को साथ देकर पं० राजचन्द्र मुनि को भेज दिया। पूज्यश्री के ध्यान-बल से आकर्षित होकर शासनदेवता के प्रभाव से मार्ग में होने वाले चोर-डाकुओं के उपद्रवों की परवाह न करते हुए पं० राजचन्द्र मुनि जी कार्तिक चातुर्मास समाप्ति के दिन देवराजपुर पहुँचे और अपने दीक्षागुरु पूज्य श्री के चरणकमलरूपी महातीर्थ की वन्दना की। उनके आने के बाद उच्चापुर, मरुकोट, श्रीक्यासपुर आदि सिन्ध के अनेक नगरों और ग्रामों से आने वाले अगणित श्रावकों के विशाल मेले में आचार्य पद-स्थापना, व्रत- ग्रहण, मालारोपणादि (१५८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दि महामहोत्सव किया। इस उत्सव के समय जगह-जगह खेल-तमाशे दिखलाये जा रहे थे। नागरिक-नारियाँ नाच-गान कर रही थीं, हस्त तालियों के साथ गरबे गाये जा रहे थे, बन्दिजन अच्छी-अच्छी कवितायें पढ़कर सुना रहे थे। याचकों को उदार दिल से धन बाँटा जा रहा था। नगर के धनी-मानी सेठ उदयपाल, श्रे० गोपाल, सा० वयरसिंह, ठाकुर कुमरसिंह आदि मुख्य श्रावक लोग खूब उदार भावना से स्वर्ण, अन्न, वस्त्रों का दान दे रहे थे। जगह-जगह भोजनालय खोले गये, जिनमें किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं थी। इसके अतिरिक्त स्वधर्मिक लोगों के प्रति प्रेमभाव दर्शक अनेक साहमी वच्छल भी किये गये। ऐसे महामहोत्सव में जिसने वाक् चातुरी में वृहस्पति को भी जीत लिया है, जो समस्त विद्यारूपी समुद्र को पी जाने में अगस्त्य ऋषि के समान है, उस शिष्यरत्न पं० राजचन्द्र मुनि को आचार्य पद देकर पूज्यश्री ने “राजचन्द्र" इस नाम को बदल कर "राजेन्द्रचन्द्राचार्य" नाम रखा। इसके साथ ही ललितप्रभ, नरेन्द्रप्रभ, धर्मप्रभ, पुण्यप्रभ तथा अमरप्रभ नाम के साधुओं को दीक्षा दी गई एवं अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने माला ग्रहण की। सम्यक्त्वारोपण, सामायिकारोपण भी किया। इस महोत्सव में साहुकारों में प्रधान सेठ श्री यशोधवल के कुल के प्रदीपसमान शाह नेमिकुमार के पुत्ररत्न, जिनशासन प्रभावक, सकल स्वधार्मिक वत्सल सेठ श्री वयरसिंह सुश्रावक ने स्वधर्मिक वात्सल्य, सर्वसुलभ भोजन, अमारि घोषणा तथा श्रीसंघ पूजा आदि कार्यों में लगाकर अपना धन सफल किया। ८६० इसके बाद सं० १३७४ में फाल्गुन वदि षष्ठी के दिन उच्चापुरी आदि अनेक नगरों में रहने वालों एवं सकल सिंध देशवासी विधि-संघ की प्रार्थना से पूज्यश्री ने व्रतग्रहण, मालारोपण और उपस्थापना निमित्त नन्दि महोत्सव करवाया। सब को आश्चर्य देने वाले इस महोत्सव में दर्शनहित तथा भुवनहित और त्रिभुवनहित नामक मुनियों को प्रव्रज्या धारण करवाई। सैकड़ों श्राविकाओं ने माला ग्रहण की। इस प्रकार देवराजपुर में लगातार दो चौमासे करके पूज्यश्री ने महामिथ्यात्व अंधकार का उन्मूलन किया। सेठ पूर्णचन्द्र और उनके पुत्र उदारचरित्र, जिनशासन प्रभावक, सार्थवाह श्री हरिपाल की साहाय्य से मरुस्थल के बालू का समुद्र अर्थात् रेतीले मैदान को पार करके नागौर को आये। नागौर के श्रावकों ने बड़े धूम-धाम से नगर प्रवेश करवाया। __ वहाँ पर कन्यानयन-निवासी श्रीमालकुलभूषण जिनशासनोन्नतिकारक साह श्री काला सुश्रावक ने कन्यानयन आदि समग्र बागड़ देश और सपादलक्ष प्रान्तवर्ती गाँवों तथा नगरों के रहने वाले श्रावकों को इकट्ठा किया। उनके सम्मिलित संघ के साथ पूज्यश्री ने फलौदी जाकर दूसरी बार श्री पार्श्वनाथ देव की यात्रा की। वहाँ जाकर धनाढ्य श्रावकों ने अन्नसत्र, धार्मिक वात्सल्य तथा श्रीसंघ की पूजा आदि शुभ कार्यों से जिनशासन की बड़ी प्रभावना की। ___ तदनन्तर सं० १३७५ में माघ शुक्ल द्वादशी के दिन नागौर में मंत्रीदलीय कुलावतंश ठाकुर विजयसिंह, ठ० सेढू, सा० रूदा और दिल्ली वाले संघ के प्रमुख मंत्रिदलीय ठ० अचलसिंह आदि प्रमुख श्रावकों के महाप्रयत्न से समग्र डालामऊ समुदाय, कन्यानयन, आशिका, श्रीनरभट, बागड़ देशीय समस्त समुदाय संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१५९) 2010_04 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मं० कुमरा एवं मं० मूधराज प्रमुख कोशवाणा समुदाय, सोलख (नागौर), प्रान्तवर्ती अनेक ग्रामनगरों के समुदाय, जावालिपुर, शम्यानयन आदि मारुवत्रा (मरुधरीय) गाँवों से प्रान्तों से आगत अनेक संघ समुदायों का मेला हुआ। उस समय जगह-जगह अन्न क्षेत्र खोले गये। नाना प्रकार के खेल-तमाशे दिखलाए गए। स्त्रियों के नृत्य हुए। हस्त तालियों के साथ गरबे गाये गए। साधार्मिक भाइयों की सेवाशुश्रूषा की गई। धनवान श्रावक लोगों ने सोने-चाँदी के कड़े, अन्न-वस्त्र बाँटे। नागौर के श्रावकों की प्रार्थना से श्री वर्द्धमान स्वामी की शासन-वृद्धि के लिए तत्पर पूज्यश्री ने असंख्य जनों के मन को हरने वाला, मिथ्यादृष्टि लोगों को आश्चर्यदायक व्रतग्रहण, मालारोपणादि नन्दि महोत्सव किया। उस महोत्सव में सोमचन्द्र साधु को, शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि साध्वियों को दीक्षा दी। पं० जगच्चन्द्र गणि को तथा सब विद्या रूपी वारंगानाओं की नाट्य कला के अभिनवोपाध्याय कल्प, अनेक शिष्यरत्न बढ़ाने में सिद्धहस्त, गृहस्थ सम्बन्ध से पूज्यश्री के भतीजे होने से एवं संयम धारण के बाद शिष्य होने से इस तरह दोनों तरफ संतान रूप है और जिसको पूज्यश्री ने अपनी पट्टरूपी लक्ष्मी के योग्य विचार लिया है ऐसे पण्डितराज श्रीकुशलकीर्ति गणि को वाचनाचार्य का पद प्रदान करके सम्मानित किया। धर्ममाल गणिनी और पुण्यसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी पद से अलंकृत किया। ___इसके बाद ठक्कुर विजयसिंह, ठ० सेढू, ठ० अचलसिंह और बाहर से आने वाले समग्र संघ के गाड़ो व घोड़ों के साथ बड़ा मेला बनाकर, पूज्यश्री ने फलौदी जाकर पार्श्वनाथ प्रभु की तीसरी बार यात्रा की। वहाँ पर जिनशासन की प्रभावना करने में प्रवीण, सब सहधर्मियों के वात्सल्य भाव वाले मंत्रीदलीयकुलमंडन ठ. सेढू श्रावक ने जैथल सिक्के के बारह हजार रुपये देकर इन्द्र पद ग्रहण किया। अन्य श्रावकों ने अमात्य आदि पद ग्रहण करके तथा अन्न सत्र, संघ पूजा, स्वधर्मी भाइयों की सेवा, सोने-चाँदी के कड़ों एवं अन्न-वस्त्र का दान आदि पुण्य कार्यों से जैन धर्म की बड़ी भारी प्रभावना की। श्री पार्श्वनाथ भगवान् के भंडार में जैथल सिक्के के तीस हजार रुपयों की आय हुई। इसके बाद पूज्यश्री संघ के साथ वापस नागौर पधारे। ८७. सं० १३७५ वैशाख वदि अष्टमी के दिन वहाँ पर निज के अनेक उज्ज्वल कार्यों से अपने पूर्वजों के समस्त कुल का उद्धार करने वाले, अपनी भुजाओं से उपार्जन की हुई उत्तम लक्ष्मी के क्रीडास्थान, मंत्रिदलीयकुलभूषण ठक्कुर प्रतापसिंह के पुत्ररत्न, जिनशासन का प्रभाव बढ़ाने में दक्ष, सब सहधर्मियों के प्रेमी, बेजोड़ पुण्य संचय से शोभायमान, स्थिरता-गंभीरता तथा उदारता आदि गुणगणों को धारण करने वाले, सब राजाओं के आदरणीय ठक्कुर राज अचलसिंह श्रावक ने महाप्रतापी बादशाह कुतुबुद्दीन सुल्तान का सर्वत्र निर्विरोध यात्रा के लिए फरमान निकलवाकर, तीर्थ यात्रा के लिए गाँवों-गाँव सम्मान के साथ कुंकुम पत्रिकाएँ भेजीं। अतः श्रीनागपुर, श्रीरूणा, श्री कोशवाणा, श्रीमेड़ता, कडुयारी, श्रीनवहा, झुंझुनूं, नरभट, श्री कन्यानयन, श्री आशिकापुर, रोहतक, योगिनीपुर, धामइना, यमुनापार आदि स्थानों में रहने वाले अनेक श्रावकों का विशाल समुदाय आकर नागौर में एकत्र हुआ। उसके साथ में हस्तिनापुर और मथुरा महातीर्थों के लिए यात्रोत्सव प्रारम्भ किया। उस (१६०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय देश में म्लेच्छों का प्रबल उपद्रव होते हुए भी श्री वज्रस्वामी और आर्य सुहस्तिसूरि के समान सर्वातिशयशाली जगत्पूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी, जयदेव गणि, पद्मकीर्ति गणि, पंडित अमृतचन्द्र गणि आदि आठ साधु और जयर्द्धि महत्तरा आदि साध्वी एवं चतुर्विध संघ सहित, सुहागिनी श्राविकाओं के मंगल गीत, बन्दिजनों के स्तुति पाठ एवं बारह प्रकार की बाजों की मधुर ध्वनि के बीच श्री देवालय के साथ नागौर से रवाना हुए। उसके बाद उत्तम शकुनों से प्रेरणा पाते हुए सारे संघ के भार को वहन करने में समर्थ, अपूर्वदान से कल्पद्रुम को मात करने वाले, ठक्कुर अचलसिंह श्रावक तथा श्रीमालकुलमुकुटमणि, देव गुरु की आज्ञा रूप चिन्तामणि से विभूषित मस्तक वाले, संघ के पृष्ठरक्षक के समस्त भार को स्वीकार करने वाले सेठ सुरराज के पुत्ररत्न धनियों में माननीय साधुराज रुद्रपाल श्रावक और सकल संघ सहित पूज्य श्री मार्ग के गाँवों और नगरों में बेधड़क नृत्य व बाजे-गाजे से चैत्य - परिपाटी करने द्वारा जिन शासन की प्रभावना बढ़ाते हुए क्रमशः श्री नरभट पहुँचे। वहाँ पर समारोह के साथ नगर - प्रवेश होने के बाद, श्री जिनदत्तसूरि जी से प्रतिष्ठापित समस्त अतिशयों के निधान नवफणाओं से मण्डित श्री पार्श्वनाथ प्रभु की वन्दना की। श्री नरभटपुर के श्रावकों ने चतुर्विध संघ और देवालय सहित पूज्यश्री की एवं संघ की पूजाभक्ति करके बड़ी भारी प्रभावना की । इसके बाद सकल बागड़ देश के ग्राम-नगरों के निवासी उत्तम श्रावक लोगों के मनोरथों को पूर्ण करते हुए पूज्यश्री ने बड़े उत्साह से, श्रीकन्यानयन में जाकर स्वर्गीय श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित, समस्त तीर्थों के मुकुट, अतिशयधारी श्री वद्धर्मान स्वामी को नमन किया। सेठ मेहर, सेठ पद्म, सेठ काला आदि श्री कन्यानयन के प्रधान श्रावकों ने नगर में म्लेच्छों की प्रधानता होते हुए भी हिन्दुओं के समय की तरह पूज्य श्री के शुभागमन के उपलक्ष्य में जगह-जगह खेल-तमाशे करवाये, इसके अतिरिक्त वहाँ पर महावीर तीर्थ में संघ पूजा, साधर्मिक वात्सल्यादि करके जन्म-जन्मान्तर से उपार्जित पाप एवं कष्टों को हरने वाली बड़ी भारी प्रभावना की और वहाँ सारे श्रीसंघ ने श्रीवर्द्धमान स्वामी के आगे बड़े उत्साह से आठ दिन तक अष्टाह्निका महामहोत्सव किया। ८८. इसके बाद वहाँ से समग्र यमुनापार प्रान्त तथा बागड़ देश के श्रावकों के चार सौ घोड़े, पाँच सौ गाड़े तथा सात सौ बैल आदि गणनातीत मनुष्यों के समुदाय सहित, ढोलों के ढमाके से मार्ग में जगह-जगह मंगल पाठ तथा वादित्र ध्वनि के होते हुए, चक्रवर्ती राजा की सेना के समान चतुर्विध श्रीसंघ हस्तिनापुर पहुँचा । इस संघ में असंख्य म्लेच्छ घुड़सवार रक्षकतया पीछे-पीछे चलते थे और ठ० जवनपाल, ठ० विजयसिंह, ठ० सेदू, ठ० कुमारपाल तथा ठ० देवसिंह आदि मंत्रिदलीय समुदाय एवं सुश्रावक ठा० भोजा, श्रेष्ठी पद्म, सा० काला, ठा० देपाल, ठा० पूर्ण, सेठ महणा, ठा० राजू, सा० लूणा तथा ठ० फेरू आदि अनेक श्री श्रीमालवंश के श्रावक तथा सेठ पूनड़, सा० कुमरपाल, मं० मेहा, मंत्री वील्हा, सा० ताल्हण, सा० महिराज आदि ऊकेश वंश के असंख्य श्रावकों का समूह संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१६१) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती की सेना तुल्य था, उसमें पूज्यश्री ही चक्रवर्ती सदृश एवं सेनापति के स्थानापन्न ठ० अचलसिंह जी थे। इस संघ ने मन्द मन्द यात्रा करते हुए हस्तिनापुर तक कई पड़ाव किए थे। इसके पीठ संरक्षक सेठ रुद्रपाल थे। संघ ने मार्ग में आने वाली यमुना नदी को अच्छी-अच्छी नावों में बैठ कर पार की थी। संघ हस्तिनापुर इसलिए गया कि वहाँ पर श्री शांतिनाथ, श्री कुन्थुनाथ, श्री अरनाथ नामक चक्रवर्ती तीर्थंकरों के गर्भावतार, जन्म, दीक्षा, ज्ञान आदि चार कल्याणक यथासमय होने से वहाँ की भूमि पवित्र समझी गई है। ८९. वहाँ पर साधु-संघ के शिरोमणि, चतुर्विध संघ समन्वित पूज्यश्री ने नये बनाये हुए स्तुति - स्तोत्र, नमस्कारोच्चारण पूर्वक शुद्ध भाव से श्री शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ देवों की जन्म-जन्मान्तरित पापों को हरने वाली यात्रा की। और श्रीसंघ ने इन्द्र पद आदि ग्रहण करना, हरेक को बे रोक-टोक भोजन देना, साधर्मि वात्सल्यादि द्वारा सहधर्मी सेवा करना, श्रीसंघ-पूजा करना और याचकों को सोने-चाँदी के कड़ों एवं अन्न-वस्त्र का दान देना आदि नाना प्रकार के सुकृत करके कलिकाल में भी सतयुग की तरह सब को सुखी बनाने वाली और क्या स्वपक्ष- क्या परपक्ष सभी के चित्त को चमत्कृत करने वाली वीरशासन की बड़ी भारी प्रभावना की । वहाँ पर ठ० हरिराज के पुत्ररत्न, उदार चरित्र, देव गुरु आज्ञा पालक, ठ० मदनसिंह के छोटे भाई ठ० देवसिंह श्रावक ने बीस हजार जैथल ( उस जमाने का प्रचलित सिक्का) देकर इन्द्र पद ग्रहण किया । इसी प्रकार ठ० हरिराज आदि धनाढ्य श्रावकों ने मंत्रि आदि पद ग्रहण किये। देव भण्डार में सारे मिलाकर डेढ़ लाख जैथल इकट्ठे हुए । हस्तिनापुर में पाँच दिन जिनशासन की प्रभावना करके समस्त संघ श्री मथुरा तीर्थ की यात्रा के लिए रवाना हुआ। मार्ग में जगह-जगह उत्सवादि करता हुआ श्रीसंघ दिल्ली के पास वाले तिलपथ नामक स्थान में पहुँचा । इस समय पूज्यश्री की प्रतिष्ठा से कुढ़ने वाले, दुर्जन स्वभाव वाले द्रमकपुरीयाचार्य ने बादशाह कुतुबुद्दीन के आगे चुगली की कि - " जिनचन्द्रसूरि नामक साधु आपकी आज्ञा बिना ही सोने का छत्र धारण करते हैं और सिंहासन पर बैठते हैं।" यह संवाद सुनकर म्लेच्छ स्वभाव वाले बादशाह ने सारे संघ को रोक दिया और मुनि परिवार तथा संघपति ठक्कुर अचलसिंह के साथ पूज्यश्री को अपने पास बुलाया । पूज्यश्री के तेजस्वी मुख मण्डल को देखते ही न्याय के समुद्र और अपने प्रताप से समग्र पृथ्वी को जीतने वाले श्री अलाउद्दीन सुलतान के पुत्ररत्न श्री कुतुबुद्दीन सुलतान ने कहा - "इन श्वेताम्बर साधुओं में दुर्जनों की कही हुई एक भी बात नहीं घटती ।" पूज्य श्री को दीवान खाने में भेजते हुए सुलतान ने दीवान को कहा कि - " इन श्वेताम्बर साधुओं के आचार-व्यवहार आदि की अच्छी तरह जाँच कर जो झूठी शिकायत करने वाले अन्यायी हों, उन्हें दण्ड दिया जाय ।" प्रधान अधिकारी पुरुषों ने भली-भाँति न्याय-अन्याय की जाँच कर डर के मारे गुप्त स्थान में छिपे हुए चैत्यवासी द्रमकपुरीयाचार्य को पकड़ मँगवाया और राजद्वार पर खड़ा किया। सरकारी १. द्रमकपुर शहरादि के नाम से प्रवृत्त द्रमकपुरीय गच्छ के आचार्य जिनका नाम यहाँ नहीं दिया है। (१६२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकारियों ने पूछा कि-"आप अपनी शिकायत को प्रमाणों से सत्य कर सकते हैं?" उत्तर में कोई सन्तोषजनक बात न कहने के कारण, पूज्यश्री के सामने ही राजद्वार पर खड़े हुए लाखों हिन्दूमुसलमानों के समक्ष, राजकीय पुरुषों ने उसको लाठी, चूंसा, मुक्का आदि से जर्जरदेह बना कर जेल खाने में डाल दिया और उसकी बड़ी बुराई की। सरकारी आदमियों ने पूज्यश्री से कहा कि-"आप सत्यभाषी हैं, न्यायी हैं और सच्चे श्वेताम्बर साधु हैं। आप बादशाह की भूमि पर स्वेच्छा से विचरें, इस विषय में आप किसी प्रकार की शंका न करें।" यद्यपि बादशाह की ओर से पूज्यश्री को जाने की इजाजत मिल गई थी, परन्तु दयालु स्वभाव वाले पूज्यश्री ने साधुराज तेजपाल, सा० खेतसिंह, ठ० अचलसिंह और ठ० फेरू आदि को बुलाकर कहा कि दुर्जन स्वभाव वाले द्रमकपुरीयाचार्य को कैद से छुड़ाये बिना हम इस स्थान से आगे नहीं चलेंगे क्योंकि भगवान् वर्द्धमान स्वामी के अनुयायी श्री धर्मदास गणि ने उपदेशमाला में कहा है कि जो चंदणेण बाहुँ , आलिप्पइ वासिणाइ तच्छेइ। संथुणइ जोवि निंदइ, महारिसिणो तत्थ समभावा॥ [जो मनुष्य चन्दन के विलेपन से भुजा को सुगन्धित करता है एवं सुले (बांसले) से काटता है। जो इसी तरह स्तुति व निन्दा करता हो, सभी पर महर्षि-मुनि लोग समभाव वाले होते हैं।] अन्य शास्त्रों में भी लिखा है . शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि। मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिपुङ्गवः॥ [उत्तम मुनि लोग शत्रु-मित्र, घास, स्त्रीवृन्द, सुवर्ण, पत्थर, मणि, मिट्टी का ढेला, मोक्ष और संसार इन सब में निष्पृह रहते हुये समान भाव रखते हैं।] इस प्रकार शत्रु-मित्र में समभाव वाले, तृण, मणि, मिट्टी के ढेले और कंचन को एकसा समझने वाले, दया के समुद्र पूज्यश्री का दुश्मन को भी कैद से छुड़ाने का दृढ़ अभिप्राय जानकर सरकारी और गैर सरकारी सभी लोगों ने आश्चर्य से अपना माथा धुनते हुए पूज्यश्री की अधिकाधिक प्रशंसा की। इसके बाद पूज्यश्री ने तेजपाल आदि श्रावकों के द्वारा दयालु अधिकारियों को समझा-बुझा कर द्रमकपुरीयाचार्य को जेल से छुड़वाकर उसको अपनी पौषधशाला में भेजा। तत्पश्चात् अश्वशाला के अध्यक्ष द्वारा अतीव सम्मानित हुए एवं हिन्दू-मुसलमान तथा सेठ तेजपाल, खेतसिंह, सा० ईश्वर, ठ० अचलसिंह श्रावक आदि लोगों से अनुगम्यमान अर्थात् ये सब लोग जिनके साथ चल रहे हैं ऐसे पूज्य आचार्यश्री गुरुतर प्रभावना पूर्वक खण्डासराय नाम के स्थान में आये। इस यात्रा प्रवास में जिन-शासन प्रभावक, समस्त राजाओं के मान्य, सब कामों को निभाने में समर्थ, श्री श्रीमालवंश के मुकुटमणि, सारे संघ के भार को उठाने वाले सेठ तेजपाल, सा० खेतसिंह, सा० ईश्वर आदि सुश्रावकों ने तथा सकल संघ के अग्रगण्य, उदार चरित्रधारी, सब दिशाओं में विख्यात, मंत्रीदलीय संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१६३) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश भूषण अपने पुत्ररत्न श्रीवत्स सहित ठ० अचलसिंह श्रावक ने पूज्यश्री की और सारे संघ की बड़ी भारी सहायता की। इस प्रकार यात्रा में कई मास बीत जाने के कारण यहाँ पहुँचने पर चौमासा लग गया। संघ समुदाय के लोगों को विदा करके श्री अचलसिंहादि श्रावक खण्डासराय में ही रहे और पूज्यश्री ने भी वहीं चातुर्मास किया। इस समय पूज्य आचार्यश्री ने सुलतान के कहने से तथा संघ के अनुरोध से "रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं" इत्यादि सिद्धान्त वाक्यों का स्मरण करते हुए श्रावण महीने में चौमासे के बीच में ही संघ के संरक्षक ठक्कुर अचलसिंह, सा० रुद्रपाल आदि समग्र बागड़ देश के संघ को साथ लेकर मथुरा की यात्रा को प्रस्थान किया। क्रमशः वहाँ पहुँच कर श्री सुपार्श्व, श्री पार्श्व, श्री महावीर स्वामी आदि तीर्थंकरों की यात्रा बड़े ठाठ से की। मथुरा में श्रीसंघ ने बेरोक-टोक अन्नसत्र, साधर्मिक वात्सल्य आदि कार्यों से शासन की बड़ी प्रभावना की। वहाँ से लौटकर संघ सहित पूज्यश्री ने योगिनीपुर आकर शेष चातुर्मास को खण्डासराय में पूरा किया। वहाँ पर रहते हुए चातुर्मास में स्वर्गीय मणिधारी आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्तूप की बड़े विस्तार से दो बार यात्रा की। ९०. यह चातुर्मास समाप्त होने पर पूज्यश्री ने स्वशरीर में कम्प रोग जनित बाधा को देखकर, अपने ज्ञान-ध्यान के बल से अपना अन्तिम समय निकट आया जानकर, अपने हाथ से दीक्षित द्विधा (दोनों ही तरह से) स्व-संतान वाले, अपनी पाटलक्ष्मी के धारण करने योग्य लक्षणों वाले, व्याकरण-न्याय-साहित्य-अलंकार-ज्योतिष आदि शास्त्रों के विचार में चतुर, स्वकीय-परकीय सिद्धान्त समुद्र को तैरने में नाव के समान अपने शिष्यरत्न वाचनाचार्य कुशलकीर्ति गणि को पाट पर स्थापित करना तथा अपने आप निर्धारित उसका नामकरण आदि सर्व-शिक्षासमन्वित एक पत्र लिखकर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य के पास भेजने के लिए विश्वासपात्र श्री देवगुरु आज्ञा पालक ठक्कुर श्री विजयसिंह के हाथ में सौंपा। चौहान कुलभूषण शरणागत की रक्षा के लिए वज्रमय पिंजरे के समान मेड़ता नरेश राणा श्री मालदेव जी का अनुरोध पूर्ण आमंत्रण पाकर पूज्यश्री ने मेड़ता नगर जाने के लिए दिल्ली से विहार किया। मार्ग में आने वाले धामइना, रोहतक आदि मुख्य-मुख्य अनेकों स्थानों के श्रावकों की वन्दना स्वीकार करते हुए श्री कन्यानयन नगर में आकर श्रीमहावीर देव को नमस्कार किया। वहाँ पर पूज्यश्री के शरीर में श्वास और कम्प की व्याधि बढ़ गई। इसी से स्थानीय चतुर्विध संघ के समक्ष मिथ्या दुष्कृत दान देकर फिर से सब प्रकार की शिक्षा से पूर्ण लेख लिखवाकर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य के पास भेजने के लिए अपने विश्वासपात्र प्रवर्तक श्री जयवल्लभ गणि के हाथ में दिया। एक महीने तक कन्यानयनीय समुदाय को सन्तोष देकर श्री नरभट आदि नाना स्थानों के लोगों की वन्दना स्वीकार करते हुए मारवाड़ के प्रसिद्ध नगर मेड़ता पहुँचे। मेड़ता में राणा मालदेव और संघ समुदाय की प्रार्थना से उन लोगों के सन्तोष के लिए चौबीस दिन ठहर कर पूज्य श्री अपने निर्वाण योग्य स्थान समझ कर श्री कोशवाणा नगर पहुँचे। वहाँ पर चतुर्विध संघ से खमत-खामणा करके सं० १३७६ आषाढ़ सुदि नवमी को डेढ़ प्रहर रात गये बाद (१६४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैसठ वर्ष की उम्र में श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने इस विनाशशील पंच भौतिक शरीर को त्याग कर स्वर्ग में देवताओं का आतिथ्य स्वीकार किया। प्रातः काल होते श्रीसंघ ने श्री वर्धमान स्वामी के निर्वाण समय की शिबिका के समान अनेक मण्डपिकाओं से सुशोभित विमान बनाकर उसमें श्री सूरीश्वर जी के पार्थिव देह को रखकर नागरिक और राजकीय लोगों के समुदाय के साथ श्मशान यात्रा महोत्सव किया। उस अवसर पर बारह प्रकार के बाजों का निनाद, नाणों की उछाल तथा सधवा महिलाओं द्वारा पूर्वाचार्यों का गुणगान आदि कार्य किये गये थे। इस बाबत में कतिपय विद्वानों ने गुरु महाराज के लेश मात्र गुण गणों का स्मरण इस भाँति किया यस्मिन्नस्तमितेऽखिलं क्षितितलं शोकाकुलव्याकुलं, जज्ञे दुर्मदवादिकौशिककुलं सर्वत्र येनोल्वणम्। ज्योतिर्लक्षणतर्कमन्त्रसमयालंकारविद्यासमा, दुःशीला वनिता इवात्र भुवने वाञ्छन्ति हा तुच्छताम्॥ पङ्कापहारनिखिले महीतले गार्मिनिर्जरतरलितैः? विधाय येऽस्तंगताः श्रीस्वर्गं ये.............॥ ये तु रीनेपुत्रनिचतवयं मुक्तं मा हत्याकुलं (?), सद्यस्तत्पथगामिभिः सहचरैः सौराज्यसौभिक्ष्यकैः। स्थास्यामोऽपनयः (?) कथं वयमिति ज्ञात्वेव चिन्तातुरैः, प्रातः श्रीजिनचन्द्रसूरिगुरवः स्वर्गस्थिता मङ्गलम्॥ भाव्यं भूवलये क्षयं कलिपतेर्दुर्भिक्षसेनापतेत्विा तन्मथनोद्यताः सुरगुरुं प्रष्टं सखायं निजम्। मन्ये नाशिकमन्नवारणयुताभावात् पत्राद्धृता (?), राजानो जिनचन्द्रसूरय इति स्वर्गं गता दैवतः॥ महाराजश्री की पारलौकिक क्रियाओं के विधिपूर्वक सम्पन्न किये जाने बाद मंत्रीश्वर देवराज के पौत्र और मंत्री माणकचन्द्र के पुत्ररत्न मंत्री श्री मूंधराज श्रावक ने चिता स्थान की जगह पूज्यश्री की चरण पादुका सहित एक सुन्दर स्तूप बनवाया। विशेष जिनचन्द्रसूरि : जिनप्रबोधसूरि ने अपने निधन के पूर्व ही वि०सं० १३४१ वैशाख सुदि ३ को १. स्वर्गवास के समय ६५ वर्ष की अवस्था का उल्लेख समीचीन नहीं है क्योंकि श्री जिनकुशलसूरि जी कृत श्री जिनचन्द्र सूरि चतुः सप्ततिका में इनका जन्म सं० १३२४ लिखा है यतः - 'वेय (४) विलोयण (२) तिहुयण (३) ससिमिय (१) वरिसे तुहु पती।' अत: ५२ वर्ष आयु होगी। पैंसठ वर्ष तो १३८९ में होते जो श्री जिनकुशलसूरि जी का स्वर्गवास समय है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१६५) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने पट्ट पर आसीन कर दिया था। प्रस्तुत गुर्वावली में कहीं भी इनके माता-पिता और बचपन के नाम का उल्लेख नहीं किया है। जिनकुशलसूरि द्वारा रचित जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्ततिका के अनुसार वि०सं० १३२४ मार्गशीर्ष सुदि ४ को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम देवराज और माता का नाम कोमल देवी था। इनका बचपन का नाम खंभराय था। वि०सं० १३३२ में इन्होंने जिनप्रबोधसूरि से दीक्षा ग्रहण की और क्षेमकीर्ति नाम प्राप्त किया। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने विशद अध्ययन किया। इनके पट्टधर जिनकुशलसूरि के पिता मंत्री जिल्हागर खम्भराय के भ्राता थे अतः ये जिनकुशलसूरि के चाचा होते थे। ये कलिकालकेवली के विरुद से सम्मानित थे। इन्होंने विभिन्न वादियों पर विजय प्राप्त की थी। कुछ स्तोत्रों के अतिरिक्त ग्रन्थ के रूप में इनकी कोई कृति प्राप्त नहीं है। इनके समय में लखमसीकृत जिनचन्द्रसूरिवर्णन रास प्राप्त है। सुप्रसिद्ध रचनाकार ठकुर फेरु इन्हीं के श्रावक थे। समकालीन विद्वान् १. भुवनहिताचार्य २. राजशेखराचार्य ३. राजेन्द्रचन्द्राचार्य ४. दिवाकराचार्य उक्त गुर्वावली में इनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा का उल्लेख प्राप्त होता है इनमें से कुछ आज भी उपलब्ध होती हैं। इनका विवरण इस प्रकार है १. पार्श्वनाथ-सपरिकरः ।। || ॐ ॥ सं० १३४६ वैशाख सुदि ७ श्रीपार्श्वनाथबिम्बं श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः शिष्यैः श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं.... रा० खीदा सुतेन सा० भुवण श्रावकेन स्वश्रेयोर्थं आचंद्रा नंदतात् १. नाहटा, बीकानेर जैन लेख संग्रह, ले० १३५७, महावीर स्वामी मन्दिर (वैदों का) भण्डारस्थ, बीकानेर। २. जिनप्रबोधसूरि-मूर्तिः सं० १३५१ माघवदि १ श्रीप्रह्लादनपुरे श्रीयुगादिदेवविधिचैत्ये श्रीजिनप्रबोधसूरिशिष्य श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः श्रीजिनप्रबोधसूरिमूर्तिः प्रतिष्ठिता कारिता........ रामसिंहसुताभ्यां सा० नोहाकर्मण श्रावकाभ्यां स्वमातृराईमई श्रेयोऽर्थं ॥ २. बुद्धिसागरसूरि, जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग-२, ले० ७३४, शान्तिनाथ मन्दिर भूमिगृह, राधनपुर। ३. शान्तिनाथः सम्वत् १३५३ माघ वदि १ श्रीशान्तिनाथ प्रति० श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठिता च सा० हेमचन्द्र भा० रतन सुत श्रावकाभ्यां देव (?) लक्ष्मी श्रेयोर्थं । ___३. कान्तिसागर, जैन धातु प्रतिमा लेख, भाग-१, लेखांक २०, बड़ा मन्दिर, नागपुर। ४. चतुष्किका स्तम्भलेखः ॥ ॐ ॥ सम्वत् १३५६ कार्तिक्यां श्रीयुगादिदेवविधिचैत्ये श्रीजिनप्रबोधसूरिपट्टालंकारश्रीजिनचन्द्रसूरि-सुगुरूपदेशेन सा0 जाल्हणसुत सा० राजदेवसत्पुत्रेण सा० सलखणश्रावकेण साo मोकलसिंह तिहुणसिंह परिवृतेन स्वमातुः सा पउमिणिसुश्राविकायाः श्रेयोऽर्थं सर्वसंघप्रमोदार्थं (१६६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___Jain Education international 2010_04 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्ववर्तिचतुष्किकाद्वयं कारितं । आचन्द्रार्कं नन्दतात् ॥ शुभमस्तु ॥ " ४. जैन तीर्थ लेख संग्रह, भाग-१, खण्ड-२ पृ० १८२, जैन मन्दिर, जूना, बाड़मेर। ५. चतुष्किका-स्तम्भलेखः ॥ ॐ ॥ सम्वत् १३५६ कार्तिक्यां श्रीयुगादिदेवविधिचैत्ये श्रीजिनप्रबोधसूरिपट्टालङ्कारश्रीजिनचन्द्रसूरि - सुगुरूपदेशेन सा० आल्हणसुत सा० नागपाल श्रावकेन सा० महणादिपुत्रपरिवृतेन मध्यचतुष्किका स्वपुत्र सा० मूलदेवश्रेयोर्थं कारिता ॥ आचन्द्रार्कं नन्दतात् ॥ शुभं ॥ ५. जैन तीर्थ लेख संग्रह, भाग - १, खण्ड-२ पृ० १८२, जैन मन्दिर, जूना, बाड़मेर । ६. स्तम्भलेखः सम्वत् १३६० (वर्षे) आषाढवदि ४ श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनेश्वरसूरिपट्टनायकश्रीजिनप्रबोधसूरिश्रीदिवाकराचार्याः पंडि० लक्ष्मीनिवासगणि हेमतिलकगणि मतिकलशमुनि मुनिचन्द्रमुनि अमरत्नणि यशः- कीर्तिमुनि साधुसाध्वीचतुर्विधश्रीविधिसंघसहितो ( ताः) श्रीआदिनाथश्रीनेमिनाथदेवाधिदेवौ नित्यं प्रणमन्ति ॥ ६. जयन्तविजय, आबू भाग-२, लेखांक ३१७, लूणवसही हस्तिशाला, देलवाड़ा आबू । ७. महावीर - पञ्चतीर्थी: सं० १३६१ वैशा० सुद ६ श्रीमहावीरबिम्बं श्रीजिनप्रबोधसूरि-शिष्य - श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठितं । कारितं च श्रे० पद्मसी सुत ऊधासीह पुत्र सोहड सलखण पौत्र सोमपालेन सर्वं कुटुम्बश्रेयोर्थं ॥ ७. नाहटा, बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक २२५, चिन्तामणि मन्दिर भूमिगृह, बीकानेर | ८. शिलालेखः ओं अर्हं ॥ सम्वत् १३६६ वर्षे प्रतापाक्रान्तभूतल श्रीअलावदीनसुरत्राणप्रतिशरीरश्रीअल्पखानविजयराज्ये श्रीस्तम्भतीर्थे श्रीसुधर्मास्वामिसन्ताननभोनभोमणिसुविहितचूडामणिप्रभुश्रीजिनेश्वरसूरि पट्टालङ्कारप्रभुश्रीजिनप्रबोधसूरिशिष्यचूड़ामणियुगप्रधानप्रभुश्रीजिनचन्द्रसूरिगुरूपदेशेन उकेशवंशीय साह जिनदेव साह सहदेवकुलमण्डास्य श्रीजेसलमेरौ श्रीपार्श्वनाथविधिचैत्यकारित - श्रीसम्मेतशिखरप्रासादस्य साह केसवस्य पुत्ररत्नेन श्रीस्तम्भतीर्थे निर्मापितसकलस्वपक्षपरपक्ष-चमत्कारिनानाविधमार्गणलोकदारिद्र्यमुद्रापहारिगुणरत्नाकरस्य गुरुगुरुतरपुरप्रवेशकमहोत्सवेन संपादित श्रीशत्रुञ्जयोज्जयंतमहातीर्थयात्रासमुपार्जितपुण्यप्राग्भारेण श्रीपत्तनसंस्थापितको द्दडिकालङ्कार- श्री शान्तिनाथविधिचैत्यालयश्रीश्रावकपौषधशालाकारापणोपचितसृमरयशः संभारेण भ्रातृ साह राजुदेव साह वोलिय साह जेड साह लषपति साह गुणधर पुत्ररत्न साह जयसिंह साह जगधर साह लषण साह रत्नसिंह प्रमुख परिवारसारेण श्रीजिनशासनप्रभावकेण सकलसाधर्मिवत्सलेन साह जेसलसुश्रावकेण कोडिका-स्थापन पूर्व श्री श्रावकपौषधशालासहितः सकलविधिलक्ष्मीविलासालयः श्रीअजितस्वामिदेवविधिचैत्यालयः कारित आचन्द्रा यावन्नन्दतात् । शुभमस्तु । श्रीभूर्यात् श्रमणसङ्घस्य । श्रीः । ८. जिनविजय, प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग-२ लेखांक ४४७, स्तंभन पार्श्वनाथ मन्दिर, खंभात । 卐卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१६७) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि ९१. चातुर्मास समाप्त होने पर पूज्यश्री के दिये हुए सब तरह की शिक्षा युक्त पत्र लेख को लेकर जयवल्लभ गणि श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी के पास भीमपल्ली आये । पत्र के आशय को समझ कर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी, श्री जयवल्लभ गणि आदि-आदि साधुओं को साथ लेकर पाटण आये । पाटण में उस समय मुसलमानों के उपद्रव एवं दुर्भिक्ष के कारण स्थिति बड़ी भयानक थी, परन्तु अपने ज्ञान-ध्यान के बल से महोत्सव में आने वाले चतुर्विध संघ के कुशल मंगल का निश्चय करके अपने दिवंगत गुरुश्री के आदेश को लक्ष्य बिन्दु मान कर सिद्धि - रामा के तुल्य निर्मल चित्त वाले श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी ने सं० १३७७ ज्येष्ठ वदि एकादशी के दिन कुंभ लग्न में मूल पद स्थापना (मुख्य सूरि पद) का महोत्सव निश्चय किया । चन्द्रकुलावतंस, श्री जिनशासन की प्रभावना करने में उद्यत, उदारता में कर्णादि को भी पराजित करने वाले सेठ जाल्हण के पुत्र सुश्रावक तेजपाल ने अपने भाई रुद्रपाल के साथ श्रीमान् पूज्य आचार्य महाराज के अनुग्रहों से आचार्य पद स्थापना महोत्सव कराने का भार अपने ऊपर लेकर चारों दिशाओं में योगिनीपुर, उच्चापुर, देवगिरि, चित्तौड़, खंभात आदि स्थानों तक के समग्र देश - - नगर व ग्रामों में रहने वाले विधि मार्गानुयायी श्रावकों को पाट महोत्सव पर बुलाने के लिए अपने आदमियों के हाथ कुंकुम पत्रिकाएँ भेजीं। पत्र द्वारा समाचार पाकर दुर्भिक्ष आदि की भयानकता की परवाह न करके सब स्थानों के विधि - समुदायवर्ती प्रसन्न मुख वाले अनेक श्रावक लोग होड़ाहोड़ करते हुए महोत्सव के दिन पर पाटण आ पहुँचे । ठक्कुर श्री विजयसिंह भी पूज्य श्री के दिये पाट - स्थापना सम्बन्धी कार्यों की शिक्षा देने वाले बन्द लिफाफे को लेकर योगिनीपुर (दिल्ली) से पाटण आ पहुँचा । सब स्थानों से सब समुदायों के आ जाने के बाद अपने प्रतिज्ञा कार्य को सफल करने में तत्पर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने श्री जिनदत्तसूरि जी के गच्छ रूप मन्दिर के आधार स्तम्भ, सकल विद्याओं के पढ़ाने में अद्वितीयोपाध्याय श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय, प्रवर्तक जयवल्लभ गणि, हेमसेन गणि, वाचनाचार्य हेमभूषण गणि आदि तैतीस साधुओं की उपस्थिति में तथा जयर्द्धि महत्तरा, प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि गणिनी, प्रवर्तिनी प्रियदर्शना गणिनी आदि २३ साध्वियों और सारे स्थानों से आने वाले समुदायों के समक्ष श्री जयवल्लभ गणि और ठ० विजयसिंह जी के द्वारा प्राप्त स्वर्गीय पूज्यश्री के दोनों पत्र पढ़ कर सुनाये । दिवंगत आत्मा के सन्देशों को पत्रों द्वारा सुनकर चतुर्विध संघ नवीन हर्ष की तरंगों में हिलोरें लेने लगा, जैसे कोई नवीन निधि प्राप्त हो गई हो। गुरु की आज्ञा-पालन में दृढ़, सब प्रकार के अतिशयों से शोभित, चार प्रकार के विधि-संघ से परिवृत श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने कर्त्तव्य की समग्र शिक्षा से समन्वित पूज्यश्री के पत्र - लेख के अनुसार मंत्रीश्वर राजकुल के प्रदीप, मंत्री जैसल की धर्मपत्नी जयश्री के पुत्र, चालीस वर्ष की उम्र वाले, अपने युग में सर्व विद्यमान तमाम उत्तम शास्त्रों के ज्ञाता, वाचनाचार्य कुशलकीर्ति गणि को शान्तिनाथ देव तथा सकल समुदायों के समक्ष गुजरात के मुकुट के समान श्री पाटण नगर में युगप्रधान पदवी देकर उत्सव के साथ कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के पाट पर स्थापित किया और पूज्य गुरुदेव का (१६८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिष्ट “श्री जिनकुशलसूरि" नाम रखा तथा पूज्य गुरुदेव का दिलाया हुआ सूरि-पद समवसरण (पट) भी प्रदान किया गया। कुशलकीर्ति गणि जी गणधरों के समान सर्व लब्धिधारी थे । स्थैर्य, औदार्य, गाम्भीर्य आदि गुण- गणों से उपार्जित उनके यश रूपी कपूर प्रवास से सारा विश्व सुगन्धित था। उनका यश महादेव का हास्य, पूर्णिमा की रात, चाँद की किरणें, गाय का दूध, मोतियों का हार, बर्फ, सफेद हाथी दाँत के चूर्ण की तरह स्वच्छ था । ये राजेन्द्रचन्द्रसूरि के सहपाठी थे। नवीन नाट्य रस के अवतारपूर्वक तत्काल बनायी जाती नवीन नवीन तरह की काव्य- परम्परा से तमाम पण्डितों को विस्मित करने वाले थे। ज्ञान-ध्यान के अतिशयों में पूर्वाचार्यों की याद दिलाने वाले थे यानि उनसे किसी तरह भी कम नहीं थे। सब विद्याओं के पारंगत थे । वाक्चातुर्य में बृहस्पति से भी विशिष्ट थे। उस समय समग्र देश में म्लेच्छों की प्रधानता होने पर भी हिन्दू महाराजाधिराजा श्रेणिक, सम्प्रति, कुमारपाल आदि के समय की तरह यह युगप्रधान पद-स्थापना का उत्सव बड़ा चमत्कारी हुआ । उत्सव के दिनों में सोने-चाँदी के कड़े बाँटे गये । अन्न-वस्त्रादि देकर याचकों के मनोरथ पूरे किये गये। गाना-बजाना, खेल-तमाशे, राग-रंग खूब किये । चारण- भाट - बन्दिजनों ने नई-नई कवितायें सुना कर अपने साहित्य - ज्ञान का परिचय दिया। बाहर से आने वाले साधर्मी भाइयों का अतिथि सत्कार अच्छी तरह से किया गया। इसके साथ संघ - पूजा भी की गई थी। इस उत्सव के कार्य को सानन्द समाप्त करके श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी ने युगप्रवरागम श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के आदेश रूपी महल पर एक प्रकार से सुवर्ण कलश चढ़ाया । इस उत्सव में अपने सब मनोरथों को पूर्ण करने वाले, उदार चरित्र सेठ तेजपाल ने सर्वस्थानों से चतुर्विध संघ के आगन्तुक सभी श्रावकों को वस्त्रादि सिरोपाँव देकर सम्मानित किया था । अनेक गच्छों के सैकड़ों आचार्य और हजारों साधुओं को भी वस्त्रादि देकर प्रसन्न किये थे । सब वाचनाचार्यों के भी मनोरथ पूरे किये गये थे। इस महोत्सव में प्रधान सेठ सामल के पुत्र, साधर्मिक-वत्सल, भीमपल्ली समुदाय के मुकुट तुल्य पुरुषसिंह सेठ वीरदेव श्रावक, श्री श्रीमाल कुलभूषण वाज्जल के पुत्ररत्न सेठ राजसिंह, मंत्रिदलीय राजमान्य देव - गुरु आज्ञा रूप चिन्तामणि को शिरोधार्य करने वाले ठ० विजयसिंह, ठ० जैत्रसिंह, ठ० कुमरसिंह, ठ० जवनपाल, ठ० पाल्हा आदि मंत्रीदलीय श्रावकों ने तथा साह सुभट के पुत्ररत्न सा० मोहन, मं० धनू - झांका प्रमुख जावालिपुर के तथा साह गुणधर आदि पाटण के, साह तिहूण आदि बीजापुर के, ठाकुर पद्मसिंह आदि आशापल्ली के और गोठी जैत्रसिंह आदि खंभात के समुदाय ने श्रीसंघ - पूजा, साधर्मिक वात्सल्य, बेरोक-टोक भोजनदान आदि शुभ कार्य सम्पादन करके अपने अपरिमित द्रव्य का सदुपयोग किया। उसी दिन आचार्यश्री ने मालारोपणादि नन्दि महोत्सव भी किया। इसके बाद सारे श्रीसंघ ने श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के पाट महोत्सव के उपलक्ष्य में श्री शांतिनाथ देव के आगे अत्यधिक उत्साहपूर्वक आठ अठाई महोत्सव किये । ' १. श्री जिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास के अनुसार सेठ तेजपाल ने अपने घर पर १०० आचार्य, ७०० साधु, २४०० साध्वियों को प्रति लाभ कर वस्त्र पहिराये। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१६९) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. इस प्रकार युगप्रधान राज्य को पाकर श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने महामिथ्यात्व रूप शत्रु के उच्चाटन के लिए दिग्विजय की कामना से भीमपल्ली जाने के लिए विहार किया। वहाँ पर वीरदेव श्रावक ने अगुआ होकर पूज्यश्री का प्रवेश महोत्सव बड़े आडम्बर से करवाया। महाराज ने प्रथम चातुर्मास भीमपल्ली में ही किया। इसके बाद सं० १३७८ माघ सुदि तृतीया के दिन भीमपल्ली के सेठ वीरदेव आदि समस्त समुदाय बुलाये हुए श्री पाटण के श्रावक वृन्द के साथ सकल जन-मन को चमत्कारी, दीक्षा-बृहद्दीक्षा, माला-ग्रहण आदि नन्दी महोत्सव किया। इस महोत्सव में साधर्मिक वात्सल्य, श्रीसंघ-पूजा आदि अनेक प्रभावनाओं के कार्य हुए। उस महोत्सव में श्री राजेन्द्रचन्द्राचाय ने माला ग्रहण की। देवप्रभ मुनि को दीक्षा दी। वाचनाचार्य हेमभूषण गणि को अभिषेक (उपाध्याय) पद दिया। पं० मुनिचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया। उसी वर्ष अपने प्रतिज्ञात कार्य को पूर्ण करने में प्रवीण पूज्यश्री ने अपने ज्ञान-ध्यान के बल से सकल गच्छ के हित-साधन में सदैव उद्यत श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय जी की आयुः समाप्ति का समय जान कर भीमपल्ली से पाटण की ओर विहार किया। पाटण में ज्येष्ठ वदि चतुर्दशी के दिन शरीर में कोई व्याधि न होने पर भी विवेकसमुद्रोपाध्याय जी को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत दिलवाया और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनशन करवाया। तत्पश्चात् पूज्यश्री के चरण-कमल का ध्यान करते हुये पंच परमेष्ठी नमस्कार रूप महामंत्र का जप करते हुए, अनेक प्रकार की आराधनाओं का श्रवण रूप अमृतपान करते हुए, श्रीसंघ द्वारा की हुई शासन प्रभावनाओं को अपने कान से सुनते हुए विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ज्येष्ठ सुदि द्वितीया के दिन मानो देवगुरु बृहस्पति को जीतने के लिए स्वर्ग पधार गये। पाटण के श्रावक वृन्द ने उनके शव को श्मशान ले जाने के लिए सुन्दर सा विमान बना कर सब मनुष्यों के मन में चमत्कार पैदा करने वाला निर्वाण महोत्सव किया। इसके बाद पूज्यश्री के उपदेश से श्रीसंघ ने विवेकसमुद्रोपाध्याय जी की स्मृति के लिए एक स्तूप बनवाया और आषाढ़ सुदि त्रयोदशी के दिन बड़े विस्तार से उस पर प्रतिष्ठा वासक्षेप किया। विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ने समाज का बड़ा उपकार किया था। इन्होंने ही आचार्यश्री के गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि जी, दिवाकराचार्य, श्री राजशेखराचार्य, वा० राजदर्शन गणि, वा० सर्वराज गणि आदि अनेक मुनि महात्माओं को आगमादि शास्त्र पढ़ाये थे एवं तीन बार हैमव्याकरण बृहद्वृत्ति नामक महाग्रंथ पढ़ाया था जो अठारह हजार अनुष्टप् श्लोक प्रमाण है। इसके अतिरिक्त ३६००० श्लोक प्रमाण श्री न्याय महातर्क आदि समस्त शास्त्रों का अभ्यास भी अनेकों मुनियों को इन्होंने करवाया था। इसके बाद वहाँ श्रीसंघ की ओर से की गई प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने दूसरा चातुर्मास पाटण में किया। ९३. वहाँ पर सं० १३७९ में मिगसर वदि पंचमी के दिन श्री शांतिनाथ देव के विधि-चैत्य की महामहोत्सव के साथ विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में अनेक प्रान्तों से आकर अगणित नर-नारी सम्मिलित हुए थे। यह उत्सव दस दिन तक मनाया गया था। इसके खर्च का कुल भार जिनशासन की प्रभावना करने में उदार चरित्र वाले, दाक्षिण्य, धैर्य, औदार्यादि अनेक गुण श्रेणी से अलंकृत सेठ श्री तेजपाल ने उठाया था। सेठ के भाई रुद्रपाल ने भी इसमें काफी मदद दी थी। ये (१७०) खरतरगच्छ का इतिहास. प्रथम-खण्ड 2010 04 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ तेजपाल जी गुरु श्री जिनप्रबोधसूरि जी के छोटे भाई जाल्हण जी के पुत्र थे। कई बातों को लेकर यह प्रतिष्ठा महोत्सव अभूतपूर्व था। इसमें अन्न-धन प्रचुर प्रमाण में बाँटा गया था। बाहर से आये हुये साधर्मिक भाइयों की बड़ी आवभगत की गई थी। प्रतिष्ठा में जलयात्रा महोत्सव भी देखने ही योग्य हुआ था। इसी दिन देव गुरु की आज्ञा का पालन करने में तत्पर सेठ नरसिंह के पुत्ररत्न सेठ खींवड़ के प्रयत्न से सेठ तेजपाल आदि पत्तन वास्तव्य श्रावक समुदाय की ओर से शत्रुजय नामक तीर्थस्थान में श्री ऋषभदेव जी महाराज के मन्दिर की नींव डाली गई थी। उस प्रतिष्ठा महोत्सव के समय श्री शान्तिनाथ आदि तीर्थंकरों की शिलामय, रत्नमय और पीतल आदि धातुओं की बनी हुई डेढ़ सौ प्रतिमाएँ, आचार्यश्री के निज के दो मूल समवसरण (सूरिमंत्र पट्ट) और श्री जिनचन्द्रसूरि, जिनरत्नसूरि आदि गुरुओं की तथा नाना अधिष्ठायकों की प्रतिमाएँ पूज्यश्री द्वारा प्रतिष्ठित की गईं। उस महोत्सव में भीमपल्ली के श्रावकों में प्रधान उदार चरित्र सांवल नामक सेठ के पुत्ररत्न सेठ वीरदेव ने एवं श्री पत्तन, भीमपल्ली, आशापल्ली आदि नगरों के संघ समुदाय ने संघ-पूजा व साधर्मिक वात्सल्य द्वारा तथा सेठ सहजपाल के पुत्र सेठ स्थिरचन्द्र ने और सेठ धीणा जी के सुपुत्र सेठ खेतसिंह आदि वहाँ आये हुए श्रावकों ने इन्द्र पद आदि महोत्सवों की रचना करके श्री जिनशासन को भारी प्रभावित किया। इसके बाद श्री बीजापुर के श्रावक संघ के अनुरोध से पूज्यश्री वहाँ के श्रावक समुदाय के साथ बीजापुर आये। बड़ी धूमधाम से महाराज का नगर में प्रवेश कराया गया। वहाँ पर पूज्यश्री ने महातीर्थ रूप श्री वासुपूज्य भगवान् को नमस्कार किया। इसके बाद बीजापुर के श्रावकों के साथ पूज्यश्री ने त्रिशृंगम नामक नगर की तरफ विहार किया। वहाँ पहुँचने पर शासन के प्रभाव को बढ़ाने वाले सेठ जैसलजी के पुत्र सेठ जगधर और सुलक्षण नाम के दोनों भाइयों ने हजारों मनुष्यों के साथ गाजे-बाजे से महाराजश्री का नगर प्रवेश करवाया। इसके पश्चात् पूज्य महाराज श्री मंत्रीदलीय कुल में उत्पन्न, देव गुरु की आज्ञा को मानने वाले ठ० आसपाल के पुत्र ठ० जगतसिंह आदि श्रावक वृन्द के साथ श्री आरासण और तारंगा नामक महातीर्थों में गये। वहाँ पर महाराजश्री के सदुपदेश से बीजापुरीय और त्रिशृंगमपुरीयों ने साधर्मिक वात्सल्य, श्रीसंघ-पूजा, बेरोक-टोक दानशाला और महाध्वजारोपण आदि शासन-प्रभावना के अनेक कार्य किये। यहाँ से आकर महाराज श्री ने तीसरा चौमासा पाटण में किया। सं० १३८० कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के दिन पूज्यश्री महाराज ने सेठ तेजपाल तथा रुद्रपाल की ओर से शत्रुजय पहाड़ पर बनाये गये भव्य विशाल विधि-चैत्य में स्फटिक मणिवत् निर्मल और कर्पूर जैसी धवल पाषाणमय सत्ताईस अंगुल प्रमाण वाली आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा की स्थापना की। धार्मिक कार्यों में सेठ तेजपाल ने बहुत नाम कमाया था। इनके दादा सेठ यशोधवल भी मारवाड़ के कल्पवृक्ष कहे जाते थे। पहले ही कहा जा चुका है कि सेठ तेजपाल जी चन्द्रकुलप्रदीप गुरु चक्रवर्ति आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज के छोटे भाई जाल्हण नामक श्रावक के पुत्ररत्न थे और निरभिमानियों में चूडामणि समान थे। श्री जिनकुशलसूरि जी के पाट-महोत्सव के समय इन्होंने प्रचुर मात्रा में धन खर्च करके बड़ी कीर्ति पैदा की थी। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में चारों तरफ निमंत्रण पत्र दे संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१७१) 2010_04 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देकर स्वधर्मियों को बुलाया गया था। सभी आगन्तुक लोगों को मधुर मिष्टान्न भोजन-दान से सन्तुष्ट किया था। पर्याप्त मात्रा में धन बाँटा गया था। अनेक प्रकार के नृत्य-नाटकों का आयोजन करके लोगों का मनोरंजन किया गया था। इस उत्सव में व्यापारी-व्यवहारी, राजा-रंक सभी सम्मिलित हुए थे। जिसमें पाटण का संघ समुदाय बहुत अधिक प्रमाण में था। इस अवसर पर सेठ तेजपाल की बनवाई हुई श्री युगादिदेव आदि पाषाणमय तथा सर्वधातुमय अनेकों जिन प्रतिमाओं की एवं अन्य अनेक श्रावकों की बनवाई हुई आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी, श्री जिनचन्द्रसूरि जी तथा कपर्दियक्ष, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि अधिष्ठायक देव-देवियों की भी प्रतिमाएँ और शत्रुजय पहाड़ के उच्चशिखर पर बने हुए उस विशाल मन्दिरों के योग्य ध्वजदण्ड की प्रतिष्ठा पूज्यश्री ने की थी। उस महोत्सव में साह धीनाजी के पुत्र खेतसिंह आदि सुश्रावकों ने इन्द्र पद, श्री युगादिदेव मुखोद्घाटनादि निमित्त मालाग्रहण आदि विविध धार्मिक कार्यों में खुले हाथ से खर्च करके अपने धन को सफल किया। इसके बाद मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी के दिन मालारोपण, सम्यक्त्वारोपण, सामायिकारोपण, परिग्रह-परिमाण आदि नन्दि महामहोत्सव बड़े विस्तार से किया गया। ९४. इसके बाद विक्रम सं० १३८० में श्रीमाल कुलोत्पन्न, गंगा प्रवाह की तरह निर्मल अन्त:करण वाले, श्री जिनशासन को दिपाने में प्रवीण, पूर्वकाल में श्री फलवर्द्धिका महातीर्थ की विस्तार से यात्रा महोत्सव करने वाले, अत्यद्भुत भाग्य और प्रताप के कारण लंकेश्वर (रावण) के समान भारत विख्यात, जिसने समस्त पृथ्वी का दान करने वालों को भी पीछे हटा दिये हैं ऐसे महादानी-महाभाग्यशाली, दिल्ली निवासी प्रसिद्ध सेठ श्री हरुजी के पुत्ररत्न सेठ रयपति ने दिल्लीपति बादशाह गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त अपने पुत्र धर्मसिंह के द्वारा प्रधान मंत्री श्री नेब साहब की सहायता से इस आशय का एक शाही-फरमान निकलवाया कि "श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सेठ रयपति श्रावक का संघ श्री शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थ-यात्रा के निमित्त जहाँ-जहाँ जाये, वहाँवहाँ इसे सभी प्रान्तीय सरकारें आवश्यक मदद दें और संघ की यात्रा में बाधा पहुँचाने वाले लोगों को दण्ड दिया जाये।" यह फरमान सभी अमीर-उमरावों को आश्चर्य देने वाला था। उसके पश्चात् सेठ ने शत्रुजय-गिरनार आदि महातीर्थों की यात्रा करने के हेतु अपने आदमियों को पाटण भेजकर महाराजश्री से प्रार्थना की। ___ महाराज ने सेठ के सन्देश को सुनकर, अच्छी तरह सोच-समझ कर तीर्थयात्रा का आदेश दे दिया। पूज्यश्री के आदेश को सुनकर सेठ रयपति बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्र महणसिंह, धर्मसिंह, शिवराज, अभयचन्द्र तथा पौत्र भीष्म एवं भ्राता सेठ जवणपाल आदि उत्तम परिवारवृन्द को साथ लेकर के पूज्यश्री की आज्ञा के अनुसार दिल्ली निवासी श्रावकों में मुख्य मंत्रीदलीय कुलोत्पन्न सेठ जवणपाल, देव-गुरु-भक्त श्री श्रीमालकुलभूषण सेठ भोजा जी, साह छीतम, ठ० फेरू तथा धामइन ग्राम निवासी सा० रूपा, सा० बीजा आदि, पंचउली सेठ क्षेमंधर आदि, लूणी बड़ी ग्राम के निवासी श्रावकों को इकट्ठा करके और दिल्ली के समीपवर्ती अन्य अनेकों ग्रामवासियों को बुलाकर दिल्ली से विदा होने के समय का उत्सव मनाया। उस समय अपने पुत्र श्रेष्ठिवर्य धर्मसिंह के प्रयत्न से शाही (१७२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सड़क से एक जुलूस निकाला गया, जिसमें अनेक (बारह) प्रकार के बाजे बज रहे थे, बादशाह तथा अन्य राजा-महाराजाओं के बंदी (भाट-चारण) लोग अनेक प्रकार से विरुदावलियाँ बोल रहे थे, रासड़े दिए जा रहे थे। नगर-रमणियाँ मंगल गीत गा रही थीं। दुःखी-भूखे लोगों को छूट से दान दिया जा रहा था। सरकारी आदमियों को सुवर्ण-भूषण, शाल-दुशाले तथा घोड़े इनाम स्वरूप दिये गये। प्रथम वैशाख वदि सप्तमी के दिन नवीन निर्मित प्रासाद के सदृश देवालय को साथ लेकर बड़े आरोह-समारोह के साथ समस्त चतुर्विध श्रीसंघ ने दिल्ली से प्रस्थान किया। यात्रा के प्रथम दिन से सेठ श्री रयपतिजी की ओर से हमेशा के लिए बेरोक-टोक अन्न क्षेत्र खोला गया; जिसमें कोई भी व्यक्ति मनोवांछित भोजन पा सकता था। इस प्रकार भारी आडंबर सह दिल्ली से चलकर श्रीसंघ कन्यानयन नामक नगर में पहुँचा। वहाँ पर युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज से प्रतिष्ठित श्री महावीर तीर्थराज का अर्चन-वन्दन किया गया और जैनेतर लोगों के हृदयों में सम्यक्त्व-श्रद्धा पैदा करने वाली महान् शासन प्रभावना की गई। वहाँ से शासन प्रभावक और समग्र उत्सव में अग्रगण्य सेठ पूना, सेठ पद्मा, सेठ राजा, सेठ रातू, ठ० देपाल, सेठ कालू, सेठ पूना आदि श्रावकों को तथा आशिका नगरी के सेठ देदा आदि श्रावक समुदाय को साथ लेकर संघ बड़े आडंबर से आगे को चला। इसके पश्चात् प्रत्येक गाँवों और नगरों में धर्म की प्रभावना करता हुआ सारा संघ नरभट नगर में पहुँचा। यहाँ पर श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज से प्रतिष्ठित श्री नवफणा से विभूषित पार्श्वनाथ जी की प्रभावशाली प्रतिमा को नानाविध भक्ति से संघ समस्त ने नमस्कार किया। वहाँ से साह भीमा, सा० देवराज आदि अच्छे-अच्छे श्रावक लोग संघ के साथ हो लिये। इसके बाद खाटू के सा० गोपाल, श्री नवहा, झूझणू आदि गाँवों व नगरों के रहने वाले सा० कान्हा आदि श्रावक लोग भी संघ के साथ चल पड़े। तत्पश्चात् जिनशासन की प्रभावना करने वाले सेठ रयपति जी सारे संघ को साथ लिए हुए फलौदी (मारवाड़) पहुँचे। वहाँ पर श्री पार्श्वनाथ देव की यात्रा के निमित्त बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। उस संघ में सम्मिलित होने के लिए संघपति की ओर से अनेक ग्रामों व नगरों को कुंकुम पत्र भेजे गए थे। अतः जैसे समुद्र में अनेकों नदियों का प्रवाह आ मिलता है वैसे सेठ रयपति के संघरूप समुद्र में अनेक ग्रामों व नगरों के संघ रूप नदी प्रवाह यहाँ आकर सम्मिलित हुए। संघ में आने वालों में कतिपय मुख्य-मुख्य सज्जनों के नामों का यहाँ उल्लेख किया जाता है। सेठ हरिपाल के पुत्ररत्न सेठ गोपाल, साह पासवीर के पुत्र साह नंदन, सेठ हेमल के पुत्र साह कडुआ, साह पूर्णचन्द्र के प्रभावशाली पुत्र सेठ हरिपाल, सा० पेथड़, सा० बाहड़, सा० लाखण, सा० सीवा, सा० सामल, सा० कीकट आदि उच्चापुरी निवासी एवं सा० वस्तुपाल आदि देवराजपुर के तथा कयासपुर निवासी सा० मोहनदास आदि समुदाय, मरुकोट (मरोट) के रहने वाले साह ताल्हण आदि समुदाय वगैरह, समग्र सिन्ध के अनेक नगरों के संघ समुदाय तथा मेड़ता के साह आंबा आदि एवं कोसवाणा के मंत्री केल्हा आदि अनेकों श्रावक-समुदायों के झुंड के झुंड यहाँ पर इस संघ में शामिल हुए। वहाँ से चलकर मार्ग में गुडहा निवासी श्रावक सा० मेलू आदि समुदाय को साथ लेकर सारा संघ जालौर पहुँचा। वहाँ पर नगर प्रवेश के समय सरकारी और गैर सरकारी सभी लोगों ने संघ (१७३) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का आश्चर्योत्पादक स्वागत किया। वहाँ पर विपक्षियों के हृदय में कील की तरह चुभे वैसे महा आडंबर से चैत्य-परिपाटी आदि करने द्वारा महती प्रभावना श्रीसंघ ने की। वहाँ से साह महिराज आदि और कोरण्टक गाँव के रहने वाले साह गांगा आदि स्वपक्ष-परपक्ष के अनेकों श्रावक लोग भी संघ के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। इसके पश्चात् संघ ने श्रीमाल नगर में श्री शांतिनाथ जी की और भीमपल्ली एवं वायड गाँव में विशेष समारोह के साथ श्री महावीर देव की अर्चा-पूजा सह यात्रा की। वहाँ से चलकर सारा संघ ज्येष्ठ वदि चतुर्दशी के दिन गुजरात के प्रधान नगर पाटण नगर में पहुँचा। यह नगर उस समय अनेक व्यापारी व मुसलमानों से भरा हुआ था। वहाँ महाराजाधिराज के सैन्य की लीला को धारण करने वाले विशाल संघ को योग्य स्थान में ठहराया गया। बाद में संघपति श्रीमान् सेठ रयपति एवं सेठ महणसिंह आदि अनेक ग्रामों से आये हुए श्रावक लोगों ने सुवर्ण व वस्त्रों की वर्षा करने के साथ जैनागमों में वर्णित महाराजाधिराज दशार्णभद्र की तरह महाभक्ति और श्रद्धा के साथ स्थावरतीर्थ श्री शान्तिनाथ प्रभु को व जंगम तीर्थ रूप युगप्रधान गुरु चक्रवर्ती श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के चरणों में विधिपूर्वक वंदना की। श्री शान्तिनाथ भगवान् के चैत्य में संघ ने अट्ठाई महोत्सव बड़े ही ठाठ से किया। इसके बाद श्रीसंघ ने पाटण के तमाम मन्दिरों में अनेक प्रकार के गाजे-बाजे व अगणित नर-नारियों के महा मेलावड़े सहित जाकर बड़े विस्तार के साथ चैत्य-परिपाटी की। इस चैत्य-परिपाटी के समय याचकों को अपरिमित द्रव्य दान दिया जा रहा था। अनेकों वाजित्रों का घोष बड़े जोर से हो रहा था, देखने वाले सभी लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे और यह प्रसंग विधर्मियों को प्रशंसा करने के कारण सम्यक्त्व प्राप्त कराने वाला था एवं असहिष्णु विपक्षी वर्ग के हृदय में शल्य समान था। ९५. इसके बाद सकल संघ के मुकुट तुल्य प्रधान पुरुष संघपति सेठ रयपति एवं समग्र संघ के भार को निभाने में प्रवीण साह महणसिंह, सेठ गोपाल, साह जवणपाल, साह कालू, साह हरिपाल आदि देशान्तरीय श्रावक समुदाय ने और पत्तन निवासी साधुराज जाल्हण के कुल के दीपक आ० श्री जिनकुशलसूरि जी म० के पदस्थापनादि समग्रोत्सवादि अनेक पुण्य कार्यों को करने वाले श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् तेजपाल एवं श्रीमाल कुलभूषण सेठ छज्जल के कुल में मुकुट मणि तुल्य सेठ रयपति के संघ के पदधारक एवं उस पद को निभाने में अत्यन्त तत्पर श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् राजसिंह तथा सेठ श्रीपति के पुत्ररत्न सेठ कुलचन्द्र तथा साह धीणा जी के पुत्ररत्न सेठ गोसल आदि हम्मीरपुर तथा पाटण निवासी मुख्य श्रावकों ने असत्य-अशौचादि असन्मार्ग को जिन्होंने त्याग दिया है एवं अन्याय से अलंकृत शरीर वाले यानि अन्यायमय और जबरदस्त कलिकाल रूप राजा के भय से जो अकम्पित है, ऐसे धर्मचक्रवर्तियों में इन्द्र तुल्य पूज्यवर श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज से विज्ञप्ति की कि-"हे स्वामिन् ! यद्यपि वर्षा ऋतु निकट आ गई है। फिर भी समस्त श्रीसंघ के ऊपर महान् कृपा करके अनेकों उपद्रवादि महासुभटों के बल वाले एवं दुष्टस्वभावी कलिकाल महीपाल कृत अनेकों आपत्तियों से संघ की रक्षा करने के लिए आप प्रसन्न होकर तीर्थ की विजययात्रा में श्रीसंघ के साथ पधारिये, जिससे हमारे समस्त संघ के मनश्चिन्तित कार्य सभी तुरन्त सिद्ध हों।" इस प्रकार संघ समस्त की विज्ञप्ति को (१७४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनकर दाक्षिण्यता के समुद्र एवं हमेशा परोपकार-परायण तथा श्री आर्य सुहस्तिसूरि, श्री वज्रस्वामी, श्री अभयदेवसूरि, श्री जिनदत्तसूरि आदि अनेकों युगप्रधानाचार्यों के चरित्र तुल्य चरित्र (आचरण) से जिन्होंने अच्छी कीर्ति उपार्जन की है, ऐसे आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने 'संघ की विज्ञप्ति माननी ही चाहिए' क्योंकि आवश्यकादि शास्त्रकारों का कथन है कि जो अवमन्नइ संघं पावो थोवं पि माणमयलित्तो। सो अप्पाणं बोलइ दुक्खमहासागरे भीमे ॥ [जो पापी मनुष्य मान-मद में लिप्त होकर श्रीसंघ का थोड़ा भी अनादर करता है, वह अपनी आत्मा को भयंकर दु:ख के समुद्र में डुबाता है।] सिरिसमणसंघआसायणाओ पाविंति जं दुहं जीवा। तं साहिउं समत्थो जइ परि भयवं जणो होइ॥ [श्री श्रमण संघ की अवज्ञा-आशातना से नाना प्रकार के जिन दुःखों को जीव पाते हैं, उनको कहने में वही समर्थ हो सकता है जो सम्पूर्ण ज्ञानी केवली हो।] तित्थपणामं काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं। सव्वेसिं सन्नीणं जोयणनीहारिणा भयवं ॥ [तीर्थंकर देव भगवान् तीर्थ (संघ) को प्रणाम करके एक योजन प्रमाण भूमि में बराबर सुनाई दे सके एवं सभी प्राणी मात्र अपनी-अपनी भाषा में समझ सके वैसे साधारण शब्दों में धर्मदशना देते तप्पुव्विया अरहया पूइयपूया य विणयकम्मं च। कयकिच्चोऽपि जह कह कहेइ नमए तहा तित्थं ॥ [अरहंत भगवंत उसी तीर्थ स्वरूप संघ में से होते हैं अतः संघ को नमस्कार करना पूजितपूजा यानि इन्द्रादिकों से पूजित तीर्थंकर देवों द्वारा संघ का पूजा एवं विनयकर्म है, यदि ऐसा न हो तो ये तीर्थंकर देव कृतकृत्य होकर भी धर्मोपदेश क्यों दें? और तीर्थ को नमस्कार क्यों करें?] यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठ ते , यं तीर्थ कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः। यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छु भं जायते, स्फूर्तिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन् स संघोऽर्च्यताम्॥ [हे भव्यात्माओं! जिस संघ की मति संसार के जंजाल को हटाने की लालसा वाली है, पवित्रता के कारण विद्वान् लोग जिसको तीर्थ कहते हैं। जिसके समान दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। जिसको भगवान् तीर्थंकर भी नमस्कार करते हैं। जिससे सत्पुरुषों को शुभ की प्राप्ति होती है। जिसमें अपूर्व स्फूर्ति है जिसमें अनेकों गुणों का निवास है, उस संघ की पूजा करो।] संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१७५) _ 2010_04 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात् कीर्तिस्तमालिङ्गति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धमुत्कण्ठया। स्वःश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघ गुणसंघके लिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ [जो कल्याणाभिलाषी मनुष्य अनेक गुण समुदाय के क्रीडाधर तुल्य संघ की तन, मन, धन से सेवा करता है उसके पास लक्ष्मी स्वयं चली आती है। कीर्ति शीघ्रता से उस पुरुष का आलिंगन करती है। सब कोई उससे प्रेम करने लगते हैं। बुद्धि बेचारी बड़े चाव से उस पुरुष को पाने की कोशिश करती है। स्वर्गीय लक्ष्मी उस पुरुष से आलिंगन करना चाहती है और मुक्ति बारंबार उसको देखा करती है-उसकी प्रतीक्षा करती रहती है।] इत्यादि पूर्वाचार्य रचित शास्त्र-वाक्यों से विदित होता है कि श्रीसंघ तीर्थंकरों को भी मान्य है, तो फिर हम जैसों की तो बात ही क्या? इस प्रकार आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने मन में विचार कर आसन्नवर्ती चातुर्मास की भी अपेक्षा न करके और श्रीसंघ का प्रबल आग्रह जानकर ज्येष्ठ सुदि षष्ठी के दिन शुभ मुहूर्त में अपने गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का ध्यान धरते हुए मानों कलिराज को जीतने के लिए और अपना कार्य सिद्ध करने के लिए गाजे-बाजे के साथ, बड़े ठाठबाट से सारे दल-बल को लेकर तीर्थयात्रा को चले। इस यात्रा में महाराज के साथ सेवा करने के लिए अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे सत्रह साधु और जयर्द्धि महत्तरा, पुण्यसुन्दरी गणिनी आदि उन्नीस साध्वियाँ थीं। इस यात्रा में चतुर्विध संघ सेना थी और सेठ रयपति जी सेनानायक थे तथा सेठ राजसिंह सेनानायक के पृष्ठरक्षक थे। साह महणसिंह, साह जवणपाल, साह भोजा, साह काला, ठक्कुर फेरु, ठ० देपाल, श्रेष्ठी गोपाल, साधुराज तेजपाल, सा० हरिपाल, सा० मोहण, सा० गोसल आदि अनेकों महर्द्धिक श्रावक लोग इस सेना में महारथी प्रबल योद्धा थे। इनके साथ पाँच सौ गाड़े, सैकड़ों घोडे तथा तथा अगणित बाजे थे। घोड़ों पर कसे हुए नगारे, ढोल, मारु बाजे बजाये जा रहे थे। खान-पान के लिए बेरोक-टोक भोजनालय खोल दिया गया था। चलती हुई संघ सेना की धूलि से आकाश में अंधेरा छा रहा था। शीघ्र ही दीक्षा लेने वाले क्षुल्लकों को हमेशा उत्तम भोजन व बहुमूल्य वस्त्र दिये जा रहे थे। मार्ग में आने वाले प्रत्येक नगर व ग्राम में हिन्दू, मुसलमान आदि सभी जाति के लोग श्रीसंघ व संघपति का बड़ा ही आदर-सम्मान करते थे। श्रीसंघ ने शंखेश्वर नामक नगर में पहुँचकर, श्री पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार कर ध्वजारोपणादि कार्यों से धर्म प्रभावना करके आगे का मार्ग लिया। क्रम से दण्डकारण्य के समान वालाक प्रान्त को पार करके समग्र संघ सहित पूज्यश्री समस्त अधिष्ठायक देवों के प्रभाव व तमाम मुस्लिम नवाबों की सहायता से बिना किसी विघ्न-बाधा के शत्रुजय पहाड़ की तलहटी में पहुंचे। वहाँ पर श्री पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन करके आषाढ़ वदि ६ के दिन सकल तीर्थों में प्रधान, सर्वातिशयों के निधान, श्री शत्रुजय पर्वत के अलंकारभूत श्री ऋषभदेव भगवान् को संघ सहित पूज्यश्री (१७६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अपने बनाये हुए अलंकार पूर्ण सुन्दर स्तोत्रों से स्तुति करने पूर्वक नमस्कार किया। स्त्री-पुत्रों सहित संघपति सेठ रयपति श्रावक ने सब से पहले सोने की मुहरों से नवांगी पूजा की। इसी प्रकार अन्य धनी-मानी श्रावकों ने भी रुपयों से नव अंगों की पूजा की। उसी दिन भगवान् श्री युगादिदेव के समक्ष देवभद्र और यशोभद्र नामक क्षुल्लकों की दीक्षा का महोत्सव बड़े आडम्बर से किया गया। - इसके बाद जिनशासन की प्रभावना करने में प्रवीण, श्रीदेव-गुरु की आज्ञा-पालन में तत्पर श्री रयपति सेठ के विशाल संघ के पृष्ठरक्षक, निरन्तर अन्नदान करने से यश को उपार्जित करने वाले, चतुर्विध बुद्धि के अतिशय से महाराजा श्रेणिक के मंत्री अभयकुमार के समान, काठियावाड़ नरेश महीपालदेव की देहान्तर-समान, संघ कार्य संचालन में दक्ष, महाप्रभावशाली, अपने कनिष्ठभ्राता सेठ मोखदेव सहित, श्रीमालकुलभूषण सेठ छज्जल के वंश में दीपक समान सेठ राजसिंह श्रावक ने आषाढ़ वदि सप्तमी और अष्टमी के दिन विधिपूर्वक श्री ऋषभदेव भगवान् के मुख्य मन्दिर में निज की बनवाई हुई श्री नेमिनाथ आदि अनेक मूर्तियों का प्रतिष्ठा महोत्सव समग्र लब्धि-निधान जंगम युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के हाथ से करवाया। उत्सव में बारह प्रकार के बाजे बजवाये गए। समस्त स्वधर्मियों की बड़ी सेवा की गई। समस्त प्राणियों को मिष्ठान्न-पान देकर सन्तुष्ट किया गया। स्वर्ण-वस्त्र-आभूषण-घोड़े आदि बाँटे गए। इस अवसर पर आचार्यश्री के निज भंडार में रखने योग्य समवसरण (सूरिमंत्र पट) एवं आचार्य श्री जिनपतिसूरि, श्री जिनेश्वरसूरि आदि गुरुमूर्तियों प्रतिष्ठा की गई थी। लोगों का कहना है कि अपने शिष्य की लब्धि से प्रसन्न होकर युगप्रधानाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज भी स्वर्ग से इस महोत्सव को देखने आए थे, जो कितने ही उत्तम श्रावकों को दृष्टिगोचर हुए थे। उसी दिन सेठ जाल्हण के कुल में दीपक समान और समस्त धर्मकार्यों की आराधना में भगवान् महावीर स्वामी के श्रावक आनन्द-कामदेवादिक का अनुकरण करने वाले, दान से याचकों के मनोरथ पूरे करने वाले सेठ तेजपाल ने अपने छोटे भाई रुद्रपाल के साथ पत्तन में प्रतिष्ठित मूलनायक श्री युगादिदेव भगवान् की प्रतिमा पत्तनीय संघ की तरफ से नूतन बनवाये गये मन्दिर में अपने अद्भुत प्रभाव से आर्य श्री वज्रस्वामी का अनुकरण करने वाले पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के कर-कमलों से करवाई। उस समय महाराजाधिराज श्री संप्रति के समान पुण्य प्रभावशाली सेठ रयपति प्रमुख नाना स्थान वास्तव्य समस्त श्रावक संघ का बड़ा भारी मेला जमा हुआ था एवं समस्त वैज्ञानिक (मन्दिर के बनाने वाले शिल्पी) वर्ग को स्वर्णमय हस्त संकलिका व कंबिका (सोटी) तथा उत्तम रेशमी वस्त्रादि के दान से खूब संतोषित किया गया था। वहीं पर युगादिदेव के मंदिर में मालारोपण, सम्यक्त्वधारण, परिग्रह-परिमाण, सामयिक व्रत-धारण आदि निमित्त नन्दि महोत्सव बड़े ठाठ से किया गया था। नवमी के दिन सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया और हजारों श्रावकों-श्राविकाओं ने नन्द्यारोपण (मालारोपण) किया। उसी दिन नये बनाये हुए मन्दिर पर ध्वजारोहण कार्य भी विस्तार से किया। इस प्रकार शत्रुजय तीर्थ पर दस दिन तक बड़ी चहल-पहल रही। श्री श्रीमालकुल के मुकुटमणि श्री हरु सेठ के वंश रूपी मन्दिर पर कलश की उपमा को पाने वाले सेठ रयपति, सा० महणसिंह, सा० तेजपाल, सा० राजसिंह आदि संघ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१७७) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रधान-प्रधान श्रावकों ने मूल मन्दिर और अपने मन्दिर में होड़ा-होड़ से अनेक पूजायें पढ़वाई। मन्दिरों पर नाना प्रकार के रेशमी आदि विभिन्न वस्त्रमय ध्वजा एवं ध्वज दण्ड का आरोपण किया। सुवर्ण, अन्न, वस्त्र के दान से याचक वर्ग को सन्तुष्ट किया। इस श्रीसंघ के दिल्ली से प्रस्थान करने समय से अब तक, सेठ रयपति के किये जाने वाले विविध वस्तुओं के दान से कल्पवृक्ष को भी लज्जित होना पड़ा है। इस अवसर पर उच्चापुरी निवासी रोहड़ (? रीहड़ गो०) हेमल के पुत्ररत्न सा० कडुया श्रावक ने जिनशासन प्रभावक अपने भतीजे हरिपाल के साथ दो हजार छः सौ चौहत्तर रुपयों में इन्द्र पद प्राप्त किया और सेठ धीणाजी के पुत्ररत्न सा० गोसल ने छ: सौ रुपयों में मंत्री पद ग्रहण किया। प्रतिष्ठा, उद्यापन, इन्द्र पद महोत्सव, कलश-मण्डनादि द्वारा ऋषभदेव भगवान् के भण्डार में पचास हजार रुपयों का संग्रह हुआ। ९६. इसके बाद पूज्यवर श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज सारे संघ के साथ पुनः पहाड़ की तलहटी पर संघ के उतारे में आ गए। यद्यपि वर्षा ऋतु निकट आ गई थी, ऊबड़-खाबड़ मार्ग में लुटेरों का भय था। काठियावाड़ की जमीन पथरीली थी, तथापि वहाँ से लौटते समय मार्ग में वर्षा आदि से किसी प्रकार की विघ्न-बाधा उपस्थित नहीं हुई थी। यह मेघकुमार देव की कृपा का प्रभाव है। संघ के प्रधान सेठ रयपति जी का प्रभाव भी बड़ी मदद पहुँचा रहा था, उनके प्रभाव में आकर उपद्रवकारी अनेक म्लेच्छ मार्ग में अनुगामी और आज्ञाकारी बन गए थे। चतुर्विध-संघ रूपी सेना से परिवृत हुए धर्म-चक्रवर्ती पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज पाटण आदि नगरों के राजमार्गों की तरह उस मार्ग में चलते हुए सुख पूर्वक सौराष्ट्र देश के अलंकारभूत खंगारगढ़ (जूनागढ़) आ पहुँचे। वहाँ पर सरकारी, गैर सरकारी सभी लोगों ने सम्मुख आकर संघ सहित पूज्यश्री का सम्मान किया और गिरनार पहाड़ की तलहटी में संघ का डेरा लगवाया। वहाँ पर खंगार (जूनागढ़) में स्वपक्षीय-परपक्षीय लोगों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करने वाली चैत्य-परिपाटी को संघ के साथ बड़े ठाठ से विधि-पूर्वक सम्पन्न करके पूज्यश्री ने आषाढ की चातुर्मासी के दिन आबाल-ब्रह्मचारी राज्य एवं राजिमती का परित्याग करने वाले, श्री उज्जयन्ताचल महातीर्थ के अंलकारभूत श्री नेमिनाथ स्वामी को अपने नये बनाये हुए स्तुति-स्तोत्रों से नमस्कार किया। संघ के अध्यक्ष सेठ रयपति आदि प्रमुख श्रावकों ने शत्रुजय तीर्थ की तरह यहाँ भी सुवर्ण की मुहरों और स्वर्ण टंकों से नवांगी पूजा की। उसी दिन मांगलउर (मांगरोल) का रहने वाला, उदार चरित्र, प्रभावशाली सेठ जगतसिंह का पुत्ररत्न सेठ जयता श्रावक अनेक अभिग्रह लेकर वन्दना करने को वहाँ आया था। उसने खंगारगढ़ निवासी, महा सम्पत्तिशाली रीहड़ झांझण ने तथा रीहड़ रत्नचन्द्र के पुत्र मोखदेव आदि श्रावक-श्राविकाओं ने सम्यक्त्व-धारण सामायिका-रोपण, परिग्रह-परिमाण आदि हेतु नन्दि महोत्सव किया। सेठ रयपति आदि संघ के प्रमुख सभी श्रावकों ने शत्रुजय महातीर्थ की तरह यहाँ भी चार दिन तक बड़े भक्ति भाव से महा पूजा, महाध्वजा रोपणादि महोत्सव किए। हमीरपुर के रहने वाले जिनशासन के प्रभावक सेठ धीणा जी के पुत्ररत्न सेठ गोसल श्रावक ने २४७४ रुपये भेंट चढाकर इन्द्र पद ग्रहण किया और शासन प्रभावक सेठ काला श्रावक के पुत्ररत्न सेठ बीजा (१७८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010-04 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक ने आठ सौ मुद्रा अर्पण करके मंत्री पद लिया। अन्य लोगों ने भी यथाशक्ति बोली बोल कर अन्यान्य पद ग्रहण किए। सारी संख्या मिलाकर श्री नेमिनाथ देव के भण्डार में चालीस हजार रुपये जमा हुए। पहाड़ पर पूजा समाप्त करके समस्त संघ के साथ पूज्यश्री तलहटी में आए। वहाँ पर नाना प्रकार के धार्मिक उत्सवों के करने से प्रबल प्रचण्ड कलिकाल की जड़ उखाड़ने में तत्पर अपने स्वामी पूज्यश्री को देखकर, अपने दानातिशय से चिन्तामणि-कामधेनु-कल्पवृक्ष को भी मात करने वाले, परम यशस्वी, समस्त श्रावकवृन्द शिरोमणिभूत रयपति सेठ ने महणसिंह आदि अपने पुत्रों के साथ पूज्यश्री की कीर्ति फैलाने के लिए तीन दिन तक बराबर रात-दिन विविध प्रकार के स्वर्णाभूषण, बढिया से बढिया रेशमी वस्त्रादि उत्तमोतम वस्तुओं का दान देकर समग्र सौराष्ट्र देश में रहने वाले अगणित याचकों को सन्तुष्ट किया। सा० राजसिंह, सा० हरिपाल, सा० तेजपाल आदि अन्य श्रावकों ने भी यथेच्छा मिष्ठान्न-पानादि प्रदान कर याचकवर्ग को हर्षित किया। ९७. अपने संकल्पित कार्य का विधि पूर्वक संपादन करने वाले, युगप्रवरागम श्री जिनचन्द्रसूरि जी तथा अम्बिका आदि देवी-देवताओं की सहायता से युक्त, व्याकरण, न्याय, साहित्य, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, मंत्र, तंत्र और छन्दः शास्त्र के परम ज्ञाता, तुरगपद, कोष्ठक-पूरण आदि शब्दालंकार और जटिल समस्या-पूर्तियों से बड़े-बड़े विद्वानों का मनोरंजन करने वाले, समग्र जनता पर अखण्ड आज्ञैश्वर्य के आरोपण से चन्द्र ज्योत्स्ना समान उज्ज्वल कीर्ति का उपार्जन करने वाले, अपने विशुद्ध चारित्र से चन्द्रकुल के अनेक पूर्वाचार्यों को भी प्रकाशित करने वाले, गुरुओं में चक्रवर्ती के समान युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज, इस प्रकार तीर्थ यात्रा करने से, अपने जन्म व अनेक कष्टोद्यमों से उपार्जित द्रव्य को सफल करने वाले, श्री जिनशासन व अपर शासनवर्ती अनेक महापुरुषों द्वारा बन्दी वर्ग की भांति संस्तवित होने वाले यानि जैसे बंदी भाट-चारण लोग दान प्राप्ति की लालसा से दानी पुरुषों की खूब स्तवना करते है वैसे स्व-पर-दर्शन के महापुरुष गुणानुरागिता से जिसकी मुक्त कण्ठ स्तवना करते हैं, आजन्म से नाना विध अभिग्रहों के प्रतिपालन द्वारा निज देह को पवित्र बनाने वाले, मन चाहे पदार्थ की प्राप्ति के कारण पैदा हुए हर्ष से विकसित मुख वाले श्रीमान् सेठ रयपति आदि विधि-मार्गानुयायी समस्त संघ के साथ, वर्षा ऋतु से होने वाली जीव-विराधना की निवृत्ति पूर्वक, शून्य अरण्य सदृश दुर्गम सौराष्ट्र देश को भी राजमार्ग की तरह निराबाध तथा उल्लंघन करके, रास्ते में स्थान-स्थान पर श्रीसंघ की ओर से महती शासन प्रभावना के होते हुए श्रावण शुक्ल त्रयोदशी के दिन पत्तन पहुँचे और नगर के बाहर उपवन (उद्यान) में श्रीसंघ का निवास हुआ। वहाँ पर चारों दिशाओं से आए हुए चतुर्विध श्रीसंघ को उपदेश दानादि द्वारा संतोषित करने के हेतु पूज्य आचार्य श्रीसंघ के साथ उद्यान में ही ठहरे। __इसके बाद भाद्रपद वदि एकादशी के दिन अभिलषित प्रत्येक कार्य को सिद्ध करने में समर्थ और निजपुत्र सा० महणसिंहादि परिवार से परिवृत संघपति श्रीमान् सेठ रयपति एवं सा० तेजपाल संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१७९) 2010_04 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा सा० राजसिंह आदि विभिन्न देशान्तरीय अनेक संघ समुदाय तथा पत्तन वास्तव्य स्वपक्ष-परपक्षीय महाजन जनों के महासमुदाय के साथ सूरि जी महाराज ने जैसे लंका विजय के बाद अयोध्या में रामचन्द्र जी ने प्रवेश किया वैसे अत्यद्भुत ठाठ से पत्तन शहर में प्रवेश किया। गुरुवर्य के इस प्रवेशोत्सव में उदार दिल भक्तजन याचकों को खूब दान दे रहे थे, उत्तम गायक लोग व भक्तिमंत श्राविका वर्ग विविध प्रकार के गुरु-गुण-गर्भित गीत गा रहे थे, नृत्य करने वाले अनेक विध नृत्य कर रहे थे, अनेकों प्रकार के मंगल वाजिन बज रहे थे, घोड़ों की पीठ पर कसे हुए अनेक ढोलों की आवाज से तमाम लोग विस्मित हो रहे थे। इस प्रकार यह प्रवेशोत्सव समस्त राजवर्गीय व नागरिक जनों के चित्त में चमत्कार और समस्त दुर्जनों के हृदय में उद्वेग (खेद) पैदा करने वाला था। अधिक क्या कहना? इसका यथावत् वर्णन करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है। ९८. इसके बाद सेठ रयपति जी ने दूसरी बार पाटण के याचकों को सन्तुष्ट करके पूज्यश्री के चरण-रज को मस्तक पर धारण कर, उनकी आज्ञा से सकल संघ के साथ दिल्ली जाने के लिए प्रस्थान किया। आते समय की तरह ही स्थान-स्थान पर प्रभावना करता हुआ समग्र संघ सहित सेठ रयपति युगप्रवरागम श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज की निर्वाणभूमि ‘श्रीकोशवाणा' नामक नगर में पहुँचा। यहाँ पर श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के स्तूप पर ध्वजा चढाई और महापूजा करके बड़ा उत्सव मनाया। मिष्ठान्न-वितरण और कनक-तुरगादि दान से जिनशासन को प्रभावित किया। फिर वहाँ से चलकर दूसरी बार फलौदी पहुँचे। वहाँ पर बड़े हर्षोल्लास से पार्श्वनाथ प्रभु की यात्रा करने के बाद वस्त्रादि दान-सम्मान से सम्मानित कर देश-देशान्तरों से आकर संघ में सम्मिलित होने वाले श्रावकों को अपने-अपने घरों की ओर विदा किया। इसके बाद सेठ रयपति जी जिस मार्ग से आए थे, उसी मार्ग से होकर कार्तिक वदि चतुर्थी के दिन यवनों की राजधानी दिल्ली पहुँचे। राजकीय प्रतिष्ठा पाये हुए सेठ जी के सुपुत्र साधुराज (सेठ) धर्मसिंह ने निर्गमन महोत्सव से भी अधिक ठाठ पूर्वक यात्रा में साथ लिए देवालय सहित सेठ रयपति का प्रवेश महोत्सव करवाया। ९९. इसके बाद विक्रम संवत् १३८१ वैशाख वदि पंचमी के दिन पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने पाटण नगर में एक बड़ा भारी विराट प्रतिष्ठा महोत्सव करवाया। यह उत्सव शान्तिनाथ भगवान् के विधि-चैत्य में सम्पन्न किया गया था। इसमें सम्मिलित होने वाले अनेक प्रान्तों से आए हुए मुख्य श्रावकों के नाम ये हैं:-दिल्ली निवासी श्री श्रीमालकुल के मुकुटमणि साह रुद्रपाल, सा० नींबा, जालौर के मंत्री भोजराज के पुत्र मंत्री सलखण सिंह, रंगाचार्य, लखण, सत्यपुर (सांचौर) से समागत मंत्री मलयसिंह, भीमपल्ली के वीरदेव आदि समग्र संघ, खंभात से आए हुए व्यवहारी छाड़ा, श्री घोघाबन्दर से समागत सा० देपाल, मंत्री कुमर, सा० खीमड़ आदि अनेकों उत्तम श्रावकों के महान् समुदाय की विद्यमानता में उत्सव के कार्यों में विशेष भाग लेकर पुण्य कमाने वाले सेठ जाल्हण के पुत्ररत्न सा० तेजपाल और सा० रुद्रपाल ने श्री श्रीमालकुलभूषण सा० राजसिंह, भणशाली (१८०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लूणा, साह क्षेमसिंह, साह देवराज, भणशाली पद्मा, मन्ना आदि श्रावकों के परिवार सह पन्द्रह दिन तक संघ का सत्कार किया। गरीबों को द्रव्य बाँटा, खेल-तमाशे, नृत्य-गान करवाये। दुःखी व भूखों के लिए अन्न क्षेत्र खोले। साधर्मी वात्सल्य किया। दीक्षा के लिए वैराग्य धारण करने वाले क्षुल्लकक्षुल्लिकाओं को नाना प्रकार की उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण सामग्री दी गई। चतुर्थी के दिन बड़े धूमधाम से जलयात्रोत्सव एवं पंचमी को प्रतिष्ठा महामहोत्सव किया गया। इस उत्सव से लोगों के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। __ प्रतिष्ठा कराने वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज बड़े लब्धिधारी, श्री गौतमस्वामी और श्री वज्रस्वामी आदि अनेक पूर्वधर आचार्यों के समान थे। स्वर्गीय गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज अहर्निश उनकी सहायता करते थे। जिन-जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई उनके नाम ये हैं: जावालिपुर योग्य श्री महावीर प्रतिमा, देवराजपुर योग्य श्री युगादिदेव प्रतिमा, श्री शत्रुजंय तीर्थ में स्थित बूल्हा वसही मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने के लिए सेठ छज्जल साह के पुत्ररत्न श्रेष्ठिवर्य राजसिंह और सेठ मोखदेव श्रावक द्वारा बनाई हुई श्रेयांसनाथ आदि अनेक तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ। इसी प्रकार शत्रुजय पर सेठ तेजपालादि पत्तनीय विधि-संघ निर्मापित चैत्य में सा० लूणा श्रावक के बनवाये हुए अष्टापद योग्य चौबीस भगवानों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गईं। इन में ढाई सौ मूर्तियाँ पाषाण की थीं और पीतल की मूर्तियाँ अगणित थीं। इनके अतिरिक्त उच्चापुरी के योग्य श्री जिनदत्तसूर महाराज की प्रतिमा, श्री देवराजपुर के योग्य जिनचन्द्रसूरि जी की मूर्ति और अम्बिका आदि अधिष्ठात्री देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित की गईं। इसी प्रकार सूरि जी महाराज के निज भण्डार के योग्य समवसरण (सूरि मंत्र पट) की प्रतिष्ठा की। इसके पश्चात् षष्ठी के दिन व्रत-ग्रहण, बड़ी दीक्षा, माला-धारण आदि नन्दि महोत्सव अति विस्तार से किया। उसी महोत्सव में देवभद्र, यशोभद्र नामक क्षुल्लकों को बड़ी दीक्षा दी गई। सुमतिसार, उदयसार, जयसार नामक क्षुल्लकों और धर्मसुन्दरी, चारित्रसुन्दरी नामक क्षुल्लिकाओं को दीक्षा धारण करवाई। जयधर्म गणि को उपाध्याय पद दिया गया और उनका नाम जयधर्मोपाध्याय ही रखा गया। अनेक साध्वियों तथा श्राविकाओं ने माला ग्रहण की और श्रावकश्राविकाओं ने सम्यक्त्व-धारण, सामायिक ग्रहण तथा श्रावक के बारह व्रतों को धारण किया। इसके बाद तीर्थ यात्रा की इच्छा रखने वाले सेठ श्रीमान् वीरदेव आदि भीमपल्ली के श्रावकों की प्रार्थना से पूज्यश्री ने भीमपल्ली नगरी में सेठ वीरदेव निर्मित बड़े भारी समारोह से वैशाख वदि त्रयोदशी के दिन प्रवेश करके श्री महावीर भगवान् को विधिपूर्वक वन्दन किया। १००. सूरि महाराज के भीमपल्ली पधारने के बाद उसी वर्ष अपने भाई मालदेव एवं सा० हुलमसिंह से परिवृत सेठ वीरदेव जी ने दिल्लीपति सम्राट गयासुद्दीन के यहाँ से तीर्थ यात्रा का फरमान निकलवा कर, अन्य श्रावकों के साथ समस्त अतिशयों के निधान और अपने उदार चरित्र से गणधर भगवान् श्री गौतम स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी श्रीजंबू स्वामी, श्री स्थूलभद्र स्वामी, श्री आर्य महागिरि, श्री वज्र स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि जी आदि युगप्रधानों की याद दिलाने वाले युगप्रवरागमाचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१८१) 2010_04 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज से यात्रा के लिए अत्याग्रह युक्त गाढ़ प्रार्थना की। श्रावक वीरदेव जिनशासन को दीपाने वाला था। अपने पराये सभी लोगों के कार्यों में सहयोग देने वाला था। भीमपल्ली के श्रावकों में मुकुटमणि के समान था। अपने-अपने उज्ज्वल कर्त्तव्यों से सेठ खींवड़, सा० अभयचन्द्र, सा० साढल, सा० धणपाल, सा० सामल आदि निज पूर्वजों से भी वह खूब आगे बढ़ा हुआ था। इसके चरित्र बड़े उदार थे। कठिनातिकठिन अभिग्रहों के निभाने में प्रवीण था। पूज्यश्री के प्रार्थना स्वीकार करने पर सेठ वीरदेव ने गाँवों और नगरों में निमंत्रण-पत्र भेज कर स्वधर्मी समुदाय को एकत्रित किया। तत्पश्चात् सूरिचक्रवर्ती युगप्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के शिष्यों में चूडामणि के सदृश श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज अपने ज्ञान-ध्यान के बल से यात्रा विषयक पूर्वापर-निराबाधतादि को सोच-समझ कर ज्येष्ठ वदि पंचमी के दिन श्रीसंघ के साथ तीर्थ-नमस्कार के लिए भीमपल्ली से रवाना हो गए। महाराज ने प्रस्थान करने के पूर्व सेठ वीरदेव को संघ रूपी सेना का संचालन करने के लिए संघपति का पद दिया और जिनशासन के अनन्य प्रभावक पूर्णपाल तथा सैंटा नामक भ्राताओं के साथ, राजदेव सेठ के पुत्ररत्न सेठ झांझा श्रावक को संघ के पृष्ठरक्षक पद पर नियुक्त किया। पुण्यकीर्ति गणि, सुख कीर्ति गणि आदि बारह साधुओं और प्रवर्तिनी पुण्यसुन्दरी आदि साध्वियों को साथ लेकर वीरदेव श्रावक के बनवाए हुए कृतयुगावतार महारथ के समान मन्दिर में बड़ी प्रभावना के साथ जिन चौबीसी के पट्ट को स्थापित करके तीन सौ गाड़े, अनेक घोड़े, अनेक ऊँट और विविध स्थानों से आए हुए श्रीसंघ के अनगिनत सैनिकों के झुण्ड के साथ निष्क्रमण महोत्सव पूर्व वहाँ से यात्रा का प्रस्थान किया। यद्यपि चातुर्मास समीप आ रहा था, परन्तु पूज्यश्री श्रीसंघ की प्रबल प्रार्थना को ठुकरा नहीं सके; क्योंकि श्रीसंघ तीर्थंकरों के भी आदरणीय हैं। वहाँ से चलने के बाद मार्ग में जगह-जगह अनेक उत्सवों को मनाता हुआ श्रीसंघ वायड नगर पहुँचा। वहाँ पर श्री महावीर भगवान् की पूजा-वन्दना करके बड़ी धूम-धाम से सेरीसानगर में प्रवेश किया। वहाँ दो दिन ठहर कर पार्श्वनाथ भगवान् की पूजा की और वहाँ अन्न-धन बाँटा गया तथा भगवान् के मन्दिर पर ध्वजा चढ़ाई गई। वहाँ से चल कर शिरखिज महानगर में संघ सह पूज्यश्री पहुँचे। वहाँ पर समग्र लोगों को आश्चर्य मुग्ध बनाने वाले जंगम (चलते हुए) मन्दिर-जिनालय के समान बड़े भारी महोत्सव से प्रवेश किया। वहाँ से आशापल्ली नगर नजदीक था इसलिए वहाँ के श्रावक व्यवहारिक महणपाल, व्यव० मंडलिक, सा० वयजल आदि विधि-संघ की प्रार्थना मान कर आचार्य महाराज संघ सहित आशापल्ली गए। स्थानीय श्रावकों के भगीरथ प्रयत्न से किए गए सकलजनाश्चर्यकारक बड़े समारोह पूर्वक नगर प्रवेश कर श्री ऋषभदेव भगवान् के दर्शन-पूजनस्पर्शन-वन्दन विधिपूर्वक किए। वहाँ पर बड़े विस्तार से मालारोपण महोत्सव मनाया गया। इसके बाद सम्पूर्ण संघ के साथ पूज्यश्री बड़े आडम्बरपूर्वक समग्र गुजरात देश के अलंकार समान श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी के दर्शन यात्रा करने के लिए खंभातनगर की ओर चले। मार्ग में आने वाले अनेक ग्राम और नगरों में उत्तम मंदिर के समान देवालय के महोत्सवों को करता हुआ श्रीसंघ बड़े आनन्द के साथ खंभात तीर्थ पहुँचा। (१८२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१. वहाँ पर निरुपमातिशयशाली युगप्रवरागम आर्य सुहस्तिसूरि का अनुकरण करने वाले, श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के उपदेश से सभी तरह इतिहास प्रसिद्ध महाराज श्री सम्प्रति के तुल्य और सकल बुद्धि के निधान सेठ वीरदेव श्रावक ने खंभात नगर निवासी उत्तम, मध्यम, जघन्य सभी लोगों के महासमुदायों के साथ जंगम युगप्रधान अनेक लब्धिनिधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज का नगर प्रवेश हिन्दू साम्राज्य में जैसा होता वैसा करवाया। विरोधी यवन लोगों के देखते हुए भी चँवर डुलाये जा रहे थे। मस्तक पर छत्र धारण किया गया था। भेरी और ढोल आदि नाना प्रकार के बाजे बजाये जा रहे थे। घोड़ों पर कसे हुए ढोल आदि वाजित्रों के आवाज से समग्र आकाश व दिग्मंडल परिपूर्ण हो रहा था। खेल-तमाशे करने वाले नृत्यकार लोग जगह-जगह विविध प्रकार के नृत्य कर रहे थे। सधवा स्त्रियाँ स्थान-स्थान पर रासड़े दे रही थीं। तीर्थंकर देवों के, युगप्रधान गुरुओं के एवं संघपति के अनेक पुण्य कार्य गर्भित गायन गाये जा रहे थे। बंदी लोग अनेकों प्रकार की कवितायें पढ़ रहे थे, जिसकी खुशी में संघपति व अन्य दानी लोग छूट से द्रव्य दान कर रहे थे। कहाँ तक कहा जाए? नाना प्रकार के नाटकादि उत्सव ऐसे हो रहे थे, जिनका वर्णन करना मनुष्यवाणी की शक्ति के बाहर का विषय है। सारे नगर के घर व दुकानें तलाई तोरणादि से खूब सजाये गए थे। हिन्दू राज्य के अलंकारभूत मंत्री श्री वस्तुपाल ने युगप्रवरागम श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज का जैसा प्रवेशोत्सव कराया था एवं यवन राज्यकाल में राज मंत्रीश्वर सेठ श्री जेसल जी ने समग्र अतिशयों के निधान युगप्रधानाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी म० का यहाँ पर जैसे नगर-प्रवेश करवाया था, उनसे भी अधिक आडम्बर पूर्वक अनेक लब्धिनिधान जंगम युगप्रधानाचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज का यह नगर प्रवेश हुआ। उस समय विशाल जिन मन्दिर के तुल्य देवालय का रथ साथ में होने से रथयात्रा के समान इस जुलूस का दृश्य था। वहाँ पर नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि जी महाराज की स्तवना से हुए, खंभात नगर के अलंकारभूत श्री स्तंभन पार्श्वनाथ जी महाराज और उस चैत्य में विराजमान श्री अजितनाथ स्वामी की स्तवना आचार्यश्री ने अपने नूतन बनाये हुए नव-नव अलंकार मय स्तुति-स्तोत्रों से की। सकल चतुर्विध संघ सहित पूज्यश्री ने अनेक भवों से संचित पाप-रूपी कीचड़ को धोने के लिए यह पवित्र यात्रा की थी। इसके बाद लगातार आठ दिन तक सेठ वीरदेव तथा अन्य धनी श्रावकों ने खंभात निवासी विधिसमुदाय के साथ महाध्वजारोपणादि महापूजा एवं अनिवारित अन्न-वस्त्र दान, संघ वात्सल्य, संघ पूजा और इन्द्र महोत्सव आदि धार्मिक कार्य प्रचुर धन व्यय से किए, इस से महती शासन प्रभावना हुई। ये कार्य स्वपक्ष के सभी लोगों के लिए आनन्द-दायक और विपक्षियों के लिए कष्टप्रद हुए। इस उत्सव में सा० कडुआ श्रावक के पुत्ररत्न दो० खांभराज के छोटे भाई दो० सामल श्रावक ने बारह सौ रुपये बोली में बोल कर इन्द्र पद प्राप्त किया और मंत्रिपद आदि अन्यान्य पद अन्य उत्तम श्रावकों ने ग्रहण किए। १०२. आठ दिन खंभात में रह कर समग्र संघ शत्रुजय यात्रा के लिए चला। यद्यपि उस समय देश में जगह-जगह राजाओं में लड़ाइयाँ चल रही थीं, भय के मारे जहाँ-तहाँ नगर, ग्राम सूने हो रहे संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१८३) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे तथापि गुरुदेव की कृपा से आनन्द से चलता हुआ श्रीसंघ धंधूका नामक नगर पहुँचा। (यह नगर परमात् महाराजा कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्यवर्य श्री हेमचन्द्रसूरि जी का जन्म स्थान था)। वहाँ पर सारे नगर में प्रधान मंत्रीदलीय-कुल-भूषण ठक्कुर उदयकरण श्रावक ने श्रीसंघ वात्सल्य और श्रीसंघ पूजा आदि कार्यों से बड़ी प्रभावना की। वहाँ से प्रस्थान कर क्रमशः चलता हुआ संघ तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की तलहटी में पहुँचा। पूज्यश्री आचार्य महाराज सारे संघ के साथ शत्रुजय पर्वत के शिखर पर दूसरी बार गए। संसार के भवरूपी बेलड़ी को काटने में तलवार की धारा के समान, शत्रुजय तीर्थ के अलंकारभूत श्री ऋषभदेव भगवान् की दूसरी बार यात्रा अपने बनाए हुए नाना प्रकार के अलंकारमय एवं भक्ति रस पूर्ण सुन्दर रचना वाले स्तोत्रों से स्तवना करते हुए की। बाद में वहाँ पर सकल संघ में मुख्य श्रेष्ठिवर्य श्री वीरदेव, संघ-पृष्ठरक्षक-पोषक सेठ तेजपाल, सा० नेमिचन्द्र, दिल्ली निवासी श्री श्रीमाल सा० रुद्रपाल, सा० नींबदेव, मंत्रीदलीय कुलभूषण ठ० जवनपाल, सा० लखमा, जालौर के निवासी सा० पूर्णचन्द्र, सा० सहजा और गुडहा नगर के रहने वाले सेठ वाधु आदि अनेक स्थानों के रहने वाले धनी श्रावकों ने दस दिन तक महाध्वजारोपणादि महापूजा, संघपूजा, अवारित सत्र, स्वधर्मी वात्सल्य, इन्द्र पद-महामहोत्सव आदि कार्य बड़े उत्साह से किए। इस अवसर पर वस्त्राभूषण आदि खूब बाँटे गए। इन कार्यों के करने से जिनशासन की अत्यधिक प्रभावना हुई। जिनशासन की प्रभावना करने में प्रवीण सेठ लोहट के पुत्ररत्न सा० लखमा श्रावक ने बारह सौ रुपयों में मंत्रीपद ग्रहण किया। शेष पदों को अन्यान्यं धनी मानी श्रावक-श्राविकाओं ने ग्रहण किया। भगवान् आदिनाथ के भण्डार में इस विधि-संघ की ओर से पन्द्रह हजार रुपये संचित हुए। श्री आदिनाथ भगवान् के मन्दिर में नए बनाए हुए चौबीसी जिनालय की देवकुलिकाओं पर पूज्यश्री ने विस्तार पूर्वक विधि-विधान से कलश और ध्वजा का आरोपण किया। इस प्रकार श्री आदिनाथ प्रभु के पूजन-वन्दन आदि कृत्यों से निवृत्त होकर पूज्यश्री पहाड़ के नीचे तलहटी में अपने स्थान पर आ गए। इसके बाद सारा संघ जिस प्रकार गया था, उसी प्रकार ठाठ-बाट से वापस लौटता हुआ सेरीसा नगर में श्री पार्श्वनाथ भगवान् की यात्रा पूजा करके क्रमशः चलता हुआ शंखेश्वर नामक तीर्थ स्थान में पहुँचा। वहाँ पर चार दिनों तक अवारित सत्र, स्वधर्मीवात्सल्य, श्रीपार्श्वनाथ प्रभु की महापूजा और महाध्वजारोपण श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ का किया और वहीं निकटवर्ती पाटलालंकार श्री नेमिनाथ जी की यात्रा चतुर्विध संघ से परिवृत पूज्यश्री ने अपने बनाये नए-नए स्तुति स्तोत्रों से स्तवना करने पूर्वक की। इसके बाद सकल संघ सहित पूज्यश्री श्रावण सुदि एकादशी के दिन शासन प्रभावक सेठ वीरदेव श्रावक द्वारा किए गए अत्यन्त ठाठ पूर्वक प्रवेश महोत्सव के साथ भीमपल्ली आए और श्री महावीर देव की वन्दना की। देश-देशान्तरों से आये हुए श्रावक लोगों को संघपति सेठ वीरदेव ने दान सम्मान पूर्वक अपने-अपने घरों को विदा किया। १०३. इसके बाद सं० १३८२ में वैशाख सुदि ५ के दिन सा० सामल सेठ के कुल में दीपक के समान, स्थिरता, उदारता और गंभीरता आदि गुणों से मेरुपर्वत और समुद्र को भी हलका दिखाने वाले, समस्त नागरिक लोगों के मुकुट समान, जिनशासन को प्रभावित करने में अग्रणी, शत्रुजय आदि (१८४) ____ 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थों की यात्रा से पुण्य-निधान का संचय करने वाले सेठ वीरदेव ने दीक्षा, मालारोपण आदि निमित्त नन्दि महोत्सव करवाया। इसमें भीमपल्ली, पाटण, पालनपुर, बीजापुर, आशापल्ली आदि नाना स्थलों के लोग बहुत बड़ी संख्या में आए थे। विविध प्रकार के बाजे बज रहे थे, स्थान-स्थान पर ताल्हा रास दिए जा रहे थे, सधवा स्त्रियों के नृत्य हो रहे थे, संघ पूजा व साधर्मिक वात्सल्य किए जा रहे थे, याचकादिकों को अनगिनती द्रव्य दान दिया जा रहा था, अवारित सत्र (भोजनालय) खोला गया था और तीन दिन तक अमारि घोषणा की गई थी। इसी प्रकार हिन्दू राज्यकाल की भाँति बड़े ठाठ से यह उत्सव तमाम सज्जन लोगों हृदय में चमत्कार और विपक्षियों के हृदय में शल्य पैदा करने वाला हुआ। इस महामहोत्सव से जिनशासन की महती प्रभावना हुई। इस महोत्सव में अपने प्रशस्य चरित्र से पूर्वाचार्यों का स्मरण कराने वाले, सर्व लब्धियों से श्रेष्ठ आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने चार क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा प्रदान की। जिनमें क्षुल्लको के नाम विनयप्रभ, मतिप्रभ, हरिप्रभ, सोमप्रभ एवं क्षुल्लिकाओं के नाम कमलश्री व ललितश्री स्थिर किए गए थे। अनेकों साध्वियों व श्राविकाओं ने माला ग्रहण की। अनेकों श्रावक-श्राविकाओं ने सम्यक्त्व तथा सामायिक व्रत धारण किए, कईयों ने परिग्रह परिमाण किया। उसी वर्ष पूज्यश्री जिनकुशलसूरि जी महाराज श्रावक वृन्द के प्रबल अनुरोध से साँचौर गए और वहाँ पर धूमधाम से नगर में प्रवेश कर के तीर्थराज श्री महावीर देव को नमस्कार किया। वहाँ पर एक मास तक ठहर कर श्रावकों को धर्मोपदेश दिया। लाटह्रद नामक गाँव के श्रावकों के अनुरोध से महाराज वहाँ गए। वहाँ पर देवाधिदेव श्री महावीर को नमस्कार करते हुए पन्द्रह दिन ठहरे। वहाँ के श्रावकों को सन्तुष्ट करके बाहड़मेर गए। वहाँ पर श्री ऋषभदेव भगवान् के दर्शन वन्दन से कृत कृत्य होकर श्रावकों के अनुरोध से चातुर्मास वहीं किया। १०४. बाहड़मेर में सं० १३८३ की पौषी पूर्णिमा के दिन जिनशासन प्रभावना, स्वधर्मीवात्सल्य आदि नाना प्रकार के धर्म कार्यों में उद्यत सेठ प्रतापसिंह आदि बाहड़मेर स्थित श्रावक समुदाय की अभ्यर्थना से महाराज ने अमारि घोषणा पूर्वक बड़ी दीक्षा, मालारोपण, सम्यक्त्वारोपण, सामायिकारोपण, परिग्रह परिमाण आदि का नन्दि महोत्सव किया। इसमें जैसलमेर, लाटह्रद, साँचौर, पालनपुर आदि नाना स्थानों के रहने वाले सभी अच्छे-अच्छे श्रावक आए थे। आगन्तुक लोगों का स्वागत-सम्मान खूब किया गया था। नृत्य-गान और अन्न-दान आदि शुभ कार्य अधिक मात्रा में किए गए थे। १०५. उसी वर्ष जालौर वास्तव्य श्रावक महानुभावों के विशेष आग्रह से समस्त अतिशयों के निधान, समग्र सूरि समुदाय में प्रधान, श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने बाहड़मेर से जालौर की ओर विहार किया। मार्ग में लवणखेड़ा और शम्यानयन नामक दो गाँव आए। इन दोनों ग्रामों में कुछ दिन १. ये ही विनयप्रभ मुनि आगे जाकर प्रौढ विद्वान विनयप्रभोपाध्याय बने है, जिनकी अनेक रचनाएँ प्राप्त है और महाप्रभावशाली गौतमस्वामी का रास आज सर्वत्र प्रसिद्ध है। २. ये आगे चलकर श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर सं० १४१५ में श्री जिनोदयसूरि नाम से गच्छनायक हुए। विशेष परिचय आगे देखना चाहिए। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ___JainEducation International 2010_04 (१८५) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठहर कर पूज्यश्री ने अपने पीयूषवर्षी सदुपदेशों से श्रावक समुदाय को सन्तुष्ट किया। लवणखेड़ा में राजकीय समस्त कार्यभार को वहन करने में वृषभ समान राजमंत्री एवं अपने (स्वयं सूरि जी महाराज के) पूर्वज वाहित्रक (छाजेड़) गोत्रीय सेठ उद्धरण ने उतुंग तोरण व शिखर से सुशोभित श्री शांतिनाथ भगवान् का महान विशाल मन्दिर करवाया था और शम्यानयन में अपने दीक्षा गुरु युग-प्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का जन्म महोत्सव एवं खुद आ० श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज का जन्म तथा दीक्षा महोत्सव हुआ था। इस कारण इस स्थान का महत्व और भी अधिक था। इन दोनों ही नगरों में बड़े ही आनन्द से श्री शांतिनाथ प्रभु के दर्शन किए। यहाँ से चलकर विधि-धर्म रूपी कमल वन उगाने के लिए सरोवर तुल्य जावालिपुर पधारे। वहाँ पर नाना प्रकार के उत्सव करने में तत्पर श्रीसंघ समस्त के किए हुए बड़े भारी महोत्सव से नगर में प्रवेश किया और अपने हस्तकमल से प्रतिष्ठित एवं जावालिपुर संघ के मनोवांछित पूर्ण करने में कृत-प्रतिज्ञ कल्पवृक्ष समान महातीर्थ स्वरूप भगवान् श्री महावीर देव के चरणों में विधिपूर्वक वन्दन किया। वहाँ मंत्रीश्वर श्रीमान् कुलधर के कुल में प्रदीप सदृश मंत्री भोजराज के पुत्ररत्न मंत्री सलखणसिंह तथा सेठ चाहड़ जी के पुत्ररत्न सा० झांझण आदि जावालिपुर के समस्त विधि-संघ समुदाय ने उच्चापुर (सिंध) वास्तव्य श्रेष्ठिवर्य हरिपाल के पुत्ररत्न श्रेष्ठी गोपाल जी आदि तथा देवराजपुर (देराउरसिंध) के समुदाय एवं तमाम उत्सव सम्बन्धी धुरा को धारण करने में वृषभ समान सा० जाल्हणी के पुत्ररत्न सा० तेजपाल तथा उनके लघुबन्धु सा० रुद्रपाल आदि पाटण के तथा जैसलमेर, शम्यानयन, श्रीमालपुर (भिन्नमाल), सत्यपुर (सांचौर), गुडहानगर आदि नाना ग्राम-नगर वास्तव्य विधि-संघ के अग्रगण्य श्रावक जनों की महामेदिनी की उपस्थिति में एवं अपने ज्ञान-ध्यान के बलातिशय से भावि कुशल को सब तरह जानने वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सं० १३८३ फाल्गुन वदि नवमी के दिन प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण उपस्थापना, मालारोपण और सम्यक्त्वारोपणादि नन्दिनिमित्त बड़े ही ठाठ से एक विराट महोत्सव का आयोजन किया। यह महोत्सव पन्द्रह दिन तक लगातार चलता रहा। इसमें स्वल्प समय बाद ही चारित्र लेने की भावना वाले लघु वयस्क वैरागियों को पुष्पाङ्क दान यानि पुष्पमाला आभूषणादि पहनाने निमित्त महामहोत्सव किये गये थे। स्थान-स्थान पर तालरास दिये जाते थे, अनेकों महर्द्धिक श्रावक लोग उदार दिल से सोना-चाँदी, उत्तम वस्त्र एवं अन्न दान देकर अपने द्रव्य को सफल कर रहे थे, सधवा स्त्रियाँ स्थान-स्थान पर मंगल गीत गा रही थीं। संघ पूजा, साधर्मिक वात्सल्य, बेरोक-टोक भोजनालय, अमारि घोषणा आदि अनेक विध पुण्य कार्यों से महती शासन प्रभावना हो रही थी। ज्यादा क्या कहा जाये? अत्यन्त विषम दुःषम (पंचम) काल के होते हुए एवं उस दुःषम काल के हाथ स्व-पर-पक्ष के उत्तम-मध्यम और जघन्य सभी लोगों के मस्तक पर पड़ा होते हुए भी, सुषम (चतुर्थ आरे के) काल की तरह समग्र स्व-पर-पक्ष के तथा असंख्य यवनों के हृदय में भी आश्चर्य पैदा करने वाला और विधि-मार्ग की प्रभावना को नहीं सह सकने वाले द्वेषियों के हृदय में शूल की तरह चुभने वाला यह महोत्सव निर्विघ्न समाप्त हुआ। (१८६) _ 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस महोत्सव में सभी लोगों के क्रीड़ा स्थान एवं भगवान् वर्धमान स्वामी के चरण कमलों की स्पर्शना से तथा भगवान् श्री महावीर देव के श्री गौतमस्वामी आदि ११ गणधर वगैरह अनेक महामुनियों निर्वाण से पवित्र हुए वैभारगिरि पर्वत पर राजगृह नगर निवासी ठ० प्रतापसिंह के कुल में प्रदीप कल्प मंत्रिदलवंश के मुकुट मणि और संघ के मुखिया ठ० अचलसिंह के बनवाये हुए उत्तुंग तोरण शिखरोपशोभित चतुर्विंशति जिनालय प्रासाद में मूलनायक तथा स्थापन करने योग्य श्री महावीर देव आदि पाषाणमय एवं सर्व धातुमय अनेकों जिन - प्रतिमा, गुरु- मूर्ति व अधिष्ठायक देव - देवियों की प्रतिष्ठा हुई। साथ ही छः क्षुल्लकों की दीक्षा हुई, उनके नाम इस प्रकार हैं- न्यायकीर्ति, ललितकीर्ति, सोमकीर्ति, अमरकीर्ति, ज्ञानकीर्ति और देवकीर्ति । अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने माला ग्रहण करने पूर्वक सम्यक्त्व, सामायिक तथा द्वादश व्रतों को अंगीकार किया । १०६. इसके बाद सिन्ध - देशालंकार उच्चानगर तथा देवराजपुर वास्तव्य महर्द्धिक श्रावकों के गाढ़ अनुरोध से युगप्रवरागम श्री आर्य सुहस्तिसूरि के समान लोकोत्तर उज्ज्वल कार्यों को करने वाले, बिना अतिचार के कठिन चारित्र व ब्रह्मचर्य पालन एवं लोकोत्तर तपोविधान से आकर्षित होकर किंकर (नौकर ) वत् बने हुए अनेकों व्यन्तर देवताओं के सान्निध्य वाले, अपने ध्यानातिशय से आश्रित बने निरुपम गम्भीर देवी रूप कुंजरों वाले, अठारह हजार शीलांग रूपी महारथों को जीतने वाले, कायिक-वाचिक-मानस भेदों में से प्रत्येक के कृत, कारित व अनुमोदित भेद से त्रिधाविभक्त होने के कारण नवधा विभक्त छत्तीस प्रकार के सूरियों के गुण रूपी अच्छे घोड़ों तथा दूसरों से अजेय, अनेकों मुनिमण्डलरूपी पदातियों के श्रेष्ठ परिवार से युक्त, युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने चक्रवर्ती सम्राट की तरह म्लेच्छ समुदाय से परिपूर्ण विशाल सिंध देश में जमे हुए उदण्ड मिथ्यात्व रूपी भूपति उखाड़ कर उसके स्थान में अपने आश्रित विधि-धर्म रूपी राजा की स्थापना के लिए चैत्रमास के कृष्ण पक्ष में जालौर से विजय यात्रा का मुहूर्त किया, यानि सिंध की ओर प्रयाण किया । मार्ग में स्थान-स्थान पर होते हुए शुभ शकुनों से प्रेरणा पाते हुए, रास्ते में दूसरी बार आये हुए (अपने जन्म स्थान) श्री शम्यानयन तथा श्री खेड़नगरादि सभी स्थानों में अपनी आज्ञा रूपी भूपाल की स्थापना करते हुए क्रमशः मरुस्थल देश के मुख समान सर्वाधिक सम्पत्तिशाली जैसलमेर पधारे। वहाँ के महादुर्ग (किले) में अड्डा जमा कर बैठे हुए और अन्य सामान्य मनुष्य से अजेय महा अज्ञान रूपी दैत्य को भगाने का महाराज का वहाँ आने का मुख्य उद्देश्य था । राजकीय व नागरिक जनों के अपरिमित समुदाय के साथ नाना प्रकार के वाजित्र बजते हुए, भक्तजन उत्तम श्रावकों द्वारा मुक्तहस्त प्रचुर दान दिये जाते हुये, स्थानीय विधि-संघ के किये हुए समग्र लोगों को आश्चर्योत्पादक महामहोत्सव के साथ सूरि महाराज ने नगर में प्रवेश करके अपने हस्त-कमल से प्रतिष्ठित तमाम विघ्न परम्परा का नाश करने में तत्पर देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ स्वामी के चरणों में वन्दन किया । बाद में वहाँ पर पन्द्रह दिन तक रहकर अपनी वाक्चातुरी रूप खङ्गलता से अज्ञान रूपी दैत्य का उच्छेदन करने के साथ ज्ञानावबोधरूपी भूपाल को स्थापित किया। बाद में उच्चापुर व देवराजपुर के श्रावक समुदाय के साथ पूज्यश्री ने सिंध की तरफ विहार किया । प्रचण्ड ग्रीष्म ऋतु थी फिर भी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१८७) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघकुमार देवों की सान्निध्यता थी और मरुस्थल के अनेक भूत-प्रेतादि व्यंतर देवता नौकर की तरह हाजरी भरते थे, अतः किसी तरह के सन्ताप बिना प्रसन्नचित्त से धीरे-धीरे चलते हुए ईर्या समित्यादि पाँचों समितियों से अलंकृत पूज्यश्री पत्तन के राजमार्ग की तरह बड़ी प्रसन्नता से रेती के महासमुद्र को उल्लंघन करके सुखपूर्वक देवराजपुर पधारे । स्थानीय संघ समुदाय ने नाना वाजित्रों के बजते हुए, स्वर्ण-वस्त्रादि विविध प्रकार का दान देते हुए, नागरिक जनों के महान् समुदाय के साथ बड़े ठाठ से प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ पर सूरि महाराज ने स्वयं के कर कमलों से प्रतिष्ठित तीर्थ-स्वरूप श्री युगादि - देव को नमस्कार किया । १०७. वहाँ पर एक मास ठहर कर हमेशा धर्म-मर्म के ज्ञान रूपी दण्ड रत्न से विराजमान और व्याख्यान रूप सेना के अधिपति पूज्यश्री ने प्राणियों के हृदय रूपी किले में विराजमान मिथ्यात्व भूपति के कुवासना आदि सीमाल (आज्ञावर्त्ति ) राजाओं को दूर भगा कर, नाना विध अंगों से उत्पन्न हुई महाशक्ति वाले पूज्य महाराजाधिराज श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज दुर्जय मिथ्यात्व - भूपति का उन्मूलन करने के लिए उस (मिथ्यात्व ) की राजधानी रूप उच्चानगरी में पहुँचे। इसी उच्चानगरी में हिन्दू राजाओं के शासनकाल में बड़े-बड़े महान् वादी रूप हाथियों के समूह को भगाने में सिंह के बराबर सुगुरु चक्रवर्ती आचार्य श्री जिनकुशलसूरि महाराज पहले भी एक बार आये थे, उससे यह नगरी पवित्र हुई थी । महाराज के नगर प्रवेश के समय चारों वर्णों के सरकारी-गैर सरकारी हिन्दू-मुस्लिम हजारों मनुष्य स्वागत में आये थे । शुभागमन के अवसर पर अनेक धनी-मानी श्रावकों ने नाना प्रकार के गाजे-बाजे बजवाने के साथ गरीबों को अन्न-धन बाँटा । इस तरह बड़े ठाठ से नगर में प्रवेश करके सूरि महाराज ने चौबीसी पट के अलंकार - भूत श्री ऋषभदेव स्वामी को नमस्कार करके नि:शंक होकर वहाँ ठहरे और सब लोगों को दुःख देने वाले, प्रचण्ड बल वाले मिथ्यात्व रूपी राजा को अपने सर्वोत्तम धर्म-गुणों के सामर्थ्य से हटा कर महाराज ने अपने आश्रित विधिधर्म -राज की जड़ मजबूती से जमाई। इस प्रकार एक मास का समय बिता कर वर्षा काल की चातुर्मासी समीप आने पर अनेक श्रावकों के साथ फिर से देवराजपुर आकर युगादिदेव को नमस्कार किया । यह चातुर्मास वहीं पर किया । १०८. इसके बाद सं० १३८४ माघ सुदि पंचमी के दिन स्थैर्य, औदार्य, गाम्भीर्य आदि गुणों से अलंकृत, देव- गुरुओं की आज्ञा को सुवर्ण मुकुट की तरह मस्तक पर धारण करने वाले, जिन शासन की प्रभावना के निमित्त विविध मनोरंजक साधनों को जुटाने वाले, सेठ गोपाल के पुत्ररत्न सेठ नरपाल, सा० वयरसिंह, सा० नंदण, सा० मोखदेव, सा० लाखण, सा० आंबा, सा० कडुया, सा० हरिपाल, सा० वीकिल, सा० बाहड़ आदि उच्चापुरी के बड़े-बड़े महर्द्धिक श्रावकों की प्रार्थना से तथा देवराजपुर, कियासपुर, बहिरामपुर, मलिकपुर आदि नाना नगरों एवं ग्रामों के प्रमुख अग्रगण्य श्रावक लोग एवं राज्याधिकारियों के अत्यन्त अनुरोध से श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने देवराजपुर में ही प्रतिष्ठा, व्रत- ग्रहण, माला-ग्रहण आदि नन्दि महोत्सव बड़े विस्तार के साथ किया। इस महोत्सव के समय राणकोट और कियासपुर में स्थित विधि - चैत्य के लिए मूलनायक श्री युगादिदेव के दो प्रमुख बिम्ब (१८८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और शिलामय-पीतलादि धातुमय अनेक जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। यह उत्सव बहुत दिनों तक मनाया गया था। इसमें जगह-जगह नाटकों का आयोजन किया गया था। गन्धर्यों में प्रसिद्ध हा-हाहू-हू के समान गायनाचार्यों ने अपनी संगीत कला का परिचय दिया था। बन्दीजनों ने नाना प्रकार की सरस कविताएँ पढ़ी थीं। महर्द्धिक श्रावक राज्याधिकारियों द्वारा सोना, चाँदी, अन्न, वस्त्र, घोड़े आदि देकर याचक वर्ग को तृप्त किया गया था। भविष्यत् काल में होने वाले क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं को पुष्पांक दान बड़े विस्तार से किया गया था। साधर्मी-वात्सल्य, संघ-पूजा आदि अनेक विध धार्मिक कार्यों से, विषम दुःषमकाल में भी सुषमाकाल का सा भान होता था। यह उत्सव चक्रवर्ती के पट्टाभिषेकोत्सव के समान था। महामिथ्यात्व रूपी दैत्य के विनाश करने में श्रीकृष्ण का अनुकरण करने वाला था। स्वपक्ष के पुरुषों को आनन्दप्रद था। द्वेषी विपक्षियों के हृदय में कील की तरह चुभने वाला था। अपने विधिधर्म साम्राज्य की प्राप्ति पूर्वक मिथ्यात्व भूपाल को पराजित करने निमित्त की गई सिंध देश की विजय यात्रा से समुपार्जित पुण्यरूपी राज्य-लक्ष्मी के पाणिग्रहण का परिचय कराने वाला था। ___ इस सुअवसर पर नौ निधान तुल्य नौ क्षुल्लक और तीन क्षुल्लिकाएँ महाराज की अधीनता में आये यानि उनको दीक्षा दी। इनके नाम- भावमूर्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, हेममूर्ति, भद्रमूर्ति, मेघमूर्ति, पद्ममूर्ति, हर्षमूर्ति तथा कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा इस प्रकार थे। इस समय ७७ श्रावक-श्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिकारोपण, सम्यक्त्वारोपण आदि व्रत धारण किये। सुगुरु चक्रवर्ती आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज प्रतिदिन वृद्धि प्राप्त शिष्य-प्राप्ति आदि लब्धि-सम्पन्न बड़े प्रभावशाली आचार्य थे। इन्होंने आर्य-अनार्य सभी देशों में जिनधर्म की प्रवृत्ति बढ़ाई। अनेकों भूपतियों को प्रतिबोध दिया था। निर्लोभता, सूरिमंत्र का आराधन, नाना शास्त्रों की व्याख्या करना, संवेग भावना, सुरासुरवशीकरण, प्रतिवादी निराकरण, सर्व ग्रामों और नगरों में जिन भवन-जिन प्रतिमा स्थापना करना आदि नाना प्रकार की लब्धि-शक्ति से गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी आर्य सुहस्तिसूरि, वज्रस्वामी, सूरिमंत्र के प्रभाव को प्रकट करने में प्रवीण आ० श्री वर्द्धमानसूरि, नवाङ्गी टीकाकार एवं स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी को प्रकट करने द्वारा उपार्जित विशुद्ध यश वाले आचार्य श्री अभयदेवसूरि तथा अनेकों देवताओं के आराध्य एवं मरुस्थली में कल्पद्रुम के अवतार श्री जिनदत्तसूरि, प्रतिवादी रूपी हस्ती समूह को बिखेरने में पंचानन सिंह समान श्री जिनपतिसूरि, अनेकों स्थानों में उत्तुंग तोरण व शिखरों से शोभित जिनमन्दिर तथा जिनप्रतिमाओं के प्रतिष्ठापकाचार्य जिनेश्वरसूरि आदि अपने पूर्वज युगप्रधान पुरुषों की पद्धति का इन्होंने पूर्णतया अनुकरण किया था। तपस्या, क्रिया, विद्या, व्याख्यान, ध्यान आदि के अतिशय से वशीभूत देवता, बड़े-बड़े म्लेच्छ व हिन्दू राजाओं द्वारा वन्दनीय चरण-कमल वाले युग-प्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के प्रधान शिष्य थे। इन्होंने युगप्रधान पद प्राप्ति के बाद प्रतिवर्ष वृद्धिंगत किए जाने वाले प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण, मालारोपण, महातीर्थ-यात्रा-विधान आदि कार्यों से विश्व भर में गोक्षीर, शिव के अट्टहास, हिमकण, चन्द्र किरण के समुदाय सदृश उज्ज्वल यश:ख्याति प्राप्त कर ली थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१८९) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९. व्याकरण, छन्द, अलंकार, उत्तम नाटक और अपरिमित प्रमाण (न्याय) शास्त्र प्रसिद्ध निर्दोष सिद्धान्तादि त्रैविध रूपी महानगर के मार्गों में प्राप्य जनों के प्रचार (प्रवेश) निमित्त सारथीभूत और अपने अति तीक्ष्ण-बुद्धि-बल से सुरगुरु (बृहस्पति) को भी पराजित करने वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने संवत् १३८५ फाल्गुन सुदि चतुर्थी के दिन उच्चानगर, बहिरामपुर, क्यासपुर आदि स्थानों से आने वाले खरतरगच्छीय श्रावकों के मेले में पदस्थापना, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं की दीक्षा, माला-ग्रहण आदि नन्दि महोत्सव बड़े विस्तार से किया। इसी महोत्सव में पंडित कमलाकर गणि को वाचनाचार्य पद दिया और नव दीक्षित क्षुल्लक व क्षुल्लिकाओं की उपस्थापना की। बीस श्राविकाओं ने माला ग्रहण की, अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिकारोपण, सम्यक्त्व-धारण आदि कार्य किये। ११०. इसके बाद सं० १३८६ में उपमातीत सच्चे अन्तःकरण की अति-दृढ़-भक्ति समुदाय रूपी शृंगार से सौभाग्यशाली, मंगलभूत श्री देव-गुरुओं की आज्ञा रूपी चिन्तामणि विभूषण को मस्तक पर चढ़ाने की भावना वाले, जिनशासन की प्रभावना रूपी भूमि-तन को सींचने में मेघ घटा का अनुसरण करने वाले बहिरामपुरीय खरतर संघ के विशेष आग्रह से युगप्रधानाचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज पार्श्वनाथ स्वामी के विधि-मन्दिरों में जाकर जिनकी सेवा से सब मनोरथ पूरे होते हैं ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् की विधिपूर्वक वन्दना की। आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज हमेशा सुविहित साधुओं के विहार क्रम से विचरने वाले थे। चौतरफ विस्तारित होने वाली अपनी कीर्तिप्रभा से प्राणियों के आंतरिक अज्ञान रूपी घोर अंधकार को हटाने वाले थे। अनेकों प्रकार के मांगलिक कार्य करने के लिए श्रावक संघ को जागृत करने वाले थे, स्वीकारे हुए चरण सित्तरी व करण सित्तरी के गुणों से अलंकृत देह वाले एवं उत्तम श्रावक-गण के परिवार वाले थे और भव्य जीव रूपी कमल वन को प्रबोधित करने में यानि प्रतिबोध देने में सदा उद्यत रहने वाले थे। श्रावकों के मोहान्धकार को हटाने के लिए बहिरामपुर पधारे और वहाँ पर नगर प्रवेश के समय सेठ भीमसिंह, सा० देदाजी, सा० धीराजी, सा० रूपाजी आदि बहिरामपुर वास्तव्य समग्र विधि-समुदाय ने स्वजन या परजन सभी के हृदयों में चमत्कार उत्पन्न करने वाला बड़े ही विस्तार से महान् उत्सव किया। उस प्रवेशोत्सव में अनेक लोग पूज्यश्री के सम्मुख आये। उनके द्वारा महाराज के कुन्द (मोगरे) के फूल तथा चन्द्र किरण सदृश श्रेष्ठ शम-दमादि अनेकविध संयम गुणों का उत्कीर्तन रूप निर्मल यशोवर्णन किया जाता था। रमणीय आकृति, सुन्दर-रूप-लावण्य आदि गुणों से युक्त महाराज अपनी महिमा के अतिशय से तीक्ष्ण धार वाले फरसे की तरह विघ्न-वेलड़ियों को काटने में दक्ष थे। वहाँ पर बहिरामपुरीय श्रावक समुदाय ने किसी चैत्य या प्रतिमा आदि की प्रतिष्ठा पूज्यश्री के कर-कमलों से करवाई। इस प्रतिष्ठा स्थापना महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए अनेक ग्रामों तथा नगरों से बहुत से श्रावक समुदाय आये थे। यावत् कमला गच्छ के श्रावक भी सम्मिलित थे। इस अवसर पर सभी की ओर से पारस्परिक स्पर्द्धापूर्वक साधर्मी-वात्सल्य, संघ-पूजा, अवारित सत्र आदि नाना प्रकार से शासन प्रभावनाएँ की गई थीं। नगर में एकटक देखने योग्य अनेक प्रकार के खेल तमाशों से जगह-जगह सुन्दर नृत्य के (१९०) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ पूज्यश्री के गुण-ग्राम का वर्णन किया जा रहा था। बहिरामपुर में कितने ही दिन ठहर कर और अपनी वाणी रूप किरणों से मिथ्यान्धकार को भगा कर उसके स्थान पर सम्यग् ज्ञान रूप महाप्रकाश का साम्राज्य फैलाया। इसके बाद क्यासपुर के खरतरगच्छीय श्रावक समुदाय के प्रबल अनुरोध से महाराज ने प्राचीन युग के उत्तम आगम (शास्त्र) रूप रत्न की मूल धारणा के अभाव वाले यानि जिन प्रणीतागम के यथार्थ ज्ञान से शून्यता वाले सूरियों से प्राप्त होते हुए अज्ञान रूप अंधकार के क्रीड़ा नगर तुल्य क्यासपुर की ओर विहार किया। मार्ग में श्री (सि) लार वाहण नामक गाँव के निवासी साह धीणिग, साह जेठू, साह वेला, साह महाधर आदि मुख्य-मुख्य श्रावक समुदाय ने जब सुना कि पूज्यश्री पधार रहे हैं, तब वे लोग अपने नगर के नवाब को साथ लेकर महाराज के सम्मुख आये और बड़े बाजे-गाजे के साथ महाराज का नगर में प्रवेश करवाया। यह प्रवेश महोत्सव भी बहिरामपुर की भाँति ही हुआ। उस प्रवेशोत्सव में बजने वाले नाना जातीय वाजित्रों की महान् आवाज सुनकर मयूरों को मेघ गर्जना का भ्रम होने से खूब नाचने लगे। मन्दिरों के द्वारों पर वंदनमालाएँ बाँधी गई थीं। यहाँ पर पूज्य श्री छः दिन विराजे। इन छहों दिनों में लगातार साधर्मी-वात्सल्य, अवारित सत्र और संघ-पूजा आदि कार्य बड़ी उत्तमता से होते रहे। इसके बाद सब को प्रबोध देने वाले जिनकुशलसूरि जी महाराज वहाँ से चलकर बीच में खोजा वाहन नामक नगर में पहुँचे। वहाँ के श्रावकों ने बड़े समारोह के साथ नगर में प्रवेश करवाया। १११. महाराज वहाँ से फिर क्यासपुर की ओर चले। महाराज को लेने के लिए क्यासपुर निवासी मुख्य-मुख्य श्रावकों का दल मार्ग में ही आ मिला। जिनमें सेठ मोहन जी, सा० कुमरसिंह, व्यव० खीमसिंह, सा० नाथू, साह जट्टड आदि श्रावकों के नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं, क्योंकि स्वाभाविक गुरु-भक्ति के रस में इनकी आत्मा अत्यन्त निमग्न थी। ये लोग जिसकी सीमा नहीं ऐसे विशाल विधि-मार्ग रूपी सरोवर में कलहंस के समान थे। श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के शुभागमन की खुशी में इन सभी के रोम-रोम खिल रहे थे। ये लोग क्यासपुर के नवाब से मांग कर दंडाधारी पुलिस के आठ मुस्लिम जवानों को साथ लेकर इसलिए आये थे कि नगर प्रवेश के समय कोई दुष्ट मनष्य किसी प्रकार का बखेडा उत्पन्न न कर सके। महाराज के स्वागत के लिए सेठ चाचिग आदि कमलागच्छ के श्रावक एवं अन्य लोगों ने उत्सव में भाग लिया था। उस समय नर-नारियों का खासा मेला लगा था। उस समय भादों मास के सजल जलधरों की गजरिव ध्वनि के समान गाजेबाजों की ध्वनि का तुमुल गुंजारव हो रहा था। महामिथ्यात्व के मर्म का नाश करने में कतरनी रूप चर्चरियां गायी जा रही थीं। सधवा नारियाँ तमाम अमंगल रूपी अग्नि की ज्वालाओं को शान्त करने में जल का काम करने वाले धवल मंगल गीत गा रही थीं। चारण-भाट आदि लोग उत्तम हस्ती के दाँत जैसे उज्ज्वल चरित्रों से प्रसरित महाराज के निर्मल यशोवर्णना गर्भित नूतन सरस रचना वाली कवितायें सुना रहे थे। तमाम सकर्ण (समझदार) मनुष्यों के कर्ण रूपी मृग बालकों को प्रिय लगे वैसे सुन्दर राग-रागिनियों से उत्तम गायक (गंधर्व) लोग गायन गा रहे थे। पूर्वकाल में कभी देखे न होने के कारण जैन श्वेताम्बर मुनियों के दर्शनार्थ उत्कण्ठित हुए अनेकों नर-नारियाँ अपने-अपने कार्यों को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९१) 2010_04 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़कर घरों के दरवाजे में, ऊपरी मंजिल में, छपरे व अगासी (छत) पर खूब जमा हो रहे थे। पूज्य श्री के अभूतपूर्व दर्शनों से आश्चर्यचकित होकर नगर निवासी समस्त नर-नारी कहने लगे-"अहो! इनका रूप-लावण्य विधाता की एक अनोखी रचना है। अहो! श्वेताम्बरों के बादशाह इन महाराज की शांतिप्रियता वर्णनातीत है। अहो! इन्द्रिय रूपी दुर्दमनीय घोड़ों को वश करने में इनकी चातुरी अपूर्व है। अहो! इनका शांत वेष सब मनुष्यों को आनन्द देने वाला है। इनके समान अन्य कोई तपस्वी नहीं है। इसलिए अनुयायी हजारों मनुष्य इनके गुण-ग्राम का वर्णन कर रहे हैं।" इस प्रकार हजारों अंगुलियाँ महाराज का परिचय दे रही थीं। "ये महाराज चिरकाल तक जीते रहें।" चारों ओर से ऐसी आशीर्वाद परम्परा सुनाई दे रही थी। पूज्यश्री के पुण्य के प्रभाव से बड़े-बड़े घरों की स्वयं आई हुई मदमाती सुन्दर स्त्रियाँ काम-कुंभ के समान उत्तम मंगल कलश मस्तक पर धारण किये हुए उत्सव के आगे शोभा बढ़ा रही थीं। महाराज ने अपने प्रभाव के अतिशय रूपी फरसी से सभी विघ्न बेलड़ियों को छिन्न-भिन्न कर आनन्द उमंग के साथ नगर में प्रवेश किया। महाराज प्रतिवादीरूप हाथियों के लिए सिंह के समान थे। इसलिए दुष्ट भी शिष्ट बन गए और म्लेच्छों ने भी श्रावक वृन्द की भाँति पूज्यश्री के चरणारविन्दों में विधिपूर्वक वन्दना की। महाराज का यह नगर प्रवेश वैसा ही हुआ, जैसा कि इतिहास प्रसिद्ध चौहान महाराजा पृथ्वीराज के द्वारा अजमेर में जिनपतिसूरि महाराज का हुआ था। इस महोत्सव की सफलता को देखकर कई एक विघ्न से सन्तुष्ट होने वाले दुष्टों की मुखाकृति फीकी पड़ गई थी। वहाँ पर महाराज ने अपने हाथ से प्रतिष्ठित सर्वकामनाओं को पूर्ण करने वाले श्री युगादिदेव भगवान् के पादारविन्दों में वन्दना की। क्यासपुर निवासी खरतर-समुदाय के विधि-मार्गोपदेशक, कोमल हृदय वाले कमलागच्छीय श्रावक भी ज्ञान, ध्यान, पवित्र चारित्र आदि सभी गुणों से सम्पन्न पूज्यश्री के अनन्य भक्त हो गए और इस खुशी के उपलक्ष में नाना प्रकार के पक्वानों, व्यंजनों व फलों से साधर्मी-बन्धुओं का उन्होंने अत्यधिक सत्कार किया एवं गरवे गाना, नाटक, खेल-तमाशे करना आदि कार्यों को करके शासन की महती प्रभावना की। महाराज ने भी कुतूहल वश आये हुए बड़े-बड़े यवन नेताओं को अपनी वचन चातुरी से आह्लादित कर उनके हृदय रूपी कन्दराओं में सम्यक्त्व बोध रूपी प्रकाश को पहुँचा कर मिथ्यात्व अंधकार को भगाया। सुश्रावक भविक-कमलों को सूर्य की किरणावली की तरह वचनावली से विकसित करने वाले तथा अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान करने वाले महाराज चौमासी पूर्णिमा के शुभ अवसर पर देवराजपुर पधारे। समस्त संघ समुदाय ने मिलकर प्रवेश महोत्सव करवाया। वहाँ पर महाराज ने युगादिदेव के मन्दिर में दर्शनार्थ पधार कर विधि से उनकी वन्दना की और वह चौमासा देवराजपुर में किया। ११२. इसके बाद सम्वत् १३८७ में सेठ नरपाल, साह हरिपाल, साह आँबा, साह लखण, साह वीकल आदि उच्चानगरी के श्रावक समुदाय के प्रबल आग्रह से १२ साधुओं को साथ लेकर महाराज उच्चानगरी पधारे। वहाँ पर एक मास तक ठहर कर पहले की तरह उनके तीर्थ-प्रभावना आदि कार्य किये और गुजरात के प्रधान नगर पाटण की तरह यहाँ भी अर्हत् धर्म का खूब विस्तार किया। इसके पश्चात् परशुरोर कोट के निवासी सेठ हरिपाल, साह रूपा, साह आशा, सा० सामल आदि मुख्य (१९२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकों के प्रबल अनुरोध से श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज वहाँ से चले। मार्ग में ग्रामानुग्राम अनेक श्रावकों के झुण्ड को लिये हुए, महाराज के शुभागमन से प्रफुल्लित होते नाना ग्रामों के श्रावक समुदाय की वन्दना स्वीकार करते हुए, ढोल-ढमाके के साथ महाराज ने परशुरोर कोट नगर में प्रवेश किया। प्रवेश के समय सुन्दर वस्त्र-आभरणों से सुसज्जित अनेक नर-नारी महाराज के सम्मुख आये थे। वहाँ पर कुछ दिन तक अपने सदुपदेशों से श्रावक समुदाय का हित साधन कर महाराज श्री बहिरामपुर आये। वहाँ पर भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में भक्ति से गद्-गद् होकर वन्दना की। कुछ दिन निवास कर पहले की तरह जिनशासन को खूब प्रभावित किया और वहाँ से विहार कर क्यासपुर आदि नगरों तथा ग्रामों में, ग्राम में एक तथा नगर में पाँच, इस रीति से रात्रियाँ बिता कर भव्यजनों के उपकार के लिए चौमासी तिथि पर श्रेष्ठ नगर देवराजपुर आये और श्री ऋषभदेव भगवान् के चरणों में आदर, श्रद्धा-भक्ति परिपूर्ण हृदय से वंदन किया। ११३. इसके बाद संवत् १३८८ में विमलाचल शिखर के अलंकारहारसम श्रीमानतुंग-विहार के श्रृंगार श्री प्रथम तीर्थंकर आदि जिनेश्वरों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, स्थापना, व्रत-ग्रहण, मालारोपण आदि धार्मिक कार्य सूरिजी ने करवाये। महाराज ने देश-विदेशों में भ्रमण कर ऐसे-ऐसे अनेक कार्य करवाये थे जिनके कारण सूरीश्वर का गोक्षीर-काच-कपूर के समान धवल यश त्रिलोकी में फैल गया था। बढ़े हुए श्रेष्ठ ज्ञान-ध्यान के बल से समय की अनुकुलता-प्रतिकूलता को पहिचान कर महाराज कार्य करते थे। अपने भुजबल से अर्जित ज्ञान बल से भक्त वृन्द के मनोरथ पूर्ण करने में देवद्रुम-कल्पवृक्ष को भी पराजित कर दिया था। सब समुदायों ने सुवर्णतिलक के समान उच्चापुरीय, बहिरामपुरीय, कयासपुरीय, सिलार वाहणीय आदि नाना नगर ग्राम निवासी विधि समुदाय तथा समस्त सिन्धु देश के श्रावक समुदायों के मेल में मिगसर सुदि दशमी के दिन पद-स्थापन, व्रत-ग्रहण, मालारोपण, सामायिक-ग्रहण, सम्यक्त्व-धारण आदि नन्दि महोत्सव बड़ी धूमधाम से किया। इसमें नाच-गान, खेल-कूद, तमाशे खूब ही करवाये गये और श्रीसंघ की पूजा, साधर्मी भाइयों को मनोवांछित भोजन तथा गरीबों को दान आदि कार्य धनी-मानी भाइयों की ओर से मुक्त हस्त होकर किये गये। भावी क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं को पुष्पांक दान देकर सम्मानित किया गया। उसी महोत्सव में गांभीर्य, औदार्य, धैर्य, स्थैर्य, आर्जव, विद्वत्ता, कवित्व, वाग्मित्व, साहित्य, ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि छत्तीस सूरि गुणों की खान पं० तरुणकीर्ति गणि जी को आचार्य पद प्रदान किया गया और "तरुणप्रभाचार्य" यह नया नाम रखा गया और पं० लब्धिनिधान गणि जी को "अभिषेक' (उपाध्याय) पद दिया गया तथा लब्धिनिधानोपाध्याय इस प्रकार नाम परिवर्तन किया गया। इसी अवसर पर दो क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाएँ भी हुई, जिनके नाम जयप्रिय मुनि, पुण्यप्रिय मुनि तथा जयश्री व धर्मश्री रखे गये व त्रयोदश श्राविकाओं ने माला-ग्रहण की। अनेक श्रावकश्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिक-ग्रहण एवं सम्यक्त्व-धारण की सफलता के लिए नन्दि महोत्सव भी किया। इस प्रकार पूज्य आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने अपने जीवनकाल में अनेक ग्राम-नगरों में विचरते हुए अपने पुरुषार्थ से समुपार्जित निर्निदान ज्ञानादि दान देने से संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९३) 2010_04 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लसित, हस्ति-दन्त के समान तथा मुक्तोद, क्षीरोद, क्षीरसमुद्र के झाग, शिव के अट्टहास एवं काश के समान निर्मल यश को चारों दिशाओं में फैलाया। ११४. उसके बाद आपका चौमासा जैन शासनावलंबी संघ के मूल-स्थान-तुल्य देवराजपुर में हुआ। उस चातुर्मास में श्री तरुणप्रभाचार्य और श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय को पूज्य महाराजश्री ने महान् तर्क रूपी रत्नों की खान सदृश स्याद्वादरत्नाकर नामक महा तर्क सिद्धान्त का जिसका परिशीलन आपने पहले नहीं किया था, बड़ी सूक्ष्म विचारणा सह उस सिद्धान्त का परिशीलन करवाया। अन्यान्य शिष्य मण्डली अपने-अपने शास्त्राभ्यास में संलग्न थी। इस समय महाराज को ऐसा भान हुआ कि अब मेरा शरीर अधिक दिन नहीं रहेगा। अतः स्वर्गश्री से पाणिग्रहण करने की विधि में इस क्षेत्र को शुद्ध समझ कर चौमासे बाद भी आप वहीं ठहरे। माघ शुक्ल पक्ष में.......... आपके शरीर में प्रबल ज्वर व श्वास की व्याधि ने बाधा खड़ी कर दी। महाराज ने उस व्याधि की स्थिति पर से अपने निर्वाण (देह त्याग) का समय निकट आया समझ कर तरुणप्रभाचार्य और लब्धिनिधान महोपाध्याय को श्रीमुख से आज्ञा दी कि-"मेरे बाद मेरे पाट पर मेरे शिष्यों में प्रधान. पन्द्रह वर्ष की आय वाले सेठ लक्ष्मीधर के पुत्ररत्न, सेठों में प्रधान सेठ आंबाजी की पुत्री साध्वी कीकी के नन्दन, युगप्रधान के गुण रूप लक्ष्मी के क्रीड़ा-लीला स्थान एवं मेरु पर्वत रूप उत्तम नंदन वन के समान सुन्दर आकृति वाले पद्ममूर्ति नामक क्षुल्लक को आचार्य पदार्पण कर पट्टधर बनाना।" ऐसा कह कर सं० १३८९ में फाल्गुन मास की कृष्ण पंचमी को दिन के तीसरे प्रहर सारे संघ को इकट्ठा कर, सबसे क्षमा याचना कर, स्वमुख से चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर अनशन स्वीकार किया। नाना प्रकार से आराधना का अमृतपान करते हुए, पंच परमेष्ठी के श्रेष्ठ ध्यान रूपी पाँच सौगन्धिक पदार्थों से मिश्रित ताम्बूलास्वादन से सुरभित मुख वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने दो पहर रात्रि बीतने पर इस असार संसार को त्याग कर स्वर्गरूपी लक्ष्मी से विवाह किया अर्थात् स्वर्गीय देवों की पंक्ति में अपना आसन जा जमाया। इसके बाद विद्युत्गति से यह समाचार फैलते ही विषम काल रूप कालरात्रि के अज्ञानान्धकार को हटाने में चतुर भास्कर, विधि-संघ के परम आधार युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी के अस्त होने से दुःखित अन्त:करण वाले, समस्त सिन्ध देशीय नगर-ग्राम निवासी श्रावकों का वृन्द एकत्रित हुआ। पचहत्तर मण्डपिकाओं से मंडित, सुन्दर चमकीले सुनहले दण्ड से सुशोभित, इन्द्र के निर्याण विमान के सदृश बनवाये गए निर्याण विमान से निर्वाण महामहोत्सव मनाया गया और कपूर, अगर तगर, कस्तूरी, मलयचंदन आदि सुगन्धित पदार्थों से ही दाह-संस्कार किया गया। उनकी दाह-भूमि पर रीहड़ (गोत्रीय) सेठ पूर्णचन्द्र के कुलदीपक सेठ हरिपाल श्रावक ने अपने पुत्र झांझण, यशोधवल आदि सर्व परिवार के साथ एक सुन्दर स्तूप बनवाया। यह स्तूप संघ के समस्त मनुष्यों की दृष्टि को सुधारस की तरह आनन्द देने वाला था। श्री भरत महाराज से बनवाये गये अष्टापद पर्वत के शिखर के शिरोभूषण-इक्ष्वाकु वंशोत्पन्न मुनिश्रेष्ठों के संस्कार भूमि के प्रधान स्तूप के सदृश था। मुस्लिम प्रधान सिन्ध देश के मध्य में बसने वाले श्रावकों के चित्त को अवष्टंभ (आश्रय) देने के लिए एक द्वीप समान था। (१९४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी-यह प्राकृत रचना श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा ७४ गाथाओं में रचित है। उन्होंने १३६८ में दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा नाम तरुणकीर्ति था। १३८८ में आचार्य पद देकर इनका नाम तरुणप्रभाचार्य रखा गया। इन्होंने चहुत्तरी कृति में लिखा है सर्वप्रथम कल्पवृक्ष के सदृश गुरुवर श्री जिनचन्द्रसूरि और भगवान् पार्श्वनाथ को नमस्कार करके युगप्रधान, अतिशयधारी सद्गुरु श्री जिनकुशलसूरि जी का गुणवर्णन करने का संकल्प करते हुए तरुणप्रभाचार्य महाराज कहते हैं कि मारवाड़ के समियाणा नगर में मंत्रीश्वर देवराज के पुत्र जेल्हागार थे। वे धर्मात्मा थे, उनकी बुद्धि अर्थ और काम के अपेक्षा धर्मध्यान में विशेष गतिशील थी। उसकी शीलवती स्त्री का नाम जयतश्री था जिसकी कुक्षि से वि०सं० १३३७ के मिती मार्गशीर्ष वदि ३ सोमवार के दिन शुभवेला में चन्द्रमादि उच्चस्थान स्थिति समय में पुनर्वसु नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। शुभकर्म साधना में सकर्म, लघुकर्मी होने से आपका नाम कर्मणकुमार रखा गया। सं० १३४६ मिती फाल्गुन सुदि ८ के दिन समियाणा के श्री शांतिजिनप्रासाद में श्री जिनचन्द्रसूरि जी के कर-कमलों से आपकी दीक्षा हुई। महोपाध्याय श्री विवेकसमुद्र गणि की चरण सेवा में रहकर आपने विद्याध्ययन किया और विद्यारूपी स्वर्णपुरुष की सिद्धि की। उस स्वर्णपुरुष के व्याकरण रूपी दो चरण, छंद-जानु, काव्यालंकार-उरुसंधि, नाटक रूपी-कटिमंडल, गणित-नाभि संवत, ज्योतिष-निमित्त-गर्त, धर्म-शास्त्र रूपी-हृदय, मूल श्रुत स्कंध-बाहु, छेदसूत्र-हाथ, छहतर्क-उत्तमांग आदि अंगोपांग थे। गुण श्रेणी रूप शिव-निसेणी पर आरुढ़ होकर मिथ्यात्व पट को देशना शक्ति से फाड़ डाला। उच्च चरित्र के प्रभाव से कषायों को उपशांत किया। ब्रह्मचर्य रूपी तीर से काम सेनापति का हनन कर डाला। अध्यवसान चक्रधारा से मोहराज को निप्तकर जय-जयकार कीर्ति पताका दशोदिशि में प्रसारित की। गुरुवर्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने चरित्रनायक की योग्यता से प्रभावित होकर सं० १३७५ मिती माघ सुदि १२ के दिन नागपुर के जिनालय में बड़े भारी संघ के मेले में चरित्रनायक को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। तत्पश्चात् विक्रम सं० १३७७ मिती ज्येष्ठ कृष्णा ११ गुरुवार को गुरुनिर्देशानुसार पाटण नगर के शांतिनाथ जिनालय में आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी के पट्ट पर इनको स्थापित करके जिनकुशलसूरि नाम प्रसिद्ध किया। इन्होंने महातीर्थ शत्रुजय के शिखर पर मानतुंग प्रासाद में ऋषभदेव स्वामी की; शत्रुजय, अणहिलपुर, जालोर, देरावर आदि अनेक स्थानों में जिन बिम्बों की तथा जैसलमेर में मूलनायक की स्थापना की। श्रीमाल श्रेष्ठी रयपति के संघ सहित शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा की। फिर ओसवाल वंश-शुक्ति-मौक्तिक साहु वीरदेव के साथ भी शत्रुजयादि की वंदना की। गुर्जर, मारवाड़, सिंध, सवालक्षादि देशों में विचरकर दीक्षा, मालारोपण, श्रावक-व्रतारोपण आदि द्वारा स्थान-स्थान में धर्म की प्रभावना की। वे सर्व विद्याओं के ज्ञाता थे, स्याद्वाद, न्यायशास्त्रादि दो बार शिष्यों को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९५) ___ 2010_04 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ाए। चैत्यवन्दन कुलक वृत्ति आदि सरस कथानक परोपकारार्थ रचे। विद्या-विनोद, कविताविनोद और भाषा-विनोद सतत चालू रहता था। गुरुदेव के एक-एक उपकार का वर्णन हजारों जिह्वाओं द्वारा भी नहीं किया जा सकता। अन्त में गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि जी ने अपना आयु शेष ज्ञातकर श्री तरुणप्रभसूरि को अपने पट्ट पर पद्ममूर्ति नामक शिष्य को अभिषिक्त करने का आदेश देते हुए उनका नाम जिनपद्मसूरि रखा जाना निर्दिष्ट किया। आप अनशन आराधनापूर्वक नवकार मंत्र का ध्यान करते हुए मिथ्यादुष्कृत देते हुए संलेखना सहित सं० १३८९ मिती फाल्गुन वदि ६ को देरावर में स्वर्ग को प्राप्त हुए। (गुर्वावली में पंचमी को रात्रि के तीसरे प्रहर का उल्लेख है अतः ज्योतिष गणना के आधार पर छठ कहे जाने में कोई विरोध दिखाई नहीं पड़ता।) वहाँ नंदीश्वर महाविदेह आदि में तीर्थङ्करों जिनवंदनादि सत्कार्यों में अपना काल निर्गमन करते हैं। इनकी यशोकीर्ति का गुणगान करने वाली दूसरी रचना जयसागरोपाध्याय द्वारा रचित जिनकुशलसूरिचतुष्पदी-सप्तति है। यह वि०सं० १४८१ में रची गयी है। इसके पश्चात् सैकड़ों की संख्या में संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं में इनके ऊपर स्तवन, छंद, गीत, लावणी, भास, अष्टक, नीसाणी आदि रचे गये। इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है-म० विनयसागर सम्पादित : दादागुरुभजनावली। इन्होंने अपने जीवनकाल में ५० हजार लोगों को जैनधर्म में दीक्षित कर उन्हें ओसवाल जाति में सम्मिलित कर कई नये गोत्र स्थापित किये। स्वर्गवास तिथि खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली - श्री जिनकुशलसूरि चरित्र में पृष्ठ ८१ पर लेख है-“सं० १३८९ फाल्गुन-कुष्ण-पञ्चम्यां......... रात्रिहरद्वयोद्देशे स्वर्गकमलापाणिपीडनविधिं विदधुः।' अर्थात् संवत् १३८९ फाल्गुन वदि पञ्चमी की रात्रि के तीसरे प्रहर में श्री जिनकुशलसूरिजी का स्वर्गवास हुआ। इसी सन्दर्भ में कई गुर्वावलियों में भी फाल्गुन वदि पञ्चमी को ही स्वर्गवास का उल्लेख प्राप्त होता है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं१. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १६७४ तक के वर्णन वाली गुर्वावली पत्र ३ में "संवत् १३८९ फागुन वदि ५ देवराजपुरे दिवं गमनम्।” । २. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १६१२ तक के वर्णन वाली ७ पत्रात्मक प्रति में "संवत् १३८९ फागुण वदि ५।" ३. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १६१२ के लगभग जिनचन्द्रसूरि तक की ३३ पत्रात्मक प्रति में-"संवत् तेरह सइ निवासीइ फागुण वदि ५ तिथइ श्री देराउर स्वर्ग प्राप्ता।' ४. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १६७४ तक के वर्णन वाली १८ पत्रात्मक प्रति में-“फागुण वदि पाँच तिथइ देराउर स्वर्ग प्राप्ति ।' (१९६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १७१२ के लगभग जिनचन्द्रसूरि के राज्य काल की ६ पत्रात्मक प्रति में-"श्री राउरे फागुण वदि पाँच सं० १३८९ सूर्यस्ति।" ६. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १७१२ के लगभग जिनचन्द्रसूरि के राज्य काल की १९ पत्रात्मक प्रति में-“संवत् तेरह सय निवासीय फागुण वदि पाँच तिथइ श्री देराउर स्वर्गइ प्राप्त ।" ७. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १८०० वैशाख वदि दूज मरोट में लिखित ५ पत्रात्मक प्रति में-"श्री देरावर फागुण वदि ५ संवत् १३८९ दिवंगता स्तूपमस्ति ।” ८. श्री जिनहरिसागरसूरिजी संग्रह की संवत् १६१२ के लगभग की ६ पत्रात्मक प्रति में"संवत् १३८९ फागुण वदि ५ तिथौ श्री देवराजपुरे स्तूप निवेशः।" ९. श्री फूलचन्दजी झाबक, फलौदी के संग्रह की पत्र १ की प्रति में-"५४, श्री जिनकुशलसूरिछाजहड़ गोत्र (सं०) १३८९ फागुण वदि ५ देराउरे स्वर्ग पहुता।" १०. पाली खरतरगच्छ श्रीपूज्यजी के संग्रह में संवत् १५३३ के लगभग की प्रति में और संवत् १६१२ के लगभग की प्रति में-“संवत् १६८९ फागुन वदि ५ देवराजपुरे दिवं गमनम्।" ११. साहित्य मन्दिर, पालीताणा नं० ६०१ की ६ पत्रात्मक पट्टावली में-"सं० १३८९ वर्षे फागुण वदि ५ दिने श्री देराउरे स्वर्गे पहुता।" उक्त प्रमाणों से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि श्री जिनकुशलसूरिजी का स्वर्गवास फाल्गुन वदि पञ्चमी को हुआ था। किन्तु विक्रम संवत् १८०० के पश्चात् वदि पञ्चमी के स्थान पर वदि अमावस्या कैसे मान ली गई? यह एक शोध का विषय है। महोपाध्याय क्षमाकल्याण ने खरतरगच्छ पट्टावली, रचना संवत् १८३० में फाल्गुन वदि अमावस्या का उल्लेख किया है। इसके पश्चात् की परम्परा तो आज तक स्वर्गवास दिवस फाल्गुन वदि अमावस ही मानती आ रही है। इनका स्वर्गवास देवराजपुर (देराउर) में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तानसिन्ध में है और सेना के अधिकार में है। अतः वहाँ एक मिट्टी के टीले के अतिरिक्त कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है। उस टीले की पवित्ररज प्राप्त कर जयपुर के निकट देराउर दादाबाड़ी में स्थापित की गयी है। कहा जाता है कि भक्त की आराधना से प्रभावित होकर उन्होंने मालपुरा में सशरीर दर्शन दिया था, वहीं प्रस्तर पर अंकित चरण विद्यमान हैं और इनका प्राचीन स्थल माना जाता है। भारत के कोने-कोने में तृतीय दादा गुरुदेव के नाम से प्रत्यक्ष प्रभावी और मनोवांछित पूर्ण करने वाले माने जाते हैं। देश के प्रत्येक दिशा में इनकी मूर्तियाँ-चरण आदि स्थापित हैं। आज भी देश भर में १५०० दादाबाड़ियाँ हैं जिनमें मुख्यतः जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि की प्रतिमायें और चरणचिह्न स्थापित हैं और आज भी पूज्य हैं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१९७) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० १३८९ भाद्रपद सुदि ४ को इनके उपदेश से श्रावक कुमारपाल ने कल्पचूर्णि की प्रतिलिपि करायी जो आज जैसलमेर ज्ञान भंडार में सुरक्षित है। इनके द्वारा रचित चैत्यवन्दन-कुलकवृत्ति और कतिपय स्तोत्र प्राप्त हैं। समकालीन रचनाकार तरुणप्रभसूरि - षडावश्यकबालावबोध, लब्धिनिधान - चैत्यवन्दनकुलकवृत्तिटिप्पणक, विनयप्रभ उपा० - गौतमरास, कविपद्म, धर्मकलश, सारमूर्ति आदि। परम्परा विनयप्रभोपाध्याय के पौत्र शिष्य क्षेमकीर्ति हुए जिन्होंने ५०० धाडेती (बराती) लोगों को एक साथ दीक्षा दी थी। इसी कारण क्षेमकीर्ति के नाम से एक उपशाखा का प्रादुर्भाव हुआ, जो वर्तमान में भी क्षेमधाड़ शाखा के नाम से विद्यमान है। प्रतिष्ठित प्रतिमालेख (प्राप्त) खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली में इनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करने का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें से कुछ आज भी उपलब्ध होती हैं। इनका विवरण एवं मूलपाठ इस प्रकार है १. समवसरण (धातुः) सम्वत् १३७९ मार्ग व० ९ (५) आ। जिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीसमवसरण (ण) प्रतिष्ठितं कारितं सा० वीजडसुतेन सा० पातुसुश्रावकेण || १. जैन तीर्थ सर्व संग्रह भाग-२, पृष्ठ ३७२, पार्श्वनाथ मन्दिर, हाला २. महावीर-एकतीर्थीः । ॐo सम्वत् १३०९ (? १३७९) मार्गशीर्ष वदि ५ श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्री महावीरदेवबिम्बं प्रतिष्ठितं कारितं च स्वश्रेई (य) से भण गांगा सुतेन भण0 बचरा सुश्रावकेण पुत्र सोनपाल सहितेन ॥ २. जयन्तविजय, आबू भाग-२, लेखांक ५२७, कुन्थुनाथ मन्दिर, अचलगढ़ ___ ३. जिनचन्द्रसूरि-मूर्तिः सं० १३७९ मार्ग व० ५ खरतर० श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीजिनचन्द्रसूरि........... प्रतिमा प्रतिष्ठितं ॥ ३. विनयसागर, नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, लेखांक ८, शान्तिनाथ मन्दिर भण्डारस्थ, नाकोडा ४. जिनरत्नसूरि-मूर्तिः सम्वत् १३७९ मार्ग वदि ५ श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्य श्रीजिनरत्नसूरिमूर्ति श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः (१९८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठिता कारिता ॥ ४. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक १४४, देरी नं० ७८४/३४/२ शत्रुजय ५. पद्मप्रभः सम्वत् १३७९ श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीपद्मप्रभबिम्बं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च शा० हेमल पुत्र कडुआ शा० पूर्णचन्द्र शा० हरिपालकुलधर-सुश्रावकैः पुत्र काकुआ प्रमुखसर्वकुटुम्बपरिवृतैः स्वश्रेयोर्थं ॥ शुभमस्तु ॥ ५. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११९, देरी नं० ११४ खरतरवसही परिकर, शत्रुजय ६. महावीरः सम्वत् १३७९ श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीमहावीरदेवबिम्बं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं शा० सहजपाल पुत्रैः शा० धाधल शा० गयधर शा० थिरचन्द्र सुश्रावकैः सर्वकुटुम्बपरिवृतैः......... भगिनि धारणि सुश्राविका श्रेयोर्थं ॥ ६. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११८, देरी नं० १०१ खरतरवसही परिकर, शत्रुजय ७. अनन्तनाथः सं० १३७९ श्रीमत्पत्तने श्रीशान्तिनाथीयचैत्य श्रीअनन्तनाथदेवस्य बिम्ब श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं ।। कारितं व्य० ब्रह्मशान्ति व्य० कडुक व्य० मेतुलाकेन ॥ ७. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ८७, देरी नं० ९७/२ समवसरण परिकर, शत्रुजय सम्वत् १३७९ श्री शत्रुअये यु......... श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं ॥ ८. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ८२, देरी नं० ६७/३ समवसरण परिकर, शत्रुजय ९. पार्श्वनाथ-पञ्चतीर्थीः सं० १३९९ (? १३७९) भ० श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रतिष्ठितं कारितं च सा केशव पुत्ररत्न सा जेहदु सुश्रावकेन पुण्यार्थं। ९. नाहर, जैन लेख संग्रह, भाग-२ लेखांक १५४५, पद्मप्रभमन्दिर, लखनउ १०. महावीरः सं० १३८० कार्तिक सुदि १२ (? १४) खरतरगच्छालङ्कार-श्रीजिनकुशलसूरि श्रीमहावीरदेवबिम्बं प्रतिष्ठितं ॥ १०. जिनहरिसागरसूरि लेख संग्रह, अप्रकाशित, जैन मन्दिर, सराणा ११. पञ्चतीर्थीः सम्वत् १३८० वर्षे कार्तिक शु० १३ (? १४) खरतरजिनभद्र (? चन्द्र) सूरिपट्टालङ्कार.......... संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (१९९) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितं ॥ श्रीजिनकुशल... ११. बुद्धिसागरसूरि, जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग-१, लेखांक २३६, भाभा पार्श्वनाथ मन्दिर, पाटण १२. अम्बिका - मूर्तिः (धा० ) ॥ ९० ॥ सं० १३८० कार्तिक सु० १४ श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्री अम्बिका प्रतिष्ठिता ॥ १२. जैन तीर्थ सर्व संग्रह भाग-२, पृष्ठ ३७२, पार्श्वनाथ मन्दिर, हाला १३. जिनप्रबोधसूरि - मूर्तिः ॥ ॐ ॥ सं० १३८१ वैशाख वदि ५ श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्ये श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीजिनप्रबोधसूरिमूर्ति प्रतिष्ठिता ॥ कारिता च सा० कुमरपालरत्नैः सा० महणसिंह सा० देपाल सा० जगसिंह सा० मेहा सुश्रावकैः सपरिवारैः स्वश्रेयोर्थं ॥ छ ॥ १३. नाहर, जैन लेख संग्रह भाग-२ लेखांक १९८८, पार्श्वनाथ मन्दिर, देलवाड़ा (मेवाड़); देवकुलपाटक, लेखांक ८; विजयधर्मसूरि, प्राचीन लेख संग्रह, लेखांक ५६ १४. अम्बिका - मूर्तिः सं० १३८१ वैशाख व० ५ श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः अम्बिका प्रतिष्ठिता ॥ १४. नाहटा, बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक १३१२, महावीर मन्दिर वेदों, का बीकानेर १५. मुनिसुव्रतः सम्वत् १३८० आषाढ़ वद ८ (७) श्री शत्रुञ्जये श्रीमुनिसुव्रतस्वामिबिम्बं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च ..... मया त० रामल० त० राजपाल पुत्र न० नानड न० नेमिचन्द्र न० दुसल श्रावकैः पुत्र न० वीरम-डमकु - देवचन्द्र - मूलचन्द्र - महणसिंह निजकुटुम्ब श्रेयोर्थं ॥ शुभमस्तु ॥ ठारपुरिष्ठ १५. शत्रुंजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११७, देरी नं० १०० खरतरवसही, परिकर, शत्रुंजय १६. नमिनाथः सम्वत् १३८१ वर्षे वैशाख वदि ९ गुरौ वारे खरतरगच्छीय श्रीमद् जिनकुशलसूरिभिः श्रीनमिनाथदेवबिम्बं प्रतिष्टितं ...... देवकुलप्रदीपक..... श्रीमद्देवगुरुआज्ञाचिन्तामणि- सङ्गमकेन......॥ १६. शत्रुंजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११३, देरी नं० ८६ खरतरवसही, परिकर, शत्रुंजय १७. शान्तिनाथ - पञ्चतीर्थीः . खरतर श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्री शान्तिनाथबिम्बं का० सं० १३८१ वर्षे आषाढ़ वदि .... प्र० श्रेयोर्थं देहसुतेन धामासुश्रावकेण ॥ १७. बुद्धिसागरसूरि, जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग-१, लेखांक ३७८, महावीर मन्दिर, पाटण (२०० ) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. धर्मनाथः सम्वत् १३८१ श्रीधर्मनाथबिम्बं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च । सा० सामत सुत सा० राउल भार्या तेजु पुत्रैः सा० धणपति सा० नरसिंघ सा० रणसिंघ सा० गोविन्द सा० भीमसिंह उकेशगच्छे (सातेउरीगच्छे) राऊल भार्या श्रेयोर्थं ॥ छः॥ शुभं भवतु चतुर्विधसंघस्य ॥ १८. शत्रुजयगिरिराज दर्शन, लेखांक ११२, देरी नं० ८६ खरतरवसही, परिकर, शत्रुजय १९. पार्श्वनाथ-पञ्चतीर्थीः || ॐ ॥ सम्वत् १३८३ वर्षे फाल्गुन वदि नवमी दिने सोमे श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्य श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रतिष्ठिता कारितं दो० राजा पुत्रेण दो० अरसिंहेन स्वमातृ पितृ श्रेयोर्थं ॥ १९. नाहटा, बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक १७६७, सुपार्श्वनाथ मन्दिर, बीकानेर २०. अम्बिका-मूर्तिः ॥ ॐ ॥ सं० १३८४ माघ सु० ५ श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च...... सा.उ. ....... . पाली स॥ २०. विनयसागर, प्रतिष्ठा लेख संग्रह भाग-१, लेखांक १२४, पार्श्वनाथ मन्दिर श्रीमालों की दादावाड़ी, जयपुर २१. पञ्चतीर्थीः सं० १३८४ माघ सु० ५ श्रीजिनकुशलसूरिभिः प्रतिष्ठितं कारितं च शा० बडेर पालीका २१. जिनहरिसागरसूरि, अप्रकाशित, बड़ा मन्दिर, नागौर २२. आदिनाथ-पञ्चतीर्थीः सं० १३८४ माध सु० ५ श्रीजिनकुशलसूरिभिः श्रीआदिनाथबिम्बं प्रतिष्ठितं कारितं च सा० सोमण पुत्र सा० लाखण श्रावकेन भावग हरिपाल युतेन । २२. नाहटा, बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक २९९, चिन्तामणि मन्दिर भूमिगृह, बीकानेर 卐卐॥ (२०१) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनपद्मसूरि ११५. इसके बाद सं० १३९० ज्येष्ठ सुदि छठ सोमवार को मिथुन लग्न में देवराजपुर में युगादिदेव भगवान् के विधि-चैत्य में तरुणप्रभाचार्य ने श्री जयधर्म महोपाध्याय, श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि तीस मुनि, अनेक साध्वियों, नाना देश, नगर-ग्राम-निवासी स्वपक्षी-परपक्षी अगणित श्रावक, ब्राह्मण, ब्रह्मक्षत्रिय, राजपूत, यवन, नवाब आदि हजारों मनुष्यों की अगणित उपस्थिति में श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की आज्ञा के अनुसार पद्ममूर्ति' नामक क्षुल्लक को उनके पाट-सिंहासन पर स्थापित किया गया और पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के आदेशानुसार उनका नाम परिवर्तन कर श्री जिनपद्मसूरि घोषित किया गया। इस पाट महोत्सव के शुभ अवसर पर अमारि-घोषणा, नानाविध प्रभावना, अवारित सत्र, तालपूर्वक रासगान, सौभाग्यवती कुलीनललनाओं का मंगलमय गायन व प्रमोद नृत्य, पुष्कावर्तमेघ की भाँति अखण्ड रूप से धन-धान्य, वस्त्र, सुवर्ण, तुरंग आदि बहुमूल्य अनेक वस्तुओं का दान इत्यादि विविध धर्म कार्य किये गये। धनिकों ने चतुर्विध संघ-पूजा में धन-व्यय का सुयश संचित किया। यह महोत्सव रीहड़ कुल में दीपक के समान, सेठ धनदेव के पुत्ररत्न सेठ हेमल के पुत्र सेठ पूरणचन्द्र के सुपुत्र, जिन-शासन को प्रभावित करने में प्रवीण सेठ हरिपाल श्रावक ने सर्वदेशों-नगरों-ग्रामों में कुंकुम पत्रिकाएँ भेज कर चारों ओर से, सर्व स्थानों से विधि-संघों को आमंत्रित कर, एक मास तक स्वागत कर, इस उत्सव को अपने विपुल धनव्यय से सफल बनाया। इसी हरिपाल श्रावक ने शत्रुजय, गिरनार आदि महातीर्थों की यात्रा की थी। इसी ने युगप्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि और श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज को सिन्ध देश में विहार करवाया था। अनेकों मुनियों को आचार्य पद, उपाध्याय पद दिलाने के साथ अपनी पुत्री को दीक्षा दिलायी थी। इसने हस्तिदंत के समान उज्ज्वल सुयश को पैदा करने वाले अनेकों पुण्य कार्यों से दिग्दिगन्तरों तक अपने कुटुम्बियों की ख्याति की थी। इन कार्यों में अपने चाचा सेठ कटुक एवं भतीजे कुलधर और अपने सुपुत्र सा० झांझण, सा० यशोधवल आदि सभी कुटुम्बियों को सदैव साथ रखकर अग्रसर होता था। इस महोत्सव में संघ-पूजा, साधर्मी-वात्सल्य आदि कार्यों में हजारों रुपये इसने अपने पास से लगाये थे। यह सदैव याचक वर्ग को मानसिक सन्तोष देने में तत्पर रहता था। उस उत्सव में सेठ आंबा, सा० झांझा, सा० मंमी, सा० चाहड़, सा० धुस्सुक, सा० मोहण, सा० नागदेव, सा० गोसल, सा० कर्मसिंह, सा० खेतसिंह, सा० बोहित्थ आदि नाना स्थानों के निवासी धनी श्रावकों ने अपने-अपने धन का सदुपयोग किया था। उक्त अवसर पर श्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने जयचन्द्र, शुभचन्द्र, हर्षचन्द्र इन तीन मुनियों को तथा महाश्री, कनकश्री इन दो क्षुल्लिकाओं १. श्री जिनपद्मसूरि जी की दीक्षा सं० १३८४ मा० सु० ५ को प्रतिष्ठा महोत्सवादि अनेक आयोजनों में ९ क्षुल्लक और ३ क्षुल्लिकाओं के दीक्षोत्सव के साथ होने का उल्लेख आगे आ चुका है। इनके पिता का नाम अंबदेव (साधु श्री सहकारदेव सत्पुत्र मुनीश्वर) था। खरतरगच्छ प्रथम-खण्ड (२०२) 2010_04 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दीक्षा दी। पं० अमृतचन्द्र गणि को वाचनाचार्य का पद प्रदान किया। अनेक श्राविकाओं ने माला ग्रहण की। बहुत से श्रावक-श्राविकाओं ने सम्यक्त्व-धारण, सामायिक-ग्रहण तथा परिग्रह-परिमाण का व्रत लिया। तदनन्तर ज्येष्ठ सुदि नवमी के दिन सेठ हरिपाल ने युगादिदेव श्री ऋषभदेव आदि अर्हत् प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा-महोत्सव पदस्थापना-महोत्सव की तरह बड़े विस्तार से करवाया। उसमें संस्कार भूमि के स्तूप और जैसलमेर तथा क्यासपुर स्थानों के लिए बनाई गई श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की तीन प्रतिमाओं की भी प्रतिष्ठा की गई। उसी (ज्येष्ठ सुदि नवमी के) दिन चतुर्विध संघ के महान् समुदाय के समक्ष युगप्रवरागम आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की मूर्ति उनके संस्कार-स्थान वाले स्तूप में स्थापित की गई। तत्पश्चात् पट्टाभिषेक (सूरिपदारोहण) महोत्सव में आये हुए जैसलमेर के विधि समुदाय की गाढ़तर अभ्यर्थना से पूज्यश्री उपाध्याय-युगल आदि बारह साधुओं को साथ लेकर जैसलमेर की तरफ विहार किया और क्रमशः जैसलमेर पहुँचे। वहाँ पर जैसलमेर के विधि-संघ-समुदाय द्वारा किये गये स्वपक्ष-परपक्ष, हिन्दू, म्लेच्छ आदि सब के लिए आनन्दकारी महान् विस्तृत प्रवेश महोत्सवपूर्वक नगर में प्रवेश किया और देवाधिदेव पार्श्वनाथ भगवान् को नमस्कार किया। महाराज का यह पहला चातुर्मास यहीं हुआ। ११६. तदनन्तर सं० १३९१ पौष वदि दशमी के दिन मालारोपण आदि महोत्सव को विस्तारपूर्वक करवाकर लक्ष्मीमाला गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया। वहाँ से महाराज ने बाड़मेर की ओर विहार किया। वहाँ पर साह प्रतापसिंह, सा० सातसिंह आदि श्रावक समुदाय ने और श्री चाहमान (चौहान) कुलदीपक राणा श्री शिखरसिंह आदि राजपुरुष एवं अन्य नागरिक लोगों को सम्मुख लाकर बड़े ठाठ के साथ महाराज का नगर प्रवेश करवाया। वहाँ पर सर्वप्रथम महाराज ने मन्दिर जाकर युगादिदेव को विधिपूर्वक भाव से वन्दना की। बाड़मेर में दस दिन तक श्रावक-समुदायों को सदुपदेश देकर पूज्यश्री ने सत्यपुर (सांचौर) की ओर विहार किया। वहाँ पर राजमान्य, समस्त संघ के कार्य संचालन में समर्थ सेठ नींबाजी आदि श्रावकों ने राणा श्री हरिपालदेव आदि राजकीय प्रधान पुरुषों तथा अनेकों नगरवासियों को सम्मुख लाकर बड़े ठाठ-बाट से नगर प्रवेश करवाया। वहाँ पर पूज्यश्री ने श्री महावीर भगवान् की सादर सविनय वन्दना की। सांचौर के समस्त समुदाय ने एक राय होकर माघ सुदि छठ के दिन सब मनुष्यों के मन को हरने वाला व्रत-मालारोपणादि महोत्सव किया। इस अवसर पर पूज्यश्री ने नयसागर और अभयसागर नामक दो क्षुल्लकों को दीक्षा दी। अनेक श्राविकाओं ने माला-ग्रहण और सम्यक्त्व-धारण किया। यहाँ पर लगभग एक मास ठहर कर पूज्यश्री ने श्रावक समुदाय का समाधान किया। फिर वहाँ से चलकर संघ के प्रधान पुरुष सेठ वीरदेव आदि के अनुरोध से धूमधाम के साथ आदित्यपाट नगर में प्रवेश कर भगवान् श्री पार्श्वनाथ प्रभु को विधिपूर्वक नमस्कार किया। वहाँ से चलकर माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन आप पत्तन पधारे, वहाँ पर नवलक्षक (नौलखा) कुल में प्रदीपतुल्य उदार चरित्र वाले सेठ अमरसिंह ने बड़े ठाठ से आपका प्रवेश महोत्सव किया, जिसे देखकर स्व-पर-पक्ष के सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। वहाँ पर महातीर्थ स्वरूप तीर्थंकर देव श्री शान्तिनाथ भगवान् को नमस्कार किया। वहाँ पर माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सेठ श्री संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२०३) ___ 2010_04 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाल्हणजी के कुल में मुकुटमणि तुल्य सेठ तेजपाल आदि श्रावकों ने मिलकर बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठा महामहोत्सव करवाया। उस महोत्सव में श्री ऋषभदेव स्वामी आदि पाँच सौ जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा पूज्यश्री के हाथ से करवाई गई। तत्पश्चात् फाल्गुन वदि षष्ठी के दिन मालारोपण, सम्यक्त्वधारण आदि महोत्सव हुआ। ___इसके बाद संवत् १३९२ मार्गशीर्ष वदि षष्ठी के दिन दो क्षुल्लकों को बड़ी दीक्षा प्रदान और श्राविकाओं के मालाग्रहण के निमित्त एक उत्तम उत्सव किया गया। ११७. इसके बाद सं० १३९३ में कार्तिक के महीने में अवस्था में छोटे होते हुए भी पूज्यश्री ने अपना आवश्यक कर्त्तव्य समझ कर सेठ तेजपाल द्वारा विस्तारपूर्वक करवाये गये घनसार नन्दि महोत्सव के पूर्व पंचमंगल महाश्रुतस्कंध रूप नमस्कार महामंत्र का "प्रथमोपधान तप" बड़ी उत्तमता से वहन किया। इसके बाद श्री जीरावला नगर के अलंकारसम भगवान् जीरावली पार्श्वनाथ को वन्दन करने की इच्छा से अत्यन्त कठिन अभिग्रहधारक और श्री श्रीमालकुल के मुकुट सेठ सोमदेव श्रावक की अत्यधिक आग्रहपूर्ण विज्ञप्ति होने से महाराज ने फाल्गुन सुदि दशमी के दिन पाटण से चलकर जीरापल्ली के अलंकारभूत भगवान् श्री पार्श्वनाथ देव की वन्दना की। वहाँ से विहार कर नारउद्र (नाड़ोद) पधारे, वहाँ पर मंत्रीश्वर गोहाक ने बड़े ठाठ से प्रवेशोत्सव किया। दो दिन ठहरे और फिर वहाँ से विहार कर श्री आशोटा नामक स्थान को गये। आशोटा में सेठ श्यामल जी के कुलभूषण, शत्रुजयादि महातीर्थों की यात्रा करने से विश्वविख्यात, नाना प्रकार से सदाचारी, श्रीसंघ के प्रधान पुरुष सेठ वीरदेव-श्रावक ने विधि-संघ के श्रावक समुदाय एवं राजा श्री रुद्रदेव के पुत्र राजा गोधाजी तथा सामंतसिंह आदि समस्त राजवर्गी तथा बड़े-बड़े नागरिक लोगों को सम्मुख लाकर बड़े ठाठ-बाट से महाराज का नगर में प्रवेश करवाया। यह प्रवेश महोत्सव श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के भीमपल्ली प्रवेशोत्सव से भी विशेष महत्त्वशाली हुआ। वहाँ से चलकर महाराज बूजद्री नामक स्थान में आये। यद्यपि मार्ग बड़ा विकट था और डाकू तथा हिंसक जन्तुओं की भरमार थी, नदी-नाले, पहाड़ आदि के कारण जमीन भी बड़ी ऊबड़-खाबड़ थी, परन्तु मार्ग में सेठ मोखदेव श्रावक की ओर से सुप्रबन्ध होने के कारण पूज्यश्री नगरवर्ती राजमार्ग की भाँति निःशंक हो अपने प्राप्य स्थान (बूजद्री) को सकुशल पहुंच गए। बूजद्री में मोखदेव' श्रावक सेठ छज्जलजी के विशाल कुल गगनतल का अलंकारभूत चमकीला सूर्य था। उसने समस्त विधि-संघ के श्रावक समुदाय को साथ में लेकर चाहमानवंशरूपी मानस सरोवर के राजहंस तथा अपनी प्रतिज्ञा के निभाने में अद्वितीय बूजद्री के राजा उदयसिंह को तथा समस्त नागरिक लोगों को सम्मुख लाकर बड़े ठाठ-बाट से पूज्यश्री का नगर में प्रवेश करवाया। ११८. उसी वर्ष श्रेष्ठिवर्य मोखदेव ने सेठ राजसिंह के पुत्र सेठ पूर्णसिंह, सेठ धनसिंह आदि सकल कुटुम्बियों से परामर्श कर श्री राजा उदयसिंह की तरफ से राजकीय सहायता पाकर अर्बुदाचल (आबू पर्वत) आदि तीर्थों की यात्रा संघ सहित करने के लिए पूज्य श्री से प्रार्थना की। ज्ञान-ध्यान में १. संभव है-बूजद्री संघ के प्रतिनिधि होकर महाराज को लिवाने आशोटा आए हों। (२०४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने युगप्रधान पूर्वाचार्यों का अनुकरण करने वाले पूज्यश्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने अपने दैवी ज्ञान-बल से यात्रा की निर्विघ्नता को जान कर और तीर्थ-यात्रा धर्म-प्रभावना का सबसे बड़ा अंग है, सम्यक्त्व की निर्मलता का निदान है, यह सुश्रावकों को अवश्य करने योग्य है, ऐसा समझ कर मोखदेव श्रावक को अपनी ओर से अनुमति दी। पूज्यश्री का आदेश पाने पर सपादलक्ष और श्रीमालपुर आदि प्रान्तीय संघ के प्रधान पुरुष श्रेष्ठिवर्य साह बीजा, साह देपाल, साह जिनदेव, साह सांगा आदि स्वपक्षीय-परपक्षीय महानुभावों को तथा अन्य संघों को तीर्थ-यात्रा निमंत्रण के लिए कुंकुम पत्रिकाएँ भेज कर बुलाये। मार्ग में समस्त संघ की देखभाल निगाह-निगरानी का भार साह मूलराज और साह पद्मसिंह को सौंपा गया। सेठ मोखदेव ने तीर्थयात्रा में साथ चलने योग्य देवालय के आकार का एक रथ बनवाया, जिसमें चैत्र शुक्ला षष्ठी आदित्यवार के दिन श्री शान्तिनाथ भगवान् के बिम्ब की स्थापना करके महाराज से वासक्षेप करवाया। इसके बाद बड़े ठाठ-बाट से अठाई महोत्सव किया गया। बूजद्री निवासी सेठ काला, साह कीरतसिंह, साह होता, साह भोजा आदि विधि-संघ तथा मंत्री ऊदा आदि अन्य श्रावक संघों को साथ लेकर चैत्र सुदि पूर्णिमा के दिन शुभ मुहूर्त में देवालय सहित संघ ने प्रस्थान किया। पूज्यश्री भी श्री लब्धिनिधानोपाध्याय, वा० अमृतचन्द्र गणि आदि पन्द्रह मुनियों और जयर्द्धि महत्तरा आदि आठ साध्वियों को साथ लेकर संघ के साथ तीर्थ-यात्रा को चले। ११९. मार्ग में श्री बूजद्री संघ को सोलख (नागौर) प्रान्तीय संघ मिल गया। ये दोनों संघ मिलकर श्री नाणा तीर्थ में आये। वहाँ पर सेठ सूरा आदि मुख्य-मुख्य श्रावकों ने तथा सेठ मोखदेव ने इन्द्रपद आदि पदों को ग्रहण कर बड़ी प्रभावना की और श्री महावीर भगवान् के खजाने में दो सौ रुपये नगद देकर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया। इसके बाद शुभ शकुनों से अत्यधिक उत्साहित होते हुए और समस्त श्रीसंघ द्वारा होड़ा-होड़ से पूजित-सेवित पूज्य महाराज श्री तीर्थराज आबू पहुँचे। वहाँ पर अर्बुदाचल के अलंकार, सकल जन मनोहारक, भारतीय प्राचीन शिल्प कला के सार, प्रसिद्ध मन्दिर श्री विमल विहार, श्री लूण विहार, श्री तेजसिंह विहार के मूल अलंकारसम श्री ऋषभदेव एवं नेमिनाथ प्रमुख तीर्थंकरों की भक्ति-भाव से वन्दना की। वहाँ श्रेष्ठी मोखदेव आदि समस्त श्रीसंघ ने इन्द्र पद, अमात्यपद आदि पद-ग्रहण, महाध्वजारोपण, अवारित-सत्र आदि अनेक महोत्सव किये और पाँच सौ रुपये भगवान् के भण्डार में प्रदान कर अपने धन को सफल किया। वहाँ से चलकर आचार्यश्री ने समस्त श्रीसंघ सहित प्रह्लादनपुर के स्तूप में अलंकार समान युगप्रधान श्री जिनपतिसूरि जी महाराज की प्रतिमा को मुद्रस्थला ग्राम में आकर नमस्कार किया। इसके बाद जीरापल्ली में आकर समस्त संघ सहित पूज्यश्री ने जाग्रत प्रभावरूपी लक्ष्मी से सनाथ यानि प्रकट प्रभावशाली श्री पार्श्वनाथ भगवान् की वन्दना की। वहाँ पर श्रीसंघ ने इन्द्रपद आदि महोत्सव का विधान किया और १. जो कि सं० १२८० वैशाख शुक्ला १४ के दिन पालणपुर में ही आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी महाराज के शिष्यरत्न श्री जिनहितोपाध्याय जी के वरद कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवा के स्थानीय विधि-समुदाय के श्री संघ ने स्थापित की थी। संभव है पीछे से किसी अज्ञात कारण वश वही प्रतिमा मुद्रस्थला में लाकर स्थापित की गई हो। अतः उस प्रतिमा को वंदन निमित्त यह संघ श्री मद्रस्थला गया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२०५) 2010_04 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् के भण्डार में डेढ़ सौ रुपये प्रदान कर धन का सदुपयोग किया। वहाँ से चलकर समग्र संघ चन्द्रावती नगरी आया। वहाँ पर सेठ झांझण, मंत्री कूपा आदि नगर निवासी उत्तम श्रावक वृन्द ने साधर्मी-वात्सल्य, श्रीसंघ-पूजा आदि के विधान से संघ का बड़ा सम्मान किया। संघ ने वहाँ भी इन्द्र आदि पद के ग्रहण से श्री युगादिदेव के मन्दिर कोश में दो सौ रुपये प्रदान किये। वहाँ से विदा होकर पूज्यश्री ने समस्त संघ के साथ आरासन नामक (कुंभारिया जी तीर्थ) स्थान में श्री नेमीश्वर आदि पाँच चैत्य रूप पंच तीर्थों को नमस्कार किया और श्रीसंघ ने इन्द्र-पदादि ग्रहण कर डेढ़ सौ रुपये वितरण किए। तदनन्तर श्री तारंगाजी तीर्थ में आकर समस्त यात्री दल ने श्री कुमारपाल भूपाल के कीर्तिस्तम्भ रूप अजितनाथ भगवान् को प्रणाम किया। वहाँ पर विशेष प्रकार से इन्द्र-पदादिग्रहण निमित्त दो सौ रुपये देकर धन को सफल किया। वहाँ से लौटकर श्रीसंघ त्रिशृंगम् आया। वहाँ पर मंत्रिवर सांगण जी के पुत्ररत्न मंत्री मंडलिक, मंत्री वयरसिंह, साह नेमा, साह कुमारपाल, साह महीपाल आदि स्थानीय श्रीसंघ ने महाराज श्री महीपाल के पुत्र महाराजा श्री रामदेव जी को ज्ञात कर उनकी आज्ञा से बड़े ही ठाठ-बाट के साथ श्रीसंघ का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया। वहाँ पर पूज्यश्री ने समस्त चतुर्विध संघ के साथ बड़े समारोह से समस्त जिन-मन्दिरों में दर्शन करने रूप चैत्य-परिपाटी की और श्रीसंघ ने अन्य स्थानों की तरह इन्द्र आदि पदों को स्वीकार कर डेढ़ सौ रुपये श्री पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिरों में भेंट चढ़ाये। १२०. चारों दिशाओं से फैलने वाले महाराज के गुण-गण और कीर्ति सम्वाद को सुनकर राज- सभा के सदस्यों सहित महाराज रामदेव के हृदय में पूज्यश्री के दर्शन की उत्कण्ठा जागृत हुई और सेठ मोखदेव एवं मंत्री मंडलिक को कहा कि-"छोटी सी उम्र वाले होने पर भी आपके गुरु महाराज का भारी बुद्धि प्रकर्ष सुनने में आता है, इसलिए उनके दर्शनों के लिए मैं चलूँ अथवा तुम लोग उन्हें यहाँ मेरी सभा में लाओ।" उसके बाद सा० मोखदेव और मंत्री मंडलिक ने उपाश्रय में आकर बड़े आग्रहपूर्वक आचार्यश्री से विज्ञप्ति की। उनका विशेष आग्रह देखकर आचार्य महाराज श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि साधुओं के परिवार के साथ महाराज रामदेव की सभा में पधारे। राजा रामदेव ने पूज्यश्री को दूर ही से आते हुए देखकर अपने राज सिंहासन से उठ कर पूज्यश्री की चरण वन्दना की और पूज्यश्री के बैठने निमित्त चौकी बिछवाई। पूज्यश्री ने शुभ आशीर्वाद दिया। मुनिराजों के विराजने के बाद श्री सारंगदेव नामक महाराज के व्यास ने जो वहाँ सभा में ही बैठा था, अपनी रची हुई संस्कृत कविता सुनाई और उसकी व्याख्या की। उनकी रचना में श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय जी ने क्रिया सम्बन्धी त्रुटि बतलाई। इस बात से राजा रामदेव के हृदय में आश्चर्य हुआ और बारम्बार सभा में कहने लगे कि-"इन उपाध्याय जी महाराज की वाक्पटुता और समस्त शास्त्रों का रहस्य ज्ञान अलौकिक शक्ति का परिचायक है। इन्होंने हमारी सभा के प्रौढ़ विद्वान् व्यास जी की रचना में भी अशुद्धि दर्शा दी है।" इसी प्रकार अन्य सभासद भी आश्चर्य से अपना मस्तक धुनते हुए पूज्य श्री और उपाध्याय जी के गुणों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। पूज्यश्री ने तात्कालिक आर्या छंद से श्री रामदेव महाराज का वर्णन इस प्रकार किया (२०६) खरतरगच्छ प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहितं सुवर्णसारङ्गलोभिनाऽपि त्वयाऽद्भुतं राम!। यत्ते लङ्कापुरुषेण ननु ददे श्रीर्वरा सीता॥ [हे भूपति रामदेव! निश्चय ही सुवर्ण सारंग के लोभी होकर भी आपने अद्भुत कार्य किया है जो कि आपको लंका पुरुष ने उत्तम संपत्ति रूप सीता प्रदान की है। यानि सुवर्ण सारंग (सुवर्णमय मृग) के लोभी होने पर महाराजा रामचन्द्र की शील सौभाग्यादि उत्तम सम्पत्तिशाली आर्या सीता को लंका पुरुष (लंकाधिपति रावण) ने हर ली थी जबकि आप सुवर्ण सारंग (सोना या हस्ती अथवा सुवर्ण-शुक्लादि उत्तम वर्ण वाले हस्तियों) के लोभी होने पर भी लंका पुरुष ने आपको उत्तम संपत्ति रूप सीता प्रदान की है।] इस भावगर्मित आर्या (गाथा) को सुनकर सारी सभा आश्चर्य निमग्न हो गई। इसके बाद राजा साहब रामदेव ने तत्रस्थ सिद्धसेन आदि आचार्यों को बुलाकर उनके समक्ष राजसभा के कायस्थज्ञातीय पण्डित द्वारा कथित काव्य को विकट (स्पष्ट) अक्षरों में पूज्यश्री से लिखवाया। इस नूतन दृष्ट राजसभा में भी स्वभाव-सिद्ध-प्रगल्भता (हाजर जवाबीपन) को धारण करने वाले पूज्यश्री ने उस उल्लिखित काव्य को एक बार सरल रीति से बाँच कर पोंछ डाला। बाद में मुख द्वारा अविच्छिन्न वाग्धारा से नाममाला (कोष) को गुणते हुए स्वकर-कमल से उसी श्लोक को दूसरी बार वक्रता से लिख दिया। सभी सभासद लोग पूज्यश्री की ओर एकटक निगाह से निहारने लगे। इसके बाद पूज्यश्री ने आये हुए आचार्यश्री सिद्धसेनसूरि तथा सारंगदेव व्यास एवं महाराजा रामदेव के सभासद कायस्थ से उनके अभिमत भिन्न-भिन्न तीन श्लोकों के १-१ अक्षर लिखवा कर पोंछ डाले। फिर दूसरी बार तीसरी बार करते हुए यावत् तीनों श्लोक पूर्ण होने तक १-१ अक्षर आ० सिद्धसेनादि तीनों से पूज्य श्री लिखवाते गये और स्वयं पोंछते गये। यावत् तीनों श्लोक पूर्ण हो जाने पर अप्रतिम-प्रतिभाशाली पूज्य श्री जिनपद्मसूरि जी महाराज ने वे तीनों ही श्लोक सम्पूर्ण एक पट्टी पर लिख दिये। इस अत्युत्तम क्लिष्ट कार्य को करके पूज्यश्री ने अपने श्लोक (प्रशंसात्मक साधुवाद) रूप हंस को खेलने के लिए तीनों जगत् में भेज दिया। यानि इस अनन्य साध्य कार्य से सर्वत्र आपकी बड़ी भारी ख्याति हुई। इस प्रतिभा के चमत्कार को देखकर राजसभा के समस्त लोग कि-"यद्यपि इस विषम कलिकाल में सब लोगों की कलाएँ लुप्तप्राय हो गई हैं, फिर भी जिनशासन में अतिशय कला-कलाप को धारण करने वाले पूज्यश्री जैसे सूरिवर अब भी भूमण्डल पर वर्तमान हैं।" इस प्रकार महाराज का गुणवर्णन किया जाने लगा। इस भाँति पूज्यश्री ने राजा रामदेव की सभा में चमत्कार दिखला कर वहाँ से लौट कर श्रीसंघ के आवास स्थान पर पदार्पण किया। १२१. समस्त चतुर्विध संघ सहित पूज्यश्री वहाँ से चलकर चन्द्रावती नगरी आदि के मार्ग से चलते हुए बूजद्री स्थान में वापिस आए। वहाँ पर तीर्थ यात्रा में चतुर्विध संघ के सारे भार को निभाने वाले, बिना किसी कामना के सोना-चाँदी, वस्त्र, घोड़ा आदि मुख्य-मुख्य वस्तुओं के सुपात्र दान से अपने धन को सफल बनाने वाले संघपति सा० मोखदेव श्रावक ने महाराज उदयसिंह आदि राज्याधिकारी व नागरिक लोगों को सम्मुख लाकर गाजे-बाजे के साथ चतुर्विध संघ सहित रथस्थ देवालय का प्रवेश महोत्सव किया। पूज्यश्री ने अपने मुनि परिवार के साथ इसी स्थान पर चातुर्मास किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२०७) Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ तक तो सारा वृत्तान्त "खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली" का ही प्रायः अनुवाद है। इससे आगे का वृत्तान्त उपाध्याय श्री मक्षमाकल्याण जी गणिवर रचित पट्टावल्यादि अन्यान्य साधनों के आधार पर लिखा गया है। आचार्य जिनपद्मसूरि जी के विषय में यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि एक बार जब वे यात्रार्थ श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय आदि मुनियों के साथ बाड़मेर गये हुए थे तब वहाँ लघुद्वार वाले मन्दिरों में विशालकाय भगवान् महावीर की मूर्ति देख कर बाल्य स्वभाव से प्रेरित हो ये शब्द कहे कि बूहा णंढा वसही वड्डी अन्दरि किउं करि माणी ___ अर्थात् इतने छोटे द्वार वाले मन्दिर के अन्दर इतनी विशाल मूर्ति कैसे लाई गई है। इससे कितने ही श्रावकों को असन्तोष व अरुचि भी पैदा हुई, किन्तु शीघ्र ही विवेकसमुद्रोपाध्याय जी ने उसका समाधान कर दिया। इसके बाद जब आप गुजरात के लिए विहार कर रहे थे, उस समय मार्ग में सरस्वती नदी के किनारे ठहरे। तब एकान्त में यह चिन्ता हुई कि-"कल गुजरात पहुँच कर पत्तनीय संघ के सम्मुख धर्मदेशना देनी है और मैं बालक हूँ, कैसे धर्मदेशना दे सकूँगा?" तो सरस्वती नदी के किनारे ठहरने के कारण सरस्वती ने सन्तुष्ट होकर वरदान दिया और आपने प्रातः काल पाटण पहुँच कर "अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता" इत्यादि शार्दूलविक्रीड़ित छन्दोबद्ध नवीन काव्य का निर्माण कर उसका ऐसा सुन्दर विवचन पत्तनीय संघ के सम्मुख किया कि सब आश्चर्यचकित हो गए और आपको-"बाल धवल कूर्चाल सरस्वती" इस उपाधि से सुशोभित किया गया। सोमकुंजर कृत पट्टावली में-"कूर्चालि सरस्वती विरुद् पार्टाण जासु संघहिं दिद्धउ ॥ २६ ॥" लिखा है। संवत् १४०० में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन आपका अल्पायु में ही स्वर्गवास हो गया। विशेषा खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली में इनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। इनमें से एक प्रतिमा आज उपलब्ध है। इस पर उत्कीर्ण लेख निम्नानुसार है पार्श्वनाथ-पञ्चतीर्थीः सम्वत् १३९१ मा०स० १५ खरतरगच्छीय श्रीजिनकुशलसूरिशिष्यैः श्रीजिनपद्मसूरिभिः श्री पार्श्वनाथप्रतिमा प्रतिष्ठिता कारिता च मव० बाहि सुतेन रत्नसिंहेन पुत्र आल्हादि परिवृतेन स्वपितृव्य सर्व पितृव्य पुण्यार्थं । (नाहर, जैन लेख संग्रह, भाग-२, लेखांक १९२६, पार्श्वनाथ मन्दिर, करेड़ा) १. संभव है सूरि पद प्राप्ति के बाद प्रथम चातुर्मास जैसलमेर करके जब आप बाड़मेर पधारे उस समय की यह घटना हो, परन्तु विवेकसमुद्रोपाध्याय जी का स्वर्गवास जिनपद्मसूरि जी की दीक्षा से ६ वर्ष पूर्व सं० १३७८ ज्येष्ठ सुदि २ को हो चुका था। उनके स्थान पर लब्धिनिधानोपाध्याय जी हो सकते हैं जो आगे चलकर श्री जिनलब्धिसूरि नाम से इन्हीं के पट्टधर आचार्य बने। (२०८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि आचार्य श्री जिनपद्मसूरि जी के पट्ट पर श्री जिनलब्धिसूरि जी अभिषिक्त हुए। श्री तरुणप्रभाचाय कृत श्री जिनलब्धिसूरि चहुतरी के अनुसार आपकी प्रामाणिक जीवनी यहाँ प्रस्तुत है । माड देश के जैसलमेर महादुर्ग में यादव राजा जयतसिंह के राज्य में दुर्गस्थित पार्श्वनाथ जिनालय शाश्वत चैत्यों का ख्याल कराने वाला है । वहाँ ओसवाल वंश की नवलखा शाखा में धणसिंह श्रावक हुए जिनकी भार्यारत्न खेताही की कुक्षि से सं० १३६० मार्गसिर शुक्ला १२ के दिन अपने ननिहाल सांचौर में लक्खणसीह का जन्म हुआ । अणहिलपुर में विचरते हुए श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का उपदेशामृत पान कर सं० १३७० मिती माघ शुक्ला ११ को दीक्षित हुए। आपका नाम लब्धिनिधान रखा गया। श्री मुनिचन्द्र गणि के पास स्वाध्याय, आलापक, पंजिका, काव्यादि तथा श्री राजेन्द्रचन्द्राचाय के निकट नाटक, अलंकार, व्याकरण, धर्मप्रकरण, प्रमाण- शास्त्रों का अध्ययन कर मूलागमों का अभ्यास किया । दमयन्तीकथा, काव्यकुसुममाला, वासवदता, कम्मपयड़ी आदि शास्त्र पढ़े। श्री जिनकुशलसूरि जी के पास महातर्क खण्डनादि तथा तरुणप्रभाचार्य के साथ विषम ग्रन्थों का अभ्यास किया । इनके क्षान्त, दान्त आदि गुणों की कान्ति को देखकर वचन - कलादि से मुग्ध होकर सब लोग सिर धुनते हुए आश्चर्य प्रकट करते थे । सं० १३८८ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ११ के दिन देरावर में श्री जिनकुशलसूरि जी ने इन्हें उपाध्याय पद से अलंकृत किया, जिसका वर्णन आगे आ चुका है। सं० १३८९ के चातुर्मास में इन्हें स्याद्वाद - रत्नाकर, महातर्क रत्नाकर आदि ग्रन्थों का परिशीलन करवाया था । इन्होंने प्रथम भुवनहितोपाध्याय को पढ़ाया एवं जनपद्मसूरि, विनयप्रभ, सोमप्रभ को प्रमाण, आगमादि विद्याओं का अभ्यास कराया। सं० १४०० के मिती आषाढ़ मास की प्रथम प्रतिपदा को पाटण के श्री शान्तिनाथ जिनालय में श्री तरुणप्रभाचार्य ने आचार्य प्रवर पूज्य श्री जिनपद्मसूरि के पद पर श्री लब्धिनिधानोपाध्याय को आचार्य पदाधिष्ठित कर श्री जिनलब्धिसूरि नाम प्रसिद्ध किया । इन्होंने गुजरात, मारवाड़, सवालक्ष, लाट, माड, सिन्धु, सौरठ आदि देशों में विचरण कर स्थान-स्थान पर महोत्सवादि द्वारा शासन प्रभावना की । चारों दिशाओं में शासन भवन के निमित्त चार पद बनाये। तीन उपाध्याय, चार वाचनाचार्य, ८ शिष्य साधु और दो आर्याएँ कीं। अपने प्रगटित गुण माहात्म्य से राय वणवीर, मालग प्रमुखादि से पद सेवा कराई। इस प्रकार अतिशयवान आचार्य महाराज ने अपना आयु शेष जान कर अपने पट्ट योग्य शिक्षा देकर सं० १४०४ मिती आश्विन शुक्ला १२ के दिन नागौर में समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। श्रीसंघ ने १. खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय २३ में भी - " नवलख कुलि धणसीह नंदणु सुप्रसिद्धउ । खेताहि तिय कुखि जाउ, बहु गजर समिद्धउ ।" लिखा है। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ३५) आचार्य पद के लिए भी पृ० २६ के १० वें छप्पय में - " सयचउदह जिणलबधि सूरि पट्टहि सुप्रसिद्धउ, आषाढह वदि पड़वि, तहवि पट्टागम किद्धउ" लिखा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२०९) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके स्मारक स्तूप का निर्माण बड़े प्रशस्त रूप से करवाया। मुनि सहजज्ञान रचित श्री जिनचन्द्रसूर विवाहलउ के अनुसार आपने अपने अन्तिम समय में यशोभद्र मुनि को पट्टाभिषेक करने की शिक्षा दे गये थे। वे अष्टावधानी और बड़े विद्वान् थे। त्रिशृंगम की राजसभा में और सं० १३९३ के तीर्थ यात्रा में आप श्री जिनपद्मसूरि जी के साथ थे, जिसका उल्लेख आगे आया ही है। श्री जिनपद्मसूरि जी की पदस्थापना के समय ये महोपाध्याय थे। श्री जिनकुशलसूरि जी कृत चैत्यवन्दनकुलकवृत्ति पर आपने टिप्पण लिखा। १ शांतिस्तवन, २ वीतराग विज्ञप्तिका, ३, ४, ५ पार्श्वनाथ स्तवन, ६ प्रशस्ति आदि आपकी रचनाएँ भी प्राप्त हैं। आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि । श्री क्षमाकल्याण जी कृत पट्टावली में आपका जन्म छाजहड़ गोत्र में सं० १३८५ में और दीक्षा सं० १३९० में केवल पाँच वर्ष की उम्र में होने का लिखा है, वह वास्तव में भ्रामक है। मुनि सहजज्ञान रचित वीवाहलो के अनुसार आपका जन्म मरुदेश के कुसुमाण गाँव में मंत्री केल्हा की पत्नी सरस्वती की कोख से हुआ था। आपका नाम पाताल कुमार था। दिल्ली नगर से संघपति रयपति का विशाल यात्री संघ जब कुसुमाणे में आया तो मंत्री केल्हा भी उसमें सपरिवार सम्मिलित हो गए। यह संघ सं० १३८० में निकला था और उसमें मंत्री केल्हा के सम्मिलित होने का उल्लेख आगे आ चुका है। क्रमशः शत्रुजय पहुँचने पर तीर्थपति श्री ऋषभदेव प्रभु के दर्शन कर संघ ने अपना जन्म सफल माना। वहाँ गच्छनायक श्री जिनकुशलसूरि का वैराग्यमय उपदेश श्रवण कर पाताल कुमार को दीक्षा लेने का उत्साह प्रकट हुआ, पर माता से अनुमति प्राप्त करना कठिन था। अन्त में किसी प्रकार माता ने प्रबोध पाकर आज्ञा दे दी और पाताल कुमार को सूरिजी ने वासक्षेप देकर उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया। यथासमय दीक्षा की तैयारियाँ होने लगी। मंत्री केल्हा ने चतुर्विध विधि-संघ की पूजा की। याचकजनों को मनोवांछित दान दिया। पाताल कुमार का वर घोड़ा निकला और वे दीक्षा लेने गुरु महाराज के निकट आये। गुरुदेव ने उन्हें आषाढ़ वदि ६ के दिन युगादिदेव के समक्ष महोत्सवपूर्वक दीक्षा दी और नाम यशोभद्र रखा। इनके साथ देवभद्र की भी दीक्षा हुई थी जिसका उल्लेख आगे आ चुका है। सं० १३८१ मिती वैशाख वदि ६ के दिन पाटण में प्रतिष्ठा महोत्सव के समय इनकी बड़ी दीक्षा होने का उल्लेख आगे यथास्थान आया है। आपने श्री अमृतचन्द गणि के पास विद्याध्ययन किया। यथासमय पढ़-लिखकर योग्यता प्राप्त होने पर श्री जिनलब्धिसूरि जी अपने अंतिम समय में यशोभद्र मुनि को अपने पद पर प्रतिष्ठित करने की शिक्षा दे गए। तदनुसार श्री तरुणप्रभसूरि ने सं० १४०६ मिती माघ सुदि १० को जैसलमेर में आपको गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया। पाट महोत्सव हाथी साह ने किया। सं० १४०४ में श्री जिनलब्धिसूरि जी के स्वर्गवास समय ये पास में नहीं थे, मालूम होता है। (२१०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यथा उसी वर्ष पट्टाभिषेक हो जाता क्योंकि श्री जिनलब्धिसूरि जी अंतिम शिक्षा दे ही गए थे। सं० १४१४ आषाढ़ वदि १३ के दिन स्तंभ तीर्थ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी का स्वर्गवास हुआ। कूपाराम रमणीय प्रदेश में आपका स्तूप निवेश किया गया। आचार्य श्री जिनोदयसूरि आपका जन्म सं० १३७५ में पाल्हणपुर निवासी माल्हू गोत्रीय साह रुद्रपाल की धर्मपत्नी धारल देवी की रत्न कुक्षि से हुआ था। आपका जन्म नाम समर कुमार (समरिग) था। सं० १३८२ में वैशाख सुदि ५ को भीमपल्ली के श्रीमहावीर विधि-चैत्य में पिता रुद्रपाल कृत उत्सव से बहिन कील्हू के साथ आचार्य प्रवर श्री जिनकुशलसूरि जी के कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम सोमप्रभ रखा गया। सं० १४०६ में जैसलमेर में श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने स्वहस्त से इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। सं० १४१५ ज्येष्ठ कृष्ण' १३ को स्तम्भ तीर्थ में श्री अजितनाथ विधि-चैत्य में लूणिया गोत्रीय साह जैसल' कृत नन्दि महोत्सव द्वारा तरुणप्रभाचार्य ने आपकी पद स्थापना की। तदनन्तर आपने स्तम्भतीथ में अजित जिन-चैत्य की प्रतिष्ठा की तथा शजय तीर्थ की यात्रा की। वहाँ पर पाँच प्रतिष्ठाएँ की। आपने २४ शिष्य और १४ शिष्याओं को दीक्षित किया एवं अनेकों को संघपति, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा आदि पदों से अलंकृत किया। इस प्रकार पंच पर्व (पाँचों तिथि) के उपवास करने वाले, बारह गाँवों में अमारि घोषणा कराने वाले तथा २८ साधुओं के परिवार के साथ अनेक देशों में विहार करने वाले आचार्यश्री का सं० १४३२ भाद्रपद वदि एकादशी को श्री लोकहिताचार्य को अपने पद योग्य अंतिम शिक्षा देकर पाटण नगर में स्वर्गवास हुआ। भक्त संघ द्वारा स्तूप प्रतिमा की स्थापना हुई। ___इनके विषय में विज्ञप्ति पत्र के आधार पर कुछ विशेष वृत्त ज्ञात हुआ है, यह विज्ञप्ति श्री जिनोदयसूरि जी के शिष्य मेरुनन्दन गणि ने लिख कर सं० १४३१ में अयोध्या में विराजमान श्री लोकहिताचार्य को भेजी थी। इसमें उन्होंने अपनी और गुरु जिनोदयसूरि जी की यात्रा का विस्तृत वर्णन दिया है। वे लिखते हैं : १. राजलाभ-सुदि १३, क्षमाकल्याण-आषाढ़ सुदि २, समयसुन्दरीय पट्टावली में आषाढ़ वदि १३ लिखा है। २. जयसोमीय गुरुपर्वक्रम तथा ज्ञानकलश कत रास आदि के अनसार पट्टाभिषेक महोत्सव दिल्ली निवासी श्रीमाल रुद्रपाल, नींबा, सधरा के पुत्र संघवी रतना पूनिग और शाह वस्तुपाल ने किया था। ३. इनकी दीक्षा सं० १३७४ कात्तिक वदि ६ को श्री जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से उच्चापुरी में हुई, दीक्षा नाम भुवनहित था। आचार्य पद के अनंतर ये लोकहिताचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। आचार्य पद श्री जिनोदयसूरि ने दिया था। गच्छनायकों के साथ संभवतः इनका विचरण कम हुआ जिससे इनका इतिवृत अज्ञात है। किन्तु सं० १४३१ में आचार्य श्री जिनोदयसूरि के शिष्य मेरुनन्दन गणि ने अयोध्या में विराजमान आपको जो विज्ञप्ति पत्र भेजा था, उससे कुछ बातों पर प्रकाश पड़ता है। इसके बाद अणहिल्लपुर का वर्णन है। वहाँ से तेजकीर्ति गणि, हर्षचन्द्र गणि, भद्रशील मुनि, पण्डित ज्ञानकलश मुनि, धर्मचन्द्र मुनि, मेरुनन्दन मुनि, मुनितिलक मुनि, ज्ञाननन्दन मुनि, सागरचन्द्र मुनि आदि शिष्य संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२११) 2010_04 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम प्रात:काल परिषदा में व्याख्यान देते हैं, दोपहर को ज्ञानकलश मुनि को जैनागम की वाचना देते हैं एवं उन्हें और मेरुनन्दन मुनि, ज्ञाननन्दन मुनि तथा सागरचन्द्र मुनि को साहित्य-लक्षणादि शास्त्र पढ़ाते हैं। नागपुर (नागौर) से दो छोटे लेख आपके पास भेजे। उसके बाद फलवद्धिका (फलौदी) में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार किया। उसके बाद फिर नागौर में मोहण श्रावक द्वारा मालारोपण करवाया। इसके बाद राजा खेत के परम प्रसाद पात्र साधुराज रामदेव श्रावक ने मेदपाट (मेवाड़) में हमें आमंत्रित किया। हम श्रावकों सहित कुशमानपुर (कोसवाणा) पहुँचे और जिनचन्द्रसूरि के चरणों से पवित्रित स्तूप को नमस्कार किया। शुद्धदन्तीपुरी (सोजत) में पाँच दिन ठहरे। आषाढ़ की प्रथम द्वादशी के दिन नदकूलवती (नाडोल या नाडोलाई) में श्री महावीर को नमस्कार किया। प्रात:काल श्रीमाल कुल के सा० भादा के पुत्र तोल्हा श्रावक ने महोत्सव से अपने स्थान पर बुलाया और हमने विधिपूर्वक वर्ष-ग्रन्थि पर्व मनाया। वहाँ पन्द्रह दिन ठहरे। फिर पैदल सिपाहियों सहित साधुराज रामदेव हमें लेने आया। दो प्रहर में सब मार्ग को पार कर हमने मेवाड़ के कपिल पाटक (केलवाड़ा) नामक सुसज्जित नगर में श्री विधिबोधिद विहार के श्री करहेटक (करहेड़ा) पार्श्वनाथ की सादर वन्दना की और वहाँ चातुर्मास किया। मार्गशीर्ष के प्रथम षष्ठी के दिन श्री भागवती दीक्षा महोत्सव हुआ। दीक्षाएँ ये थीं :पूर्व नाम दीक्षा नाम १. चौरासी गाँवों में अमारि घोषणा कराने के लिये प्रसिद्ध मंत्रीश्वर अरसिंह की संतान बोथरा गोत्रीय लाखा का पुत्र धीणाक मंत्री कल्याणविलास मुनि मंडल सहित श्री जिनोदयसूरि ने अपनी पर्युपास्ति निवेदन की है। विज्ञप्ति अयोध्या भेजी गई थी। उसका आठ श्रोकों में अच्छा वर्णन है। उस अनेक विशेषण-युता नगरी में रत्नसमुद्र गणि, राजमेरु मुनि (ये आगे चलकर श्री जिनराजसूरि हुए) स्वर्णमेरु मुनि, पुण्यप्रधान गणि आदि यतिवरों सहित श्री लोकहितसूरि विराजमान थे। इससे पूर्व श्री रत्नसमुद्र मुनि द्वारा श्रावण (नभस) मास में लिखित विज्ञप्ति को प्राप्त कर श्री जिनोदयसूरि आदि अत्यन्त आनन्द प्राप्त कर चुके थे। उन्हें मालूम हो चुका था कि श्री लोकहिताचार्य ने उपदेशमाला का व्याख्यान करते हुए चातुर्मास व्यतीत किया है और पण्डित रत्नसमुद्र गणि, पं० सुवर्णमेरु मुनि, पण्डित राजमेरु मुनि आदि ने कर्मग्रन्थ पर किसी टीका का निर्माण किया है। उससे यह भी ज्ञात हुआ कि ठक्कुर चन्द के पुत्र मंत्रिदलीय वंशोद्भव राजदेव श्रावक द्वारा सूचित तीर्थ यात्रा में श्री लोकहिताचार्य मगधदेश में विहार प्रदेश के समुदाय को प्रसन्न करते हुए राजगृह पहुँचे और मुनिसुव्रत जिनेश्वर की वन्दना की। तदनन्तर वैभारगिरि एवं विपुलाचल पर जिन-प्रतिमाओं को नमस्कार किया। श्रावकों ने नवीन जिन-प्रासादों का निर्माण कर श्री ब्राह्मण कुण्ड और क्षत्रिय कुण्ड को विशेष रूप से भूषित किया। वहाँ से लौटकर विहारादि स्थानों में पहुँचे। पुनः वापिस जाकर वैभार और विपुलाचल पर जिन-प्रतिमाओं को नमस्कार किया और अनेक की सविस्तार प्रतिष्ठा की। वहाँ से होते हुए वे अयोध्या पहुँचे और पंच तीर्थों को नमस्कार किया। साधार श्रावक के आग्रह से उन्होंने वहीं चातुर्मास किया। (२१२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. काणोड़ा - गोत्रीय राणा का पुत्र जेहड़ कीर्तिविलास मुनि कुशलविलास मुनि ३. छाहड़वंशीय खेता का पुत्र भीमड़ श्रावक ४. भूतपूर्व देश सचिव माल्हूशाखीय डूंगरसिंह की पुत्री उमा मतिसुन्दरी साध्वी ५. व्यावहारिकवंशीय महीपति की पुत्री हांसू हर्षसुन्दरी साध्वी इसके बाद साधुराज रामदेव ने पाँच दिन की अमारि की घोषणा करवाई और सात - आठ दिन निर्धन श्रावकों की सहायता की। इसके बाद जब सब लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गए तो हम सेल्लहस्त खेमू श्रावक द्वारा आमन्त्रित होकर उसके शतपत्रिका आदि स्थानों में घूमे। इसके बाद यद्यपि हम गुजरात जाना चाहते थे तो भी साधुराज रामदेव के आग्रह से राजधानी पहुँचे । फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को सोमवार के दिन अमृतसिद्धि योग में जिन बिम्ब प्रतिष्ठा महोत्सव किया। वहाँ अनेक जिन प्रतिमाएँ और श्री जिनरत्नसूरि जी की मूर्ति की स्थापना की। यह करटक पार्श्वनाथ की ही कृपा थी कि म्लेच्छ संकुल सन्निवेशों में भी यह सब कार्य निराबाध सम्पन्न हुआ । इसके बाद नरसागरपुर के निवासी मंत्रीश्वर मुल्जा के वंशज मंत्रीश्वर वीरा ने हमें लेने के लिए अपने भाई मंत्रीश्वर मण्डलिक के पुत्र मंत्री सारंग को भेजा। हम मंत्री सारंग के सार्थ सहित श्रीकरहेटक पार्श्वनाथ को नमस्कार कर फाल्गुन शुक्ला दशमी को रवाना हुए। नागहृद (नागदा) में हमने नवखण्ड पार्श्वनाथ के दर्शन किये। ईडर के किले में चौलुक्यराज द्वारा निर्मापित सुन्दर तोरणयुक्त विहार वाले ऋषभदेव की, बड़नगर में आदिनाथ और वर्द्धमान की, सिद्धपुर के चक्रवर्ती सिद्धराज जयसिंह द्वारा कारित देवालय में परमेष्ठी की चार मूर्तियों की वन्दना करते हुए हम चैत्र के प्रथम पक्ष में षष्ठी के दिन (?) पत्तनपुर पहुँचे । मंत्रीश्वर वीरा बहुत सी भेंट लेकर खान से मिला । खान प्रसन्न हुआ और यात्रा के लिए फरमान प्रदान किया। उसके बाद प्रवेश महोत्सवपूर्वक नगर में प्रवेश कर उसने श्री शांतिनाथ की वन्दना की और पुण्यशाला में गुरु को नमस्कार कर अपने स्थान पर गया । उसने लकड़ी का सुन्दर एवं सुसज्जित देवालय तैयार किया। उसमें चैत्र की द्वितीय पक्ष की षष्ठी के श्री ऋषभदेव का निवेश किया। मंत्रीश्वर वीरा और मंत्री सारंग संघ के अधीश्वर बने। उन्होंने नरसमुद्र को सर्वथा तृप्त किया। चारों दिशाओं से लोग संघ में सम्मिलित हुए और श्री देवालय का निष्क्रमण महोत्सव अत्यन्त विस्तार से हुआ । नरसमुद्र निकलकर कुमरगिरि पर पहला प्रयाण हुआ । इसके बाद कुंकुम पत्रिकाओं द्वारा समाहूत मरु- मेदपाट- सपादलक्ष- माड - सिन्धु-बागड़-कौशल आदि देशों के लोगों सहित हम भी वैशाख की पहली तृतीया के दिन वहाँ से सलक्षणपुर पहुँचे । गेटा के पुत्र डूंगर ने प्रवेश महोत्सव किया । सा० कोचर द्वारा उद्धारित विधि-विहार में सैन्धव- पार्श्व को नमस्कार किया। दो दिन ठहर कर शंखवरपुर पहुँचे और वहाँ चार दिन ठहरे। फिर पाटल पञ्चासर में नेमिजिन और वर्द्धमान स्वामी को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२१३) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार कर मण्डल ग्राम पहुँचे। वहाँ बाहड़मेर के परीक्षि विक्रम, राजापत्तन के कान्हड, स्तंभ तीर्थ के गोवल को महाधर पद दिया। वीरा ने उनका सम्मान किया और उनके संघपति सूचक तिलक कर संघपति स्थापनाचार्य का विरुद प्राप्त किया। इसके बाद साधु तेजपाल के पुत्र कटुक सुश्रावक का सर्व श्रीसंघ में सब कार्यों में प्राधान्य हुआ। इसके बाद म्यान द्वीप देश से पं० हर्षचन्द्र गणि हमसे मिले। फिर सौराष्ट्र मण्डल के भडियाउद्र स्थान में मिले हुए सौराष्ट्रपति के प्रसाद पात्र अजागृहपुर (अजाहरा) पार्श्वनाथादि के समुद्धारक मुंजालदेव के नंदन वीरा के बड़े भाई पूर्ण सुश्रावक ने अक्षय तृतीया के दिन सम्पूर्ण संघनायकत्व धारण किया और हम प्रवेश महोत्सव सहित घोघा वेलकुल स्थान में पहुँचे और नवखण्ड पार्श्वनाथ की वन्दना की। वहीं श्री विनयप्रभ से साक्षात्कार हुआ। आगे बढ़ कर विमलाचल के निकट संघ ने तम्बू लगाये। यहाँ से शत्रुजय दिखाई देने लगा। अनेक दानों द्वारा संघ ने सिद्धाचल के दर्शन को सफल किया। उसके बाद संघ पादलिप्तपुर होता हुआ शत्रुजय पर्वत पर चढ़ा। प्राकार के अन्दर घुस कर खरतर-विहार, नन्दीश्वरेन्द्र मण्डप, उज्जयन्तावतार, श्रीस्वर्गारोहण, त्रिलक्ष तोरणादि स्थानों का सौन्दर्य देखता हुआ संघ विहार मण्डल में पहुँचा। वहाँ उसने युगादिदेव के दर्शन कर अपने आपको कृतकृत्य किया। संघपति मंत्री पूर्ण और मंत्री वीरा ने अनेक प्रकार से इस महातीर्थ की महिमा को स्फारित किया एवं ज्येष्ठ कृष्णा तृतीया को प्रतिष्ठा महोत्सव किया। हमने ६८ मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कीं। विस्तारपूर्वक मालारोपण महोत्सव हुआ। फिर युगप्रधान जिनकुशलसूरि की कार्ति के विस्तारक मानतुंग नाम के खरतर-विहार में संघपतियों ने पूजा की। श्री जिनरत्नसूरि को पूजादि द्वारा प्रसन्न किया। फिर विमलाचल के विहारों में महाध्वजारोपण पूजा की। इस प्रकार वहाँ आठ दिन तक रहे। इसके बाद संघ गिरनार तीर्थ के लिए चला। विनयप्रभ महोपाध्याय शरीर से सशक्त न थे। अतः स्तम्भ तीर्थ चले गये। अजागृहपुर में तीन दिन श्री पार्श्वनाथ की उपासना की। फिर अर्णापुर होते कोटिनारपुर पहुंचे और वहाँ अम्बिका का पूजन किया। देवपत्तनपुर में श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी आदि जिनश्वरों को नमस्कार किया। मांगल्यपुर में नवपल्लव पार्श्वनाथ की वन्दना की। हमने मंत्री पूर्ण द्वारा कारित दारुमयी पौषधशाला में तीन दिन तक विश्राम किया। श्री जीर्णदुर्गस्थ श्री पार्श्वप्रभु को पूज कर रैवताचल पर चढ़े। वहाँ श्री नेमि जिनवर के दर्शन किये। वहाँ भी वीरा और पूर्ण ने श@जय की तरह कृत्य किये। पाँच दिन वहाँ ठहर कर उज्जयन्त से उतरे। मांगल्यपुर पहुंचे। वहाँ लोगों के आग्रह के कारण ललितकीर्ति उपाध्याय, देवकीर्ति गणि और साधुतिलक मुनि को रखा। देवपत्तनपुर में दीक्षा महोत्सव हुआ। वहाँ सीहाकुल वाले मंत्रीश्वर दादू के पुत्र खेतसिंह का दीक्षा नाम क्षेत्रमूर्ति मुनि और माल्हू शाखीय चाम्पा के पुत्र पद्मसिंह का नाम पुण्यमूर्ति मुनि रखा। फिर नवलक्षद्वीप होते हुए शेरीषकपत्तन पहुँचे और लोडण पार्श्वनाथ जिन को नमस्कार किया। वहाँ वीरा ने सुवर्णकलश चढ़ाया। श्रावण मास की पहली एकादशी को संघ ने नरसमुद्र पत्तन में प्रवेश किया। आपके लिए मेवाड़ के देव नमस्कार के सफेद अक्षत, शत्रुजय के पान और उज्जयन्त पूजन की सुपारी भेजते हैं। आप स्वीकार करें। यहाँ श्रीपत्तन में चातुर्मास सानन्द हुआ है। (२१४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १४३१ जिन पञ्चक पंच कल्याणक द्वारा पवित्रित एकादशी के दिन श्रीपत्तनपुर में स्थित श्री खरतरगच्छाचार्य श्री जिनोदयसूरि गुरु के आदेश से उनके शिष्य मेरुनन्दन गणि ने अयोध्यापुरी स्थित श्रीलोकहिताचार्य के लिए यह महोत्सव समर्पित किया। ___ जैसलमेर चैत्य-प्रशस्ति में रांका सेठ जेसल के पुत्र आंबा द्वारा सं० १४२५ में देरावरयात्रा और सं० १४२७ में श्री जिनोदयसूरि द्वारा प्रतिष्ठोत्सव कराने का उल्लेख है। 卐st आचार्य श्री जिनराजसूरि (प्रथम) सं० १४३२१ फाल्गुन कृष्णा षष्ठी के दिवस अणहिलपुर (पाटण) में लोकहिताचार्य जी ने इन राजमेरु गणिवर्य को गुर्वाज्ञानुसार आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनोदयसूरि जी का पट्टधर घोषित किया। पट्टाभिषेक पद महोत्सव सा० कडुआ धरणा ने गच्छ के विनयप्रभोपाध्याय व जससमृद्धि महत्तरा आदि साधु-साध्वियों और आमंत्रित विशाल संघ की उपस्थिति में बड़े समारोहपूर्वक किया था। कर्मचन्द्र मंत्री वंश-प्रबन्ध के अनुसार ये दादा श्री जिनकुशलसूरि का पाटण में पट्टोत्सव एवं शत्रुजय तीर्थ पर मानतुंग विहार-खरतर वसही के निर्माता के पुत्र वील्हा-वीना देवी के पुत्र थे। कडुआ, धरणा और नंदा तीन भाई थे। वंश-प्रबन्ध में महोत्सव के सम्बन्ध में लिखा है श्रीजिनराजगुरूणां लोकहिताचार्यवर्यकरमूले। सूरि-पद-कृत-नन्दी-महोत्सवो दापयामास॥ सूरिपदोत्सव-दर्शन-समुत्सुकायात जानपदलोकान्। वस्त्रादिदानपूर्वं तुतोष योदोषकृतमोघः॥१॥ श्री गुणविनयोपाध्याय ने कर्मचंद्र मंत्रिवंश प्रबन्ध रास में भी इस प्रकार लिखा है लोकहिताचारिज करए एं, श्री जिनराज नइ पाट। दिरायउ जिणि विधइ ए, नन्दि महोत्सव थादि॥ ५३॥ तिणि उत्सवि जे आवीया ए, वस्त्रादिक नइ दानि। संतोष्या साहमी ए, मानी काढइ कान॥ ५४॥ श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख शोक प्रमाण न्याय ग्रन्थों के अध्येता थे। आपने अपने करकमलों १. जिनराजसूरि रास (त्रुटकपत्र) में सं० १४३३ लिखा है। २. जिनराजसूरि रास में इन्हें तेजपाल का पुत्र बताया गया है एवं तेजपाल के पिता जाल्हण को जिनप्रबोधसूरि के छोटे भाई और संघपति खीमड़ पुत्र भीम पुत्र श्रीचंद के पुत्र लिखा है अतः कर्मचन्द्र मंत्रिवंश प्रबंध के पूर्व नामों से यह अधिक विश्वसनीय है। पट्टाभिषेक के समय अभयचंद ने प्रचुर दान दिया था। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२१५) ____ 2010-04 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने सं० १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। श्री सागरचन्द्राचार्य ने सं० १४५९ में आपके आदेश से जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में जिन बिम्ब-स्थापना की थी नवेषुवान्दुमितेथ वत्सरे निदेशतः श्रीजिनराजसूरेः। अस्थापयन् गर्भगृहेत्र बिम्बं, मुनीश्वराः सागरचन्द्रसाराः॥ सं० १४४४ में कैलवाड़ा मेवाड़ के मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी की पत्नी लखमिणि देवी के अंगज रावण कुमार को मिती कार्तिक कृष्णा १२ को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १४६१ में अनशन आराधनापूर्वक देवकुल पाटक (देलवाड़ा) में स्वर्गवासी हुए। देलवाड़ा के सा० नान्हक श्रावक ने आपकी भक्तिवश मूर्ति बनवा कर श्री जिनवर्द्धनसूरि जी से प्रतिष्ठित करवाई जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है। इस मूर्ति पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्णित है "सं० १४६९ वर्षे माघ सुदि ६ दिने ऊकेशवंशे सा० सोषासन्ताने सा० सुहड़ा पुत्रेण सा० नान्हकेन पुत्र वीरमादि परिवारयुतेन श्री जिनराजसूरिमूर्तिः कारिता प्रतिष्ठिता श्री खरतरगच्छे श्री जिनवर्द्धनसूरिभिः" आचार्य श्री जिनभद्रसूरि - आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि जी के पद पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० १४७५ में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया। श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के सम्बन्ध में पिप्पलक शाखा के इतिहास में लिखा जायेगा। जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है। जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था। उनकी शीलादि विभूषिता सती स्त्री का नाम खेतलदेवी था। इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया, वे असाधारण रूपगुण सम्पन्न थे। ___ एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे। रामणकुमार के हृदय में आचार्यजी के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपनी मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा १. जैसलमेर के तत्कालीन राजा लक्ष्मणदेव राउल इनके बड़े प्रशंसक और भक्त थे। इनके पट्ट पर भावप्रभसूरि बैठे जो माल्हू शाखा के लूणिचा कुल के सव्वड़ साह की भार्या राजलदे के पुत्र और जिनराजसूरि जी के शिष्य थे। (देखें ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ४१) (२१६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगी। माता ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये - मिन्नत की, पर वह व्यर्थ हुई । अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त की और समारोहपूर्वक दीक्षा की तैयारियाँ हुईं। शुभमुहूर्त में जिनराजसूरि जी ने रामणकुमार को दीक्षा देकर कीर्तिसागर नाम रखा । सूरि जी ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें वा० शीलचन्द्र गुरु को सौंपा। उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया । चन्द्रगच्छ-श्रृंगार आचार्य सागरचन्द्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर कीर्तिसागर जी को बैठाना तय किया । भाणसउलीपुर में साहुकार नाल्हिग रहते थे जिनके पिता का नाम महुड़ और माता का नाम आंबणि था । लीला देवी के पति नाल्हिगसाह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिका भेजी। बाहर से संघ विशाल रूप में आने लगा । सं० १४७५ में शुभमुहूर्त के समय सागरचन्द्रसूरि ने कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया । नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से पट्टाभिषेक उत्सव मनाया। नाना प्रकार के वाजित्र बजाये गए और याचकों को मनोवांछित दान देकर सन्तुष्ट किया गया । उपा० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में आपका जन्म सं० १४४९ चैत्र शुक्ला ' षष्ठी को आर्द्रानक्षत्र में लिखते हुए भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं० १४७५ माघ सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नंदि महोत्सवपूर्वक स्थापित किया। इसमें सवा - लाख रुपये व्यय हुए थे । वे सात भकार ये हैं - १. भाणसोल नगर, २. भाणसालिक गोत्र, ३. भादो नाम, ४. भरणी नक्षत्र, ५. भद्राकरण, ६. भट्टारक पद और जिनभद्रसूरि नाम । आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, माण्डवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रंथ लिखवा कर भंडारों में सुरक्षित किये, जिनके लिए केवल जैन समाज ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण साहित्य संसार आपका चिर कृतज्ञ है। आपने आबू, गिरनार और जैसलमेर के मन्दिरों में विशाल संख्या में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी, उनमें से सैकड़ों अब भी विद्यमान हैं। श्री भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नाचार्य को आपने ही आचार्य पद से अलंकृत किया था । सं० १५१४ मार्गशीर्ष वदि ९ के दिन कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जी उच्चकोटि के विद्वान् और प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने ४० वर्ष के आचार्यत्व, युगप्रधानत्व काल में अनेक धर्मकार्य करवाये । विविध देशों में विचरण कर धर्मोन्नति का विशेष प्रयत्न किया। जैसलमेर के संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है। आपके द्वारा अनेक स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का विवरण ऊपर लिखा जा चुका है। राउल श्री वैरिसिंह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। सं० १४९४ १. उपा० जयसोमीय गुरुपर्व क्रम में छाजहड़ गोत्रीय सा० धाणिक भार्या खेतलदे का पुत्र लिखा । माता-पिता के नामों में तो उच्चारण भेद है । भणशाली गोत्र के पदोत्सवकारक नाल्हिगशाह थे जिससे सात भकार समर्थित हो जाते हैं। श्री जिनभद्रसूरि जी का छाजहड़ गोत्र ही ठीक है । गुरुपर्व क्रम में कृष्णपक्ष लिखा है। दीक्षा १२ वर्ष की आयु में ली और आचार्य पद की प्राप्ति के समय २५ वर्ष के थे | संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२१७) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में इस मन्दिर का निर्माण चौपड़ा गोत्रीय सा० हेमराज-पूना-दीहा-पाँचा के पुत्र शिवराज, महीराज लोला और लाखण ने करवाया था। राउल वैरिसिंह ने इन चारों भ्राताओं को अपने भाई की तरह मानकर वस्त्रालंकार से सम्मानित किया था। सं० १४९७ में सूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा अंजनशलाका कराई। इस अवसर पर ३०० जिन बिम्ब, ध्वज-दण्ड शिखरादि की प्रतिष्ठा हुई। इस ३५ पंक्तियों वाली प्रशस्ति का निर्माण जयसागरोपाध्याय के शिष्य सोमकुंजर ने किया और पं० भानुप्रभ ने आलेखित किया था। इस प्रशस्ति की १०वीं पंक्ति में लिखा है कि आबू पर्वत पर श्री वर्द्धमानसूरि जी के वचनों से विमल मंत्री ने जिनालय का निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरि जी ने उज्जयन्त, चित्तौड़, मांडवगढ़, जाउर में उपदेश देकर जिनालय निर्माण कराये व उपर्युक्त नाना स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित कराये, यह कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। इस मन्दिर के तलघर में ही विश्व विश्रुत श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान-भण्डार है, जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रीय ४०० प्रतियाँ हैं। खंभात का भंडार धरणाक ने तैयार कराया था। ___ मांडवगढ़ के सोनिगिरा श्रीमाल मंत्री मंडन और धनदराज आपके परमभक्त विद्वान् श्रावक थे। इन्होंने भी एक विशाल सिद्धान्त कोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, पर पाटण भंडार की भगवतीसूत्र की प्रशस्ति युक्त प्रति मांडवगढ़ के भंडार की है। आपकी "जिनसत्तरी प्रकरण' नामक २१० गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है। सं० १४८४ में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट (कांगडा) की यात्रा के विवरण स्वरूप "विज्ञप्ति त्रिवेणी" संज्ञक महत्त्वपूर्ण विज्ञप्ति पत्र आपको भेजा था। इन्होंने सं० १५०९ कार्तिक सुदि १३ को जैसलमेर के चन्द्रप्रभ जिनालय में प्रतिष्ठा की। श्रुतरक्षक आचार्यों में श्री जिनभद्रसूरि जी का नाम मूर्धन्य स्थान में है। खरतरगच्छ के दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति आपके चरण व मूर्तियाँ अनेक स्थानों में पूज्यमान हैं। श्री जिनभद्रसूरि शाखा में अनेक विद्वान् हुए हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्गीय, भावहर्षीय व जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के आप ही पूर्व पुरुष हैं। आपने कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्य पद देकर श्री कीर्तिरत्नसूरि नाम से प्रसिद्ध किया था। ये नेमिनाथ महाकाव्यादि के रचयिता और बड़े प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनके गुणरत्नसूरि, कल्याणचन्द्रादि ५१ शिष्य थे। इनके भ्राताओं व उनके वंशजों ने जैसलमेर, जोधपुर, नाकोड़ा, बीकानेर आदि अनेक स्थानों में जिनालय निर्माण कराये व अनेक संघ-यात्रादि शासन प्रभावना के कार्य किये थे। श्री कीर्तिरत्नसूरि शाखा में पचासों विद्वान् कवि आदि हुए हैं। गीतार्थ शिरोमणि श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि भी श्री कीर्तिरत्नसूरि जी की परम्परा में ही हुए हैं। श्री जयसागर जी को जो श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के शिष्य थे, आपने ही सं० १४७५ में उपाध्याय पद से अलंकृत किया। ये बड़े विद्वान् और प्रभावक हुए हैं। आबू की "खरतर वसही" दरड़ा गोत्रीय सं० मंडलिक जो उपाध्यायजी के भ्राता थे, ने ही निर्माण करवाई थी। उपाध्याय जी की परम्परा में भी अनेकों विद्वान् हुए। उपाध्याय जी के निर्माण किए अनेक ग्रंथ व स्तोत्रादि उपलब्ध हैं। ज卐 (२१८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि महान् प्रभावक आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जी के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि बैठे। इनका जन्म सं० १४८७ में जैसलमेर निवासी चम्म गोत्रीय साह वच्छराज के घर हुआ। इनकी माता का नाम वाल्हा देवी था। सं० १४९२ में ये दीक्षित हुए। आपका जन्म नाम करणा और दीक्षा नाम कनकध्वज था। सं० १५१५ ज्येष्ठ वदि द्वितीया के दिन कुंभलमेरु निवासी कूकड चोपड़ा गोत्रीय साह समरसिंह कृत नंदि-महोत्सव में श्री कीर्तिरत्नसूरि जी ने पदस्थापना की। सं० १५१८ में जैसलमेर स्थित संभवनाथ जिनालय में मन्दिर निर्माता चोपड़ा परिवार ने शत्रुजय गिरनार पट्टिकाएँ निर्माण कराके आपके करकमलों से प्रतिष्ठित करवाई। श्री जयसागरोपाध्याय के भ्राताओं ने अर्बुदाचल पर नवफणा पार्श्वनाथ स्वामी के सर्वोच्च तिमंजिले "खरतर वसही" संज्ञक जिनालय का निर्माण कराया जिसकी प्रतिष्ठा आपने की। श्री धर्मरत्रसूरि आदि अनेक मुनियों को आचार्य पद प्रदान करने वाले सूरि महाराज सिन्ध, सौराष्ट्र, मालव आदि देशों में विचरण कर सं० १५३७ में जैसलमेर में स्वर्गवासी हुए। 卐 ॥ आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि ये बाहड़मेर निवासी पारख गोत्रीय देको साह के पुत्र थे। इनकी माता का नाम देवल देवी था। सं० १५०६ में इनका जन्म हुआ और सं० १५२१ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नन्दिमहोत्सव पुञ्जपुर में मण्डपदुर्ग निवासी श्रीमालवंशीय सोनपाल ने किया। दीक्षा नाम कुलवर्द्धन था। सं० १५३३ माघ सुदि त्रयोदशी के दिन जैसलमेर में संघपति श्रीमालवंशीय सोनपाल कृत नन्दि महोत्सव में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने अपने हाथ से पद स्थापना की थी। ये पंच नदी के सोम यक्ष आदि के साधक थे। सं० १५३६ फाल्गुन सुदि ३ के दिन रावल देवकर्ण के राज्यकाल में आपने अष्टापद प्रासाद में कुंथुनाथ एवं ऊपर शांतिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा की थी। परम पवित्र चारित्र के पालक आचार्यश्री का सं० १५५५३ मिगसर वदि १४ को अहमदाबाद में स्वर्गवास हुआ। 卐55 १. सोमकुंजर कृत गुर्वावली में इन्हें साहुशाखा गोत्रीय और माता का नाम स्याणी लिखा है (ऐ०जै०का०सं०पृ० ४८) २. यह प्रतिष्ठा श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ कराई थी। उनके अनेक शिलालेख मिलते हैं जिनमें सत्शिष्य श्री जिनसमुद्रसूरिसहितैः लिखा है। ३. १५५४ माघ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२१९) ___ 2010_04 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनहंससूरि । श्री जिनसमुद्रसूरि के पट्ट पर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि जी हुए। सेत्रावा नामक ग्राम में चोपड़ा गोत्रीय साह मेघराज इनके पिता और श्री जिनसमुद्रसूरि जी की बहिन कमला देवी माता थीं। सं० १५२४ में इनका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम धनराज और दीक्षा का नाम धर्मरंग था। सं० १५३५ में विक्रमपुर में दीक्षा ली थी। सं० १५५५ में अहमदाबाद नगर में आचार्यपद स्थापना हुई। तदनन्तर सं० १५५६ ज्येष्ठ सुदि नवमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में श्री बीकानेरनगर में बोहिथरा गोत्रीय करमसी मंत्री ने पीरोजी लाख रुपया व्यय करके पुनः आपका विस्तार से पद महोत्सव किया और उसी समय शांतिसागराचार्य ने आपको सूरि मंत्र प्रदान किया। वहीं नेमिनाथ चैत्य में बिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी। तदनन्तर एक बार आगरा निवासी संघवी डूंगरसी, मेघराज, पोमदत्त प्रमुख संघ के आग्रहपूर्वक बुलाने पर आप आगरा नगर गये। उस समय बादशाह के भेजे हुये घोड़े, पालकी, बाजे, छत्र, चँवर आदि के आडम्बर से आपका प्रवेशोत्सव कराया गया। इस उत्सव में गुरु भक्ति, संघ भक्ति आदि कार्य में दो लाख रुपये खर्च हुए थे। सजावट बड़ी दर्शनीय हुई थी। लोगों की भीड़ से मार्ग संकीर्ण हो गए थे। दिल्लीपति बादशाह सिकंदर गजारुढ़ होकर अमीर, उमराव, वजीर आदि अमलदारों के साथ सामने आये। वाजिब बज रहे थे। श्राविकाएँ अपने मस्तक पर मंगलकलश धारण कर गुरुश्री को मोतियों से बधा रहीं थीं। रजत मुद्रा (रुपयों) के साथ पान (तांबूल) दिये गये। इस यशस्वी कार्य से बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ। चुगलखोरों के बहकाने से सूरिजी को राजसभा में बुला कर करामात दिखाने के लिए आग्रह किया, क्योंकि उसे श्री जिनप्रभसूरि जी के चमत्कारों की बातें कर्ण गोचर थीं। उन्हें दीवान-दरबार धवलगृह में रखा। पूज्यश्री ने तपस्या और ध्यान प्रारम्भ किया। यथासमय श्री जिनदत्तसूरि जी के प्रसाद और चौसठ योगिनियों के सान्निध्य से चमत्कार हुआ। सूरिजी ने दैवी शक्ति से बादशाह का मनोरंजन कर पाँच सौ बन्दीजनों को कैद से छुड़ाया और अभय घोषणा से सुयश प्राप्त कर उपाश्रय पधारे। सारा संघ बड़ा हर्षित हुआ। आपने तीन नगरों में प्रतिष्ठाएँ कीं। अनेकों संघपति प्रमुख पद पर स्थापित किये। सं० १५८२ में आचारांग दीपिका की बीकानेर में रचना की। पाटण नगर में तीन दिन अनशन करके सं० १५८२ में स्वर्गवासी हुए। सं० १५८७ में श्री जिनमाणिक्यसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित आपके चरण जैसलमेर के श्री पार्श्वनाथ जिनालय में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर आप ही के शिष्य थे। महोपाध्याय पुण्यसागर जी के शिष्य पद्मराज गणि भी उच्चकोटि के विद्वान थे और इनके निर्मित कई ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। जिनहंससूरिजी के शासनकाल में महोपाध्याय धवलचन्द्र एवं गजसार आदि अनेकों उच्चकोटि के विद्वान विद्यमान थे। (२२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि । श्री जिनहससूरि जी ने अपने पट्ट पर श्री जिनमाणिक्यसूरि जी को स्थापित किया। इनका जन्म सं० १५४९ में कूकड चोपड़ा गोत्रीय साह राउलदेव की धर्मपत्नी रयणादेवीं की कोख से हुआ। इनका नाम सारंग था। सं० १५६० बीकानेर में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में आपने आचार्य श्री जिनहंससूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। इनकी विद्वत्ता और योग्यता देख कर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि ने स्वयं सं० १५८२ (माघ शुक्ल ५) भाद्रपद वदि त्रयोदशी को पाटण में बालाहिक गोत्रीय शाह देवराज कृत नन्दि महोत्सवपूर्वक आचार्य पद प्रदान करके अपने पट्ट पर स्थापित किया। आपने गूर्जर, पूर्वदेश, सिंध और मारवाड़ आदि देशों में विहार किया। सं० १५९३ माघ शुक्ल प्रतिपदा गुरुवार को बीकानेर निवासी मंत्री कर्मसिंह के बनाये हुए श्री नमिनाथ भगवान् के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १५८२ से सं० १६०८ तक के बहुत से बिम्ब-प्रतिष्ठादि के लेख सम्प्राप्त हैं। पुडदल नगर में प्रतिष्ठित प्रतिमा आगरा के जिनालय में है। सं० १५९५ आषाढ़ सुदि दशमी को आपने पंच नदी की साधन की थी, जिसका महोपाध्याय पुण्यसागर कृत गीत में वर्णन है। अन्तिम कुछ वर्ष आप जैसलमेर विराजे, उस समय गच्छ के साधुओं में शिथिलाचार आ गया था। प्रतिमोत्थापक मत भी प्रसारित होने लगा। शिथिलाचार परिहार कर त्याग मार्ग की ओर प्रवृत्ति होने लगी तथा गच्छ में भी क्रियोद्धार के विचार जाग्रत होने लगे। सं० १६०६ में खरतरगच्छीय श्री कनकतिलकोपाध्याय ने भी क्रियोद्धार नियम प्रचारित किए। परिग्रह त्याग कर क्रियोद्धार करने की तीव्र उत्कण्ठा आपके हृदय में जागृत हुई। बीकानेर में बहुसंख्यक यतिजन थे। वहाँ के मंत्रीश्वर संग्रामसिंह बच्छावत ने गच्छ की रक्षा के लिए आपको विनतीपत्र भेजा। आपके साथ भी सुविहित साधु वर्ग था व बीकानेर में भी त्यागी एवं विद्वान् मुनिगण चातुर्मास करते थे, पर गच्छनायक का प्रभाव कुछ और ही होता है। आप भाव से क्रियोद्धार संकल्पित कर, दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के स्तूप के दर्शनार्थ यात्रा करने के हेतु देराउर पधारे । वहाँ गुरुदेव के स्तूप की यात्रा, चरणवन्दन कर जैसलमेर की ओर जाते समय मार्ग में जल के अभाव के कारण पिपासा परिषह उत्पन्न हुआ। रात्रि में थोड़े से जल की सुविधा भी मिली। भक्तों द्वारा उस जल को पीकर पिपासा शान्त कर लेने की प्रार्थना पर आपने दृढ़ता से उत्तर दिया-"इतने वर्षों तक पालन किये हुए चतुर्विधाहार व्रत को क्या आज एक दिन में भंग कर दूं? यह कभी नहीं किया जा सकता।" ___ इस प्रकार शुभ निश्चयों द्वारा व्रत भंग न करके स्वयं अनशन-आराधना द्वारा सं० १६१२ आषाढ़ शुक्ला पंचमी को देह त्याग कर स्वर्ग पधारे। एक प्राचीन पट्टावली के अनुसार आपने एक ही दिन में ६४ साधुओं को दीक्षा दी, १२ मुनियों को उपाध्याय पद से विभूषित किया। अन्तिम समय में देरावर यात्रा में भी आपके साथ २४ शिष्य थे। १. उ० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में माता-पिता का नाम शाह जीवराज और पद्मा देवी लिखा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२२१) _ 2010_04 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के स्वहस्त दीक्षित शिष्यों की संख्या विशाल है। ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं अन्य अन्त:साक्ष्यों के आधार पर कतिपय नाम प्राप्त होते हैं, वे निम्न हैं :१. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, २. भुवनधीर, ३. अनन्तहंस, ४. उपाध्याय विनयसमुद्र, ५. कवि कनक, ६. वाचनाचार्य विनयसोम, ७. वाचनाचार्य कल्याणधीर, ८. देवतिलक, ९. वाचनाचार्य कल्याणतिलक, १०. वादी विजयराज, ११. सुमतिकलश, १२. नयविलास, १३. भुवनसोम, १४. हीरोदय आदि। इसमें क्रमाङ्क ४ उपाध्याय विनयसमुद्र के दो शिष्य हुए-हर्षशील और गुणरत्न। हर्षशील की परम्परा में क्रमशः ज्ञानसमुद्र, ज्ञानराज, लब्धोदय आदि हुए और गुणरत्न की शिष्य परम्परा में क्रमशः रत्नविलास, त्रिभुवनसेन, मतिहंस एवं महिमोदय हुए। क्रमाङ्क ७ कल्याणधीर के तीन शिष्य हुए-कमलकीर्ति, कुशलधीर और कनकविमल। कमलकीति के शिष्य चारित्रलाभ, चारित्रलाभ के सुमतिलाभ, सुमतिलाभ के सुमतिमंदिर, सुमतिमंदिर के जयनंदन तथा जयनंदन के शिष्य लब्धिसागर हुए। कल्याणधीर के दूसरे शिष्य कुशलधीर के शिष्य धर्मसागर हुए। कल्याणधीर के तीसरे शिष्य कनकविमल की शिष्य परम्परा के बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। 卐 (२२२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि - युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी चतुर्थ दादा गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म खेतसर गाँव में रीहड़ गोत्रीय ओसवाल श्रेष्ठी श्रीवन्त शाह की धर्मपत्नी श्रिया देवी की कोख से सं० १५९५ चैत्र कृष्णा १२ के दिन हुआ। माता-पिता ने आपका गुणनिष्पन्न "सुलतानकुमार" नाम रखा जो आगे चल कर जैन समाज के सुलतान-सम्राट हुए। बाल्यकाल में ही अनेक कलाओं के पारगामी हो गए, विशेषतः पूर्व-जन्म-संस्कार-वश आपका धर्म की ओर झुकाव अत्यधिक था। सं० १६०४ में खरतरगच्छ-नायक श्री जिनमाणिक्यसूरि जी महाराज के पधारने पर उनके उपदेशों का आप पर बड़ा असर हुआ और आपकी वैराग्य भावना से माता-पिता को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान करने को विवश होना पड़ा। नौ वर्ष की आयु वाले सुलतानकुमार ने बड़े ही उल्लासपूर्वक संयम मार्ग स्वीकार किया। गुरु महाराज ने आपका नाम "सुमतिधीर" रखा। प्रतिभा सम्पन्न और विलक्षण बुद्धिशाली होने से आप अल्पकाल में ही ग्यारह अंग आदि सकल शास्त्रों का अभ्यास कर वाद-विवाद, व्याख्यान-कलादि में पारगामी होकर गुरु महाराज के साथ देश-विदेश में विचरण करने लगे। __उस समय जैन साधुओं में आचार-शैथिल्य का प्रवेश हो चुका था जिसका परिहार कर क्रियोद्धार करने की भावना सभी गच्छनायकों में उत्पन्न हुई। श्री जिनमाणिक्यसूरि जी महाराज भी दादा साहब श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के स्वर्गवास से पवित्र तीर्थ रूप देरावर की यात्रा एवं गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को समूल नष्ट करने का संकल्प कर यहाँ पधारने और वहीं से लौटते हुए जैसलमेर के मार्ग में पिपासा-परिषह उत्पन्न होने पर अनशन स्वीकार कर स्वर्गवासी होने का वर्णन आगे आ चुका है। तत्पश्चात् जब उनके २४ शिष्य जैसलमेर पधारे तो गुरुभक्त रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य पदोत्सव की तैयारियाँ की और तत्र विराजित खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के प्रभावक आचार्य श्री गुणप्रभसूरि जी महाराज से बड़े समारोह के साथ मिति भाद्रपद शुक्ला ९ गुरुवार के दिन सत्रह वर्ष की आयु वाले श्री सुमतिधीर जी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करवाया। गच्छ मर्यादानुसार आपका नाम श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ। उसी रात्रि में गुरु महाराज श्री जिनमाणिक्यसूरि जी ने दर्शन देकर समवसरण पुस्तिका स्थित साम्नाय सूरिमन्त्र कल्प विधि निर्देश पत्र की ओर संकेत किया। इसी वर्ष कार्तिक सुदि ४ को आपने श्री जिनमाणिक्यसूरि के चरणों की प्रतिष्ठा की जो पार्श्वनाथ जिनालय, जैसलमेर में है। चातुर्मास पूर्ण कर आप श्री बीकानेर पधारे। मंत्रीश्वर संग्रामसिंह बच्छावत की प्रबल प्रार्थना थी, अतः संघ के उपाश्रय में जहाँ तीन सौ यतिगण विद्यमान थे, चातुर्मास न कर सूरिजी मंत्रीश्वर की अश्वशाला में ही रहे। उनका युवक हृदय वैराग्य रस से ओत-प्रोत था। उन्होंने गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् क्रान्ति के मूल मंत्र क्रियोद्धार की भावना को कार्यान्वित करना निश्चित किया। मंत्रीश्वर संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग था। सूरि महाराज ने यतिजनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध साधु-मार्ग संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२२३) ___ 2010_04 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रयोजन हो वे हमारे साथ रहें और जो लोग असमर्थ हों, वे वेश त्याग कर गृहस्थ बन जावें, क्योंकि साधु वेश में अनाचार अक्षम्य है। सूरिजी के प्रबल पुरुषार्थ से ३०० यतियों में से सोलह व्यक्ति चन्द्रमा की सोलह कला रूप श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ हो गए। संयम पालने में असमर्थ अवशिष्ट लोगों को मस्तक पर पगड़ी धारण करा के "मत्थेरण" गृहस्थ बनाया गया, जो महात्मा कहलाने लगे और अध्यापन, लेखन व चित्रकलादि का काम करके अपनी आजीविका चलाने लगे। सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई। यह क्रियोद्धार सं० १६१४ चैत्र कृष्णा ७ को हुआ। बीकानेर चातुर्मास के अनन्तर सं० १६१५ का चातुर्मास महेवा नगर में किया और श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्मासी तपाराधन किया। तप-जप के प्रभाव से आपकी योग-शक्तियाँ विकसित होने लगीं। चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की राजधानी पाटण पधारे। सं० १६१६ माघ सुदि ११ को बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने, शत्रुजय यात्रा से लौटते हुए पाटण में जंगमतीर्थ-सूरि महाराज की चरण वन्दना की। पाटण खरतरविरुद प्राप्ति का और वसतिवास प्रकाश का आद्य दुर्ग था। सूरि महाराज वहाँ चातुर्मास में विराजमान थे। उन्होंने पौषधविधिप्रकरण पर ३५५४ श्रीक परिमित विद्वत्ता पूर्ण टीका रची, जिसे महोपाध्याय पुण्यसागर और वा० साधुकीर्ति गणि जैसे विद्वान् गीतार्थों ने संशोधित की। उस युग में तपागच्छ में धर्मसागर उपाध्याय एक कलहप्रिय और विद्वत्ताभिमानी व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैन समाज में पारस्परिक द्वेषभाव वृद्धि करने वाले कतिपय ग्रन्थों की रचना करके शान्ति के समुद्र सदृश जैन समाज में द्वेष-बड़वाग्नि उत्पन्न की। उन्होंने सभी गच्छों के प्रति विषवमन किया और "सुविहित शिरोमणि नवांगवृत्तिकर्ता श्रीमद् अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में नहीं हुए, खरतरगच्छ की उत्पत्ति बाद में हुई" यह गलत प्ररूपणा की, क्योंकि अभयदेवसूरि जी सर्व गच्छ मान्य महापुरुष थे और वे खरतरगच्छ में हुए यह अमान्य करके ही वे अपनी चित्त-कालुष्य-वृत्ति खण्डनात्मक दुष्प्रवृत्ति की पूर्ति कर सकते थे। जब उनकी दुष्प्रवृत्ति प्रकाश में आई तो श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने उसका प्रबल विरोध किया और धर्मसागर उपाध्याय को समस्त गच्छाचार्यों की उपस्थिति में कार्तिक सुदि ४ के दिन शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया। परन्तु वे पंचासरा पाड़ा की पोशाल में द्वार बंद कर छिप बैठे। दूसरी बार कार्तिक सुदि ७ को पुनः धर्मसागर को बुलाया, परन्तु उनके न आने पर चौरासी गच्छ के एकत्रित गीतार्थों के समक्ष श्रीमद् अभयदेवसूरि के खरतरगच्छ में होने के विविध प्रमाणों सहित "मतपत्र' लिखा गया और उसमें समस्त गच्छाचार्यों के हस्ताक्षर करा के उत्सूत्रभाषी धर्मसागर को निह्नव प्रमाणित कर जैन संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। इस प्रकार पाटण में पुनः शास्त्रार्थ-विजय की सुविहित पताका फहरा कर सूरि महाराज खंभात पधारे। सं० १६१८ का चातुर्मास करके सं०. १६१९ में राजनगर-अहमदाबाद पधारे। यहाँ मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी भट्ट की समस्या पूर्ति कर उसे पराजित किया। सं० (२२४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२० का चातुर्मास वीसलनगर और सं० १६२१ का बीकानेर में किया । सं० १६२२ वैशाख सुदि ३ को प्रतिष्ठा कराके चातुर्मास जैसलमेर में किया। बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंह ने बीच में नागौर में हसन कुली खान से संधि विग्रह में जय प्राप्त कर सूरि महाराज का प्रवेशोत्सव कराया । सं० १६२३ का चातुर्मास बीकानेर में बिताकर खेतासर के चोपड़ा चांपसी - चांपलदे के पुत्र मानसिंह को मार्गशीर्ष कृष्णा ५ को दीक्षित किया । इनका नाम " महिमराज' रखा, जो आगे चल कर सूरि महाराज के पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । सं० १६२४ का चौमासा नाडोलाई किया, मुगल सेना के भय से सभी नागरिक इतस्ततः नगर छोड़ कर भागने लगे। सूरि महाराज तो निर्भय थे, उपाश्रय में निश्चल ध्यान लगा कर बैठे रहे, जिसके प्रभाव मुगल सेना मार्ग भूल कर अन्यत्र चली गई। लोगों ने लौट कर सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की । सं० १६२५ बापेऊ, सं १६२६ बीकानेर, सं० १६२७ का चातुर्मास पूर्ण कर आगरा पधारे और शौरिपुर, चन्द्रवाड, हस्तिनापुरादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १६२८ का चातुर्मास आगरा कर सं० १६२९ का चातुर्मास रोहतक में किया । सं० १६३० के बीकानेर चातुर्मास में प्रतिष्ठा व व्रतोच्चारण आदि धर्मकृत्य हुए। सं० १६३१ - ३२ का चातुर्मास भी बीकानेर में किया । सं० १६३३ में फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ के विपक्षियों द्वारा लगाये गये तालों को हस्त-स्पर्श मात्र से खोल कर तीर्थ दर्शन किए। फिर सं० १६३३ का जैसलमेर चातुर्मास कर गेली श्राविकादि को व्रतोच्चारण करवाये । तदनन्तर देरावर पधारे और दादा कुशल गुरु के स्वर्ग स्थान की यात्रा कर सं० १६३४ का वहीं चातुर्मास किया । सं० १६३५ जैसलमेर, सं० १६३६ बीकानेर, सं० १६३७ सेरुणा, सं० १६३८ बीकानेर, सं० १६३९ जैसलमेर और सं० १६४० में आसनीकोट चौमासा कर जैसलमेर पधारे। माघ सुदि ५ को अपने पट्ट शिष्य महिमराज जी को वाचक पद से विभूषित किया। सं० १६४१ का चातुर्मास करके पाटण पधारे। सं० १६४२ को चातुर्मास कर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। सं० १६४३ में अहमदाबाद चातुर्मास करके धर्मसागर के उत्सूत्रात्मक ग्रन्थों का उच्छेद किया। सं० १६४४ में खंभात चातुर्मास कर अहमदाबाद पधारे और संघपति सोमजी शाह के संघ सहित शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १६४५ में सूरत चातुर्मास कर सं० १६४६ में अहमदाबाद पधारे और विजया दशमी के दिन हाजा पटेल की पोल स्थित शिवासोमजी के शान्ति जिनालय की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम से सम्पन्न कराई। इस मन्दिर में ३१ पंक्तियों का शिलालेख लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्रीय श्रावकों का लेख है। सं० १६४७ में पाटण चौमासा किया, श्राविका कोडां को व्रतोच्चारण कराया। फिर अहमदाबाद होते हुए खंभात पधारे। आपके त्याग तपोमय जीवन और विद्वत्ता की सौरभ अकबर के दरबार तक जा पहुँची। अकबर मंत्री कर्मचन्द्र को आदेश देकर सूरि महाराज को शीघ्र लाहौर पधारने के लिए वीनतिपत्र भेजने को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२२५) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा। कर्मचन्द्र ने कहा-"गुरुदेव राजनगर गुजरात में हैं, देह भारी है, पाद-विहार करके गाढ़े धूप में दूर देश से आना कठिन है, क्योंकि वे वाहन व्यवहार करते नहीं।" सम्राट ने कहा-"उनके शिष्य को आमंत्रित करो।" मंत्रीश्वर ने दो शाही दूतों के साथ कहलाया-" मानसिंह जी को शीघ्र भेजिये। सम्राट उनके दर्शनों का उत्सुक है।" सूरिजी ने वाचक महिमराज (मानसिंह) जी को समयसुन्दर जी आदि अन्य ६ साधुओं के साथ लाहौर भेज दिया। मुनि मण्डल के शीघ्र पहुंचने पर सम्राट अत्यन्त हर्षित हुआ और सूरिजी को शीघ्र बुलाने के लिए मंत्रीश्वर को फिर आदेश देते हुए कहा-"चातुर्मास निकट है तो क्या हुआ, मैं उन्हें बहुत लाभ दूंगा।" उस समय सूरिजी खंभात थे। शाही फरमान व वीनतिपत्र पाकर सूरिजी ने खंभात से अहमदाबाद आकर आषाढ़ सुदि १३ को समस्त संघ के साथ विचार-विमर्श किया। इधर और दो शाही फरमान व कर्मचन्द्र का वीनतिपत्र आया तो सूरिजी ने लाहौर जाने का निश्चय कर लिया और वहाँ से प्रस्थान कर मेहसाणा, सिद्धपुर, पालनपुर होते हुए सिरोही के राव की वीनती से सिरोही पधारे। पर्युषण के आठ दिन सिरोही में बिताये। राव ने अपने राज्य में पूर्णिमा के दिन जीव-हिंसा निषिद्ध की। वहाँ से जालौर पधारे। बादशाह का फरमान आया कि आप चौमासे बाद शीघ्र पधारें। सूरिजी ने चातुर्मास जालौर में पूर्ण कर विहार किया और देछर, सराणा, भमराणी, खांडप पधारे। विक्रमपुर का संघ वंदनार्थ आया और लाहण की। वहाँ से द्रुणाड़ा (धुनाड़ा) पधारे जहाँ जैसलमेर का संघ दर्शनार्थ आया। वहाँ से रोहीठ नगर पहुँचने पर साह थिरा और मेरा ने बड़े समारोह से नगर प्रवेश कराया, याचकों को दान दिया। यहाँ जोधपुर का विशाल संघ वन्दनार्थ आया, लाहण की, नंदि मंडाण करके चतुर्थ व्रतादि लिए। वहाँ के ठाकुर ने बारस की तिथि को अभयदान घोषित किया। पाली में भी नंदि मांड कर श्रावक-श्राविकाओं ने व्रत लिए। वहाँ से लांबिया होते हुए सोजत पधारे। वहाँ से बीलाड़ा पधारने पर सुप्रसिद्ध कटारिया (संभवतः जूठ शाह) ने प्रवेशोत्सव किया। फिर जयतारण होते हुए मेड़ता पधारे। मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र के पुत्र भाग्यचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र ने बड़े ठाठ से प्रवेशोत्सव किया। पूजा-प्रभावना, दान-पुण्य किए, नंदिमंडाणपूर्वक अनेक व्रत पच्चक्खाण श्रावक-श्राविकाओं ने लिए। वहाँ फिर शाही फरमान मिला। वहाँ से सूरि महाराज फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा कर नागौर पधारे। मंत्रीश्वर मेहा ने प्रवेशोत्सव किया। वहाँ बीकानेर का संघ ३०० सिजवाला (पालखी) और ४०० वाहन सह गुरु वन्दनार्थ आया और स्वधर्मी-वात्सल्यादि करके लौटा। वहाँ से सूरिजी बापेऊ, पडिहारा, मालासर, राजलदेसर आदि गाँवों में होते हुए रिणी (वर्तमान तारा नगर) पधारे, संघ ने स्वागत किया। मंत्रीश्वर ठाकुरसिंह के पुत्र मं० रायसिंह ने प्रवेशोत्सव किया, यहाँ पर महिम का संघ वन्दनार्थ आया। यहाँ से विहार करने पर लाहौर तक भक्ति करने के लिए शांकर सुत वीरदास साथ हो गया। सरसा और कसूर होते हुए हापाणा पहुँचे। यहाँ से लाहौर चालीस कोश रहा। सूरिजी के शुभागमन का संदेश ले जाने वाले को मंत्रीश्वर ने स्वर्ण-जिह्वा, करकंकणादि मूल्यवान वस्तुएँ देकर सम्मानित किया। मंत्रीश्वर के साथ लाहौर का संघ गुरु वन्दनार्थ जा कर भक्तिपूर्वक समारोह के साथ आपका नगर प्रवेश कराया। पहले जो वाचक जी आदि ७ ठाणा थे वे भी स्वागतार्थ गये और सूरिजी सं० १६४८ फाल्गुन शुक्ला २ के दिन पुष्य योग में लाहौर पधारे। (२२६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस दिन मुसलमानों के ईद का पर्व था और लाहौर प्रवेश के समय सूरिजी के साथ जयसोम, कनकसोम, महिमराज, रत्ननिधान, गुणविनय, समयसुन्दरादि ३१ प्रकाण्ड विद्वान मुनिवर्य थे। चतुर्विध संघ के साथ जय-जयकार ध्वनि से पहुँचे देख सम्राट अकबर स्वयं उल्लासपूर्वक सामने आया और वंदनपूर्वक हाथ पकड़ कर सूरिजी को ड्योढ़ी महल में ले गया और धर्मगोष्ठी की। सम्राट ने गुरुदेव के प्रवचन से प्रभावित होकर प्रतिदिन ड्योढ़ी महल पधार कर उपदेश सुनाने की प्रार्थना की। इसके बाद मंत्री कर्मचन्द्र को आज्ञा दी-"गुरु महाराज को हाथी-घोड़ा वाजित्रादि सहित शाही सम्मान के साथ उपाश्रय में प्रवेश कराओ।" सूरिजी ने ऐसे आडम्बर की अनावश्यकता बतला कर मना किया पर सम्राट ने अत्यन्त आग्रहपूर्वक फिर से आज्ञा की। मंत्रीश्वर की आज्ञा लेकर जौहरी पर्वतशाह ने प्रवेशोत्सव का लाभ लिया। मंत्रीश्वर के प्रति समस्त संघ ने आभार व्यक्त किया। सूरि महाराज प्रतिदिन शाही महल में जाकर धर्मोपदेश देने लगे। उनके नित्य सत्संग प्रवचन से सम्राट अकबर बड़ा प्रभावित हुआ। वह उन्हें "बड़े गुरु' नाम से पुकारता था जिससे गुरुदेव की इसी नाम से सर्वत्र प्रसिद्धि हुई। एक बार उसने गुरु महाराज के समक्ष एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट रखीं जिसे अस्वीकार करने पर सम्राट उनके निर्लोभी अपरिग्रही-जीवन से प्रभावित होकर मंत्रीश्वर को धर्मकार्य में व्यय करने के लिए द्रव्य अर्पण किया। मंत्रीश्वर ने चैत्री पूनम के दिन शान्ति स्नात्र का आयोजन किया और देव-गुरु वंदन कर याचकों को दान देकर सन्तुष्ट किया। एक बार नौरंग खान द्वारा द्वारिका के मन्दिरों के विनाश की वार्ता सुनी तो जैन तीर्थों और मन्दिरों की रक्षा के हेतु सम्राट से विज्ञप्ति की गई। सम्राट ने तत्काल फरमान लिखवा कर अपनी मुद्रा लगा के मंत्रीश्वर को समर्पित कर दिया, जिसमें लिखा था-"आज से समस्त शत्रुजयादि जैन तीर्थ मंत्री कर्मचन्द्र के अधीन हैं।" गुजरात के सूबेदार आजम खान को तीर्थ रक्षा के लिए सख्त आदेश भेजा जिससे शत्रुजय तीर्थ पर म्लेच्छोपद्रव का निवारण हुआ। एक बार काश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने सूरि महाराज को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और आषाढ़ शुक्ला ९ से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को अभयदान देने के लिए १२ फरमान लिख भेजे। इसके अनुकरण में अन्य सभी राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में १० दिन, १५ दिन, २० दिन, २५ दिन, महीना, दो महीना तक जीवों के अभयदान की घोषणा कराई। सम्राट ने अपने काश्मीर प्रवास में भी धर्म-गोष्ठी होती रहे और जीव दया का प्रचार हो, इस उद्देश्य से सूरिजी से प्रार्थना की-"आप लाहौर में विराजें, पर हमारे साथ वाचक मानसिंह-महिमराज को अवश्य भेजें, बड़ा लाभ मिलेगा।" सूरिजी ने वाचक जी के साथ मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा (जो मेघमाली गुरु के ज्योतिष-मंत्र तंत्रादि में निपुण थे) को साथ कर दिया ताकि सम्राट निर्दिष्ट किसी सावध कार्य में मुनि धर्म के आचार में बाधा न आवे। सम्राट श्रावण सुदि १३ के दिन ससैन्य प्रयाण करके राजा रामदास की बाड़ी में ठहरे। उस समय सम्राट, शाहजादा सलीम, राजा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२२७) ____ 2010_04 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा और विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई जिसमें आशीर्वाद प्राप्ति हेतु सूरि महाराज को भी अपनी शिष्य मंडली सहित आमंत्रित किया। इतः पूर्व एक बार किसी ने जैनों के "एगस्स सुतस्स अणंतो अत्यो" वाक्य पर उपहास किया था, जिस पर सूरिजी के विद्वान प्रशिष्य समयसुन्दर जी ने अगाम वाक्यों को सार्थक प्रमाणित करने की चुनौती स्वीकार की और व्याकरण सिद्ध "राजानो ददते सौख्यं' के दस लाख बाईस हजार चार सौ सात (१०२२४०७) अर्थ किए; जिसमें छद्मस्थ संभव अयुक्त अर्थ-योजना की पूर्ति के लिए २२२४०७ अर्थ छोड़ कर ग्रंथ का नाम अष्टलक्षी रखा। सम्राट ने इस सभा में प्रस्तुत ग्रंथ को बड़ी उत्सुकता से सुना और हर्षपूर्वक विद्वद् मंडली की प्रशंसा के बीच अपने हाथ से सौभाग्यशाली ग्रंथ निर्माता श्री समयसुन्दर जी के कर-कमलों में समर्पित किया और इसके सर्वत्र अधिकाधिक प्रचार की शुभेच्छा प्रकट की। मंत्रीश्वर ने वाचक जी आदि को निरवद्य आहार-पानी सुलभ हो इसके लिए कई अन्य श्रावकों को भी अपने साथ ले लिया। रोहितासपुर पहुंचने पर सम्राट ने मंत्रीश्वर को शाही अन्तःपुर की रक्षा हेतु वहीं रख दिया। काश्मीर की ठण्ड और पथरीले विषम मार्ग में पैदल चलने के कठिन परिषह को सहते देख सम्राट बड़ा प्रभावित हुआ। उसने मार्ग के कितने ही तालाबों की हिंसा बन्द कराई और काश्मीर विजय कर लौटते हुए श्रीनगर में आठ दिन तक की अमारि उद्घोषणा की। सं० १६४९ के माघ मास में लाहौर लौटने पर सूरिजी ने जयसोम, गुणविनय, रत्ननिधान, समयसुन्दर आदि मुनियों के साथ जाकर सम्राट को आशीर्वाद दिया। सम्राट ने वाचक जी को काश्मीर प्रवास में निकट से देखा था अतः उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए आचार्य पद से विभूषित करने के लिए सूरिजी से निवेदन किया। सूरिजी की सम्मति पाकर सम्राट ने मंत्री कर्मचन्द्र से कहा-"वाचक जी सिंह के सदृश चारित्र धर्म में दृढ़ हैं अतः उनका नाम "सिंह सूरि" रखा जाय और बड़े गुरु महाराज के उपयुक्त तुम्हारे धर्मानुसार ऐसा कौन सा सर्वोच्च पद है, जो उन्हें दिया जाए।" मंत्री कर्मचन्द्र ने श्री जिनदत्तसूरि का जीवनवृत्त बतलाया और उनको देवता प्रदत्त युगप्रधान पद से प्रभावित होकर अकबर ने सूरिजी को "युगप्रधान" घोषित करते हुए जैन धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की आज्ञा दी। कर्मचन्द्र ने राजा रायसिंह जी की अनुमति पाकर संघ को एकत्र किया और संघ आज्ञा प्राप्त कर फाल्गुन कृष्णा १० से अष्टाह्निका-महोत्सव प्रारम्भ किया और फाल्गुन शुक्ला २ के दिन मध्याह्न में श्री जिनसिंहसूरि को आचार्य पद, वा० जयसोम और रत्ननिधान को उपाध्याय पद, पं० गुणविनय और समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से विभूषित किया गया। यह उत्सव संखवाल साधुदेव के बनवाये हुए खरतर-गच्छोपाश्रय में हुआ। मंत्रीश्वर ने दिल खोलकर अपार धनराशि व्यय की। सम्राट ने लाहौर में तो अमारि उद्घोषणा की ही, पर सूरिजी के उपदेश से खंभात के समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया। "युगप्रधान" गुरु के नाम पर मंत्रीश्वर (२२८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने सवा करोड़ का दान किया। सम्राट के सन्मुख भी दस हजार रुपये, १० हाथी, १२ घोड़े और २७ तुक्कस भेंट रखे, जिसमें से सम्राट ने मंगल के निमित्त केवल एक रुपया स्वीकार किया। सूरि महाराज ने बोहित्थ संतति को पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक पर्यों में जयतिहुअण बोलने का व श्रीमाली को प्रतिक्रमण में स्तुति बोलने का आदेश दिया। राजा रायसिंह जी ने कितने ही आगमादि ग्रंथ सूरि महाराज को समर्पण किये, जिन्हें बीकानेर ज्ञान भण्डार में रखा गया। लाहौर में धर्म प्रभावना करके सूरिजी महाराज हापाणा पधारे और सं० १६५० का चातुर्मास किया। एक दिन रात्रि के समय उपाश्रय में चोर आये पर साधुओं के पास क्या रखा था? बीकानेर ज्ञान भण्डार के लिए प्राप्त ग्रन्थादि चुरा कर चोर जाने लगे तो सूरिजी के तपोबल से वे अन्धे हो गये और पुस्तकें वापस आ गईं। सम्राट के पास लाहौर में जयसोम उपाध्यायादि चातुर्मास हेतु स्थित थे ही, सूरि महाराज ने लाहौर आकर सं० १६५१ का चातुर्मास किया जिससे अकबर को धर्मोपदेश निरन्तर मिलता रहा। अनेक शिलालेखादि से प्रमाणित है कि सूरिजी के उपदेश से सम्राट ने सब मिला कर वर्ष में छ: मास अपने राज्य में जीव-हिंसा निषिद्ध की तथा सर्वत्र गोवध बन्द कर गोरक्षा की और शQजय को कर मुक्त किया। सम्राट के दरबारी अबुलफज़ल, आजमखान खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी का बड़ा प्रभाव था। धर्मसागर उपाध्याय के ग्रंथ जो कई बार अप्रमाणित ठहराये जा चुके थे, फिर प्रवचन परीक्षा ग्रंथ का विवाद छिड़ा जिसे अबुलफज़ल की उपस्थिति में निकाले हुए शाही फरमान से निराकृत किया जाना प्रमाणित है। सम्राट ने सूरिजी से पंचनदी के पाँच पीरों को वश में करने का आग्रह किया क्योंकि जिनदत्तसूरि जी के कथा प्रसंग से वह प्रभावित था। सूरिजी सं० १६५२ का चातुर्मास हापाणा में करके मुलतान पधारे और चन्द्रवेलिपत्तन जाकर पंचनदी के संगम स्थान में आयंबिल व अष्टम तप पूर्वक पहुँचे। सूरिजी के ध्यान में निश्चल होते ही नौका निश्चल हो गई। उनके सूरिमंत्र जाप और सद्गुणों से आकृष्ट होकर पाँच नदी के पाँच पीर, मणिभद्र यक्ष, खोडिया क्षेत्रपालादि सेवा में उपस्थित हो गये और उन्होंने धर्मोन्नति-शासन प्रभावना में सहायता करने का वचन दिया। सूरिजी प्रात:काल चन्द्रवेलिपत्तन पधारे। पोरवाड साह नानिग के पुत्र राजपाल ने उत्सव किया। वहाँ से उच्चनगर होते हुये देरावर पधारे और दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के निर्वाण स्थान की चरण वन्दना की। तदनन्तर श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के निर्वाण स्तूप और नवहरपुर पार्श्वनाथ की यात्रा कर जैसलमेर में सं० १६५३ का चातुर्मास किया। फिर अहमदाबाद आकर माघ सुदि १० को धन्ना सुतार की पोल में, शामला की पोल में और टेमला की पोल में बड़े समारोहपूर्वक जिनालयों की प्रतिष्ठा करवायी। सं० १६५४ में शत्रुजय पधार कर ज्येष्ठ सुदि ११ को मोटीट्क-विमलवसही के सभा मण्डप में दादा साहब श्री जिनदत्तसूरि जी एवं श्री जिनकुशलसूरि जी की चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। वहाँ से अहमदाबाद पधार कर चातुर्मास किया। सं० १६५५ का वर्षावास खंभात में किया। सम्राट अकबर ने बुरहानपुर में सूरिजी को स्मरण किया। फिर ईडर आदि में विचरते हुए अहमदाबाद संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२२९) 2010_04 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये। यहाँ मंत्री कर्मचन्द्र का देहान्त सं० १६५६ के मार्गशिर मास के बाद हुआ। सं० १६५७ का वर्षावास पाटण में बिता कर सिरोही पधारे, वहाँ पर माघ सुदि १० को प्रतिष्ठा की। सं० १६५८ खंभात, १६५९ अहमदाबाद, सं० १६६० पाटण, सं० १६६१ में महेवा चातुर्मास किया। मिती मिगसर कृष्णा ५ को कांकरिया कम्मा के द्वारा जिनालय प्रतिष्ठा करवाई। सं० १६६२ में बीकानेर पधारे। मिती चैत्र वदि ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित शत्रुजयावतार आदिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई। सं० १६६३ का चातुर्मास बीकानेर हुआ। सं० १६६४ वैशाख सुदि ७ को बीकानेर में श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा की। सं० १६६४ का चातुर्मास लवेरा में हुआ। जोधपुर से राजा सूरसिंह वन्दनार्थ आये। अपने राज्य में सर्वत्र सूरिजी का वाजित्रों के साथ प्रवेशोत्सव हो, ऐसा परवाना जारी किया। सं० १६६५ में मेड़ता चातुर्मास कर अहमदाबाद पधारे। सं० १६६६ का खंभात, सं० १६६७ का अहमदाबाद और सं० १६६८ का चातुर्मास पाटण में किया। इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे सूरिजी को वृद्धावस्था में भी सत्वर विहार करके गुजरात से आगरा आना पड़ा। बात यह थी कि जहाँगीर का शासन था, उसने किसी यति के अनाचार से क्षुब्ध होकर सभी यति साधुओं को आदेश दिया कि वे गृहस्थ बन जाएँ, अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाय। इस आज्ञा से सर्वत्र खलबली मच गई। कई देश-देशान्तर गये और कई भूमिगृहों में छिप गये। इस समय जैन शासन में आपके सिवा कोई ऐसा प्रभावशाली नहीं था जो सम्राट के पास जाकर उसकी आज्ञा रद्द करावे। सूरि महाराज आगरा जाकर बादशाह से मिले और उसके हुक्म को रद्द करवा के साधुओं का विहार खुलवाया। सं० १६६९ का चातुर्मास आपने आगरे में किया। इस चौमासे में बादशाह जहाँगीर का सूरिजी से अच्छा संपर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को पराजित कर सूरिजी ने "सवाई युगप्रधान भट्टारक" नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। ___चातुर्मास के पश्चात् सूरिजी मेड़ता पधारे। बीलाड़ा के संघ की विनती से आपने बीलाड़ा चातुर्मास किया। आपके साथ सुमतिकल्लोल, पुण्यप्रधान, मुनिवल्लभ, अमीपाल आदि साधु थे। पर्युषण के पश्चात् ज्ञानोपयोग से अपनी आयु शेष जान कर, शिष्यों को हित शिक्षा देकर अनशन कर लिया। चार प्रहर अनशन पाल कर सं० १६७० आश्विन कृष्णा २ को स्वर्गधाम पधारे। आपकी अन्त्येष्टि बाण गंगा के तट पर वनराजी शोभित भूमिका में मेड़तिया दरवाजा के बाहर बड़े भारी समारोह के साथ की गई। कृष्णागर, चंदन, घृत से चिता प्रज्वलित हुई और देखते-देखते आपकी तपः पूत देह भस्मीभूत हो गई, परन्तु आश्चर्य है कि आपकी मुखवस्त्रिका लेश मात्र भी नहीं जली। अग्नि-संस्कार स्थान पर बीलाड़ा संघ ने सुन्दर स्तूप बनवाया और गुरुदेव के चरणों की प्रतिष्ठा मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन की गई। आपके पट्ट पर श्री जिनसिंहसूरि विराजमान हुए। आपश्री महान् प्रभावक युगप्रधान आचार्य थे, चिरकाल तक विविध प्रकार से शासन सेवा कर ईशान देवलोक में उत्पन्न हुए। जैन शासन में आप चौथे दादा साहब नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। (२३०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी चरण पादुकाएँ-मूर्तियाँ उसी समय जैसलमेर, बीकानेर, मुलतान, खंभात, शत्रुजय आदि स्थानों में प्रतिष्ठित हुईं। बिलाड़ा तो मूल स्वर्ग-स्थान ही है, जहाँ दादावाड़ी में प्रतिवर्ष स्वर्गवास तिथि पर मेला लगता है। सूरत, पाटण, अहमदाबाद, भरुच, भाइखला-बम्बई आदि स्थानों पर आपकी स्वर्गतिथि दादा दूज नाम से प्रसिद्ध है और गुजरात की दादावाड़ियों में मेला लगता है। सूरिजी का विशाल साधु-साध्वी समुदाय था, उन्होंने ४४ नन्दियों में दीक्षाएँ दी जिससे २००० साधुओं के समुदाय का सहज अनुमान किया जा सकता है। इनके स्वयं के ९५ शिष्य थे, प्रशिष्य समयसुन्दर जी जैसों के ४४ शिष्य थे। इनके आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वी सारे भारत में विचरण करते थे। आपने स्वयं राजस्थान में २९, गुजरात में २०, पंजाब में ५ और दिल्ली-आगरा प्रदेशों में ५ चातुर्मास किये। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के स्वदीक्षित शिष्य ९५ थे। साधनाभाव से सभी के नाम प्राप्त नहीं हैं, किन्तु इनकी विद्वत् शिष्य-परम्परा में कई प्रसिद्ध साहित्यकार विद्वान् हुए हैं। उनके द्वारा रचित कृतियों की प्रशस्तियों एवं अन्त:साक्ष्यों के आधार पर जो नाम प्राप्त होते हैं, उनमें से कतिपय उल्लेखनीय नाम निम्न हैं :१. पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि - इनका परिचय आगे दिया गया है। २. इनके प्रथम शिष्य सकलचन्द्र गणि थे और सकलचन्द्र गणि के शिष्य विश्वविश्रुत साहित्यकार महोपाध्याय समयसुन्दर हुए। इनका परिचय एवं शिष्य परम्परा का उल्लेख आचार्य शाखा की परम्परा में दिया गया है। ३. नयविलास, ४. ज्ञानविलास, ५. हर्षविमल, ६. कल्याणकमल, ७. वाचक तिलककमल, ८. नयनकमल, ९. समयराजोपाध्याय, १०. धर्मनिधानोपाध्याय, ११. रत्ननिधानोपाध्याय, १२. रंगनिधान, १३. कल्याणतिलक, १४. सुमतिकल्लोल, १५. वाचक हर्षवल्लभ, १६. वाचक पुण्यप्रधान, १७. महो० सुमतिशेखर, १८. दयाशेखर, १९. भुवनमेरु, २०. लालकलश, २१. राजहर्ष, २२. निलयसुन्दर, २३. कल्याणदेव, २४. हीरोदय, २५. विजयराज। ___क्रमाङ्क ४ ज्ञानविलास के चार शिष्य हुए। इनके नाम हैं :-समयप्रमोद, लब्धिशेखर, ज्ञानविमल और नयनकलश। क्रमाङ्क ५ हर्षविमल के एक शिष्य श्रीसुन्दर का उल्लेख मिलता है। क्रमात ७ वाचक तिलककमल के शिष्य पद्महेम हुए। इनके चार शिष्यों आनन्दवर्धन, दानराज, नेमसुन्दर और हर्षराज का उल्लेख मिलता है। इनमें से दानराज की शिष्य सन्तति का विकास १. जिनचन्द्रसूरि के पौत्र शिष्य और पद्मकीर्ति के शिष्य रामचन्द्र अच्छे विद्वान्, कवि और वैद्यकशास्त्र में निष्णात् थे। इनके द्वारा वि०सं० १७२० में रचित रामविनोदवैद्यक और वि०सं० १७२३ में रचित वैद्यविनोद आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं और अभी तक अप्रकाशित ही हैं। (२३१) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। दानराज के शिष्य हीरकीर्ति हुए। इनके दो शिष्यों- राजहर्ष और मतिहर्ष का उल्लेख मिलता है। राजहर्ष के शिष्य राजलाभ हुए। राजलाभ के दो शिष्यों-राजसुन्दर और क्षमाधीर का उल्लेख मिलता है। हीरकीर्ति के दूसरे शिष्य मतिहर्ष के दो शिष्यों-भुवनलाभ और महिमामाणिक्य का उल्लेख मिलता है। भुवनलाभ के शिष्य तेजसुन्दर हुए। भुवनलाभ के गुरुभ्राता महिमामाणिक्य के तीन शिष्य हुए-महिमसुन्दर, मुक्तिसुन्दर और श्रीचन्द्र। क्रमाङ्क ८ नयनकमल के शिष्य जयमंदिर हुए। क्रमाङ्क ९ समयराजोपाध्याय के शिष्य अभयसुन्दर हुए। अभयसुन्दर के शिष्य कमललाभोपाध्याय और कमललाभोपाध्याय के शिष्य लब्धिकीर्ति हुए। इनके शिष्य राजहंस हुए। राजहंस के शिष्य देवविजय और देवविजय के शिष्य चरणकुमार हुए। क्रमाङ्क १० धर्मनिधानोपाध्याय के तीन शिष्य हुए-सुमतिसुन्दर, धर्मकीर्ति और समयकीर्ति. धर्मकीर्ति के चार शिष्यों- दानसार, विद्यासार, महिमसार और राजसार का उल्लेख मिलता है। धर्मनिधानोपाध्याय के तीसरे शिष्य समयकीर्ति के एक शिष्य श्रीसोम का उल्लेख मिलता है। क्रमाङ्क ११ रत्ननिधानोपाध्याय के शिष्य रत्नसुन्दर हुए। क्रमाङ्क १४ सुमतिकल्लोल के शिष्य विद्यासागर का उल्लेख मिलता है। क्रमाङ्क १६ वाचक पुण्यप्रधान की शिष्य सन्तति का आचार्य शाखा में स्वतंत्र रूप से परिचय दिया गया है। क्रमाङ्क १७ सुमतिशेखर के पाँच शिष्यों-ज्ञानहर्ष, चारित्रविजय, महिमाकुशल, रत्नविमल और महिमाविमल का उल्लेख मिलता है। इनमें से ज्ञानहर्ष के शिष्य खेतसी हुए। अन्य मुनिजनों की शिष्य परम्परा के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। क्रमाङ्क १९ भुवनमेरु के शिष्य पुण्यरत्न हुए। इनके शिष्य का नाम दयाकुशल था। दयाकुशल के शिष्य धर्ममंदिर हुए। क्रमाङ्क २० लालकलश के शिष्य ज्ञानसागर हुए और ज्ञानसागर के शिष्य हुए कमलहर्ष। (२३२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनसिंहसूरि आचार्य जिनसिंहसूरि युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे। साथ ही वे असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् और कठिन साध्वाचार वाले प्रभावक पुरुष थे। इनका जन्म सं० १६१५ के मार्गशीर्ष पूर्णिमा को खेतासर ग्राम निवासी चोपड़ा गोत्रीय शाह चांपसी की धर्मपत्नी चांपल देवी की रत्नकुक्षि से हुआ था। आपका जन्म नाम मानसिंह था। सं० १६२३ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि खेतासर पधारे थे, तब आचार्यश्री के उपदेशों से प्रभावित एवं वैराग्यवासित होकर आठ वर्ष की अल्पायु में ही आपने पूज्यश्री के पास बीकानेर में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षावस्था का नाम महिमराज रखा गया था। आचार्यश्री ने सं० १६४० माघ शुक्ला ५ को जैसलमेर में आपको वाचक पद प्रदान किया था। सूरिजी के साथ विचरण कर इन्होंने विद्याध्ययन और तीर्थयात्राएँ की थीं। सं० १६२८ में मेवात देश में विचरण और शौरीपुर, हस्तिनापुरादि तीर्थों की यात्रा का उल्लेख है जिसमें आप भी गुरुदेव के साथ ही थे। श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर प्रतिबोध रास के अनुसार आपको सूरिजी ने अकबर के आमंत्रण से छः साधुओं के साथ लाहौर भेजा। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर बादशाह प्रतिदिन इनसे धर्मचर्चा करता था और काश्मीर प्रवास में भी सूरिजी से आज्ञा प्राप्त कर इनको साथ ले गया जिससे गजनी और काबुल तक अमारि उद्घोषणा हुई। इन्होंने काश्मीर तथा मार्गवर्ती अनेक तालाबों के जलचर जीवों की रक्षा व श्रीनगर में आठ दिन अमारि उद्घोषणा कराई। वाचकजी के सहवास से सम्राट पर जो अमिट प्रभाव पड़ा था इसी से सम्राट ने काश्मीर से आते ही सूरिजी से प्रार्थना कर इन्हें आचार्य पद से अलंकृत कराया। उस अवसर पर मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र ने करोड़ों रुपये सद्व्यय कर अभूतपूर्व महोत्सव का आयोजन किया, जिसका उल्लेख पीछे आ चुका है। सूरचन्द्र कृत रास के अनुसार इस पद महोत्सव पर टांक गोत्रीय श्रीमाल राजपाल ने १८०० घोड़े दान किये थे। अकबर की सभा में ब्राह्मणों के आक्षेप पर गंगा नदी की पवित्रता और सूर्य की अनुपस्थिति में रात्रिभोजन-त्याग आदि प्रत्युत्तर देकर विजय प्राप्त की थी। पाटण में धर्मसागर कृत ग्रंथ को अप्रमाणित करने तथा संघपति सोमजी के संघ के साथ शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा की थी। इस रास में आपके पिता का निवास स्थान बीठावास लिखा है। सं० १६५६ मिगसर सुदि १३ को बीकानेर में बोथरा धर्मसिंह-धारलदेनंदन-खेतसी को दीक्षा देकर राजसिंह का नाम रखा। बड़ी दीक्षा गुरु महाराज के कर-कमलों से हुई। तब "राजसमुद्र' नाम प्रसिद्ध किया। सं० १६६१ माघ सुदि ८ को बीकानेर के शाह वच्छराज बोथरा और मृगा देवी के पुत्र चोला (उपनाम सामल) को माता और बड़े भाई विक्रम के साथ अमरसर में दीक्षा दी। श्रीमाल थानसिंह ने दीक्षोत्सव में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। इनका दीक्षा नाम सिद्धसेन मुनि प्रसिद्ध किया गया। बड़ी दीक्षा राजनगर में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने दी। ये दोनों शिष्य आगे चलकर भट्टारक आचार्य जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३३) _ 2010_04 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी समय में (इलाही सन् ४१ ता० ३१ खुरदाद) आषाढ़ी अष्टाह्निका के फरमानों में सूबे मुलतान का फरमान खो जाने से श्री जिनसिंहसूरि जी ने सम्राट अकबर से नया फरमान प्राप्त किया। जिसका उल्लेख सम्राट ने स्वयं किया है। सं० १६६२ में बीकानेर के ऋषभदेव जिनालय की प्रतिष्ठा के समय आप गुरु महाराज के साथ थे। सम्राट अकबर और जहाँगीर से आपका बराबर सम्बन्ध रहा है। जहाँगीर को बोध देकर अभयदान की उद्घोषणा कराई एवं नवाब मुकुरबखान को भेजकर "युगप्रधान" पद दिया। सं० १६७० में गुरुदेव के निर्वाण के अनन्तर गच्छनायक युगप्रधान हुए। सं० १६७१ में लवेरा में समयसुन्दर वाचनाचार्य को उपाध्याय पद से विभूषित किया। इसी वर्ष मिती पौष सुदि १३ को मेड़ता से आसकरण चोपड़ा के शत्रुजय-आबू आदि तीर्थों के विशाल संघ के साथ चैत्री पूनम की यात्रा कर आसकरण को संघपति पद दिया। फिर खंभात से स्तंभन पार्श्वनाथ की यात्रा कर पाटण, अहमदाबाद होकर बडली पधारे। दादा जिनदत्तसूरि जी के चरणों के दर्शन किये। वहाँ से सीरोही पधारे। वहाँ राजा रायसिंह ने बड़ी भक्ति की। वहाँ से जालौर पधारने पर संघ ने समारोहपूर्वक नगर प्रवेश कराया। खांडप, द्रुनाड़ा होते हुए घंघाणी तीर्थ में प्राचीन प्रतिमाओं के दर्शन किए। वहाँ से क्रमशः विहार करते बीकानेर पधारने पर शाह बाघमल ने धूमधाम से प्रवेशोत्सव कराया। श्री जिनसिंहसूरि जी ने गुरुदेव के स्वर्गगमन स्थान बिलाड़ा में मिगसर सुदि १० को उनकी चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। सं० १६७२ में वैशाख सुदि ९ को जैसलमेर में देदानसर तालाब स्थित दादावाड़ी में चरणपादुकाएँ स्थापित की। यहाँ के स्तंभ पर लेख खुदा है जिसमें राउल कल्याणदास व कुंवर मनोहरदास का राज्यकाल लिखा है। खंभात में भी आपने गुरुदेव के चरण प्रतिष्ठित किए थे जिनका लेख सं० १६७७ (?) माघ वदि १० का है और आपके द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखाङ्क ८८२ में संवत् पढ़ने में भूल हुई है। सं० १६७४ का चातुर्मास बीकानेर में हुआ। सम्राट जहाँगीर आपके दर्शनों के लिए अति उत्कण्ठित था। उसने अपने बड़े-बड़े उमराव और वजीरों को भेजकर आगरा पधारने की वीनती कराई। फरमान पढ़ कर संघ बड़ा आनन्दित हुआ। सम्राट के आग्रह से आचार्यश्री ने बीकानेर से विहार किया और मेड़ता पधारे। वहाँ के संघ की अतिशय भक्ति से एक मास रुकना पड़ा। वहाँ से सम्राट के पास जाने के लिए प्रयाण किया पर मनुष्य का विचारा नहीं होता। सूरि महाराज का शरीर अस्वस्थ हो गया और उन्हें वापस लौटकर मेड़ता आना पड़ा। ज्ञानदृष्टि से अपना आयुष्य अल्प ज्ञात कर, अनशन-आराधनापूर्वक चौरासी लक्ष जीवयोनि से क्षमत-क्षामणा करके मिती पौष सुदि १३ के दिन स्वर्ग सिधारे। मेड़ता संघ ने सूरिजी के पट्ट पर अभिषिक्त करने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर राजसमुद्र वाचक जी को गच्छनायक भट्टारक और सिद्धसेन को आचार्य पद देने का निर्णय किया। चोपड़ा आसकरण, अमीपाल, कपूरचन्द, ऋषभदास, सूरदास परिवार ने संघ से आज्ञा प्राप्त कर सं० १६७४ फाल्गुन वदि ७ सोमवार को पदस्थापना महोत्सव किया। (२३४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर रेल दादाजी में आपश्री की एक स्तूप में चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित की गई। जिस पर सं० १६७६ मिती ज्येष्ठ वदि ११ का लेख उत्कीर्ण है। नाहटों की गवाड़ में श्री ऋषभदेव जी के मन्दिर में भी जसमा श्राविका ने आपश्री के चरण सं० १६८६ चैत्र वदि ४ को श्री जिनराजसूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाये। - आचार्य जिनहंससूरि के पट्टधर जिनराजसूरि और आचार्य जिनसागरसूरि हुए। इनके अतिरिक्त पाँच शिष्यों के नाम और मिलते हैं :-१. हीरनन्दन, २. पद्मकीर्ति, ३. जीवरङ्ग, ४. गुणचन्द्र और ५. हेममन्दिर। १. हीरनन्दन का शिष्य - लालचन्द। २. पद्मकीर्ति के शिष्य - १. पद्मचन्द्र २. रामचन्द्र। ३. जीवरङ्ग का शिष्य - पद्मरत्न - धर्मविमल। इसके दो शिष्य हुए - रङ्गधर्म और कल्याणकीर्ति। 卐 आचार्य श्री जिनराजसूरि बीकानेर निवासी बोहित्थरा (बोथरा) गोत्रीय श्रेष्ठी धर्मसी के ये पुत्र थे। इनकी माता का नाम धारल देवी था। सं० १६४७ वैशाख सुदि ७ बुधवार, छत्रयोग, श्रवण नक्षत्र में इनका जन्म हुआ। इनका जन्म नाम खेतसी था। वे सात भाई थे १. राम, २. मेहा, ३. खेतसी, ४. भैरव, ५. केशव, ६. कपूर, ७. सालद। सं० १६५६१ में श्री जिनसिंहसूरि जी के पधारने पर उनके उपदेश से वैराग्यवासित होकर मार्गशीर्ष सुदि १३ को दीक्षाग्रहण की। धर्मसी साह ने दीक्षा का बड़ा उत्सव किया। नवदीक्षित मुनि का नाम राजसिंह रखा गया। मण्डल-तपादि वहन करने के पश्चात् श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने इन्हें बड़ी दीक्षा दी और नाम राजसमुद्र प्रसिद्ध किया। ये बाल्यकाल से ही प्रतिभाशाली थे, १६ वर्ष की अवस्था में तो आगरा में इन्होंने “चिन्तामणि" शास्त्र का पूर्ण अध्ययन किया था। इस समय की इनकी स्वलिखित प्रति वर्तमान में महो० विनयसागर जी के पास जयपुर में सुरक्षित है। अल्प समय में ही स्वयं श्री जिनसिंहसूरि जी के पास अध्ययन किया और सूत्रों को पढ़कर गीतार्थ हो गए। आसाउलि में गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने इन्हें वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। आपके प्रबल पुण्योदय से अम्बिका देवी प्रत्यक्ष हुई और उसी भगवती की कृपा से घंघाणी में जो सं० १६६२ में प्रतिमाएँ भूमिगृह से निकली थीं, उनकी प्राचीन लिपि पढ़कर सबको चकित कर दिया। जैसलमेर में राउल भीमसिंह के सन्मुख तपागच्छीय सोमविजय १. समयसुन्दर जी ने १६५७ मि०सु० १ एवं प्रबन्ध में भी, बुध की जगह शुक्रवार लिखा है। २. पदार्थतत्त्वटिप्पण, पत्र १९ लेखन १६६३ राजसमुद्र (जिनराजसूरि) ने लिखा है। "पाठितम् च महादेव भट्टाचार्यैः" अर्थात् महादेव भट्टाचार्य के पास इन्होंने न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३५) 2010_04 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी को शास्त्रार्थ में आपने पराजित किया। सं० १६७४ में आचार्य श्री जिनसिंहसूरि जी का मेड़ता में स्वर्गवास हो जाने पर फाल्गुन शुक्ला ७१ को गच्छनायक आचार्य बने। इसका पट्ट महोत्सव मेड़ता के चोपड़ा गोत्रीय संघवी आसकरण ने किया। पूर्णिमापक्षीय श्री हेमाचार्य ने सूरि-मंत्र प्रदान किया था, इनके साथ ही आचार्य जिनसागरसूरि को भी पदस्थ किया गया। अहमदाबाद निवासी संघपति सोमजी शाह ने शत्रुजय के अष्टमोद्धार रूप में मरुदेवी ट्रंक वाले शिखर पर खरतर-वसही की एक नई ढूंक विशाल रूप में अठावन लाख के अर्थ व्यय से निर्माण कराई। सोमजी शाह का देहान्त हो जाने पर उनके पुत्र रूप जी शाह ने सं० १६७५ वैशाख सुदि १३ शुक्रवार को श्री जिनराजसूरि जी के कर-कमलों से ५०१ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवायी। चारों ओर से विशाल यात्री संघ एकत्र हुआ। जैसलमेर निवासी थाहरु शाह भणशाली ने प्राचीन तीर्थ लौद्रवानी का पुनरुद्धार कराया और सहस्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु की अद्वितीय कलापूर्ण दो प्रतिमाओं आदि की प्रतिष्ठा भी सं० १६७५ मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को सूरिजी के कर-कमलों से सम्पन्न कराई। इन्हीं थाहरु शाह ने जैसलमेर में ज्ञान भण्डार स्थापित किया था और सूरिजी की निश्रा में शत्रुजय का संघ भी निकाला था। भाणवड़ नगर में अमृतस्रावि पार्श्वनाथ आदि जिनेश्वरों की ८० प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराकर तीर्थ की स्थापना भी आप ही ने की थी। सं० १६७७ ज्येष्ठ वदि ५ को मेड़ता नगर में गणधर चोपड़ा, आसकरण कारापित शान्तिनाथ जिनालयादि की प्रतिष्ठा की एवं बीकानेर, अहमदाबाद, पाली आदि नगरों में भी आपने कई बार प्रतिष्ठा कराई। सं० १६८६ में मार्गशीर्ष कृष्णा ४ रविवार को आप आगरे में सम्राट शाहजहाँ से मिले थे और वहाँ ब्राह्मणों को वाद में परास्त किया था। दर्शनीसाधु लोगों के विहार का जहाँ कहीं प्रतिषेध था वह खुलवाकर आपने शासनोन्नति की। राजा गजसिंह जी, सूरसिंह जी, असरफखान, आलम दीवान आदि ने आपकी बड़ी प्रशंसा की। नवाब मुकरबखान भी आपके शुद्ध और कठोर साध्वाचार का बड़ा प्रशंसक था। अम्बिका देवी और ५२ वीर आपके प्रत्यक्ष थे। आपने सिन्ध विहार में पंच नदी के पाँच पीरों को साधित किए थे। ____ आप उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। नैषधकाव्य पर ३६००० श्रीक परिमित जैनराजी वृत्ति, स्थानांगसूत्रविषमपदार्थ वृत्ति, शालिभद्र चौपाई, गजसुकमालचौपाई, चौबीसी, बीसी तथा संख्याबद्ध स्तवन सज्झाय पदादि की रचना की जो "जिनराजसूरिकृतिकुसुमांजलि" में प्रकाशित हैं। आपने ८ बार शत्रुजय की यात्रा की। पाटण के संघ के साथ गौड़ी पार्श्वनाथ, गिरनार, आबू, राणकपुरादि की यात्रा की। आपने ६ मुनियों को उपाध्याय पद, ४१ को वाचक पद एवं एक साध्वी जी को प्रवर्तिनी १. प्रबंध में द्वितीया लिखी है। स्वर्गवास १६९९ भी मिलता है। संभव है दीक्षा में बड़ी दीक्षा की तिथि को तथा स्वर्गवास संवत् को गुजराती पद्धति से लिखा हो। २. नैषधीय जैनराजी वृत्ति की पूर्ण प्रति भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुणे में सुरक्षित है। किन्तु इस प्रति में रचना प्रशस्ति प्राप्त नहीं है। महोपाध्याय विनयसागर संग्रह में दस सर्गात्मक प्रति प्राप्त है। निर्णय सागर, बम्बई के संस्करण में संपादकों ने टिप्पण में जैनराजी टीका के मतों का यत्र-तत्र उल्लेख किया है। (२३६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद से विभूषित किया। नवानगर के चातुर्मास के समय दोसी माधवादि ने ३६००० जामसाही (मुद्रा) व्यय की। राउल कल्याणदास व कुंवर मनोहरदास के आमंत्रण से जैसलमेर पधारे। संघवी थाहरू ने प्रवेशोत्सव किया। आपके शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या ४१ थी। सं० १६७८ में फाल्गुन कृष्णा ७ को जैसलमेर में रंगविजय जी को दीक्षा दी एवं उपाध्याय पद से भी आपने ही उन्हें विभूषित किया था। सं० १७०० में चातुर्मास हेतु पाटण पधारे और श्री जिनरत्नसूरि जी को पट्ट पर स्थापित कर आषाढ़ शुक्ला ९ को स्वर्ग सिधारे। 卐卐 आचार्य श्री जिनरत्नसूरि 8 मरुधर देश के सेरुणा ग्राम में ओसवाल लूणिया गोत्रीय तिलोकसी शाह की धर्मपत्नी तारादेव की कोख से आपने सं० १६७० में जन्म लिया। आपका जन्म नाम रूपचन्द था। सं० १७७१ में लिखे एक पत्र के अनुसार सेठ के दो स्त्रियों में प्रथम तारा के पुत्र का नाम रतनसी और जन्मदातृ तेजलदे के पुत्र रूपचन्द थे। सुखपूर्वक काल निर्गमन करते सेठ तिलोकसी का देहान्त हो गया। भट्टारक श्री जिनराजसूरि के बीकानेर पधारने पर वैराग्यवासित माता अपने दोनों पुत्रों के साथ बीकानेर आई और पूज्य श्री से निवेदन किया कि मुझे दोनों पुत्रों के साथ दीक्षित करने की कृपा करें। सूरिजी ने १६ वर्षीय रतनसी के साथ माता को दीक्षा दे दी। रूपचन्द आठ वर्ष के थे। अतः भावचारित्रीवैरागी रूप में विद्याध्ययन करने लगे, गृहस्थ के यहाँ भोजन करते थे। विमलकीर्ति गणि के पास महाव्याकरण, काव्यादि पढ़े। उनके गुरु श्री साधुसुन्दरोपाध्याय ने जब ये १४ वर्ष के थे तब जोधपुर में अध्ययनपूर्ण कराके पाटणस्थ भट्टारक आचार्य श्री जिनराजसूरि जी से वासक्षेप मंगा कर दीक्षित किया। जब ये १२ वर्ष के थे तब एक बार जालौर में तपागच्छपति श्री विजयदेवसूरि जी महाराज के सन्मुख पाँच घंटे तक धारा प्रवाह संस्कृत बोलते देख कर उन्होंने श्री जिनराजसूरि जी से कहा था"ये आपके पाट के अत्यधिक योग्य होगा।" सं० १६८४ वैशाख सुदि ३ को दीक्षा हुई। भणसाली गोत्रीय मंत्री सहसकरण के पुत्र मंत्री जसवंत ने दीक्षोत्सव किया। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने यावज्जीवन कढ़ाई विगय का त्याग कर दिया था। भट्टारक श्री जिनराजसूरि जी ने इन्हें बड़ी दीक्षा देकर "रत्नसोम" नाम प्रसिद्ध किया। __आपके सद्गुणों और योग्यता से आकृष्ट हो श्री जिनराजसूरि जी ने अहमदाबाद बुलाकर उपाध्याय पद से विभूषित किया। नाहटा जयमल तेजसी ने बहुत सा द्रव्य व्यय करके उत्सव किया था। सं० १७०० में श्री जिनराजसूरि जी चातुर्मास हेतु पाटण विराजमान थे, कनकसिंह कृत गीत के अनुसार मिती आषाढ़ सुदि ७ को अर्थात् अपने स्वर्गवास के दो दिन पूर्व अपने पट्ट पर स्थापित कर स्वयं सूरिमंत्र देकर श्री जिनरत्नसूरि नाम प्रसिद्ध किया। पाटण से विहार कर श्री जिनरत्नसूरि जी पालनपुर पधारे, संघ ने हर्षित होकर उत्सव किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३७) 2010_04 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ से संघ के आग्रह से स्वर्णगिरि-जालोर पधारे। श्रेष्ठि पीथे ने प्रवेशोत्सव किया। वहाँ से बीकानेर पधारे, नथमल वेणे ने बहुत सा द्रव्य व्यय कर प्रवेशोत्सव किया। वहाँ से उग्रविहार करते हुए सं० १७०१ का चातुर्मास वीरमपुर में संघाग्रह से किया। चातुर्मास समाप्त होते ही संघ के आग्रह से बाहड़मेर पधार कर सं० १७०२ का चौमासा वहाँ किया। सं० १७०३ का चातुर्मास कोटड़े में किया। वहाँ से श्रावकों की वीनती से जैसलमेर पधारे। गोपा साह ने प्रवेशोत्सव कर धन सार्थक किया। याचकों को दान से संतुष्ट किया। संघ के आग्रह से सं० १७०४ से १७०७ तक के चार चातुर्मास जैसलमेर में ही किये। आगरा संघ की विनती से आगरा पधारे। मानसिंह ने बेगम की आज्ञा प्राप्त कर सूरिजी का प्रवेशोत्सव बड़े समारोह से कराया। व्रत-पच्चक्खाण धर्मध्यान का ठाठ लग गया। तीन चातुर्मास सं० १७०८ से विराजे । सं० १७११ का भी संघाग्रह से वहीं हुआ, क्योंकि आषाढ़ सुदि १० से ही शारीरिक अशाता विशेष रूप से हो गई। अपना आयुष्य अल्प ज्ञात कर चौरासी लक्ष जीवयोनि से क्षमापना-आलोचनापूर्वक स्वयं अपने मुख से अनशन कर, अपने पट्ट पर हर्षलाभ को स्थापित कर, सं० १७११ मिती श्रावण वदि ७ सोमवार को स्वर्ग सिधारे। सूरिजी की अन्त्येष्टि बड़े धूमधाम से करके संघ ने दाहस्थल पर सुन्दर स्तूप का निर्माण कराया। 勇 आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि । उनके बाद आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि उनके पट्ट पर आसीन हुए। आपका जन्म बीकानेर निवासी चोपड़ा गोत्रीय साह सहसकरण (मल) की पत्नी सुपियारदे की कोख से सं० १६९३ में हुआ था। आपका जन्म नाम हेमराज था। सं० १७०७ (५?) मिती मिगसर सुदि १२ को जैसलमेर में दीक्षा हुई और दीक्षा नाम हर्षलाभ रखा गया। उस समय आप बारह वर्ष के थे। सं० १७११ में श्री जिनरत्नसूरि जी का आगरे में स्वर्गवास हुआ, तब आप राजनगर में थे। उनकी आज्ञानुसार भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को राजनगर में नाहटा गोत्रीय साह जयमल्ल, तेजसी की माता कस्तूर बाई कृत महोत्सव द्वारा आपकी पदस्थापना हुई। आप त्यागी, वैराग्यवान् और संयम मार्ग में दृढ़ थे। गच्छवासी यतिजनों में प्रविष्ट होती शिथिलता को दूर करने के लिए आपने सं० १७१७ मिती आसोज सुदि १० को बीकानेर में व्यवस्था पत्र जाहिर किया, जिससे शैथिल्य का परिहार हुआ। सं० १७३५ आषाढ़ शुक्ल ८ को खंभात में आपने बीस स्थानक तप करना प्रारम्भ किया। आपने अनेक देशों में विहार करते हुए सिन्ध में जाकर पंच नदी की साधना की। जोधपुर निवासी शाह मनोहरदास द्वारा कारित संघ के साथ श्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की और मंडोवर नगर में संघपति मनोहरदास द्वारा कारित चैत्य के शृंगारतुल्य श्री ऋषभदेवादि चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा की। १. माता का नाम कवि हर्षचन्द और कल्याणहर्ष "सुपियारदे" लिखते हैं। कवि विद्याविलास सिन्दूरदे और कवि करमसी राजलदे लिखते हैं। (२३८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने अपने शासन काल में बहुत सी दीक्षाएँ दी और अनेक स्थानों में विचरते हुए सं० १७६२ में सूरत बंदर पधारे। आषाढ़ सुदि ११ को स्वयं सकल संघ समक्ष अपने पट्ट पर श्री जिनसुखसूरि जी को स्थापित किया। पारख सामीदास, सूरदास ने पद महोत्सव बड़े धूमधाम से किया। सं० १७६३ में आपश्री सूरत में स्वर्गवासी हुए। 卐卐卐 आचार्य श्री जिनसुखसूरि आचार्य जिनचन्द्र के पट्ट पर श्री जिनसुखसूरि जी विराजे। ये फोगपत्तन निवासी साहलेच बोहरागोत्रीय पींचा नख के साह रूपसी' पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरूपा था। इनका जन्म सं० १७३९ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को हुआ था और जन्म नाम सुखजी था। सं० १७५१ माघ सुदि ५ को पुण्यपालसर ग्राम में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानंदिसूची के अनुसार आपकी दीक्षा सं० १७५२ फाल्गुन वदि ५ गुरुवार को बीकानेर में कीर्ति नंदी में हुई और आपका नाम सुखकीर्ति रखा गया और यह भी लिखा है कि आप स्वयं श्री जिनचन्द्रसूरि जी के शिष्य और बाद में "भट्टारक थया" किनारे पर उद्धृत किया गया है। सं० १७६३ आषाढ़ सुदि ११ को सूरत में पारख सामीदास सूरदास कृत पदमहोत्सवपूर्वक पाट पर विराजे। इस अवसर पर रातीजगा, संघ में पट्टकूलादि लावणी और स्वधर्मीवात्सल्यादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया गया। सूरि-पद प्राप्ति के अनन्तर कुछ वर्ष गुजरात में विचरे और प्रचुर परिमाण में दीक्षाएँ सं० १७६३, १७६६, १७६७, १७६८ में क्रमशः खंभात, पाटण और पालनपुरादि में अनेक बार हुईं। सं० १७७० में सांचौर, राड़धरा, सिणधरी, जालौर, थोभ, पाटोधी आदि में बहुत सी दीक्षाएँ हुईं। सं० १७७१ से १७७३ तक जैसलमेर एवं पोकरण में बहुत सी दीक्षाएँ हुईं। सं० १७७३ में नवहर में मिगसिर वदि ३ को इन्द्रपालसर के सेठिया भीमराज को दीक्षा देकर भक्तिक्षेम नाम से प्रसिद्ध किया। एक बार जब गुजरात में विचरते थे, घोघाबन्दर में नवखण्डा पार्श्वनाथ भगवान् की यात्रा करके संघ सहित श्री जिनसुखसूरि जी महाराज स्तंभतीर्थ जाने के लिए नौका में बैठे। दैवयोग से ज्योंही नाव समुद्र के बीच में पहुँची कि उसके नीचे का पाटिया टूट गया। ऐसी अवस्था में नाव को जल से भरती हुई देख कर आचार्यश्री ने अपने इष्ट देव की आराधना की। तब दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि जी के सहाय्य से एकाएक उसी समय एक नवीन नौका दिखाई दी, जिस पर बैठ कर सारा संघ सकुशल समुद्रपार कर तट पर उतरा, फिर वह नौका वहीं अदृश्य हो गई। इस प्रकार श्री शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा करने वाले, सर्वशास्त्रों के पारगामी तथा शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को परास्त करने वाले आचार्य श्री जिनसुखसूरि जी थे। आपके द्वारा रचित जैसलमेर चैत्य संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२३९) 2010_04 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपाटी एवं सं० १७६७ पाटण में रचित जैसलमेरी श्रावकों के प्रश्नों के उत्तरमय सिद्धांतीय विचार (पत्र ३५ जयचन्दजी भंडार') नामक ग्रंथ उपलब्ध हैं। सं० १७८० ज्येष्ठ कृष्णा दशमी को रिणी (वर्तमान तारानगर) नगर में तीन दिन का अनशन पूर्ण कर श्री जिनभक्तिसूरि जी को अपने हाथ से गच्छनायक पद प्रदान कर स्वर्ग सिधारे। उस समय देवों ने अदृश्य रूप में बाजे बजाये, जिसे श्रवण कर उस नगर के राजा-प्रजा सभी लोग चकित हो गए थे। अन्त्येष्टि क्रिया के स्थान पर संघ ने एक स्तूप बनाया जिसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला ६ सोमवार को आपके पट्टधर श्री जिनभक्तिसूरि जी ने की थी। वे चरण दादावाड़ी से लाकर रिणीतारानगर के शीतलनाथ जिनालय में रखे गये जो अभी विद्यमान हैं। उस पर निम्न अभिलेख उत्कीर्णित है "संवत् १७८० वर्षे शाके १६४५ प्रवर्तमाने ज्येष्ठ मासे कृष्ण पक्षे १० तिथौ शनिवारे भट्टारक श्री जिनसुखसूरि जी देवलोकं गतः तेषां पादुके श्रीरिणीमध्ये भट्टारक श्री जिनभक्तिसूरिभिः प्रतिष्ठितं । शुभभूयात्।.... माघ सुदि ६ तिथौ।" शुभ आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि श्री जिनसुखसूरि के पट्ट पर श्री जिनभक्तिसूरि आसीन हुए। इनके पिता सेठ गोत्रीय सा० हरिचन्द्र थे, जो इन्द्रपालसर गाँव निवासी थे। इनकी माता थी हरिसुख देवी। सं० १७७० ज्येष्ठ सुदि तृतीया को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम भीमराज था और सं० १७७९ मिगसर वदि ३२ को नवहर में श्री जिनसुखसूरि जी ने दीक्षित कर "भक्तिक्षेम" नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १७८०३ ज्येष्ठ वदि ३ को रिणीपुर में श्रीसंघ कृत महोत्सव से गुरु महाराज ने अपने हाथ से इन्हें पट्ट पर बैठाया था। तदनन्तर आपने अनेक देशों में विचरण किया। सादड़ी आदि नगरों में विरोधियों को हस्तिचालनादि प्रकार से (?) परास्त करके विजयलक्ष्मी को प्राप्त करने वाले, सब शास्त्रों में पारङ्गत, श्री सिद्धाचलादि सब महातीर्थों की यात्रा करने वाले, श्री गूढ़ा नगर में अजित जिन-चैत्य के प्रतिष्ठापक, महातेजस्वी, सकल विद्वज्जन शिरोमणि आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि के राजसोमोपाध्याय, १. उपाध्याय यति जयचन्द्र जी बीकानेर का संग्रह वर्तमान में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, शाखा कार्यालय, बीकानेर में सुरक्षित है। २. पाठान्तर माघ शुक्ल ९ ३. १७७९ (ऐ०जै०का०सं०, पृ० २५२) ४. इनकी दीक्षा सं० १७५४ में श्री जिनरत्नसूरि पट्टे जिनचन्द्रसूरि द्वारा पाली में हुई। आचार्यश्री के शिष्य तिलकधीर (१७४६ दीक्षित) के शिष्य थे। ये क्षमाकल्याण जी के विद्यागुरु थे। इनका राजसोम-विद्यागुरु अष्टक ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है। (२४०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामविजयोपाध्यायादि' विद्वान् आज्ञानुवर्ती थे। प्रीतिसागरोपाध्याय सूरि जी के शिष्य थे, जिनकी दीक्षा सं० १७८९ चैत्र वदि ३ को सांचौर में हुई थी। उनका गृहस्थ नाम प्रेमचंद था । श्री जिनभक्तिसूरि जी ने बहुतों को दीक्षित किया । सं० १४७९-८०, ८१ में रिणी, गारबदेसर और बीकानेर में भक्ति नंदी में ३० दीक्षाएँ दीं । सं० १७८२ में बीकानेर में हर्ष नंदी में १९ दीक्षित हुए । सं० १७८३ में वर्द्धन नंदी में १७ दीक्षाएँ उदरामसर, कैरु और फलौदी में, सं० १७८४ में जैसलमेर में नंदन नंदी में ११ दीक्षाएँ और १७८६ में समुद्र नंदी में ६ दीक्षाएँ दीं । सं० १७८८ में सिणधरी में, १७८९ में सांचौर व मंगलवास में सागर नंदी में २० दीक्षाएँ दीं। सं० १७९० में सोजत, देहरिया तथा १७९१ में पाली में तिलक नंदी में १८ दीक्षाएँ हुईं। इसी वर्ष पाली में ९ दीक्षाएँ विमल नंदी में हुईं। सं० १७९३ जालौर, आगोलाई में सौभाग्य नंदी में १० दीक्षाएँ दीं। सं० १७९४-९५ में बीकानेर में माणिक्य नंदी में ११ व लाभ नंदी में ८ दीक्षाएँ दीं। सं० १७९६ जैसलमेर में १२ दीक्षाएँ विलास नंदी में दीं। सं० १७९७ में सेन नंदी की, जिसमें जैसलमेर व सिणधरी में १४ दीक्षाएँ हुईं । सं० १८०० में पानला में कलश नंदी में ७ व जूनागढ़ में आनंद नंदी में भी ७ दीक्षाएँ सं० १८०२ में हुईं । इसके बाद आप कच्छ पधारे और श्री मांडवीबंदर में सं० १८०४ मिती ज्येष्ठ सुदि चतुर्थी को दिवंगत हुए। उस रात्रि को आपके अग्नि-संस्कार की भूमि ( श्मशान) में देवों ने दीपमाला की । सं० १८५२ में जैसलमेर स्थित अमृत-धर्मशाला में वा० क्षमाकल्याण जी ने आपके चरण प्रतिष्ठित किए। उपा० प्रीतिसागर गणि के शिष्य अमृतधर्म का गृहस्थ- नाम अर्जुन था । इनको सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को भुजनगर में जिनलाभसूरि जी ने दीक्षा दी थी। उनके शिष्य क्षमाकल्याण गणि की परम्परा में वर्तमान साधु समुदाय है । १. ये क्षेम शाखा में दयासिंह के शिष्य थे। इनका गृहस्थ नाम रूपचंद था । सं० १७५५ माघ वदि ६ को सादड़ी में श्री जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा दी थी। सं० १८०७ जोधपुर में इन्होंने गौतमीय महाकाव्य की रचना की । सं० १७८८ में शतकत्रय बालावबोध सोजत में रचा था। २. देखें, खरतरगच्छ - दीक्षानन्दी सूची संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 卐卐卐 (२४१) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनलाभसूरि आचार्य श्री जिनभक्तिसूरि के पट्ट पर श्री जिनलाभसूरि आरूढ़ हुए। ये बीकानेर निवासी बोहित्थरा गोत्रीय साह पंचायणदास के पुत्र थे। पद्मादेवी इनकी माता थीं। आपका जन्म सं० १७८४ श्रावण शुक्ला पंचमी को बापेऊ ग्राम में हुआ था। जन्म नाम लालचन्द्र था। इन्होंने सं० १७९६१ ज्येष्ठ सुदि षष्ठी को जैसलमेर में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम लक्ष्मीलाभ रखा गया। सं० १८०४ ज्येष्ठ सुदि पंचमी को मांडवीबंदर में आपकी पद स्थापना हुई, जिसका पाट महोत्सव छाजहड़ गोत्रीय साह भोजराज ने किया था। सं० १८०४ का चातुर्मास भुज में किया। वहाँ फाल्गुन सुदि १ को दीक्षा महोत्सव हुआ। धर्म नंदी में १५ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८०५ का चातुर्मास मांडवी में करके पौष वदि १ में ५ दीक्षाएँ दीं। फाल्गुन वदि ७ को चीतलवाणा में २ और वदि ९ को कैरिया में ६ दीक्षाएँ हुईं। वहाँ से विहार कर देवीकोट पधारे। वहाँ सं० १८०६ वैशाख वदि ९ को ५ दीक्षाएँ तथा वैशाख सुदि १ को जैसलमेर में १० दीक्षाएँ हुईं। कुल मिलाकर धर्म नंदी में ४३ दीक्षाएँ हुईं। ___सं० १८०६ माघ वदि ७ को जैसलमेर में शील नंदी में ११ और सं० १८०७ मिगसर सुदि ७ को वहीं ७ दीक्षाएँ दीं। सं० १८०८ ज्येष्ठ सुदि ३ को जैसलमेर में दत्त नंदी में १७ दीक्षाएँ दीं। सं० १८०९ में विनय नंदी में पौष सुदि १२ को ३ व माघ सुदि १० को देवीकोट में ५ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८१० वैशाख वदि १३ को जूना बहिलवा में १३ दीक्षाएँ हुईं। वैशाख सुदि २ को रुचि नंदी में नवा बहिलवा में १३ दीक्षाएँ दीं। वहाँ से बीकानेर पधारे। सं० १८१० आषाढ़ वदि ७ को राज नंदी में १९ दीक्षाएँ हुईं। फाल्गुन वदि ३ को शेखर नंदी में ४ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८११ ज्येष्ठ वदि १० को १२ तथा आषाढ़ में ४ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८१२ में बीकानेर में फाल्गुन सुदि २ को कमल नंदी में १८ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८१३ में माघ वदि ९ को सुन्दर नंदी में बीकानेर में ही ३१ दीक्षाएँ सम्पन्न हुईं। सं० १८१४ तक बीकानेर में चातुर्मास कर सं० १८१५ में गारबदेसर शहर में चातुर्मास हेतु विराजे। मिगसर वदि ५ को नाथूसर में कल्याण नंदी स्थापित की और ७ दीक्षाएँ दीं। चैत्र वदि १ को कातर में ५, सं० १८१६ में वैशाख वदि ३ को फलौदी में १ दीक्षा देकर आषाढ़ वदि २ को जैसलमेर में १४ दीक्षाएँ दीं। सं० १८१६ फाल्गुन सुदि ३ को कुमार नंदी में १६ लोगों को दीक्षित किया। सं० १६१८ में धीर नंदी में माघ सुदि ४ को ८, सं० १८१९ वैशाख वदि १३ को बाड़मेर में ७ दीक्षाएँ देकर, १. दीक्षा नंदी सूची के अनुसार सं० १७९५ माघ सुदि १३ को बीकानेर में दीक्षा हुई। (२४२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीराबाव में ज्येष्ठ वदि ३ को ८ दीक्षाएँ दीं। वहाँ से सं० १८१९ में उदय नंदी स्थापित कर गुढ़ा में २, डभाल में २ व कारोला में ७ दीक्षाएँ दीं। मिती ज्येष्ठ वदि ५ को ७५ साधुओं के साथ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ तीर्थ की पारकर (सिन्ध) में यात्रा करके सं० १८२० का चातुर्मास गुढ़े में किया। इस वर्ष हेम नंदी में राजद्रहा में माघ सुदि ५ को ७, चैत्र सुदि १ को २, चैत्र सुदि ५ को २, तलवाड़ा में जेठ वदि ८ को ३, पंचपदरा में जेठ सुदि २ को ६ और माघ सुदि ३ को बालोतरा में ३ कुल २३ दीक्षाएँ हुईं। श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा करके सं० १८२१ का चातुर्मास जसोल में किया। माघ सुदि ८ को सार नंदी स्थापित कर पादरु में १२ और रोहीठ में ५ दीक्षाएँ दीं। सं० १८२१ फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा को पच्चासी मुनियों के साथ श्री आबूतीर्थ की यात्रा की। तदनन्तर आप घाणेराव, सादड़ी नाम के दो शहरों में चोपड़ा वखतसाह आदि द्वारा किये गये महोत्सव में पधारे। वहाँ विघ्न करने को आये हुए विरोधियों को बुद्धिबल से पराजित करके जय के बाजे बजवाये। उस देश में राणपुरादि पाँच तीर्थों की यात्रा की। खेजड़ला, खारिया, रोहीठ, मण्डोवर, जोधपुर, तिमरी होते हुए मेड़ता पधारे। सं० १८२२ में प्रिय नंदी में फाल्गुन वदि ११ में मण्डोवर में ८ और वैशाख सुदि ५ बुधवार को मेड़ता में ९ और जेठ सुदि ५ गुरु को २ दीक्षाएँ दीं। सं० १८२३ का चातुर्मास मेड़ता में कर मिगसर वदि ७ को कीर्ति नंदी में ४ दीक्षाएँ देकर जयपुर पधारे। चैत्र वदि ८ को ५ दीक्षाएँ हुईं और सं० १८२४ पौष वदि ३ को ३ दीक्षाएँ हुईं। सं० १८२४ में जयपुर में प्रभ नंदी में पौष वदि ६ को ५ दीक्षाएँ देकर रूपनगरादि होकर मेवाड़ पधारे। उदयपुर में वैशाख सुदि ३ को ४ दीक्षाएँ देकर वहाँ से १८ कोश ऋषभदेव केशरियानाथ की यात्रा ८८ मुनियों के साथ वैशाख सुदि १५ को की। संघ की गाढ़ विनती से "पालीवाले" पाट विराजे अर्थात् चातुर्मास किया। __ सं० १८२५ मिगसर वदि १२ द्वितीया को पाली में ही प्रभ नंदी में २, माघ सुदि १० को गूढ़ा ग्राम में २ और माघ सुदि १२ को ४ दीक्षाएँ देकर रायपुर पधारे और माघ सुदि १५ को २ दीक्षाएँ दीं। सं० १८२५ फाल्गुण वदि १३ सोमवार को छिपीया में मूर्ति नंदी में २, वैशाख वदि ३ को धूनाड़ा में १, वैशाख वदि १० को दहीपुड़ा में २ दीक्षाएँ देकर सांचौर पधारे। माघ वदि ५ को ३ दीक्षाएँ दीं। सूरत के धनाढ्य संघ की अवसरोचित वीनती पत्र प्राप्त कर सूरत की ओर विहार किया। राधनपुर आदि नगरों में विचरते हुए श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा करके सेठ गुलाबचंद, भाईदास आदि श्रीसंघ के आग्रह से सं० १८२६ वैशाख सुदि ५ को सूरत पधारे। मार्ग में पादरा में ११ दिन रहे। सं० १८२७ वैशाख सुदि ३ को सूरत में राजमूर्ति की दीक्षा हुई। मिती वैशाख सुदि द्वादशी को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२४३) 2010_04 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि गोत्रीय साह नेमीदास के पुत्र शाह भाईदास द्वारा कारित तीन खण्ड वाले उत्तम प्रासाद चैत्य में श्री शीतलनाथ, सहस्रफणा श्री गौड़ी पार्श्वनाथ आदि १८१ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। सं० १८२८ वैशाख सुदि द्वादशी को वहाँ पर उसी देवगृह में श्री महावीर स्वामी आदि ८२ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। इस मंदिर के प्रतिमा निर्माण और दोनों प्रतिष्ठा विधानादि कार्यों में व संघ के सत्कार आदि में छत्तीस हजार रुपये व्यय हुए। सं० १८२९ मिती चैत्र सुदि १३ को सोम नंदी में ४ मुनियों की दीक्षा हुई। सूरत के संघ को संतुष्ट कर वहाँ से पाद विहार करते हुए मुनिसुव्रत भगवान् की यात्रा के लिए भरोंच पधारे। नर्मदा तट पर योगिनी के घनघोर वृष्टि उपद्रव से व्याकुल समस्त संघ की चिन्ता अपने इष्टदेव का ध्यान कर दूर की। वहाँ से आषाढ़ वदि ५ को २८ ठाणों से सूरिजी पाद विहार करते हुए सं० १८२९ में राजनगर पधारे। वहाँ तालेवर ने बहुत उत्सव किया। दो वर्ष तक सेवा का खूब लाभ लिया। वहाँ से संघ सहित पौष वदि ५ को धोलका, वीसावाड़ा, रायका, सीहोर होकर माघ वदि १ को भावनगर, घोघाबंदर पधारे। नवखण्डा पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा करके पालीताना गए। सं० १८३० माघ वदि पंचमी को ७५ मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। फिर जूनागढ़ आकर सं० १८३० फाल्गुन शुक्ला ९ को १०५ मुनियों के साथ श्रीगिरनार मण्डन नेमिजिनेश्वर की यात्रा की। फिर चैत्र सुदि ५ को वैरावल आये, डेढ़ मास रहे। वैशाख सुदि ३ देवका पाटण (वेलाकुल) पधारे , नवानगर (जामनगर) में विचरे। चैत्र वदि ४ को जूनागढ़ में ६ दीक्षाएँ तथा चैत्र वदि ११ को ५ दीक्षाएँ सोम नंदी में हुईं। सं० १८३१ आषाढ़ वदि ६ को मांडवी-कच्छ पधारे। वहाँ अनेक कोट्याधीश, लक्षाधीश श्रीमंत व्यापारी निवास करते थे। उन लोगों का समुद्री व्यापार चलता था। श्री गुरु महाराज के चरण-कमलों को वंदन किया। एक वर्ष तक संघ ने खूब ठाठ से रखा। वहाँ से भुजनगर सं० १८३२ में आये, संघ ने श्रेष्ठ भक्ति की। वैशाख सुदि १२ को जय नंदि में १ दीक्षा हुई और माघ सुदि ९ को अंजार में १ दीक्षा हुई। सं० १८३२ ज्येष्ठ सुदि ८ को आसंबिया पधारे। सं० १८३३ का चौमासा मिनराबंद किया। उस देश में सर्वत्र विचरण कर बागड़ देश के राउपुर (रापर) में श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ की वन्दना की। सं० १८३३ चैत्र वदि द्वितीया को श्री गौड़ी पार्श्वनाथ जी की यात्रा करके गुढ़ा नगर पधारे। आषाढ़ वदि १ को २ दीक्षाएँ तथा आषाढ़ वदि ६ को १ व सुदि ८ को १ दीक्षा हुई। इस प्रकार परम सौजन्य, सौभाग्यशाली, महोपकारी, अनेक सद्गुणों से शोभित आचार्यप्रवर श्री जिनलाभसूरि ने सं० १८३४ आश्विन वदि १० को गूढा नगर में देवगति प्राप्त की। आपने अपने जीवन में देश-विदेश में खूब विचरण कर अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षित किया। आपकी रचनाओं में "आत्मप्रबोध" प्रकाशित है तथा दो चौबीसियाँ व स्तवनादि भी प्राप्त हैं। 卐卐卐 (२४४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी बीकानेर निवासी बच्छावत मुंहता रूपचन्द्र के पुत्र थे। इनकी माता का नाम केसरदेवी था। इनका जन्म सं० १८०९ में कल्याणसर नामक गाँव में हुआ था। इनका मूल नाम अनूपचन्द्र था। सं० १८२११ माघ सुदि ८ को पादरू में आपकी दीक्षा हुई और दीक्षा नाम उदयसागर था। सं० १८३४ के आश्विन वदि १३ सोमवार को शुभ लग्न में गूढ़ा नगर में कूकड़ चौपड़ा गोत्रीय दोसी लखा साह कृत उत्सव में आपका सूरि पदाभिषेक हुआ। तदनन्तर आप महेवापुर-नाकोड़ाजी के चैत्यों की वन्दना कर, श्री गौड़ी पार्श्वनाथ की यात्रा कर क्रमशः जैसलमेर में लौद्रवा चिन्तामणि पार्श्वनाथ की यात्रा की। जैसलमेर में आवश्यकादि योग क्रियाएँ की। तदनन्तर आपने अयोध्या, काशी, चन्द्रावती, चम्पापुरी, मकसूदाबाद, सम्मेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, मिथिला, दुतारा-पार्श्वनाथ, क्षत्रिय कुण्ड ग्राम, काकंदी, हस्तिनापुर आदि की यात्रा की। उस समय लखनऊ नगर में नाहटा गोत्रीय सुश्रावक राजा वच्छराज ने तीन चातुर्मास बड़े महोत्सव पूर्वक कराये। वहाँ बहुत फैले प्रतिमोत्थापक (स्थानकवासी) निह्नवमार्ग का आचार्यश्री ने बड़ी युक्ति से निराकरण किया। अनेक श्रद्धालुजनों को पुनः सन्मार्ग में लाये। आपकी बहुत ख्याति हुई। उस नगर के समीपस्थ बगीचे में राजा साहब ने दादा श्री जिनकुशलसूरि का स्तूप-निर्माण कराया। पूरब देश से आप राजस्थान की ओर लौट कर जयपुर, पाली होते हुए गुजरात पधारे। पाटण, अहमदाबाद में विचरण कर शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की। पालीताना में विरोधियों के साथ बड़ा विवाद हुआ, उसमें श्री गुरुदेव की कृपा से आपकी विजय हुई, विपक्षी लोग परास्त होकर भाग निकले। वहाँ के राजा और प्रजा ने आपका बहुत अधिक सम्मान किया। आचार्यश्री की महिमा चारों ओर खूब फैल गई। एक वर्ष बाद मोरवाड़ा गाँव में एक लक्ष मनुष्यों से भी अधिक संख्या वाला संघ जब श्री गौड़ी पार्श्वनाथ की यात्रा करने आया तब वहाँ के मंत्री आदि महान् व्यक्तियों के कहने पर संघस्थित आचार्य और आपका परस्पर मेल हो गया। आपने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बंगाल व गुजरात में विचरण कर १७ नंदियों में दीक्षा दी। आपने सब मिलकर ३९१ व्यक्तियों को दीक्षा दी। जिसमें २६ लखनऊ, १३ पाटण, ५ अहमदाबाद में हुई अवशिष्ट सभी राजस्थान में हुई। सं० १७५६ में आप अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा कर सूरत पधारे। इसी वर्ष पूना की दादावाड़ी में श्री जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की। सं० १८५०-५१ में आपने चूरू में मन्दिर व दादावाड़ी में दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की व सं० १८४० में जैसलमेर में गुरु श्री जिनलाभसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की। सं० १८४९ में नाल में श्री अमरविजय के चरण प्रतिष्ठित किए। इस प्रकार परम सौभाग्यशाली, सकल विश्व के मनोहर्ता, सब सिद्धान्तों के पाठी, सर्वत्र विख्यात कीर्ति वाले, जंगम युगश्रेष्ठ, वाणी से बृहस्पति को जीतने वाले बृहत्खरतर गच्छेश्वर श्री जिनचन्द्रसूरि जी सूरत बंदर में सं० १८५६ मिती ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को देवलोक गए। 卐卐 १. सं० १८२२ मण्डोवर-पाठान्तर पट्टावली में है। हमने दीक्षा नंदी सूची से लिखा है जो प्रामाणिक है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२४५) 2010_04 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनहर्षसूरि 8 इनका जन्म बालेवा गाँव में हुआ था। मूल नाम " हीरचंद" था। मीठड़िया बोहरा गोत्रीय साह तिलोकचंद इनके पिता का और तारा देवी माता का नाम था। सं० १८४१ में आऊ ग्राम में आप दीक्षित हुए, दीक्षा नाम हितरंग था। सं० १८५६ ज्येष्ठ शुक्ला पौर्णमासी को सूरत में श्रीसंघ कृत उत्सव में आप पट्टासीन हुए और श्री जिनहर्षसूरि नाम विख्यात हुआ। उस समय वहाँ श्री संघ ने चैत्य बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। सं० १८६० अक्षय तृतीया के दिन देवीकोट के श्रीसंघकारित जिन चैत्य में १५० बिम्बों की प्रतिष्ठा कर, फिर जालौर नगर में मंत्री अक्षयराज कारित देवगृह की प्रतिष्ठा की। सं० १८६६ चैत्र सुदि पूर्णिमा को संघ के अधिनायक गिड़िया राजाराम, लूणिया साह तिलोकचंद कृत संघ में सवा लाख श्रावक और ग्यारह सौ साधुओं के साथ श्रीगिरनार, श्री पुंडरीकगिरि आदि तीर्थों की यात्रा की। वहाँ से अनेक देशों में भ्रमण करके सं० १८७० में सम्मेतशिखर महातीर्थ की यात्रा की। सं० १८७१ माघ सुदि षष्ठी बुधवार को कलकत्ता में श्रीसंघ द्वारा बनाये हुए शान्तिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा की। सं० १८७६ में श्रीसंघ के साथ पुनः श्री शिखर गिरिराज की यात्रा की। तदनन्तर दक्षिण देश के अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मालवा के मकसी पार्श्वनाथ, मेदपाट के धुलेवा-केशरियानाथ जी आदि की यात्रा करके बीकानेर पधारे। सं० १८८७ आषाढ़ शुक्ला दशमी को श्री सीमंधर स्वामी के मंदिर में पच्चीस जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। जांगलू के मूलनायक पार्श्वनाथ व दादासाहब के चरण भी इसी दिन प्रतिष्ठा कराके वहाँ सं० १८९० में इन्हीं के उपदेश से विराजमान किए, जबकि जांगलू के पारख अजयराज जी के पुत्र तिलोकचंद के निर्मापित नवपद यन्त्र की प्रतिष्ठा आपके द्वारा १८८५ में हुई है। बीकानेर के श्री गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय का जीर्णोद्धार आपश्री के उपदेश से १२०००/- रुपये लगाकर महाराजा रतनसिंह जी के समय में श्रीसंघ के करवाने का शिलालेख लगा है। इसी जिनालय में सं० १८८९ मिती माघ शुक्ला ९ बुधवार को सेठीया गोत्रीय बालचंद के पौत्र और केशरीचंद के पुत्र अमीचंद ने सम्मेतशिखर गिरिभाव वाले मन्दिर की प्रतिष्ठा आपश्री के कर-कमलों से कराई। उस समय जैसलमेर निवासी बाफणा बहादुरमल जोरावलमल के हृदय में सिद्धाचलजी की यात्रा का विचार हुआ। उनके मन में यह भाव उठा कि "जो पुरुष सिद्धाचल का स्पर्श कर लेता है, उसका जीवन सफल हो जाता है।" ऐसा विचार करके सपरिवार बीकानेर आये। यहाँ महोत्सव से बहुत द्रव्य खर्च करके गुरुदेव की वन्दना की, सात क्षेत्र में खूब धन दिया। सब यति-साधु-साध्वियों को बहुमूल्य वस्त्र अर्पण किए। उदरामसर के दादा श्री जिनदत्तसूरि जी के मन्दिर का जीर्णोद्धार आपश्री के उपदेश से करवाकर बाहर से नौ चौकियों का निर्माण करवाना प्रारम्भ किया। इन बाफणा (२४६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पटवा) भ्राताओं के आग्रह से आचार्यश्री भी संघ के साथ श्री सिद्धाचल जी की यात्रार्थ चले। बीच में वर्षाकाल आ गया। अतः श्री जिनहर्षसूरि जी ने मण्डोवर में चौमासा किया। सं० १८६० वैशाख सुदि ७ गुरुवार को देशनोक-आंचलियावास के संभवनाथ स्वामी (मूलनायक) की प्रतिष्ठा आपने की। सं० १८७९ में नाल व सं० १८८८ में नाल एवं रेलदादाजी में भी आपके द्वारा चरण-पादुकादि प्रतिष्ठित हैं। सं० १८९१ में चूरू में भी आपने प्रतिष्ठा करवाई थी एवं देशनोक-भूरों के वास में शान्तिनाथ जिनालय में दादा साहब के चरण प्रतिष्ठित किए थे। इस प्रकार अनेक स्थानों में प्रतिष्ठा करके, अनेकवादियों पर वाद में विजय प्राप्त कर, देशदेशान्तर में विचरण कर धर्म-प्रचार करने वाले आचार्यश्री का सं० १८९२ कार्तिक वदि ९ के दिन चार प्रहर का अनशन पालकर मण्डोवर में स्वर्गवास हुआ। आप गुजरात, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि देशों में चिरकाल विचरे । लगभग २२ नंदियों में ५०० शिष्यों को दीक्षित किया था। ३० वर्षों की दीक्षानंदी सूची (सं० १८५६ से १८८६) से आपकी प्रशस्त शासन सेवा पर प्रकाश पड़ता है। 勇勇勇 आचार्य श्री जिनसौभाग्यसूरि आचार्य श्री जिनसौभाग्यसूरि का जन्म सं० १८६२ में मारवाड़ के सवाई सेरड़ा गाँव में हुआ था। इनका मूल नाम सूरतराम था। ये गणधर चोपड़ा गोत्रीय साह करमचंद के पुत्र थे, करुणा देव इनकी माता थी। सं० १८७७१ में सिंधिया दौलतराव के लश्कर नगर में इनकी दीक्षा हुई थी, दीक्षा नाम सौभाग्यविशाल था। सं० १८९२ मार्गशीर्ष शुक्ला ७ गुरुवार को शुभ लग्न में बीकानेर नगर में खजांची साह लालचंद सालमसिंह कृत नंदी महोत्सव से पट्टाभिषेक हुआ। तदनन्तर वि०सं० १८९३ मार्गशीर्ष मास में बीकानेर नरेश श्री रतनसिंह जी के आग्रह से बीकानेर से चलकर उसके एक सौ सत्ताइस गाँवों में विचरण करके उनकी भूमि को अपने चरण-कमल की धूलि से पवित्र किया और अनेक प्रकार के दुःखों से व्याकुल वहाँ की जनता को अपने कृपा कटाक्ष से अनुग्रहीत किया तथा उनके द्वारा किये हुए सम्मान को स्वीकार कर सं० १८९४ आषाढ़ शुक्ला एकादशी को वापस बीकानेर आकर वहाँ चातुर्मास किया। इसके पश्चात् सं० १८९४ के मार्गशीर्ष मास में शुभ अवसर देखकर बीकानेर से प्रस्थान करके देशनोक, रामगढ़, सीकर, भरतपुर, लश्कर, मीरजापुर, काशी, पटना, चम्पापुरी आदि नगरों में क्रम से विचरण करके सं० १८९५ की आषाढ़ शुक्ला एकादशी तिथि को श्री संघकृत बड़े महोत्सव के साथ मकसूदाबाद-अजीमगंज में गंगा के तट पर उपाश्रय में एक दिन मुकाम किया। वहाँ से बालूचर नगर १. दीक्षा नंदी सूची के अनुसार विशाल नंदी में आपकी दीक्षा सं० १८६९ माघ सुदि १० बीकानेर में हुई थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२४७) 2010_04 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पधार कर, वहाँ के भाविकजनों के पुण्योदय से चातुर्मास पर्यन्त वहीं विराजे । वहाँ माघ कृष्णा १३ को दूगड़ श्री इन्द्रचन्द्र के आग्रह से अपने भक्त परिवार सहित श्री सम्मेतशिखर तीर्थ-यात्रार्थ चले और वहाँ पहुँचकर तीर्थराज की वन्दना की । श्री इन्द्रचन्द्र ने भक्तिपूर्वक संघ की पूजा की। फिर वहाँ से लौटकर बालूचर नगर पधारे। सं० १८९६ की आषाढ़ सुदि ग्यारस के दिन अजीमगंज निवासी भक्त संघ की प्रार्थना से अजीमगंज पधारे और चातुर्मास वहीं सुख से किया । वहाँ से मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को प्रस्थान करके दूगड़ श्री प्रतापसिंह की प्रार्थना से श्रीसंघ महोत्सव के साथ कोलाहल से भरी हुई कलकत्ता राजधानी में पधारे। श्री प्रतापसिंह के आग्रह से कार्तिक-पूर्णिमा के महोत्सव से भी बढ़कर श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र का महामहोत्सव करके दादावाड़ी नाम से विख्यात बाग में भक्त संघ सहित पधारे। आचार्य श्री उस महोत्सव में तीन दिन तक वहाँ पर ठहर कर फिर कलकत्ता को लौट आये। वहाँ के सभी भक्त संघों की प्रार्थना से चार मास तक वहाँ ठहर कर चैत्र मास में शुभ लग्न से फिर अजीमगंज को चले गए। वहीं चातुर्मास करके गोलेच्छा धर्मचंद, कर्मचंद, सेठिया पानाचंद, सावनसुखा गुलाबचंद आदि धनिकों की प्रार्थना से सं० १८९७ माघ मास के शुभदिन में श्रीसंघ के साथ फिर शिखरगिरि की यात्रा की और भक्तों द्वारा किये गये महोत्सव के कारण वहाँ पन्द्रह दिन पर्यन्त विराज कर पीछे अजीमगंज लौट आये । सावनसुखा सुखमल की श्रद्धालु पत्नी पन्ना बीबी ने आचार्य श्री जिनसौभाग्यसूरि द्वारा सं० १९०० आषाढ़ शुक्ला नवमी को श्री नेमिनाथ मंदिर में जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा कराई और सपरिवार आचार्यश्री की इस प्रतिष्ठा महोत्सव में बड़ी भक्ति से पूजा की । इसके बाद आपने दूगड़ इन्द्रचन्द्र के हित के लिए उसे सिद्धगिरि की यात्रा करने का उपदेश दिया । आचार्यश्री के उपदेश से प्रसन्न हुआ इन्द्रचन्द्र संघ सहित आपश्री को आगे करके शुभमुहूर्त से चम्पापुरी गया और वहाँ से परिवार सहित काशी आया । आचार्य श्री जिनसौभाग्यसूरि तो चम्पापुरी से ही संघ के आग्रहानुसार सम्मेतशिखर तीर्थराज को चले गये और वहाँ आठ दिन निरन्तर महोत्सव करके बीकानेर निवासी श्रीसंघ कारित श्री जिन मंदिर की प्रतिष्ठा की। फिर किसी दिन प्रातःकाल रवाना होकर काशी में श्रीसंघ से आ मिले और संघ सहित वहाँ के तीर्थों की यात्रा की । वहाँ से चलकर जयपुर, कृष्णगढ़, अजमेर, पाली, पंचतीर्थी, आबू, शंखेश्वर पार्श्वनाथ, तारंगा, पाटण, पाल्हणपुर आदि नगरों में श्री जिन चैत्यों की वन्दना - अर्चना कर गिरनार गये और वहाँ से चलकर सं० १९०२ आषाढ़ के शुभ दिन में तीर्थराज श्री सिद्धगिरि पधार कर श्रीसंघ समेत वहीं चातुर्मास करके निनानवें वार (निन्नाणु यात्रा) तीर्थराज की यात्रा की । कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा की यात्रा कर, वहाँ से चलकर घोघाबंदर, भावनगर, अहमदाबाद आदि नगरों में देवदर्शन करते हुए श्री धुलेवागढ़ ऋषभनाथ की यात्रा की । वहाँ से अजमेर आये । श्रीसंघ के सम्मान को अंगीकार करके पाँच-छः दिन वहीं सुखपूर्वक निवास किया। (२४८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर से दूगड़ इन्द्रचन्द्र तो संघ सहित जयपुर चले गये और आचार्य महाराज बीकानेर नरेश श्री रतनसिंह द्वारा सुराणा शाह श्री माणकचंद के हाथ भेजी हुई पत्रिका द्वारा प्रार्थना करने पर सुराणा शाह माणकचंद और दूगड़ श्री भोलानाथ के साथ सं० १९०२ फाल्गुन सुदि सप्तमी को बड़े महोत्सव के साथ बीकानेर पधारे। वहाँ श्रीसंघ के द्वारा बनवाये हुए श्री सुपार्श्वनाथ जिनालय के ऊपर के नये सुन्दर मंदिर में आपने सं० १९०४ माघ शुक्ला दशमी को श्री जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। सं० १९०५ वैशाख शुक्ला पंचमी को श्री चिन्तामणि जिन मंदिर में श्रीसंघकृत महोत्सव द्वारा श्री जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की। सं० १९०६ मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी के दिन मण्डोवर में "गौरा" नाम से प्रसिद्ध खरतरगच्छ के अधिष्ठाता क्षेत्रपाल की जल, पुष्प, धूप, चोवा, सुगंध, तेल, सिन्दूर, मिष्ठान्न आदि से अर्चना करके पीछे बीकानेर को चले गये। सं० १९०८ पौष सुदि पूर्णिमा को श्री नाल गाँव में श्री जिनकुशलसूरि जी की वन्दना-अर्चना करके माघ कृष्णा प्रतिपदा को लौट कर जब "मुखियाजी" के नाम से विख्यात बाग के निकट पहुँचे, तब दर्शनाभिलाषी महाराजा श्री सरदारसिंह जी के भेजे हुए मोहनलाल नामक कोटपाल ने आचार्यश्री के सम्मुख आकर प्रार्थना की-"आपके दर्शनार्थ महाराज यहाँ आयेंगे।" यह सुनकर आप थोड़ी देर बाग में ठहरे थे कि राजा सरदारसिंह जी आ गए और साष्टांग दण्डवत् करके आचार्यश्री के आगे खड़े हो गए। तब आपने आशीर्वाद दिया लक्ष्मीर्वेश्मनि भारती च वदने शौर्यं च दोष्णोर्युगे, त्यागः पाणितले सुधीश्च हृदये सौभाग्यशोभा तनौ। कीर्तिर्दिक्षु सपक्षता गुणिजने यस्माद्भवेदङ्गि नां, सोयं सिद्धिपदप्रदाननिपुणः श्रीधर्मलाभोऽस्तु वः॥ [हे राजन् ! जिस धर्म के प्रभाव से प्राणियों के घर में लक्ष्मी, मुख में सरस्वती, दोनों भुजाओं में शौर्यान्वित बल, हाथ में दान शक्ति, हृदय में सदबुद्धि और शरीर में सौभाग्य तथा सुन्दरता निवास करती है और दिशा-विदिशाओं में कीर्ति, विद्वत्तादि गुणिजनों के प्रति मैत्री भाव प्राप्त होता है एवं जो धर्म तमाम कर्मों का नाश करके आत्मा को सिद्धि प्रदान करने में निपुण है ऐसे इस श्री धर्म का लाभ तुमको प्राप्त हो।] राजा ने सौ रुपये और बेशकीमती एक शॉल का सुनहरी कलावतू वाला जोड़ा भेंट किया। अनन्तर थोड़ी देर आप दोनों में बातें होती रहीं। फिर आपने वहाँ से चलते समय राजा के पितृमरणजनित शोक की निवृत्ति के निमित्त एक सुवर्णाभूषित तथा केशर से रंगा हुआ वस्त्र राजा को ओढ़ाया। इसके पश्चात् सामन्त तथा मन्त्रिजनों को साथ लेकर राजा ने घुड़सवार तथा पैदलों के साथ बड़ी भारी सवारी से, शंख नक्कारों की घोष-ध्वनिपूर्वक श्री आचार्य महाराज को बड़े उपाश्रय में पहुँचाया और किले में जाकर उपाश्रय में बहुत सा मिष्ठान्न भेजा तथा अन्य ८४ गच्छ के यति-साधुओं के लिए भी बहुत मिष्ठान्न भेजा। स्वयं मंत्री ने सब यति-साधुओं को आहार करवाया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२४९) 2010_04 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९१० वैशाख मास में शुभ दिन देखकर सरदार शहर में दादा श्री जिनकुशलसूरि के चरण-चिह्न-मंदिर की प्रतिष्ठा की। यह प्रतिष्ठा बोहथरा श्री गुलाबचंद ने करवाई थी। इसके बाद सं० १९१० ज्येष्ठ कृष्णा अमावस के दिन आप नाल गाँव में श्री दादाजी महाराज के चरणारविन्द के दर्शन को पधारे। वहाँ पर आपके दर्शन को उत्कण्ठित महाराज श्री सरदारसिंह जी ने गजसिंहपुर (गजनेर) से महाराव हरिसिंह मंत्री को भेजकर महाराज से अपने वहाँ पधारने की विनती कराई। उनकी प्रार्थनानुसार आप मंत्री के साथ गजसिंहपुर (गजनेर) आये। वहाँ ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा को बड़े समारोह के साथ महाराज श्री को प्रातःकाल पटभवन में पधराया। राजा सरदारसिंह जी आचार्य चरण के दर्शन को तत्काल आये और पच्चीस रुपये भेंट किये। प्रणाम तथा थोड़ी देर तक वार्तालाप करके लौट गए। मध्याह्न में सब यतिजन तथा श्री गुरुदेव को राजा ने स्वयं अपने हाथों से मिष्ठान्न, आहार-पानी दान दिया। फिर दिन में तीसरे पहर में राजा ने अपने नये चतुष्क नाम के महल को पवित्र करने के लिए मंत्रियों को भेजकर महाराज से पधारने के लिए प्रार्थना कराई। तब गुरुदेव राजा के घर पधारे। वहाँ राजा ने सौ रुपये, पालकी, स्वर्ण की छड़ी भेंट की और बहुमूल्य शॉल का जोड़ा गुरुदेव को ओढ़ा कर प्रणाम किया। थोड़ी देर तक परस्पर बड़े आनन्द के साथ बातचीत की। इसके पश्चात् मंत्रियों द्वारा बीकानेर नगर से उपाश्रय में आपश्री का प्रवेशोत्सव बड़े धूमधाम से करवाया। सं० १९१० माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन राजा विवाह के लिए पूगल गये। फिर वहाँ से आकर एक दिन श्री लक्ष्मीनारायण जी के मंदिर में जाने की इच्छा से सवारी की। मार्ग में बड़े उपाश्रय के सामने हाथी खड़ा करके राजा ने पहले दोनों हाथ जोड़कर वैद मुंहता नथमल्ल के पुत्र छोगमल के हाथों से गुरुदेव को पच्चीस रुपये भेंट किये और पश्चात् लक्ष्मीनारायण जी के मंदिर में गये। सं० १९१४ आषाढ़ सुदि प्रतिपदा के दिन बीकानेर नगर में बिम्बों की प्रतिष्ठा की। सं० १९१६ वैशाख कृष्णा षष्ठी को नाल ग्राम में दादावाड़ी में श्रीसंघ को धर्मोपदेश देकर नवीन जिन मंदिर बनवा कर श्री जिन मंदिर की तथा बिम्बों की प्रतिष्ठा कराई। उस अवसर पर संघ ने बहुत मिष्ठान्न आहार पानी द्वारा सत्कार करके गुरुभक्ति और संघभक्ति (स्वधर्मीवात्सल्य) की। सं० १९१६ कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा को बीकानेर नगर में गोगा दरवाजे के बाहर श्री गौड़ी पार्श्वनाथ जी के मंदिर में संघ की तरफ से नवपद मण्डल की रचना की गई। उसको देखने के लिये पूज्यश्री सब साधु संघ के साथ इकट्ठे होकर ढोल-ढमाके के साथ पधारे। उस नवपद मण्डल की महिमा को सुनकर राजा भी दर्शनोत्सुक होकर सवारी के साथ सिद्धचक के दर्शन को गया। ग्यारह रुपये भेंट किये तथा पाँच रुपये श्री गौड़ी पार्श्वनाथ को भेंट किये। दण्डवत् प्रणाम करके फिर सम्मेतशिखर मंदिर के निकट शाला-जहाँ श्री गुरुदेव विराज रहे थे, में आकर राजा ने दण्डवत् प्रणाम करके सौ रुपये भेंट किये। थोड़ी देर बातचीत के बाद राजा अपने किले में चला गया और गुरुदेव भी उपाश्रय में आ गये। (२५०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९१७ में आश्विन शुक्ला सप्तमी को संघ ने वहीं पर नवपद मण्डल रचना का कार्य आरम्भ किया। आदीश्वर मंदिर के सेवक करणीदास से इस बात को सुनकर नरेन्द्र शिरोमणि श्री सरदारसिंह जी ने नवपद मण्डल की रचना के लिए पचास रुपये दिये। फिर रामलाल मंत्री ने कहा कि-"मेरे कोष्ठागार से प्रतिवर्ष पूजा के लिए पचास रुपये भेजे जाते रहेंगे।" पूर्णिमा के दिन राजा स्वयं श्री गौड़ी पार्श्वनाथ मंदिर में गया और सिद्धचक्र मण्डल के सम्मुख ग्यारह रुपये भेंट किये। थोड़ी देर वार्तालाप के अनन्तर राजा अपने महल में आ गया और श्री गुरुदेव उपाश्रय में चले गये। फिर गुरुदेव ने नगराधीश को, सरदारशहर निवासी बोहथरा गुलाबचंद को तथा बीकानेर निवासी बागड़ी माणकचंद को पुत्राम्नाय प्रदान किया। सं० १८९४ में आपने जब बंगाल की ओर प्रस्थान किया था तब मार्ग में रामगढ़ नगर में मुकाम किया था। वहाँ पर एक वृद्धा की पुत्री के गुप्त भाग में प्रस्तरी का रोग था, इसलिए वह उसकी पीड़ा से रात में बहुत रोई। तब गुरुदेव ने फौजदार के मुख से उसका सारा वृत्तान्त सुनकर मध्याह्न में अपने आहार के पात्र में सब आहार इकटा करके एक ग्रास उस वद्धा की पत्री उसने उस ग्रास को खाया कि उसके प्रभाव से थोड़ी देर में उसको लघुशंका हुई, जिसमें वह पथरी बाहर आ गिरी। उस पथरी पर घण चलाये गये तब भी वह नहीं टूटी। इस प्रकार आपने अनेक उपकार किये। तदनन्तर श्री गुरुदेव यावज्जीवन पादचारी, एकाहारी रहने लगे। इस तरह आचार्य के गुणों से भूषित श्री जिनसौभाग्यसूरि जी सं० १९१७ माघ शुक्ल तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में चार प्रहर का अनशन लेकर स्वर्गवासी हुए। आपके स्मारक स्तूप चरण बनवाकर बीकानेर संघ ने १९१८ फाल्गुन सुदि ८ को जिनहंससूरि जी से प्रतिष्ठित करवायी। 卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२५१) 2010_04 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनहंससूरि 8 इनका जन्म सं० १९०० में मारवाड़ के कुजटी गाँव में हुआ था। इनका मूल नाम हिमतराम था। गोताणी गोत्रीय साह मिनरूप जी इनके पिता और जयादेवी इनकी माता थी। सं० १९१७ फाल्गुन कृष्ण पंचमी के दिन बीकानेर में इनकी दीक्षा हुई। दीक्षा-महोत्सव चोपड़ा कोठारी घेवरचंद ने किया था। दीक्षा नाम हितवल्लभ हुआ। सं० १९१७ फाल्गुन कृष्णा एकादशी गुरुवार को शुभ मुहूर्त में बीकानेर में बच्छावत श्री अमरचंद, झालरापाटण निवासी श्री भूरामल गोलेछा, श्री ज्ञानचंद आदि के नंदी महोत्सव से आपका पट्टाभिषेक हुआ। सं० १९१८ ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा को श्री गुरुदेव नाल ग्राम में दादावाड़ी दर्शन को गए। वहाँ राजा ने महाराव श्री हरिसिंह आदि मंत्रियों को भेजकर विज्ञप्ति कराई। उनकी प्रार्थना सुनकर गुरुदेव गजनेर गये। तब आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा को प्रातःकाल बड़े आडंबर के साथ नक्कारे निशान पूर्वक आपका तम्बू में प्रवेशोत्सव कराया। तब राजा सरदारसिंह जी ने शीघ्र ही श्रीगुरु चरणों का स्पर्श करने हेतु आकर पच्चीस रुपये भेंट किये और दण्डवत् प्रणाम के पश्चात् थोड़ी देर तक वार्तालाप करके राजा फिर अपने महल में चला गया। तदुपरान्त मध्याह्न में राजा ने स्वयं श्री गुरुदेव तथा सब यतिजनों को मिष्ठान्न-पान का आहार-दान दिया। फिर दिन के तीसरे प्रहर में अपने नूतन चतुष्क-महल को चरणारविन्द से पवित्र करने के लिए पधारने की विज्ञप्ति लेकर मंत्रियों को भेजा। उनकी प्रार्थना से गुरुदेव राजभवन में पधारे। वहाँ राजा ने सौ रुपये, पालकी तथा सोने की छड़ी भेंट की और दण्डवत् प्रणाम करके शाल जोड़ा नामक बहुमूल्य वस्त्र ओढ़ाया। फिर थोड़ी देर तक बातचीत के पश्चात् बड़े आडंबर के साथ मंत्रियों द्वारा बीकानेर नगर के बड़े उपाश्रय में आपका प्रवेशोत्सव करवाया। सं० १९१८ का चौमासा बीकानेर नगर में ही किया। सं० १९१९ वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन श्री सूरतगढ़ में अष्टाह्निका महोत्सवपूर्वक चैत्य की प्रतिष्ठा की। वहाँ के संघ ने गुरुदेव की बहुत आदर भक्ति की। फिर आप वहां से बीकानेर आ गए। इसके पश्चात् सं० १९१९ मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी के दिन बीकानेर से प्रस्थान करके महाराजा श्री सरदारसिंह जी की प्रार्थना तथा आग्रह से उनके सत्ताइस सौ गाँवों में भ्रमण करके, अपनी चरण धूलि से वहाँ की भूमि को तथा कृपा कटाक्ष से वहाँ की नानाविध दुःखों से पीड़ित जनता को अनुग्रहीत करके एवं उनके द्वारा किये गये सत्कार को ग्रहण करते हुए सं० १९२० आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पीछे बीकानेर आये और चातुर्मास यहीं किया। सं० १९२० माघ शुक्ला पंचमी को बीकानेर से प्रस्थान कर देशणोक, रायगढ़, अकबराबाद (२५२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर अजीमगंज पधारे। वहाँ के निवासी संघपति श्री पूरणचंद गोलेच्छा के साथ आप चम्पापुरी को गए। सं० १९२१ वैशाख शुक्ला पंचमी के दिन वहाँ वासुपज्य जिनेश्वर को वंदना करके, वहाँ से चलकर क्रम से संघपति पूरणचंद के साथ सं० १९२२ वैशाख शुक्ला अष्टमी को श्रीसंघ कृत महोत्सव से श्री मकसूदाबाद नगर में, अजीमगंज के गंगातीर के उपाश्रय में जाकर सोलह दिन पर्यन्त निवास किया। वहाँ से विहार करके ज्येष्ठ कृष्णा दशमी को श्री बालूचर नगर में श्रीसंघ कृत महोत्सव द्वारा उपाश्रय में प्रवेश किया। दो वर्ष पर्यन्त वहाँ ही सुखपूर्वक निवास किया। सं० १९२२ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया शनिवार को दूगड़ इन्द्रचन्द्र की प्रार्थना से अपने भक्त संघों के साथ श्री सम्मेतशिखर पर पधार कर श्री तीर्थराज की वन्दना की। श्री इन्द्रचन्द्र ने भक्तिपूर्वक संघ का बहुत ही सत्कार किया। फिर चैत्र कृष्णा द्वितीया को वहाँ से वापस बालूचर नगर में पधारे। वहाँ के संघ ने आपकी अधिक भक्तिपूर्वक पूजा की। सं० १९२३ आषाढ़ शुक्ल पक्ष में श्रीसंघकृत महोत्सव द्वारा अजीमगंज गये और वहाँ पाँच वर्ष तक निवास किया। सं० १९२४ पौष कृष्णा द्वादशी को नाहटा श्री अमरचंद की प्रार्थना से अपने भक्त संघ के साथ पावापुरी जाकर शासनाधीश्वर महावीर जिनेन्द्र की स्तुति की। वहाँ नाहटा श्री अमरचंद ने संघ की १. आपके पिता का नाम धर्मचंद जी गोलेछा था, आप ही ने पवित्र तीर्थधाम श्री गिरनार जी की तलहटी में सं० १९२१ के माघ या ज्येष्ठ द्वितीया को खरतरगच्छीय संवेगी मुनि श्री प्रेमचंद जी-जिनके नाम से ख्यात गुफा गिरनार पर्वत पर राजीमती की गुफा से दक्षिण दिशा में अब भी मौजूद है-की चरण पादुका एवं सं० १९२२ के ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में परम पूज्य दादा गुरुदेव के चरण इन्हीं श्रीपूज्याचार्य श्री जिनहंससूरि जी से प्रतिष्ठित करवा के स्थापित किये हैं। जिनके लेख क्रमश: इस प्रकार हैं "संवत् १९२१ शाके सतरे से छासीना प्रवर्तमाने मासोत्तं मासे पुण्यपवित्रमासे माघमासे शुक्ल पक्षे तिथौ जेठ शुक्ल (?) २ शुक्रे संघनायक संघमुख्य सेठ देवचन्द्र लखमीचंद तथा जीर्णगढ़ नो संघ समस्त श्री गिरनार क्षेत्रे मुनी प्रेमचंद जी नी पादुका तलाटी मध्ये थापयत्वात् (?) लि०पं० वलभविजे हस्ती शत्कः। श्रीमकसूदाबाद वास्तव्य ओ०। ज्ञा० । वृ० । गोलेछा गोत्रे शा० धर्मचंद जी तत्पुत्र पूरणचन्द्र जी संवेगी प्रेमचंद जी पादुका केन (?) कारित (?) प्रतिष्ठितं च बृहत्खरतरगच्छे जं० । यु०। प्र०। भ०। श्रीश्री श्री १००८ श्री जिनसौभाग्यसूरिश्वर जी तत्पट्टे जं०। यु०। यु०। प्र०। भ०। श्री १००८ श्री जिनहंससूरीश्वरेण प्रतिष्ठितं च। श्री।" । इस पादुका के ऊपर एक जोड़ छोटी पादुका और है जो इसी संवत् की प्रतिष्ठित है। लेख पूरा पढ़ा नहीं गया। संभव है इनके गुर्वादि की हो। इस पादुका वाली छत्री से संलग्न दाहिनी तरफ की छत्री में परम पूज्य गुरुदेव दादा साहब की चौमुखाकार चार पादुका के लेख इस प्रकार है___ संवत् १९२२ शाके १७८७ जैठ मास शुक्ल पक्षे.... श्रीमकसुदाबाद वास्तव्य ओ० । ज्ञाति गोलच्छा गोत्रे शा० धर्मचंद तत्पुत्र बाबू पूरणचंद जी श्री रेवताचल तलेटी मध्ये पादुका केन (?) करापितं प्रतिष्ठितं बृहत्खरतरगच्छ जं०। यु०। प्र० । भ०। श्री श्री श्री १००८ श्री जिनहंससूरीश्वरेण प्रतिष्ठितं विद्या अर्थि दयाचंदजी वं०(दना) दा (?) ज्ञेया। श्री शुभं। पूर्व-श्री जिनकुशलसूरि जी। दक्षिण-श्री जिनदत्तसूरि जी। पश्चिम-श्री जिनलाभसूरि जी। उत्तर श्री जिनचन्द्रसूरि जी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२५३) 2010_04 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धापूर्वक पूजा भक्ति की। वहाँ से प्रस्थान करके गुणशील चैत्य, राजगृह, गुब्बर ग्राम की वन्दना करके बीच मार्ग में सूबा बिहार, पाटलिपुत्र, गया आदि नगर होते हुए सं० १९२४ माघ कृष्णा अष्टमी शनिवार को श्री गुरुदेव अमरचंद आदि सकल संघ के साथ, सकल तीर्थ शिरोमणि श्री शिखर गिरिराज की वन्दना करने पधारे। वहाँ पर अमरचंद आदि सारे संघ ने श्री गुरु तथा साधु (यति) संघ की भक्तिपूर्वक अर्चना की। तदनन्तर सं० १९२४ फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी के दिन शुभ लग्न में दूगड़ श्री प्रतापसिंह के पुत्र रायबहादुर श्री लक्ष्मीपतसिंह, धनपतसिंह के बनाये हुए ऋषभ जिनचरण, वासुपूज्य जिनचरण, नेमिजिनचरण, वीर जिनचरणों की श्री गुरुदेव ने श्री सम्मेतशिखर पर विषम भूमि में अलग-अलग प्रतिष्ठा की। वहाँ रायबहादुर दूगड़ लक्ष्मीपतसिंह, धनपतसिंह ने संघ सहित गुरुदेव की भक्तिपूर्वक अर्चना की। तत्पश्चात् ग्यारह दिन श्री तीर्थराज की सेवा करके वहाँ से लौटकर फिर गुरुदेव सवारी के साथ उपाश्रय में पधारे और अमरचंद आदि भक्त संघ बालूचर चला गया। इसके बाद अजीमगंज में नाहटा श्री शिताबचंद ने श्री बीबी साहिबा के बनवाये हुए सुमति जिन मंदिर में श्री गुरुदेव के कर-कमलों से वेदी प्रतिष्ठा करवाई। फिर चम्पापुरी में बालूचर निवासी नाहटा अमरचंद ने श्री वासुपूज्य जिनमंदिर में आचार्यश्री से वेदी प्रतिष्ठा करवाई। सं० १९२६ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन आपने अजीमगंज के रामबाग में अष्टापद भावकृत चैत्य में मंदिर की और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। उस समय वहाँ के भक्त संघ ने अष्टाह्निका महोत्सव किया। तदनन्तर सं० १९२७ पौष शुक्ला दशमी के दिन अजीमगंज निवासी गोलेच्छा गोत्रीय श्री हरखचंद इन्द्रचंद की प्रार्थना से खरतरगणाधीश्वर श्री जिनहंससूरि ने वाचनाचार्य श्री सुमतिशेखर गणि, पं० हंसविलास गणि आदि सब यतिजनों के साथ बीजामति नायक (विजयगच्छीय) श्री शांतिसागरसूरि जी एवं यतियों सहित श्री सम्मेतशिखर तीर्थ पर श्रीसंघ के साथ जाकर श्रीतीर्थराज की वन्दना की। उस तीर्थराज पर खरतरगणाधीश श्री जिनहंससूरि जी का बीजामतनायक श्री शान्तिसागरसूरि जी के साथ मिलाप हो गया। दोनों में देर तक वार्तालाप हुआ। दोनों ने शाल जोड़ा नामक बहुमूल्य वस्त्र आपस में एक-दूसरे को ओढ़ाये। तदनन्तर उभय आचार्यों ने दोनों संध्याओं में देववन्दनार्थ साथ-साथ जाकर सारे संघ के साथ तीर्थराज को प्रणाम किया। श्री हरखचंद्र वहाँ पन्द्रह दिन तक ठहरा और लौट कर सकल संघ सहित अजीमगंज आ गया। तदनन्तर सं० १९२८ वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन बालूचर निवासी संघ की प्रार्थना से श्री गुरुदेव अजीमगंज से बालूचर पधारे और वहीं चातुर्मास किया। संघ ने बहुत भक्ति प्रदर्शित की। सं० १९२८ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को वहाँ से विहार करके क्रम से दिल्ली गये। स्थानीय संघ ने अधिक समारोह के साथ आपका नगर प्रवेशोत्सव किया तथा बहुत श्रद्धा-भक्ति की। पन्द्रह दिन तक दिल्ली में ठहर कर वहाँ से चलकर क्रम से राजगढ़, रिणी, सरदारशहर आदि नगरों को पवित्र करते हुये आचार्य सं० १९२९ ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन सुखपूर्वक बीकानेर पधारे। (२५४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सं० १९३१ ज्येष्ठ सुदि दशमी के दिन बीकानेर में माणक चौक (रांगड़ी) में उपाध्याय श्री लक्ष्मीप्रधान जी गणि के उपदेश से बनवाये हुए नवीन श्री कुन्थुनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा की। सं० १९३२ में श्री चिन्तामणि जी के मंदिर में संघकारित क्रिया उत्सव के साथ श्री जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की। इस प्रकार और भी अनेक प्रतिष्ठाएँ व अनेक धर्मकृत्य करने वाले सौभाग्यगुणधारक श्री जिनहंससूरि जी सं० १९३५ कार्तिक कृष्णा १२ के दिन चार प्रहर का अनशन करके समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ये गोलेछा गोत्रीय थे। सं० १९३५ माघ शुक्ल एकादशी के दिन इन्हें आचार्य पद की प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर अनेक नगरों में विचरण कर, धर्म का उद्योत करके आप सं० १९५६ कार्तिक वदि ५ को अनशन करके स्वर्गवासी हुए आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि इनका जन्म सं० १९३१ में जोधपुर निवासी भणशाली मुहता गोत्रीय पन्नालाल जी की धर्मपत्नी नाजू देवी की रत्नकुक्षि से हुआ था। आपका जन्म नाम केशरीचंद था। सं० १९५६ कार्तिक कृष्णा ६ को आप दीक्षित हुए। बीकानेर में संघ कृत नंदी महोत्सव पूर्वक आपको आचार्य पद की प्राप्ति हुई। तदनन्तर आपने मारवाड़, पूरब, दक्षिण आदि देशों में विहार करके धर्म का प्रचार किया। श्री सम्मेतशिखर जी आदि तीर्थों की यात्राएँ तथा प्रतिष्ठादि अनेक शुभ कार्य करने वाले आपश्री का सं० १९६७ कार्तिक वदि अमावस्या, दीपावली के दिन केवल ३६ वर्ष की आयु में स्वर्गवास हुआ। 卐 आचार्य श्री जिनचारित्रसूरि मारवाड़ देश में माडपुरा ग्राम निवासी छाजेड़ गोत्रीय साह पाबूदान जी की धर्मपत्नी सोना देवी की रत्नकुक्षी से आपका जन्म सं० १९४२ वैशाख शुक्ला ८ के दिन हुआ था। आपका जन्म नाम चुन्नीलाल था। सं० १९६२ वैशाख सुदि तृतीया के दिन आपने बीकानेर में दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम चारित्रसुन्दर था जो यथानाम तथागुण था। आपने शास्त्राभ्यास करके थोड़े से समय में ही जैन सिद्धान्त के साथ-साथ व्याकरण, तर्क, काव्य, कोष, मंत्र-शास्त्र आदि विषयों का प्रगाढ़ ज्ञान प्राप्त कर लिया। सं० १९६७ माघ कृष्णा पंचमी को बीकानेर में संघ कृत नन्दि महोत्सव पूर्वक आचार्य पद प्राप्त किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२५५) 2010_04 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तर देश-विदेशों में विहार करके अनेक नगरों में चातुर्मास करके धर्म का प्रचार किया। श्री शिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा की। मालव प्रान्त में विचरण किया। बदनावर, गंगधार, कोटा आदि नगरों में श्री गुरु मूर्ति, चरणपादुका आदि की प्रतिष्ठा की। कोंकणदेश तथा बम्बई की ओर विचरण कर श्री कीर्तिरत्रसूरि परम्परा के क्रियोद्धारक शास्त्रविशारद श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी को लाल बाग में आचार्य पद, श्री सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद और श्री मतिसागर जी को पण्डितप्रवर पद प्रदान किये। श्री सिद्धाचल जी की यात्रा आदि धर्म क्रिया पूर्वक विचरते हुए आपने सत्य, गांभीर्य आदि अनेक विशेष गुणों से विभूषित होकर मकसूदाबाद, कलकत्ता आदि नगरों में व्याख्यान-वाचस्पति विरुद प्राप्त किया। विशिष्ट साहित्य के प्रकाशनार्थ आपने श्री अभयदेवसूरि जैन ग्रंथमाला की स्थापना की और कई ग्रंथों का प्रकाशन कराया। शासन प्रभावना के अनेकों कार्य सम्पन्न कराते हुए सं० १९९८ में बीकानेर के दादातीर्थ नाल गाँव में स्वर्ग के अतिथि बने। आपका स्मृति मंदिर बीकानेर निवासी श्री दीपचंद जी गोलेछा ने सत्रह हजार रुपयों की लागत से बनवाकर सं० २००७ आषाढ़ कृष्णा ११ को श्री जिनविजयेन्द्रसूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाके चरण पादुकाएँ स्थापित की। श्री जिनचारित्रसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित जिन मंदिर, गुरुदेव मूर्ति-चरण जिन-जिन नगरों में हैं, उनकी सूची निम्न है :1. सुजानगढ़, 2. महाजन, 3. उदरामसर, 4. रेल दादाजी, 5. दूगड़ों की दादावाड़ी, 6. कुशलरामवाटिका, 7. नाल में वेदी, 8. खजवाणा, 9. सोजत, 10. पालीताना, 11. गुलाबपुरा (मेवाड़), 12. बदनावर, 13. बड़वाय, 14. कोटा, 15. गंगधार, 16. जबलपुर, 17. भांदक तीर्थ, 18. नवणगाम, 19. परभणी, 20.-21. चम्पापुरी जी, 22. क्षत्रियकुण्ड, 23. काकंदी तीर्थ, 24. फाबिशगंज, 25.-28. जीयागंज, 29. मांडल, 30. अमरावती। आपके कर-कमलों से ३५ शांति पूजा और २७ मंडल पूजाएँ सम्पन्न हुईं। आपके द्वारा पद स्थापना इस प्रकार हुई-1 आचार्य, १२ उपाध्याय, १ वाचनाचार्य, १ प्रवर्तक व १ गणि पद। (२५६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जिनविजयेन्द्रसूरि श्रीपूज्य श्री जिनचारित्रसूरि जी के पट्ट पर भट्टारक श्रीपूज्य श्री जिनविजयेन्द्रसूरि जी बैठे। आपका जन्म सं० १९७२ में सौराष्ट्र के भावनगर के समीप एक गाँव में हुआ था। गाँधी गोत्रीय कल्याणचंद आपके पिता और विमला देवी माता थी। आपका जन्म नाम विजयलाल या विजयचंद था। सं० १९८७ वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन मालपुरा ग्राम में क्षेमधाडशाखीय उपाध्याय शिवचन्द्रगणि की परम्परा के अन्तर्गत उ० श्री श्यामलाल जी गणि के हाथ से आपकी दीक्षा हुई। आपका दीक्षा नाम विजयपाल था। सं० १९९८ माघ शुक्ला दशमी को श्रीसंघ कृत नन्दि महोत्सवपूर्वक बीकानेर नरेश गंगासिंह जी द्वारा आचार्य पद-गच्छेश पद प्राप्त हुआ। बीकानेर से चलकर अजीमगंज, जीयागंज, भागलपुर, कलकत्ता, नागपुर, रायपुर, बम्बई, कलिंगपोंग, दार्जिलिंग, जयपुर, उदयपुर, रतलाम, उज्जैन आदि अनेक नगरों में विचरते हुए आपने धर्म प्रवचनों द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की। आपको सं० २००२ में अजीमगंज के श्रीसंघ द्वारा "सिद्धान्तमहोदधि" तथा सं० २००५ में धमतरी के श्रीसंघ द्वारा "व्याख्यान-वाचस्पति" पदों से अलंकृत किया गया। ___ आपके उपदेश से अजीमगंज निवासियों ने शिखरजी, पावापुरी, चंपापुरी, गुणाया, क्षत्रियकुण्ड, काकंदी का संघ निकाला। सं० २००५ में धमतरी से भांडकजी, कुल्पाकजी तीर्थ यात्री संघ निकला। सं० २०१२ में शत्रुजय, गिरनार, आबू, शंखेश्वर, खंभात के लिए संघ निकला। नागपुर से कोठारी भंवरलाल जी, डूंगरमल जी ने अक्षय तृतीया निमित्त सिद्धगिरि आदि का लघु संघ निकाला। आपके कर-कमलों से अनेक स्थानों में प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न हुईं। सं० २००२ में बीकानेर में नूतन महावीर प्रासाद, सं० २००३ में रायपुर के ऋषभ जिनालय में प्रतिष्ठा, सं० २००४ में भागलपुर के वासुपूज्य जिनालय में प्रतिष्ठा, सं० २००५ में धमतरी के चन्द्रप्रभु जिनालय प्रतिष्ठा, सं० २००७ में श्री जिनचारित्रसूरि गुरु मंदिर नाल ग्राम (बीकानेर) में प्रतिष्ठा, सं० २००८ में ध्वजा-दंड-कलश, भृकुटी देवी प्रतिष्ठा, सं० २००९ फैजाबाद में शांतिनाथ जिनालय प्रतिष्ठा, सं० २०१० में नागपुर में अजितबला देवी मूर्ति प्रतिष्ठा और मणिधारी जिनचन्द्रसूरि दादाबाड़ी प्रतिष्ठा, सं० २०११ में अजीमगंज में महावीर स्वामी वेदी प्रतिष्ठा, सं० २०१२ में खरियार रोड़ में पार्श्वनाथ मंदिर एवं जिनकुशलसूरि दादाबाड़ी प्रतिष्ठा, रतलाम में अमृतसागर दादावाड़ी में जिनचन्द्रसूरि की प्रतिमा की प्रतिष्ठा, सं० २०१३ कूचविहार में मल्लिनाथ मंदिर प्रतिष्ठा, उज्जैन में शांतिनाथ वेदी प्रतिष्ठा, इन्दौर में नवपद पट्ट प्रतिष्ठा, सं० २०१४ में झालावाड़ में गुरुदेव चरण-मूर्ति प्रतिष्ठा, सं० २०१७ माघ सुदि १० को दाढ़ी (दुर्ग) में शांतिनाथ जिनालय व दादा साहब की प्रतिष्ठा आदि लगभग ३० प्रतिष्ठाएँ कराई। सं० २०१२ में खरियार रोड़ में पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर उपाध्याय विनयसागर को महोपाध्याय पद प्रदान किया था। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२५७) _ 2010_04 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके हाथ से महोपाध्याय पद १, वाचनाचार्य पद १, उपाध्याय पद ३, दीक्षाएँ १४ (सं० १९९८ में ८, सं० २००१ में ४, सं० २००७ में २), शान्ति पूजा १५, मण्डल पूजा ९, उद्यापन ५ सम्पन्न हुए। आपके चातुर्मास सं० १९९९ से २००१ बीकानेर, २००२ अजीमगंज, २००३ जीयागंज, २००४५ धमतरी, २००६-८ कलकत्ता, २००९ बीकानेर, २०१०-११ नागपुर, २०१२ रायपुर, २०१३ कलकत्ता, २०१४ उज्जैन, २०१५ इन्दौर, २०१६ जीयागंज, २०१७ अजीमगंज, २०१८ इन्दौर, २०१९ मद्रास व सं० २०२० उज्जैन में हुए। उज्जैन चातुर्मास में रक्तचाप की व्याधि बढ़ गई। अन्त में बीकानेर आदि स्थानों से होते हुए रेल दादाजी में विराजे । आहार-पानी, औषधि आदि का त्याग कर बड़ा उपाश्रय पधारे और सं० २०२० प्रथम कार्तिक अमावस्या के उषा काल में सुदि १ को प्रातः ५ बजे भौतिक शरीर त्याग कर स्वर्गवासी हुए। आपश्री ने अपने पूर्वाचार्यों द्वारा संगृहीत श्री जिनचारित्रसूरि ज्ञान भंडार को सन् १९६२ ता० १४ मई को पुरातत्त्वाचार्य श्री जिनविजय जी "पद्मश्री" की प्रेरणा से राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान (बीकानेर शाखा) को भेंट कर दिया। साथ ही साथ उ० श्री जयचन्द्र जी का ज्ञान भंडार, भीनासर के यति सुमेरमल जी का संग्रह, विवेक वर्द्धन संग्रह, आर्या मगनश्री जी व यति हिम्मतविजय जी का संग्रह भी श्रीपूज्य जी महाराज की प्रेरणा से प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान को प्राप्त हो गए जो बीकानेर स्टेडियम ग्राउण्ड स्थित भवन में है। यहाँ २१ हजार हस्तलिखित ग्रंथों का अनुपम संग्रह है। (२५८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीपूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि श्री जिनविजयेन्द्रसूरि जी के पट्ट पर उनके स्वर्गवास के ८ वर्ष पश्चात् श्री चन्द्रोदय गणि बैठे जो श्रीपूज्य श्री जिनचन्द्रसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका जन्म सं० २०११ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी की मध्य रात्रि में जयपुर नगर में हुआ। इनके पिताजी का नाम हंसमुखलाल जी गोलिया और माता का नाम चन्द्रकला देवी था। इनका नाम रखा गया देवेन्द्र। दिल्ली गाँधी नगर में रहते थे, माँ का देहान्त हो जाने पर पिता ने ननिहाल जयपुर भेज दिया। विदुषी साध्वी श्री विनयश्री जी की प्रेरणा से वैराग्य पूर्वक सं० २०२१ ज्येष्ठ शुक्ला ६ को श्रीपूज्य जी श्री जिनधरणेन्द्रसूरि जी के निकट दीक्षा लेकर "चन्द्रोदय" नाम प्राप्त किया। रायपुर में यतिवर्य श्री जतनलाल जी के सान्निध्य में सुचारु रूप से विद्याध्ययन किया। विवेकवर्द्धन सेवाश्रम की गतिविधियों में समुचित अनुभव प्राप्त होकर बीकानेर आये। सं० २०२८ में माघ शुक्ला १३ को बड़े उपाश्रय में समारोहपूर्वक सूरि पद प्राप्त कर श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपने बीकानेर, रायपुर, उज्जैन, कलकत्ता, अजीमगंज, शिकागो फिर बीकानेर और जीयागंज में चातुर्मास किये। श्री सुशील मुनि जी के साथ आपने सन् १९७५ में विदेश यात्राएँ की। थाइलैण्ड, हांगकांग, जापान, अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड आदि अनेक स्थानों में जैन धर्म प्रचार के साथ-साथ विविध अनुभव प्राप्त कर भारत लौटे। फिर विदेशी भक्तों की पुकार पर विदेश जाकर कर दो वर्ष रहे। शिकागो में चातुर्मास किया। अमेरिका के माण्ट्रियल के निकट बाल मारिन नगर में भगवान् महावीर शोध केन्द्र स्थापित किया। वापस भारत लौट कर देश के विविध स्थानों में विचरण कर रहे हैं। आपने गद्दी पर बैठने के बाद भिलाई में प्रतिष्ठा की। फिर बागपुर, बीगा, पड़ाना, सारंगपुर आदि में भी मंदिरों की प्रतिष्ठाएँ की। अजीमगंज में दादा साहब के चरण एवं बीकानेर में सीमधर स्वामी की व रेल दादाजी में समाधि स्थल पर अपने गुरु महाराज के चरणों की प्रतिष्ठा की। आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन तीर्थ कुल्पाक जी में ध्वजा दण्ड प्रतिष्ठित किया। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम (हम्पी) में भी साधना हेतु विराजे । जियागंज संघ ने आपको सिद्धान्त-महोदधि पद से विभूषित किया। धार्मिक शिविरों की उपयोगिता निर्विवाद है। आपके सान्निध्य में जीयागंज और कलकत्ता में धार्मिक शिक्षण शिविर आयोजित हुए। जियागंज में नेत्र-शिविर भी लगा। वर्तमान में आपने अपना ध्यान विपश्यना की ओर केन्द्रित किया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२५९) 2010_04 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ की शाखाओं का इतिहास - १ खरतरगच्छ की १० शाखाओं का यत्किञ्चित् इतिवृत्त तत्सम्बन्धित पट्टावलियों, मूर्तिलेखों, रचना - प्रशस्तियों एवं लेखन-पुष्पिकाओं आदि में प्राप्त होता है, जो क्रमशः इस प्रकार है : १. मधुकर शाखा महोपाध्याय क्षमाकल्याणीय पट्टावली के अनुसार युगप्रवराचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के समय में इस शाखा का प्रादुर्भाव हुआ था, किन्तु इस शाखा के प्रवर्तक आचार्य कौन थे? किस कारण से पृथक् आविर्भाव हुआ? इत्यादि प्रश्नों का हमें कोई समाधान नहीं मिलता। साथ ही इस परम्परा में कौन-कौन आचार्य हुए और यह परम्परा कब तक चली? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । किन्तु शिलालेखों के आधार से यह निश्चित है कि सोलहवीं शती तक येन-केन रूपेण यह परम्परा चलती रही है। श्री धनप्रभसूरि (सं० १५१२), मुनिप्रभसूरि (१५४८, १५६३), श्रीसूरि, चारित्रप्रभसूरि और गुणप्रभसूरि आदि के लेख प्राप्त होते हैं। इनमें कई आचार्य सन्दिग्ध हो सकते हैं किन्तु इनके नाम के साथ ‘“खरतर मधुकर" शब्द का स्पष्टोल्लेख होने से सन्देह का अवकाश नहीं रहता। कई लेखों से "चतुर्दशीपक्ष" मान्यता का उल्लेख भी मिलता है। (२६०) 2010_04 蛋蛋蛋 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. रुद्रपल्लीय शाखा ___ इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री जिनशेखरसूरि थे जो आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि जी के शिष्य थे। इनके सम्बन्ध में सामान्यतया आचार्य जिनवल्लभसूरि तथा जिनदत्तसूरि के चरित्र में उल्लेख हो चुका है। उत्तर प्रदेश के रुद्रपल्ली नामक स्थान में जिनशेखरसूरि और उनके शिष्य-प्रशिष्यों के चातुर्मास हुए, विचरण हुआ। मन्दिर प्रतिष्ठादि अनेक धर्मकार्य हुए जो आज अतीत में विलीन हो चुके हैं। फिर भी प्रतिमा लेखों से विदित होता है कि श्री जिनवल्लभसूरि प्रतिबोधित दूगड़ आदि विभिन्न गोत्रों पर इस शाखा का प्रभाव था। पंजाब में भी इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों का पर्याप्त विचरण हुआ था। इस शाखा के विभिन्न विद्वानों ने कई ग्रंथों का निर्माण भी किया है जिनके सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत तृतीय खण्ड में खरतरगच्छीय, साहित्यसूची द्रष्टव्य है। इस शाखा की आचार्य परम्परा का वंशवृक्ष इस प्रकार है१. श्री जिनशेखरसूरि ११. श्री अभयदेवसूरि २. श्री पद्मचंद्रसूरि १२. श्री जयानंदसूरि ३. श्री विजयचंद्रसूरि १३. श्री वर्द्धमानसूरि ४. श्री अभयदेवसूरि १४. श्री जिनहंससूरि ५. श्री देवभद्रसूरि १५. श्री जिनराजसूरि (१५०१) ६. श्री प्रभानन्दसूरि १६. श्री जिनोदयसूरि (१५२५) ७. श्री चन्द्रसूरि (१३२७) १७. श्री जिनचंद्रसूरि (१५३२) ८. श्री जिनभद्रसूरि १८. श्री देवसुन्दरसूरि ९. श्री जगतिलकसूरि १९. श्री जिनदेवसूरि १०. श्री गुणचन्द्रसूरि (१४१५-२१) ६. श्री प्रभानन्दसूरि की द्वितीय परम्परा में७. विमलचंद्रसूरि १. सं० १२२२ में रुद्रपल्ली नगर में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि जी के साथ "न्यायकन्दली" पठन प्रसंग में राजसभा में शास्त्रार्थ में ये पराजित हुए थे। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२६१) 2010_04 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. गुणशेखरसूरि ९. संघतिलकसूरि गुणचंद्रसूरि (१४१५-२१) सोमतिलकसूरि देवेन्द्रसूरि गुणाकरसूरि हर्षसुन्दरसूरि लब्धिसुन्दरसूरि (१५०६) गुणसुन्दरसूरि (१५२८) सोमसुन्दरसूरि (१४९७-१५१७) उ० गुणप्रभ यह परम्परा आगे कब तक चलती रही, यह प्रमाणाभाव से नहीं कहा जा सकता, किन्तु सं० १८६९ आषाढ़ वदि १० तथा सं० १८८९ भाद्रपद वदि ४ की लेखन प्रशस्तियों के आधार पर यह निश्चित है कि परम्परा नष्ट हो चुकी थी और जो कुछ अवशिष्ट थी, वह मथेन (कुलगुरु) के रूप में विद्यमान थी। विशेष आचार्य जिनशेखरसूरि के सम्बन्ध में जिनपालोध्याय ने खरतरगच्छयुगप्रधानाचार्यगुर्वावली (पृ० ८) में लिखा है-“कूर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि ने सिद्धान्तविद्या का अध्ययन करने के लिये उस समय के प्रसिद्ध आगमवेत्ता आचार्य अभयदेवसूरि के पास जिनवल्लभ को जिनशेखर के साथ पाटण भेजा था। गणि जिनवल्लभ के साथ ही जिनशेखर ने भी अभयदेवसूरि से उपसम्पदा प्राप्त की थी। जिनशेखर आजीवन जिनवल्लभसूरि की ही सेवा में संलग्न रहे। जिनवल्लभसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् जब देवभद्राचार्य ने जिनदत्तसूरि को जिनवल्लभसूरि के पाट पर बिठाया तो जिनशेखर भी जिनदत्तसूरि के आज्ञानुवर्ती हो गये।" गुर्वावली के पृष्ठ १६ पर लिखा है-"उसके कुछ अयुक्त कार्यों को देखकर देवभद्राचार्य ने उसे गच्छ से बहिष्कृत कर दिया। जिनदत्तसूरि से क्षमा माँगने पर उसे उन्होंने पुनः साधु परिवार में सम्मिलित कर लिया। जब देवभद्राचार्य को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने जिनदत्तसूरि से कहा कि इसे समुदाय में लेकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया। यह आपको कभी भी सुखावह नहीं होगा। उत्तर में जिनदत्तसूरि ने कहा कि “यह सदा से ही स्वर्गीय आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के सेवा में रहा है, इसे कैसे निकाला जाये? जब तक निभेगा तब तक निभायेंगे।" ___ "जिनदत्तसूरि ने जिनशेखर को उपाध्याय पद प्रदान किया। जिनशेखर रुद्रपल्ली के ही रहने वाले थे। उनके स्वजन-सम्बन्धी भी वहीं रहते थे अतः उन्होंने धर्म कार्य में विशिष्ट रूप से धर्म एवं शासन की वृद्धि के लिये जिनशेखर को रुद्रपल्ली भेज दिया।" (वही, पृष्ठ १७) (२६२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिनदत्तसूरि जी विहार करते हुए जब रुद्रपल्ली पधारे तब जिनशेखर ने बड़े समारोह के साथ उनका नगरप्रवेश कराया। रुद्रपल्ली के १२० श्रावक कुटुम्बों को जिनधर्म में दीक्षित किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी और ऋषभदेव के दो मंदिरों की सूरिजी ने प्रतिष्ठा की। कई श्रावकों ने देशविरति और कई ने सर्वविरति व्रत धारण किया।" (वही, पृ० १८) ऐसा प्रतीत होता है कि जब युगप्रधान जिनदत्तसूरि ने रासलनन्दन को वि०सं० १२०३ में अजमेर में दीक्षा देकर अल्पावस्था में ही वि०सं० १२०५ वैशाख सुदि ६ को विक्रमपुर में आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम घोषित किया, तभी सम्भव है कि इससे रुष्ट होकर जिनशेखर इनसे पृथक् हो गये हों और रुद्रपल्लीय स्थान को ही अपना विचरणक्षेत्र बना लिया हो। रुद्रपल्लीय उनका प्रधान क्षेत्र होने के कारण इस शाखा का नाम रुद्रपल्लीय शाखा पड़ा हो। किन्तु यह नामकरण अनुमानतः ६-७ दशक बाद ही रुद्रपल्लीयगच्छ के नाम से जाना जाने लगा। यही कारण है कि परवर्ती आचार्यों की परम्परा में यह प्रमुख गच्छ के रूप में स्थान प्राप्त कर सका। खरतरगच्छ की परम्परा को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि आचार्य बनने पर 'जिन' शब्द नाम के आगे लगता है और चतुर्थ पट्टधर का हमेशा जिनचन्द्रसूरि नामकरण ही होता है। ये दोनों परम्परा-जिन और जिनचन्द्रसूरि नाम की परम्परा उसी समय से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। खरतरगच्छ की विभिन्न शाखाओं में भी आज तक यही कम देखने को प्राप्त होता है, परन्तु रुद्रपल्लीय शाखा में यह क्रम प्राप्त नहीं होता। संभव है मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के आचार्य पद से अत्यन्त रुष्ट और खिन्न होकर इस परम्परा ने ये दोनों क्रम किये हों। इस परम्परा के आचार्यों द्वारा रचित साहित्य से स्पष्ट है कि जिनशेखर के पूर्ववर्ती परम्परा जिनवल्लभ, अभयदेव, जिनचन्द्र और जिनेश्वरसूरि से ही प्रारम्भ होती है। अतः रुद्रपल्लीय गच्छ को एक स्वतंत्र गच्छ न मानकर खरतरगच्छ की एक शाखा ही मानना चाहिए। मुनि कान्तिसागर जी-जैनधातु-प्रतिमालेख, लेखांक २४२, संवत् १५४२; श्री नाहरजैनलेखसंग्रह, लेखांक २२००, संवत् १५३८ के लेख में जिनोदयसूरि पट्टे देवसुंदरसूरि का नाम प्राप्त होता है। __ मुनि कान्तिसागर जी-जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक १२४ में, संवत् १५११ के लेख में और नाहर-जैनलेखसंग्रह, लेखांक २३३७ में, संवत् १५१६, लेखांक १२६७ में, संवत् १५१७, लेखांक १३१५ में, संवत् १५१३; विनय-प्रतिष्ठालेखसंग्रह भाग एक लेखांक ५२० में, संवत् १५१३, लेखांक ५७० में, संवत् १५१७, के लेखों में देवसुंदरसूरि पट्टे सोमसुंदरसूरि का नाम प्राप्त होता है। __ विनय-प्रतिष्ठालेखसंग्रह भाग एक लेखांक ८३०, संवत् १५४२ के लेख में सोमसुंदरसूरि पट्टे हरिकलशसूरि नाम मिलता है। इसी के लेखांक ४५५ और ४५६ में संवत् १५१० रुद्रपल्लीय हरिभद्रसूरि का नाम प्राप्त है। इसी लेख संग्रह के लेखांक.६६९ और ८४० के संवत् १५२५ एवं १५४५ के लेखों में रुद्रपल्लीय हेमप्रभसूरि का नाम प्राप्त होता है। १. देखें, प्रभानन्दसूरि रचित ऋषभ पञ्चाशिका वृत्ति की रचना प्रशस्ति। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२६३) 2010_04 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठालेखसंग्रह लेखांक ७४१, संवत् १५३२ के लेख में देवसुंदरसूरि पट्टे गुणसुंदरसूरि लिखा है। वहीं बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक १८३५, संवत् १४८७ के लेख में रुद्रपल्लीय श्री हर्षसुन्दरसूरि पट्टे श्री देवसुंदरसूरि का नामोल्लेख है। नाहटा-बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखांक १४५५, वि० संवत् १५६९ के लेख में विनयराजसूरि, उपाध्याय आनन्दराज, चारित्रराज, वाचक देवरत्न के नाम प्राप्त होते हैं और इसी लेख संग्रह के लेखांक १६२६, संवत् १५५६ के लेख में सर्वसूरि नाम मिलता है। ___ कवि ऊद (संवत् १९७०) कृत छंद में हरिकलशसूरि (मंत्री, ठाकुर दूगड की पत्नी सालिगही के पुत्र) की परम्परा में उपाध्याय महिमानिधान के पट्टधर सोमध्वज का नाम प्राप्त है। कवि सारंग कृत शत्रुजय छंद में देवसुंदरसूरि के वचनों से यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्री संघतिलकसूरि ने स्वकृत 'सम्यक्त्व सप्तति टीका' की रचना प्रशस्ति में जिनप्रभसूरि (लघु खरतरशाखा के आचार्य) का विद्या गुरु के रूप में उल्लेख किया है। रुद्रपल्लीय शाखा के विशिष्ट रचनाकार-जिनशेखरसूरि के प्रपौत्र शिष्य अभयदेवसूरि हुए जिनके लिये इस शाखा के परवर्ती आचार्यों ने इनका द्वितीय अभयदेव के नाम से गुणगान किया है। प्रथम अभयदेव नवाङ्ग टीकाकार हैं तो द्वितीय अभयदेव ये ही हुए। इनके द्वारा वि०सं० १२७८ में रचित जयन्तविजय महाकाव्य एक प्रसिद्ध कृति है। जिनशेखरसूरि की परम्परा में छठे पट्टधर प्रभानन्दसूरि हुए, जिनकी प्रसिद्ध कृति हैऋषभपंचाशिका वृत्ति और वीतरागस्तुति वृत्ति । इन्हीं प्रभानन्दसूरि की परम्परा में सम्यक्त्वसप्तति टीका, वर्धमानविद्याकल्प आदि के रचनाकार संघतिलकसूरि हुए। संघतिलकसूरि के शिष्य सोमतिलकसूरि हुए। इनका दीक्षा नाम विद्यातिलक था। इनकी प्रसिद्ध रचनायें हैं-षट्दर्शन समुच्चय टीका, कुमारपालप्रबन्ध, शीलोपदेशमाला वृत्ति और त्रिपुराभारतीलघुस्तव टीका। संघतिलकसूरि के द्वितीय शिष्य देवेन्द्रसूरि हुए जिनकी प्रमुख रचना है प्रश्रोत्तररत्नमाला टीका (वि०सं० १४२०)। देवेन्द्रसूरि के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए जिनकी प्रसिद्धतम कृति है-अपभ्रंशभाषा में रचित सन्देशरासक की टीका । दिवाकराचार्य की प्रसिद्ध कृति दानोपदेशमाला है। इसी परम्परा में जयानन्दसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि हुए। इन्होंने वि०सं० १४६८ में जालन्धर-नन्दनवनपुर (पंजाब) में आचारदिनकर की रचना की। यह कृति सविस्तर विधि-विधान का सर्वोत्तम और सर्वमान्य ग्रन्थ है। अंजनशलाका, प्रतिष्ठा आदि समस्त विधियाँ समस्तगच्छ वाले भी इसी को आधार बनाकर करते आ रहे हैं। इसी परम्परा में भक्तामरटीका (१४२६) के प्रणेता गुणाकरसूरि, गौतमपृच्छावृत्ति (१४७६) के कर्ता श्रीतिलक और जिनपंजर स्तोत्रकार कमलप्रभाचार्य आदि अनेक प्रसिद्ध रचनाकार हुए। 卐'' (२६४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. लघु खरतर शाखा (१. आचार्य श्री जिनसिंहसूरि) आचार्य जिनपतिसरि के पट्ट पर जिनेश्वरसूरि विराजे । आपके दो प्रमुख शिष्य थे। एक श्रीमाल जिनसिंहसूरि और द्वितीय जिनप्रबोधसूरि। एक समय आप पालूपुर (पल्लू) की पौषधशाला में विराज रहे थे कि आपके दण्ड के तड़-तड़ शब्द के साथ अकस्मात् दो टुकड़े हो गए। यह जानकर आपने मन में सोचा कि मेरे पीछे संघ के दो भाग हो जायेंगे तो मैं स्वयं ही गच्छ-विभाग क्यों न कर दूँ? इन्हीं दिनों श्रीमाल संघ ने जिनके देश में कोई गुरु नहीं थे-महाराज की सेवा में जाकर प्रार्थना की। जिनेश्वरसूरि ने अपने पूर्व निश्चयानुसार श्रीमाल वंशोत्पन्न जिनसिंहसूरि को सं० १२८० में आचार्य पद और पद्मावती मंत्र देकर कहा कि "यह श्रीमाल संघ तुम्हारे अधीन है, संघ के साथ जाओ और उनके प्रान्त में अधिकाधिक धर्मप्रचार करो।" गुरुदेव की आज्ञानुसार आपने उस संघ के प्रान्त में विहार किया। उपकारी गुरुदेव के संबंध से उस सारे संघ ने आपको अपने प्रमुख धर्माचार्य रूप से सम्मानित किया। (२. आचार्य श्री जिनप्रभसूरि श्री जिनसिंहसूरि ने गुरुदेव श्री जिनेश्वरसूरि प्रदत्त पद्मावती मंत्र की आराधना करके छः मास में देवी को प्रत्यक्ष कर लिया। देवी ने आपसे कहा कि-"आपकी आयु थोड़ी है, विशेष लाभ की संभावना कम है।" इसी प्रसंग में देवी ने आपको भावी पट्टधर शिष्य होने योग्य व्यक्ति का संकेत किया, जो कि मोहिलवाड़ी निवासी श्रीमाल ज्ञातीय तांबी गोत्रीय महर्द्धिक श्रावक महीधर की धर्मपत्नी खेतल देवी की कोख से उत्पन्न सब से छोटे पुत्र सुभटपाल थे। देवी के संकेतानुसार आपने उस ग्राम में जाकर साह महीधर की इच्छा और सम्मति से आचार्योचित्त सब शुभ लक्षणों से सम्पन्न सुविनीत सुभटपाल को दीक्षा दी। सं० १३४१ में किढिवाणा नगर में अपने पट्ट पर स्थापित करके "जिनप्रभसूर' नाम विख्यात किया। गुरु कृपा से पद्मावती देवी आपको भी प्रत्यक्ष थीं। देवी की आज्ञानुसार आपने धर्मप्रचार तथा उन्नति के लिए दिल्ली प्रान्त में विहार किया। आपके गुण गौरव तथा माहात्म्य पर सुलतान कुतुबुद्दीन भी मुग्ध था। अट्ठाही, अष्टमी, चतुर्थी को सम्राट आपको सभा में आमंत्रित किया करता था। १. यह समय भ्रान्त है, जिनप्रबोधसूरि का जन्म १२८५ और दीक्षा सं० १२९६ में है अतः जिनसिंह इनसे दीक्षा पर्याय में छोटे होने चाहिए तभी "खरतर लघु शाखा" कहलाई। जिनसिंहसूरि के जन्म स्थान का नाम लाडनूं भी पाया जाता है। (२६५) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादशाह मुहम्मद तुगलक के आह्वान से सं० १३८५ पौष शुक्ला ८ शनिवार को ये उससे मिले। आपकी अद्भुत प्रतिभा और अलौकिक पाण्डित्य से प्रसन्न होकर बादशाह ने आपका बहुत आदर किया और हाथी, घोड़े, राज, धन, देश, ग्राम आदि अर्पण करने लगा किन्तु साध्वाचार के विपरीत होने से आपने कोई वस्तु ग्रहण नहीं की। आपके त्याग की सुल्तान ने बड़ी प्रशंसा की और वस्त्र, कम्बल आदि से आपकी पूजा की। शाही मुहर का फरमान देकर नवीन उपाश्रय निर्माण कराया और अपने बैठने के प्रधान हाथी पर बड़ी सज-धज की सवारी के साथ आपको पुनः पौषधशाला में पहुँचाया। पद्मावती देवी के सान्निध्य से आपकी कीर्ति से दशों दिशाएँ धवलित हो गईं थीं। आप बड़े चमत्कारी और प्रभावक थे। आपके चमत्कारों में १. आकाश से कुलह (टोपी, घड़ा) को ओघे (रजोहरण) द्वारा नीचे लाना, २. महिष (भैंस) के मुख से वाद करना, ३. बादशाह के साथ वट (बड़) वृक्ष को चलाना, ४. शत्रुजय यात्रार्थ सम्राट आपके साथ संघ लेकर गया तब रायण वृक्ष से दूध बरसाना, सम्राट को संघपति पद देना, ५. दोरड़े से मुद्रिका प्रकट करना, ६. कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा की बादशाह से पूजन करवा कर प्रतिमा के मुख से आशीर्वचन बुलवाना आदि-आदि हैं। आपने अपने समय में जैन शासन की महती उन्नति और प्रचार किया। कहा जाता है कि आप प्रतिदिन एकाध नवीन स्तोत्र की रचना करने के पश्चात् आहार ग्रहण करते थे। संघ और तीर्थ रक्षा के लिए सम्राट से अनेकों फरमान प्राप्त किये थे। अनेक तीर्थों की यात्राएँ कर ऐतिहासिक प्रबन्ध लिखकर प्रवास को जो ऐतिहासिक रूप प्रदान किया था वह उनकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक था। "कल्पप्रदीप" अपरनाम "विविधतीर्थकल्प" ग्रन्थ इसका प्रबल प्रमाण है। आप एक उच्चकोटि के चमत्कारी और स्व-पर सिद्धान्त के उद्भट विद्वान् एवं मौलिक साहित्य सर्जक थे। ३. जिनदेवसूरि-इनके पिता का नाम साह कुलधर और माता का नाम वीरिणी था। सुलतान मुहम्मद तुगतक के ऊपर आपका भी अच्छा प्रभाव था और पर्याप्त समय तक सम्राट के पास आप रहे भी थे। सम्राट भी आपको विशेष आदर दिया करते थे। जिनप्रभसूरि ने स्वयं इन्हें आचार्य पद प्रदान किया था। सम्राट द्वारा प्रवेश महोत्सव में सूरि जी के साथ आपको भी हाथी पर बैठना पड़ा था। सूरि जी ने अपने देवगिरि प्रवास के समय १४ साधुओं के साथ आपको सम्राट के पास दिल्ली में रखा था। जब ये छावनी में सम्राट से मिले तो सम्राट ने सम्मानपूर्वक एक बस्ती जैन संघ के निवासार्थ दी, साथ ही पौषधशाला व मन्दिर निर्माण करवा दिया जहाँ ४०० श्रावक परिवार रहने लगे। इसी मन्दिर में कन्यानयनीय चमत्कारिक महावीर प्रतिमा विराजमान की गई, जो १७वीं शताब्दी तक विद्यमान थी। आपके रचित कालिकाचार्य कथा व शिलोञ्छ नाममाला ग्रन्थ (सं० १४३३) उपलब्ध हैं। ४. जिनमेरुसूरि-आप जिनदेवसूरि के पट्टधर थे, आपके गुरु भ्राता श्रीचन्द्रसूरि थे। ५. जिनहितसूरि-जिनमेरुसूरि के पट्टधर थे, इनके रचित वीर स्तव (गा० ९), तीर्थमाला स्तव (गा० १२) व प्रतिमा लेख प्राप्त हैं। (२६६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जिनसर्वसूरि-जिनहितसूरि के पट्टधर थे। ७. जिनचन्द्रसूरि-ये जिनसर्वसूरि के पट्टधर थे। इनके द्वारा सं० १४६९-१५०६ में प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ प्राप्त हैं। ८. जिनसमुद्रसूरि-ये जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे। आप द्वारा रचित रघुवंश एवं कुमारसंभव टीका प्राप्त है। ९. जिनतिलकसूरि-आप जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर थे। सं० १५१० का टांक श्रीमाल कारित प्रतिमा लेख प्राप्त है। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित सं० १५०८ से १५२८ तक की सलेख जिनप्रतिमायें उपलब्ध हैं। १०. जिनराजसूरि-जिनतिलकसूरि के पट्टधर थे, इनका सं० १५५९ का प्रतिमा लेख प्राप्त है। ११. जिनचन्द्रसूरि-जिनराजसूरि के पट्टधर थे, इनके सं० १५६६-१५८७ के प्रतिमा लेख प्राप्त हैं। १२. जिनभद्रसूरि-आपके द्वारा प्रतिष्ठापित कई प्रतिमाएँ प्राप्त हैं। १३. जिनमेरुसूरि १४. जिनभानुसूरि-ये जिनभद्रसूरि जी के शिष्य थे। __इस परम्परा के उपाध्याय वाचनाचार्य आदि अनेक विद्वान् और समर्थ साहित्यकार हुए हैं। अभयचन्द्र, विद्याकीर्ति (१५०५), राजहंस, चारित्रवर्द्धन, महीचन्द्र (१५९१), लक्ष्मीलाभ, भानुतिलक, समयध्वज (सं० १६११) आदि अनेक विद्वानों एवं श्री जिनप्रभसूरि के साहित्य के संबंध में महोपाध्याय विनयसागर जी कृत शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य नामक ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिए। '' (२६७) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. बेगड़ शाखा गुर्वावलि में जिनलब्धिसूरि के पट्टधर आचार्य जिनचन्द्रसूरि तक का क्रम एक समान ही है। जिनचन्द्रसूरि ' के पट्टधर भट्टारक शाखा की ओर जिनोदयसूरि हुये । वे माल्हू गोत्रीय थे, इसी से बेगड़ शाखा वाले उनकी परम्परा को माल्हू शाखा भी कहते हैं और आचार्य जिनेश्वरसूरि से बेगड़ शाखा का आविर्भाव हुआ । इस शाखा के कतिपय नियमानुसार भट्टारक पद पर छाजेड़ गोत्रीय ही अभिषिक्त होता था एवं प्रत्येक सातवें (छठे ) पट्ट पर स्थापित आचार्य का नाम जिनेश्वरसूरि ही रखा जाता था। इस (बेगड़) शाखा की परम्परा इस प्रकार है १. श्री जिनेश्वरसूरि २. श्री जिनशेखरसूरि ३. श्री जिनधर्मसूरि ४. श्री जिनचन्द्रसूरि ५. श्री जिनमे सूरि ६. श्री जिनगुणप्रभसूरि श्री जिनेश्वरसूरि ८. श्री जिनचन्द्रसूरि ७. ९. श्री जिनसमुद्रसूरि १०. श्री जिनसुन्दरसूरि ११. श्री जिनोदयसूरि १२. श्री जिनचन्द्रसूरि १३. श्री जिनेश्वरसूरि १४. १५. श्री जिनक्षेमचन्द्रसूरि १६. श्री जिनचन्द्रसूरि १. आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि आप छाजहड़ गोत्रीय साह झांझण की सती धर्मपत्नी झबकू देवी की रत्नकुक्षि से उत्पन्न हुये । आप कई बाधाओं का सामना करके गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि के पाट पर विराजे । आपने छः मास तक बाकुला और एक लोटी जल लेकर वाराही देवी को आराधना द्वारा प्रत्यक्ष किया । धरणेन्द्र भी आपके प्रत्यक्ष था। आपने सं० १४०९ में स्वर्णगिरि में महावीर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा तथा सं० १४११ में श्रीमाल नगर में मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १४१४ में आपने आचार्य पद प्राप्त किया । अणहिल्लवाड़ (पाटण) में खान का मनोरथ पूर्ण करके महाजन बन्दियों को छुड़वाया । राजनगर में विहार करके १. उ० क्षमाकल्याण जी कृत पट्टावली के अनुसार आ० जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनोदयसूरि ने अपने पट्ट पर वाचक धर्मवल्लभ को बिठाने का विचार किया था, किन्तु पश्चात् कुछ कारणों से यह विचार स्थगित कर जिनराजसूरि को पट्ट पर बिठाया। इससे वाचक जी रुष्ट हो गए और जैसलमेरी संघ की सहायता प्राप्त कर पृथक् हो गए। आपके कुटुम्बी बेगड़ छाजहड़ थे इसलिये इनका समुदाय सं० १४२२ से बेगड़ नाम से ख्यात हुआ, लिखा है । वा० धर्मवल्लभ गणि ही जिनेश्वरसूरि हुए। (२६८) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड • Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादशाह महमूद को प्रतिबोध दिया। बादशाह ने आपका अत्यधिक समारोह के साथ पद-स्थापन महोत्सव किया। आपके भ्राता ने आपके दर्शन पर ५०० घोड़ों का दान किया और एक करोड़ द्रव्य व्यय किया। सं० १४२२ में बादशाह ने एक समय प्रसन्न होकर "बेगड़ा" विरुद प्रदान किया और कहा-"मैं भी बेगड़ तुम भी बेगड़, बेगड़ गुरु गच्छ नाम । सेवक गच्छनायक सही बेगड़ अविचल पामी ठाम।" तभी से आपके श्रावक और आप भी बेगड़ कहलाते हैं। एक बार आप सांचौर पधारे, बेगड़ और धूलग दोनों गोत्र परस्पर मिले। वहाँ राडरह से लखमीसिंह मंत्री ने संघ सहित आकर गुरुश्री को वन्दन किया और अपने "भरम" नामक पुत्र को गुरुश्री को वहराया और चार चौमासे वहीं रखा। सं० १४३०२ में अनशन करके जोधपुर के निकट शक्तिपुर में स्वर्ग पधारे। आपका वहाँ स्तूप बनवाया गया। वह बड़ा चमत्कारी है, हजारों व्यक्ति वहाँ दर्शनार्थ आते हैं। स्वर्ग गमन के बाद भी आपने तिलोकसी शाह को छ: पुत्रियों के पश्चात (ऊपर) एक पुत्र देकर उसकी वंशवृद्धि की। ___श्री जिनेश्वरसूरि जी ने सं० १४२५ वैशाख सुदि ११ को तथा सं० १४२७ ज्येष्ठ वदि १ को जिन बिम्बादि की प्रतिष्ठाएँ कराई थीं जिनके लेख बीकानेर जैन लेख संग्रह लेखांक ४७३ व २७६८ में प्रकाशित हैं। (२. आचार्य श्री जिनशेखरसूरि सं० १४५० में आप आचार्य पद प्राप्त कर महाप्रभावशाली और बड़े प्रतापी हुए। एक समय जब आपका महेवा चातुर्मास था, वहाँ पर बादशाह तेरह तुंबण सेना लेकर चढ़ आया। तब वहाँ के रावल ने गुरुदेव की शरण में आकर लज्जा रखने की प्रार्थना की। आपश्री ने तेरह कलशी सरसों और तेरह कलशी चावल अभिमंत्रित करके रावल जी को दिए और कहा कि "चिन्ता मत करो, युद्ध में जाओ और बादशाह की फौज सामने आये तब तीन ताली बजाना, तत्काल ये सरसों घोड़े और १. महमूद बेगड़ा का शासनकाल ई० सन् १४५८-१५११ सुनिश्चित है। (द्रष्टव्य-रमेशचन्द्र मजुमदार और ए.डी. पुसालकर, हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ इन्डियन पीपुल-भाग ६, दिल्ली सल्तनत, प्रथम संस्करण, मुम्बई १९६० ई०. पृ० १६२) अतः शाखा प्रवर्तक जिनेश्वरसरि और महमद बेगडा की समसामयिकता असंभव है। यह शाखा बेगड़ क्यों कहलायी, यह अन्वेषणीय है। २. संवत् चउद त्रीसा समैं, गुरु संथारो कीध हो। सरग थयौ सकतीपुरै, बेगड़ धंन जस लीध हो। (ऐ००का०सं०, पृ० ३१५) ३. लक्ष्मीसिंह के पुत्र भरम बालक थे अतः चार वर्ष वही राडद्रह में रहे अतः बड़े होने पर शिक्षा प्राप्त कर दीक्षा ली और सं० १४५० में आचार्य पदासीन होकर जिनशेखरसूरि भट्टारक बने हों। छाजहड़ गोत्र के आग्रह के कारण गच्छ संचालन २० वर्ष सोमदत्तसूरि ने किया होगा क्योंकि सं० १४३८ के लेख में (बीकानेर जैन लेख संग्रह लेखांक ५३४) जिनेश्वरसूरि पट्टे सोमदत्तसूरि लिखा है, यह छाजहड़ वंश का लेख होने से अनुमान होता है। पट्टावली में सोमदत्तसूरि का नाम नहीं है। हमारे संग्रह की एक बेगड़ गच्छ पट्टावली में सोमदत्त सोमदत्तसरि को मंडलाचार्य लिखा है और उनकी विद्यमानता में स्वर्गस्थ होना लिखा है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२६९) _ 2010_04 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चावल सवार हो जायेंगे ।" आज्ञा पाकर रावल जगमाल युद्ध में गया और विजयी हुआ । तब बीबी ने ये दोहा कहा बादशाह को जीवित पकड़ गुरुदेव के पास लाया और गुरुदेव की आण मान कर उसे छोड़ दिया । इत्यादि अनेक चमत्कार कर्ता आपका ३० वर्ष संयम (सूरिपद) पालने के अनंतर सं० १४८० में स्वर्गवास हुआ। पग पग नेजा पाड़िया, पग पग पाड़ी ढाल । बीबी पूछे खान ने, जग केता जगमाल ॥ ३. आचार्य श्री जिनधर्मसूरि श्री जिनशेखरसूरि के पट्ट पर सं० १४८० मिती ज्येष्ठ सुदि १० गुरुवार को महेवा नगर में बेगड़ भुवनपाल कारित नंदि महोत्सव द्वारा आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरि जी ने आपको सूरि पद देकर स्थापित किया। आपके पिता का नाम ईसर ( भरथिग मंत्री) व माता का नाम तेजी ( कमला देवी ) था । सं० १४९१ प्रतिष्ठित अजितनाथ बिम्ब, सं० १५०१ माघ वदि ६ को श्री अजितनाथ तथा सुमतिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठित किए। सं० १५०४ में भी आपने बिम्ब प्रतिष्ठाएँ की जिनके लेख " बीकानेर जैन लेख संग्रह" में प्रकाशित हैं। एक प्राचीन त्रुटक पट्टावली के अनुसार आपने ग्रामानुग्राम विहार किया था। बेगड़ बाव में देव जुहारे, सातलपुर, रायनपुर आदि के देव जुहार कर भरूपा - भरुय (च) पधारे। श्रावकों ने बड़े आडंबर से प्रवेशोत्सव कराया एवं साधर्मी वात्सल्य किया । भद्रेश्वर के देहरा में प्रतिष्ठा करवाई । वहाँ से गौड़ी पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा करके सर पधारे, यहाँ से सूरती संघ आबू की ओर गया । सर (थर) पार करके संघाग्रह से चातुर्मास विराजे, खूब धर्म ध्यान हुआ। पीलू मोदरा के जिनालय की प्रतिष्ठा की एवं श्री जयानन्दसूरि जी को आचार्य पद दिया, महामहोत्सव हुए। लौटते हुए श्री पारकर संघ के साथ छवटण आये। बाहड़मेर, राडद्रह, भीनमाल, सीरोही, जालौर, आबू, सांचौर, सूराचंद के देव जुहारे । यहाँ श्री ठिल सुत कालू ने नगर प्रवेशोत्सव कराया। सूराचन्द से डोढ़ कोश रायपुर है जहाँ श्री महावीर स्वामी का जिनालय निर्माण करा के सं० १५०९ आषाढ़ सुदि २ को आपके कर-कमलों से प्रतिष्ठा करवायी। यहाँ का राणा श्री घडसी आपश्री के उपदेशों से प्रतिबोध पाकर श्रावक बना। राणा घड़सी ने घड़सीसर निर्माण कराया तथा कालू मुंहता ने भी कालूसर का निर्माण कराया जो अभी भी सूराचन्द में विद्यमान है। वहाँ से विहार कर गुरु महाराज कांपिली, कुंभा, छत, घाट, खावड़ आदि के संघ को वंदाते हुए राह पधारे। श्री पार्श्वनाथ और महावीर जिनालय के देव जुहार कर मंत्री नाल्हा को वंदाया। फिर शत्रुंजय, आबू की यात्रा करके रत्नपुर पधारे, रत्नपुरा श्रावकों को प्रतिबोध दिया। श्री धीरे, भागवे, कुण्डल, सिवाणा आदि के संघ को वंदा कर जिनवन्दन कर महेवा पधारे । यहाँ मंत्री वणवीर, ऊदा ने बड़े महोत्सव किये। रावल जी वन्दनार्थ आए । आग्रहपूर्वक चातुर्मास रखे, खूब धर्मध्यान हुए । यहाँ गुरु महाराज श्री जिनशेखरसूरि जी के स्तूप की यात्रा करके शिवाणची, महेवची, कोटणा आदि के समस्त (२७० ) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ को वंदा कर श्री जागुसा गाँव पधारे। मंत्री जयसिंह ने बड़े आडंबरपूर्वक चौमासा कराया। खूब धर्मध्यान हुए। लौटते समय मंत्री जयसिंह और उसकी भार्या जमनादे ने अपना देदा नामक पुत्र समर्पित किया। फिर पूज्यश्री सिणधरी, तलवाड़ा, थल, पोकरण आदि देव जुहार कर आसणीकोट पधारे। यहाँ श्री जैसलमेरी संघ वन्दनार्थ सन्मुख आया। __ सं० १५१२ में राजद्रह गाँव में मंत्री समर सरदार ने आपको डूंगरपुर से बुलाकर प्रतिष्ठा कराई थी। संघ द्वारा प्रवेशोत्सव पूर्वक जैसलमेर नगर पधारे। राव श्री देवकरण जी सन्मुख आये। चातुर्मास में खूब धर्मध्यान हुए। सं० १५१३ माघ शुक्ल ३ शुक्रवार को मंत्री गुणदत्त ने महोत्सवपूर्वक बिम्ब प्रतिष्ठा करवाई। रावल जी ने महाराजश्री के विराजने के लिए नया उपाश्रय निर्मित कराया। देदा को दीक्षा देकर दयाधर्म नाम से प्रसिद्ध किया। आपने एक बार जैसलमेर में अपने अलौकिक प्रभाव से मेह बरसा कर अकाल मिटाया। ___ सं० १५२३' के आषाढ़ महीने में मं० गुणदत्त, मं० राजसिंह ने बड़े धूमधाम से नंदि महोत्सव किया और आचार्य श्री जयानन्दसूरि के कर-कमलों से आचार्य पद दिलाकर श्री जिनचन्द्रसूरि को अपना पट्टधर बनाया और स्वयं श्रावण वदि ७ को स्वर्गवासी हुए। सं० १५२५ में आपके स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा श्री जयानन्दसूरि जी ने आषाढ़ शुक्ल १० को की थी। इनके शिष्य जयानन्द ने वि०सं० १५१० में धन्यचरित महाकाव्य की रचना की। ४. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि श्री जिनधर्मसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि बैठे। आप मंत्री कुलधर के वंशज मंत्री जयसिंह और धर्मपत्नी जमनादे (जसमा) के सुपुत्र थे। आपका जन्म नाम देदिग और दीक्षा नाम दयाधम (देवमूर्ति) था। ऊपर दीक्षा और सूरि मंत्र का विवरण दिया गया है। पट्टावली में संवत् अयथार्थ है, पर शिलालेखादि सं० १५२५ व १५२८ के तथा सं० १५५६ व १५६४ के लेख मिलते हैं। आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी वहाँ से विहार कर खावड़, घाट आदि गाँवों में विचरते हुए पारकर पधारे। गौडी पार्श्वनाथ जी की यात्रा कर पारकर में चातुर्मास किया। कच्छ देश पधारे, मं० समरथ, सुभकर ने बड़े ठाठ से चातुर्मास कराया। गिरनार और शत्रुजय महातीर्थों की यात्रा कराई। फिर अपने स्थान में आकर मं० समरथ ने अपने पुत्र की दीक्षा बड़े आडंबर से कराई। महिमामंदिर दीक्षा नाम १. यद्यपि पट्टावलियों में आपका स्वर्गवास सं० १५२८ व २९ लिखा है पर आपके स्मारक स्तूप के चरण जो इस समय श्री समयसुन्दर जी के उपाश्रय में रखे हैं उससे समस्त भ्रांति दूर हो जाती है। पादुका लेख इस प्रकार है॥ ९० ॥ ॐ नमः श्रीगुरुभ्यः। संवत् १५२३ वर्षे श्रावण वदि ७ बुधे स्व:प्राप्ति तत् सं० १५२५ वर्षे आषाढ़ शुक्ल दशम्यां चन्द्रे बेगड़ श्री खरतरगच्छे श्री जिनेश्वरसूरि संताने भ० श्री जिनशेखरसूरि पट्टालंकार श्री भट्टारक श्री जिनधर्मसूरीश्वर पादुके श्री जयानंदसूरि प्रतिष्ठिते संघस्य श्रेयसे । नमः नमः श्री। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२७१) ___ 2010_04 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। वहाँ से विहार कर सातलपुर, राधनपुर, सूरत, खंभात, राजनगर, पाटण आदि गुजरात में विचर कर मारवाड़ से समीयाणा पधारे। राणा श्री देवकरण स्वागतार्थ सामने आये। हरियड़ गोत्रीय सेठ थिराद्रिया बन्ना गुणराज ने नगर प्रवेशोत्सव कराया। श्री शान्तिनाथ जिनालय में वंदन कर उपाश्रय में चातुर्मास रहे और श्री जयरत्नसूरि को आचार्य पद दिया। बत्रा गुणराज ने महोत्सव किया। श्री जयरत्नसूरि को देश संभलाकर जोधपुर, तिमरी, सातलमेरु के संघ को वंदा कर जैसलमेर पधारे। कालू वंश शृंगार मं० सीहा के पुत्र समधर, समरसिंह ने प्रवेशोत्सव किया। राउल श्री जयतसीह वंदनार्थ आये और बड़ी धर्म प्रभावना हुई। चातुर्मास में खूब धर्मध्यान हुए। गणधरवसही के ऋषभदेव जिनालय में कायोत्सर्गी भरत प्रतिमा, जो मं० सीहा सुत समधर ने निर्माण कराई थी, प्रतिष्ठित की। श्री महिममन्दिर को अपने पट्ट पर स्थापित किया, श्री जिनमेरुसूरि नाम प्रसिद्ध किया। सं० १५५९ मिती पौष वदि १० को गाजीपुर में स्वर्गवासी हुए। इनके द्वारा वि०सं० १५२६ में प्रतिष्ठापित भरत चक्रवर्ती की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह आज आदिनाथ जिनालय, जैसलमेर में है। (नाहर-जैन लेख संग्रह, भाग-२ लेखांक २४०१।) (५. आचार्य श्री जिनमेरुसूरि श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर आप अभिषिक्त हुए। आपका आचार्य काल सं० १५५९ से सं० १५८२ है। छाजहड़ गोत्रीय समरथ साह की धर्मपत्नी मूलादेवी की कोख से आपका जन्म हुआ, दीक्षा नाम महिमामन्दिर था। सं० १५५९ आषाढ़ शुक्ल ९ रविवार को सोमदत्त पुत्र मं० चापा कृत महोत्सव में जयरत्नसूरि ने आपको सूरिमंत्र दिया और पौष वदि १० को आप पाट पर विराजे जिसका महोत्सव झूठिल कुलोत्पन्न समधर, सम, सीहा मंत्री ने किया। आप स्वयं भी झूठिल कुलोत्पन्न थे। तदनन्तर आप विहार कर सातलमेर, जोधपुर, घंघाणी, खीमसर, मेड़ता, नागौर, बीकानेर के संघ को वंदाते हुए सोजत, जैतारण, धूनाड़ा आदि कड़ा, सीवाणची, महेवची, जालौरी, साचौरी के संघ को वंदा कर सीवाणा पधारे। श्रीसंघ ने बड़े धूमधाम से प्रवेशोत्सव कर चातुर्मास कराया। श्री जयसिंहसूरि को आपने आचार्य पद दिया। इसी प्रकार भावशेखर, देवकल्लोल, देवसुन्दर, क्षमासुन्दर को उपाध्याय पद तथा ज्ञानसुन्दर, क्षमामूर्ति, ज्ञानसमुद्र को वाचक पद दिया। ___वहाँ से विहार कर राजद्रही, कुंभाछत, कांपली, सूराचंद, थिराद वंदाते हुए धाणधार, राधनपुर, सातलपुर, भुज, नागला, हाला, सोरठ वंदाकर अणहिल्लपुर पाटण पधारे। संघवी पूना आदि ने प्रवेशोत्सव कराया। चातुर्मास में खूब धर्म ध्यान हुआ। जैसलमेर संघ की वीनती आई कि आचार्य जयानन्दसूरि का स्वर्गवास हो जाने से गच्छ में अस्त-व्यस्तता आने लगी है। सूरि जी सांचौर, राड़द्रहा, छवटण, भोपा, बाहड़मेर, कोटड़ा होते हुए आसणीकोट पधारे, जहाँ जैसलमेरी संघ सन्मुख आया। मं० समरसीह ने महोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश कराके चातुर्मास कराया। पर्वाधिराज पर्युषण की चैत्य प्रवाड़ी पर पंच शब्द-वाजिन बजने को लेकर (२७२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाद खड़ा हो गया। मंत्री समधर आदि ने कहा-"श्री जिनधर्मसूरि के साथ रावल देवकरण की दी हुई मर्यादानुसार होगा।" रावल जयतसीह सोढों पर चढ़ाई करने गये थे। राजकुमार लूणकरण दोनों पक्ष को समझा न सके। जिनमेरुसूरि संघ सहित घड़सीसर आकर ठहरे। तालाब में पानी नहीं होने से गुरु महाराज को प्रार्थना की। उन्होंने मेघमाली-धरणेन्द्र का ध्यान किया जिससे तुरन्त तालाब भर गया, बाहर एक बूंद भी नहीं गिरी, लोग चमत्कृत हुए। बेगड़ श्रावकों ने जनता को पानी न लेने दिया। राजकुमार के पास शिकायत की तो उसने लोगों को शांत रहने का आदेश दिया। रावल जी ने पधारते ही गुरु महाराज को वन्दन कर, उन्हें अनुनय विनयपूर्वक मना कर, आडंबर सहित नगर में ले जाकर नया उपाश्रय भेंट किया। सूरि जी ने वहाँ का कार्य श्री जयसिंहसूरि को संभला कर विहार करके थटा, नसरपुर, भक्खर, सीतपुर, मुलतान, उच्च, डेरा, बिण्णूं, भेहरा, लाहौर आदि सभी स्थानों पर योग्य शिक्षा देकर सातलमेरु, जोधपुर की ओर पधारे। श्री भावशेखरोपाध्याय को मंडोवर, मेड़ता, नागौर, बीकानेर, खीमसर, सरसा, पाटण, नवहर आदि संघ की संभाल देकर स्वयं जालौर पधारे। मार्गवर्ती धूनाड़ा, वाड़ा, धारा, भागवा, थल, कड, रायपुर, धाणसा, मोहरा संघ को वंदाकर, जालौर में अनेक भव्यों को प्रतिबोध देकर, भीनमाल, सांचौर, धाखा, धनेरा, पालनपुर, सीतपुर होते हुए अणहिल्लपुर पाटण पधारे। वहाँ हरखा, बरजांग सोन किरीया ने संघ सहित बडली के पास कौनगिर में चौमासा रखा। उपाध्याय देवकल्लोल का चातुर्मास पाटण में कराया। बहुत से धर्मध्यान हुए। स्वयं उपाध्याय श्री क्षमासुन्दर, ज्ञानसुन्दर को तथा आचार्य श्री जयसिंहसूरि को समस्त संघ की बागडोर सौंप कर पूज्यश्री सं० १५८२ में अणहिल्लपुर पाटण में स्वर्गवासी हुए। बडली गाँव में आपका स्तूप प्रतिष्ठित हुआ। आपने सं० १५६४ वैशाख वदि ८ को अपने ही वंश के श्रावकों द्वारा निर्मापित श्रेयांस बिंबादि की प्रतिष्ठा की। (नाहर, लेखांक २४०८) महेवा में सदारंग कारित जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा कराई और शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा की। (६. आचार्य श्री जिनगुणप्रभसूरि) जैसलमेर में आचार्य श्री जयसिंहसूरि विचारने लगे-" जिनमेरुसूरि के पट्ट पर किसे स्थापित किया जाए? यद्यपि मैं स्वयं छाजहड़ गोत्र का हूँ पर मेरी वृद्धावस्था है, यदि पूज्यश्री का शिष्य हो तो उत्तम हो!" त्रिपुरा देवी ने कहा-"चिन्ता न करें, जूठिल कुल शृंगार मंत्री भोदेव के पुत्र देदा के पुत्र नगराज-नागलदे माता के चार पुत्र हैं और गुरु महाराज की आज्ञा से उनका पूर्वज कुलधर भी वचनबद्ध था अतः गच्छ की परम्परा रक्षार्थ उनसे संघ सहित जाकर पुत्र की याचना करें।" संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२७३) _ 2010_04 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी के निर्देशानुसार आचार्य जी की आज्ञा से संघ ने घर जाकर वच्छराज से भाई भोजराज की याचना की। उसने संघ की बात मान कर भाई भोजा को उपाश्रय लाकर जयसिंहसूरि को समर्पित किया। जन्मपत्री के अनुसार उसका जन्म सं० १५६५ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थी गुरुवार की रात्रि में ११ घड़ी ११ पल पर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, ऋषियोग, कर्क लग्न, गण वर्ग में हुआ था और महाबुद्धिमान, दीर्घायुष, भाग्यवान, राज- प्रतिबोधक होने के फल का विचार कर सं० १५७५ में बड़े समारोहपूर्वक दीक्षित कर भोजकुमार नाम रखा। सं० १५८२ फाल्गुन सुदि ४ गुरुवार के दिन जोधपुर में पट्टाभिषेक करने का निर्णय आचार्य जयसिंहसूरि, उपाध्याय भावशेखर, उ० क्षमासुन्दर, उ० ज्ञानसुन्दर आदि की उपस्थिति में किया गया। पट्टाभिषेक के अवसर पर श्री गंगेव राव को साग्रह आमंत्रण दिया । गुजरात - सूरत, चांपानेर, दीप, नागना, हाला, कच्छ, पारकर, गूडर, धाणधार, सामुही, घाट, खावड़, माड, मेवाड़, नागौर, उच्च, मुलतान, देरा, लाहौर, भोहरा, हाँसी, हिसार, मानपुरा, सिवाणची, महेवची, जालौरी, सांचौरी, राद्रहा आदि का संघ उपस्थित हुआ। मं० राजसिंह पुत्र सन्त, पत्ता, नोग, चौथ, चाचा देव, सूर, सहजपाल आदि परिवार के सहित नंदि मंडाण करके बड़गच्छनायक श्री पुण्यप्रभसूरि द्वारा सूरिमंत्र दिलाया । गंगेव राव आदि की पहिरावणी की, स्वधर्मी वात्सल्यादि समस्त संघ में किया, याचकों को कड़ा, घोड़ा, हाथी आदि व बागा, चूनड़ी आदि वितरित किए और श्री जिनगुणप्रभसूरि नाम स्थापना की गई । मंत्री राजसिंह ने गुरु महाराज को संघ सहित शत्रुंजय, गिरनार, आबू, शंखेश्वर, गौड़ी जी, वरकाणा, बीझेवा, भीनमाल, जालौर, सांचौर, सूराचन्द, बाहड़मेर आदि की यात्रा कराई। यह यात्रा सं० १५८५ में हुई। जोधपुर लौटकर संघ पूजा, स्वधर्मी - वात्सल्यादि करके बाहर से आगत संघ को विदा किया। इस प्रकार क्रमशः १२ चातुर्मास के अनन्तर जैसलमेर के रावलजी एवं मं० श्रीरंग, मं० भोदेव, मं० वस्ता, मं० राइपाल, मं० सदारंग, छुट्टा, भोजा, जीया आदि समस्त संघ की वीनति से जैसलमेर की ओर विहार किया । उपा० भावशेखर को जोधपुर रखा । श्रीघण, तिमरी, सातलमेर, पोकरण आदि संघ को वंदाते हुए आसणीकोट पधारे। संघ ने प्रवेशोत्सव किया। श्री पार्श्वनाथ भगवान् को वन्दन कर सं० १५८७ आषाढ़ वदि १३ गुरुवार को विजय वेला में जैसलमेर उपाश्रय पधारे। रावल दास के पट्टधारी श्री जेतसीह उपाश्रय पधारे, मोतियों से बधाया, चातुर्मासपर्यन्त अमारि प्रवर्तित की । रावल जी ने आपको अपना गुरु स्थापित कर जैसलमेर में ही विराजने की प्रार्थना की। सूरिजी ने क्षमासुन्दर को सांचौर का देश, ज्ञानसुन्दर को मारवाड़ का देश, देवकल्लोल को पाटण-गुजरात देश, ज्ञानसमुद्र और नयसार को सिन्ध देश, भावशेखर और वीरमेरु को जालौर, भीनमाल, महेवची प्रान्त सौंपे । वीरमेरु के शिष्य सागरचन्द्र, उदयचन्द्र को बीकानेर और नागौर विचरने की आज्ञा देकर स्वयं जैसलमेर विराजे । सबको निर्दिष्ट प्रान्तों में दो-दो वर्ष विचरने की आज्ञा दी । (२७४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १५९४ में तीन वर्षी दुःकाल से प्रजा को दुःखी देखकर रावल लूणकरण जी ने गुरु महाराज को मेह बरसाने की प्रार्थना की। रावल जी ने बाहड़मेर की ओर कटक भेजी थी जिसके विजय की बधाई आने से फिर आग्रह किया सो गुरु महाराज ने अष्टम तप पूर्वक श्री धरणेन्द्र मेघमाली का आराधन कर आह्वान किया। साधना में रु० २२००/- व्यय हुए। धरणेन्द्र ने प्रत्यक्ष होकर संकेत दिया। भाद्रपद सुदि १ को वृष्टि हुई। प्रथम प्रहर में अपने शिष्य को मु० झांझड के साथ काचली देकर खड़ा रखा। तालाब भर गये। सूरि जी की बड़ी महिमा हुई। रावल लूणकरण जी ने उपाश्रय आकर गुरु महाराज को मोतियों से बधाया। पटोलीकरण विधि का केवल बेगड़ गच्छाचार्य को आदेश दिया। एक बार अलीखान खंधारी गजनी से चढ़कर जैसलमेर आया। उसने तूंबे चित्रित-मंत्रित कर महलों में बंधा दिए। एक तूंबा अपने पास रख लिया। सूरि जी ने ज्ञान बल से ज्ञात कर लिया कि उसने अपने पास जो तूंबा रखा है उसका छेदन करने से महलों में स्थित-व्यक्तियों का शिरोच्छेद हो जायेगा। उन्होंने सारे तूंबे उतरवा दिए जिससे उसका मंत्र असफल हो गया। फिर उसने अपना कटक एकत्र कर साथ धनमाल भाटियों को बाँट कर विश्वास में ले लिया। गुरु महाराज ने मंत्री जीया को पहले ही कह दिया कि "आज दो प्रहर तक काल कूट बेला है, घर से न निकलना।" किन्तु उसने बात न मानी और रावल जी के आवश्यक बुलावे पर चला गया। लौटते हुए वेश्या से झमेले का समाचार मिला। नीचे और ऊपर के प्रतोलीद्वार बंद हो गये। मध्य में रहे असुरों ने युद्ध किया। उस युद्ध में मं० जीया और भी बहुत से लोग काम आये। भाटी लोग बारूद फेंक कर उन्हें जलाने लगे तो उन्होंने देखा। "अग्नि से जलने पर दोजख मिलेगा" सोचकर हार स्वीकार कर ली, उन लोगों के डेरे लूट लिये गये। गुरु महाराज के वचनों की सत्यता ज्ञात कर सिंहासन, चार चंद्रुआ देकर वाजिबादि के साथ उपाश्रय पहुँचाये। सं० १६१२ में जब श्री जिनमाणिक्यसरि जी देरावर यात्रा के मार्ग में स्वर्गस्थ हो गए तो जैसलमेर आने पर आचार्य पद के लिए मतभेद हो गया। रावल श्री मालदेव जी ने जिनगुणप्रभसूरि जी को मतभेद मिटा कर पदस्थापना करने का भार सौंपा। सूरिजी ने रीहड़ गोत्रीय श्रीवंत के पुत्र सुरताण को भादवा सुदि ९ के दिन रावलजी कृत पदस्थापना महोत्सव द्वारा सूरिमंत्र देकर श्री जिनचन्द्रसूरि नाम प्रसिद्ध किया। जब धन उपाध्याय ने बादशाही फरमान से गच्छ-भेद करना चाहा और सरकारी सहायता से भंडार आदि हस्तगत करना चाहा तो श्री जिनगुणप्रभसूरि ने दो अठाई कराई और प्रत्येक घर में श्वेत आयम्बिल कराया एवं "आम्बिल अमृत वाणी, धन्ने थास्ये धूड़धाणी" जाप कराया। सरकारी लोग भंडार में गये तो उन्हें सांप और अंगारे दिखाई दिये जिससे वे लोग भाग गए। धन्न उ० झूठा पड़ा। बेगड़गच्छ-पट्टावली के अनुसार जब श्री जिनचन्द्रसूरि जी पंचनदी साधन करने के लिए अकबर के आग्रह से गए तो श्री जिनगुणप्रभसूरि जी की अनुमति से गए एवं लाहौर-मुलतान से रेपड़ी में आये तो उन्हें सुखासन भेजकर बुलाया। पंचनदी साधन में पहले ३ पीर आये। फिर सूरिजी के साधने से खोडिया (क्षेत्रपाल) आ गया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२७५) 2010_04 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीलाड़ा के बुहरा टीला का पुत्र धन्ना भाग कर गुरु महाराज के पास जैसलमेर आया। पीछा करके आने वालों को उन्होंने समझा कर लौटा दिया और उसे अपना श्रावक बनाकर शीतपुर जाने का संकेत किया। वह वहाँ जाकर नाहड़ बारहमखान खानखाना का प्रधान हो गया। गुणसागर उपाध्याय को बुलाया। अन्य यति को न रखा, वह जैसलमेर आकर रहा। पर्युषण में चैत्य-प्रवाडी में झालर बजाने के झमेले में अपना ढोल ऊपर रखा। इस प्रकार शासन की महती प्रभावना कर, ७२ वर्ष पर्यन्त संघ का नेतृत्व कर सं० १६५५ वैशाख वदि ८ को तिविहार और ग्यारस को संघ साक्षी से डाभ के संथारे पर १५ दिन संलेखना पूर्ण कर, ९० वर्ष ५ मास ५ दिन का आयुष्य पूर्णकर वैशाख सुदि ९ सोमवार को जैसलमेर में स्वर्ग सिधारे। आपके स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा सं० १६६३ में हुई जिस पर २१ पंक्ति का अभिलेख उत्कीर्णित है। सं० १६७१ श्रावण सुदि ११ को पं० मतिसागर द्वारा प्रतिष्ठित आपश्री के चरण अभी समयसुन्दर जी के उपाश्रय में रखे हुए हैं। इनके द्वारा रचित चित्रसंभूतसंधि, सत्तरभेदीपूजास्तव, नवकारगीत आदि कई रचनायें प्राप्त होती हैं। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से इनके ६ शिष्यों-गुणसागर, कमलसुन्दर, मतिसागर, पं० भक्तिमंदिर, ज्ञानमंदिर, जिनेश्वरसूरि आदि का उल्लेख मिलता है। ७. आचार्य श्री जिनेश्वरसरि ये सं० १६५५ में श्री जिनगुणप्रभसूरि जी के पट्ट पर विराजे । आपने गुरु महाराज के स्मारक स्तूप व चरण कमलों की प्रतिष्ठा कराई जिस पर २१ पंक्ति का विशद शिलालेख है जो इनके गुरुभ्राता और आज्ञानुवर्ती मतिसागर ने लिखा है। इसमें पं० विद्यासागर, पं० आणंदविजय, पं० उद्योतविजय आदि शिष्यों के नाम हैं। इन्होंने मतिसागर के शिष्य विवेकविजय को गोद लेकर अपना शिष्य बनाया किन्तु उसके लघुवयस्क होने से पं० आणंदविजय को वजीर पद देकर सं० १६८२ कार्तिक वदि १ को स्वर्ग सिधारे। इनका स्तूप जैसलमेर में है। इनके द्वारा रचित जिनगुणप्रभसूरिप्रबन्ध नामक कृति मिलती है, जो वि०सं० १६५५ के बाद रची गयी है। इन्हीं के काल में वि०सं० १६७३ में जैसलमेर के बेगड़गच्छीय उपाश्रय के द्वार का निर्माण कराया गया। यह बात वहाँ लगे शिलालेख से ज्ञात होती है। (नाहर० जैन लेख संग्रह, भाग-३, लेखांक २४४७) (८. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आप श्री गुणप्रभसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि के पट्टधर थे। बीकानेर निवासी बाफणा गोत्रीय सा० रूपजी की भार्या रूपादेवी की कोख से सं० १६६८ मिती वैशाख सुदि ३ को आपका जन्म (२७६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था। आपका जन्म नाम वीरजी था। सं० १६७२ में चार वर्ष की आयु में माता-पिता ने गुरु महाराज को समर्पित कर दिया। ये मतिसागर के शिष्य थे, उनसे जिनेश्वरसूरि ने गोद लिया था। लघु वय में प्रगाढ़ वैराग्य के कारण जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा नाम विवेकविजय हुआ। गुरुदेव की आज्ञा से सं० १६८२ मिगसर सुदि ५ को संघ कृत महोत्सव द्वारा आपको पट्ट पर स्थापित किया। आनंदविजय ने जब इन्हें अध्ययन कराने का कर्तव्य पालन न किया तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। पं० गुणरत्न और पं० श्रीसार जो श्री जिनभद्रसूरि परम्परानुयायी थे, ने इन्हें व्याकरणादि पढ़ाया। किन्तु विद्या न आई तब त्रिपुरा भवानी को स्मरण कर शास्त्र-पारंगत होने का वरदान प्राप्त किया, जिससे ये वाद-विवाद, शास्त्रज्ञान में अजेय हो गये। देवी ने दो भाग्यशाली शिष्य प्राप्त होने का उनके अंग लक्षण, जन्म कुण्डली आदि भी बतलाते हुए उनकी प्राप्ति के बाद बाहर विहार करने का निर्देश किया। __ सं० १६८४ में नगर में महामारी का उपद्रव फैला जिससे अनेक लोग काल-कवलित होने लगे। रावल मनोहरदास जी ने सर्वदर्शनी विद्वानों से लघुवयस्क जिनचन्द्रसूरि जी की प्रशंसा सुनकर, प्रधान पुरुषों द्वारा आमंत्रित कर दरबार में बुलाया। सूरिजी ने देव-गुरु प्रसाद से शान्ति होने का उपाय करना बतलाया। मिती पौष वदि १ को आप सपरिवार नगर के बाहर आ गये। ईशान कोण में हनुमानजी की भव्य प्रतिमा स्थापित कर बल-बाकुला विधि से योगिनी आदि को प्रसन्न कर उपद्रव मिटाया। नगर के चतुर्दिग् पंचामृत की धारा देकर समारोहपूर्वक प्रवेश किया। सर्वत्र सुयश प्राप्त हुआ। सं० १६८७ में माघ सुदि १४ के दिन माधवदास और राघवदास, जो श्री श्रीमाली और माहेश्वरी जाति के थे, देवी के वचनानुसार आये। रावल जी ने राघवदास का रामचन्द्र नाम देकर सम्मानपूर्वक उपाश्रय भेजकर पढ़ाने में उद्यम करने का निर्देश दिया। ज्योतिषियों ने अंग लक्षण देखकर पट्ट योग्य बतलाया। जन्मपत्री मंगा कर देखी गई। सं० १६८८ वैशाख सुदि ३ के दिन विजय मुहूर्त में दीक्षा का मुहूर्त निकला। दीक्षोत्सव बड़े धूमधाम से किया गया। वरघोड़ा जुलूस के साथ घड़सीसर पहुंचे। श्रीवृक्ष के नीचे आने पर तालाब से पाँच हाथियों ने सुण्डा दण्ड में जल लाकर अभिषेक किया। विधिपूर्वक दीक्षा देकर महिमाचन्द्र नाम रखा गया। बड़े ठाठ के साथ उपाश्रय में प्रवेश हुआ। अल्प वयस्क होने पर भी व्याख्यान-पच्चक्खान आदि समस्त कार्य संभालने लगे। श्री जिनगुणप्रभसूरि जी ने मं० कोरपाल कल्लाणी को स्वप्न में कहा कि "ज्ञान भण्डार का कार्य महिमाचन्द्र को सौंपो अन्यथा ग्रन्थ उजड़ जायेंगे।" उन्होंने श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि को कहा। उन्हें भी यही दृष्टान्त होने से सारा ज्ञान भण्डार महिमाचन्द्र को सौंप दिया। शासनदेवी ने उन्हें सांचौर की ओर विहार करने का संकेत दिया। तदनन्तर अनेक ग्राम नगरों में विचरते हुए सं० १७१३ पौष वदि १० के दिन अनशन-आराधना पूर्वक आयुपूर्ण कर पाँचवें देवलोक में गए। __सं० १७२१ में पूज्यश्री ने थिरपुर में दर्शन देकर उपद्रव दूर किया, सर्वत्र सुयश फैला। जिनसमुद्रसूरि जी ने इनकी स्तवना में पौष वदि १३ को प्रतिवर्ष व प्रति सोमवार को पूजा कराने का निर्देश किया है एवं इन्हें चमत्कारी, सर्वविघ्नहर, मनोवांछित दायक युगप्रधान बतलाया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२७७) 2010_04 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनचन्द्रसूरि के एक शिष्य जिनसागरसूरि से शाखा भेद हुआ। उनके शिष्य जिनदेवसूरि हुए। यह शाखा सं० १७८१ में श्री जिनोदयसूरि के समय वापस एक हो गई। जिनचन्द्रसूरि ने वि०सं० १६९८ में पंचपाण्डवरास अपरनाम द्रौपदीरास की रचना की। इसी समय इनके एक शिष्य महिमानिधान ने ऋषिदत्ताचौपाई की रचना प्रारम्भ की, परन्तु वे अपने जीवनकाल में उसे पूर्ण न कर सके, जिसे इन्हीं की परम्परा में आगे चलकर हुए जिनसुन्दरसूरि के शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६ में पूर्ण किया। जिनेश्वरसूरि के एक अन्य शिष्य जिनलब्धिसूरि ने वि०सं० १७२४ में विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर की रचना की। इन्हीं के एक शिष्य पद्मचन्द्र ने भरतसंधि की रचना की। धर्मचन्द्र ने वि०सं० १७६७ में ज्ञानसुखडी की रचना की। (९. आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि) आप श्रीमाल गोत्रीय हरराजकी धर्मपत्नी लखमादेवी के पुत्र थे। सं० १६८० माघ सुदि १५ रविवार को आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम रामचन्द्र था। सं० १६८८ पौष शुक्ल ३ को जैसलमेर में दीक्षा ली। दीक्षा नाम महिमचन्द्र-महिमसमुद्रहुआ।अनेक देशों में विहार कर भव्य जीवों को प्रतिबोध दिया एवं शासन प्रभावना की। ये बड़े विद्वान् और महाकवि थे। इनके रास, चौपाई, स्तवन, सज्झाय आदि भाषाकृतियाँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। सं० १७२६ में ओसवाल, श्रीमाल संघ ने नन्दि महोत्सव करके आपको सांसनगर (?) जैसलमेर में आचार्य पद पर स्थापित किया। रावल अमरसिंहने आपश्री के अनेक चमत्कारों से प्रभावित होकर आपका बहुत सम्मान किया। उपाश्रय बनवाकर भेंट किया। सं० १७४१ कार्तिक सुदि १५ को सूरत नगर (वर्द्धनपुर) में ये स्वर्गवासी हुए। सूरत में शाह छतराज के महोत्सवादि करने का वर्णन मिलता है। इनके समय में कुछ श्रावकों द्वारा जिनसागरसूरि को आचार्य पद दिया जो लहुड़ा बेगड़ कहलाये। इन्हीं के काल में वि०सं० १७२५ में पं रत्नसोम ने सूरत बन्दर स्थित अजितनाथ जिनालय में श्रीपालचरितबालावबोध की रचना की। (१०. आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि) आपका जन्म पारख वंश विभूषण शाह भोजराज की भार्या जसोदा देवी की कोख से श्रीमालपुर में सं० १७०२ में हुआ। जन्म नाम चिन्तामणि था। सं० १७१९ में दीक्षा ग्रहण की। सं० १७४१ कार्तिक शुक्ला १३ के दिन गुरु महाराज से आचार्य पद प्राप्त किया। सं० १७४२ में सूरत निवासी शाह विमलदास ने आचार्य पदोत्सव किया। युगप्रधान विरुद प्राप्त कर, ३१ वर्ष कठिन संयम पालते हुए अनेक सातिशय गुणों के निधान सूरि महाराज सं० १७७२ श्रावक सुदि ८ बुधवार को प्रहयापुर (?) नगर में स्वर्गस्थ हुए। इन्होंने पोरबन्दर के राणभाण जेठुया के १२ वर्षीय खवीश के उपद्रव को शान्त किया। समुद्र की खाड़ी में सारे नगर की चारपायी के खटमल लाकर हिंसा की जाती थी जिसे बंद कराके ताम्रपत्र लिखवाया तथा शिकार बंद करवाया। इनके द्वारा रचित मानतुंगमानवतीचौपाई तथा कई अन्य कृतियाँ भी मिलती हैं। (२७८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___Jain Education international 2010_04 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. आचार्य श्री जिनोदयसूरि आप नाहटा वंश में उत्पन्न हुए थे । सं० १७७२ आषाढ़ सुदि १३ को गुरुदेव श्री जिनसुन्दरसूरि जी ने स्वयं आपको आचार्य पद पर स्थापित किया था। आपने अनेक देशों में विहार कर शासन की महती प्रभावना की थी। जैसलमेर में आपने मिती आषाढ़ सुदि ७ सं० १७८१ में श्री जिनसागरसूरि के समुदाय के साधुओं को मिलाकर, श्रावकों को एकत्र कर, गच्छ के विरोध को दूर करके एकत्व स्थापन किया था । श्री सूरचन्द्र ने आज्ञा मान्य की । सं० १८०५ कार्तिक वदि ११ के शिलालेख में आपको विद्यमान भट्टारक लिखा है । इसके पश्चात् और सं० १८१२ से पूर्व आपका स्वर्गवास हुआ था। (देखिये नाहर, जैन लेख संग्रह, भाग ३, लेखांक २५०८ - ९) । आप अच्छे विद्वान् थे । आपके द्वारा रचित गुणसन्दरीचौपाई, गुणावलीचौपाई, उदयविलास, सूत्रकृतांगबालावबोध आदि कृतियाँ उपलब्ध हैं । १२. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि श्री जिनोदयसूरि के आप पट्टधर थे । सं० १८१२ से पूर्व आपको सूरि पद निश्चित ही प्राप्त हो गया था क्योंकि इस संवत् में आपने गुरुदेव के चरण प्रतिष्ठित किए थे। १३. आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि इनका समय सं० १८३० - १८४१ एवं कई प्रतियों में सं० १८४३ से १८६१ पाया जाता है। जैसलमेर के शिलालेख सं० १८४३ से १८४६ के ( नाहर, लेखांक २५१० महोपाध्याय जयवल्लभ और ले० २५११ में वर्द्धमान जी के स्तूप प्रतिष्ठा ) प्राप्त हैं । १४. (१५. आचार्य श्री जिनक्षेमचन्द्रसूरि सं० १९०२ कार्तिक सुदि १४ को इनका स्वर्गवास हुआ था । १६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ये सं० १९३० तक बीकानेर में विद्यमान थे । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 蛋蛋蛋 (२७९) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पिप्पलक शाखा गुर्वावली में जिनराजसूरि (प्रथम) तक तो क्रम एक सा ही है। उनके पट्टधर जिनवर्द्धनसूरि जी से यह शाखा भिन्न हुई थी। उनके पट्टधर आचार्यों की परम्परा इस प्रकार है१. जिनवर्द्धनसूरि ८. जिनकीर्तिसूरि २. जिनचन्द्रसूरि ९. जिनसिंहसूरि ३. जिनसागरसूरि १०. जिनचन्द्रसूरि ४. जिनसुन्दरसूरि ११. जिनरत्नसूरि ५. जिनहर्षसूरि १२. जिनवर्द्धमानसूरि ६. जिनचन्द्रसूरि १३. जिनधर्मसूरि ७. जिनशीलसूरि १४. जिनशिवचन्द्रसूरि (जिनचन्द्रसूरि) (१. आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि) मेवाड़ देश में कइलवाड़पुर नामक एक समृद्ध नगर है, जहाँ मंत्री शाखा के अरजन श्रेष्ठी और उनकी शीलवती पत्नी लखमिणी देवी निवास करते थे। उनके रावण नामक पुत्र था, उसने सद्गुरु श्री जिनराजसूरि जी की वैराग्यपूर्ण देशना सुनकर उनसे दीक्षित करने की प्रार्थना की। सूरिजी ने मातापितामह से पूछने को कहा। माता के सांसारिक प्रलोभनों में न आकर जब रावण कुमार अपने वैराग्य परिणामों में दृढ़ रहा तो उसे विवश हो आज्ञा देनी पड़ी। मंत्री शाखा के श्रृंगार अर्जुन ने दीक्षा की कुंकुम पत्रिकाएँ सर्वत्र भेजी और महोत्सवपूर्वक सं० १४४४ कार्तिक कृष्णा १२ के दिन सूरिजी ने रावण कुमार को दीक्षित कर राज्यवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया। राजवर्द्धन मुनि शास्त्र-पठन, ग्रहणा और आसेवना में दत्तचित्त हो गए। कितने ही वर्षों बाद श्री जिनराजसूरि जी ने अपना आयु शेष ज्ञात कर अपने हाथ से चिट्ठी लिखकर महीपत शाह को सौंपी और अनशन आराधना पूर्वक स्वर्गवासी हो गए। देवलवाड़ा-मेवाड़ में महीपति शाह ने आचार्य श्री सागरचन्द्रसूरि जी महाराज को पूछ कर सारे संघ को एकत्र किया और आचार्य पदोत्सव प्रारम्भ किया। सं० १४६१ मिती आषाढ़ कृष्णा १० शनिवार के दिन बड़े भारी समारोह से श्री सागरचन्द्रसूरि जी ने राजवर्द्धनमुनि को आचार्य पद देकर श्री जिनराजसूरि के पट्टधर श्री जिनवर्द्धनसूरि नाम से प्रसिद्ध किया। तदनन्तर सूरि महाराज ग्रामानुग्राम विचरते हुये गुजरात के अणहिलपुर पाटण पधारे। पाटण के खरतरगच्छ समुदाय ने बड़े समारोह से सूरि महाराज का स्वागत समारोह किया। यहाँ उपाध्याय पद प्रदान, दीक्षा और माला परिधान आदि अनेक उत्सव हुए। सूरिजी गुजरात में नाना धर्मोद्योत करते हुए विचरने लगे। (२८०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर पूरब देश (उ०प्र०) के जवणापुर (जौनपुर) में महत्तियाण शाखा के शृंगार ठाकुर रामसिंह और उनकी शीलवती स्त्री खीमिणी निवास करते थे, जिनके पुत्ररत्न ठाकुर जिनदास-जो राज्य धुरा धारण में समर्थ व्यक्ति थे-ने गुरु महाराज को पूरब देश में बुलाने का चिरमनोरथ साकार करने के लिए अपने मामा संघपति भीषन को बुलाकर उन्हें गुजरात जाकर गुरु महाराज को बुला लाने के लिए आग्रह किया। भीषन भी श्रावक संघ के साथ प्रयाण कर विषम भूमि उल्लंघन कर पाटणगुजरात आ पहुँचे। भीषन ने संघ की उपस्थिति में गुरु महाराज को तीन प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन कर, भट्ट आदि याचकजनों को अश्व, कंकण, वस्त्रादि दान किये। उसने कहा-"प्रभो! कुगुरु, कुदेव और कुधर्म वासित पूरब देश में सद्गुरु की अनिवार्य आवश्यकता समझ कर जिनदास ठाकुर ने मुझे आपको बुला लाने के लिए भेजा है, आप जिनभाषित धर्म का प्रकाश फैला कर भव्यों के प्रतिबोधार्थ अवश्य पधारिए।" सूरिजी ने पन्द्रह मुनिवरों को लेकर भीषन के साथ विहार कर दिया। वे गुजरात से सांचौर, जीरावला, आबू तीर्थादि की यात्रा करते हुए देवलवाड़ा (मेवाड़) पधारे। आडू नाल्हा साह ने बड़े समारोह के साथ सूरिजी का प्रवेशोत्सव कराया। मालारोपण, व्रतग्रहण और संघ पूजादि के द्वारा धर्म प्रभावना कर सूरि महाराज गोपाचल-ग्वालियर पधारे। श्रीमान् रघुपति शाह ने वहाँ के राजा को आमंत्रित कर गुरु महाराज का प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से विहार कर " हथकंति" पधारे। नाना प्रकार के उत्सव चलने लगे। राजा उदयराज ने सूरि जी को वन्दन कर निवेदन किया-"प्रभो! मेरे धन-धान्य और राज्य विस्तार में कोई कमी नहीं है, पर पुत्र के बिना मेरा राज्यादि सब कुछ शून्य है।" सूरिजी ने ध्यान बल से कहा-"यदि तुम मांस-मदिरा का त्याग करो तो छः महीने में तुम्हारी आशा पूर्ण हो सकती है।" राजा ने गुरु महाराज का वचन मान्य किया, जिससे उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई और नित नये उत्सव होने लगे। सूरि जी वहाँ से सिंहड़ईपुर पधारे। राजा पृथ्वीचन्द्र ने बड़े भारी समारोह से प्रवेशोत्सव किया। ब्राह्मण लोग ईर्ष्या से जल-भुन गए और कहने लगे-"यह श्वेताम्बर कहाँ से आ गया? जिसकी ओर राजा भी आकृष्ट हो गया है।" पण्डित लोग मिल कर शास्त्रार्थ के लिए आये। सात दिन तक शास्त्रार्थ हुआ, सूरि जी ने उन्हें जीत कर यश प्राप्त किया। सूरि महाराज विहार करके जवणपुर पहुँचे। ठाकुर जिनदास ने हर्षोल्लासपूर्वक अभूतपूर्व प्रवेशोत्सव किया। तत्रस्थ लोगों ने नाना प्रकार के व्रतादि ग्रहण किये। उपधान व मालारोपण उत्सव हुए। एक दिन जिनदास ने राजगृह यात्रार्थ संघ निकालने की भावना व्यक्त की। मुहूर्त निकालकर आमंत्रण पत्र भेजे गए। जवणपुर में संघ एकत्र हुआ। पहला तिलक संघपति जिनदास के हुआ। फिर मोल्हण, भीषन, धर्मदास, घाटम, कर्मसिंह, देपाल, हालू, सेऊ, वील्ह, देवचंद, श्रीमालों में नरपाल, ओढर, डालू, पेढउ, सहजपाल, समुदा, सारंग आदि ५२ संघपति श्री जिनवर्द्धनसूरि ने स्थापित किए। संघ के साथ देवालय था, चार हजार पालकियाँ थी, घोड़े, बैलों का पार नहीं था। तंगोटी, साइवान, सिराइचा आदि सारी सामग्री भरपूर थीं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२८१) 2010_04 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसुव्रत स्वामी की जन्मभूमि राजगृह पहुँच कर वैभारगिरि, विपुलगिरि आदि की यात्रा की। गरम पानी के सप्त कुण्ड, आम्रवन आदि देख कर वैभारगिरि पर मुनिसुव्रतस्वामी और विपुलगिरि पर पार्श्वनाथ जिनेश्वर को वन्दना की। तदनन्तर पावापुरी, नालन्दा, कुण्डग्राम, काकंदी की यात्रा करके विहारनगर आये। भगवान् महावीर आदि सभी जिनेश्वरों की विस्तार के साथ वन्दना की। फिर चन्द्रपुरी, वाराणसी, रणवाही (रत्नपुरी), कौशाम्बी की तीर्थवन्दना कर लौटे। स्वधर्मी वात्सल्य, संघ पूजा आदि उत्सव हुए। संघपति जिनदास ने बिम्ब प्रतिष्ठा करवायी। पंचमी तप के उद्यापन में दस-बारह स्वर्णाक्षरी पोथियाँ-कल्पसूत्र लिखवाये। इस प्रकार पाँच वर्ष पूरब देश में विचर कर संघ के आग्रह से पश्चिम देश की ओर विहार किया। सूरि महाराज के विहार में भीषन आगेवान था। उनके जाने-आने में बीस हजार रुपयों का खर्च हुआ। जब वे मेवाड़ की सीमा में पहुँचने को हुए तो संघ ने नाना अभिग्रह-नियम लिए। देवलवाड़ा नगर में पधारने पर नाना प्रकार के उत्सव होने लगे। संघपति नाल्हा ओसवाल ने खूब धन बरसाया। भीषन वापस जौनपुर लौट गया। सूरि जी ने दस-दस शिष्यों को दीक्षित किए। नाल्हा ने दो हजार प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। ___मेवाड़ से विहार कर सूरि जी गुजरात आये। स्थान-स्थान में दस शिष्य दीक्षित किए। नाल्हा संघपति ने शत्रुजय एवं गिरनार का संघ निकाला, सूरि जी का सान्निध्य था, तीर्थ वन्दना करते हुए खंभात आये। नाल्हा, जीवा और जिनदत्त की बड़ी ख्याति हुई। सूरि जी ने खंभात में चातुर्मास किया। उपधान, मालारोपण आदि उत्सव हुए। वहाँ से मरुदेश की ओर विहार किया। राजद्रह, सांचौर, बाहड़मेर, महेवा पधारे। महीने में २५ शिष्यों को दीक्षा दी। जैसलमेर पहुँच कर प्रतिष्ठा करवाई। फिर मेवाड़ के सग्रेवा ग्राम में प्रतिष्ठा के हेतु समरिंग, सांगा और साजण ने सूरि जी को बुलाया। शान्तिनाथ भगवान् के विशाल जिनालय में प्रतिष्ठा करके देवलवाड़ा पधारे। मंत्रीश्वर चउण्डागर ने प्रवेशोत्सव किया। उसने स्वर्णमय दण्ड कलश युक्त भगवान् महावीर का जिनालय बनवाया। मयालइ गाँव पधारने पर देल्हा द्वारा बिम्ब प्रतिष्ठा, स्वधर्मीवात्सल्यादि उत्सव किए गए। गुजरात के संघ की वीनती से सूरि जी गुजरात-पाटण पधारे। मेघा, तिहुणा, सिवा ने उत्सव किया। कितने ही शिष्य-शिष्याओं को वाचनाचार्य और प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया। यहाँ सूरि जी ने अपना आयु शेष ज्ञात कर संलेखना की। सं० १४८६ फाल्गुन शुक्ला १२ के दिन संघ को शिक्षा देकर शुभ ध्यानपूर्वक स्वर्गारोहण किया। आपने अपने शासन काल में १३६ मुनि, ५३ साध्वियाँ, ३ उपाध्याय, २१ वाचनाचार्य और १२ प्रवर्तिनी पद प्रदान किए। आपने सात सौ संघपति स्थापित किए। बारह बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठाएँ कराई, छोटी-मोटी की तो कोई गिनती नहीं। __ आपका जन्म सं० १४३६, दीक्षा १४४४, सूरि पद १४६१, स्वर्गवास १४८६ है। कुल पचास वर्ष की अल्पायु में आपने बड़ी शासन प्रभावना की। श्री कीर्तिरत्नसूरि और (२८२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयसागरोपाध्याय जैसे विद्वानों के आप शिक्षा-दीक्षा गुरु थे। गुणरत्नाचार्य को आपने ही दीक्षा प्रदान की थी। सं० १४७२ चैत्री पूनम को आपने जैसलमेर के पार्श्वनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई थी। श्री जिनवर्द्धनसूरि जी प्रकाण्ड विद्वान् और प्रभावक आचार्य थे। इनकी चारप्रत्येकबुद्ध चरित्र, वाग्भटालंकार वृत्ति, तीर्थमाला, पूर्वदेशीयचैत्यपरिपाटी, सत्यपुरमंडन महावीरस्तवन, वीरस्तव, प्रतिलेखनाकुलक आदि रचनाएँ उपलब्ध हैं। इनके शिष्य-न्यायसुन्दर (? आज्ञासुन्दर) द्वारा वि०सं० १५१६ में रचित विद्यानरेन्द्रचउपई और विद्याविलासचौपई नामक कृति मिलती है। सं० १४७४ चैत्र वदि ६ के दिन क्षेत्रपाल कृत उपद्रव के कारण श्री जिनभद्रसूरि की शाखा पृथक् हुई और आचार्य जिनवर्द्धनसूरि जी की शाखा "पिप्पलक" नाम से प्रसिद्ध हुई। (२. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि) ये माल्हू गोत्रीय थे। सं० १४८६ ज्येष्ठ सुदि ५ के दिन श्री देवकुलपाटक में साह सहणपाल कृत नंदी महोत्सवपूर्वक श्री जिनवर्द्धनसूरि जी महाराज ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती। विभिन्न प्रतिमालेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में जिनचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। (३. आचार्य श्री जिनसागरसरि) ये नवलखा गोत्रीय थे। सं० १४९० वैशाख वदि १२ (सुदि ६) को देवकुलपाटक में साह पाल्हा, मं० डूंगर, भाखर, पर्वत कारित नन्दी महोत्सव में श्री मतिवर्द्धनसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। आपने विभिन्न स्थानों में ८४ प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। जिनमें से वि०सं० १४८९ से १५२० के मध्य प्रतिष्ठापित २१ प्रतिमायें आज भी मिलती हैं। अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ, वहाँ स्मारक स्तूप प्रसिद्ध है। सुप्रसिद्ध रचनाकार शुभशील गणि इन्हीं के शिष्य थे। ४. आचार्य श्री जिनसुन्दरसूरि) आप कूकड़ चोपड़ा गोत्रीय थे। सं० १५११ फाल्गुन वदि ५ के दिन चित्रकूट में मंत्री पाल्हा, सं० डूंगर आदि कारित नंदीमहोत्सव द्वारा श्री विवेकरत्नसूरि जी ने आपका पट्टाभिषेक किया। वि०सं० १५१५ और १५२५ के मध्य अनेक प्रतिमा लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में जिनसुन्दरसूरि का नाम मिलता है। (२८३) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५. आचार्य श्री जिनहर्षसूरि ) आप बोहरा गोत्रीय थे। सं० १५१७ आषाढ़ वदि १० बुधवार के दिन श्रीपत्तन में बहुरा गोत्रीय सा० धरणा, सा० जगिया, सा० नयण कृत नन्दि महोत्सव द्वारा श्री विवेकरत्नसूरि जी ने आचार्य पद दिया। इनके द्वारा बड़ी संख्या में प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें प्राप्त हैं। वि०सं० १५३७ में रचित आरामशोभाकथा इन्हीं की रचना है। (६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ) आपका जन्म भारीआ गोत्र में हुआ था। सं० १५४४ वैशाख वदि १२ बुधवार के दिन खंभात में सं० माणिक और सं० माला कारित नंदि महोत्सवपूर्वक श्री जिनहर्षसूरि जी ने स्वयं आपको पट्ट पर स्थापित किया। वि०सं० १५६७ और १५७७ के तीन प्रतिमा लेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं विवेकसिंह गणि के शिष्य धर्मसमुद्र गणि द्वारा रचित सुमित्रकुमाररास, प्रभाकरगुणाकरचौपाई, कुलध्वजकुमाररास आदि विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं। आरामशोभाकथा के कर्ता मलयहंस भी जिनचन्द्रसूरि के ही शिष्य थे। (७. आचार्य श्री जिनशीलसूरि) आप संखवाल गोत्रीय थे। सं० १५८९२ ज्येष्ठ सुदि प्रतिपदा को श्रीपतन में संघ कृत नन्दि महोत्सव द्वारा श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको सूरि मंत्र दिया। ८. आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि) आप नाहटा गोत्रीय थे। सं० १५९६३ में बाफणा गोत्रीय सं० कडुआ कारित नन्दि महोत्सवपूर्वक अहमदाबाद नगर में श्री जिनशीलसूरि जी ने आपको आचार्य पद प्रदान किया। (९. आचार्य श्री जिनसिंहसूरि ) आप नवलखा गोत्रीय थे। वि०सं० १६०९ माघ वदि ३ को अहमदाबाद के शाह सोनपाल १. अन्य पट्टावलियों में सुदि २. अन्य पट्टावलियों में १५३० वैशाख वदि लिखा है जो अयथार्थ है। ३. अन्य पट्टावलियों में सं० १५९४ लिखा है। ४. अन्य पट्टावली में सं० १६०७ है। (२८४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा कारित नन्दि महोत्सव में जिनकीर्तिसूरि ने आपकी पदस्थापना की। इनके शिष्य गुणलाभ ने वि०सं० १६५० में जीभरसाल की रचना की। (१०. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि) __ आप भी नवलखा गोत्रीय थे। सं० १६३१ फाल्गुन' सुदि १३ गुरुवार को गोगुंदा (महाराजधानी) नगर में मंत्री खीमा सुत मं० रतनसी द्वारा कारित नन्दि महोत्सवपूर्वक आपकी पदस्थापना हुई और श्री जिनसिंहसूरि जी ने सूरिमंत्र दिया। इनके एक शिष्य राजसुन्दर ने वि०सं० १६६८ में अपने शाखा की गुरुपट्टावलीचउपई की रचना की। सुप्रसिद्ध रचनाकार विनयसागर भी इसी शाखा से सम्बद्ध थे। (११. आचार्य श्री जिनरत्नसूरि) आपका जन्म रांका गोत्र में हुआ था। सं० १६८२ माघ सुदि ५ को अहमदाबाद में नन्दि महोत्सव द्वारा आपका पट्टाभिषेक हुआ। (१२. आचार्य श्री जिनवर्द्धमानसूरि आप नाहटा गोत्र में उत्पन्न हुये थे। सं० १६८८ माघ सुदि ५ सोमवार के दिन अहमदाबाद में नन्दि महोत्सव द्वारा आपका पट्टाभिषेक हुआ। श्री जिनरत्नसूरि जी ने स्वयं आपको आचार्यपद दिया। वि०सं० १७१० में इन्होंने धन्नाऋषिचौपाई की रचना की। (१३. आचार्य श्री जिनधर्मसूरि) सं० १७५७ में आपने आचार्य पद प्राप्त करके, अनेक देश-विदेशों में विहार करके जैन सिद्धान्त का प्रचार तथा प्रसार किया। सं० १७७६ में आप उदयपुर पधारे। वहाँ अन्तिम समय ज्ञात कर वैशाख सुदि ७ को अपने पट्ट योग्य शिवचन्द्र जी को गच्छनायक पद देकर अनशन आराधना पूर्वक स्वर्ग सिधारे। (१४. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (शिवचन्द्रसूरि) मारवाड़ के भिन्नमाल नगर में भूपति अजितसिंह के राज्य में ओसवाल रांका गोत्रीय साह पद्मसी निवास करते थे, उनकी धर्मपत्नी पद्मा देवी की कोख से सं० १७५० में शुभ मुहूर्त में आपका १. अन्य पट्टावली में मार्गशीर्ष सुदि १०। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२८५) 2010_04 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म हुआ। आपका जन्म नाम शिवचन्द्र रखा गया। सं० १७६३ में श्री जिनधर्मसूरि जी के पधारने पर वैराग्यवासित हो तेरह वर्ष की आयु में माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षित हुए। मासकल्प पूर्ण होने पर नव-दीक्षित शिवचन्द्र के साथ सूरि जी विहार कर गये। ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से व्याकरण, काव्य, न्याय, तर्क व सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन कर गीतार्थ हो गए। श्री जिनधर्मसूरि जी उदयपुर पधारे तब अपने शरीर में वेदना उत्पन्न होने से अंतिम समय ज्ञात कर सं० १७७६ मिती वैशाख शुक्ला ७ को शिवचन्द्र जी को आचार्य पद देकर वहीं स्वर्ग सिधारे। नियमानुसार शिवचन्द्र जी का नाम जिनचन्द्रसूरि रखा गया। उस समय राणा संग्राम के राज्य में दोसी भीखा के पुत्र कुशल जी ने पद महोत्सव किया। स्वधर्मी वात्सल्य, पहरामणी आदि बड़े समारोह से किये, याचकों को दान दिया। आचार्य-पदप्राप्ति के अनन्तर शिष्य हीरसागर को दीक्षित किया। संघ के आग्रह से वहीं चातुर्मास कर धर्म की बड़ी प्रभावना की। फिर गुजरात की ओर विहार कर दिया। सं० १७७८ में गच्छ-परिग्रह त्याग कर विशेष भाव से आपने क्रियोद्धार किया और आत्मगुणों की साधना करते हुए स्वपर-हितार्थ भव्यों को बोध देने लगे। गुजरात में विचरते हुए शत्रुजय तीर्थ पधारे और वहाँ चार महीने की स्थिति पर ९९ यात्राएँ की। जूनागढ़ पधार कर गिरनार जी में नेमिनाथ भगवान् की यात्रा की। स्तंभन पार्श्वनाथ की यात्रा कर खंभात में चातुर्मास किया। धर्मध्यान विशेष हुए। वहाँ से मारवाड़ की ओर विहार किया, आबू यात्रा कर तीर्थाधिराज सम्मेतशिखर पधारे। बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि स्पर्श कर वाराणसी में पार्श्वनाथ जी की यात्रा की। संघ के साथ पावापुरी, चम्पापुरी, राजगृही-वैभारगिरि यात्रा कर हस्तिनापुर में शान्ति-कुंथु-अरनाथ प्रभु की यात्रा कर दिल्ली पधारे। दिल्ली में चातुर्मास बिता कर गुजरात (राजनगर) पधारे, भणशाली कपूर ने चौमासा कराया। भगवतीसूत्र के व्याख्यान से सारे संघ को लाभान्वित किया। शत्रुजय-गिरनार की यात्रा कर दीवबंदर में चौमासा किया। फिर शत्रुजय, घोघा, भावनगर की यात्रा कर सं० १७९४ में खंभात पधारे। गुणानुरागी श्रावकों ने बहुमान किया आपने धर्मदेशना में तत्त्वामृत की झड़ी लगा दी। ___ एक दिन किसी दुष्ट व्यक्ति ने यवनाधीश के समक्ष मिथ्या चुगली खाई अतः उसने अपने सेवकों के साथ पूज्यश्री को बुलाकर कहा-"आपके पास जो धन है वह हमें दे दो!" सूरिजी तो सर्वथा परिग्रह त्यागी थे अतः उन्होंने कहा-"हमारे पास तो भगवंत के नाम के अतिरिक्त कोई धन नहीं है।" वह अर्थ-लोभी कब मानने वाला था, उसने सूरिजी को तंग करना प्रारम्भ किया। इतना ही नहीं, सत्ता के अन्धे यवनाधिप ने सूरिजी की खाल उतारने की आज्ञा दे दी। सूरिजी ने अपने पूर्व संचित अशुभकर्मों का उदय समझकर किंचित् भी क्रोध नहीं किया। रात्रि में मर्मस्थान पर दण्ड प्रहार किये गये। हाथों-पैरों के जीवित नख उतार कर असह्य वेदना उत्पन्न की गयी। वेदना बढ़कर मरणान्त अवस्था आ पहुँची, पर उन महापुरुष ने समता के निर्मल सरोवर में प्रविष्ट होकर भेद-विज्ञान द्वारा आत्मरमण में तल्लीनता कर दी। अपने पूर्व के खंदक, गजसुकुमाल आदि महापुरुषों के चरित्र का स्मरण कर आत्मस्थ हो गये। (२८६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह वृत्तान्त ज्ञात कर प्रात:काल श्रावक गण सूरिजी के पास आये। यवन भी सूरिजी का धैर्य देखकर उन्हें अपने स्थान पर ले जाने को कहा। रूपा बोहरा उन्हें अपने घर लाया, नगर में सर्वत्र हाहाकार मच गया। नायसागर ने उत्तराध्ययन आदि सिद्धान्त सुनाये, अनशन आराधना करवाई। श्रावकों ने यथाशक्ति चतुर्थव्रत, हरित त्याग, द्वादश व्रतादि नियम लिए। आचार्यश्री गच्छ की शिक्षा अपने शिष्य हीरसागर को देकर सं० १७९४ वैशाख ६ रविवार, सिद्धि योग, प्रथम प्रहर में जिनेश्वर का ध्यान करते हुए नश्वर देह का त्याग कर दिवंगत हुए। श्रावकों ने उत्सवपूर्वक अन्त्येष्टि की। रूप बोहरा ने स्तूप कराया। इसी तरह राजनगर के बहिरामपुर में भी स्तूप बनवाया गया। वि०सं० १७९५ में रचित जिनशिवचन्द्रसूरिरास से इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इन्होंने गच्छ व्यवस्था अपने शिष्य हीरसागर को सौंपी, उन्होंने इनके पाट पर किसे बैठाया? यह इतिहास अंधकार में है किन्तु सं० १८९३ में शत्रुजय पर मोतीशाह नाहटा की ढूंक की महान् प्रतिष्ठा यद्यपि उन्होंने श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी महाराज से कराई थी पर उनकी परम्परागत मान्यता खरतरगच्छ की पिप्पलिया शाखा की थी, क्योंकि कई शिलालेखों में "खरतर-पिप्पलिया गच्छे श्री जिनदेवसूरि पट्टे श्री जिनचन्द्रसूरि विद्यमाने" लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि परम्परा-क्रम प्रभावशाली हो गई थी। ___ श्री जिनवर्द्धनसूरि जी का मेवाड़ में बड़ा प्रभाव था। देवलवाड़ा का नवलखा गोत्रीय मंत्री रामदेव राणा खेता का मंत्री और सुश्रावक लद्ध का पुत्र था। सेठ रामदेव ने मेवाड़ में कई प्रतिष्ठाएँ करवाई थी, इनकी पत्नी ने कई ग्रंथ लिखवाये व अपने भ्राता मेरुनंदनोपाध्याय की मूर्ति सं० १४६२ में जिनवर्द्धनसूरि से प्रतिष्ठित करवाई थी। इनके पुत्र सहणपाल ने जिनवर्द्धनसूरि जी के उपदेश से वहाँ खरतरवसही का निर्माण कराया था। सं० १४९१ में श्री जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य श्री जिनसागरसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। नागदा तीर्थ में रामदेव की द्वितीय भार्या मालणदे के पुत्र सेठ सारंग नवलखा ने ११ लाख के व्यय से जिनालय निर्माण कराके सं० १४९४ माघ सुदि ११ को जिनसागरसूरि जी से प्रतिष्ठा कराई थी। सहणपाल राणा मोकल और उनके पुत्र राणा कुम्भकरण का मंत्री था। उसने सम्प्रति राजा के बनवाए हुए आहड़ के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। इसी नवलखा वंश के नवलखा वर्द्धमान भार्या विमलादे के पुत्र कपूरचंद ने उदयपुर के पद्मनाभ तीर्थ के विशाल जिनालय का निर्माण कराया और सं० १८१९ माघ सुदि ५ को महोपाध्याय हीरसागर गणि से प्रतिष्ठित कराया था। इनकी रचनाओं में सं० १८१७ में रचित "चौबीसी" उपलब्ध है। इसके शिलालेख में श्री जिन (शिव) चन्द्रसूरि का पाट महोत्सव करने वाले दोसी कुशलसिंह की भार्या कस्तूरदे और पुत्री माणक बाई के सहाय करने का भी लेख के अन्त में उल्लेख है। 卐卐卐 १. देखिए कुशलनिर्देश, वर्ष ९, अंक ९ में 'उदयपुर का श्री पद्मनाभ तीर्थ' शीर्षक भंवरलाल नाहटा का लेख। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२८७) 2010_04 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आद्य पक्षीय शाखा यह शाखा पिप्पलक शाखा के अन्तर्गत है। सं० १५६६ में श्री जिनदेवसूरि से निर्गत हुई थी। इनके आदि आचार्य श्री जिनदेवसूरि ही हैं जो कि पिप्पलक शाखा के आचार्य जिनवर्द्धनसूरि के चतुर्थ पट्टधर होते हैं। उपलब्ध पट्टावली के आधार पर इस शाखा की पट्ट-परम्परा इस प्रकार है१. जिनवर्द्धनसूरि १०. जिनचन्द्रसूरि २. जिनचन्द्रसूरि ११. जिनोदयसूरि ३. जिनसमुद्रसूरि १२. जिनसंभवसूरि ४. जिनदेवसूरि १३. जिनधर्मसूरि ५. जिनसिंहसूरि १४. जिनचन्द्रसूरि ६. जिनचन्द्रसूरि १५. जिनकीर्तिसूरि ७. जिनहर्षसूरि १६. जिनबुद्धिवल्लभसूरि ८. जिनलब्धसूरि (पंचायण भट्टारक) १७. जिनक्षमारत्नसूरि ९. जिनमाणिक्यसूरि १८. जिनचन्द्रसूरि आचार्य जिनवर्द्धनसूरि और आचार्य जिनचन्द्रसूरि का परिचय पिप्पलक शाखा के अनुसार ही है। (३. आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि सं० १५३३ माघ सुदि १३ को पुंजापुरी में आपका पदोत्सव हुआ। धर्म का प्रचार तथा प्रसार करते हुए सं० १५५६ में दीपाग्राम (चरिया) में आप स्वर्गवासी हुए। (४. आचार्य श्री जिनदेवसूरि आपका जन्म दोसी गोत्रीय सोम साह की धर्मपत्नी श्यामा देवी (सोमदेवी) की रत्नकुक्षि से सं० १५४२ में हुआ था। सं० १५५५ में आपने विजयपुर में दीक्षा ग्रहण की। १५५६ में राजपुर में धारीवाल कृत नन्दि महोत्सव में श्री शान्तिसागरसूरि ने आपको सूरिपद प्रदान किया। आपने रावल मालदेव जी को प्रतिबोध दिया था। अपनी धवल यशः कीर्ति से कलिकाल केवली विरुद प्राप्त किया था। संवत् १६३६ मार्गशीर्ष सुदि ३ को मेड़ता में आपका स्वर्गवास हुआ। आप ही के समय से यह शाखा आद्यपक्ष नाम से प्रसिद्ध हुई। १. उपाध्याय क्षमाकल्याणजी की पट्टावली के अनुसार संवत् १६५४ में शान्तिसागरसूरि जी से इस शाखा का आविर्भाव हुआ। २. श्लोकबद्ध पट्टावली में संवत् १६३५ लिखा है। (२८८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कोई जिनप्रतिमादि नहीं मिलती है और न ही किसी कृति के रचनाकार के रूप में इनका नाम मिलता है। (५. आचार्य श्री जिनसिंहसूरि जैसलमेर निवासी लोढ़ा (डोसी) गोत्रीय वीको साह की धर्मपत्नी महालदे (वाल्हादे) की रत्नकुक्षि से सं० १५८४ में आपका जन्म हुआ था। सं० १५९३ में राजसिंह अमीपाल कृत नन्दि महोत्सव द्वारा मेदिनीपुर में दीक्षा ली। सं० १६१५ (? १६१३) में जोधपुर में आचार्य पद प्राप्त किया। अनेक देशों में विहार करके भव्य जीवों का कल्याण कर सं० १६५४ कार्तिक सुदि ११ को मेड़ता में आप स्वर्गवासी हुए। वि०सं० १६१७ और १६२० के प्रतिमा लेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। (६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि (पंचायण भट्टारक)) बेठवाल (लोढ़ा) गोत्रीय शाह तेजसी "जेतसी" की धर्मपत्नी तारादे की रत्नकुक्षि से सं० १६५४ पौष वदि ५ गुरुवार के दिन आपका जन्म हुआ। जन्म नाम पंचायण और दीक्षा नाम पद्मरंग गणि था। महाबुद्धिनिधान, चारित्रपात्र, युगप्रधान जिनसिंहसूरि जी ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था। आपने कापरड़ा नगर में स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा प्रकट की। बादशाह जहांगीर ने आपके अद्भुत चमत्कार देखकर मुरतब लवाजमा आदि से आपका बड़ा सम्मान किया। भाद्रपद महीने में मेड़ता में आपने अमारि की उद्घोषणा करवाई। भण्डारी गोत्रीय भाना जी नारायणशाह को प्रतिबोध देकर महाराज श्री सूरसिंह से ६०,०००/- रुपये छुड़ाये और तत्कारित चैत्य में आपने स्वयंभृ पार्श्वनाथ की भी प्रतिमा स्थापित की। अर्थात् कापरड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ की संस्थापना आप ही ने की थी तथा रगतिया जी, कालाजी, गोराजी, खोडिया, हनुमान, चाचड़िया, पद्मावती, प्रत्यंगिरा, अच्छुप्ता इन नौ देवों को स्थापित किया। सं० १६९३ ज्येष्ठ वदि १४ को जैतारण में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके एक शिष्य गुणप्रभसूरि भी थे जिनसे सं० १६९४ में एक उपशाखा और निकली। वि०सं० १६३४ से १६७८ तक के विभिन्न प्रतिमालेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में उक्त आचार्य जिनचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। ७. आचार्य श्री जिनहर्षसूरिपंचायण भट्टारक के अनन्तर आप पट्टधर हुये। सहस्रकरावतार, साक्षात् सरस्वती के अवतार, दोसी कुल शृंगार श्री जिनहर्षसूरि का जन्म भादो साह की धर्मपत्नी भगता देवी की रत्नकुक्षि से हुआ। सं० १६९३ में भंडारी गोत्रीय नारायण साह कृत नन्दि महोत्सव में आपको सूरिपद दिया गया। १. पट्टावली में परपक्षीय द्वारा उल्लेख है। अतः संभव है कि आचार्य जिनराजसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान किया है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२८९) 2010_04 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १७१२ में सोजत में आपने हाथी को कीलित किया, जिसका साक्षी सारा सोजत शहर है। हाथी के स्थान पर अब कोतवाली चौतरा के पास मंडी के बीच में सगिड़ा पूजा जाता है। सं० १७२५ चैत्र वदि ९ के दिन मेड़ता में आपका स्वर्गवास हुआ। ___ सं० १७२३ में आपने भं० ताराचंद कारित पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा कराई थी जो बीकानेर के गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय में मूलनायक रूप में विराजमान है। जिनहर्षसूरि के शिष्य सुमतिहंस और सुमतिहंस के शिष्य मतिवर्धन द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं। ८. आचार्य श्री जिनलब्धिसरि सं० १७११ वैशाख वदि ११ के दिन धाड़ीवाल साह कर्मचंद जी कृत नन्दि महोत्सव में स्वयं श्री जिनहर्षसूरि जी ने आपको अपने पाट पर स्थापित किया। आपका जन्म रायपुर में दोसी गोत्रीय देदो साह की धर्मपत्नी दाडिमदे की रत्नकुक्षि से हुआ। सं० १७५४ ज्येष्ठ वदि १११ को जोधपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। इनके द्वारा रचित नवकार-माहात्म्य चौपाई (वि०सं० १७५०) नामक कृति प्राप्त होती है। (९. आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि) तदनन्तर आप पट्टधर हुए। आपका जन्म उदो साह की धर्मपत्नी उछरंगदे की कुक्षि से हुआ। आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि ने स्वयं सं० १७५४ पौष वदि ९ के दिन आपको आचार्यत्व प्रदान किया। केवल नौ मास पद भोग कर सं० १७५५ भादवा वदि ९ को मेड़ता में आपका स्वर्गवास हुआ। (१०. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि) उनके बाद आप पट्टधर हुए। आपका जन्म उदो साह की धर्मपत्नी उछरंगदे की कुक्षि से हुआ। सं० १७५५ आश्विन शुक्ला द्वादशी को भण्डारी प्रेमचंद रूपचंद कारित नन्दि महोत्सव पूर्वक आचार्य जिनचन्द्रसूरि से आपको सूरि पद प्राप्त हुआ। सं० १७७४ वैशाख सुदि १५ को भण्डारी गोत्रीय रूपचंद कृत श्री विमलनाथ प्रासाद की आपने प्रतिष्ठा की। सं० १७७५ ज्येष्ठ सुदि १४ को तावरिया कर्मचंद कारित आदिनाथ प्रासाद की सोजत में प्रतिष्ठा की। सं० १८०९ फाल्गुन सुदि १४ के दिन जैतारण में आपका स्वर्गवास हुआ। १. पौष वदि ११ जैतारण (संस्कृत पट्टावली श्लोक ३६ में) २. संभवतः जिनरत्नसूरि पट्टधर । (२९०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. आचार्य श्री जिनोदयसूरि आप रैया ग्राम निवासी दोसी गोत्रीय सोमो साह की धर्मपत्नी सोभागदे की रत्नकुक्षि से उत्पन्न हुए। सं० १८०९ मिती चैत्र वदि ११ को जैतारण निवासी धाड़ीवाल ठाकुर संखवाल खीमराज भीमराज कृत नन्दि महोत्सव में आपने आचार्य-भट्टारक पद प्राप्त किया। सं० १८२२२ मार्गशीर्ष सुदि ३ को मेड़ता नगर में आपका स्वर्गवास हुआ। १२. आचार्य श्री जिनसंभवसूरि) बीको साह पिता कालादे माता के आप पुत्र थे। पदोत्सव सं० १८२३ चैत्र सुदि को लोढ़ा धारीवालों द्वारा किया गया था। आपका सं० १८५६ माघ वदि १० को श्री मालव देशस्थ कुकर्स कापसी नगर में स्वर्गवास हुआ। १३. आचार्य श्री जिनधर्मसूरि - आपका स्वर्गवास सं० १८५७ रतलाम में हुआ। १४. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आपका आचार्य पद सं० १८५८ जैतारण में हुआ। १५. आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि - आपका स्वर्गवास सं० १९३२ में हुआ। १६. आचार्य श्री जिनबुद्धिवल्लभसूरि - इनका आचार्य पद सं० १८८२ मिगसिर वदि ५ एवं स्वर्गवास सं० १९४२ में हुआ। १७. आचार्य श्री जिनक्षमारत्नसूरि - आपका स्वर्गवास सं० १९६२ में हुआ। १८. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - कु० वर्ष पूर्व पाली में स्वर्गस्थ हुए। आद्यपक्षीय पट्टावली (हस्तलिखित) की प्रति के अन्त में कतिपय आचार्यों की शिष्य सन्तति का उल्लेख है, जो निम्न है :जिनचन्द्रसूरि १६६१ - समयकीर्ति → महोपाध्याय कनकतिलक - महोपाध्याय लक्ष्मीविनय - रत्नाकर - हेमनन्दन - हर्ष जिनहर्षसूरि उपाध्याय उदयरत्न → उपाध्याय केशवदास → वाचक दामोजी (दयानिधान), इन्द्रभान → वाचक किशनोजी → पण्डित सकरमल जी - वाचक हीराचन्द (हितलावण्य) - पण्डित दौलतराम, लक्ष्मीचन्द - अगरचन्द, नयणचन्द १. द्वितीय पट्टावली के अनुसार माता-पिता का नाम जोधोसाह और जसवंतदे था। २. द्वितीय पट्टावली के अनुसार सं० १८२२ चैत्र वदि ६। ३. रायसिंह और रंगरूप दे माता का उल्लेख है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२९१) _ 2010_04 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनलब्धिसूरि - हर्षविमलसूरि → पण्डित दयासागर - जसकुशल - उदयभान - रूपचन्द → प्रेमराज - कनीराम - आणन्दराम जिनकीर्तिसूरि - मुक्तिवसन, शिवराज। पण्डित जयरुचि, शिवलाल। लब्धिरत्न, शिवरत्न, मुक्तिरत्न पत्र के अन्त में लिखा है : संवत् १८४४ अणदोजी (आनन्द राय) शिष्य मलूकचन्द स्वरूपचन्द माणकचन्द रतनचन्द सुमतिहंस संवत् १७३१ पौष वदि १२ जैतारण स्वर्ग ७२ वर्ष आयु। अमरसी के स्वर्गवास के संस्कार समय में ५६ राजस्थानी सोरठे में स्वर्ग संवत् १७६१ कार्तिक सुदि २ स्वर्ग अमरसी पधारे। 卐y (२९२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. भावहर्षीय शाखा श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के राज्यकाल में गच्छ में व्याप्त शैथिल्य का परिहार कर कई त्यागी - वैरागियों ने क्रियोद्धार किया था और सुविहित गच्छ के साधु मार्ग की स्थिति सूत्रबद्ध की थी । सं० १६०६ में उपाध्याय कमलतिलक जी के साथ वा० भावहर्ष गणि व शुभवर्द्धन गणि का भी ५२ बोल के पत्र में वर्णन मिलता है। भावहर्ष गणि सागरचन्द्रसूरि शाखा के वा० साधुचन्द्र के शिष्य कुलतिलक जी के शिष्य थे । भावहर्षीय शाखा के आप आद्य आचार्य थे। बालोतरा में इस शाखा की गद्दी है जिसकी परम्परा इस प्रकार है १. भावहर्षसूरि २. जिनतिलकसूर ३. जिनोदयसूरि ४. जिनचन्द्रसूरि ५. जिनसमुद्रसूरि ६. जिनरत्नसूर ७. जिनप्रमोदसूरि ८. जिनचन्द्रसूरि ९. जिनसुखसूरि १०. जिनक्षमासूर ११. जिनपद्मसूरि १२. जिनचन्द्रसूरि १३. जिनफतेन्द्रसूरि १४. जिनलब्धिसूरि १. आचार्य श्री भावहर्षसूरि मरुधर देशान्तर्गत भटनेर में नाहर गोत्रीय कोडा शाह की धर्मपत्नी कोडमदे के आप पुत्र थे । सं० १५६१ में आपका जन्म हुआ था । सं० १५६६ में अर्थात् ५ वर्ष की लघुवय में ही सागरचन्द्रसूरि संतानीय साधुचन्द्र जी के पास दीक्षा लेकर कुलतिलक गणि के शिष्य बने । उनके पास सिद्धान्त ग्रन्थों का अभ्यास कर वाचक पद प्राप्त किया। बीकानेर में सं० १६०६ के क्रियोद्धार नियम पत्र (५२ बोल) के समय आप वाचक पदारूढ़ थे । सं० १६१० माघ शु० १० को जैसलमेर में गच्छ नायक श्री जिनमाणिक्यसूरि ने आपको पाठक पद से अलंकृत किया । महेवा के छाजेड़ हरखा ने संवत्सरी के दिन छींक आने से गच्छ भेद का ताना मारने पर उसने सं० १६१६ में वैशाख सु० १० गुरुवार को जोधपुर (वीरमपुर-महेवा नगर) में आपको आचार्य बनाया, भणशाली लाखा ने पदोत्सव किया। आपका भावहर्षसूरि नामकरण किया गया। आपके नाम से ही यह शाखा भेद हुआ। आपने सरस्वती देवी की प्रसन्नता और शुभाशीष प्राप्त किया था। आपके हेमसार, रंगसार आदि कई विद्वान् और कवि शिष्य थे। इनके द्वारा सं० १६२२ में रचित जैसलमेर अष्टापद प्रासाद गीत गाथा १३ जैसलमेर के कलापूर्ण जैन मंदिर में प्रकाशित है । इन्होंने वि०सं० १६२६ में साधुवंदना नामक कृति की भी रचना की । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२९३) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२. आचार्य श्री जिनतिलकसूरि) तिमरी मारवाड़ में लूंकड़ गोत्रीय श्रेष्ठी धारा रहते थे, जिनकी पत्नी का नाम धारलदे था। इन्हीं की कोख से आपका जन्म हुआ। सं० १६१० में आपने दीक्षा ग्रहण की। सं० १६२८ में आचार्य पद प्राप्त किया। श्रीमाल हाथीशाह ने पद-स्थापन का महोत्सव किया। नवकोटी मारवाड़ (मेड़ता) के अधिपति राजा श्री गजसिंह जी आपके भक्त थे और आपके उपदेश से राजा ने छ8 की अमारि पालन करवायी थी। सं० १६७६ ज्येष्ठ वदि अमावस्या को अनशन करके आप स्वर्गस्थ हुए। इनके एक शिष्य रत्नसुन्दर हुए जिनके शिष्य मेघनिधान ने सं० १६८८ में क्षुल्लककुमारचौपाई की रचना की। (३. आचार्य श्री जिनोदयसूरि ) आपका दीक्षा नाम आनंदोदय था। सं० १६७२ वैशाख सु० ८ को आपने आचार्य पद प्राप्त किया था। आपकी रचनाओं में १. विद्याविलासचौपाई सं० १६२२ आ० सुदि १३ बालोतरा में रचित व २. हंसराजवच्छराजचौपाई सं० १६८० तथा ३. चंपकसेनचौपाई सं० १६६९ वीरपुर में रचित उपलब्ध है। (४. आचार्य श्री जिनचन्द्रसरि) विक्रमपुर (बीकानेर) के श्रीश्रीमाल वीराशाह की धर्मपत्नी वीरादे की कोख से सं० १६६४ में आपका जन्म हुआ। जन्म नाम नैणसी (देवकुमार) था। सं० १६७४ में श्री जिनोदयसूरि के पास आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा महोत्सव सेठ धेनु ने किया था। सं० १६७८ में जोधपुर में जिनोदयसूरि ने अपने कर-कमलों से इन्हें पट्टधर बनाया। सं० १७१५ में महाराज जसवंतसिंह जी को प्रतिबोध देकर दशमी के दिवस की अमारि घोषणा करवाई। सं० १७३३ श्रावक सुदि ३ को जैतारण में अनशन करके आप स्वर्ग सिधारे। ५. आचार्य श्री जिनसमुद्रसूरि - आचार्य पद सं० १७४२ मार्गशीर्ष सु० ७ ६. आचार्य श्री जिनरत्नसूरि - आचार्य पद सं० १७७६ ज्येष्ठ व० ३ ७. आचार्य श्री जिनप्रमोदसूरि - आचार्य पद सं० १७९२ आषाढ़ वदि ५ को हुआ। एक बार चैत्र महीने में बालोतरा में नदी का पानी चढ़ने पर किसी की चुनौती से नदी पार उतर के परचा दिखाया। वापस आकर अनशनपूर्वक स्वर्गवासी हुए। ८. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि - आचार्य पद सं० १८१५ माघ सुदि १३ । इनके ३ शिष्य थे १. पट्टधर जिनसुखसूरि, २. जगचन्द्र, ३. माणकचंद (२९४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. आचार्य श्री जिनसुखसूरि - १०. आचार्य श्री जिनक्षमासूरि - आचार्य पद सं० १८२८ वै०सु० ३ बालोतरा आचार्य पद सं० १८४७ भा०सु० ८ को हुआ। सं० १८८४ अगहन दशमी को बालोतरा में स्वर्गवास हुआ। (११. आचार्य श्री जिनपद्मसूरि) ये मथाणिया गोलछा भैरवदास के पुत्र थे। इनकी माता का नाम अमरता था। सं० १८८४ फाल्गुन वदि ३ को ये पाट पर बैठे। अहमदाबाद में सेठ हठीसिंह के सुप्रसिद्ध मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय मुहूर्त सम्बन्धी चमत्कार दिखाया। बम्बई में दो चातुर्मास किए, भगवती सूत्र बाँचा। शासन की बड़ी प्रभावना हुई। बालोतरा के चांपावत और अंग्रेजों के संघर्ष के समय १९१४ में दंड की राशि पूछने पर सात हजार का अंक लिख दिया। जिसे मादलिये में मंढ दिया, खोलने पर सही परचा पाया। सं० १९१६ ज्येष्ठ सु० ५ को सिरोही में दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की। आबौरी नगर में चातुर्मास कर धर्म प्रभावना की। जोधपुर के मुता लखमीचंद को चार महीने में देश का दीवान होने का भविष्य कहा। फौजराज को सावधान कर धर्म करने को कहा। शिवै सिंघी को दुर्भिक्ष होने का तथा युद्ध में वीरगति का भविष्य एवं १९२५ से ३० तक दुर्भिक्ष होना बतलाया। अहमदाबाद के सेठ सूरजमल का भाग्योदय बतलाते हुए ५० वर्ष की वय में प्रार्थना करने पर तीन वर्ष में दो पुत्र होना बतला कर, यात्रा का उपदेश दिया। पुत्र जन्म पर एक हजार रु० सेठ का भेंट आया जिसे मन्दिर में लगा दिया। आऊवा के खुश्यालसिंह को भी भविष्यवाणी से परचा दिया। महेवा के जीर्ण मंडप और मन्दिर का उपदेश देकर जीर्णोद्धार कराया। राजा तख्तसिंह जी को चमत्कृत कर तीर्थ को शत्रुजय बना दिया। नाकोड़ा तीर्थ में शंखवालेचागोत्रीय मालासा निर्मापित शांतिनाथ मन्दिर में मूलनायक शांतिनाथ और आजू-बाजू में सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ भगवान् की मूर्तियाँ विराजमान हैं। ये तीनों मूर्तियाँ संवत् १९१० माघ सुदि ५ को श्री जिनपद्मसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार ४४ वर्ष पर्यन्त अनेकविध शासन प्रभावना कर नागपुर पधारे। यति प्रताप और जुहारमल को अपना स्वर्गवास समय बतलाते हुए "हेमा" को पाट योग्य बतला कर भोलावन दी। श्रावकों ने प्रवेश महोत्सवादि धूमधाम से किए। सं० १९२९ आषाढ़ वदि १५ को ध्यानावस्था में कर्म खपाते हुए स्वर्गवासी हो गए। अग्निसंस्कार स्थान में दादावाड़ी में बड़ी सुन्दर छत्री बनवा कर चरण प्रतिष्ठित हुए। चमत्कारी स्थान में ठाठ से पूजा होने लगी। (१२. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ये सिवाणा के तातेड़ गोत्रीय ओसवाल जेठमल पिता और पना माता के पुत्र थे। आप सं० १९२९ आषाढ़ सुदि १३ कर्क लग्न के समय नागपुर में श्री जिनपद्मसूरिके पाट पर विराजे। नागपुरसंघ के बीकानेरी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२९५) _ 2010_04 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरचंदगोलछा, जीतमलबोथरा, धर्मचंदगोलेछा आदि ने बड़ा भारी उत्सव किया। गोलछा अगरचंद और उसकी पत्नी लछमादेने हजारों खर्च किए, दादावाड़ी का जीर्णोद्धार करा के जिनपद्मसूरिजी की छत्री में चरण प्रतिष्ठित कराये। इन्होंने जीवाणै में श्री ऋषभदेव भगवान् की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९२९ और १९३० के दो चौमासे बालोतरा में किए। चार वर्ष से पानी की तंगी थी, आपके विराजने से ठाठ हो गया। सं० १९२९ में जेठ सुदि ५ को नागपुर के गीत में श्री जिनपद्मसूरि की स्मृति में महोत्सव का वर्णन है तथा सं० १९३९ के इस गुटके में भावहर्ष शाखा के अनेक यतिजनों व आचार्यों के गीत व कवित्तों आदि का संग्रह है। (१३. आचार्य श्री जिनफतेन्द्रसूरि इनके सम्बन्ध में कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है। नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ की सारी व्यवस्था इन्हीं के पास थी। इन्हीं की अनुमति से यति जुहारमल जी ने नाकोड़ा में पौष वदि १० का मेला चालू किया था। प्रवर्तिनी साध्वी सुन्दरश्री जी की इस तीर्थ के विकास के प्रति विशेष लगन देखकर और साध्वीजी से प्रेरणा पाकर श्री जिनफतेन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् १९६६ में इस तीर्थ की निगरानी और देख-रेख का सारा भार अपनी ओर से बालोतरा जैन समाज को संभला दिया था। (१४. आचार्य श्री जिनलब्धिसूरि इनके सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। वर्तमान में इस शाखा की यति परम्परा भी लुप्त हो गई है। 卐卐卐 (२९६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. आचार्य शाखा आचार्य जिनसिंहसूरि के शिष्य भट्टारक जिनराजसूरि और आचार्य जिनसागरसूरि सं० १६७४ में सूरि पदारुढ़ हुए थे। १२ वर्ष पश्चात् आपसी मतभेद के कारण सं० १६८६ में आचार्य जिनसागरसूरि से यह पृथक् शाखा निकली। (१. आचार्य श्री जिनसागरसूरि) बीकानेर निवासी बोथरा शाह बच्छराज की भार्या मृगादे की कोख से सं० १६५२ कार्तिक शुक्ला १४ रविवार को अश्विनी नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। जन्म नाम चोला था पर सामल नाम से प्रसिद्धि हुई। सं० १६६१ माघ सुदि ७ को अमृतसर जाकर अपने बड़े भाई विक्रम और माता के साथ श्री जिनसिंहसूरि जी महाराज के पास दीक्षा लेकर "सिद्धसेन" नाम पाया। आगम के योगोद्वहन किए, फिर बीकानेर में छ:मासी तप किया। कविवर समयसुन्दर जी के विद्वान् शिष्य वादी हर्षनन्दन ने आपको विद्याध्ययन बड़े मनोयोग से कराया। श्री जिनसिंहसूरि जी के साथ संघवी आसकरण के संघ सह शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। खंभात, अहमदाबाद, पाटण होते हुए वडली में जिनदत्तसूरि जी के स्तूप की यात्रा की। सिरोही पधारने पर राजा राजसिंह ने बहुत सम्मानित किया। जालौर, खंडप, दुनाड़ा होते हुए घंघाणी आकर प्राचीन जिन बिम्बों के दर्शन किये। बीकानेर पधारे, शाह बाघमल ने प्रवेशोत्सव किया। सम्राट जहांगीर के आमंत्रण से विहार कर आगरा जाते हुए मार्ग में जिनसिंहसूरि का स्वर्गवास हो जाने से राजसमुद्र को भट्टारक पद व सिद्धसेन जी को आचार्य पद से अलंकृत किया। चोपड़ा आसकरण, अमीपाल, कपूरचंद, ऋषभदास और सूरदास ने पद महोत्सव किया। पूनमियागच्छीय हेमसूरि जी ने सूरिमंत्र देकर सं० १६७४ फा०सु०७ को जिनराजसूरि व जिनसागरसूरि नाम प्रसिद्ध किया। मेड़ता से राणकपुर, वरकाणा, तिंवरी, ओसियां, घंघाणी यात्रा कर मेड़ता में चातुर्मास बिता कर जैसलमेर पधारे। राउल कल्याण व संघ ने वंदन किया। भणशाली जीवराज ने उत्सव किया। वहाँ श्रीसंघ को ग्यारह अंग सुनाये। शाह कुशला ने मिश्री सहित रुपयों की लाहण की। लौद्रवा जी में थाहरू साह ने स्वधर्मी-वात्सल्यादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। श्री जिनसागरसूरि जी फलौदी पधारे, श्रावक माने ने प्रवेशोत्सव किया। करणुंजा होते हुए बीकानेर पधारे। पाताजी ने संघ सह प्रवेशोत्सव किया। मंत्री कर्मचंद के पुत्र मनोहरदास आदि सामहिये में पधारे। लूणकरणसर चातुर्मास कर जालपसर पधारे, मंत्री भगवंतदास ने उत्सव सह वंदन किया। डीडवाणा, सुरपुर, मालपुर जाकर बीलाड़ा में चौमासा किया, कटारियों ने उत्सव किया। मेड़ता में गोलछा रायमल के पुत्र अमीपाल-नेतसिंह व पौत्र राजसिंह ने नन्दिस्थापन कर व्रतोच्चारण किये। फिर संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२९७) 2010_04 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुर-कुंभलमेर होते हुए उदयपुर पधारे। मंत्रीश्वर कर्मचन्द के पुत्र लक्ष्मीचंद के पुत्र रामचन्द्र, रुघनाथ ने दादी अजायबदे के साथ वंदन किया। फिर स्वर्णगिरि होते हुए सांचौर गए। हाथीशाह ने साग्रह चातुर्मास कराया। सं० १६८६ में पारस्परिक मनोमालिन्य से दोनों शाखाएँ भिन्न-भिन्न हो गईं। जिनसागरसूरि की आचारजीया शाखा में उ० समयसुन्दर जी का सम्पूर्ण शिष्य परिवार, पुण्यप्रधानादि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि जी के सभी शिष्य तथा अनेक नगरों का संघ जिनसागरसूरि जी को मानने लगा। मुख्य श्रावक समुदाय के धर्मकृत्य इस प्रकार हैं करमसी शाह संवत्सरी को महम्मदी मुद्रा, उनका पुत्र लालचंद श्रीफल की प्रभावना करता। माता धनादे ने उपाश्रय का जीर्णोद्धार कराया। भार्या कपूरदे ने धर्म कार्यों में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। शाह शांतिदास, कपूरचंद ने स्वर्ण के लिये देकर ढाई हजार खर्च किया। उनकी माता मानबाई ने उपाश्रय के एक खण्ड का जीर्णोद्धार कराया। प्रत्येक वर्ष चौमासी (आषाढ़) के पौषधोपवासी श्रावकों को पोषण करने का वचन दिया। शा० मनजी के कुटुंब में उदयकरण, हाथी जेठमल, सोमजी मुख्य थे। हाथीशाह के पुत्र धन जी भी सुयश-पात्र थे। मूल जी, संघजी पुत्र वीर जी एवं परीख सोनपाल ने २४ पाक्षिकों को भोजन कराया। आचार्यश्री की आज्ञा में परीख चन्द्रभाण, लालू, अमरसी, सं० कचरमल्ल, परीख अखा, बाछड़ा देवकर्ण, शाह गुणराज के पुत्र रायचंद, गुलालचंद आदि राजनगर का संघ तथा खंभात के भणशाली वधू का पुत्र ऋषभदास भी धर्मकृत्य करने में उल्लेखनीय था। हर्षनन्दन के गीतानुसार मुकरबखान नवाब भी आपको सम्मान देता था। अनेक गीतार्थों को उपाध्याय, वाचक आदि पद प्रदान किये और स्वहस्त से अपने पट्ट पर जिनधर्मसूरि को स्थापित किया। उस समय भणशाली वधू की भार्या विमलादे और सधुआ की भार्या सहजलदे व श्राविका देवकी ने पदोत्सव बड़े समारोह से किया। श्री जिनसागरसूरि जी का शरीर अस्वस्थ हो जाने से वैशाख सुदि ३ को गच्छभार छोड़ कर, शिष्यों को गच्छ की शिखामण देकर वैशाख सुदि ८ को अनशन उच्चारण कर लिया। उस समय आपके पास उपाध्याय राजसोम, राजसार, सुमतिगणि, दयाकुशल वाचक, धर्ममन्दिर, ज्ञानधर्म, सुमतिवल्लभ आदि थे। सं० १७१९ ज्येष्ठ कृष्णा ३ शुक्रवार को आप समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे। हाथी शाह ने धूमधाम से अन्त्येष्टि क्रिया की। संघ ने दो सौ रुपये खर्च कर गायें, पाड़े, बकरियों आदि की रक्षा की। शान्ति जिनालय में देववंदन किया। इनके रचित विहरमान बीसी एवं स्तवनादि उपलब्ध हैं। बीकानेर शान्तिनाथ मन्दिर और रेल दादाजी में आपके चरण स्थापित हैं। (२. आचार्य श्री जिनधर्मसूरि बीकानेर निवासी भणशाली रिणमल पिता और रत्नादे माता की कोख से सं० १६१८ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम खरहत्थ था। सं० १७०८ वैशाख शुक्ला तृतीया को अहमदाबाद में श्री (२९८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरसूरि जी के हाथों से दीक्षा ग्रहण की। भणशाली सधुआ की पत्नी सहजलदे ने दीक्षोत्सव किया। वादी हर्षनंदन ने आपको अध्ययन कराया । सं० १७११ माघ सुदि १२ को अहमदाबाद में गुरु महाराज ने आपको अपने पट्ट पर स्थापित किया। भणसाली वधू की पत्नी विमलादे ने पाटोत्सव किया। सं० १७२० में बीकानेर में गोलेछा गोत्रीय अचलदास कृत उत्सव से भट्टारक पद प्राप्त किया। सं० उग्रसेन ने आपकी अध्यक्षता में शत्रुंजय का संघ अहमदाबाद से निकाला था। बीकानेर पधारने पर गिरधर शाह ने समारोहपूर्वक प्रवेशोत्सव किया । अन्तिम अवस्था में अपने पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि को स्थापित कर लूणकरणसर में सं० १७४६ मिगसर वदि ८ को अर्द्धरात्रि में आप स्वर्गस्थ हुए। ३. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि बावड़ी ग्राम में बहरा वंश के सांवलदास की पत्नी साहिबदे की रत्नकुक्षि से सं० १७२९ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम सुखमाल था । सं० १७३८ में जिनधर्मसूरि के पास दीक्षित हुए। सं० १७४६ मिगसर सुदि १२ को लूणकरणसर में आपको भट्टारक पद मिला। पदस्थापना का महोत्सव छाजहड़ (जोधाणी) रतनसी ने बड़े विस्तार से किया था। इस प्रसंग पर बीकानेर के श्रीसंघ ने उत्सव को सफलतम बनाया। सं० १७८५ में बीकानेर में जिनविजयसूरि को आपने आचार्य पद प्रदान किया था । सं० १७९४ ज्येष्ठ सुदि पूर्णिमा को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ था । इसी वर्ष फाल्गुण वदि ५ को जिनविजयसूरि ने रेल दादाजी में आपके चरण स्थापित प्रतिष्ठित किये थे। ४. आचार्य श्री जिनविजयसूरि नाहटा गोत्रीय डूंगरसी के आप पुत्र थे । आपकी माता का नाम दाडिमदे था । सं० १७४७ में आपका जन्म हुआ। जन्म नाम रतनसी था । सं० १७५३ में जिनचन्द्रसूरि के पास आपने दीक्षा ग्रहण की। सं० १७८५ में आषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा को गुरु पुष्य योग में बीकानेर में आचार्यश्री ने आपको आचार्य पद से विभूषित किया। इनका पदोत्सव हाजीखान देरावासी बड़हरा धीरूमल्ल ने किया था । सं० १७९४ में बीकानेर में आपको भट्टारक पद प्राप्त हुआ। पदोत्सव डागा- पूँजाणियों ने किया और प्रभावना बाई फूला ने की। सं० १७९७ आश्विन वदि ६ को जैसलमेर में सर्वायु पूर्ण कर आपने स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। सं० १८२५ मिगसर सुदि ५ को जैसलमेर में आपके स्तूप- पादुका की प्रतिष्ठा हुई (बी०जै०ले०सं०, लेखांक २८६२) । ५. आचार्य श्री जिनकीर्तिसूरि पिथरासर (फलौदी) ग्रामवासी खीमसरागोत्रीय उग्रसेन की सहचरी उछरंगदे की कुक्षि से सं० १७९२ वैशाख सुदि ७ को आपका जन्म हुआ। जन्म नाम किशोरचंद (किसनचंद ) था । सं० १७९७ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (२९९) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन कृष्णा ५ को जिनविजयसूरि से दीक्षा ग्रहण की। इसी वर्ष आपको आचार्य पद प्राप्त होकर माह वदि द्वितीया को जैसलमेर में भट्टारक पद प्राप्त हुआ। पदोत्सव लोढा गोत्रीय कानजी ने किया था। पश्चात् जैसलमेर से गुजरात होकर पूर्व देशस्थ तीर्थों की यात्रा करते हुए बीकानेर पधारे। सं० १८१९ आषाढ़ वदि ४ ( कार्तिक सुदि १४) को वहीं २७ वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए । सं० १८२१ माघ सुदि १३ को बीकानेर रेल दादाजी में जिनयुक्तिसूरि जी ने आपकी चरण पादुका प्रतिष्ठित की। ६. आचार्य श्री जिनयुक्तिसूरि बोहरागोत्रीय हंसराज की पत्नी लाछल देवी की कोख से सं० १८०३ वैशाख सुदि ५ को आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम जीवन था । सं० १८१५ में जिनकीर्तिसूरि से दीक्षा ग्रहण की। सं० १८१९ में गच्छनायक पद प्राप्त किया। बीकानेर में गोलेछों ने पदोत्सव किया । २१ वर्ष की अल्पायु में सं० १८२४ आश्विन कृष्णा १२ को स्वर्गवासी हो गए । ७. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि भग्गु ग्राम निवासी हड़गोत्रीय श्रेष्ठि भागचंद के आप पुत्र थे । आपकी माता का नाम यशोदा था । सं० १८०७ में आपका जन्म हुआ, मूल नाम तेजसी था । सं० १८२४ में आपने आचार्य पद प्राप्त किया। रतलाम में रूपचंद कारित मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । सं० १८२५ मार्गशीर्ष सुदि ५ को जैसलमेर में गुरु महाराज जिनयुक्तिसूरि के स्तूप की प्रतिष्ठा महारावल मूलराज के राज्य काल में कराई। बीकानेर में शान्तिनाथ देवालय का निर्माण करवाया। आपके विजय राज्य में आचार्यगच्छीय श्रीसंघ ने पं० मलूकचंद जी के उपदेश से पौषधशाला ( उपाश्रय) का निर्माण कराया जिसका शिलालेख सं० १८४५ का लगा हुआ है। सं० १८६१ में मुहणोत रामदास जी निर्मापित रजतमय ह्रींकार यंत्र प्रतिष्ठित किया। आपका स्वर्गवास जैसलमेर में अनशनपूर्वक सं० १८७५ कार्तिक सुदि पूर्णिमा को हुआ। सं० १८७६ में आपके पट्टधर श्री जिनोदयसूरि ने श्रीसंघकारित स्मृतिशाला - स्तूप चरणों की रावल गजसिंह जी के समय में प्रतिष्ठा करवाई । ८. आचार्य श्री जिनोदयसूरि रीहड़गोत्रीय पुण्यपाल की धर्मपत्नी जतनादे की कुक्षि से आप अवतरित हुए । सं० १८७५ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर विराजे । सं० १८९७ वैशाख सुदि ६ को बीकानेरस्थ शान्तिनाथ चैत्य की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। शिलालेख के अनुसार यह जिनालय खरतराचार्य गच्छ के श्रीसंघ ने बनवाया था और प्रतिमाओं पर गोलेछा वंश की बड़ी-बड़ी प्रशस्तियाँ उत्कीर्णित हैं । प्रतिष्ठा (३००) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोत्सव भी गोलेछा माणकचंद जी ने करवाया था। इसके अनन्तर इसी वर्ष सूरिजी का स्वर्गवास हो गया। आपके पट्टधर श्री जिनहेमसूरि ने सं० १९०१ माघ सुदि १० को नाल में आपके चरण प्रतिष्ठित किए। रेल दादाजी में आपके स्मारक का जीर्णोद्धार सं० १९४५ श्रावण सुदि ७ को हुआ। (९. आचार्य श्री जिनहेमसूरि बीकानेर निवासी बोथरागोत्रीय साह पृथ्वीराज (वच्छराज) के आप पुत्र थे। आपकी माता का नाम प्रभादे (मृगादे) था। सं० १८९७ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को आप आचार्य पद से सुशोभित हुए। महारानी विक्टोरिया के समय आयोजित सर्वधर्म परिषद् का एक अंग्रेज विद्वान् जैन दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने आपके पास आया था, आपकी योग्यता और प्रतिभा से बड़ा सन्तुष्ट हुआ था। ९० वर्ष की आयु पूर्ण कर आप स्वर्गस्थ हुए। सं० १९४५ में आपके स्मृति स्थान पर श्रावण सुदि ७ का लेख है। आपके सं० १९०१ से लेकर १९४२ तक के कई प्रतिष्ठा लेख संप्राप्त हैं। नाल, झज्झू, पन्नी बाई का उपाश्रय (बीकानेर), शान्तिनाथ जिनालय, रेल दादाजी आदि स्थानों के आपके लेख प्रकाशित हैं। १०. आचार्य श्री जिनसिद्धिसूरि) गढ़ सिवाणा निवासी वैद्य मोहतागोत्रीय मंत्रीश्वर श्री सुलतानसिंह जी के आप पुत्र थे जो पूर्व में नागौर में रहते थे। वहीं आपका जन्म हुआ। आपकी माता का नाम चैनादे था। आपका दीक्षा नाम अमृतविमल था। सं० १९४५ में जिनहेमसूरि के स्वर्गवास के बाद आप पाट पर बैठे। आपका आचार्य पदोत्सव बीकानेरीय संघ ने किया। आप एक योग्य विद्वान् थे। सं० १९८३ में आपका स्वर्गवास हुआ। सं० १९६४-१९६७ के प्रतिष्ठा लेख संप्राप्त हैं। सं० २००० में आपके चरण रेल दादाजी में यति नेमिचन्द्र जी द्वारा प्रतिष्ठित हैं। (११. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि) ये पहले तेरापंथी साधु थे। इनका नाम आसकरण जी था। सं० १९८४ वैशाख वदि १२ को बीकानेर में अक्षयनिधान नाम से दीक्षित हुए। ये अच्छे व्याख्यानदाता थे। नाल दादाजी में साधना करके रतलाम, बम्बई आदि में विचरे। सं० १९८६ में आपने सौभाग्यमल जी को हैदराबाद में सौभाग्यसकल नाम से दीक्षित किया। (१२. आचार्य श्री जिनसोमप्रभसूरि) ये भी आमेट (चार भुजा रोड) के ओसवाल थे, सौभाग्यमल जी नाम था। गुरु जी के स्वर्गवास संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३०१) 2010_04 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बाद सं० २००८ माघ सुदि ८ को बीकानेर में सौभाग्यसकल से श्री जिनसोमप्रभसूरि नाम प्रसिद्ध हुआ। सं० २०१० ज्येष्ठ सुदि १० को बम्बई में आपने दो शिष्यों को धर नन्दि में दीक्षा दी। यद्यपि समयसुन्दर जी युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि जी के प्रशिष्य होने से भट्टारक परम्परा के थे। किन्तु भट्टारक और आचार्य शाखा का विभाजन होने पर ये अपने शिष्य वादी हर्षनन्दन के कारण जिनसागरसूरि की आज्ञा में विचरण करने लगे थे। अतः आचार्य शाखा के अनुयायी हो जाने के कारण यहाँ इनका परिचय दिया जा रहा है। (महोपाध्याय समयसुन्दर) प्रख्यात कविश्रेष्ठ महोपाध्याय समयसुन्दर जी युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं सकलचन्द्र गणि के शिष्य थे। आपका जन्म सांचौर में हुआ था। आपके पिता का नाम रूपसी और माता का नाम लीला देवी था। ये पोरवाड़ ज्ञाति के थे। लघुवय में ही आपने आचार्य जिनचन्द्रसूरि के पास चारित्रग्रहण किया और वाचक महिमराज और वाचक समयराज के पास विद्याध्ययन करने लगे। थोड़े ही समय में इन्होंने विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और गीतार्थ विद्वान् हो गये। ऐसा माना जाता है कि वि०सं० १६४० माघ सुदि ५ को इन्हें अपने विद्यागुरु महिमराज (जिनसिंहसूरि) के साथ ही गणिपद प्राप्त हुआ। वि०सं० १६४९ फाल्गुन सुदि २ को लाहौर में जब महिमराज गणि को आचार्य पद दिया गया उस समय इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान कर सम्मानित किया गया। वि०सं० १६७१ के अन्त या १६७२ के प्रारम्भ में आपको उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। वि०सं० १६८० में आपको गच्छ में वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध होने के कारण महोपाध्याय पद से अलंकृत किया गया। समयसुन्दर जी द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और स्तवनसाहित्य को देखने से स्पष्ट होता है कि आपका प्रवास सिन्ध, पंजाब, वर्तमान उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्तों के विभिन्न नगरों एवं ग्रामों में रहा है। आपके समय में ही गुजरात में १६८७ में भंयकर दुष्काल पड़ा। इसके कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि होने लगी। ऐसा कोई भी नहीं बचा जिसे इसकी मार न झेलनी पड़ी हो। आहार न मिलने से मुनिजनों की बड़ी विचित्र स्थिति हो गई, देवमन्दिर शून्य हो गए। अनेक साधु कालकलवित होने लगे। ऐसी अवस्था में भी कुछ साधुओं ने अकाल का लाभ उठाते हुए बहुत से बच्चों को उनके माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद भी उन्हें दीक्षित कर अपने समुदाय की वृद्धि की। समयसुन्दर भी अकाल की मार से बच न सके, परन्तु ऐसे समय में भी उन्होंने साधु के लिए अकरणीय कार्य वस्त्र-पात्र बेचकर भी अपने शिष्य समुदाय की रक्षा की। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर उन्होंने वि०सं० १६९१ में क्रियोद्धार कर साधु समाज के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। (३०२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर वादी हर्षनंदन सहजविमल मेघविजय मेधकीर्ति महिमासमुद्र सुमतिकीर्ति माइदास 2010_04 हरिराम हर्षकुशल जयकीर्ति दयाविजय मेघरत्न रामचंद विद्याविजय धर्मसिंह हर्षनिधान राजसोम कीर्तिकुशल उ.काशीदास वीरपाल संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ज्ञानलाभ हर्षसागरसूरि ज्ञानतिलक पुण्यतिलक कीर्तिनिधान वा. ठाकुरसी कीर्तिसागर वा. कीर्तिवर्धन ( कुशलो) समयनिधान महो. पुण्यचंद्र , विनयचद्रकवि प्रतापसी नयणसी मुरारि पुण्यविलास अमरविमल (आसकरण) भीमजी बा. पुण्यशील मानचंद्र भीम जी सारंगजी सूरदासजी* प्रशिष्य परम्परा बीसवीं शताब्दी तक अविछन्न रूप से चलती रही। देखिए वंश वृक्ष :स्वदीक्षित शिष्य थे, जिनमें से कई तो अति प्रतिभासम्पन्न, महाविद्वान और वादी थे। आपकी शिष्य समयसुन्दर जी का शिष्य परिवार अत्यन्त विशाल था। ऐसा कहा जाता है कि इनके ४२ वोधाजी भक्तिविलास कल्याणचन्द्र आलमचन्द माइदास . जयवन्त हजारीनंद जयरत्र आणंदचन्द भवानीराम कस्तूरचन्द प्रतापसी चतुर्भुज भगवानदास कपूरचंद हंसराज धर्मदास लालचन्द माणकचंद कपूरचन्द उदेचन्द हर्षचंद गुलाबचंद - जीवणजी मनसुख . तनसुखजी . दौलतजी भागचन्द अमरचन्द रामपाल*** चुन्नीलाल** खेमचन्द चुन्नीलालजी (३०३) *सूरदासजी से उदेचंदजी तक की परंपरा आचार्य शाखा भंडार, बीकानेरस्थ एक पत्र पर से दी गई है। ** चुन्नीलाल जी कुछ वर्षों पूर्व तक विद्यमान थे। *** वर्तमान Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० १६७४ में जिनसिंहसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् उनके शिष्य जिनराजसूरि गच्छनायक बने और उनके गुरुभ्राता जिनसागरसूरि को आचार्य पद प्रदान किया गया। दोनों गुरुभ्राता १२ वर्ष तक साथ-साथ ही रहे, परन्तु समयसुन्दर जी के प्रधान शिष्य वादी हर्षनन्दन के कारण दोनों आचार्यों में मतभेद हो गया और जिनसागरसूरि तथा उनका समुदाय अलग हो गया। हर्षनन्दन ने जिनसागरसूरि का पक्ष ग्रहण किया था, इसी कारण समयसुन्दर जी को भी जिनसागरसूरि के समुदाय में सम्मिलित होना पड़ा। शारीरिक-क्षीणता और वृद्धावस्था के कारण समयसुन्दर जी सं० १६९६ से अहमदाबाद में स्थायी रूप से रहने लगे और वि०सं० १७०३ चैत्र सुदि १३ को स्वर्गस्थ हुए। शिष्य परिवार : जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इनके ४२ शिष्य थे, किन्तु इनके ग्रन्थों की प्रशस्तियों को देखने से इनके कुछ ही शिष्यों और प्रशिष्यों के नाम ज्ञात होते हैं। इनके प्रमुख शिष्यों के नाम इस प्रकार है :१. वादी हर्षनन्दन २. सहजविमल ३. मेघविजय ४. मेरुकीर्ति ५. महिमासमुद्र ६. सुमतिकीर्ति वादी हर्षनन्दन : आप समयसुन्दरजी के प्रधान शिष्य एवं उदभट् विद्वान् थे। आपके द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं जिनमें मध्याह्नव्याख्यानपद्धति (वि०सं० १६७३), ऋषिमंडलटीका, उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति (वि०सं० १७११) और स्थानाङ्गगाथागतवृत्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनके दो शिष्य हुए जयकीर्ति और दयाविमल। ये भी अच्छे ग्रंथकार थे। सहजविमल : इन्हीं के पठनार्थ समयसुन्दर जी ने रघुवंश और वाग्भटालंकार की टीका रची थी। __समयसुन्दर के एक शिष्य मेघविजय की परम्परा में कवि विनयचन्द्र नामक एक प्रसिद्ध रचनाकार हुए हैं। इनके सम्बन्ध में यथास्थान विवरण दिया गया है। समयसुन्दर की रचनायें : समयसुन्दर जी ने व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धांतिक और भाषात्मक गेय साहित्य की मौलिक एवं टीकायें रचकर भारतीयवाङ्मय को समृद्ध करने में अपना अतुलनीय योगदान दिया। आप द्वारा रचित प्रमुख रचनाओं में सारस्वतवृत्ति, सारस्वतरहस्य, अष्टलक्षी, मेघदूत प्रथम श्लोक के तीन अर्थ, रघुवंशटीका, रूपकमालाअवचूरि, जिनसिंहसूरिपदोत्सवकाव्य (रघुवंश तृतीय सर्ग की पाद पूर्ति), भावशतक, वाग्भटालंकारटीका, वृत्तरत्नाकरवृत्ति, सामाचारीशतक, सन्देहदोहावलीपर्याय, खरतरगच्छपट्टावली आदि एवं रास साहित्य तथा शताधिक स्तवन-गीतादि की चर्चा की जा सकती है। आपकी रचनाओं आदि के सम्बन्ध में श्री विनयसागर जी द्वारा लिखित ग्रन्थ महोपाध्याय समयसुन्दर द्रष्टव्य है। आपके द्वारा निर्मित विश्व साहित्य में बेजोड़ और अनुपम कृति है-"अष्टलक्षी", इसमें "राजानो ददते सौख्यम्" प्रत्येक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ किये गये हैं। विक्रम संवत् १६४९ श्रावण शुक्ला तेरस २२ जुलाई १५९२ को राजा रामदास की वाटिका में सम्राट अकबर की उपस्थिति और अनेकों दिग्गज विद्वानों के समक्ष समयसुन्दर जी ने इस ग्रन्थ का वाचन किया था। समस्त विद्वान् हतप्रभ हो गये थे। विद्वानों के परामर्श से ही सम्राट अकबर ने इसे प्रामाणिक स्वीकार किया था। (३०४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर विनयचन्द्र : अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य महोपाध्याय समयसुन्दर की परम्परा में हुए ज्ञानतिलक के आप शिष्य थे। आपके जन्म स्थान, माता-पिता, जन्मतिथि, जाति आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है। आपकी प्रथम रचना उत्तमकुमारचरित्रचौपाई वि०सं० १७५२ में पाटण में रची गई है। इस समय आपका ज्ञान और योग्यता को देखते हुए यदि २५ वर्ष भी मानें तो आपका जन्म लगभग १७२५-३० के मध्य माना जा सकता है। लगभग १५ वर्ष की आयु में आपने दीक्षा ग्रहण की होगी। इस प्रकार वि०सं० १७४०-४५ के बीच आपका दीक्षाकाल माना जा सकता है। दीक्षा के उपरान्त आपने योग्य गुरुजनों के निर्देशन में संस्कृत भाषा एवं काव्य आदि का अच्छी प्रकार अध्ययन किया। आपने अपने गुरुजनों के साथ गुजरात और राजस्थान के विविध क्षेत्रों में विहार किया। यह बात आपके द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ से ज्ञात होती है। आप द्वारा रचित प्रमुख रचनायें इस प्रकार हैं १. उत्तमकुमारचरित्रचौपाई (वि०सं० १७५२) २. विहरमानबीसीस्तवन (वि०सं० १७५४) ३. ग्यारहअंगसज्झाय (वि०सं० १७५५) ४. चतुर्विंशतिकास्तवन (वि०सं० १७५५) इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में स्तवन, सज्झाय, बारहमासा के गीत आदि भी आपने रचे हैं। आपकी विभिन्न रचनाओं का संकलन श्री भंवरलाल जी नाहटा ने सम्पादित कर "विनयचन्द्रकृति कुसुमांजलि" के नाम से सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर से वि०सं० २०१८ में प्रकाशित कराया है। शिष्य परिवार : विनयचन्द्र जी के कितने शिष्य थे! इनकी परम्परा कब तक चली! इस सम्बन्ध में साधनाभाव से कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। ज्ञानसागर कृत चौबीसी-पत्र ७ की प्रशस्ति के आधार पर श्री भंवरलाल जी नाहटा ने आपके शिष्य विनयमन्दिर और उनके शिष्य खुस्यालचंद का उल्लेख किया है। विनयमन्दिर का पूर्व नाम अमीचन्द था और इनकी दीक्षा वि०सं० १७६९ ज्येष्ठ वदि ५ को बीकानेर में हुई थी। विनयचन्द्र जी की अंतिम ज्ञात तिथि वि०सं० १७६९ है जब कि उन्होंने अमीचन्द को दीक्षित किया था। इसके बाद इनके सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में भी उन्होंने वि०सं० १७५५ के बाद की कोई तिथि नहीं दी है, अत: आपके आयु के सम्बन्ध में कुछ भी जान पाना कठिन है। (श्रीमद् देवचन्द्र वाचक पुण्यप्रधान गणि भी युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के स्वहस्त दीक्षित शिष्य थे। इन्होंने भी आचार्य शाखा प्रवर्तक जिनसागरसूरि को गच्छनायक के रूप में स्वीकार कर लिया था। अतः इनकी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३०५) _ 2010_04 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा भी आचार्य शाखा में गिनी जाती है। श्रीमद् देवचन्द्र भी पुण्यप्रधान की परम्परा में हुए हैं, अतः इनका भी उल्लेख आचार्य शाखा के अन्तर्गत किया गया है। अठारहवीं शताब्दी के अध्यात्मनिष्ठ विद्वानों में श्रीमद् देवचन्द्र जी का स्थान सबसे ऊँचा है। आज प्रत्येक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन जो मन्दिर में जाकर पूजा करता है, वह जिस स्नात्र पूजा की भावपूर्ण पंक्तियों को गुनगुनाता है उसके रचनाकार श्रीमद् देवचन्द्र जी हैं। इनकी गणना जैन मनीषियों की अग्रिम पंक्ति में होती है। आपने गम्भीर आध्यात्मिक विषयों पर सहज अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है साथ ही साथ सामान्य चर्चा को भी अपनी भावुक भाषा से अध्यात्म की गहराई में ले गए हैं। जैन साहित्य में आज चौबीस तीर्थंकरों पर रची गई चौबीसियों की संख्या सैकड़ों में है परन्तु आज भी आनन्दघन जी तथा देवचन्द्र जी द्वारा रचित चौबीसियाँ भावप्रवणता तथा आध्यात्मिक गहराई की दृष्टि से अनुपम हैं। श्रीमद् देवचन्द्र जी के जन्म सम्बन्धी कथा कवियणकृत देवविलास में प्राप्त होती हैं। उसके अनुसार इनका जन्म बीकानेर के निकट एक ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता लूणियागोत्रीय तुलसीदास और धनदेवी थे। वि०सं० १७४६ में इनका जन्म हुआ और देवचन्द्र नाम रखा गया। वि०सं० १७५६ में जब ये १० वर्ष के थे उस समय राजसागर जी का इनके ग्राम में आगमन हुआ और इनके माता-पिता ने इनकी वैराग्य भावना को देखते हुए इन्हें राजसागर जी को सुपुर्द कर दिया। राजसागर जी ने इन्हें दीक्षा देकर अपने पौत्र शिष्य दीपचन्द्र का शिष्य घोषित कर दिया। वि०सं० १७५९ में आचार्य शाखा के जिनचन्द्रसूरि के वरद हस्त से इनकी दीक्षा हुई और राजविमल नाम रखा किन्तु ये आजीवन इसी नाम से प्रसिद्ध रहे। श्रीमद् देवचन्द्र जी ने अपनी विभिन्न रचनाओं में अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है, जो तालिका के रूप में इस प्रकार है : युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि वाचक पुण्यप्रधान उपा. सुमतिसागर ज्ञानचन्द्र उपा. साधुरंग रंगप्रमोद विनयप्रमोद उपा.राजसागर विनयलाभ उपा.ज्ञानधर्म उपा.दीपचन्द्र उपा. देवचन्द्र मनरूप विजयचन्द्र रायचन्द्र ज्ञानकुशल विमलचन्द्र रूपचन्द्र (३०६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय गिरिराज दर्शन के एक लेख (लेखांक ११४) में श्रीमद् देवचन्द्र जी ने स्वयं को अकबर प्रतिबोधक आचार्य जिनचन्द्रसूरि की बृहद् खरतरगच्छीय परम्परा का बतलाया है जब कि शत्रुजय के ही एक अन्य लेख (लेखांक १२४) में स्वयं को आचार्यशाखा का बतलाया है। इसका कारण स्पष्ट है। युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के पौत्र शिष्य जिनराजसूरि के समय (वि०सं० १६७६) में इस परम्परा के जिनसागरसूरि से आचार्यशाखा या लघु आचार्यशाखा की स्थापना हुई। इस परम्परा में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की विभिन्न शिष्य सन्तति (महो० समयसुन्दर, वाचनाचार्य पुण्यप्रधान आदि) के अनेक गीतार्थ साधु भी इनकी आज्ञा से आ गये। यही कारण है कि वाचनाचार्य पुण्यप्रधान की परम्परा आचार्य शाखा की अनुगामी हो गई, जिनमें श्रीमद् देवचन्द्र जी भी थे। ऐसा कहा जाता है कि देवचन्द्र जी को सरस्वती प्रत्यक्ष थीं। इनकी शिक्षा गुरु दीपचन्द्र जी की देख-रेख में हुई। आपने जैन आगम, महाभाष्य आदि सम्पूर्ण व्याकरण, काव्य, नाटक, ज्योतिष, १८ कोश, छन्दशास्त्र, कर्म साहित्य आदि के साथ-साथ आचार्य हरिभद्रसूरि और यशोविजय जी के सम्पूर्ण साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। विशाल अध्ययन के फलस्वरूप आपका प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी एवं मरु-गूर्जर भाषा पर असाधारण अधिकार हो गया। अपने गुरु के साथ-साथ इन्होंने मुल्तान, सिन्ध, बीकानेर, शत्रुजय, गिरनार, लिम्बडी, सूरत, खम्भात, नवानगर, अहमदाबाद, पाटन, भावनगर आदि अनेक स्थानों एवं वहाँ स्थित तीर्थों की यात्रा की। आपकी ही प्रेरणा से वि०सं० १७८० के आस-पास शत्रुजय महातीर्थ पर वहाँ जीर्णोद्वार एवं अन्य व्यवस्थाओं के लिए एक कारखाना स्थापित किया गया जो आगे चलकर आनन्द जी कल्याण जी की पेढ़ी के रूप में आज भी विद्यमान है। शत्रुजय तीर्थ एवं जीर्णोद्धार के कार्यों में आपकी लगन ऐसी थी कि अपने अंतिम समय तक आप शत्रुजय, गिरनार, लिम्बडी, सूरत, खम्भात, नवानगर, अहमदाबाद आदि क्षेत्रों में ही विचरे। वि०सं० १७७७ में आपने क्रियोद्धार किया और इसी के पश्चात् अहमदाबाद स्थित शांतिनाथ पोल के भूमिगृह से सहस्रफणा पार्श्वनाथ आदि विभिन्न जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करायी। वि०सं० १८०८ में आपके उपदेश से शत्रुजय की यात्रा हेतु एक संघ भी निकला था। आपकी प्रेरणा से लिम्बडी, खम्भात, बढवाण, शत्रुजय आदि अनेक स्थानों पर चैत्यों का निर्माण हुआ एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठायें हुईं। वि०सं० १९१२ में अहमदाबाद में आपका निधन हुआ। यहाँ हरिपुरा के मंदिर के मुख्य द्वार के सामने स्थित उपाश्रय में आपके चरण स्थापित हैं। श्रीमद् देवचन्द्र द्रव्यानुयोग के विशेष ज्ञाता और आत्मसाधक योगी थे। गच्छ कदाग्रह से पूर्ण रूप से मुक्त थे। मुक्त हृदय से विद्यादान देते थे। उस समय के साधुओं में प्रखर विद्वान् माने जाने वाले श्री जिनविजय जी, उत्तमविजय जी तथा विवेकविजय जी ने श्रीमद् के पास भक्तिपूर्वक विशेषावश्यक महाभाष्यादि गहन शास्त्रों का अध्ययन किया था। श्री उत्तमविजय जी ने श्री जिनविजय निर्वाण रास में उल्लेख किया है : "महाभाष्य अमृत लह्यो, देवचन्द्र गणी पास।" श्रीमद् देवचन्द्र द्वारा रचित साहित्य को विषय के अनुसार ४ भागों में बाँटा जा सकता है संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३०७) _ 2010_04 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. दार्शनिक साहित्य २. भक्ति साहित्य ३. चरित्र प्रधान साहित्य ४. उपदेशपरक साहित्य द्रव्यप्रकाश, विचाररत्नसार, विचारसार सटीक, उदयस्वामित्व पंचासिका, नयचक्रसार, कर्मसम्वेधप्रकरण आदि आपके दार्शनिक ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार स्नात्रपूजा, वर्तमान जिनेन्द्र चौबीसी बालावबोध सहित, अतीत जिन चौबीसी, विहरमान जिनस्तवन बीसी, रत्नाकर पच्चीसी भावानुवादरूप विज्ञप्ति स्तवन, शत्रुजय चैत्य परिपाटी, मंगलगीत आदि ६० के लगभग भक्ति सम्बन्धी रचनायें हैं। पंचपाण्डव सज्झाय, पार्श्वनाथ गणधर सज्झाय, ढंढणऋषि सज्झाय, गजसुकुमार सज्झाय आदि कुछ चरित्र प्रधान रचनायें हैं। इसी प्रकार आप द्वारा रचित अष्ट प्रवचनमाता सज्झाय, पंचभावना सज्झाय, ध्यानी निर्ग्रन्थ सज्झाय, द्वादशांग एवं चौदह पूर्व सज्झाय, उपदेश पद, हीयाली आदि कुल २३ रचनायें हैं जो उपदेशपरक साहित्य के अन्तर्गत रखी जाती हैं। आप द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ लेख भी मिले हैं जो वि०सं० १७८४ और १७९४ के बीच के हैं। इनमें से १७८४ का एक लेख शांतिनाथ जिनालय, शांतिनाथ पोल अहमदाबाद में प्रतिष्ठापित सहस्रफणा पार्श्वनाथ की प्रतिमा का है तथा शेष लेख शत्रुजय के हैं। (३०८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. श्री जिनरंगसूरि शाखा आचार्य जिनराजसूरि (द्वितीय) के पश्चात् पुनः शाखा भेद हुआ। श्री जिनराजसूरि जी ने जिनरंगसूरि को युवराज पद पर स्थापित किया था तथा जिनरत्नसूरि जी को अंतिमावस्था में पाटण में अपने पट्ट पर स्थापित किया था, जिनरंगसूरि से यह शाखा पृथक् हो गई। १. जिनरंगसूरि ७. जिननन्दिवर्द्धनसूरि २. जिनचन्द्रसूरि ८. जिनजयशेखरसूरि ३. जिनविमलसूरि ९. जिनकल्याणसूरि ४. जिनललितसूरि १०. जिनचन्द्रसूरि ५. जिनाक्षयसूरि ११. जिनरत्नसूरि ६. जिनचंद्रसूरि १२. जिनविजयसेनसूरि (१. श्री जिनरंग सूरि आचार्य जिनराजसूरि के पाट पर आप बैठे। आपका जन्म सं० १६६४१ भाद्रपद सुदि ५ को डीडवाणा निवासी सिंघड़ गोत्रीय श्रीमाल साह सांकरसी की धर्मपत्नी सिन्दूरी की रत्नकुक्षि से हुआ। जन्म नाम रंगलाल था। आपके एक बहिन थी, जिसका नाम केशरी था। वि०सं० १६७८ में दोनों भाई बहिन ने फागुण वदि ७ को जैसलमेर में दीक्षा ग्रहण की। आपका नाम रंगविजय एवं बहिन का नाम कीर्तिविजया प्रसिद्ध किया गया। सं० १६८८ में आपको पाठक पद से अलंकृत किया गया। सं० १६९१ में जिनराजसूरि जी ने इन्हें युवराज पद पर बीकानेर में स्थापित किया। गुरु महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् सं० १७०१ ज्येष्ठ सुदि ५ को अजमेर में श्री गोविन्दसूरि जी ने संघ कृत महोत्सव पूर्वक आपकी पद स्थापना की। बाफणा गोत्रीय गौरा और नानालाल जी तथा कसाजीत मेहता ने इस महोत्सव में बारह हजार रुपये व्यय किए। मालपुरा पधार कर दादा जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा छतरी में करवाई तथा तालाब के किनारे ऋषभदेव स्वामी के चरण एवं ऊपर की ओर चार-चरण हैं जो उपाध्याय रंगविजय जी के नाम से विख्यात हैं। उदयपुर के कटारिया मेहता भागचंद बच्छावत और मेहता रूपचंद के अतिशय आग्रह से उदयपुर पधारे वहाँ ८८ जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी। ___ इसके बाद पाठक श्रीसार, महिमासार, भुवनकीर्ति आदि मुनिपुङ्गवों के साथ दिल्ली पधारे। आपके अलौकिक गुणों से चमत्कृत होकर शाहंशाह औरंगजेब (? दाराशिकोह) ने शाही फरमान द्वारा युगप्रधान पद से अलंकृत किया। इस अवसर पर भांडिया गोत्रीय श्रीमाल राय निहालचंद आदि श्रेष्ठि १. सं० १६६९ भा०सु० १४ । २. राजलदेसर ३. गोरसी (३०९) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ ने महोत्सव का आयोजन किया । वहाँ से आप अजमेर पधारे। संघ सहित शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा करते हुए स्तंभन पार्श्वनाथ के यात्रार्थ खंभात जाने के लिए जहाज पर आरूढ़ हुए। दैवयोग से नीचे का तख्ता फट जाने से जहाज में शनैः शनैः पानी भरने लगा। जहाज के सभी यात्री और श्रावक संघ त्राहि-त्राहि पुकारने लगे। उस समय आप सब को सांत्वना देकर दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के ध्यान में तल्लीन हो गए। थोड़ी देर में वहाँ एक अन्य जहाज आकर उपस्थित हो गया जिस पर सब लोग सावधानी से बैठ गए। गुरुदेव की कृपा से निर्विघ्न समुद्र पार होने के पश्चात् वह जहाज अन्तर्धान हो गया। इससे चमत्कृत होकर सब लोग गुरुदेव का जय जयकार करने लगे । आप सब शस्त्रों के पारगामी विद्वान् थे । शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को पराजित किया था । गुजरात से दिल्ली पधारने पर आज्ञानुवर्ती श्रीसार पाठक ने स्वयं को "महोपाध्याय" पद प्रदान करने की प्रार्थना की, किन्तु आपके अस्वीकार करने पर श्रीसारीयशाखा का पृथक आविर्भाव हुआ। तदनन्तर विहार कर आप आगरा पधारे। सं० १७५८ आषाढ़ शुक्ला ५ को तीन दिन का अनशन कर आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को स्वर्ग सिधारे । | कवि कमलरत्न ने सं० १७१० में मालपुरा में इन्हें युगप्रधान पद पर स्थापित होना लिखा है (ऐ०जै०का०सं० पृष्ठ २२३)। २. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आप बाफणा गोत्रीय शाह जयतसी की धर्मपत्नी लक्ष्मी देवी की रत्नकुक्षि से उत्पन्न हुए। आपका जन्म नाम क्षेमचन्द्र और दीक्षा नाम क्षेमकीर्ति था । सं० १७५८ श्रावण वदि दशमी के दिन आगरा में रावत, पाठक, श्रीमाल ओसवाल आदि गोत्रीय संघ के प्रमुख सज्जनों द्वारा विहित महोत्सव में आपका पट्टाभिषेक हुआ। मालपुरा निवासी संखवालेचागोत्रीय शाह पंचायणदास के निकाले हुए संघ के साथ श्री शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करके जोधपुर, मेड़ता, नागौर, अजमेर, चंपावती, सांगानेर, झुंझनू आदि नगरों में क्रमशः विहार करते हुए जोबनेर पधारे और भांडियागोत्रीय शाह मलूकचंद कारित नूतन मन्दिर में चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा कराई। सं० १७८३ में पटना में आपने श्री जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। आपने अनेक प्रान्तों में विचरण कर महती धर्म प्रभावना की । दिल्ली में आपका स्वर्गवास हुआ। ३. आचार्य श्री जिनविमलसूरि श्रीमाल पारसाणगोत्रीय शाह वखतसिंह आपके पिताश्री और मुनिया देवी आपकी माता थीं। आपका जन्म नाम विथीचन्द और दीक्षा नाम विमललाभ हुआ । सं० १७८९ आषाढ़ सुदि २ को संघ के अग्रगण्य श्रीमाल भांडियागोत्रीय श्री वसन्तराय, नारायणदास, भगवतीदास आदि (३१०) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनों द्वारा कारित महोत्सव द्वारा दिल्ली प्रान्तान्तर्गत शाहजहानाबाद में आपने दीक्षा ग्रहण की। आचार्य भट्टारक पद प्राप्त कर आप उदयपुर पधारे। राजसभा के सम्मान्य सदस्य और गुरुदेव के अनन्य भक्त बच्छावत मेहता रूपसी की प्रेरणा से तत्कालीन महाराणा जगतसिंह जी बड़े समारोह और राजसी सवारी के साथ आपश्री के दर्शनार्थ पधारे। आपका शास्त्रज्ञान, अद्भुत प्रतिभा तथा सिद्धिजनित चमत्कारों को देखकर महाराणा जी आश्चर्यान्वित हुए और आपश्री को युगप्रधान पद से विभूषित किया। आपने सिद्धाचल आदि अनेक तीर्थों की यात्रा की। पाठक लब्धोदय, लब्धिसागर आदि बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा सेवित गुरुदेव ने देश-विदेश में विचरण करके धर्म का अत्यधिक प्रचार किया, अन्त में दो पहर का अनशन पूर्वक दिल्ली में आपका स्वर्गवास हुआ। (४. आचार्य श्री जिनललितसूरि) आपके पिता का नाम बोथरा गोत्रीय शाह सांवतसी और माता का नाम रूपा देवी था। आपका जन्म नाम लखजी और दीक्षा का नाम ललितसमुद्र था। सं० १७९३ मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया के दिन दिल्ली में गुरुदेव ने स्वयं आचार्य पद प्रदान किया। बोरबड़ी निवासी बोथरा गोत्रीय शाह ताराचंद, फतहचन्द ने बड़े उत्साह और धूमधाम से पद महोत्सव किया। सं० १७९४ मार्गशीर्ष कृष्णा १ को आपने स्वयं अपने सुयोग्य शिष्य अक्षयसमुद्र जी को आचार्यत्व प्रदान कर दिया। आप परम उज्ज्वल क्रियावान, विद्वान् और आडंबर शून्य महात्मा थे। सं० १७९६ फाल्गुन कृष्णा २ को आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय भूगर्भ (पाताल) में बाजे-बजने लगे, जिन्हें श्रवण कर जनता ने महाराज श्री के प्रभाव को और अधिक जाना। (५. आचार्य श्री जिनाक्षयसूरि वागस्थल निवासी नावेड़ा गोत्रीय शाह शंभूराम की धर्मपत्नी सरूपा देवी की कुक्षि से आपका जन्म हुआ। जन्म नाम अक्षयचंद और दीक्षा नाम अक्षयसमुद्र था। सं० १७९६ फागुण सुदि २ के दिन बोथरा गोत्रीय राजमंत्री श्री इन्द्रभान कृत महोत्सव द्वारा कृष्णगढ़ में आचार्यत्व प्राप्त हुआ। खरतरगच्छ के श्री जिनचन्द्रसूरि ने आपको सूरि मंत्र दिया। तदनन्तर दिल्ली प्रान्तीय आना ग्राम की ओर विहार किया और क्रमशः अनूपशहर, शाहजहाँपुर आदि नगरों को पवित्र करते हुए श्री वामनाचार्य, आशानंद आदि मुनियों के साथ उदयपुर (मेवाड़) पधारे। देवीदास आदि संघ के प्रधान नेताओं ने बड़ी श्रद्धा और आग्रह से आपका चातुर्मास कराया, जिससे सत्संग, धर्म ध्यान और सदुपदेशों से जनता को अमित लाभ की प्राप्ति हुई। वहाँ से विहार कर पाठक मानविजय, वीरचन्द, प्रेमधीर आदि १. आजकल शाहबाद नाम से प्रसिद्ध है जो गाजियाबाद और शाहदरा के बीच में अवस्थित है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३११) 2010_04 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों के साथ शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा करते हुए कृष्णगढ़ पधारे और वहीं पर सं० १८४५ आश्विन शुक्ला त्रयोदशी को अपने शिष्य प्रेमचंद को सूरिमंत्र देकर एक दिन के अनशनपूर्वक देवलोक पधारे। आपके शासन- समय में सं० १८३१ को किसी आर्या ने महातीर्थ पावापुरी में श्री जिनराजसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई थी । ६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि आपका जन्म मेवाड़ प्रान्तीय पुरमण्डल गाँव में खाबियागोत्रीय साह दुलीचंद की धर्मपत्नी लाजमदेवी की कुक्षि से हुआ था । आपका जन्म नाम प्रेमराज तथा दीक्षा नाम प्रेमचन्द था । सं० १८४३ मार्गशीर्ष सुदि २ के दिन आप दीक्षित हुए। सं० १८४५ आश्विन शुक्ला १३ को श्री गुरुदेव ने स्वयं आपको सूरिमंत्र दिया था । सं० १८४५ माघ सुदि १ को जयपुर तथा दिल्ली निवासी श्रीमाल सांघीयाणगोत्रीय श्री नथमल जी एवं जूनीवालगोत्रीय श्रीचन्द्र आदि संघ नेताओं ने महामहोत्सव किया । तदनन्तर पाठक वादीन्द्र सवाईविजय, वाचनाचार्य जयकुमार आदि मुनियों सहित भरतपुर पधारे। वहाँ सीरिया ग्राम के श्रद्धालु श्रावकों ने बड़े हर्ष तथा समारोह से स्वागतोत्सव किया । वहाँ से प्रस्थान करके आगरा होकर पूर्व देश में विचरण करते हुए लखनऊ पधारे। नाहटागोत्रीय राजा वच्छराज जी, चण्डालियागोत्रीय वसन्तराय श्रीमाल, भांडियागोत्रीय हकीम देवीदास और टांकगोत्रीय भूपतिराय आदि संघ सहित सज्जनों ने बड़े धूम-धाम से आपका वहाँ नगर प्रवेशोत्सव कराया । तदनन्तर आपने अयोध्या, काशी, चन्द्रावती, पटना, चम्पापुर, बिहार, मकसूदाबाद, सम्मेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, मिथिला, दुतारा पार्श्वनाथ, क्षत्रियकुण्ड, काकन्दी आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की। कृष्णगढ़ में संघ द्वारा निर्मापित श्रीजिनकुशलसूरि जी के स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। वहाँ अपने पक्ष के विद्वानों से किसी विषय पर शास्त्रार्थ हो गया और उसमें आपकी विजय हुई। तत्कालीन कृष्णगढ़ नरेश ने आपका बड़ा सम्मान किया। वहाँ से आप संखवालेचागोत्रीय महमीया रूढमल, अनूपचन्द, मूलचन्द आदि की प्रार्थना और आग्रह से अजमेर पधारे। वहाँ किसी दिन रात्रि को घोर वृष्टि होने के कारण सारी जनता त्रस्त हो उठी, तालाबों के पाल टूट जाने की संभावना उपस्थित हो गई। तब आपने दयार्द्र होकर, जनता को सान्त्वना देते हुए, इष्ट देव का स्मरण करके तत्काल उस उपद्रव को शान्त कर दिया, जिससे जनता का संकट दूर हुआ । तदनन्तर लूणियागोत्रीय त्रिलोकचन्द और गिडियागोत्रीय राजाराम के संघ के साथ शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा की। फिर क्रमशः कृष्णगढ़, सरवाड़, रूपनगर, पचेवड़ा होकर जयपुर पधारे और सं० १८६९ फाल्गुन शुक्ला तृतीया भृगुवार को समस्त संघ कारित श्री महावीर स्वामी आदि ७२ गुरुदेवों के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। फिर पाठक मतिकुमार आदि मुनियों के साथ कन्नौज, वसीह आदि नगरों में विचरण करते हुए दादरी नगर गए। वहाँ पर लघुज्ञातीय श्रीमाल चरनाडालिया ( चंडालिया) गोत्रीय जीतसिंह, फतहसिंह आदि ने बड़े समारोह पूर्वक आपका स्वागत महोत्सव किया । तदनन्तर दिल्ली पधारे उस समय लाहौर निवासी (३१२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखवालेचागोत्रीय माणकचन्द ने स्वपुत्र ताराचन्द जोरामल आदि संघ के साथ भारी स्वागतोत्सव द्वारा आपका नगर प्रवेश कराया। आपश्री ने बुद्धिबल से बहुत से पथभ्रष्ट श्रावकों को सन्मार्ग दिखाया। आपने वहाँ नूतन मन्दिर के निर्माण का विचार किया, किन्तु यवनों के आधिक्य से इस कार्य का सम्पन्न होना कठिन जानकर आपश्री ने अष्टम तप के प्रभाव से नवाब को प्रभावित किया और स्वयं उस (नवाब) की प्रार्थना से उपासना के लिए वहाँ नवीन उपाश्रय स्थान-मंदिर बनाया। शनैः शनैः यवन बस्ती भी वहाँ न्यून हो गई। वही स्थान अभी भी "यतिजी का छत्ता" नाम से प्रख्यात है। तदनन्तर पुनः दिल्ली विहार के प्रसंग से हजारी भांडिया, नथमल आदि के संघ सहित आप हस्तिनापुर तीर्थ पधारे। जब आप दिल्ली के समीपवर्ती माकड़ी गाँव में प्रविष्ट हुए तब वहाँ के श्रीमाल सिंघड़ गोत्रीय गुलाबराय प्रमुख समस्तसंघ ने उत्साहपूर्वक नगर प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से अनूपशहर होते हुए फर्रुखाबाद पधार कर मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। तदनंतर विहार क्रम से लखनऊ पधारे। वहाँ के भांडियागोत्रीय मुकीम देवीदास, पहलावतगोत्रीय महानंद नौबतराय, महिमवालगोत्रीय सदासुख, जागागोत्रीय मन्नूलाल आदि श्री संघ ने आपके पधारने का महोत्सव मनाया। सं० १८७२ में श्री सम्मेतशिखरजी पधार कर श्री पार्श्वनाथ भगवान् की बड़ी टोंक तथा अन्य कई टोंकों की प्रतिष्ठा कराई। पुनः वापस लखनऊ पधार कर माघ सुदि ५ को सुंधी टोला में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। सं० १८७८ माघ शुक्ला १३ गुरुवार को ३९ बिम्बों तथा मन्दिर के शिखर व कलश की प्रतिष्ठा कराई। इन उभय प्रतिष्ठा कार्य में बाईस हजार रुपये व्यय हुए। इसके बाद लखनऊ के संघ के साथ अयोध्या तीर्थ की यात्रा करके बंगाल में पदार्पण कर नखतगोत्रीय वखतमल शाह के बनवाये हुए श्रीजिनकुशलसूरि के स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। वहाँ से पुनः लखनऊ आकर नाहरगोत्रीय मुकीम विरदीचन्द जी के दिए हुए नगर के निकटवर्ती उद्यान में संघ कारित श्रीजिनकुशलसूरि जी के स्तूप की सं० १८८९ में आपने प्रतिष्ठा कराई। आप अपनी योग्यता, प्रतिभा और कार्यपरायणता के कारण भट्टारक, बृहद्भट्टारक, गणाधिप, संवेग रंगाङ्गनिमग्नगात्र, महातेजस्वी, महामुनि, महात्मा आदि उपाधियों द्वारा समलंकृत थे। मुनिराज चारित्रोदय आपके चरण सेवक थे। इस प्रकार धर्म तथा शासन का प्रचार करके सं० १८९० ज्येष्ठ सुदि ८ को दो दिन के अनशन पूर्वक आप लखनऊ में स्वर्गवासी हुए। (७. आचार्य श्री जिननन्दिवर्द्धनसरि इनके जन्म दीक्षा आदि का परिचय सम्यक् उपलब्ध नहीं है। सं० १९०४ माघ सुदि १२ को आपने कम्पिलाजी में श्री विमलनाथ स्वामी का नवीन मन्दिर बनवा कर, उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के चारों कल्याणकनियत करके तीर्थ स्थापना की तथा वेदी की प्रतिष्ठा कराई। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३१३) ___Jain Education international 2010_04 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९०६ पौष वदि ८ और सं० १९१० फागुन वदि २ में जयपुर की दादावाड़ी में श्री पार्श्वनाथ, श्री महावीर तथा श्री ऋषभदेव की वेदी प्रतिष्ठा एवं दादा श्रीजिनकुशलसूरि के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। आपने झुंझनूं में श्री पार्श्वनाथ, शांतिनाथ, ऋषभदेव और महावीर स्वामी की प्रतिमा की वेदी प्रतिष्ठा कराई। महावीर स्वामी की यह प्रतिमा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भूगर्भ से उपलब्ध हुई थी जो सं० ११११ की प्रतिष्ठित थी। ___सं० १८९२ में आपने जल मन्दिर, पावापुरी में श्री गौतम स्वामी और सुधर्मा स्वामी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। आपके काल में श्री रंगसूरिशाखीय यतिनीवर्या महत्तरा विजया के चरण चिह्नों की प्रतिष्ठा उन्हीं की शिष्या श्री रूपविजया जी ने पावापुरी ग्राम मन्दिर में करवाई। सं० १८९५ वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन सांगानेर में आपने आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी के चरण चिह्न जो श्री चारित्रोदय के उपदेशानुसार जयपुरीय श्री संघ द्वारा दादाबाड़ी में स्थापित किए गए थे-की प्रतिष्ठा कराई। __ आप श्री के उपदेश से हस्तिनापुर का संघ निकला, जिसमें कई स्थानों के श्रावक-श्राविका संघ सम्मिलित थे। सं० १९१३ में लखनऊ में आपका स्वर्गवास हुआ। जौहरी बाग में अग्नि संस्कार स्थान में भव्य स्तूप बना हुआ है। ८. आचार्य श्री जिनजयशेखरसूरि . आपका जन्म ओसवाल वंश में हुआ था। आपने सं० १९१३ आश्विन सुदि १३ को लखनऊ में पदारूढ़ होकर दादा गुरु श्री जिनकुशलसुरि के चरणों का जीर्णोद्धार करवा कर पुनः प्रतिष्ठा कराई और साथ ही निज गुरु श्री जिननन्दीवर्द्धनसूरि और दादा गुरु श्री जिनकुशलसूरि के स्मारक स्तूप बनवाकर चरणों की प्रतिष्ठा कराई। (९. आचार्य श्री जिनकल्याणसूरि ) आपका जन्म लखनऊ में ओसवाल वंशीय पहलावत गोत्र में हुआ। आपके वंशज आज भी लखनऊ में हैं। आपका मूल नाम कल्याणचन्द्र था। तरुणावस्था में आपकी इच्छा न होने पर भी माता-पिता ने आपका विवाह कर दिया, किन्तु अनुकूल अवसर पाते ही गृहस्थ बंधन की बेड़ी काट कर आप पावापुरी चले गए। वीर भगवान् के सामने स्वमेव चारित्र ग्रहण कर, यति-वेष धारण कर ध्यानावस्थित रहने लगे। इधर श्री जिनजयशेखरसूरि महाराज के स्वर्गारोहण के पश्चात संघ को आचार्य - (३१४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदोपयोगी कोई योग्य व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं हुआ, अन्ततोगत्वा सबका ध्यान कल्याणचन्द्र जी महाराज पर गया। संघ के अत्यन्त अनुनय-विनय तथा आग्रह के आगे इच्छा न होने पर भी केवल लोककल्याण कामना से आप श्री संघ सहित लखनऊ आए और वहीं पर आपका पाट महोत्सव बड़े धूमधाम से वि०सं० १९१५ फाल्गुन सुदि ५ को सम्पन्न हुआ। तदनन्तर आपने झुंझनूं, चिडावा, बहरोड़, अलवर, जयपुर, दिल्ली आदि अनेक नगरों में चातुर्मास करते हुए सं० १९२१ में हस्तिनापुर तीर्थ पर कलकत्ता निवासी श्री प्रतापचंद जी पारसान के बनवाये हए मन्दिर में श्री शांतिनाथ स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि जी तथा श्री जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९२२ में कलकत्ता में रायबहादुर बद्रीदासजी के निर्माण कराये हुए विश्वविश्रुत शीतलनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा कराई। बाबू बद्रीदासजी को सम्पत्तिशाली बनाने वाले चरित्रनायक आचार्य प्रवर ही थे। वहीं मन्दिर के उद्यान में प्रतिष्ठाकारक आचार्यश्री की और उनके साथ ही निर्माणकर्ता तथा उनके पितामह की प्रतिमाएँ एक भव्य स्तूप-देवगृह में विराजमान हैं, जिनकी वेदी प्रतिष्ठा आचार्य जी के प्रशिष्य जिनरत्नसूरि जी ने कराई। गाँव मन्दिर पावापुरी में प्रवेश करते ही बायें हाथ की ओर श्री जिनकल्याणसूरि जी का तत्कालीन भव्य उपाश्रय अब भी विद्यमान है। आपश्री कल्याण मूर्ति थे। परिग्रह से सदा ही नि:स्पृह रहे। इनके जीवन में यह श्लाघनीय गुण था। आचार्यश्री कलकत्ता से विहार करते हुए कानपुर पधारे। वहाँ पर भी बाबू सन्तोषचन्द्रजी भण्डारी के पूर्वजों द्वारा निर्मापित शीशे का मन्दिर नाम से विख्यात मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। आपका स्वर्गवास वि०सं० १९३७ में दिल्ली में हुआ, जिसका स्मृति स्तूप छोटे दादा गुरु के स्थान (साउथ एक्स्टेंशन) पर है, जहाँ आपका अग्नि संस्कार सम्पन्न हुआ था। (१०. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ) आपका प्रारंभिक जीवनवृत्त अनुपलब्ध है। सं० १९३६ में आपका आचार्यश्री जिनकल्याणसूरि जी के पट्ट पर अभिषेक हुआ। आप सभी शास्त्रों के उद्भट विद्वान्, तांत्रिक और निर्भीक धर्म प्रचारक आचार्य थे। आपने बनारस पधार कर यहाँ के विद्वानों को शास्त्रार्थ में सन्तुष्ट और चकित किया और पाँच-पाँच रुपये तथा शिरोवेष्टन प्रदान करा कर उनका सम्मान किया। आपका तपोबल भी चमत्कारपूर्ण था। एक बार कलकत्ता में सेठ बद्रीदासजी की भक्ति श्रद्धा से प्रसन्न होकर उनके हाथ से आपने किसी गुप्त सुरक्षित स्थान पर कुछ रुपये भूमि में गड़वा कर तीन दिन तक सिद्धमंत्र प्रयोग किया। तीसरे दिन देखने पर रुपयों के बदले मंत्र द्वारा विलायत से मंगाई हुई नीलम की टुकड़ी दिखाई दी। सेठ जी की वंश परम्परा में जब तक वह . नीलम खण्ड रहा, तब तक अटूट सम्पत्ति और शारीरिक सुख परिवार में रहता रहा। इसी प्रकार दिल्ली में आपके नगर प्रवेश महोत्सव के अवसर पर अति निर्धन, किन्तु परम श्रद्धालु संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३१५) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू रामचन्द्र हजारीमल पर दयार्द्र होकर आपने मंत्र द्वारा मणि-खण्ड मंगवाकर इनको भी प्रदान किया, जिसके प्रभाव से वे समृद्धिशाली और सुखी हुए तथा आपश्री के चरणों में समर्पित होकर जिनरंगसूरि गद्दी के अनुयायी हो गए। अनारकली में अब भी उनका चैत्यालय विद्यमान है। इस प्रकार आप अत्यधिक धर्म प्रभावना करके सं० १९४१ ज्येष्ठ माह में अजीमगंज में स्वर्गवासी हुए। (११. आचार्य श्री जिनरत्नसूरि आपका जन्म सं० १९२७ में सोजत में ओसवाल वंश के बोहरा गोत्र में हुआ था। आपके पिता का नाम दीपचंद और माता का नाम तारा देवी था। अजीमगंज में श्रीपूज्यजी का स्वर्गवास हो जाने से श्री संघ ने आपको दीक्षित कर पदारूढ़ करने का निश्चय किया। तदनुसार सं० १९४१ ज्येष्ठ शुक्ला को दीक्षा ग्रहण करा कर दूसरे दिन तृतीया को आचार्य पद प्रदान किया। सं० १९५२ में आपने कलकत्ता में कपूरचंद जौहरी कारित मंदिर में चन्द्रप्रभ भगवान् की वेदी की प्रतिष्ठा कराई। उसी समय राय बद्रीदास के बनवाये हुए मन्दिर के प्रतिष्ठापक अपने दादागुरु श्री जिनकल्याणसूरि जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा और वेदी प्रतिष्ठा भी कराई। सं० १९५६ ज्येष्ठ वदि ३ को जयपुर के श्रीमाल उपाश्रय में नूतन मन्दिर बनवा कर श्री पार्श्वनाथ स्वामी की वेदी प्रतिष्ठा कराई। सं० १९६४ में आपने चिड़ावा (जयपुर) में मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९७२ में कलकत्ता में चातुर्मास किया और पोशाल का निर्माण कराया जो अब भी जिनरंगसूरिपोशाल के नाम से ३१ ए, बांसतल्ला लेन, कलकत्ता में भव्य भवन के रूप में विद्यमान है। सं० १९७४ में आपने बहरोड़ गाँव में मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९८२ में कलकत्ता के बड़े मन्दिर में इन्द्रचंद जी पारसान के द्रव्य से श्री मुनिसुव्रत स्वामी की वेदी प्रतिष्ठा कराई। सं० १९८६ आषाढ़ सुदि ६ को मोठ की मस्जिद, दिल्ली के समीपस्थ छोटे दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के स्थान पर नवीन मन्दिर का निर्माण कराके भूगर्भ से निर्गत श्री नेमिनाथ स्वामी की वेदी प्रतिष्ठा कराई। सं० १९९० में मेहरौली के समीप बड़े दादागुरु मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि जी के स्थान पर आपने मन्दिर का शिलान्यास कराया। इसकी प्रतिष्ठा आपके स्वर्गवास के पश्चात् यतिवर्य सूर्यमल जी, यतिप्रवर श्री रतनलाल जी आदि ने सं० १९९३ में वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन कराई। इस प्रकार आचार्योचित, निखिल गुणाकर, भाग्यशाली, महाप्रतापी महात्मा श्री जिनरत्नसूरि जी का ५४ वर्ष पर्यन्त आर्चायत्व पालन करके सं० १९९२ वैशाख वदि १४ को दिन के ३ बजे स्वर्गवास हुआ। आपकी समाधि लखनऊ में बनी हुई है। (३१६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. आचार्य श्री जिनविजयसेनसूरि श्री जिनरत्नसूर के पद पर जिनविजयसेनसूरि हुए। इनका जन्म उदयपुर (मेवाड़) के ओसवाल वंश में हुआ। पिता का नाम हरषचंद और माता का नाम रूपा देवी था । छः वर्ष की अवस्था में गणेशलाल जी वैराटी की प्रेरणा से माता-पिता ने इन्हें समर्पित कर दिया। वैराटी जी के यहाँ लालनपालन और यतिवर्य सूर्यमल जी के सान्निध्य से शिक्षा-दीक्षा संपन्न हुई । मूल नाम मोतीलाल था । सं० १९९९ वै० शुक्ला ५ को दीक्षा और दो दिन बाद ही ७ को पदाभिषेक हुआ। श्री जिनविजयसेनसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए। अजमेर यात्रा के पश्चात् पहला चौमासा दिल्ली कर चार चातुर्मास जयपुर किया । सं० २००३ आषाढ़ सुदि १० को मालपुरा में ध्वज दण्ड और दादाजी की छत्री की प्रतिष्ठा करवाई | दिनांक ४ दिसम्बर १९५४ को भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु से भेंट कर सम्राट अकबर और जहांगीर आदि द्वारा आपके पूर्वजों को प्रदत्त ऐतिहासिक फरमान पत्र दिखाए। सं० २०१२ फागुन सुदि ५ को श्रीपूज्य जिनधरणेन्द्रसूरि जी और जिनविजयेन्द्रसूरि जी के साथ सम्मिलित प्रयास से अखिल भारतीय जैन यति परिषद् की स्थापना की । आपने कम्पिलपुर तीर्थ में श्री नन्दीवर्द्धनसूरि जी 'उपदेश से बने श्री विमलनाथ जिनालय का जीर्णोद्धार श्री मिठूमल जी के पुत्र जवाहरलाल जी राक्यान के प्रयत्न से चालू कराया और वहाँ चैत्र कृष्णा से मेला, यात्रा महोत्सव आदि प्रारंभ कराये । आपने हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह श्री जिनदत्त सूरि सेवा संघ, अजमेर को समर्पण कर दिया जो इस समय अजमेर दादाबाड़ी में रखा हुआ है। कई वर्ष पूर्व आपके लखनऊ गद्दी से पृथक् हो जाने से इस परम्परा में कोई यति नहीं रहा । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 蛋蛋蛋 (३१७) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. मण्डोवरा शाखा आचार्य जिनहर्षसूरि के आकस्मिक स्वर्गवास से उत्तराधिकारी के लिए पारस्परिक विभेद हो गया। इसी बीच मुक्तिशील जी को पाट बैठा दिया गया जो जिनमहेन्द्रसूरि नाम से विख्यात हुए। प्रथम पक्ष में जोधपुर नरेश व जैसलमेर के पटवा सेठ थे, दूसरी और बीकानेर नरेश व गच्छ के कतिपय वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध यतिजन थे। उन्होंने जिनसौभाग्यसूरि को बैठाया जो बीकानेर गद्दी के मान्य हुए। सं० १८९२ में मण्डोवर (जोधपुर) से यह शाखा उत्पन्न हुई, इसलिए वह मण्डोवरा नाम से विख्यात है। इसके आद्य आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि हैं। १. जिनमहेन्द्रसूरि २. जिनमुक्तिसूरि ३. जिनचन्द्रसूरि ४. जिनधरणेन्द्रसूरि (१. आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि) सं० १८६७ में अलाय (मारवाड़) ग्राम निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रुघ जी की धर्मपत्नी सुन्दर देवी की रत्नकुक्षि से आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम मनरूप जी था। सं० १८८५ वैशाख सुदि १३ को नागौर नगर में आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम मुक्तिशील' था। सं० १८९२ मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी सोमवार के दिवस प्रातः मण्डोवर महादुर्ग में श्रीसंघ तथा जोधपुर नरेश श्री मानसिंह जी कृत महोत्सव द्वारा शुभ लग्न में ५०० साधु-यतिजनों की उपस्थिति में आपका पट्टाभिषेक हुआ। वहाँ से विहार करके पल्लिका (पाली) पधारे। ___ जैसलमेर के बाफणा गोत्रीय शाह बहादरमल, सवाईराम, मगनीराम, जोरावरमल, प्रतापमल, दानमल आदि ने सपरिवार आपश्री के उपदेश से आपके साथ शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा कर जन्म सफल करने का निश्चय किया। माघ सुदि १० को विजय मुहूर्त में पाली में आकर एकत्र हुए संघ के समक्ष बड़े महोत्सव के साथ धर्मपत्नी सह श्रेष्ठि दानमल जी को संघपति पद प्रदान किया। कोटा नरेश, बूंदी नरेश की ओर से फौज-पलटन, तोपों के जोड़े आदि सब साथ थे और दोनों ही नरेश साथ में यात्रार्थ पधारे थे। आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी की उपस्थिति में लोंका (पंजाबी) गच्छीय श्रीपूज्य रामचन्द्र जी, अंचलगच्छीय श्रीपूज्य जी, तपागच्छीय श्रीपूज्य जी, आचार्जीया श्री पूज्य कीर्तिसूरि, पीपलिया श्रीपूज्य जी, भावहर्षीया श्रीपूज्य जिनपद्मसूरि आदि सात श्रीपूज्य तथा दिगम्बर भट्टारक अनंतकीर्ति जी आदि सब ७०० साधु यति थे। यह संख्या प्रारंभिक है। आगे जाकर ११ श्रीपूज्य और साधु-साध्वियों की १. ये जिनसुखसूरि शाखा के पं० मुक्तिसागर के शिष्य थे, जिन्हें सं० १८८८ अक्षय तृतीया को जिनहर्षसूरि ने अपना दत्तक शिष्य बनाया। दफ्तर बही के अनुसार इनकी दीक्षा सं० १८८३ मिगसर वदि २ को बीकानेर में हुई थी। "शील" नंदी इसी समय की है। जिनहर्षसूरि ने सं० १८८४ में "माणिक्य" नंदी और १८८६ में "राज" नंदी स्थापित की थी। (३१८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या २१०० हो गई थी। इस अवसर पर आपश्री ने कइयों को पद प्रदान किया तथा संघ में आगत हजारों साधुओं-आचार्यों का विधि पूर्वक सम्मान किया। मिती फाल्गुन वदि २ को संघ सहित राजसी ठाठ से यात्रा करते हुए श्री पंचतीर्थी, आबू, तारंगा, शंखेश्वर, रैवताचल आदि अनेक तीर्थों की यात्रा करते, अनेक तीर्थों का जीर्णोद्धार कराते हुए, चैत्यों में आभरण, उपकरणादि नाना भेंट चढाते हुए, अनेक भक्ति भाव के कार्य करते हुए अमरेली नगर में ठहर कर श्री सिद्धगिरिराज की पूजा करके मणिमाणिक-रत्न आदि से वर्धापन किया । तदनंतर श्री पादलितपुर में गाजे-बाजे के साथ बड़े ठाठ से श्री जिनवन्दनार्थ पधारे। वैशाख सुदि १४ को श्री पुण्डरीक गिरि की विधिपूर्वक पूजा करके सब जिन प्रतिमाओं की भक्ति भाव से वन्दना की । नवांग पूजा की। वहाँ श्री गिरिराज पर स्थित श्री शिवा सोम शिखर पर श्रीआदि जिनमन्दिर के द्वार पर दोनों ओर गोमुख यक्ष तथा चक्रेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा बड़े उत्सवपूर्वक की। इसके पश्चात् ज्येष्ठ सुदि ५ को जिनमहेन्द्रसूरि जी की उपस्थिति में संघपति जी को बड़े समारोह के साथ संघमाला पहनाई गई। वहाँ से संघ के साथ विहार करके भावनगर आये । यहाँ से घोघा नवखण्ड पार्श्वनाथ की यात्रा की । इसी समय बम्बई के सेठ मोती शाह का वहाँ विहार कर पधारने का वीनती पत्र आने पर, वहाँ से सकुशल यात्रा कर खंभात, बड़ोदरा, भरूच आदि नगरों में विचरते हुये सूरत पधारे और संघ की प्रार्थना और आग्रह से वहीं चातुर्मास किया । वहाँ से मार्गशीर्ष द्वितीया को विहार कर बम्बई पधारे । सेठ मोती शाह ने नगर प्रवेश बड़े ठाठ से करवाया । नाहटा गोत्रीय सेठ मोतीचंद खेमचंद के आग्रह से फिर संघ सहित श्री सिद्धगिरि पधार कर मोतीवसही में इक्कीस दिन के उत्सवपूर्वक जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। इस अवसर पर तपागच्छ के दो आचार्य वहाँ प्रतिष्ठा कार्यार्थ आये हुए थे, परन्तु सं० १८९३ माघ सुदि १० के दिवस प्रतिष्ठा कार्य आपश्री के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ और फाल्गुन वदि २ को जिनबिम्बों की वेदिका से विधिपूर्वक पहाड़ पर स्थापना की और अपने करकमलों से बावन संघपतियों को माला पहनाई। इस समय संघपति ने अनेकों आचार्य और १२०० साधुओं की पूजा कर उन्हें सत्कृत किया । शत्रुंजय से विहार कर क्रमश: गिरनार, शंखेश्वर, राधनपुर, अहमदाबाद होते हुए मारवाड़ में गूढ़ा नगर में श्री जिनलाभसूरि जी के चरण पादुका की प्रतिष्ठा की। बिलाडा में अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि जी - चौथे दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की । यहाँ से चलकर बालोतरा, सिवाण होकर पाली पधारे और द्वितीय चातुर्मास यहीं किया। वहाँ से बेनातट, कापरड़ा हो कर, जैसलमेर पधारे, चातुर्मास किया । जैसलमेर के महारावल गजसिंह जी ने आपकी बहुत भक्ति की । वहाँ से उदयपुर पधार सम्मेतशिखर पट्ट की प्रतिष्ठा कराई। महाराणा स्वरूपसिंह जी ने बहुत आदर सम्मान किया। आपने मण्डोवर में श्री जिनहर्षसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की। सं० १९०१ पौष सुदि पूर्णिमा के दिन रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुये बावन जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। इस समय आपके साथ ५०० यतियों का समुदाय था । महीदपुर के बड़े संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३१९) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी आपने ही कराई थी। इस प्रकार आपके कर-कमलों से अनेक प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुए। जैसलमेर में बाफणों के ऐतिहासिक संघ में बीस लाख का व्यय हुआ था। जोधपुर नरेश और उदयपुर नरेश आपश्री के परम भक्त थे। इन दोनों नरेशों ने आपश्री को जो समय-समय पर विज्ञप्तियाँ की थीं, वे आज भी मौजूद हैं। आपने बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मालवा आदि प्रदेशों में विचरण कर हजारों प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। आपके द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथ हैं। आप बृहत्खरतरगच्छ के प्रगतिशील आचार्य थे। सं० १९१४ भाद्रपद कृष्णा ५ को मण्डोवर दुर्ग में आपका स्वर्गवास हुआ। वहाँ आपश्री का स्मारक तथा चरण विद्यमान हैं। (२. आचार्य श्री जिनमुक्तिसूरि) आचार्य जिनमुक्तिसूरि जी का जन्म सालेचा बोहरा गोत्रीय काछी बड़ौदा (मालवा) निवासी मोहता साह खेमचंद की धर्मपत्नी चमना देवी की कुक्षि से सं० १८८७ कार्तिक (फाल्गुन) कृष्णा ९ के दिन हुआ। जन्म नाम मूलचंद था। सं० १९०७ फाल्गुन सुदि ७ को सम्मेतशिखर तीर्थ में आप दीक्षित हुए। दीक्षा नाम महिमाकीर्ति था। सं० १९१५ द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ला १० चन्द्रवार को कन्या लग्न, देव मुहूर्त में श्री लक्ष्मणपुर (लखनऊ) निवासी नाहटा गोत्रीय भूप हजारीमल गाँधी सपरिवार, छुट्टनलाल प्रेमचंद आदि तथा बनारस-मिर्जापुर के श्रीसंघ द्वारा कृत नन्दि महोत्सवपूर्वक बनारस में आपकी पद स्थापना हुई। वहीं पर आपने प्रथम चातुर्मास किया। आपश्री के उपदेश से शाह चुन्नी ने गुरुदेव भट्टारक श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी के चरण स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। माधोपुर में स्तूप प्रतिष्ठा की। काशी से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए कोटा होकर बूंदी पधारे और वहाँ सं० १९२० में जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा की। अजमेर से पीसांगण में जाकर मूलनायक चिंतामणि पार्श्वनाथ को स्थापित किया। अजमेर, बुचकला, पीपाड़, कापरड़ाजी यात्रा कर नागौर होकर जोधपुर पधारे। सं० १९२१ का चातुर्मास जोधपुर किया। फिर अजमेर में दादा जिनदत्तसूरि जी की यात्रा की, रथयात्रादि उत्सव हुए। लूणिया आदि संघ ने सेवा की, गोठ रचाई। तदनन्तर आप जयपुर पधारे। जयपुरीय पटवों के मुनीम चाँदमल प्रभृति संघ ने आपका धूमधाम से नगर प्रवेश कराया। एक समय आप जैसलमेर से विहार कर फलौदी पधार रहे थे। मार्ग में पोकरण गाँव में ठाकुर कुमार वन में शिकार कर रहे थे। अहिंसा मूर्ति आपश्री के मना करने पर भी वह बंदूक चलाने लगा तो आपके तपोबल से बंदूक का मुँह बन्द हो गया और वह गोली चलाने में असमर्थ रहा। उसने पूज्यश्री को प्रणाम किया और प्रार्थना कर आग्रहपूर्वक पोकरण ले जाकर बड़ी भक्ति की। वहाँ से चांपावत फतहसिंह जी आपश्री के आशीर्वाद से जयपुर के दीवान बन गए । तब दीवान सा० ने तत्कालीन महाराज रामसिंह जी के १. दफ्तर बही में नाम मेघराज लिखा है व दीक्षा तिथि फाल्गुन सुदि १ लिखी है। (३२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे आपकी प्रशंसा की। तदनुसार महाराजा साहब ने आपश्री को राजभवन में आग्रहपूर्वक बुलाकर कोई चमत्कार दिखाने की प्रार्थना की। तब आपश्री ने स्तंभ (खंभे) द्वारा महाराजा के प्रश्नों का उत्तर दिलवाया। यह अद्भुत चमत्कार देख कर महाराजा सा० ने उपाश्रय भेंट किया और आपश्री का गुरु भाव से सम्मान करने लगे। इस प्रकार और भी अन्यान्य चमत्कारों पर मुग्ध होकर महाराजा सा० ने "ढींगारिया भीम" नामक गाँव, दुशाला, ५००/- रुपये, पाँवों में पहनने का सुवर्ण और चँवर, छत्र-पालखी आदि राजसी उपकरण भेंट किये। लवाजमे की सवारी के साथ आपश्री को उपाश्रय में पहुँचाया। सं० १९२८ में आप जोधपुर पधारे, वहाँ बड़े समारोह से नगर प्रवेश कराया गया। आपके गुण सौरभ से परिचित तत्कालीन जोधपुर नरेश तख्तसिंह जी ने आसोपा व्यास भानीराम जी द्वारा आपसे राजमहल में पधारने की प्रार्थना करवाई। तदनुकूल राजकीय सवारी के साथ लवाजमा से आपको महलों से पधराया। महाराजा श्री तख्तसिंह जी ने जोधपुर में चातुर्मास करने की बहुत प्रार्थना की, किन्तु जैसलमेर प्रतिष्ठा कराने के लिये पधारना आवश्यक था। अत: आप वहाँ चातुर्मास न कर सके और जैसलमेर पधार गये। पटवों के सुप्रसिद्ध वंशज संघवी सेठ हिम्मतराम जी ने संघ सहित आपका जैसलमेर में बड़े समारोह से सामेला किया। पटवों द्वारा निर्मित अमरसागर के मन्दिर की आपश्री ने प्रतिष्ठा कराई। संघवी जी की अत्यधिक भक्ति और श्रद्धा से आपश्री ने वहाँ छः चातुर्मास किए। सं० १९३२ में ह्रींकार यन्त्र प्रतिष्ठित किया। अमरसागर मन्दिर की सं० १९४५ की प्रशस्ति में यहाँ आपश्री द्वारा अंजनशालाका कराने, दादा साहब के चरण-प्रतिमा व जिनमहेन्द्रसूरि जी के चरण स्थापना करने तथा श्री जिनमुक्तिसूरि जी द्वारा पाँच शिष्यों को दीक्षित करने व पन्द्रह दिन तक के उत्सव का विशद वर्णन है। सं० १८९६ ज्येष्ठ सुदि २ के ६६ पंक्ति के लेख में पटवों के संघ का विस्तृत वर्णन है (जैन लेख संग्रह, भाग ३, ले० २५३०-३१) सं० १९४० में आपने ब्यावर के श्रीसंघ द्वारा बनवाये हुये मन्दिर तथा दादा साहब की पादुका की प्रतिष्ठा की। सं० १९४३ में जयपुर के बांठियों के मन्दिर की प्रतिष्ठा पायचंद गच्छ के श्रीपूज्य जी के साथ मिलकर की। संवत् १९४३ फाल्गुन सुदि ३ को आगरा निवासी जवार कंवर और राज कंवर द्वारा निर्मित आदिनाथ मन्दिर (नया मन्दिर) की प्रतिष्ठा भी पायचंद गच्छ के श्री पूज्य हेमचन्द्रसूरि के साथ आपने कराई थी। इसका वर्णन मन्दिर में लगे हुए शिलापट्ट से ज्ञात होता है। यह शिलापट्ट संवत् २००३ तक मन्दिर में लगा हुआ था, किन्तु वह आज यथास्थान दृष्टिगोचर नहीं होता है। सं० १९५२ में रतलाम में सेठ सौभाग्यमल जी, चाँदमल जी बाफना के बनवाये हुये मन्दिर की प्रतिष्ठा की और मन्दिर के पास ही दादावाड़ी में श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज की मूर्ति स्थापित की और उसके एक तरफ श्री जिनकुशलसूरि जी तथा दूसरी ओर श्री जिनचन्द्रसूरि जी की चरण पादुकाएँ विराजमान कराईं। सं० १९५५ फाल्गुन वदि ५ को आपने "आहोर" में अंजनशलाका करवाई। इस समय आप यद्यपि अत्यधिक अस्वस्थ थे, परन्तु श्रीसंघ की साग्रह प्रार्थना पर प्रतिष्ठा करने जयपुर से संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३२१) 2010_04 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहोर (मारवाड़) पधारे। वहाँ प्रतिष्ठा निर्विघ्न समाप्त हुई। सं० १९५५ फाल्गुन वदि १३ को आहोर में आपका स्वर्गवास हो गया। (३. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि) आपका गृहस्थ नाम रतनलाल था। पिता का नाम था पुरुषोत्तम और माता का नाम था चौथाबाई। जन्म सं० १९३१ पाली नगर में हुआ था। आपका गोत्र वैद मुहता था। आपकी दीक्षा सं० १९५० फाल्गुन वदि २ को हुई थी। दीक्षा नाम रत्नोदय गणि रखा गया। आपश्री जिनमुक्तिसूरि जी के पाटवी शिष्य हुए। श्री जिनमुक्तिसूरि जी महाराज का स्वर्गवास होने पर आपको जयपुर राज एवं श्रीसंघ ने सं० १९५६ वैशाख सुदि १५ को आचार्य पद दिया और जिनचन्द्रसूरि नाम रखा। जयपुर के पंचायती मंदिर में सेठ पूनमचंद जी कोठारी ने एक देहरी बनवाई उसमें प्रतिमा जी स्थापित कर आपने सं० १९५८ में प्रतिष्ठा कराई। सं० १९७६ में बाहड़मेर में श्रीसंघ के बनवाये श्री आदिनाथ स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा ज्येष्ठ सुदि ३ के दिन आपके कर-कमलों से हुई। जयपुर राज्यान्तर्गत बरखेड़ा ग्राम में एक आदीश्वर भगवान् का प्राचीन मंदिर था, परन्तु वह बहुत जीर्ण हो गया था, इसलिए जयपुर श्रीसंघ को उपदेश देकर उसका जीर्णोद्धार करवाया और सं० १९८४ के फाल्गुन सुदि २ को उसकी प्रतिष्ठा बड़े धूमधाम से करवाई। आपका स्वर्गवास सं० १९९४ भाद्रपद वदि १४ को जयपुर में हुआ। आपका दाह संस्कार स्थानीय मोहनवाड़ी में हुआ जिसके स्मृति-स्वरूप वहाँ चरणपादुका व छत्री बनी हुई है। ४. आचार्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरि) चौहटण (बाड़मेर) निवासी सेठिया गोत्रीय हमीरमल आपके पिता थे। आपका जन्म सं० १९६७ फागुन सुदि २ को हुआ। आपका जन्म नाम गणेशचन्द्र था। आपकी दीक्षा वैशाख सुदि ३ सं० १९८३ में हुई। दीक्षा नाम "धरणेन्द्र" रखा गया। आप संस्कृत साहित्य के शास्त्री रहे। सं० १९८७ में आपको आचार्य पद मिला। अपने समय में ये खरतरगच्छ में वयोवृद्ध एवं दीक्षावृद्ध श्री पूज्य जी महाराज रहे। तत्कालीन जयपुर राज्य से आपको दुशाला एव "ढींगारिया भीम" ग्राम मिला। सं० १९९९ में आपके जैसलमेर पधारने पर महारावल जवाहरसिंह जी (जैसलमेर नरेश) द्वारा स्वागत में हाथी, घोड़ा, तत्कालीन दीवान साहब एवं नगर के प्रमुख गणमान्य नागरिकों द्वारा स्वागत सामेला कराया गया था एवं जैसलमेर राज्य से सम्मान स्वरूप चाँदी की छड़ी, दुशाला एवं रोकड़ भेंट में प्राप्त हुई थी। इसी प्रकार जोधपुर राज्य में भी आपका परम्परानुसार दुशाला आदि से सत्कार किया गया। आपने फलौदी, बाड़मेर, मद्रास, बम्बई एवं सूरत आदि में चातुर्मास कर शासन की अच्छी प्रभावना (३२२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। आपके कर-कमलों से हैदराबाद (दक्षिण), मद्रास, फलौदी, जैतपुरा (अजमेर), मोहनवाड़ी (जयपुर) आदि अनेक स्थलों पर विभिन्न प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न हुईं। सांगानेर दादावाड़ी में आपके प्रयत्न से तीन श्रीपूज्यों का सम्मेलन हुआ जिससे आपकी दीर्घदर्शिता, औदार्य, सौजन्यादि गुणों का प्राकट्य हुआ। आपने अपना कोई शिष्य उत्तराधिकारी नहीं बनाया। कलकत्ता के जैन श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर की सार्द्धशताब्दी में (सं० २०२१ मा०सु० ६) आप कलकत्ता पधारे थे। सं० २०४४ में जयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। * * * महोपाध्याय उदयचन्दजी उपनाम चांणोद गुरांसा : इनका जन्म संवत् १९३५ वैशाख सुदि ३ को बड़लूट (सिरोही राज्य) में हुआ था। ये पारिख पुरोहित थे। महोपाध्याय प्राणाचार्य राज्यवैद्य उम्मेददत्त जी इनके गुरु थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा यतिवर्य श्री जवाहरलाल जी के सान्निध्य में हुई थी। ये मण्डोवराशाखा के अनुयायी थे। तत्कालीन गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें वि०सं० १९७२ में उपाध्याय पद प्रदान किया था। राजस्थान के प्रसिद्ध नाड़ी वैद्यों में इनका प्रमुख स्थान रहा है। जोधपुर राज्य के ये राज्यवैद्य थे और उस राज्य से इन्हें समय-समय पर विभिन्न सम्मान प्राप्त हुए थे। चांणोद इन्हें जागीर में प्राप्त हुआ था, इसी कारण ये चांणोद-गुरांसा कहलाते थे। ईस्वी सन् १९६८ में इनके हीरक जयन्ती के अवसर पर इनका अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुका है। कोतवाल मोतीचन्द जी : इनका बचपन का मोतीचन्द था। वि०सं० १९४३ में जयपुर में जिनमुक्तिसूरि ने आपको दीक्षा प्रदान कर मेघानन्द नाम रखा किन्तु ये जीवनभर मोतीचन्द के नाम से ही जाने गये। आप अमृतउदय के पौत्र शिष्य और पं० दयासुन्दर के शिष्य थे, जो क्षेमशाखीय थे। स्वोपार्जित सम्पत्ति का सदुपयोग टोंक रेल्वे फाटक पर जिनेश्वरदेव का मन्दिर एवं दादाबाड़ी के निर्माण में किया। दिनांक १२-१२-१९८० ईस्वी को इनका स्वर्गवास हुआ। 卐卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३२३) _ 2010_04 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ दिड्मण्डलाचार्य शाखा मूल भट्टारक परम्परागत आचार्य श्री जिनलाभसूरि जी के शिष्य उपाध्याय पदधारक श्री हीरधम जी जैन साहित्य के प्रखर विद्वान् थे । इनके शिष्य उ० कुशलचन्द्र गणि हुये और इन्हीं से यह परम्परा चली, यों यह परम्परा मण्डोवरा शाखा के अन्तर्गत है । १. कुशलचन्द्रसूरि २. राजसागरोपाध्याय ३. बालचन्द्राचार्य ४. नेमिचन्द्राचार्य ५. हीराचन्द्रसूरि १. आचार्य कुशलचन्द्रसूरि ये उपाध्याय हीरधर्म के शिष्य थे। इनका जन्म नाम कुशलचन्द्र था और दीक्षा सं० १८३५ वैशाख सुदि ८ को मौरसी में श्री जिनचन्द्रसूरि जी के कर कमलों से हुई । दीक्षा नाम कनकविजय था, पर प्रसिद्धि कुशलचन्द्र नाम से ही हुई । गुरु महाराज के साथ विचरते हुए सम्मेतशिखर महातीर्थ की यात्रा कर जब बनारस पहुँचे तो वहाँ ठहरने के लिए स्थान तक का अभाव था । बड़ी कठिनता से रामघाट ठहरे। वाराणसी में भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के च्यवन - जन्म - दीक्षा व केवलज्ञान आदि कल्याणक होने के कारण रामघाट में नूतन मन्दिर व उपाश्रय स्थापित करने का दृढ़ संकल्प किया। वाराणसीय काशी नरेश की विद्वत्सभा के अध्यक्ष श्री काष्ठ जिल्ह्वा स्वामी आपके अगाध ज्ञान की प्रशंसा सुनकर मिलने आये और सन्तुष्ट होकर स्वामीजी ने काशी नरेश के सम्मुख प्रशंसा की । काशी नरेश ने भी अपनी सभा में बुला कर आपको सत्कृत किया | योग्यता और चमत्कार से प्रभावित होकर बहुत सी वस्तुएँ भेंट भी की। आपने रामघाट पर मन्दिर का निर्माण कराया। पांचालदेशीय श्रावक से चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा तीन सौ रुपये देकर मुगलसराय से लाए; क्योंकि हृदय में प्रतिमा जी का संकल्प होने से अधिष्ठायक ने स्वप्न में सूचित कर दिया था । प्रतिमा जी नवनिर्मित जिनालय में विराजमान कर दी। भगवान् की चरण पादुका प्राप्ति से केवलज्ञान-स्थान का निर्णय हुआ एवं जन्म स्थान भेलूपुर में भी वटवृक्ष के नीचे भट्ट लोगों द्वारा अधिकृत चरण पादुकाएँ प्राप्त कर श्वेताम्बर समाज द्वारा तीर्थोद्धार किया गया। भदैनीघाट पर राजा वच्छराज नाहटा द्वारा जिनालय निर्माण कर सुपार्श्वनाथ कल्याणक तीर्थ प्रतिष्ठित हुआ। श्रेयांसनाथ भगवान् की जन्मभूमि सिंहपुरी सारनाथ से थोड़ी दूर हीरामनपुर के पास एवं चन्द्रावती में गंगातट पर चन्द्रप्रभ भगवान् की जन्मभूमि का जीर्णोद्धार कराया । बनारस के संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया । १. इनकी दीक्षा सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को कच्छ के भुजनगर में हुई। इनका मूलनाम हरषचन्द्र था । खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड (३२४) 2010_04 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२. उपाध्याय राजसागर गणि ये हीरधर्मोपाध्याय के प्रशिष्य और श्री कुशलचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनकी दीक्षा सं० १८६१ मिगसिर सुदि २ को हुई थी। इनका नाम रूपचन्द्र था दीक्षा नाम राजसागर रखा और साथ ही कपूरचन्द्र की दीक्षा हुई जिनका नाम कर्पूरसागर रखा गया। सं० १८६७ में आपके हाथ से छः शुभ कार्य हुए। बनारस में चैत्र मास में जो बुढ़वा मंगल का मेला लगता है, उस समय आपने चमत्कार दिखा कर अनेक भक्तों को शासन प्रेमी बनाया। श्री कुशलचन्द्रसूरि पट्ट प्रशस्ति में उसका वर्णन पाया जाता है। सं० १८९७. वैशाख सुदि ३ को अनशन धारण कर आप स्वर्गवासी हुए। हीरधर्म गणि के शिष्य विनयरंग (विजौ) की दीक्षा सं० १८४२ में हुई तथा प्रशिष्य मेहरचंद की दीक्षा सं० १८७० में जयपुर में हुई जिनका दीक्षा नाम मेरुविशाल रखा गया था। (३. उपाध्याय रूपचन्द्र गणि ये उपाध्याय राजसागर जी के शिष्य थे। इनके तीन शिष्य हुए-१. बालचन्द्राचार्य २. मोहन मुनि ३. जिनमुक्तिसूरि । इन तीनों की शिक्षा-दीक्षा आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि जी के सान्निध्य में हुई थी। (४. आचार्य बालचन्द्राचार्य इनका जन्म सं० १८९२ में हुआ था। जन्म नाम बालचन्द था। दीक्षा सं० १९०२ काशी में श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी ने ही प्रदान कर विवेककीर्ति नाम रखा। श्री जिनमहेन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनमुक्तिसूरि ने आपको दिङ्मण्डलाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। सं० १९३९ में जिनमुक्तिसूरि के आदेश से फागुन वदि ७ को अयोध्या में प्रतिष्ठा करवाई। बिहार, काशी, कोशल, मारवाड़, गुजरात, कोंकण, कच्छ, सौराष्ट्र, मालव और दक्षिण देश में विचरण कर शासन प्रभावना करते हुए अनेकों को शासन प्रेमी बनाया। नासिक, जामनगर और जुन्नेर में चमत्कार दिखा कर संघ के कष्टों का निवारण कर महती धर्म प्रभावना की। त्रिस्तुतिक गच्छ प्रवर्तक आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि जी और तपागच्छीय विद्वान् झवेरसागर जी के मध्य में "चतुर्थ स्तुति" के सम्बन्ध में जो शास्त्रार्थ हुआ था, उस शास्त्रार्थ के निर्णायकों में आ० बालचन्द्रसूरि और खरतरगच्छीय आबूतीर्थोद्धारक श्री ऋद्धिसागर जी थे। इसी प्रसंग पर निर्मित ग्रंथ निर्णयप्रभाकर उपलब्ध है। राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द आपके उपासक थे। गुणचन्द्र और ज्ञानचन्द्र नाम के दो विद्वान् शिष्य थे। आपकी उपस्थिति में ही उनका देहावसान हो गया था। अन्तिम अवस्था में तीन दिन का अनशन कर सं० १९६२ वैशाख सुदि ११ के दिन स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गये। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३२५) _ 2010_04 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. आचार्य नेमिचन्द्रसूरि आपकी दीक्षा सं० १९६३ पौष कृष्णा १४ मंगलवार को जयपुर में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के हाथ से हुई । नेमिविमल दीक्षा नाम रखा गया । सं० १९६३ ज्येष्ठ सुदि ११ शुक्रवार को अष्टाह्निका महोत्सव के साथ आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको बालचन्द्राचार्य का पट्टधर घोषित कर दिड्मण्डलाचार्य की उपाधि प्रदान की। आप बड़े ही शान्त स्वभावी थे और आपने अपने जीवन में कभी भी नूतन वस्त्र धारण नहीं किया था (नव्यं च वस्त्रमसकौ न कदापि दध्रे ) । अनेक देशों में विचरण कर अन्तिमावस्था में काशीवास स्वीकार कर लिया था । मन्दिर का जीर्णोद्धार भी आपने ही कराया था। अपने पट्ट पर अपने योग्य शिष्य हीराचन्द जी को स्थापित कर सं० १९९८ आश्विन कृष्णा द्वितीया को अनशनपूर्वक देवगति को प्राप्त हुए । कच्छ निवासी श्रेष्ठ धारसी भाई सोमचन्द्र ने आप ही के उपदेश से सिंहपुरी तीर्थ का जीर्णोद्धार कराया था। ( आचार्य श्री हीराचन्द्रसूरि सं० १९९८ माघ सुदि २ को जयपुर में श्रीपूज्य आचार्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरि जी ने आपको दिङ्मण्डलाचार्य पद से सुशोभित किया। इनका पदोत्सव सं० २००० वैशाख सुदि १३ को वाराणसीय संघ ने किया था । राजा शिवप्रसाद "सितारे हिंद" के पौत्र राजा साहब सत्यानंदसिंह जी ने आपका तिलक किया था । आपका जीवन बड़ा वैराग्यमय था । विद्वत् परिषद् ने आपको विद्यालंकार पद दिया था । ५० वर्ष की आयु में आचार्य पद प्राप्त करके भी आपने प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार कार्य में अपने को अन्तिम घड़ी तक पूर्णतया संलग्न रखा । सन् १९६६ में आप का दुःखद स्वर्गवास हुआ। आपने सारा कोष तीर्थोद्धार में लगाया, आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी में दिया पर अपने शरीर पर कभी खर्च नहीं किया । निकटस्थ गाँव में देवी के मन्दिर में हजारों बकरों का बलिदान होता था जिसे आपने उपदेश देकर बंद कराया। स्वयं देवी के हाथ लगाकर सारा अनिष्ट ( अपना बलिदान देकर) अपने ऊपर लेना स्वीकार किया तब बलिदान बंद हुआ। स्व० यतिवर्य मणिचन्द्र जी ने २८९ श्लोक परिमित श्री कुशलचन्द्रसूरि पट्ट प्रशस्ति में इस तीर्थ रक्षक शाखा का इतिहास लिखा है । मणिचन्द्र जी छाजेड़ गोत्रीय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नातक थे । (३२६) 2010_04 蛋蛋 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ की उपशाखाओं का इतिहास - २ खरतरगच्छ की मुख्य परम्परा में ४ उपशाखायें निरन्तर प्रवर्धमान रहीं जिनका क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं होता । तद्तद् परम्परा के साहित्यकारों द्वारा जो यत्किञ्चित् उल्लेख प्राप्त होते हैं उसी के आधार पर इनका परिचय प्रस्तुत है : १. श्री क्षेमकीर्ति उपशाखा तृतीय दादागुरु आचार्य जिनकुशलसूरि के शिष्य विनयप्रभ उपाध्याय से एक पृथक् साधु परम्परा चली जो एक स्वतंत्र शाखा न होकर मुख्य परम्परा की आज्ञानुवर्ती रही। विनयप्रभ उपाध्याय के शिष्य विजयतिलक उपाध्याय हुए। उपा० क्षेमकीर्ति इन्हीं के शिष्य थे । प्रचलित मान्यतानुसार इन्होंने एक साथ ५०० धावड़ी (बाराती) लोगों को दीक्षा दी थी इसीलिये यह परम्परा क्षेमकीर्ति या क्षेमधाड़ शाखा के नाम से जानी जाती है। अपने उदय से लेकर २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से पहले साधुओं के रूप में और बाद में वही यतियों के रूप में चलती रही। इस शाखा में गीतार्थ विद्वानों की लम्बी और विशाल परम्परा रही है। इसमें अनेक दिग्गज विद्वान् एवं साहित्यकार हुए हैं जिनमें से कुछ के नामोल्लेख इस प्रकार हैं :- उपाध्याय तपोरत्न, महोपाध्याय जयसोम, महोपाध्याय गुणविनय, मतिकीर्ति, उपाध्याय श्रीसार, वा० सहजकीर्ति, विनयमेरु, महाकवि जिनहर्ष, लाभवर्धन, उपाध्याय रामविजय, उ० लक्ष्मीवल्लभ, भुवनकीर्ति, अमरसिन्धुर, महोपाध्याय ऋद्धिसार (रामलाल) आदि। क्षेमकीर्ति के शिष्य क्षेमहंस द्वारा रचित आचारांगदीपिका, वृत्तरत्नाकर टिप्पण- ये दो कृतियाँ मिलती हैं। क्षेमहंस के शिष्य सोमध्वज हुए । यद्यपि इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य क्षेमराज द्वारा रचित फलवर्धिकापार्श्वनाथरास, श्रावकाचारचौपाई (वि०स० १५४६), चारित्रमनोरथमाला, इषुकारीराजाचौपाई, मंडपाचलचैत्यपरिपाटी आदि विभिन्न कृतियां मिलती हैं। क्षेमराज के प्रशिष्य एवं प्रमोदमाणिक्य के शिष्य महोपाध्याय जयसोम भी सुप्रसिद्ध रचनाकार हुए । उनके द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती हैं यथा - इर्यापिथिकीषट्त्रिंशिकास्वोपज्ञवृत्तिसह (वि०सं० १६४०-४१), पौषधषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ वृत्तिसह (वि०सं० १६४३), स्थापना षट्त्रिंशिका, अष्टोत्तरीस्नात्र विधि (वि०सं० १६४५), कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध आदि । महो० जयसोम के शिष्य महोपाध्याय गुणविनय हुए जिनके द्वारा रचित खण्डप्रशस्तिवृत्ति (वि०सं० १६४६), नलदमयन्तीकथाचम्पू टीका (वि०सं० १६५७), कर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध टीका, धन्नारास, कयवन्नारास आदि विभिन्न रचनायें उपलब्ध हैं । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३२७) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महो० गुणविनय के शिष्य मतिकीर्ति हुए जिनके द्वारा रचित गुणकित्वषोडशिका, अघटकुमार चौपाई (वि०सं० १६७४) और धर्मबुद्धिरास (१६९७) आदि रचनायें उपलब्ध हुई हैं। ___ मतिकीर्ति के शिष्य सुमतिसिन्धुर हुए जिन्होंने वि०सं० १६९६ में गौड़ीपार्श्वस्तवन की रचना की। सुमतिसिन्धुर के शिष्य कीर्तिविलास द्वारा रचित बड़ी संख्या में स्तवनादि प्राप्त होते हैं। प्रमोदमाणिक्य के दूसरे शिष्य क्षेमसोम हुए जिनके प्रशिष्य विद्याकीर्ति द्वारा नरवर्मचरित (वि०सं० १६६४), धर्मबुद्धिमंत्रिचौपाई (१६७२), सुभद्रासती चौपाई (वि०सं० १६७५) आदि कृतियाँ मिलती क्षेमकीर्ति परम्परा में ही हुए कनककुमार के शिष्य कनकविलास ने वि०सं० १६३८ में देवराजवच्छराज चौपाई की रचना की। क्षेमकीर्ति की परम्परा में महो० सहजकीर्ति संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् थे। गच्छनायक श्री जिनराजसूरि द्वारा प्रतिष्ठित थाहरूशाह कारित लौद्रवा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा के समय आप उपस्थित थे। कल्पसूत्र टीका कल्पमंजरी आदि इनकी विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं। शतदलकमलगर्भित पार्श्वनाथस्तोत्र इनकी अमर रचना है जो लौद्रवा पार्श्वनाथ मन्दिर में आज भी ताम्रपत्र पर विद्यमान शाखाप्रवर्तक उपाध्याय क्षेमकीर्ति के एक शिष्य तपोरन हुए जिनके द्वारा रचित षष्टिशतकटीका (वि०सं० १५०१) नामक कृति मिलती है। इन्हीं की परम्परा में आगे चलकर लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय हुए जिन्होंने वि०सं० १७५२ में रत्नहासचौपाई, उत्तराध्ययनटीका, कल्पद्रुमकलिका आदि की रचना की। तपोरन के एक शिष्य भुवनसोम हुए जिनकी परम्परा में १७वीं शताब्दी में वाचक शांतिहष हुए। अनेक ग्रन्थों एवं स्तवनों के रचनाकार जिनहर्ष इन्हीं के शिष्य थे। स्व० अगरचन्द जी नाहटा एवं भंवरलाल जी नाहटा ने अपनी कृति जिनहर्षग्रन्थावली में इनकी सभी प्रमुख कृतियों का समीक्षात्मक वर्णन करते हुए अन्य सभी रचनाओं को भी प्रकाशित किया है। इनमें मौनएकादशी बालावबोध, अजितसेनकनकवतीरास (वि०सं० १७५१), अवन्तिसुकुमालरास (१७४१), दीपमलिकाकल्प (वि०सं० १७५१), कुमारपाल रास आदि प्रमुख हैं। वि०सं० १७२२ में जिनरत्नसूर के शिष्य जिनचन्द्रसूरि के कर-कमलों से हेमप्रमोद के शिष्य रंगविमल की दीक्षा हुई। ये भी इसी क्षेमकीर्तिशाखा के ही थे। अघटराजर्षिचौपाई (वि०सं० १६६७) के कर्ता भुवनकीर्ति गणि, सुदर्शनश्रेष्ठीरास (वि०सं० १६६१), मंगलकलशचौपाई (वि०सं० १८३२), इलापुत्ररास (वि०सं० १८३९), तेजसारचौपाई (वि०सं० १८३८) आदि के रचनाकार रत्नविमल भी क्षेमकीर्ति शाखा के ही थे। (३२८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपा० जिनहर्ष के पट्टधर सुखवर्धन हुए जिन्हें वि०सं० १७१३ में जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा प्रदान की थी। इनके पट्टधर दयासिंह भी वि०सं० १७३८ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा ही दीक्षित थे। दयासिंह के शिष्य रूपचन्द दीक्षानाम महोपाध्याय रामविजय को भी जिनचन्द्रसूरि ने ही वि०सं० १७५६ में दीक्षा दी थी। महो० रामविजय का जन्म नाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। उस समय के विद्वानों में इनका मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के ये विद्यागुरु भी थे। सं० १८२१ में जिनलाभसूरि ने यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। इनके द्वारा निर्मित प्रमुख रचनायें निम्न है गौतमीय महाकाव्य-(सं० १८०७) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। गुणमालाप्रकरण-(सं० १८१४), चतुर्विशतिजिनस्तुतिपंचाशिका (सं० १८१४), सिद्धान्त चन्द्रिकासुबोधिनीवृत्ति पूर्वार्ध, साध्वाचारषट्त्रिंशिका, षट्भाषामयपत्र, भर्तृहरि-शतकत्रयबाला० (सं० १७८८), अमरुशतकबालावबोध (सं० १७९१), समयसारबालवबोध (सं० १७९८), कल्पसूत्र बालावबोध (सं० १८११), हेमव्याकरण भाषा टीका (सं० १८२२) आदि। फलौदी पार्श्व स्तवन, अल्प-बहुत्व स्तवन, सहस्त्रकूट स्तवनादि प्राप्त हैं। नब्बे वर्ष की परिपक्व आयु में सं० १८३४ में पाली (मारवाड़) में आपका स्वर्गवास हुआ, वहाँ आपकी चरण पादुकायें भी प्रतिष्ठित की गईं। पुण्यशील गणि:-ये रामविजयोपाध्याय के प्रथम शिष्य थे। दीक्षा नंदी सूची के अनुसार इनका जन्मनाम पदमो था और सं० १८०६ माघ वदि ७ या इसके आसपास ही जिनलाभसूरि के पास दीक्षा हुई थी। इनका दीक्षा नाम था पुण्यशील। ये भी अच्छे विद्वान् थे। इनकी एकमात्र कृति प्राप्त है- चतुर्विंशतिजिनेन्द्रस्तवनानि। इन्होंने इसकी रचना सं० १८५९ भाद्रपद शुक्ल ५ के दिन पाली में श्रेष्ठि भगवानदास के आग्रह से की थी। इस कृति की विशिष्टता यह है कि १२वीं सदी के महाकवि जयदेव रचित संगीतमय पदावली से ओतप्रोत "गीतगोविन्द" के अनुकरण पर लोकगीतों में गेय रागों एवं देशियों में संस्कृत भाषा में इन्होंने इस चौबीसी की रचना की है। इस कृति की एकमात्र प्रति मेरे निजी संग्रह में है और मैंने ही सं० २००४ में संशोधन कर प्रकाशित करवाई थी। इनके शिष्य समयसुन्दर गणि और इनके शिष्य हुए उपाध्याय शिवचन्द्र। इनको गणि एवं उपाध्याय पद जिनचन्द्रसूरि ने अथवा जिनहर्षसूरि ने प्रदान किया होगा। इन्होंने तत्कालीन आचार्य जिनहर्षसूरि के साथ कई वर्षों तक रहकर उन्हें पढ़ाया था। इन्हीं के साथ रहते हुए इन्होंने सं० १८७१ में भाद्रपद वदि १० को अजीमगंज में बीसस्थानक पूजा की रचना की। इनकी संवतोल्लेख वाली रचनाओं को देखने से यह स्पष्ट है कि सं० १८७६ से १८७९ तक इनका निवास स्थान जयपुर ही रहा। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३२९) 2010_04 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. नन्दीश्वर द्वीप पूजा-सं० १८७६ ज्ये० सुदि १, जयपुर। २. इक्कीस प्रकारी पूजा-सं० १८७८ माघ सुदि ५। ३. ऋषिमंडल-२४ जिनपूजा-१८७८ आश्विन सुदि ५ जयपुर। ४. प्रद्युम्नलीला प्रकाश१८७८ वैशाख सु० ११ । इसकी रचना इन्होंने संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् महाकवि बाणभट्ट की कादम्बरी के अनुसरण पर समासबहुल सालंकारिक गद्य में की है। इसकी एकमात्र अपूर्ण प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, चित्तौड़ शाखा के यति बालचन्द्रजी के संग्रह में सुरक्षित है। महोपाध्याय शिवचन्द्र गणि ने ही आमेर के चन्द्रप्रभ प्रासाद की प्रतिष्ठा करवाई है। अर्थात् जयपुर में रहते हुए इन्हीं के उपदेश से इस मन्दिर का निर्माण और इन्हीं के हाथों से सं० १८७७ में प्रतिष्ठा हुई है। ___इनके प्रमुख शिष्य थे रामचन्द्र, जिनकी दीक्षा सं० १८६७ में हुई थी। दीक्षा नाम था रत्नविलास. ये संस्कृत और राजस्थानी भाषा के अच्छे विद्वान् थे। इनके द्वारा रचित साहित्य है :१. कर्मबन्धविचार (पन्नवणासूत्रानुसार) सं० १९०७ का०सु० ५ ग्वालियर सिंधिया कटक। २. पंचचारित्र (पन्नवणासूत्रानुसार) सं० १९०७ का०सु० ५ (पत्र २८) आदि। रामचन्द्र के शिष्य उम्मेदचन्द रचित प्रश्नोत्तरशतक (१८८४ जयपुर), दीपावलीव्याख्यान (१८९६) प्राप्त हैं और आनन्दवल्लभ रचित-१. दण्डकसंग्रहणीबालावबोध (१८८० अजीमगंज), २. विशेषशतकभाषा (१८८१ बालूचर), ३. श्राद्धदिनकृत्यभाषा (१८८२ अजीमगंज) और ४. होलिकाव्याख्यानभाषा (१८८३) उपलब्ध हैं। उदयराज की दीक्षा १८८६ में हुई थी। इनकी कोई रचना प्राप्त नहीं है। उदयराज के शिष्य तिलकधीर हुए। इनकी दीक्षा १८९४ में हुई थी। जन्म नाम तिलोक था। इनकी भी कोई कृति प्राप्त नहीं है। शिवचन्द्रोपाध्याय के एक पौत्र शिष्य नयसोम (नेमिचंद) भी थे। इनकी दीक्षा १८९८ में हुई थी। तिलोकचंद और नेमिचंद दोनों ही साथ रहते थे। जिनहर्षसूरि के पश्चात् शाखा भेद होने पर वे लोग बीकानेर गद्दी के ही समर्थक रहे। जयपुर में जिनमहेन्द्रसूरि शाखा का अधिक प्रभाव होने से उपाश्रय से इन्हें निष्कासित होना पड़ा। ऐसी स्थिति में उन्हें निकट में एक मकान खरीद कर उपाश्रय का रूप देना पड़ा, जो आज उन्हीं के शिष्य "यति श्यामलाल जी का उपाश्रय' नाम से मोतीसिंह भोमियों के रास्ते में दूसरा चौराहा, जौहरी बाजार, जयपुर में अवस्थित है। तिलकधीर और नयसोम की कोई रचना अभी तक देखने में नहीं आई है। तिलकधीर के मुख्य शिष्य सुमतिपद्म हुए। इनकी दीक्षा सं० १९३५ में जिनहंससूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि के हाथों से हुई थी। इनका जन्म नाम श्यामलाल था और इनकी जीवन पर्यन्त इसी नाम से पहचान बनी रही। सुमतिपद्म के शिष्य विजयचन्द्र थे। बीकानेर गद्दी के श्री पूज्य जिनचारित्रसूरि का स्वर्गवास होने पर विजयचन्द्र को गद्दी पर बिठाया गया, जो जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए इनका भी दो दशक पूर्व स्वर्गवास हो चुका है। (३३०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___JainEducation international 2010_04 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हम देखते हैं कि महोपाध्याय शिवचन्द्र जी की शिष्य परम्परा अब लुप्त अवश्य हो गई है, किन्तु आमेर का चन्द्रप्रभ मन्दिर, नन्दीश्वर द्वीप की रचना, नन्दीश्वर द्वीप की पूजा और अन्य विशिष्ट रचनाओं के कारण उनका नाम और कीर्ति आज भी सुरक्षित है और शताब्दियों तक विद्यमान रहेगी। * * * क्षेमकीर्ति की परम्परा में २०वीं शताब्दी में हुए कुशलनिधान के शिष्य महोपाध्याय ऋद्धिसार (रामलाल) वैद्यकशास्त्र में अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में से थे। नाड़ीवैद्य के रूप में इनकी अत्यधिक प्रतिष्ठा रही है। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इनके द्वारा रचित वैद्यदीपक नामक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। इनके द्वारा रचित दादागुरुदेव की पूजा (वि०सं० १९५३) इनकी प्रसिद्धतम कृति है। जहाँ भी दादागुरु की पूजा होती है, इसी का पाठ किया जाता है। इसकी अब तक लाखों प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। खरतरगच्छीय दीक्षा नंदी सूची के अनुसार इनकी गुरु- ।। परम्परा इस प्रकार है हेमप्रमोद→ रंगविमल→ नेमिमूर्ति→ क्षेममाणिक्य-विनयभद्र→ लब्धिहर्ष→ धर्मशील→ कुशलनिधान→ महो०रामलाल (ऋद्धिसार)→ बालचन्द * * * क्षेमकीर्ति शाखा में दीपक की अंतिम लौ के समान नीतिसागर जी हैं। इनका जन्म नाम नेमिचन्द था। वि०सं० १९८३ में जिनचारित्रसूरि ने इन्हें दीक्षा देकर शान्तिसौभाग्य का शिष्य घोषित किया था। बड़ा उपासरा बीकानेर की सुरक्षा और देखभाल करने वालों में ये अकेले व्यक्ति हैं। जिनविजयेन्द्रसूरि के समय से बीकानेर की गद्दी के कोतवाल रहे हैं। * * * रचना प्रशस्तियाँ, लेखन-पुष्पिकाओं एवं हस्तलिखित त्रुटक पत्रों के आधार पर क्षेमकीर्ति की अनेक विद्वत् शिष्य परम्परायें प्राप्त हैं किन्तु उन परम्पराओं में से केवल चार शिष्य-परम्पराओं के विशेष नामोल्लेख प्राप्त होते हैं, जो निम्न हैं :पहली परम्परा : १. श्री जिनकुशलसूरि जी ५. उ० तपोरत्न गणि २. उ० विनयप्रभ गणि६ . उ० भुवनसोम गणि ३. उ० विजयतिलक गणि ७. उ० साधुरंग गणि ४. उ० क्षेमकीर्ति गणि ८. उ० धर्मसुन्दर गणि (३३१) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. वा० पुण्यशील गणि १८. वा० समयसुन्दर गणि १९. वा० शिवचन्द्र गणि २०. वा० रत्नविलास (रामचंद्र) २१. वा० उदयराज गणि २२. तिलकधीर (त्रिलोकचंद्र), नयसोम (नेमिचन्द्र) २३. सुमतिपद्म (श्यामलाल) २४. विजयचन्द (स्व० जिनविजयेन्द्रसूरि) ९. उ० दानविनय गणि १०. उ० गुणवर्द्धन गणि ११. उ० श्रीसोम गणि १२. उ० शान्तिहर्ष गणि १३. उ० जिनहर्ष गणि १४. उ० सुखवर्द्धन गणि १५. वा० दयासिंह गणि १६. वा० रामविजय गणि दूसरी परम्परा : १. वा० क्षेमकीर्ति गणि २. वा० क्षेमहंस गणि ३. वा० क्षेमध्वज गणि ४. वा० खेमराज गणि ५. वा० दयातिलक गणि ६. वा० प्रमोदमाणिक्य गणि ७. उ० जयसोम गणि ८. उ० गुणविनय गणि ९. उ० मतिकीर्ति गणि तीसरी परम्परा : १. वा० क्षेमकीर्ति गणि २. वा० क्षेमहंस गणि ३. वा० क्षेमध्वज गणि ४. वा० क्षेमराज गणि ५. उ० कनकतिलक गणि ६. उ० लक्ष्मीविनय गणि ७. वा० रत्नसार गणि १०. उ० सुमतिसुन्दर गणि ११. उ० कनककुमार गणि १२. उ० कनकविलास गणि १३. उ० कमलसौभाग्य गणि १४. उ० धर्मकल्याण गणि १५. उ० कनकसागर गणि १६. उ० रत्नविमल गणि १७. उ० क्षमाधर्म गणि ८. वा० हेमनन्दन गणि ९. महो० सहजकीर्ति गणि १०. वा० सहजहर्ष गणि ११. वा० रत्नसुन्दर गणि १२. उ० नेमिरंग गणि . १३. वा० हर्षकलश गणि (३३२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी परम्परा :१. उ० क्षेमकीर्ति गणि ११. उ० राजसोम गणि २. उ० तपोरत्नगणि, तेजराज गणि १२. उ० रंगवल्लभ गणि ३. उ० भुवनकीर्ति गणि १३. उ० सौभाग्यविलास गणि ४. उ० हर्षकुंजर गणि १४. हर्षसुन्दर गणि ५. उ० लब्धिमण्डन गणि १५. शिवराज मुनि ६. उ० लक्ष्मीकीर्ति गणि १६. वा० धर्मसुन्दर गणि ७. उ० लक्ष्मीवल्लभ गणि १७. पं० क्षेमरत्न मुनि ८. उ० सोमहर्ष गणि १८. पं० कनकमाणिक्य मुनि ९. उ० लक्ष्मीसमुद्र गणि १९. पं० शिवलाल मुनि १०. उ० कर्पूरप्रिय गणि पहली परम्परा के क्रमांक ८ से : ८. वा० धर्मसुन्दर गणि १५. पं० सिद्धिसोम गणि ९. वा० धर्ममेरु गणि १६. वा० अमरनन्दन गणि १०. वा० लब्धिरत्न गणि १७. वा० रत्नकलश गणि ११. वा० सुगुणकीर्ति गणि १८. पं० धर्मोदय मुनि १२. महो० रत्नवल्लभ गणि १९. पं० मानभद्र मुनि १३. उ० यशोवर्धन गणि २०. पं० भाग्यविलास मुनि १४. वा० कुशलविनय पहली परम्परा के क्रमांक १० से :-- १०. वा० गुणवर्धन गणि १४. पं० रंगोदत्त मुनि ११. वा० ज्ञानमूर्ति गणि १५. पं० इलावल्लभ मुनि १२. वा० रामचन्द्र गणि १६. पं० कनकविनय मुनि १३. पं० माणिक्यरत्न मुनि १. पं० शिवराज मुनि, पं० सदाराम मुनि, पं० खुशालजी मुनि, पं० माधवजी मुनि संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३३३) 2010_04 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी परम्परा :१२. ३. कनकविलास गणि के २ शिष्य-१. वा० मुनिरंग, २. पं० गोपालजी। १. वा० मुनिरंग→वा० क्षमानन्दन। २. गोपालजी→ सूजोजी→ खींवोजी→वर्धमान→ जीवन । १३. कमलसौभाग्य→ पं० दयामूर्ति→ पं० वर्धमान→पं० देवकुमार। १६. रत्नविमल→ गुप्तिधर्म→ क्षमाधीर→ दयाकुशल। तीसरी परम्परा :क्रमांक ९ - महो० सहजकीर्ति→वा० देवराज→वा० चांपोजी→वा० कानजी*→वा० रत्नशेखर →वा० दीपचन्द→वा० हस्तिरत्न→ युक्तिसेन वा० श्रीधर-उ० सदानन्द वा० शोभाचन्द्र→ श्रीचन्द्र साकरचन्द। वा० सोभाचन्द वा० आनन्द हर्ष→वा० वर्धमान वा० कनकरंग→ वा० दानविशाल→पं० क्षमाकमल + - वा० कानजी→वा० हीरोजी→ वा० सांवलजी*→वा० हर्षमेरु→ पं० डूंगरसी वा० कानजी→वा० समयधीर →वा० महिमानिधान→वा० रामवल्लभ पं० कुशलो →पं० कल्याणचन्द→ जैवंतो→ देवो→ मानो। वा० सांवलजी→वा० विद्याविशाल→ दयाराज→पं० सुवाईजी पं० राउजी→ गोधू वा० समयधीर वा० रामवल्लभ पं० सहोजी→ पन्नालालजी पं० गंभीरचन्द→ पं० रतनचन्द>पं० दीपचन्द। युक्तिसेन - वा० जयचन्द→वा० अमरचन्द→ पं० रूपचन्द→ पं० केसर> पं० सुखानन्द। वा० जयचन्द→ पं० महिमारत्न→ पं० अणदु→ वखतावर वा० जैतसी (? जयचन्द)→मणसिंधुर> पं० चिमनो→ पं० खुसालचन्द। 卐 - उ० रत्नशेखरवा० लालचन्दवा० दयाचन्द→ पं० जयरूप→पं० रामकिसन→ खुशाल। उ०रत्नशेखर - पं० रतनसी→ वा० ऋषभदास→ पं० विजो, देवकरण। उ०रत्नशेखर - वा० मेघराज→वा० गंगाराम→पं० गुलाबचन्द→ पं० हर्षचन्द पं० मोतीचन्द तेजसी। (३३४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी परम्परा : उ० लक्ष्मीवल्लभ और सोमहर्ष गणि गुरुभ्राता थे। ९. वा० लक्ष्मीसमुद्र - पं० कनकप्रिय→वा० यशसोम→ उ० माणिक्यवल्लभ→ पं० जगविलास गणि। पं० कनकप्रिय> पं० उदयसोम> पं० क्षमावर्धन→ पं० मुक्तिधर्म→ पं० भक्तिउदय पं० कमलनन्दन। ११. महो० राजसोम - पं० तत्त्ववल्लभ→ पं० प्रीतिविलास'→पं० देवदत्त पं० मेरुकुशल पं० भुवनभक्ति, मानसिंह→ सूजा। पं० मन्त्रवल्लभ→ वा० जयदत्त→ पं० मुनिरंग→ भक्तिरंग, नयरंग । १. प्रीतिविलास→ पं० धर्मसुन्दर→ पं० अमृतसमुद्र, लाभसमुद्र। ___पं० अमृतसमुद्र> पं० विजयविमल। पं० लाभसमुद्र> पं० मुनिसंघ। २. पं० मुनिरंग - भवानी→ माणक। ३. पं० भक्तिरंग→ पं० बुधा। ४. पं० नयरंग→पं० मेघा। 卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३३५) 2010_04 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. श्री सागरचन्द्रसूरि उपशाखा आचार्य जिनोदयसूरि के प्रशिष्य और आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य सागरचन्द्रसूरि अपने समय के प्रभावशाली आचार्य थे। वि०सं० १४६१ में जब जिनराजसूरि का निधन हुआ, उस समय इन्होंने जिनवर्धनसूरि को उनके पट्ट पर स्थापित किया। बाद में जब जैसलमेर के पार्श्वनाथ जिनालय में क्षेत्रपाल की प्रतिमा को जिनालय से बाहर स्थापित करने के कारण जिनवर्धनसूरि पर दैवी प्रकोप हुआ तो इन्होंने उनके स्थान पर जिनभद्रसूरि को स्थापित कर दिया और उन्हीं से मूल परम्परा आगे चली। इन्होंने संवत् १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। संवत् १४५९ में चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर, जैसलमेर में जिनबिम्ब की स्थापना की थी। विज्ञप्तित्रिवेणी के अनुसार जैसलमेर नरेश लक्ष्मणदेव राउल इनके भक्त थे। सागरचन्द्रसूरि की शिष्यसन्तति उनके नाम के आधार पर सागरचन्द्रसूरि शाखा कहलायी। यह परम्परा भी कोई स्वतंत्र शाखा न होकर क्षेमकीर्ति शाखा, जिनभद्रसूरि शाखा एवं कीर्तिरत्नसूरि शाखा की ही भाँति मुख्य परम्परा की ही आज्ञानुवर्ती रही है। रचना प्रशस्तियों के अनुसार जो शिष्य परम्परा का उल्लेख मिलता है, वह निम्न है :- (देखें, पृष्ठ ३३८) . सागरचन्द्रसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति ही मिलती है और न ही किन्हीं प्रतिमालेखादि में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। इन्हीं की परम्परा में समयभक्त के शिष्य पुण्यनंदि हुए जिन्होंने वि०सं० १५३०-३२ में रूपकमाला की रचना की। विक्रम की १७वीं शती के मध्य हुए ज्ञानप्रमोद ने वाग्भटालंकार टीका और उनके शिष्य गुणनन्दन ने वि०सं० १६६५ में मंगलकलशरास की रचना की। ज्ञानप्रमोद और उनके शिष्य गुणनन्दन सागरचन्द्रसूरि शाखा के ही थे। यह बात उक्त कृतियों की प्रशस्ति से ज्ञात होती है। विभिन्न ग्रन्थ भंडारों के प्रकाशित सूची पत्रों में दी गयी प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों ने समय-समय पर विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार की। इस शाखा से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी उपलब्ध हैं जो वि०सं० १७५५ से वि०सं० १९६५ तक के हैं और इनसे २०वीं शती के छठे दशक के मध्य तक इस शाखा की विद्यमानता का पता चलता है। २०वीं शताब्दी में तो इस शाखा के ५० से अधिक यति विद्यमान थे। इनमें से दो यतियों के विशिष्ट कार्य उल्लेखनीय हैं। उपाध्याय आनन्दविनय गणि के पौत्र शिष्य सत्यनन्दन को जिनहंससूरि ने वि०सं० १९३० में बीकानेर में दीक्षा दी थी। इनका जन्म नाम समीरमल था और ये आजीवन इसी नाम से जाने जाते रहे। वि०सं० २००१ तक ये विद्यमान रहे। ये भीनासर में रहते थे। इनके हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह में उपाध्याय समयसुन्दर द्वारा रचित जिनसिंहसूरिपट्टाभिषेककाव्य की स्वलिखित एवं आदर्श प्रति थी। महाकवि कालिदास के रघुवंशमहाकाव्य के द्वितीय सर्ग की पादपूर्तिरूप यह काव्य रचा गया था। - (३३६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीरमल जी के शिष्य ने अपना सम्पूर्ण संग्रह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर को भेंट कर दिया। समीरमल जी के शिष्य ने अपना स्वयं का शिष्य होते हुए भी यति भूरामल को दत्तक रूप में स्वीकार किया था। यति भूरामल जी स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त हैं और आज भी विद्यमान हैं। इसी उपशाखा में दूसरे यति पं० पूनमचन्द के पौत्र शिष्य टीकमचन्द्र को जिनचारित्रसूरि ने वि०सं० १९६७ में बीकानेर में दीक्षा प्रदान की थी। इनका जन्म नाम टीकम था। इनका अधिकांश समय रायपुर और महासमुंद में बीता। अपनी निजी सम्पत्ति से इन्होंने रायपुर दादावाड़ी में पद्मावतीपार्श्वनाथ का भव्य मंदिर बनवा कर प्रतिष्ठा करवाई। _ श्री सागरचन्द्रसूरि धर्मरत्नसूरि उ.रत्रकीर्ति वा. पुण्यसमुद्र समयभक्त वा. दयाधर्म पुण्यनन्दि वा. शिवधर्म वा. हर्षहंस वा. रत्नधीर वा. ज्ञानप्रमोद क्षमाप्रमोद विद्याकलश उ. विशालकीर्ति वा. गुणनन्दन वा. हेमहर्ष-क्षेमहर्ष समयमूर्ति वा. अमरमाणिक्य . वा. लक्ष्मीविनय हेमहर्ष विनयचंद 1 मतिरत्न वा. गुणवर्धन ऋद्धिनन्द समर्थ दयाकल्याण पं. दयाकमल स्फुट पत्र के अनुसार आपकी एक शिष्य संतति का उल्लेख प्राप्त होता है, जो निम्न है : सागरचन्द्रसूरिकस्य शिष्य चत्वारो जाता तानि उच्यन्ते-वा० महिमराज गणि तस्य शिष्य वा० दयासागर शि०वा० ज्ञानमन्दिर शि०वा० देवतिलक, वा० सोमसुन्दर बोहित्था गोत्रीय शिष्यौ १. वा० साधुचन्द्रशि० कुलतिलक गणि। २. भावहर्षसूरि वा० चारित्रोदय प्रमुखाः। वा० साधुलाभ भणसाली। वा० चारुधर्म गणि प्रमुखा। समयकलश शि० ४ (सांगानेर धुंभ पो० ५) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३३७) 2010_04 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चारित्रधर्म २. श्रीधर्म ३. कमलतिलक ४. वा० सुखनिधानगणि (१६६७ आ० व० ८ मालपुरा) - १. सकलकीर्ति, २. गुणसेन, ३. सुजसकीर्ति महिमामेरु गणि (१७२७ मि०व० ८ पाली परोक्ष), कल्याणसागर, ज्ञाननिधान गणि (१७६१ रिणी परोक्ष)। पं० ज्ञाननंदन गणि, वा० आणंदधीर गणि, सं० १८०३ पौष वदि ३ दउरां वा० सुखहेमगणि, रै दो शिष्य - वा० भुवनविशालगणि (१८०९ मि०सु० बीकानेर परोक्ष) पं० सुखविलास २, सं० १८०९ मा०व० ७ बीकानेरे मोक्ष पं० फतेचंदजी १८७६ फा०सु० ५ बीकानेर परोक्ष वा० गुणकल्याणगणि रा शिष्य चत्वारो जाताः १. पं० वर्द्धमान, २ पं० कनकमेरु, ३. पं० वीरमऊ, ४. पं० बुद्धिविमल पं० कीर्तिमेरु सं० १८६९ परोक्ष हैदराबाद में मि०व० ७ पं० क्षान्ति विमल वा० मतिसार वा० गुणसार गणि श्री धवलचन्द्रोपाध्याय, हेमहंस श्री ज्ञानसागरोपाध्याय शिष्यौ - वा० विनयहर्ष भणसाली, वा० समयनन्दि श्रीमाली श्री धर्म गणि - युक्तमेरु १. मुनिमेरु, २. मानहर्ष, ३. स्थिरहर्ष, ४. हंसहर्ष, ५. हेमनिधान, रंगवर्द्धन, रंगधीर सकलकीर्ति सं० १६९८ आगरै - मेघविजय - कल्याणविजय - प्रीतिविजय पं० कल्याणसागर रा शिष्य सं० पालनपुर परोक्ष वा० देवधीर - देववल्लभ सं० १७९५ चै० (१७९५ चै०सु० १५ रिणी परोक्ष) पं० हर्षहेम, पं० ध्यानसेन सं० पं० चतुरहर्ष राजसेन चारित्रधर्म गणि क्षमामेरु माणिक्यमेरु जिनोदय राजसी देवोदय गोकल गुणसेन सं० १७१४ आषाढ़ व० ८ भुज० में परोक्ष वा० यशोलाभ गणि वा० युक्तिसुन्दर गणि उ० शिवनंदन गणि सं० १७८४ आषाढ़ व० ४, तिलकसुन्दर वा० सत्यधीर गणि दिल्ली परोक्ष सं० १८०२ रा० (३३८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० ज्ञाननंदन - रिणी सं० १७६१ फा०व० १४ पं० ज्ञानविजय सं० १८११ परोक्ष नाथूसर पं० ज्ञानविलास पं० भुवनविशाल गणि शिष्य - १. पं० किशोरचंद, २. हरचंद पं० किशोरचंद रे शिष्य २. पं०प्रेमराज १. विजयचंद ३. भागचंद, पं० नेणसुख नवलो हरचंद २. पं० कीर्तिविजय २. लालचंद। गिरधारी २ पं० चतुरनिधान पं० श्रीचन्द्र। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३३९) 2010_04 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. श्री जिनभद्रसूरि उपशाखा खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के पट्टधर आचार्य जिनभद्रसूरि अपने समय के प्रभावक जैन आचार्य थे। अनेक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की बहुत बड़ी संख्या में प्रतिलिपि कराने और उसे देश के विभिन्न नगरों में ग्रन्थ भंडार स्थापित कर वहाँ संरक्षित कराने में आपके समकक्ष कोई दूसरा आचार्य अब तक नहीं हुआ। आपने हजारों की संख्या में जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करायी जिनमें से सैकड़ों प्रतिमायें आज भी प्राप्त होती हैं। देश के अन्यान्य नगरों में आप द्वारा प्रतिष्ठापित ज्ञान भंडार जहाँ लुप्त हो चुके हैं, वहीं जैसलमेर दुर्ग स्थित विश्वविख्यात ज्ञान भंडार आज भी आपके गौरवगाथा का एक जीवन्त प्रमाण है। आपने जहाँ बड़ी संख्या में विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपि करायीं, वहीं अनेक ग्रन्थों का संशोधन भी किया और उन्हें ग्रन्थ भंडार में स्थापित कराया। आचार्य जिनभद्रसूरि के वि०सं० १५१४ में निधन के पश्चात् जिनचन्द्रसूरि उनके पट्टधर बने और उनसे खरतरगच्छ की मूलपरम्परा आगे चली। जिनभद्रसूरि का स्वयं का शिष्य परिवार अत्यन्त विशाल था। इनकी परम्परा आगे चलकर इन्हीं के नाम पर जिनभद्रसूरिशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। आचार्य जिनभद्रसूरि ने आचार्य पद पर स्थापित होने के पश्चात् आचार्य जिनवर्धनसूरि के आज्ञानुवर्ती जिनराजसूरि के शिष्य जयसागर उपा०, जिनवर्धनसूरि के शिष्य कमलसंयम उपाध्याय और कीर्तिराज उपाध्याय आदि प्रवर गीतार्थों को ससम्मान अपनी ओर मिला लिया। जिनभद्रसरि के शिष्य-प्रशिष्य वर्ग में प्रमुख हैं सिद्धान्तरुचि उपाध्याय। सिद्धान्तरुचि के शिष्य साधुसोम ने पुष्पमालाटीका आदि विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। सिद्धान्तरुचि के दूसरे शिष्य मुनिसोम ने रणसिंहनरेन्द्रकथा की रचना की। सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य एवं अभयसोम के शिष्य हर्षराज ने संघपट्टक पर टीका की रचना की। जिनभद्रसूरि के शिष्य क्षेमहंस ने मेघदूत, रघुवंश एवं वृत्तरत्नाकर पर टीकाओं की रचना की। जिनभद्रसूरिशाखा में ही उपा० समयप्रभ, मुनिमेरु, कनकप्रभ, रंगकुशल, साधुकीर्ति, साधुसुन्दर, धर्मसिंह, धर्मवर्धन, नयरंग, विनयविमल, राजसिंह, उपा० ज्ञानविमल, उपा० श्रीवल्लभ तथा वर्तमान युग में वृद्धिचन्द्र जी आदि अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं प्रख्यात रचनाकार हो चुके हैं जिन्होंने अपनी साहित्य सेवा से न केवल जैन साहित्य बल्कि सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जयसागर उपाध्याय और धर्मवर्धन की शिष्य परम्परा का अत्यधिक विकास हुआ अतः यहाँ उनका स्वतंत्र रूप से यथास्थान विवरण प्रस्तुत है। (३४०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेक रास (वि०सं० १४७५ के पश्चात् ) के रचनाकार उपा० समयप्रभं जिनभद्रसूरि के ही शिष्य थे । उत्तराध्ययनसूत्र की सर्वार्थसिद्धिवृत्ति के कर्त्ता और कल्पसूत्र की विभिन्न स्वर्णाक्षरी प्रतियों के प्रलेखक के रूप में विख्यात उ० कमलसंयम गणि इन्हीं के आज्ञानुवर्ती थे ' जिनभद्रसूरि के प्रपौत्र शिष्य, शीलचन्द्र के पौत्रशिष्य, रत्नमूर्ति के शिष्य मेरुसुन्दर उपाध्याय प्रखर विद्वान् थे। बालावबोध (भाषा टीका) रचने में इनकी तुलना में कोई अन्य विद्वान् नहीं दिखाई देता है। इनके लगभग २० बालावबोध ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । वाग्भटालंकार ( अलंकार शास्त्र), वृत्तरत्नाकर (छंदशास्त्र), योगप्रकाश (योग) और सैद्धान्तिक विषयों के ग्रन्थों पर इन्होंने अजस्त्र लेखनी चलाई है । मेरुसुन्दर उपाध्याय के शिष्य मेरुहर्ष उपाध्याय भी अच्छे विद्वान् थे । इनके द्वारा शीलोपदेश मालाबालावबोध नामक कृति की रचना की गयी । जिनभद्रसूरि, मुनिमेरु आदि ने अपने उपदेशों से सचित्र कल्पसूत्र की अनेकों प्रतियाँ लिखवायीं, जिनमें बहुत सी रौप्याक्षरी और स्वर्णाक्षरी भी हैं । शीलवती चौपाई के रचनाकार देवरत्न भी इसी शाखा के विद्वान् थे । वि०सं० १६०४ में दु:खसुखविपाकसन्धि के रचनाकार धर्ममेरु भी इसी शाखा के चरणलाभ के शिष्य थे । रचना - प्रशस्तियों के आधार पर जिनभद्रसूरि के कतिपय विद्वत शिष्यों का उल्लेख मिलता है :(१) जिनचन्द्रसूरि पट्टधर समयध्वज ज्ञानमंदिर गुणशेखरनयरंग विमलविनय → रायसिंह और धर्ममंदिर। धर्ममंदिर पुण्यकलश जयरंग (जयतसी) त्रिलोकचंद | (२) उपाध्याय कमलसंयम उपाध्याय मुनि मेरु (३) महोपाध्याय सिद्धान्तरुचि उपाध्याय साधुसोम, विजयसोम, अभयसोम । (४) पद्ममेरु - जिनका परिचय अभी दिया गया है। (५) दयाकमल शिवनंदन देवकीर्ति देवरत्न । (६) भानुप्रभ मतिसेन, महिमालाभ, कुशलसिंह । मतिसेन मेघनंदन और दयानंदन । मेघनंदन रत्नाकर । कुशलसिंह चन्द्रवर्धन → जयलाभ । उपाध्याय साधुकीर्त्ति और उनका शिष्य परिवार जिनभद्रसूरि के शिष्य पद्ममेरु की परम्परा में उपाध्याय साधुकीर्ति, वाचक कनकसोम, धर्मवर्द्धन आदि अनेक प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं । ग्रन्थ प्रशस्तियों के आधार से उनकी वंशावली इस प्रकार है : संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३४१) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमारंग ↓ रनलाभ + राजकीर्ति विमलतिलक + विमलकीर्ति ↓ विमलचन्द + विजयहर्ष + धर्मवर्द्धन + कीर्तिसुन्दर (३४२) V गंगाराम उ. साधकीर्ति साधुसुन्दर उदयकीर्ति जिनभद्रसूरि + ज्ञानमेरु 2010_04 पद्ममे + मतिवर्द्धन + मेरुतिलक दयाकलश अमर माणिक्य महिमसुन्दर 7 कनकसोम नयमेरु लावण्यरत्न + कुशलसागर लक्ष्मीप्रभ + सोमकलश + मानसिंह युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के समय में साधुकीर्ति की गणना गीतार्थों में होती थी और वे महोपाध्याय भी थे। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित पौषधविधिप्रकरण बृहद् वृत्ति (रचना संवत् १६१७) का इन्होंने संशोधन किया था । सम्राट अकबर की सभा में इन्होंने तपागच्छीय बुद्धिसागरजी को पौषध की चर्चा में निरुत्तर भी किया था । इनकी रचित " सत्रह भेदी पूजा" परम्परा से आज भी खरतरगच्छ में मांगलिक अवसरों पर पढ़ाई जाती है। इनकी निम्न रचनाएँ प्राप्त हैं : रंगकुशल कनकप्रभ सत्रहभेदीपूजा (वि०सं० १६१८), संघपट्टक टीका (वि० सं० १६१९), आषाढभूति प्रबन्धरास (वि०सं० १६२४), मौनएकादशीस्तव (वि०सं० १६२४), गुरुमहत्ता गीत, वाग्भटालङ्कारटीका, विशेषनाममाला, कर्मग्रन्थस्तबक, जीवविचारप्रकरण बालावबोध आदि । धर्मकुशल भुवनसोम + राजसागर वाचक कनकसोम साधुकीर्ति के गुरु भ्राता थे । इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं : - चरित्रपंचकअवचूरि (वि०सं० १६१५), कालकाचार्यकथा (वि०सं० १६३२), गुणस्थानविवरण चौपाई (वि०सं० १६३१), जिनपालित जिनरक्षित रास (वि०सं० १६३२), आषाढभूति धमाल, आर्द्रककुमार धमाल (वि०सं० १६४४), हरिबलसंधि, मंगलकलशरास, हरिकेशी संधि (१६४०) आदि । वाचक कनकसोम के शिष्य कनकप्रभ रचित दसविधियतिधर्मगीत (वि०सं० १६६४ ) और रंगकुशल द्वारा निर्मित अमरसेन- वयरसेन संधि (वि०सं० १६४४), महावीर सत्ताइस भव स्तवन (वि०सं० १६७०) आदि कृतियाँ भी मिलती हैं । खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रसूरिशाखा में ही वा० नयरंग, विनयविमल, राजसिंह नामक भी मुनि हो चुके हैं जिनके द्वारा रची गयी विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं। साधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दर भी बहुत अच्छे विद्वान् थे। इनके द्वारा रचित धातुरत्नाकर, क्रियाकल्पलताटीका (वि०सं० १६८०), उक्तिरत्नाकर आदि कई कृतियाँ मिलती हैं। साधुसुन्दर के शिष्य उदयकीर्ति द्वारा रचित पदव्यवस्था और पंचमीस्तोत्र उपलब्ध हैं। ___साधुकीर्ति के एक अन्य शिष्य विमलतिलक के शिष्य विमलकीर्ति भी अच्छे रचनाकार थे। इनके द्वारा रचित चन्द्रदूतकाव्य (वि०सं० १६८१), आवश्यक बालावबोध, जीवविचार-बालावबोध, जयतिहुअणबाला०, पक्खीसूत्र बाला०, दशवैकालिक बाला०, गणधरसार्धशतकटब्बा आदि अनेक कृतियाँ तथा बड़ी संख्या में स्तवन एवं सज्झाय आदि प्राप्त होते हैं। इन्हीं विमलकीर्ति के शिष्य विजयहर्ष हुए जिनके शिष्य थे धर्मवर्धन। १९ वर्ष की लघु आयु में ही आपने श्रेणिकरास (१७१९) की रचना कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। आपने १३ वर्ष की अल्पायु में ही दीक्षा ग्रहण की थी और अपने गुरु विजयहर्ष के पास थोड़े समय में व्याकरण, काव्य, न्याय, जैनागम आदि में प्रवीणता प्राप्त कर ली। अपने गुरु के साथ इन्होंने अनेक ग्राम और नगरों में भ्रमण किया तथा शत्रुजय, आबू, केशरियाजी, लोद्रवा, जैसलमेर, शंखेश्वर, गौड़ीपार्श्वनाथ आदि विभिन्न तीर्थों की यात्रा की। आपके विद्वत्ता से प्रभावित होकर गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि ने सं० १७४० में इन्हें उपाध्याय पद प्रदान किया। गच्छनायक के देहान्त के पश्चात् जिनसुखसूरि गच्छनायक बने, आपने उन्हें भी विद्याध्ययन कराया। जब तक वे जीवित रहे, उन्हीं के साथ विहार किया। वि०सं० १७७९ में जिनसुखसूरि के निधन के पश्चात् उनके पट्टधर जिनभक्तिसूरि हुए। उस समय उनकी आयु मात्र १० वर्ष की थी इस कारण गच्छ की सम्पूर्ण व्यवस्था भी धर्मवर्धन जी के हाथ रही। आपकी विद्वत्ता और गुणों से प्रभावित होकर बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर आदि राज्यों के शासकों ने अपने-अपने यहाँ आपको सम्मानित किया। वि०सं० १७८३-८४ में बीकानेर में इनका निधन हुआ। रेलदादाजी में आपके निर्वाणस्थल पर छतरी बनी हुई है। धर्मसिंह अपरनाम धर्मवर्धन। इनके द्वारा रचित श्रेणिकचौपाई (वि०सं० १७१९), अमरसेनवयरसेनचौपाई (वि०सं० १७२४), सुरसुन्दरीरास (वि०सं० १७३६), परमात्मप्रकाश हिन्दीटीका (वि०सं० १७६२) आदि प्रमुख कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त आप द्वारा रचित ३०० से अधिक रचनायें मिलती हैं जिन्हें श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा ने धर्मवर्द्धनग्रन्थावली के नाम से एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में सम्पादित कर उसे प्रकाशित किया है। धर्मवर्धन के शिष्य ज्ञानतिलक थे जिनके द्वारा रचित सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति, संस्कृतविज्ञप्तिलेखद्वय तथा कुछ स्तवन आदि मिलते हैं। धर्मवर्धन के दूसरे शिष्य कान्हजी (कीर्तिसुन्दर) हुए जिनके द्वारा संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३४३) 2010_04 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचित अवन्तिसुकुमाल चौढालिया (वि०सं० १७५७), मांकण रास (वि०सं० १७५७), अभयकुमारादि पांचसाधु रास (१७५८), ज्ञानछत्तीसी (१७५८), कौतुकबत्तीसी (१७६१) आदि ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। जयसुन्दर और ज्ञानवल्लभ भी धर्मवर्धन के ही शिष्य थे। कान्हजी (कीर्तिसुन्दर) के शिष्यों-शान्तिसोम और सभारत्न द्वारा लिखी गयी विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ जैसलमेर ग्रन्थ भंडार में प्राप्त होती हैं। श्री अगरचन्द जी नाहटा के अनुसार १८वीं शती तक धर्मवर्धन की शिष्य परम्परा विद्यमान थी। जयसागर उपाध्याय और उनकी शिष्य परम्परा उपाध्याय जयसागर-आचार्य जिनराजसूरि से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। उनके शिष्य एवं प्रथम पट्टधर जिनवर्धनसूरि (जिनसे खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा अस्तित्व में आयी) आपके विद्यागुरु थे। वि०सं० १४७५ में जब दैवी प्रकोप के कारण जिनवर्धनसूरि के स्थान पर जिनभद्रसूरि को जिनराजसूरि के पट्ट पर स्थापित किया गया तो इन्हें अपने पक्ष में करने के लिये जिनभद्रसूरि ने इन्हें उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया। वि०सं० १५१५ आषाढ़ वदि १ को आबू स्थित खरतरवसही के लेखों से ज्ञात होता है कि जयसागर ओसवाल वंश के दरड़ागोत्रीय थे। इनके पिता का नाम आसराज व माता का नाम सोखू था। इनके संसारपक्षीय भ्राता माण्डलिक ने आबू स्थित खरतरवसही का निर्माण कराया और वि०सं० १५१५ आषाढ़ वदि १ को जिनचन्द्रसूरि के हाथों प्रतिष्ठा करायी। जयसागर उपाध्याय अपने समय के विशिष्ट विद्वान् थे। उनके द्वारा रची गयी विभिन्न रचनायें मिलती हैं। जो निम्नानुसार हैं : ___ मौलिक ग्रन्थ १. पर्वरत्नावली - रचनाकाल वि०सं० १४७८ २. विज्ञप्तित्रिवेणी - रचनाकाल वि०सं० १४८४ ३. पृथ्वीचन्द्रचरित्र - रचनाकाल वि०सं० १५०५ ____टीका ग्रन्थ ४. सन्देहदोहावलीलघुवृत्ति - रचनाकाल वि०सं० १४८५ ५. गुरुपारतंत्र्यलघुवृत्ति ६. उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति ७. भावारिवारणस्तोत्रवृत्ति ८. रघुवंशसर्गाधिकार ९. नेमिजिनस्तुतिटीका इसके अतिरिक्त इनके द्वारा बड़ी संख्या में रचित छोटी-छोटी छन्द, स्तुतियाँ, रास, वीनती, विज्ञप्ति, स्तव, स्तोत्र आदि प्राप्त होते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य-मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित विज्ञप्तित्रिवेणी की भूमिका एवं महो० विनयसागर द्वारा सम्पादित अरजिनस्तव की भूमिका। शिष्य समुदाय-जयसागर उपाध्याय के विभिन्न शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। विज्ञप्तित्रिवेणी से ज्ञात होता है कि इनके प्रथम शिष्य मेघराज गणि थे। इनके द्वारा रचित हारचित्रबंध-स्तोत्र नामक (३४४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक लघु कृति मिलती है। इनके दूसरे शिष्य सोमकुंजर थे। इनके द्वारा रचित कुछ अलंकारिक पद्य प्राप्त होते हैं। जैसलमेर स्थित संभवनाथ जिनालय की बृहत्प्रशस्ति इन्हीं की रचना है । विज्ञप्तित्रिवेणी से ज्ञात होता है कि सत्यरुचिगणि, पं० मतिशीलगणि आदि भी इन्हीं के शिष्य थे, परन्तु इनके द्वारा रचित कोई रचना का उल्लेख नहीं मिलता । जयसागर के उक्त शिष्यों के अतिरिक्त रत्नचन्द्र नामक एक शिष्य भी थे जो उक्त सभी शिष्यों से ज्यादा प्रसिद्ध थे । जयसागर की परम्परा में आगे चलकर भानुमेरु के शिष्य ज्ञानविमल एवं तेजोरङ्ग गणि हुए। ज्ञानविमल पाठक की प्रमुख रचना है - महेश्वर कवि रचित शब्दभेदप्रकाश (कोश) पर विशद टीका । उक्त कोश पर रची गयी यह एक एकमात्र टीका है । पाठक श्रीवल्लभ ने अपने शिलोञ्छ नाममाला टीका आदि की प्रशस्तियों में जो गुरु-परम्परा दी है उसके अनुसार इस प्रकार वंशवृक्ष बनता है । (देखिये पृष्ठ ३४६ पर वंशवृक्ष) पाठक श्रीवल्लभ व्याकरण, कोश और काव्य साहित्य के अद्वितीय विद्वान् थे । महो० श्रीवल्लभ द्वारा रचित अन्य कई कृतियाँ भी मिलती हैं :१. स्वोपज्ञजिनस्तववृत्ति - वि० सं० १६५५ के पश्चात्, २. लिङ्गानुशासन - दुर्गपदप्रबोधवृत्ति - वि० सं० १६६१, ३. विजयदेवमहात्म्यमहाकाव्य - वि० सं० १६८४ के आस-पास, ४. निघण्टुशेषनाममालाटीका (अप्राप्य), ५. सारस्वतप्रयोगनिर्णय, ६. केशापदव्याख्या, ७. शिलोञ्छनाममालाटीका, ८. शेषसंग्रहदीपिका, ९. संघपतिरूपजीवंशप्रशस्ति आदि । श्रीवल्लभ के सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य- अरजिनस्तव की भूमिका । श्रीवल्लभ द्वारा प्रणीत ग्रन्थों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इनका बाल्यकाल और प्रौढ़ावस्था राजस्थान में व्यतीत हुआ, किन्तु विजयदेवमाहात्म्य को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये अपनी वृद्धावस्था में गुजरात पहुँचे और वहीं विजयदेवसूरि के चारित्र और तप से प्रभावित होकर विजयदेवमाहात्म्य की रचना की। इस आधार पर उनका स्वर्गवास भी वहीं हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है। * संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 ** (३४५) Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_04 (३४६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड जिन भद्रसूरि ( खरतरगच्छ मूल शाखा ) चारित्रसार उपाध्याय भानुमेरु उपाध्याय ज्ञानविमल उपाध्याय ज्ञानसुन्दर रत्नचन्द्र उपा० (प्रधानशिष्य) भक्तिलाभ उपाध्याय भावसागर गणि जीवकलश जयवल्लभ + मधराज गणि ( हारचित्रबंध] स्तोत्र के रचनाकार) वाचक सोमचन्द्र कनककलश तेजोरंग गणि श्रीवल्लभ उपाध्याय (प्रसिद्ध रचनाकार) जिनराजसूरि (वि०सं०] १४६१ में स्वर्गस्थ ) जयसागर उपाध्याय सोमकुंजर (जैसलमेर स्थित संभवनाथ जिनालय की बृहद्यशक्ति के कर्ता) उपा० सत्यरुचि (इनकी प्रार्थना पर वि०सं० १५०३ में जयसागर उपा० ने पृथ्वीचन्द्र चरित्र की रचना की, इस कार्य में उन्हें अपने प्रधान शिष्य रत्नचन्द्र गणि से सहायता प्राप्त हुई।) जिनवर्धनसूमि (खरतरगच्छ पिप्पलकशाखा के आदिपुरुष) पं० मतिशील (विज्ञप्ति त्रिवेणी में उलिखित) Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभद्रसूरिशाखा में पं० पद्महंस के पौत्र शिष्य एवं सत्यविनय के शिष्य वृद्धिचन्द्र जी हुए। इनका जन्म नाम वर्धी ( वृद्धिचन्द्र) रहा और ये आजीवन वृद्धिचन्द्र के नाम से ही जाने गये । वि०सं० १९३२ में जिनमुक्तिसूरि ने जैसलमेर में इन्हें दीक्षा प्रदान की थी। ये बड़े शान्त स्वभावी और मिलनसार प्रकृति के थे। संगीत के भी ये अच्छे ज्ञाता थे। ये आजीवन जैसलमेर में रहे। इनके हस्तलिखित ग्रन्थों का सम्पूर्ण संग्रह इन्हीं के शिष्य पं० लक्ष्मीचन्द्र यति ने आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी की प्रेरणा से लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद को दे दिया | वृद्धिचन्द्र जी के पूर्वज अत्यन्त चमत्कारी थे। उन्हीं के मार्गनिर्देशन में जैसलमेर के पटवाबाफना परिवार भविष्य में समृद्धशाली हुए । इसी शाखा में हुए उपा० लक्ष्मीप्रधान के शिष्य उपा० मुक्तिकमल ने खरतरगच्छीय विधिविधानों और पूजाओं से सम्बन्धित रत्नसागर नामक एक विशाल ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित किया । इनके शिष्य जयचन्द्र जी हुए। इनका दीक्षा नाम जयपद्म था । इन्हें बीकानेर में दीक्षा प्राप्त हुई थी । इनके पास हस्तलिखित ग्रन्थों का विशाल संग्रह था । उक्त संग्रह को इन्होंने श्रीपूज्य जिनविजयेन्द्रसूरि और पद्मश्री मुनिजिनविजय जी की प्रेरणा से राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान - बीकानेर को सप्रेम भेंट कर दिया। ग्रन्थों को ग्रहण करते समय जिनविजयेन्द्रसूरि जी और जयचन्द्र जी के साथ राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठा ने जो अनुबंध किया था उसका पूर्ण रूप से पालन प्रतिष्ठान की ओर से आज तक नहीं हो सका है। जिनभद्रसूरिशाखा में ही हुए उपाध्याय दानसागर गणि के पौत्र शिष्य उपा० हितवल्लभ को जिनसौभाग्यसूरि ने वि०सं० १९०९ में दीक्षा प्रदान की थी। इनका मूल नाम हिमतू जी था । इन्होंने बहुत प्रयत्न कर बीकोनर के बड़े उपाश्रय में बृहत्ज्ञानभंडार की स्थापना की थी और उसमें उपाध्याय दानसागर जी का संग्रह भी सम्मिलित किया था । महो० दानसागर के दूसरे प्रशिष्य विवेकवर्धन हुए । इनकी दीक्षा जिनहंससूरि द्वारा सं० १९३४ में बीकानेर में हुई थी। इनके शिष्य जयलाभ को जिनचारित्रसूरि ने वि०सं० १९६६ में दीक्षा दी थी। इनका जन्म नाम जतनलाल था और ये आजीवन इसी नाम से प्रसिद्ध रहे। ये सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे । छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों में त्रिपुटी मानी जाती थी - रविशंकर शुक्ल, यति जतनलाल और महन्त लक्ष्मीनारायण । ये कई बार जेल भी गये। देश के आजाद होने पर जब प्रथम आम चुनाव हुए, उस समय इन्हें लोकसभा का टिकट दिया गया परन्तु इन्होंने स्वयं को यति बतलाते हुए उसे स्वीकार नहीं किया । इनका कार्यक्षेत्र महासमुंद रहा । यहीं इन्होंने अपने गुरु के नाम से विवेकवर्धन आश्रम की स्थापना की। आज से लगभग १० वर्ष पूर्व इनका निधन हुआ। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 事事事 (३४७) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. श्री कीर्तिरत्नसूरि उपशाखा यह खरतरगच्छ की स्वतंत्र शाखा न होकर क्षेमकीर्तिशाखा, जिनभद्रसूरिशाखा आदि के समान एक उपशाखा ही थी। यह परम्परा कीर्तिरत्नसूरि के समय से लेकर कीर्तिसार (क्रियोद्धार के पश्चात् जिनकृपाचन्द्रसूरि) के समय तक बड़ी गद्दी अर्थात् बीकानेर के श्रीपूज्यजी की ही आज्ञानुवर्ती रही। आचार्य कीर्तिरत्नसूरि जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे। उन्हीं से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और गुरु ने ही इन्हें वि०सं० १४७० में वाचक पद प्रदान किया था। वि०सं० १४७५ में जब क्षेत्रपाल को लेकर विवाद और फलस्वरूप शाखा भेद हुआ तो उस समय ये जिनवर्धनसूरि और जिनभद्रसूरि दोनों से तटस्थ रहे। बाद में जिनभद्रसूरि ने इन्हें (कीर्तिराज) को अपनी ओर मिला लिया और वि०सं० १४८० में उपाध्याय पद प्रदान किया। जिनभद्रसूरि ने ही वि०सं० १४९७ में इन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर कीर्तिरत्नसूरि नाम प्रदान किया। इनकी परम्परा में इनके पश्चात् गुणरत्नसूरि को छोड़कर किसी भी अन्य मुनि को आचार्य पद नहीं मिला। कीर्तिरत्नसूरि के सम्बन्ध में हमें निम्नलिखित साक्ष्यों से जानकारी प्राप्त होती है-१. कीर्तिरत्नसूरिस्तूप प्रशस्ति, २. हर्षकल्लोल गणि द्वारा लिखित कीर्तिरत्नसूरि परम्परा का इतिहास (अप्रकाशित), ३. शंखवाल गोत्र का इतिहास, ४. कीर्तिरत्नसूरिउत्पत्तिछंद एवं गीत-स्तवन आदि । उक्त साक्ष्यों के आधार पर इनके जीवन-परिचय को यहाँ अति संक्षिप्त में प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ इनके पिता का नाम देपमल्ल और माता का नाम देवलदे था। ये शंखवालेचा गोत्र के थे। वि०सं० १४४९ चैत्र सुदि ८ को कोरटा में इनका जन्म हुआ। ये अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। १३ वर्ष की उम्र में इनका विवाह होना निश्चित हुआ और ये बारात लेकर चले भी, किन्तु मार्ग में इनके सेवक का दुःखद निधन हो गया जिससे इन्हें वैराग्य हो गया और अपने परिजनों से आज्ञा लेकर वि०सं० १४६३ आषाढ़ वदि ११ को जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षित हो गये और कीर्तिराज नाम प्राप्त किया। अल्पसमय में ही विभिन्न शास्त्रों में निपुण हो गये तब पाटण में जिनवर्धनसूरि ने इन्हें वि०सं० १४७० में वाचक पद प्रदान किया। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि जैसलमेर के जिनालय में क्षेत्रपाल को बाहर स्थापित करने के प्रसंग में संघ भेद हो गया और जिनवर्धनसूरि का शिष्य समुदाय अलग हो गया जो आगे चलकर पिप्पलक खरतर के नाम से जाना गया। कीर्तिराज को जिनवर्धनसूरि और जिनभद्रसूरि दोनों ने आमंत्रित किया। दुविधा की स्थिति में इन्होंने ४ वर्ष महेवा में ही बिताये। वि०सं० १४८० में जिनभद्रसूरि स्वयं महेवा पधारे और इन्हें वि०सं० १४८० वैशाख सुदि १० को उपाध्याय पद प्रदान किया। कीर्तिराज उपाध्याय संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। वि०सं० १४७३ में जैसलमेर में रचित लक्ष्मणविहारप्रशस्ति इनकी सुललित पदावली युक्त रमणीय कृति है। (द्रष्टव्य० जैनलेखसंग्रह, भाग-३)। सं० १४७६ में रचित अजितनाथजयमाला चित्रस्तोत्र चित्रालंकार और श्लेषगर्भित (३४८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ____ 2010_04 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौढ़ रचना है। वि०सं० १४८५ में रचित नेमिनाथमहाकाव्य इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इनके अतिरिक्त संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं। आपकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर आचार्य जिनभद्रसूरि ने वि०सं० १४९७ माघ सुदि १० को जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान कर कीर्तिरत्नसूरि नाम रखा। वि०सं० १५१२ में नाकोड़ा ग्राम के शुष्क तालाब से पार्श्वनाथ की प्रतिमा इन्हें प्राप्त हुई, जिसे इन्होंने वीरमपुर के जिनालय में प्रतिष्ठापित की। साथ ही भैरव देव की भी स्थापना की। आज भी नाकोड़ा तीर्थ में भगवान् पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह के बाहर ही जहाँ एक तरफ भैरव देव विराजमान हैं, वहीं उनके समक्ष संवत् १५३६ की प्रतिष्ठित श्री जिनकीर्तिसूरि की मूर्ति भी विराजमान है। वि०सं० १५१४ में जब जिनभद्रसूरि का निधन हुआ, उस समय इन्होंने जिनचन्द्रसूरि को गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित किया। वि०सं० १५१८ ज्येष्ठ वदि ५ को वीरमपुर में शान्तिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा के समय जिनचन्द्रसूरि के साथ आप भी उपस्थित रहे। इन्होंने स्वहस्त से ५१ लोगों को दीक्षा दी जिनमें उपाध्याय लावण्यशील, वाचक क्षान्तिरत्न गणि, वाचक धर्मधीर गणि आदि प्रमुख थे। वाचक क्षान्तिरत्न गणि ही आचार्य बनने पर गुणरत्नसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। वि०सं० १५२५ वैशाख वदि५ को वीरमपुर में कीर्तिरत्नसूरिका निधन हुआ। जिस रात्रि में आचार्यश्री का स्वर्गवास हुआ उस रात्रि में जिन-मन्दिर के दरवाजे स्वत: बन्द हो गये और आचार्य के पुण्यप्रभाव से मन्दिर में स्वत: ही दीप पंक्तियाँ प्रज्ज्वलित हो गईं। जिस स्थान पर इनका दाह संस्कार किया गया था उसी स्थान पर आचार्य के परिवार वालों मालाशाह आदि ने स्तूप बनवाकर वि०सं० १५२५ वैशाख वदि ६ के दिन खरतरगच्छालंकार श्री जिनभद्रसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि से प्रतिष्ठा करवाई। आज यह स्थान नाकोड़ा तीर्थ में श्री कीर्तिरत्नसूरि दादाबाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। पाठक ललितकीर्ति रचित कीर्तिरत्नसूरि गीत के अनुसार केवल वीरमपुर में ही नहीं अपितु आचार्यश्री की स्मृति में महेवा, जोधपुर, राजनगर, आबू और बीकानेर आदि नगरों में छत्री बनवाकर चरण स्थापित किये गये थे। इस शाखा के मुनिजनों की नामावली इस प्रकार है : १. कीर्तिरत्नसूरि २. उपाध्याय लावण्यशील (सेठ गोत्रीय) ३. वाचक पुण्यधीर गणि (कांकरिया) ४. वाचक ज्ञानकीर्ति गणि (श्रीमाल) ५. वाचक गुणप्रमोद गणि (हुंबड़) ६. वाचक समयकीर्ति गणि (नाहटा) ७. वाचक हर्षकल्लोल ८. विनयकल्लोल ९. उपाध्याय चन्द्रकीर्ति १०. उपाध्याय सुमतिरंग संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३४९) _ 2010_04 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. उपाध्याय सुखलाभ १२. वाचक जगसी (जिनहंस) १३. महो० माणिक्यमूर्ति १४. पं० भावहर्ष १५. उपाध्याय अमरविमल १६. पं० अमृतसुन्दर १७. पं० महिमाहेम १७. पं० जयकीर्ति १८. पं० हर्षविजय १८. पं० प्रतापसौभाग्य १९. पं० कल्याणसागर १९. पं० अभयचन्द्र २०. पं० समुद्रसोम २१. पं० युक्तिअमृत २२. श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि (कीर्तिसार) २३. श्री जयसागरसूरि-पं० आनन्दमुनि, उ० सुखसागर, वाचक राजसागर, पं० जीतसागर, मयासागर, हेमसागर, विवेकसागर, मग्नसागर, वर्धनसागर, उदयसागर, मंगलसागर, मतिसागर, कीर्तिसागर, तिलकभद्र आदि २५ शिष्य २४. उपा० सुखसागर २५. मुनि कांतिसागर पं० जयकीर्ति के पट्टधर पं० प्रतापसौभाग्य की परम्परा में दानविशाल हुए। उनके शिष्य ऋद्धिकमल हुए, जिनके प्रशिष्य और अमृतसार के शिष्य प्रीतिविजय (प्यारेलाल) हुए। इनका देहान्त लगभग ३५ वर्ष पूर्व बीकानेर में हुआ। १७. पं० जयकीर्ति १८. पं० प्रतापसौभाग्य १९. पं० अभयचन्द्र १९. पं० दानविशाल २०. पं० ऋद्धिकमल २१. पं० अमृतसार २२. पं० प्रीतिविजय (प्यारेलाल) (३५०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिरत्नसूरि के एक शिष्य कल्याणचन्द्र गणि द्वारा रचित कीर्तिरत्नसूरिचउपइ, कीर्तिरत्नसूरिगीत आदि कृतियाँ मिलती हैं। इनका रचनाकाल वि०सं० १५२५ के पश्चात् माना जाता है। कीर्तिरत्नसूरि के एक अन्य शिष्य गुणरत्न हुए, जिनके द्वारा रचित कोई भी कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य पद्ममन्दिर गणि द्वारा रचित जालौरनवफणापार्श्वनाथस्तवन (वि०सं० १५४३), गुणरत्नसूरिविवाहलो (वि०सं० १५४५), वरकाणापार्श्वस्तोत्र, देवतिलकउपाध्यायचउपइ आदि कुछ रचनायें प्राप्त होती हैं। कीर्तिरत्नसूरि के एक शिष्य हर्षविशाल की परम्परा में हुए लब्धिकल्लोल द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं, इनमें जिनचन्द्रसूरिअकबरप्रतिबोधरास (वि०सं० १६४८), रिपुमर्दनरास (वि०सं० १६४९), कृतकर्मराजर्षिचौपाई (वि०सं० १६६५) प्रमुख हैं। लब्धिकल्लोल गणि के एक शिष्य गंगादास ने वि०सं० १६७१ में वङ्कचूलरास की रचना की। लब्धिकल्लोल के दूसरे शिष्य ललितकीर्ति द्वारा रचित शिशुपाल वध टीका विशिष्ट कृति प्राप्त है। इनके शिष्य पुण्यहर्ष द्वारा रचित थावच्चासुगसेलगचौपाई (वि०सं० १७०३), अरहन्नकचौपाई (वि०सं० १७३२), नेमिनाथफागु आदि उल्लेखनीय हैं। पुण्यहर्ष के शिष्य अभयकुशल द्वारा वि०सं० १७०९ में रचित जिनपालितजिनरक्षितरास, वि०सं० १७३७ में रचित ऋषभदत्तरूपवती-चौपाई, हरिबलचौपाई आदि कुछ कृतियाँ मिलती हैं। वि०सं० १७४४ श्रीपालचरित के रचनाकार पं० चारित्रउदय भी इसी शाखा में हुए जो जयसौभाग्य गणि के शिष्य थे। कीर्तिरत्नसूरि के प्रमुख शिष्य उपा० लावण्यशील की परम्परा में हुए वाचक चन्द्रकीर्ति के शिष्य उपाध्याय सुमतिरंग द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती हैं इनमें योगशास्त्र (वि०सं० १७२०), प्रबोधचिन्तामणि (वि०सं० १७२२), हरिकेशीसाधुसंधि (वि०सं० १७२७), जम्बूस्वामीचौपाई (वि०सं० १७२९) मुख्य हैं। इसी परम्परा में आगे चलकर हुए अमृतसुन्दर के शिष्य जयकीर्ति ने वि०सं० १८६८ में श्रीपालचरित (संस्कृत गद्य) की रचना की। क्रमांक १७ से यह परम्परा दो भागों में बंट जाती है-महिमाहेम की परम्परा और पं० जयकीति की परम्परा। महिमाहेम की परम्परा में उनके बाद क्रमशः पं० हर्षविजय और पं० कल्याणसागर हुए। इनके पश्चात् यह परम्परा समाप्त हो गयी। पं० जयकीर्ति के शिष्य प्रतापचन्द के पश्चात् यह परम्परा पुनः दो भागों में बंट जाती है-प्रथम पं० अभयचन्द की परम्परा और द्वितीय पं० दानविशाल की परम्परा । दानविशाल परम्परा के अंतिम कड़ी में पं० प्रीतिविजय (प्यारेलाल) थे। इनका ऊपर उल्लेख आ चुका है। ___पं० अभयचन्द की परम्परा में २२ वें क्रमांक में आये जिनकृपाचन्द्रसूरि २०वीं शताब्दी के प्रभावक जैनाचार्य थे। इन्होंने परम्परा में शिथिलाचार को देखते हुए वि०सं० १९४१ में क्रियोद्धार किया। वि०सं० १९७२ में मुम्बई में आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १९९४ में पालिताना में आप स्वर्गवासी हुए। आपकी परम्परा का परिचय संविनसाधु परम्परा के अन्तर्गत विस्तार से दिया गया है अतः यहाँ उसकी पुनरावृत्ति अनावश्यक है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३५१) _ 2010_04 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ की संविग्न साधु-परम्परा का इतिहास यह निर्विवाद सत्य है कि यशोलिप्सा और शारीरिक सुविधावाद आदि ऐसी मानवीय दुर्बलताएँ हैं कि इसके घेरे में आकर अच्छे से अच्छे व्रती और तपस्वी भी अपने आत्मसाधना मार्ग से फिसल जाते हैं। ये दुर्बलताएँ यह भेद नहीं करतीं कि यह साधु है या साध्वी, श्रावक है या श्राविका, व्रती है या अव्रती। तनिक-सी फिसलन भी क्रमशः अपना व्यूह बनाकर बृहद् रूप धारण कर लेती है। फलतः मानव उस फिसलन की गर्त में धीमे-धीमे बढ़ता जाता है और उसका ऐसा आदी हो जाता है कि उसको धर्म के आवरण में लपेटना चाहता है। इसी के प्रतिफलस्वरूप जीवन में शिथिलाचार बढ़ता जाता है । जिस शिथिलाचार का आचार्य वर्धमान और आचार्य जिनेश्वर ने सक्रिय विरोध किया था और सुविहित/संविग्न परम्परा की नींव रखी थी वह शताब्दियों तक फूलती - फलती रही। धीरेधीरे शिथिलाचार ने इसमें प्रवेश करना प्रारम्भ किया। इसी के प्रतिकार रूप में अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने सम्वत् १६१४ में क्रियोद्धार किया । पुनः इसमें शिथिलता के बीज पैदा हुए। सम्वत् १६९१ में समयसुन्दरोपाध्याय ने क्रियोद्धार किया । धीमे-धीमे पुन: इसमें विकृतियाँ आने लगीं तो इसके प्रतिकारस्वरूप कई क्रियापात्र साधुओं ने समय-समय पर क्रियोद्धार किया । इन क्रियोद्धारक साधुवर्ग की परम्परा वर्तमान समय में संविग्न परम्परा कहलाई । इस समय में यह संविग्न परम्परा तीन महापुरुषों के नाम से खरतरगच्छ में प्रसिद्ध है : १. सुखसागरजी महाराज का समुदाय, २. कृपाचन्द्रसूरिजी महाराज का समुदाय और ३. मोहनलालजी महाराज का समुदाय। अत: इन तीन समुदायों का यहाँ संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना अभीष्ट है। १. श्री सुखसागरजी म० का समुदाय सुखसागर जी म० की परम्परा में यह एक विशेष बात है कि वे अपनी परम्परा को " क्षमा कल्याणजी महाराज की वासक्षेप" के नाम से मानते आ रहे हैं, अतः सुखसागर जी महाराज की परम्परा का वस्तुतः अभ्युदय महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी महाराज से ही प्रारम्भ होता है । इसी कारण इस परम्परा का परिचय क्षमाकल्याण जी के दादागुरु उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से प्रारम्भ करते हैं । ( १ ) उपाध्याय श्री प्रीतिसागर गणि श्री जिनभक्तिसूरि जी के शिष्य उपाध्याय प्रीतिसागर गणि हुए। दीक्षा नंदी सूची के अनुसार आप की दीक्षा सं० १७८८ में हुई। आपका जन्म नाम प्रेमचंद था । सं० १८०१ में राधनपुर में श्री जिनभक्तिसूरि जी के साथ थे । सं० १८०४ में जिनलाभसूरि जी के साथ भुज नगर, सं० १८०५ में गूढा, सं० १८०६ में जैसलमेर में भी आप साथ ही थे । सं० १८०८ में कार्तिक वदि १३ को बीकानेर (३५२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गणनायक श्री सुखसागर जी म. का समुदाय/परंपरा WONGOZGUBOXCONUTOS COLONULU ROZTOONS OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO OICECOM OCCCCCCCCCCOCOACCCCCCCOOS COOOOOOOOO OOOOOAD स्व. गणनायक श्री सुखसागर जी म. स्व. गणाधीश्वर श्री छगनसागर जी म. PURACUCUCUCUOUOURU9 DODANONE AND DONDO DYDD அனாலைவனதOOOOாவனம் DDADADDDDDDDDDDDDAADDIDDUDD மலைமைமை லெOOOOOOOOOOOOOOOD स्व. गणनायक श्री त्रैलोक्यसागर जी म. 3. aariar friefள். diary.org) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. महोपाध्याय श्री सुमतिसागर जी म. स्व. आचार्य श्री जिनमणिसागरसूरि जी म. E n Internati04 y Putsorat Only nargs Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. आचार्य श्री जिनानंदसागरसूरि जी म. स्व. गणाधीश श्री हेमेन्द्रसागर जी म. स्व. आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि जी म. स्व. आचार्य श्री जिनउदयसागरसूरि जी म. Private & Personal Use Only / Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOZDNOUND DND DN D ODONDADO स्व. आचार्य श्री जिनकांतिसागरसूरि जी म. NOLONDOASLSACROACMSNSLSASLSAAR स्व. आचार्य श्री जिनमहोदयसागरसूरि जी म. भOCONUTANDONVOCVOCE गणाधीश उपाध्याय श्री कैलाशसागर जी म. 2010_04 www.jaindia Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CANCHANGEDO COCOMOTCOICTIO उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म. COMOT श्री मनोज्ञसागर जी म. श्री मुक्तिप्रभसागर जी म. श्री मनीषप्रभसागर जी म. श्री मयंकप्रभसागर जी म. श्री मनितप्रभसागर जी म. श्री मेहलप्रभसागर जी म. Jain Education interna önált 20% "ware & Personal USE Wannelibrarorg Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि श्री महिमाप्रभसागर जी म. महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागर जी म. दार्शनिक संत श्री चन्द्रप्रभ जी म. 2010_04 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શિS(950.00 GSSSSSSSSSSSS હિSS Sિ SSS, in iti /> < a ગણ શ્રી પૂર્ણાનસાગરની મe ક SSSSSSSSSSS : CUCU BUCUCURUADED BUCODOU भुनि श्री कीर्तिसागरजी म. દAGS CADORDODOVODOVODOVODADOVODA છે. રહી NOOOOOOOOOO મુનિ શ્રી સુયશપ્રમસાગરની મ૦ રણજિક ee G ITS R 2010_04 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saatw alerailwarancescato मुनि श्री मणिरत्नसागरजी म० SO90S00000000SS DOGOTATEGOGATEGOJRJAGATOR मुनि श्री पीयुषसागरजी म० 00000000000 CTEGOGOTATOFOTOGATOGOGODAGA मुनि श्री महेन्द्रसागरजी म० onooooooooo or pervates Personale Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में स्वर्गवासी हुए । सं० १८५२ में प्रतिष्ठित आपकी चरण पादुकाएँ जैसलमेर में हैं (बी०जै० ले०सं०, लेखांक २८४४) । ( २ ) वाचक श्री अमृतधर्म गणि आपका कच्छ देश के ओसवंशीय वृद्ध शाखा में जन्म हुआ। आपका नाम अर्जुन था । सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को भुज नगर में श्री जिनलाभसूरि जी के कर-कमलों से दीक्षित होकर संविग्नपक्षीय श्री प्रीतिसागर जी के शिष्य हुए। शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा की । सिद्धान्तों के योगोद्वहन किए । वैराग्य वासित तो थे ही, अतः पहले कुछ व्रत नियम ग्रहण किए और सं० १८३८ माघ सुदि ५ को सर्वथा परिग्रह का त्याग कर दिया । सं० १८२६ में श्री जिनलाभसूरि जी ने अपने पास बुलाकर सं० १८२७ में वाचनाचार्य पद से विभूषित किया। सं० १८४० तक उनके तथा पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ रहे। सं० १८४३ में आप पूरब देश पधारे, वहाँ के तीर्थों की यात्रा और धर्म प्रचार किया। आपके उपदेश से कई नवीन जिनालय बने, ध्वज दण्ड प्रतिष्ठादि उत्सव हुए। सं० १८४८ में पटना में सुदर्शन श्रेष्ठी के देहरे के समीप कोशा वेश्या का स्थान ( जमींदार से २०० में खरीदी हुई भूमि) पर आपके उपदेश से स्थूलिभद्र जी की देहरी बनी जिसमें आपने प्रतिष्ठा कराई। सं० १८५० का चातुर्मास बीकानेर में किया और सं० १८५१ का जैसलमेर चातुर्मास करने के पश्चात् मिती माघ सुदि ८ को वहाँ स्वर्गवासी हुए। वहाँ अमृतधर्म स्मृति शाला में आपके गुरुओं के चरणों के साथ आपके चरण प्रतिष्ठित हैं तथा क्षमाकल्याण जी द्वारा रचित अष्टक भी शिलालेख में उत्कीर्णित है जो 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' और 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' के लेखांक २८४१ में प्रकाशित है। (३) उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण बीकानेर के निकटवर्ती केसरदेसर गाँव के ओसवाल वंशीय मालू गोत्र में आपश्री ने जन्म ग्रहण किया। आपका जन्म सं० १८०१ और जन्म नाम खुशालचंद था । सं० १८१२ में आपने गुरुवर्य अमृतधर्म गणि के पास आकर अध्ययन प्रारम्भ किया और सं० १८१६ मिती आषाढ़ वदि २ को जैसलमेर में खरतरगच्छनायक श्री जिनलाभसूरि जी के कर-कमलों से दीक्षित होकर क्षमाकल्याण जी नाम से श्री अमृतधर्म गणि के शिष्य रूप में प्रसिद्ध हुए । आपका शास्त्राध्ययन क्षेमकीर्ति शाखा के उपा० राजसोम जी के पास सं० १८२२ तक और बाद में उपा० रामविजय (रूपचंद जी) के सान्निध्य में सुचारु रूप से हुआ। आपका विचरण गच्छनायक श्री जिनलाभसूरि जी व श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ और अधिकांश गुरु महाराज श्री अमृतधर्म जी के सान्निध्य में हुआ । सं० १८२४ में बीकानेर, बाद में सं० १८२६ से १८३३ तक गुजरात-काठियावाड़ में विचरे । सं० १८३४ में आबू व संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३५३) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के तीर्थों की यात्रा करते हुए जैसलमेर पधारे और सं० १८३८ से ४० तक वहीं रहे। संवत् १८३८ में आपश्री ने क्रियोद्धार किया और साधु-परम्परा के लिये कई विशिष्ट नियम बनाये। गुरु महाराज साथ ही थे। सं० १८४३ में बंगाल आकर बालूचर में चातुर्मास किया। यहाँ भगवती सूत्र जैसे अर्थ गंभीर आगम की वाचना (व्याख्यान) की। सं० १८४८ तक आप पूरब देश में ही विचरण कर धर्मप्रचार करते रहे। सं० १८५० में बीकानेर होते हुए सं० १८५१ जैसलमेर पधारे। गुरु महाराज का वहाँ स्वर्गवास हो गया। सं० १८५२ जैसलमेर, सं० १८५३ बीकानेर में चातुर्मास कर, सं० १८५४ में घाणेराव संघ के साथ गिरनार और शत्रुजय पधारे। सं० १८५५ में गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको वाचक पद दिया। उनके पट्टधर श्री जिनहर्षसूरि जी ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया। सं० १८५५ में सूरत से अंतरिक्ष जी यात्रा करते हुए नागपुर गये। सं० १८५६ से जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, किशनगढ़, देशनोक, अजमेर आदि राजस्थान के विभिन्न स्थानों में विचरण करते रहे। सं० १८७३ पौष कृष्ण १४ मंगलवार को आप बीकानेर में स्वर्गवासी हुए। रेलदादा जी में आपकी चरण पादुकाएँ, सीमंधर जिनालय व सुगन जी महाराज के उपाश्रय में आपकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हुईं। ___ एक बार आप जब जैसलमेर में थे तब महाराजा जोधपुर ने जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया। महारावल जी की सेना भी रणभूमि में उतर पड़ी पर विजय प्राप्त करना कठिन था। ऐसी विषम परिस्थिति में महारावल जी ने आपश्री के पास आकर लज्जा रखने की प्रार्थना की। आपने एक नगारा मंगवा कर उस पर सर्वतोभद्र यंत्र लिख दिया, जिसे लेकर महारावल जी डंके की चोट गर्जारव करते हुए युद्ध क्षेत्र में आगे बढ़े। यंत्र के अमोघ प्रभाव से शत्रुसेना पलायन कर गई। महारावल जी विजयी होकर आये। वे आपके परम भक्त तो थे ही, जैन धर्म पर भी दृढ़ श्रद्धालु हो गये। एक दिन सभा में महारावल जी ने एक ज्योतिषी से अपनी आयु के सम्बन्ध में प्रश्न किया। ज्योतिषी ने सात वर्ष आयु शेष बतलाई। नरेश्वर ने गुरु महाराज से इसका निर्णय देने की प्रार्थना की तो आपश्री ने सत्रह वर्ष पर्यन्त निरापद आयु बतलाई। आपके कथनानुसार रावल जी सत्रह वर्ष जीवित रहे और आपका भविष्य कथन सत्य प्रमाणित हुआ। तीर्थयात्रा :-आपने शत्रुजय, गिरनार, आबू, शंखेश्वर, सम्मेतशिखर, पावापुरी, पटना, राजगृह, क्षत्रियकुण्ड, अंतरिक्षजी, घोघाबंदर, लौद्रवा, नाकोड़ा, फलवर्द्धि, गौड़ी पार्श्वनाथ, जीरावला, खंभात आदि अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं। सं० १८६६ में संघपति राजाराम गिडिया व तिलोकचंद लूणिया द्वारा आपश्री के उपदेश से शत्रुजय-गिरनार आदि समस्त तीर्थों का यात्री संघ निकला, जिसमें चार श्रीपूज्य आचार्य और बहुसंख्यक यति-साधु एवं देश के विभिन्न नगरों से आया हुआ यात्री संघ सम्मिलित था। प्रतिष्ठाएँ :-आपने अजीमगंज, महिमापुर, महाजनटोली (आरा), पटना, राजगृह, देवीकोट, देशनोक, अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, मंडोवर आदि विभिन्न स्थानों में जिनालयों व यंत्र-पट्टादि की प्रतिष्ठाएँ (३५४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___ 2010_04 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराई थीं। बंगाल से कच्छ तक एवं राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली प्रदेशादि में सर्वत्र विचरण कर धर्मप्रचार किया था । ग्रन्थ-रचना :-आप अपने समय के बड़े भारी गीतार्थ विद्वान्, चिन्तनशील और आगम प्रकरणादि के गंभीर अभ्यासी थे । आपने संस्कृत व मरु-गुर्जर भाषा में अनेक विद्वत्तापूर्ण मौलिक ग्रन्थ, प्रश्नोत्तर ग्रन्थ व अनेक ग्रन्थों पर टीकाओं का निर्माण किया था; जिनमें तर्कसंग्रहफक्किका, गौतमीयकाव्यवृत्ति, खरतरगच्छपट्टावली, आत्मप्रबोध, श्रावकविधिप्रकाश, साधुविधिप्रकाश, यशोधरचरित्र, सूक्ति रत्नावलीस्वोपज्ञ वृत्ति, प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक, अंबड़चरित्र, विज्ञानचन्द्रिका, चातुर्मासिकव्याख्यान, अष्टाह्निकाव्याख्यान, मेरुत्रयोदयीव्याख्यान, होलिकाव्याख्यान, श्रीपालचरित्रवृत्ति, समरादित्यचरित्र (अपूर्ण) आदि संवतोल्लेख वाले तथा जिन-स्तुति, चतुर्विंशतिचैत्यवदन, प्रतिक्रमणहेतवः, संग्रहणी सपर्याय आदि एवं स्तोत्र स्तवनादि तथा मरु - गुर्जर भाषा की भी संख्याबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनकी सूची यहाँ सीमित स्थान में देना संभव नहीं । आपके अपूर्ण ग्रन्थ समरादित्यचरित्र को विद्वान् मुनि सुमतिवर्द्धन ने १८७४ में रच कर पूर्ण किया । सुमतिवर्द्धन की और भी कई कृतियाँ उपलब्ध हैं। इनके शिष्य चारित्रसागर ने साधुविधिप्रकाश का भाषानुवाद किया व आपके पास विद्याध्ययन करने वाले दूसरे विद्वान् उम्मेदचन्द्र के भी प्रश्नोत्तरसारशतक व दीवालीव्याख्यानादि रचनाएँ उपलब्ध हैं । जब श्री क्षमाकल्याण जी का सं० १८७३ पौष वदि १४ मंगलवार को बीकानेर में स्वर्गवास हो गया तो उसी दिन अपने परम भक्त सम्प्रतिराम व्यास को जैसलमेर और लौद्रवाजी तीर्थ के बीच में आपने दर्शन दिये । व्यास जी ने दो दिन बाद जैसलमेर आने पर जब आपश्री के स्वर्गवासी हो जाने की खबर सुनी तो वे अवाक् हो गए। उनकी दो दिन पूर्व प्रत्यक्ष दर्शन होने की बात ने सारे संघ को आश्चर्यचकित कर दिया । शिष्य परम्परा :- आपके कल्याणविजय, विवेकविजय ( दोनों की दीक्षा सं० १८३५ में हुई थी), विद्यानन्दन और धर्मविशाल, जिनका दूसरा नाम धर्मानन्द जी है, शिष्य थे । धर्मविशाल जी की परम्परा में राजसागर जी के प्रशिष्य एवं ऋद्धिसागर जी के शिष्य गणाधीश सुखसागर जी हुए। धर्मानन्द जी के दूसरे शिष्य सुमतिमण्डन जी (सुगन जी) द्वारा अनेक पूजादि साहित्य रचित हैं । वे पहले संवेगी थे बाद में शिथिल हो गए। खरतरगच्छदीक्षानन्दी सूची के अनुसार दो अन्य प्रशिष्यों के नामोल्लेख प्राप्त हैं :- गुणानन्द और ज्ञानानन्द ( दीक्षा सं० १८५६ ) । श्री क्षमाकल्याण जी सं० १८३८ में अपने गुरु महाराज के साथ सर्वथा परिग्रह त्यागी (संवेगी ) होकर अपने वस्त्र भी यतिजनों से भिन्नता दिखाने के लिए कत्थे के पानी में डुबो कर पहनने लगे थे । वर्तमान में उस रंग भेद की उपयोगिता भी नहीं रही । उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण जी बड़े चारित्रपात्र और पुण्यात्मा थे। आज खरतरगच्छ के लगभग २०० साधु-साध्वी आपकी ही परम्परा / समुदाय के हैं जो सुखसागर जी महाराज का संघाड़ा (समुदाय) कहलाता है । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३५५) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमाकल्याणजी के वासक्षेप का महत्त्व :- संविग्नपक्षीय महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी की परम्परा में श्री सुखसागर जी महाराज के समुदाय में दीक्षानामकरण संस्कार के समय उद्घोषित किया जाता है "कोटिकगण, वज्रशाखा, चन्द्रकुल, खरतरविरुद, महो० क्षमाकल्याणजी की वासक्षेप, सुखसागर जी का समुदाय, वर्तमान आचार्य............. आदि । " इस उद्घोष में महो० क्षमाकल्याण जी के वासक्षेप का उच्चारण विशिष्ट स्थान रखता है। दीक्षादान के समय आचार्य द्वारा प्रदत्त वासक्षेप अपना विशेष महत्त्व रखती है, किन्तु तत्कालीन आचार्यगण श्रीपूज्यजी महाराज थे अतः संविग्नपक्षीय साधु परम्परा में उसे उपयुक्त न समझ कर क्षमाकल्याणजी के वासक्षेप की परम्परा सुरक्षित रखी गयी। उसी पूर्व वासक्षेप में तत्कालीन पदधारी गीतार्थ साधु नवीन वासक्षेप का मिश्रण कर प्रदान करते रहे हैं। यह वर्तमान में खरतरगच्छ-सुखसागर जी महाराज की परम्परा में सर्वमान्य है । (४) श्री धर्मानन्द इनकी दीक्षा सं० १८७० ज्येष्ठ वदि ६ को जयपुर में हुई, दीक्षा नाम धर्मविशाल हुआ। आपने सं० १८७४ आषाढ़ शुक्ला ६ को बीकानेर रेलदादा जी में श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय जी के चरण प्रतिष्ठित किये। आपके उपदेश से श्री भांडासर जी मन्दिर के परिसर में श्री सीमंधर स्वामी के जिनालय का निर्माण हुआ और सं० १८८७ आषाढ़ सुदि १० को श्री जिनहर्षसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठा हुई। सं० १८७८ कार्तिक सुदि ५ को आपके द्वारा प्रतिष्ठित सिद्धचक्रयंत्र देशनोक में है। सं० १८८६ माघ सुदि ५ को बीकानेर में राजाराम को रत्नराज नाम से दीक्षित किया, संभवतः यही राजसागर जी नाम से प्रसिद्ध हुए हों । सं० १९१२ में शिष्य सुगनजी की दीक्षा द्वि० आषाढ़ सुदि १ को हुई, सुमतिमण्डन नाम रखा गया। ये अच्छे विद्वान् और कवि हुए हैं। बीकानेर का उपाश्रय धर्मानन्द जी या सुगन जी का उपाश्रय कहलाता है। श्री धर्मानन्द जी के चरण सं० १९२८ ज्येष्ठ वदि २ को रेलदादा जी में सुमतिमण्डन ने प्रतिष्ठित किये थे । अन्तिम अवस्था में इनके आचार में कुछ शैथिल्य आ गया था । सं० १९६८ माघ शुक्ल ५ बुधवार को प्रतिष्ठित इनके चरण प्राप्त हैं। खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार सुमतिमण्डन (सुगनजी) के तीन शिष्य १. जयदत्त (दीक्षा सं० १९४१), २. हितकुशल (दीक्षा सं० १९५४), ३. राजसौभाग्य (दीक्षा सं० १९५६) और पौत्र शिष्य रत्नसुन्दर (दीक्षा सं० १९६३) थे। (५) श्री राजसागर इनकी दीक्षा सं० १८८६ माघ सुदि ५ को हुई । ये प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने अपने ज्ञान बल से सैकड़ों लोगों को उपदेश देकर और माँस-मदिरा का त्याग करवा के दुर्व्यसनों से मुक्त कराया। इनके सम्बन्ध में विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है। (३५६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) श्री ऋद्धिसागर ये उच्च कोटि के प्रभावशाली विद्वान् थे, साथ ही चमत्कारी और मन्त्रवादी भी । वृद्धजनों से ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र शक्ति से इन्हें ऐसी विद्या प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाशगमन कर सकते थे। आबू तीर्थ की अंग्रेजों द्वारा आशातना देखकर इन्होंने विरोध किया था । राजकीय कार्यवाही में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे और अन्त में तीर्थ रक्षा हेतु गवर्नमेन्ट से ११ नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे । त्रिस्तुतिक आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि जी और तपागच्छ के झवेरसागर जी के चतुर्थ स्तुति सम्बन्धी शास्त्रार्थ के निर्णायकों में मण्डलाचार्य बालचन्द्रसूरि जी के साथ आप भी थे। सं० १९५२ में आप स्वर्गवासी हुए । ७) गणाधीश श्री सुखसागर आपका जन्म सरस्वती पत्तन (सरसा) के दूगड़ गोत्रीय मनसुखलाल जी की धर्मपत्नी जेती बाइ की कोख से सं० १८७६ में हुआ । तरुणावस्था में प्रविष्ट होते ही माता-पिता का वियोग हो जाने से अपनी बहन के आग्रह से आप जयपुर आ गए। गोलेछा माणकचंद जी, लक्ष्मीचंद जी की सहायता से किराने का व्यापार करने लगे। थोड़े दिनों में अपने व्यवहार कौशल्य के कारण उनके यहाँ मुनीम जैसे उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर सुशोभित हो गए। बाल्यावस्था से ही धर्म ध्यान की ओर रुचि होने से सामायिक, पूजा, तपश्चर्या में विशेष संलग्न रहने लगे । सं० १९०६ में जयपुर में मुनि श्री राजसागर जी ऋद्धिसागर जी का चातुर्मास हुआ । उत्कृष्ट वैराग्य परिणाम होने से आपने निकट सम्बन्धियों से अनुमति प्राप्त कर क्षमत- क्षामणा के मांगलिक पर्व भाद्रपद सुदि ५ के दिन गुरु महाराज से दीक्षा ग्रहण की। गोलेछा परिवार ने दीक्षोत्सव धूमधाम से किया। मुनि श्री राजसागर जी ने आपको मुनि श्री ऋद्धिसागर जी का शिष्य घोषित किया। साध्वाचार और सिद्धान्त के अध्ययन में आप विशेष संलग्न थे। मार्गशीर्ष माह में आपकी बड़ी दीक्षा हुई । जैनागमों के अध्ययन से शास्त्रोक्त साधुजीवन की अपने वर्तमान जीवन से तुलना कर शिथिलाचार का त्याग आवश्यक समझ कर मुनि पद्मसागर जी व गुणवन्तसागर जी के साथ गुरु जी से अलग होकर सं० १९१८ में सिरोही में क्रियोद्धार किया । तदनन्तर सुविहित मार्ग का प्रचार व तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । अनुक्रम से तीर्थाधिराज शत्रुंजय की यात्रा कर फलौदी पधारे । इधर साध्वी श्री रूप श्री जी की शिष्या उद्योत श्री जी शिथिलाचार से सम्बन्ध विच्छेद कर सं० १९२२ में फलौदी आईं और आपको सुविहित सद्गुरु ज्ञात कर आपसे वासक्षेप लेकर आज्ञानुवर्तिनी हो गईं। सं० १९२४ में लक्ष्मीश्री जी की दीक्षा हुई। सं० १९२५ में भगवानदास ने गुरुश्री से दीक्षा और भगवानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। मुनि पद्मसागर जी फलौदी आने से पूर्व ही अलग हो चुके थे अत: आपका ३ साधु और ३ साध्वियों का समुदाय हुआ। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३५७) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार आपने स्वप्न में मनोहर वाटिका में बछड़ों के साथ गायों के झुण्ड को विचरते हुए देखा, जिसके फलस्वरूप आपने भविष्य में साध्वी समुदाय का विस्तार होना बतलाया और आपकी यह भविष्य वाणी पूर्णरूप से सत्य सिद्ध हुई। आपने अध्ययन बल से ज्ञान की वृद्धि कर जनसाधारण के सुबोधार्थ जीवाजीव राशि प्रकाश, भाषा कल्पसूत्र, बासठ मार्गणा यंत्र, अष्टक एवं अन्य कई बोल-चाल के ग्रन्थों की रचना की। इस प्रकार सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार व धर्म प्रचार कर, ३६ वर्ष ४ मास १४ दिन निर्मल संयम का पालन कर सं० १९४२ (२३ जनवरी १८८६ ई.) माघ वदि ४ शनि के दिन प्रातः काल फलौदी में अनशन आराधना पूर्वक स्वर्ग सिधारे। आप पुण्यशाली महापुरुष थे। आपकी विद्यमानता में ५ साधु व १४ साध्वियों का समुदाय था, वह क्रमशः बढ़ता ही गया। वर्तमान में आपने सुविहितमार्ग का पुनरुद्धार किया था, इसी कारण इनका समुदाय सुखसागर जी महाराज के समुदाय के नाम प्रसिद्ध हुआ। बीसवीं शताब्दी के खरतरगच्छीय विद्वान् ग्रन्थकार व क्रियापात्र योगीराज चिदानन्द जी महाराज ने शिवजीराम जी महाराज से अलग हो कर आप से अजमेर में उपसम्पदा दीक्षा ग्रहण की थी। आप शास्त्र चर्चा में निष्णात थे। आप द्वारा निर्मित साहित्य हैं :१. आत्मभ्रमोच्छेदनभानु, २. दयानन्दकुतर्क तिमिर तरणि, ३. द्रव्यानुभवरत्नाकर, ४. जिनाज्ञाविधिप्रकाश, ५. शुद्धदेवअनुभव-विचार। ((८) गणाधीश श्री भगवानसागर आप रोहिणी गाँव के जाट जसा जी के पुत्र थे। गणाधीश्वर सुखसागर जी के उपदेश से वैराग्य रंजित होकर फलौदी में प्रथम शिष्य के रूप में आपकी दीक्षा सं० १९२५ में हुई थी। सं० १९४२ में आपने गणाधीश पद प्राप्त किया। आपके शिष्य महोपाध्याय सुमतिसागर जी, मुनि धनसागर जी, मुनि तेजसागर जी, त्रैलोक्यसागर जी आदि थे। आपने महातपस्वी श्री छगनसागर जी महाराज को उत्तराधिकारी के रूप में अपने भतीजे हरिसिंह (श्री हरिसागर जी) को जो उनके प्रिय थे, योग्य अवस्था में दीक्षित करने की आज्ञा दी। सं० १९५७ ज्येष्ठ वदि १४ को आपका स्वर्गवास हो गया। आपके शासन में ७ मुनिराज एवं ४१ साध्वियाँ हुईं। महोपाध्याय सुमतिसागर जी के शिष्य श्री जिनमणिसागरसूरि जी और गणाधीश श्री त्रैलोक्यसागर जी के शिष्य वीरपुत्र श्री आनन्दसागरसूरि जी हुए जिनका परिचय आगे दिया है। ((९) गणाधीश श्री छगनसागर .. आपने फलौदी निवासी गोलेछा सागरमल जी की धर्मपत्नी चंदनबाई की कोख से सं० १८९६ में जन्म लिया, आपका नाम छोगमल जी था। अखैचंद जी झाबक की पुत्री चुन्नी बाई से आपका (३५८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिग्रहण हुआ, जिससे ३ पुत्र व १ पुत्री हुई। सं० १९४२ में फलौदी में श्री पुण्यश्री जी महाराज के प्रयत्न से वैशाख शुक्ला १० गुरुवार को दम्पति ने श्री भगवानसागर जी महाराज के कर-कमलों से दीक्षा ली। आप श्री राजसागर जी के शिष्य स्थानसागर जी महाराज के शिष्य बनाए गए। बड़ी दीक्षा ज्येष्ठ सुदि ८ को लोहावट में हुई। आपने दीक्षा लेते ही उग्र तपश्चर्या व शास्त्राध्ययन प्रारम्भ कर दिया। ४५ आगमों के वेत्ता बने एवं संस्कृत का खूब प्रचार किया। सं० १९५७ में भगवानसागर जी का स्वर्गवास होने पर ज्येष्ठ सुदि १४ से समुदाय का भार आपके ऊपर आ गया। आप ९ वर्ष २ मास ७ दिन समुदाय के अधिपति रहे। आपकी निश्रा में ६८ साध्वियां दीक्षित हुईं। अन्त में ५२ उपवास के संथारे पूर्वक सं० १९६६ द्वितीय श्रावण सुदि ६ को लोहावट नगर में स्वर्गवासी हुए। ४० उपवास तक तिविहार में जनता के समक्ष व्याख्यान धर्मोपदेश देते रहे। शेष १२ उपवास चौविहार किए। सं० १९७० के वैशाख में लोहावट में आपके चरण स्थापित किए गए। महातपस्वी छगनसागर जी के स्वर्गवास के पश्चात् संघ ने श्री भगवानसागर जी के प्रमुख शिष्य श्री सुमतिसागर जी से (जो कि उस समय खानदेश में थे) गच्छ भार संभालने का अनुरोध किया था, किन्तु सुमतिसागर जी ने अपनी अनिच्छा प्रदर्शित करते हुए अपने गुरुभ्राता त्रैलोक्यसागर जी को सौंपने का आग्रह किया। महोपाध्याय सुमतिसागर जैसाकि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि गणनायक भगवानसागर जी म० के प्रमुख शिष्य सुमतिसागर जी थे। इनका जन्म सं० १९१८ में नागौर में हुआ था। रेखावत गोत्रीय थे और नाम था सुजाणमल। शादी भी हुई थी। पुत्री भी थी, जिसका भविष्य में विवाह धनराज जी बोथरा के साथ हुआ था। पुत्री की पुत्री का विवाह नागौर के ही सरदारमल जी समदड़िया के साथ हुआ था। वैराग्य रंग लग जाने से २६ वर्ष की अवस्था में घर-बार, पत्नी एवं पुत्री का त्याग कर सं० १९४४ वैशाख सुदि ८ के दिन सिरोही में भगवानसागर जी म० के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने। दीक्षावस्था का नाम था-मुनि सुमतिसागर । तत्कालीन गणनायक छगनसागर जी म० का स्वर्गवास होने पर संघ की बागडोर संभालने के लिये संघ ने सुमतिसागर जी से निवेदन किया था, किन्तु सुमतिसागर जी ने जो कि उस समय खानदेश में थे, अपने लघु गुरुभ्राता श्री त्रैलोक्यसागर जी को गणनायक बनाने का अनुरोध किया। आपने सं० १९६५ वैशाख सुदि १० के दिन राजनादगांव (छत्तीसगढ़) में दादाश्रीजिनकुशलसूरि के चरणपादुका की प्रतिष्ठा करायी। संवत् १९७२ में बम्बई में आचार्य श्री कृपाचन्द्रसूरि ने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद और संवत् १९७९ में इन्दौर में महोपाध्याय पद से अलंकृत किया, संवत् १९९४ पौष सुदि ६ के दिन आपका अचानक हृदय गति रुक जाने से कोटा में ७६ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हो गया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३५९) ___Jain Education international 2010_04 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) गणाधीश श्री त्रैलोक्यसागर जैसलमेर राज्यान्तर्गत गिरासर निवासी, जीतमल जी पारख की धर्मपत्नी कुलणादेवी की कोख से सं० १९१८ श्रावण शुक्ल १४ को आपका जन्म हुआ, आपका जन्म नाम चुन्नीलाल था। अपनी बड़ी बहिन पन्नी बाई (पुण्यश्री जी) के प्रयत्न से आपने आबाल ब्रह्मचर्य व्रत लिया और सं० १९५२ ज्येष्ठ सुदि ७ के दिन गणाधीश्वर श्री भगवानसागर जी महाराज के पास भागवती दीक्षा लेकर त्रैलोक्यसागर जी नाम से प्रसिद्ध हुए। सं० १९५५ माघ सुदि १३ को फलौदी में आपकी बड़ी दीक्षा हुई। सं० १९६६ में श्री छगनसागर जी महाराज का स्वर्गवास होने पर अपने बड़े गुरुभ्राता श्री सुमतिसागर जी का आदेश प्राप्त कर आप गणाधीश हुए। सं० १९६९ में ५ मुनि व १६ साध्वियों के साथ राय बहादुर श्री केशरीसिंह जी बाफना के आग्रह से कोटा नगर में चातुर्मास किया। श्री ज्ञान सुधारस धर्म सभा की स्थापना की। पराशली तीर्थ यात्रा के हेतु डग, गंगधार और सीतामहू से तीन संघ निकलवाये। सं० १९७० में श्री विमलश्री जी के प्रयत्न से जैसलमेर का संघ निकलवाया। संघ सहित अनेक तीर्थों की यात्रा की। सुजानगढ़ प्रतिष्ठा व नवम जैन श्वे० कान्फ्रेंस में शामिल हुए। सं० १९६८ में वीरपुत्र आनंदसागर जी को रतलाम में दीक्षित किया। लोहावट में श्री छगनसागर जैन पाठशाला खुलवाई। सं० १९७३ में बीकानेर चातुर्मास किया। तब तक ४ मुनिराज और ५३ साध्वियों की दीक्षा हुई थी। सं० १९७४ श्रावण शुक्ल १५ को आप लोहावट में स्वर्गवासी हुए। सं० १९७४ में वीरपुत्र आनंदसागर जी महाराज लिखित पुस्तक सुखचरित्र प्रकाशित हुआ। उसमें लिखा है कि श्री सुखसागर जी महाराज के समुदाय में आज तक ३२ साधु हुए जिनमें १६ मुनिवर कालधर्म प्राप्त हुए। ३ वेश त्याग कर चले गए या यति हो गए। उस समय १३ विद्यमान थे। तथैव आपके संघाड़े में १७६ साध्वियाँ हुईं, जिनमें ३१ कालधर्म प्राप्त हुईं और १४५ (उस समय) विद्यमान रहीं। ((११) आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरि) आपका जन्म नागौर परगने के रोहिणा गाँव में जमींदार झूरिया जाट हनुमन्तसिंह की धर्मपत्नी केसर देवी के कोख से सं० १९४९ में मिगसर सुदि ७ को हुआ। गणाधीश्वर भगवानसागर जी के आप भतीजे थे। पाँच भाईयों में मध्यम होनहार हरिसिंह को श्री हनुमंतसिंह जी ने गणाधीश को भेंट किया। गुरु महाराज की आज्ञानुसार सं० १९५७ आषाढ़ कृष्णा ५ के दिन महातपस्वी श्री छगनसागर जी महाराज ने समारोह पूर्वक दीक्षित कर गणाधीश्वर भगवानसागर जी के शिष्य हरिसागर जी नाम से उद्घोषित किया। सं० १९५७ से ६५ तक स्थविर तपस्वी जी के सानिध्य में लोहावट और (३६०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौदी चातुर्मास कर संस्कृत-प्राकृत भाषा और आगम प्रकरणादि का प्रौढ़ ज्ञान प्राप्त किया। संवत् १९७४ में गणाधीश त्रैलोक्यसागर जी का स्वर्गवास हो जाने पर आप गणाधीश बने। आप इतिहास और साहित्य के प्रेमी सरल स्वभावी विद्वान् थे। आपके समय में समुदाय में साधु-साध्वियों की पर्याप्त वृद्धि हुई। चालीस वर्ष के गणाधीश काल में आपने देश के प्रायः सभी भागों में विहार किया, तीर्थयात्राएँ की, प्रतिष्ठा, उद्यापन, संघ यात्रा, साहित्योद्धार आदि प्रशंसनीय कार्य किए। शत्रुजय पर नई खरतरवसही का पाटिया हटा देने पर आपने प्रयत्न करके आनंद जी कल्याण जी की पेढ़ी द्वारा वापस लगवाया। प्राचीन शिलालेख, प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ एवं ग्रन्थ प्रशस्तियाँ आपने संग्रहीत की। ज्ञान भण्डार, पाठशाला आदि अनेक संस्थाएँ स्थापित की। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:प्रतिष्ठाएँ :-श्री पनाचंद जी सिंघी द्वारा सुजानगढ़ में निर्मापित कलापूर्ण जिनालय, केलू (जोधपुर) का ऋषभदेव जी का पंचायती मन्दिर, मोहनवाड़ी (जयपुर) में दुलीचंद जी हमीरमल जी गोलेछा द्वारा पार्श्वनाथ स्वामी, सिरहमल जी संचेती द्वारा निर्मापित नवपद पट्ट, कोटा में दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंह जी कारित तथा हाथरस में मोहकमचंद जी बोहरा के दादावाड़ियों की, लोहावट के गुरु मन्दिर में गणनायक श्री सुखसागर जी, भगवानसागर जी व छगनसागर जी के मूर्ति-चरणों की स्थापना की। उद्यापन :-अपने सान्निध्य में अनेक भाग्यशालियों के तपश्चर्यादि के उद्यापन करवाए। फलौदी में रतनलाल जी गोलेछा का नवपद जी का, कोटा के दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंह जी का पौष दशमी का, जयपुर के गोकुलचंद जी पुगलिया, हमीरमल जी गोलेछा, सागरमल जी सिरहमल जी संचेती, विजयचंद जी पालेचा आदि के नवपद जी, ज्ञानपंचमी, वीस स्थानक जी के, तिवरी में श्रीमती सेठीबाई के ज्ञानपंचमी का, देहली के केशरीचंद जी बोहरा के ज्ञानपंचमी, नवपद जी के उद्यापन आदि विशेष उल्लेखनीय हुए। संघ यात्रा :-आपश्री के उपदेश से कई भव्यात्माओं ने तीर्थयात्रा के हेतु छःरी पालित संघ निकाले। फलौदी से पहली बार जैसलमेर के लिए सेठ सहसमल गोलछा व दूसरी बार सुगनमल जी गोलेछा की धर्मपत्नी श्रीमती राधाबाई द्वारा, बारेजा पार्श्वनाथ तीर्थ के लिए मांगरोल से पहली बार सेठ जमनादास मोरार जी द्वारा व दूसरी बार सेठ मान जी कान जी द्वारा, अंजारा पार्श्वनाथ तीर्थ के लिए वेरावल से खरतरगच्छ पंचायत द्वारा, तालध्वज महातीर्थ के लिए पालीताना से आहोर निवासी सेठ चन्दनमल छोगाजी द्वारा, श्री सिद्धाचल जी के लिए अहमदाबाद से सेठ डाह्या भाई द्वारा, देहली से हस्तिनापुर महातीर्थ के लिए लाला चाँदमल जी घेवरिया की धर्मपत्नी श्रीमती कपूरी बाई द्वारा तथा और भी कई संघ निकले। संस्थाओं की स्थापना :-आपके उपदेश से पालीताना में जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम, जामनगर में श्री खरतरगच्छ ज्ञानमन्दिर जैन शाला, लोहावट में जैन मित्र मंडल, श्री हरिसागर जैन पुस्तकालय, कलकत्ता संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३६१) 2010_04 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में श्री जैन श्वे० सेवा संघ विद्यालय, बालूचर ( मुर्शिदाबाद) में श्री हरिसागर जैन ज्ञान मन्दिर - जैन पाठशाला आदि विशिष्ट संस्थाओं की स्थापना हुई । आचार्यपद :- सं० १९९२ में आप शिष्य परिवार सहित अजीमगंज पधारे। श्री संघ ने शासन सेवा और योग्यता का मूल्याकंन कर आपश्री को मार्गशीर्ष सुदि १४ को आचार्य पद से विभूषित किया । साहित्य सेवा :- आपको ज्ञान - निरीक्षण, शिलालेख संग्रह, प्रशस्ति संग्रह, प्राचीन कृतियों की प्रतिलिपि करने का उत्साह था। बीकानेर, लोहावट आदि के ज्ञान भंडार को सुव्यवस्थित करने में आप संलग्न रहे । दो वर्ष पर्यन्त जैसलमेर में स्थिति कर रात-दिन स्वयं तो कार्य करते ही, पाँच पण्डित और पाँच लहियों को रखकर अलभ्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाई । स्तवनावली दो भाग, चार दादा साहब की पूजा, महातपस्वी श्री छगनसागर जी महाराज का जीवन वृत्त आदि ग्रंथ लिखे तथा सुखसागर ज्ञान बिन्दु / पुष्प / क्रमांक के रूप में से ५० ग्रन्थों का प्रकाशन किया। स्वर्गवास : - अनवरत साहित्यिक परिश्रम करने से आप अस्वस्थ हो गए। जैसलमेर से पधारने के पश्चात् अपना अन्तिम समय तीर्थ भूमि में व्यतीत करने के हेतु फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ पधारे। स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता ही गया । अन्ततः सं० २००६ पौष वदि ८ मंगलवार को प्रातः काल समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हुए । आचार्य श्री जिनमणिसागरसूरि महोपाध्याय सुमतिसागर जी के आप शिष्य रत्न थे । आपका जन्म सं० १९४३ में रूपावटी गाँव - बांकडिया बड़गांव के पोरवाड़ गुलाबचंद जी की पत्नी पानीबाई की कोख से हुआ । आपका नाम मनजी था। एक बार गाँव वालों के साथ सिद्धाचल की यात्रार्थ जाने पर आपको अपूर्व शान्ति मिली और प्रभु के मार्ग पर चलने को ललायित हो गए । दृढ़ निश्चयी मनजी को मनाने आए हुए माता-पिता को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा देनी पड़ी। सं० १९६० वैशाख सुदि २ को सिद्धाचलजी में मुनि सुमतिसागर जी के पास दीक्षा ली। मुनि मणिसागर नाम रखा गया। आपने शास्त्राध्ययन बड़ी लगन से किया और सं० १९६४ में संघ के आग्रह और उपकार बुद्धि से रायपुर और राजनांदगाँव में गुरु-शिष्य ने अलग-अलग चातुर्मास किया। योगीराज चिदानंद जी (द्वितीय) कृत आत्म-भ्रमोच्छेदनभानु नामक ८० पृष्ठ की पुस्तिका को विस्तृत कर ३५० पृष्ठ में उन्हीं के नाम से प्रकाशित करवाया। यह आपकी उदारता और निःस्वार्थता का उदाहरण है। सम्मेतशिखर महातीर्थ के लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज का राजकीय अदालत में विवाद चल रहा था। उधर सरकार अपनी सेना के लिए वहाँ बूचड़खाना खोलना चाहती थी। श्वे० समाज की ओर से पैरवी करने वाले कलकत्ता के राय बद्रीदासजी थे। उन्होंने आध्यात्मिक शक्ति की सहायता हेतु साधु समाज से निवेदन किया । पाद विहार से शीघ्र पहुंचना संभव नहीं था । सुमतिसागर जी के (३६२) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास प्रस्ताव आने पर उन्होंने मणिसागर जी को माननीय गुलाबचंद जी ढढ्ढा और धनराज जी बोथरा के साथ रेल में सम्मेतशिखर जी भेजा। आप तरुण और धुन के पक्के थे। गुरु आशीर्वाद के बल पर सम्मेतशिखर जी पर जाकर एक माह तक अनुष्ठान किया। उससे श्वे० समाज को पूर्ण सफलता मिली। समाज में आपकी खूब प्रतिष्ठा बढ़ी। कलकत्ता संघ ने कलकत्ता बुलाया और छः वर्ष वहाँ बिताये। अनुष्ठान के लिए रेल में शिखर जी आने का दण्ड-प्रायश्चित्त माँगा तो महामुनि कृपाचंद जी, शिवजीराम जी आदि खरतरगच्छ के एवं तपागच्छ के मुनियों की ओर से निर्णय मिला कि "यह दण्ड देने का कार्य नहीं अपितु शासन-प्रभावना का कार्य है। इसमें साधु जीवन की उपवासादि व इर्यापथिकी नित्य क्रिया ही पर्याप्त है।" सं० १९६६ में मुनि विद्याविजय जी ने "खरतरगच्छ" वालों की पर्युषणादि क्रियाएँ लौकिक पंचांगानुसार होने से अशास्त्रीय हैं, इस विषय का विज्ञापन निकाला। राय बद्रीदास जी आदि खरतरगच्छीय श्रावकों ने आपसे इस भ्रम पूर्ण प्रचार को रोकने के लिए विद्वत्तापूर्ण उत्तर देने की प्रार्थना की। आपने शास्त्र प्रमाण के हेतु ग्रन्थ सुलभ करने के लिए लम्बी सूची दी। बद्रीदास जी ने तत्काल पाटण, खंभात आदि स्थानों से प्राचीन ताड़पत्रीय और कागज की हस्तलिखित प्रतियाँ मंगा कर प्रस्तुत की। मणिसागर जी ने पहले तो एक सारगर्भित छोटा लेख लिखकर जिनयशःसूरि जी, शिवजीराम जी, कृपाचंद जी एवं प्रवर्त्तिनी पुण्यश्री जी आदि को भेजा। जब सब ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की तो आगे चलकर वह एक हजार पृष्ठों का "बृहत्पर्युषणानिर्णय" ग्रन्थ रूप में प्रकाशित हुआ। कलकत्ता से विचरते हुए बम्बई पधारने पर सं० १९७२ में श्री जिनकृपाचंद्रसूरि जी ने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद एवं मणिसागर जी को पण्डित पद से विभूषित किया। तपागच्छ के कई महारथियों श्री सागरानन्दसूरि, विजयवल्लभसूरि आदि ने बम्बई में कलकत्ता वाले विवाद को उठाने के साथ-साथ प्रभु महावीर के षट् कल्याणक मान्यता का भी विरोध किया। दोनों ओर से चालीसों पर्चे निकले। मणिसागर जी द्वारा शास्त्रार्थ का आह्वान करने पर कोई उनका सामना न कर सका, जिससे खरतरगच्छ का सिक्का जम गया और कोई खरतरगच्छ की मान्यता को अशास्त्रीय कहने का दुस्साहस न कर सका। मणिसागर जी के पाण्डित्य की सौरभ सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। देवद्रव्य के विषय में सागरानन्दसूरि जी और विजयधर्मसूरि जी के मध्य मतभेद-विवाद चलता था। मणिसागर जी भी इन्दौर पधारे और विजयधर्मसूरि जी से पत्र व्यवहार किया। जब टालमटोल होने लगी तो आपने देव द्रव्य निर्णय नामक पुस्तिका प्रकाशित की। इन्दौर में स्थानकवासी चौथमल जी के शिष्य ने "गुरु गुण महिमा" पुस्तिका में मुखवस्त्रिका के सम्बन्ध में विवाद खड़ा किया और उसमें मूर्तिपूजक समाज की निन्दा की। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी वहीं पर थे, उपधान तप चल रहा था। पूर्णाहुति पर सुमतिसागर जी को महोपाध्याय और मणिसागर जी को पंन्यास पद दिया गया। स्थानकवासी समाज की ओर से आचार्यश्री से पुस्तक का उत्तर माँगा गया तो शान्तमूर्ति आचार्यश्री ने पं० मणिसागर जी की ओर साभिप्राय देखा। उन्होंने - संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३६३) 2010_04 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे ही दिन विज्ञप्ति निकाल कर शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया, पर निर्धारित तिथि से पूर्व ही मुनि चौथमल जी अपने शिष्य सहित विहार कर गये। मणिसागर जी चुप न बैठे उन्होंने आगमानुसार मुंहपत्ति निर्णय और जाहिर उद्घोषणा नं० १-२-३ पुस्तक लिख कर प्रकाशित करवा दी। वर्तमान में हिन्दी भाषा में जैनागमों के प्रकाशन की उपयोगिता और जनता का विशेष उपकार ज्ञात कर जैन प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना करवाई और कोटा से ७-८ आगमों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाये । गुरुजी की वृद्धावस्था, पक्षाघात और प्रकाशन कार्य के हेतु आप १४ वर्ष कोटा-छबड़ा के आस-पास विचरे। सं० १९९४ पौष सुदि ६ के दिन कोटा में गुरुवर्य महोपाध्याय श्री सुमतिसागर जी का अकस्मात ही हृदयगति अवरुद्ध हो जाने से स्वर्गवास हो गया। फलतः त्यागी जीवन के लिए प्रकाशन-व्यवस्था आदि को बन्धन ज्ञात कर सब कुछ छोड़ कर कोटा से विहार कर दिया। केशरिया जी की यात्रा कर आबू में योगिराज श्री शान्तिविजय जी के पास गये। वहाँ एक वर्ष रहे। रात्रि में घण्टों गुप्त साधना व एकान्त वार्तालाप करते। योगिराज ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया। आबू से आप लोहावट पधारे और अपने काका गुरु श्री जिनहरिसागरसूरि जी से प्रेमपूर्वक मिले। फलौदी चातुर्मास में वस्तीमल झाबक को दीक्षित कर विनयसागर बनाना पड़ा क्योंकि वस्तीमल मणिसागर जी से ही दीक्षा लेने को कृतप्रतिज्ञ था। आचार्य जिनहरिसागरसूरि जी और वीरपुत्र आनन्दसागर जी के पारस्परिक मतभेद को मिटाकर गच्छ में ऐक्य स्थापित करने के लिए आपने सत्प्रयत्न कर, फलौदी में बृहत्सम्मेलन बुलाकर संगठन स्थापित किया। कंवलागच्छीय मुनि ज्ञानसुन्दर जी ने पुरुषों की सभा में साध्वी के व्याख्यान सम्बन्धी चर्चात्मक पुस्तक प्रकाशित की तो आपने उसके उत्तर में जैन ध्वज के २० अंकों में उत्तर दिया जो "साध्वी व्याख्यान निर्णय" नाम से पुस्तक प्रकाशित हुई। आपकी निम्नलिखित अन्य पुस्तकें हैं : देवार्चनएक दृष्टि; क्या पृथ्वी स्थिर है?। आपने उपधान तप की आवश्यकता अनुभव कर छ: उपधान तप करवाए। पहला उपधान तप सं० १९९८ में जयपुर में श्री घासीलाल जी माँगीलाल जी गोलेछा की ओर से हुआ। श्री सुखसागर जी के समुदाय में यह पहला उपधान तप था। यह उपधान तप श्री नथमल जी के कटले में हुआ था। श्री कल्याणमल जी गोलेछा और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सज्जनबाई दोनों ही उपधान करने वालों में थे। श्री कल्याणमल जी गोलेछा को बड़ी कठिनता से समझाकर उनकी धर्मपत्नी सज्जनबाई की दीक्षा संवत् १९९९ में अपने ही कर-कमलों से प्रदान कर सज्जनश्री नाम प्रदान किया था। यही सज्जनश्री जी भविष्य में प्रवर्तिनी पदधारिका बनीं और उनके सम्मान में श्रमणी नामक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ। संवत् २००० का चातुर्मास बीकानेर हुआ। वहाँ दूसरा उपधान स्व० श्री मोहनलाल जी दफ्तरी की धर्मपत्नी वरजीबाई ने करवाया था। (गणि श्री महिमाप्रभसागर जी महाराज उन्हीं के पुत्र हैं।) (३६४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधान तप के मालारोपण महोत्सव के प्रसंग पर आचार्य श्री जिनऋद्धिसूरि जी महाराज ने संवत् २००० पौष वदि १ को इन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया था। सं० २००० में नागौर संघ में जो आपस में विरोध और वैमनस्य चरम सीमा पर चल रहा था, उसे सुलझा कर संघ में ऐक्य स्थापित किया। संवत् २००३ में आचार्य श्री जिनरत्नसूरि जी और उपाध्याय लब्धिमुनि जी आदि के साथ कोटा में चातुर्मास किया था। कोटा में ही गुणचन्द्र, भक्तिचन्द्र और गौतमचन्द्र को दीक्षित किया था। भविष्य में गौतमचन्द्र (गौतमसागर) के शिष्य त्यागी स्थिरमुनि हुए। । संवत् २००६ का चातुर्मास अपनी जन्मभूमि वांकड़िया बड़गांम में किया जो संवत् १९६० में दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् यहाँ उनका प्रथम चातुर्मास था। वहाँ भी उपधान तप करवाया। आपका अन्तिम चातुर्मास मालवाड़ा में हुआ। यहाँ पर उपधान तप के मालारोपण महोत्सव पर अपने प्रिय शिष्य विनयसागर को अपने हाथों से उपाध्याय पद दिया था। संवत् २००७ माघ वदि अमावस्या ६ फरवरी सन् १९५१ को अचानक ही आपका स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास के पूर्व मालवाड़ा से विहार कर अपनी जन्मभूमि वांकड़िया बड़गाम जाने हेतु विहार किया। गाँव की सीमा पर मांगलिक सुनाने के बाद मालवाड़ा संघ की आग्रहपूर्ण विनती "हमारे समाज में जो मतभेद चल रहा है, उसको सुलझाने के लिये आपको पुनः मालवाड़ा पधारना होगा।" वापस मालवाड़ा पधारे, समाज का भेद मिटाकर एकीकरण किया। कुछ ही दिनों पश्चात् आपका वहीं स्वर्गवास हो गया। यही कारण है कि मालवाड़ा का जैन संघ तब से लेकर आज तक सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् आचार्य श्री जिनमणिसागर जी महाराज की जय उद्घोष करता आ रहा है। तपागच्छीय आचार्य श्री विजयमुनिचन्द्रसूरि जी महाराज की प्रेरणा व प्रयत्न से वांकड़िया बड़गाम में व्याख्यान कक्ष के पाट के दायीं ओर आचार्यश्री का तैल चित्र लगा हुआ है। (आपके जीवनवृत्त तथा कृतित्व पर एक पुस्तक लिखी जा रही है।) आप योगसाधक थे। आपको दैविक शक्तियाँ भी प्राप्त थीं। संवत् १९९६ फलौदी के चातुर्मास में उपाध्याय भुवनविजय जी (भुवनतिलकसूरि) के एक शिष्य रत्नविजय आवेश से ग्रस्त थे। आवेश आने पर ५-७ व्यक्ति भी उनको संभाल नहीं पाते थे। वही रत्नविजय जब उपाध्याय मणिसागर जी के पास आए और उनके दृष्टिपात से ही वह आवेश पीड़ा सदा के लिये शान्त हो गई। गाँधीजी के स्वदेशी वस्त्र आन्दोलन का प्रभाव पड़ने के कारण उन्होंने आजीवन स्वदेशी मोटा वस्त्र ही धारण किया। सिद्धान्तों के पारगामी विद्वान् थे, शास्त्र चर्चा में दुर्घर्ष वादी थे, विशुद्ध चारित्रपालक और खरतरगच्छ की रक्षा के लिये सुजाग्रत प्रहरी थे। एक ही पात्र में समस्त गोचरी लाकर चूरकर एक ही समय खाने वाले चारित्रपात्र थे। इनके शिष्य उपाध्याय विनयसागर का क्रान्तिकारी विचारों के कारण संघ से मतभेद हो गया और दादा जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी समारोह, अजमेर में मंच पर अपने विचार प्रस्तुत कर २१ मई, १९५६ को पृथक् होकर गृहस्थ बन गये। प्राकृत भाषा, पुरातत्त्व तथा आगम साहित्य में रुचि होने से संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३६५) 2010_04 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे इन्हीं क्षेत्रों में कार्यरत रहे और अपनी साहित्य सेवा के कारण हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति के मानद सम्मान से विभूषित किये गये। वर्तमान में वे साहित्य सेवा तथा खरतरगच्छ के कार्यों में संलग्न हैं तथा साधु-साध्वी वर्ग की आगमिक शिक्षा हेतु उपलब्ध हैं। (१२) आचार्य श्री जिनानंदसागरसूरि आप श्री जिनहरिसागरसूरि जी के बड़े गुरुभ्राता गणनायक श्री त्रैलोक्यसागर जी के शिष्य थे। आपका जन्म सं० १९४६ आषाढ़ सुदि १२ सोमवार को सैलाना के कोठारी तेजकरण जी की भार्या केशर देवी की कोख से हुआ। आपका नाम यादवसिंह था। सैलाना स्टेट में आपका परिवार राजमान्य अधिकारी पद पर था। आप समुचित शिक्षा प्राप्त कर, प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री जी के चातुर्मास में धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर त्यागमय जीवन की ओर आकृष्ट हुए और २२ वर्ष की तरुणावस्था में वि०सं० १९६८ वैशाख सुदि १२ बुधवार को पूज्यवर्य श्री त्रैलोक्यसागर जी के कर-कमलों से दीक्षित हुए। दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंह जी बाफना ने धूमधाम से दीक्षोत्सव किया। आपका हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं पर अच्छा अधिकार था और अपने समय के प्रखर व्याख्याता थे। आपने आगम ग्रन्थों का अनुवाद व कई स्वतंत्र ग्रन्थों की भी हिन्दी में रचना की। भारत के विभिन्न प्रान्तों में विचरण कर आपने अच्छी धर्म प्रभावना की। आपने प्रवर्तिनी वल्लभश्री जी, प्रमोदश्री जी, प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी आदि साध्वियों को प्रवचन शैली सिखायी। आगमसार जैसे विवेचनात्मक ग्रन्थ की रचना की और अपने जीवन काल में ४६ ग्रन्थों का प्रकाशन कराया। सैलाना नरेश आपके मित्र और सहपाठी थे अतः उनके आग्रह से वहाँ पर श्री आनन्द ज्ञान मंदिर की स्थापना की। श्री जिनहरिसागरसूरि जी का स्वर्गवास हो जाने पर सं० २००६ माघ सुदि ५ को प्रतापगढ़ (राजस्थान) में खरतरगच्छ संघ द्वारा आप आचार्य पद से विभूषित हुए। आप संगठन प्रेमी थे। सं० २००७ में कोटा चातुर्मास के समय दिगम्बराचार्य सूर्यसागर जी, स्थानकवासी आचार्य चौथमल जी और आप एक पाट पर विराजे। तीनों महापुरुषों का एक साथ प्रवचन होने से संगठन को बड़ा बल मिला। सं० २०११ में दादा श्री जिनदत्तसूरि जी अष्टम शताब्दी समारोह अजमेर में मनाया गया। इस समय आपकी अध्यक्षता में साधु-सम्मेलन भी हुआ था। संगठन व्यापक हो इसके लिए अखिल भारतीय श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ की स्थापना हुई। श्री प्रतापमल जी सेठिया उसके प्रथम प्रधानमंत्री हुए। आप श्री ने कई जगह दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, अंजनशलाका, उपधान करवाये और छरी पालित संघ आदि निकलवाए; जिनमें प्रमुख हैं फलौदी से जैसलमेर, इन्दौर से मांडवगढ़, मांडवी से भद्रेश्वर तीर्थ, मांडवी से सुथरी तीर्थ आदि। ___ तीर्थाधिराज सिद्धाचलजी पर मूल दादा की टोंक में दादा श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि की चरण पादुकायें अकबर प्रतिबोधक दादा श्री जिनचन्द्रसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित थे, जिनका जीर्णोद्धार (३६६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक होने से जिनदत्तसूरि सेवा संघ के प्रयत्न से पेढी द्वारा सम्पन्न हुआ। बम्बई के सेठ पूनमचंद गुलाबचंद गोलेछा ने इसका पूरा लाभ लिया। प्रतिष्ठा हेतु आप सैलाना से पालीताना पधारे । गच्छ के सभी साधु-साध्वियों का समागमन हुआ। सं० २०१६ वैशाख सुदि ६ को नवनिर्मित देहरियों में आपके कर-कमलों से प्राचीन चरणों की स्थापना हुई। इस वर्ष पालीताना चातुर्मास में २६ मुनिराज व ८२ साध्वियाँ विराजमान रहे। श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ का द्वितीय अधिवेशन हुआ, जिसमें मद्रास के सेठ पूनमचंद रूपचंद भंसाली अध्यक्ष हुए। दस मासक्षमण, उपधान तप आदि अनेक उत्सव हुए। श्री जिनहरिविहार के लिए प्लाट खरीदा गया। सं० २०१७ पौष सुदि १० को आपका आकस्मिक स्वर्गवास हो जाने से उसी स्थान पर अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ। ((१३) आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि आपका जन्म पालनपुर निवासी श्री निहालचंद शाह की धर्मपत्नी बब्बू बाई की कोख से सं० १९६४ में चैत्र सुदि १३ के शुभ दिवस में हुआ। नाम था धनपत। १० वर्ष की आयु में पिताश्री की छत्रछाया उठ जाना ही आपके वैराग्य का कारण बना। आर्यारत्न श्री पुण्यश्री जी महाराज के पास दीक्षित साध्वी दयाश्री जी आपकी बड़ी मौसी थीं। अतः श्री रत्नश्री जी के उपदेशों से आपका वैराग्य पुष्ट हुआ और उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हेतु इनको गणाधीश्वर श्री हरिसागर जी के पास कोटा भेज दिया। थोड़े दिनों में प्रतिक्रमण, स्तवन, सज्झाय, जीवविचार, नवतत्त्वादि प्रकरण, किशोर बालक धनपतशाह ने सीख लिए। गणाधीश जी जयपुर पधारे और सं० १९७६ में फाल्गुन कृष्णा ५ को चार अन्य वैरागियों के साथ दीक्षित कर कवीन्द्रसागर नाम से अपना शिष्य प्रसिद्ध किया। गुरुदेव की छत्रछाया में आपने व्याकरण, काव्य, कोश, छन्द, अलंकारादि शास्त्रों का अध्ययन किया। सोलह वर्ष की आयु में आप आशु कवि बन गए। आपकी हिन्दी और संस्कृत रचनाएँ दार्शनिक और तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण हैं। क्या स्तवन-सज्झाय, क्या पूजाएँ, क्या चैत्यवंदन स्तुतियाँ सभी सरल और प्रसाद गुण युक्त हैं। आप योग-साधन में निष्णात थे। ओसियाँ की पर्वत गुफा और लोहावट की टेकरी पर आपने साधना की थी। जयपुर की मोहनवाड़ी में तपस्या पूर्वक साधना में बैठने पर रात भर फन उठाए नागदेव उपस्थित रहे। आपने मासक्षमण, पक्षक्षमण, अठाइयाँ, पंचोले आदि तप भी किए। आपने लघु रचनाओं के अतिरिक्त पूजा साहित्य में प्रचुर वृद्धि की। अनेक रचनाएँ आपने गुरु महाराज और गुरुभ्राताओं के नाम से भी गुंफित की। आप द्वारा निर्मित-रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा, महावीर पूजा, चौसठ प्रकारी पूजा, चारों दादा साहब की पूजाएँ, चैत्री पूर्णिमाकार्तिकी पूर्णिमा विधि, उपधान तप-बीस स्थानक तप-वर्षी तप-छः मासी तप, देववन्दन विधि एवं शताधिक स्तवनादि प्राप्त और प्रकाशित हैं। पालीताना का श्री जिनहरिविहार आपका कीर्ति स्तंभ है। आपके ही प्रयत्नों से हरि विहार की भूमि खरीदी गई थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३६७) 2010_04 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके ही प्रयत्नों से मेड़ता रोड़ में फलोधी पार्श्वनाथ विद्यालय की स्थापना हुई। सं० २००६ मिगसर सुदि १० के दिन श्री जिनहरिसागरसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया। श्री जिनानंदसागरसूरि जी के स्वर्गवास के अनन्तर अहमदाबाद में खरतरगच्छ संघ द्वारा सं० २०१७ चैत्र वदि ७ के दिन आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया। परन्तु दुर्भाग्यवश आप पूरे एक वर्ष भी आचार्य पद द्वारा शासनसेवा न कर पाए कि कराल काल ने निर्दयता पूर्वक छीन लिया। आप अहमदाबाद से विहार कर २० दिन में मन्दसौर के पास प्रतिष्ठा व योगोद्वहनादि हेतु बूटा गाँव पधारे थे। वहाँ फाल्गुन शुक्ला ५ शनिवार को रात्रि में १२ बजे हृदयगति रुक जाने से नवकार मंत्र का ध्यान करते हुए आप स्वर्गवासी हुए। (१४) गणाधीश श्री हेमेन्द्रसागर वृद्ध पुरुषों से सुना था कि इन्होंने बाल्यावस्था में जयपुर स्थित यति श्यामलाल जी (सुमतिपद्म) के पास यति दीक्षा ग्रहण की थी। श्री जिनहरिसागरसूरि जी महाराज के निकट संपर्क में आने पर ये उनके शिष्य बने और नाम हेमेन्द्रसागर प्राप्त किया। विक्रम संवत् २०१८ फाल्गुन सुदि पंचमी को तत्कालीन आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि जी का अकस्मात् स्वर्गवास हो जाने पर इनको गणाधीश पद प्रदान किया गया। शारीरिक अस्वस्थता और नेत्र ज्योति क्षीण होने के कारण इन्होंने सूरत में कई वर्षों तक स्थिरवास किया और वहीं विक्रम संवत् २०३४ में आपका स्वर्गवास हो गया। ((१५) आचार्य श्री जिन उदयसागरसूरि गणाधीश श्री हेमेन्द्रसागर जी का भी सूरत में स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् समाज में यह अभाव विशेष रूप से खलने लगा कि गच्छ में कोई आचार्य ही नहीं है। फलतः अखिल भारतीय जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ महासंघ ने निर्णय लिया कि अब आचार्य पद रिक्त न रखकर दोनों ही मुनिगणों को आचार्य बना दिया जाय। फलतः सन् १९८२ में जयपुर में आचार्य पद महोत्सव हुआ और संघ ने एक साथ दो आचार्य बनाये-जिनउदयसागरसूरि एवं जिनकान्तिसागरसूरि। आप दोनों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है : जिनउदयसागरसूरि जी का गृहस्थावस्था का नाम था देवराज भंडारी। इनके माता-पिता का नाम था श्री सुल्तानकरण जी भंडारी एवं श्रीमती जतन देवी। इनका जन्म १९६० फाल्गुन वदि अमावस्या को सोजत में हुआ था। विक्रम संवत् १९८८ माघ सुदि पंचमी को बीकानेर में २८ वर्ष की अवस्था में ही वीरपुत्र आनन्दसागर जी (जिनआनन्दसागरसूरि) के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने। दीक्षा नाम मुनि उदयसागर रखा गया था। १३ जून १९८२, वि०सं० २०३८ आषाढ़ वदि ६ को जयपुर नगर में श्रीसंघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित किया। तभी से आप जिनउदयसागरसूरि (३६८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नाम से प्रसिद्ध हुए और तभी से इस सुखसागर जी महाराज के समुदाय के गणनायक पद का भार संभाला और समुदाय का नेतृत्व किया। आप गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के अच्छे जानकार थे। आपका विचरण क्षेत्र मुख्यत: राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश रहा है। आपने अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि महोत्सव कराये हैं। आपके नेतृत्व में कई उद्यापन भी हुए हैं। कई स्थानों पर नई दादावाड़ियों का निर्माण और कई का जीर्णोद्धार भी आपने करवाया है। आपने कई पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन भी करवाया है जिसमें पंचप्रतिक्रमण सूत्र सविधि आदि मुख्य हैं। आप सरल स्वभावी थे। आप के शिष्यों श्री पूर्णानन्दसागर जी और पीयूषसागर जी गणि मुख्य हैं। आपका स्वर्गवास वि०सं० २०५२ कार्तिक सुदि ५ को हुआ। (१६) आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरि । सन् १९८२ में जयपुर में जो दूसरे आचार्य बने वे थे जिनकान्तिसागरसूरि । इनका जन्म विक्रम संवत् १९६८ माघ वदि एकादशी को रतनगढ़ में हुआ था। आपके पिता का नाम मुक्तिमल जी सिंघी था और माता का नाम था सोहनदेवी। आपका जन्म नाम था तेजकरण/तोलाराम। रतनगढ़ में तेरापंथी संप्रदाय का प्राचुर्य एवं प्रभाव होने के कारण इनके माता-पिता तेरापंथी परम्परा को ही मानते थे। तत्कालीन तेरापंथी समुदाय के अष्टम आचार्य कालूगणि के पास इन्होंने अपने पिता के साथ ही (तेजकरण) दस वर्ष की बाल्यावस्था में ही संवत् १९७८ में दीक्षा ग्रहण की। तेरापंथ में दीक्षित होने के पश्चात् इन्होंने शास्त्र अध्ययन किया। प्रखर बुद्धि तो थी ही, साथ ही चिंतन भी प्रौढ़ था। फलतः मूर्तिपूजा, मुखवस्त्रिका, दया, दान आदि के सम्बन्ध में तेरापंथ संप्रदाय की मान्यताएँ इन्हें अशास्त्रीय लगीं और तेरापंथ संप्रदाय का त्याग कर संवत् १९८९ ज्येष्ठ सुदि त्रयोदशी को अनूप शहर में गणनायक हरिसागर जी महाराज (जिनहरिसागरसूरि जी) के करकमलों से भागवती दीक्षा अंगीकार की। तभी से आप मुनि कान्तिसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। __ आप प्रखर वक्ता थे। आपकी वाणी में ओज़ था। श्रोताओं को मंत्र मुग्ध करने की आप में कला थी। भाषणों में कुरान शरीफ, बाइबल, गीता और जैन साहित्य का पुट देते हुए सुन्दर प्रवचन देते थे। फलतः आपकी ख्याति बढ़ती ही गई। आगम ज्ञान के अतिरिक्त आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, मारवाड़ी का भी अच्छा ज्ञान रखते थे, साथ ही कवि भी थे। हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपने स्तवन साहित्य और रास साहित्य की कई रचनाएँ की हैं, जिनमें से प्रमुख हैं :-अंजना रास, मयणरेहा रास, प्रतिमाबिहार, पैंतीस बोल विवरण, कान्तिविनोद आदि। आपका विचरण क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, हरियाणा, जम्मूकश्मीर, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु रहा। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३६९) 2010_04 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएँ करवाईं। दादावाड़ियों का निर्माण करवाया। अनेकों उपधान तप करवाये । नाकोड़ा तीर्थ जैसे क्षेत्र में खरतरगच्छ का डंका बजवाया। आपकी निश्रा में बाड़मेर से शत्रुजय का जो पैदल यात्री संघ निकला था, वह वास्तव में अवर्णनीय था। इस यात्रा में एक हजार व्यक्ति थे। लगभग १०० वर्ष के इतिहास में खरतरगच्छ के लिए यह पहला अवसर था कि इतनी दूरी का और इतने समूह का एक विशाल यात्री संघ निकला। आपने कई संस्थायें भी निर्मित की। खरतरगच्छ की वृद्धि के लिए आप सतत प्रयत्नशील रहे। १३ जून १९८२ को जयपुर में श्रीसंघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित किया, तभी से आप जिनकान्तिसागरसूरि के नाम से विख्यात हुए। अपने दीर्घ जीवनकाल में आपश्री ने देश के विभिन्न भागों में चातुर्मास किया। आपने आर्वी, भद्रावती, नाकोड़ा, कुल्पाक, सम्मेतशिखर आदि विभिन्न तीर्थों पर उपधान तप सम्पन्न कराये। इसके अतिरिक्त आर्वी, जलगांव, कुल्पाक, आहोर, सम्मेतशिखर, पावापुरी, उदयपुर, जोधपुर, बाड़मेर आदि तीर्थ स्थानों पर प्रतिष्ठायें सम्पन्न करवायीं। संवत् २०४२ मार्गशीर्ष वदि ७ को माण्डवला में अकस्मात् हृदय गति रुक जाने से आपका स्वर्गवास हो गया। आपकी स्मृति में मांडवला में सुप्रसिद्ध जहाजमन्दिर का निर्माण हुआ है जो आज तीर्थ के रूप में विख्यात हो चुका है। इसमें इनकी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी है। आपके शिष्यों में उपाध्याय मणिप्रभसागर जी, मनोज्ञसागर जी, मुक्तिप्रभसागर जी, सुयशप्रभसागर जी, गणि महिमाप्रभसागर जी, ललितप्रभसागर जी, चन्द्रप्रभसागर जी आदि विद्यमान हैं। उपाध्याय मणिप्रभसागर जी अच्छे विद्वान् हैं, व्यवहारपटु हैं, कार्य दक्ष हैं और खरतरगच्छ की सेवा में संलग्न हैं। ((१७) आचार्य श्री जिनमहोदयसागरसूरि सुथरी (कच्छ) के निवासी ओसवालज्ञातीय श्री कुंवर जी भाई और श्रीमती खेतदेवी इनके माता-पिता थे। १८८७ भाद्रपद शुक्ला २ को सुथरी में इनका जन्म हुआ था और बचपन का इनका नाम नवीनचन्द्र था। वि०सं० २०१५१ में ज्येष्ठ सुदि १० को मेड़ता रोड़ (फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ) में दीक्षा ग्रहण कर आचार्य जिनआनन्दसागरसूरि के शिष्य बने थे। विक्रम संवत् २०४३ माघ सुदि छठ बुधवार को पावापुरी में श्री जिनउदयसागरसूरि जी महाराज ने उपाध्याय पद प्रदान किया था। २५ अप्रैल १९९६ विक्रम संवत् २०५३ वैशाख सुदि ७ गुरुवार को अजमेर में श्रीसंघ ने आचार्य पद प्रदान किया था। आपकी निश्रा में तीन यात्री संघ, तीन उपधान तप और अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठा तथा आपके हाथों से अनेक छोटी-बड़ी दीक्षाएँ हुईं। आप सरल स्वभावी थे। २७ मई २००० को मलकापुर (महाराष्ट्र) में आपका अकस्मात् ही स्वर्गवास हो गया। १. डॉक्टर विद्युत्प्रभाश्री जी संपादित परिचय-पुस्तिका में दीक्षा संवत् २०१५ का उल्लेख है और आनन्द स्वाध्याय संग्रह पुस्तक में चित्र परिचय देते हुए दीक्षा संवत् २०१४ लिखा हुआ है। (३७०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) गणाधीश श्री कैलाशसागर I रूण निवासी कटारिया गोत्रीय श्रीमती दाखी देवी और श्री चतुर्भुज जी इनके माता-पिता थे इनका बाल्यकाल का नाम सम्पतराज था । वि०सं० २०१५ आषाढ़ शुक्ला २ को इनकी नागौर में दीक्षा हुई और ये कैलाशसागर जी के नाम से जाने गये। इनके गुरु का नाम आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि था । आचार्य जिनमहोदयसागरसूरि जी के स्वर्गवास के पश्चात् श्रीसंघ ने आपको गणाधीश पद से अलंकृत किया। आप सरल स्वभावी और भद्रपरिणामी हैं। वर्तमान में आप खरतरगच्छ के गणाधीश पद का सम्यक् प्रकार से निर्वहन कर रहे हैं । वि०सं० २०५८ माघ सुदि १० को मालपुरा की असाधारण प्रतिष्ठा भी आपके सान्निध्य में हुई थी। उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर लुंकड गोत्रीय श्री पारसमल जी और रोहिणी देवी आपके माता-पिता थे । जन्म वि०सं० २०१६ फाल्गुन सुदि १४ को मोकलसर में इनका जन्म हुआ। आपका जन्म नाम मीठालाल था । सं० २०३० आषाढ़ वदि ७ को पालिताणा में दीक्षा ग्रहण कर ये आचार्य जिनकांतिसागरसूरि के शिष्य बने । इनका दीक्षा नाम मणिप्रभसागर हुआ। इनकी माता रोहिणी देवी और बहन विमला कुमारी ने भी इसी अवसर पर दीक्षा ग्रहण की और क्रमशः रत्नप्रभाश्री और विद्युत्प्रभाश्री नाम प्राप्त किया । दिनांक २४.०६.१९८८ को पादरु नगर में इन्हें गणि पद प्राप्त हुआ और गणाधीश कैलाशसागर जी की अनुज्ञा से दिनांक २६ जनवरी, २००१ वि०सं० २०५७ माघ सुदि २ को गढ़ सिवाणा में उपाध्याय पद प्राप्त किया। गुरु के समान ही ये अच्छे व्याख्याता और ज्योतिष विद्या में निष्णात हैं । लेखक और कवि के रूप में भी प्रसिद्ध हैं । व्यवहारपटुता के कारण आज समाज में आपकी बहुत ख्याति है । पूजायें, जीवनचरित्र, अनुवाद, सम्पादन एवं संग्रह आदि की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके सान्निध्य में साठ से अधिक अंजनशलाका, प्रतिष्ठा एवं दादावाड़ियों का निर्माण हुआ है । इन्हीं के कर-कमलों से ५५ से अधिक लघु और बड़ी दीक्षायें सम्पन्न हो चुकी हैं। मालपुरा में खरतरगच्छ की दृष्टि से वि०सं० २०५८ में असाधारण प्रतिष्ठा महोत्सव आपके संचालकत्व में ही हुआ है। सं० २०५९ का जिनहरिविहार पालीताणा में इनका भव्य एवं यशस्वी चातुर्मास समपन्न हुआ । इस चातुर्मास में आपके सान्निध्य में ६०० श्रद्धालु यात्रियों ने गिरिराज की निन्नाणु यात्रा का लाभ लिया। मंगलकारी उपधान तप हुआ और अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव भी निर्विघ्न हुआ । स्व० आचार्य जिनकांतिसागरसूरि जी की पुण्यस्मृति में माण्डवला में जिस अनुपम जहाजमन्दिर और गुरु मन्दिर की स्थापना हुई है वह इन्हीं के सतत प्रयत्नों का सुफल है एवं गुरु के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप आपके कई शिष्य हैं। आपकी बहन साध्वी डॉ० विद्युत्प्रभाश्री जी अच्छी विदुषी हैं। I संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३७१) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (गणि श्री महिमाप्रभसागर बीकानेर निवासी श्री मोहनलाल जी आपके पिता एवं वरजी देवी माता थीं। आपका जन्म वि०सं० १९८२ में बीकानेर में हुआ था। आपका गृहस्थावस्था का नाम मिलापचन्द्र था। आपकी मातुश्री वरजी देवी ने वि०सं० २००० में बीकानेर में श्री जिनमणिसागरसूरि जी म० की अध्यक्षता में उपधान तप कराया था। वि०सं० २०३५ ज्येष्ठ सुदि ११ को बाड़मेर में श्री विमलसागर जी के समीप अपनी पत्नी और पुत्र के साथ आपने दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दीक्षानाम महिमाप्रभसागर रखा गया। पत्नी जेठीबाई का जितयशाश्री और लघु पुत्र ललित का नाम ललितप्रभसागर रखा गया था। वि०सं० २०३६ पौष सुदि ७ को नाकोड़ा तीर्थ में श्री जिनकांतिसागरसूरि के वरदहस्तों से इन्होंने बड़ी दीक्षा ग्रहण की और श्री जिनकांतिसागरसूरि के शिष्य घोषित किये गये। ललितकुमार के बड़े भाई पुखराज ने वि०सं० २०३६ माघ सुदि ११ को दीक्षा ग्रहण कर चन्द्रप्रभसागर नाम प्राप्त किया। बन्धुयुगल ललितप्रभसागर और चन्द्रप्रभसागर न केवल विद्वान् और लेखक ही हैं बल्कि असाधारण प्रवचनपटु भी हैं। अब तक आपके प्रवचनों के शताधिक संग्रह पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में योग साधना की ओर ये अधिक आकर्षित हैं और इस सम्बन्ध में कई शिविर भी आयोजित कर चुके हैं। गणि श्री महिमाप्रभसागर जी के सान्निध्य एवं बन्धुयुगल के सत्प्रयत्नों से सम्मेतशिखर तीर्थ में जैन संग्रहालय एवं जोधपुर में सम्बोधि धाम का भी निर्माण हुआ है। विक्रम संवत् २०४६ वैशाख सुदि १३ के दिन सूरत में आचार्य श्री चिदानन्दसूरि जी महाराज के कर-कमलों से इनको गणि पद प्रदान किया गया। गणि श्री पूर्णानन्दसागर धमतरी निवासी बंगानी गोत्रीय श्री जमनालाल जी और श्रीमती कस्तूरी देवी के यहाँ इन्होंने जन्म लिया। इनका जन्म नाम चम्पालाल था। विक्रम संवत् २०३० पौष वदि तीज को नयापारा (राजिम) में इन्होंने आचार्य श्री जिनउदयसागर जी महाराज के कर-कमलों से दीक्षा ली और उनके शिष्य बने। इनका दीक्षा नाम पूर्णानन्दसागर रखा गया। श्री जिनमहोदयसागरसूरि जी ने इनको गणि पद प्रदान किया। श्री मनोज्ञसागर स्व० श्री कांतिसागरसूरि के शिष्यों में श्री मनोज्ञसागर जी भी हैं। वि०सं० २०१९ माघ वदि ५ को इनका जन्म हुआ। इनका बचपन का नाम मिश्रीमल था। इनके पिता प्रतापमल जी और माता (३७२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमीदेवी थे। ये छाजेड़ गोत्रीय थे। इनके पिता भी दीक्षित होकर मुनि प्रतापसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनका स्वर्गवास जयपुर में हुआ। इनकी दीक्षा विक्रम संवत् मार्गशीर्ष वदि दूज २०३० में पालिताणा में हुई और ये आचार्य श्री जिनकांतिसागरसूरि के शिष्य बने। इनका दीक्षा नाम मनोज्ञसागर रखा गया। श्री मनोज्ञसागर जी के सत्प्रयत्नों से ब्रह्मसर तीर्थ का उद्धार हो रहा है जो कि दादा जिनकुशलसूरि का ही दर्शनीय स्थान माना जाता है। (मुनि श्री सुयशसागर संवत् २०१९ आसोज सुदि १० को भुज (कच्छ) में इनका जन्म हुआ। इनके पिता-माता का नाम था-श्री शंकरलाल जी और श्रीमती सावित्री देवी। इनका जन्म नाम सूर्यकान्त था। इन्होंने संवत् २०३५ मिगसर वदि ५ को सिहोर में श्री जिनकान्तिसागरसूरि जी के शिष्य बनकर सुयशसागर नाम प्राप्त किया। (मुनि श्री पीयूषसागर संवत् २०१९ मार्गशीर्ष सुदि १२ को नयापारा (मध्यप्रदेश) में पारख गोत्रीय श्री नेमीचन्द जी - श्रीमती जमनादेवी के यहाँ इनका जन्म हुआ। जन्म नाम प्रदीपकुमार था। विक्रम संवत् २०४१ फाल्गुन सुदि दूज को मालवीय नगर - दुर्ग में आचार्य श्री जिनउदयसागर जी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। नाम रखा गया-पीयूषसागर। आपके शिष्य-प्रशिष्य श्री सम्यक्रत्नसागर - श्री महेन्द्रसागर - श्री मनीषसागर हैं। आपका संवत् २०५९ का चातुर्मास गाँधीधाम में है। (मुनि श्री मणिरत्नसागर पटोंदा (स्टेशन श्रीमहावीरजी राज०) के निवासी पल्लीवाल जातीय राजोरिया गोत्रीय श्री धन्नालाल जी जैन-श्रीमती चमेली बाई के पुत्र के रूप में १९६० ई० के लगभग आपका जन्म हुआ। आपका जन्म नाम महेशचन्द्र था। अकस्मात् ही वैराग्य भावना बढ़ जाने से २६ जनवरी २००० को मालेगांव में श्री जिनमहोदयसागरसूरि के पास आपने दीक्षा ग्रहण कर मुनि मणिरत्नसागर नाम प्राप्त किया। आपके शिष्य मुनि मलयरत्नसागर हैं। प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों के आप विशिष्ट जानकार हैं। महेशचन्द्र के रूप में आपने सैकड़ों स्थानों पर प्रतिष्ठादि के विधि-विधान कराये हैं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३७३) 2010_04 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय क्षमाकल्याणजी (३७४) वंशवृक्ष 2010_04 विद्यानन्दन विद्यानन्दन धर्मविशाल (धर्मानन्द) राजसागर जी सुमतिविशाल ऋद्धिसागर पद्मसागर गुणवन्तसागर रूपसागर स्थानसागर सुखसागर मणिसागर महातपस्वी छगनसागर पूर्णसागर भगवान्सागर चिदानन्दजी रामसागर कल्याणसागर रत्नसागर नवनिधिसागर क्षेमसागर चैतन्यसागर सुमतिसागर गुमानसागर धनसागर तेजसागर बैलोक्यसागर हरिसागर (जिनहरिसागरसूरि) . वल्लभसागर देवेन्द्रसागर शांतिसागर हिम्मतसागर प्रेमसागर कीर्तिसागर क्षमासागर मणिसागर मतिसागर (जिनमणिसागरसूरि) लब्धिसागर भावसागर रवीन्द्रसागर म.विनयसागर भक्तिचन्द्र गौतमचन्द्र गुणचन्द्र स्थिरमुनि कवीन्द्रसागर हर्षसागर (जिनकवीन्द्रसागरसूरि) हेमेन्द्रसागर मुक्तिसागर कांतिसागर नन्दसागर करुणासागर तीर्थसागर (जिनकांतिसागरसूरि) दर्शनसागर रत्नसागर खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड त्रैलोक्यसागर कुसुमसागर कल्याणसागर कैलाशसागर विमलसागर कीर्तिसागर धर्मसागर Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशवृक्ष बैलोक्यसागर _ 2010_04 कांतिसागर (जिनकांतिसागरसूरि) रूपसागर कल्याणसागर रतनसागर वीरपुत्र आनन्द सागर भीमसागर (जिन आनन्दसागरसूरि) संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास उ. मणिप्रभसागर प्रतापसागर मनोजसागर प्रकाशसागर मुक्तिप्रभसागर सुयशप्रभसागर विमलप्रभसागर महिमाप्रभसागर ललितप्रभसागर चन्द्रप्रभसागर शशिप्रभसागर (3) तीर्थयशसागर (ग.) महायशसागर मोहितसागर (ग.) मनीषप्रभसागर मयंकप्रभसागर मनितप्रभसागर मितेशप्रभसागर मेहुलप्रभसागर महेन्द्रसागर नरेन्द्रसागर राजेन्द्रसागर उदयसागर मंगलसागर विजयसागर (जिनउदयसागरसूरि) हंससागर . प्रभाकर सागर गौतमसागर महोदयसागर सूर्यसागर (जिन महोदयसागरसूरि) चन्द्रसागर पूर्णानन्द सागर पीयूष सागर मणिरत्नसागर कल्परत्नसागर सम्यक्रन सागर मलयरत्नसागर महारत्नसागर महेन्द्रसागर (३७५) मनीषसागर Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि का समुदाय १. आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि श्री कीर्तिरत्नसूरि जी की परम्परा में श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी बीसवीं शताब्दी में एक तेजस्वी विद्वान् और महान् प्रभावशाली आचार्य हो गए हैं। आपका जन्म जोधपुर राज्य के चोमुं गाँव में बाफणा मेघराज जी की धर्मपत्नी अमरादेवी की कोख से सं० १९१३ में हुआ । कृपाचन्द्र जन्म नाम था। यतिवर्य युक्तिअमृत मुनि के पास आपने सिद्धान्तों का समुचित अध्ययन कर सं० १९२५ चैत्र दि ३ में यति दीक्षा स्वीकार की। दीक्षा नाम कीर्त्तिसार रखा गया । तीर्थयात्रा और धर्म प्रचार करते हुए आपने मध्यप्रदेश के रायपुर, नागपुर आदि नगरों में पर्याप्त विचरण किया । त्याग, वैराग्य और संयममार्ग में अग्रसर होने की भावना तो थी ही, गुरुजी के दिवंगत होने पर आपने बीकानेर के दो उपाश्रय, ज्ञान भण्डार, मन्दिर और नाल की धर्मशाला आदि लाखों की सम्पत्ति छोड़ कर सं० १९४५ में क्रियोद्धार कर लिया । इन्दौर में पैतालीस आगम का वाचन किया। आपने ३२ वर्ष पर्यन्त अनवरत विद्याध्ययन किया । यति अवस्था में ज्योतिष विद्या में पारगामित्व प्राप्त किया, पर साधु होने के पश्चात् उस ओर लक्ष भी नहीं दिया । सं० १९५२ में उदयपुर चातुर्मास कर केसरिया जी पधारे। खैरवाड़ा में जिनालय प्रतिष्ठित किया। देसूरी, जोधपुर, जैसलमेर और फलौदी चातुर्मास कर सं० १९५७ में बीकानेर आकर यति-जीवन की परित्यक्त सम्पत्ति को विधिवत् ट्रस्टी आदि नियुक्त कर संघ के अधीन की। सं० १९५८ का चातुर्मास जयतारण कर गोड़वाड़ पंचतीर्थी की यात्रा की। फलौदी के सेठ फूलचंद जी गोलेच्छा के संघ सहित शत्रुंजय की यात्रा की । सं० १९५९ पालिताणा और सं० १९६० में पोरबन्दर चातुर्मास कर कच्छ देश में पदार्पण किया। मुद्रा, मांडवी, बिदड़ा, भाडिया, अंजार आदि में पाँच वर्ष विचरे, पाँच उपधान कराये, दस साधु-साध्वियों को दीक्षित किया। मांडवी के सेठ नाथा भाई ने आपके उपदेश से शत्रुंजय का संघ निकाला । सं० १९६६ में आपने १७ ठाणों से पालीताण में चातुर्मास किया । नन्दीश्वर द्वीप की रचना हुई और पाँच साधु-साध्वियों को दीक्षित किया । सं० १९६० का चातुर्मास जामनगर कर उपधान कराया। वहाँ चार दीक्षाएँ हुईं। सं० १९६८ का चातुर्मास मोरबी में कर भोयणी, शंखेश्वर होकर अहमदाबाद पधारे। सं० १९६७ का चौमासा अहमदाबाद में किया । वहाँ आपने भगवतीसूत्र बाँचा | सोने की मोहरों की प्रभावना हुई, स्वधर्मीवात्सल्यादि किये गये । वहाँ से भावनगर, तलाजा होते हुए खंभात पधारे। वहाँ से सेठ पानाचंद भभाई की विनती से सूरत पधार कर सं० १९७१ का चातुर्मास कर साधुओं को दीक्षित किया। जगड़िया, भरोंच, कावी होते हुए पादरा पधारे। फिर बड़ौदा होते हुए बम्बई पधारने पर मोतीशाह सेठ के वंशज रतनचंद खीमचंद, मूलचंद हीराचंद, प्रेमचंद कल्याणचंद, केशरीचंद कल्याणचंद ने प्रवेशोत्सव कर सं० १९७२ का चातुर्मास लालबाग में बड़े ठाठ से कराया । भगवतीसूत्र बाँचा | संघ (३७६) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी महाराज का समुदाय/परंपरा GADADNDADDDDANDDDDDDADAV OGAOACOLADOOOOOOOOOOK स्व. आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी म. स्व. आचार्य श्री जिनजयसागरसूरि जी म. ARENDEVDAENDAOLD DUNDYDD OCOGOGIC0000000000000000008 DOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOD स्व. मुनि स्व. उपाध्याय स्व. मुनि श्री मंगलसागर जी म. श्री सुखसागर जी म. श्री कान्तिसागर जी म. JIMEneation international-2010-04 www.jane Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य शिरोमणि श्री जिनवल्लभसूरि जी म. قرارداد رادار کردار لیکر عرررردارد ورور प्याज २. 8 श्रीक्रिनवल्लीप हगल) लललललललामकोला बारहवीं सदी, काष्ठपट्टिका, श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, पालीताना युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि जी म. SECSECSEQQAMOR श्रीउनदत्तस्थः द दलललललल बारहवीं सदी, काष्ठपट्टिका, श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, पालीताना HJainEducation intinationalOGHI Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अत्यन्त आग्रह से वहाँ आपने सं० १९७२ पौष सुदि १५ को आचार्य पद स्वीकार किया। आचार्य नाम जिनकीर्तिसूरि रखा गया, किन्तु आप जिनकृपाचन्द्रसूरि के नाम से ही प्रसिद्ध रहे । सूरिमंत्र देने के लिए बीकानेर से श्रीपूज्य श्री जिनचारित्रसूरि जी को बुलाया गया, पंचतीर्थी की रचना हुई । इसी आचार्य पदोत्सव पर आपने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद से विभूषित किया । सं० १९७३ का चातुर्मास बम्बई में हुआ । विहार मार्ग में तीन साधुओं को दीक्षा दी। सूरत वाली कमलाबाई की विनती से बुहारी चातुर्मास कर वासुपूज्य जिनालय में प्रतिष्ठा करवाई। तीन दीक्षाएँ हुईं। सूरत के सेठ पानाचंद भगुभाई और कल्याणचंद छेलाभाई आदि की विनती से वहाँ शीतलबाड़ी उपाश्रय में विराजे । पानाचंद भाई ने श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार बनवाया व उद्यापन किया। श्री जयसागर जी को उपाध्याय पद और सुखसागर जी को प्रवर्तक पद से विभूषित किया। प्रेमचंद केशरीचंद ने उद्यापन किया। धम्माभाई, पानाभाई, मोतीभाई आदि ने चतुर्थ व्रत ग्रहण किया । सं० १९७५-७६ का चातुर्मास करके सं० १९७७ में बड़ौदा चौमासा किया। रतलाम वाले सेठ जी ने आकर मालवा पधारने की विनती की । आपश्री अहमदाबाद, कपड़वंज, रंभापुर, झाबुआ होते हुए रतलाम पधारे। उपधानतप के अवसर पर रतलाम नरेश सज्जनसिंह जी भी दर्शनार्थ पधारे। यहाँ पाँच साध्वियों को दीक्षित कर इन्दौर पधारे । सं० १९७९ में भगवतीसूत्र बाँचा, श्री जिनकृपाचंद्रसूरि ज्ञान भण्डार की स्थापना हुई । उपाध्याय सुमतिसागर जी को महोपाध्याय पद, राजसागर जी को वाचक पद और मणिसागर जी को पंडित पद से विभूषित किया। संघ सहित मांडवगढ़ की यात्रा कर भोपावर, राजगढ़, खाचरोद, सेमलिया होते हुए सैलाना पधारे। सैलाना नरेश आपके उपदेशों से बड़े प्रभावित हुए। फिर प्रतापगढ़ होते हुए मंदसौर आकर सं० १९८० का चातुर्मास किया । वहाँ से नीमच, नींबाहेड़ा, चित्तौड़, करहेड़ा पार्श्वनाथ, देवलवाड़ा होकर उदयपुर पधारे। कलकत्ता वाले बाबू चंपालाल प्यारेलाल के संघ सहित श्री केशरिया जी की यात्रा की । २५ ठाणा से उदयपुर में सं० १९८१ का चातुर्मास पूर्ण करके राणकपुर पंचतीर्थी करते हुए जालौर होकर बालोतरा पधारे । सं० १९८२ का चातुर्मास पूर्ण कर नाकोड़ा जी यात्रा की। साधुओं का विहार न होने से मारवाड़ के लोग धर्म विमुख हो गए थे, आपने बाड़मेर में एक दिन में ४०० मुँहपत्तियाँ तुड़वाकर जिनप्रतिमा के प्रति आस्थावान बनाया । सं० १९८३ में जैसलमेर संघ में चातुर्मास किया। श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार के ताड़पत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोद्धार कराया। कई ग्रन्थों की नकलें व प्रेस कापियाँ करवाईं। सं० १९८४ का चातुर्मास फलौदी में करके माघ सुदि ५ को बीकानेर पधारे । बीकानेर में तीन चातुर्मास कर दीक्षायें दी व प्रेमचंद जी खजांची ने उपधान करवाया। सं० १९८७ के अनन्तर आप सूरत वाले श्री फतेचंद प्रेमचंद की विनती से पालीताणा पधारे। सं० १९९४ माघ सुदि ११ के दिन आप स्वर्गवासी हुए। उस समय आपका साधु-साध्वी समुदाय ७० के लगभग था । आपके उपदेश से इन्दौर, सूरत, बीकानेर आदि में ज्ञान भंडार, पाठशालाएँ, कन्याशालाएँ खुलीं । कल्याणभवन, चाँदभवन आदि धर्मशालाएँ तथा जिनदत्तसूरि ब्रह्मचार्यश्रम आदि संस्थाओं के स्थापना में आपका उपदेश मुख्य था । आपने कल्पसूत्रटीका, द्वादशपर्वव्याख्यान के हिन्दी अनुवाद व कृपाविनोद संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३७७) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अनेक स्तवन-सज्झायें), गिरनार पूजा आदि की रचना की। सूरत से श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फंड से अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन करवाया। __ आपकी प्रतिमाएँ शचुंजय-तलहटी में स्थित धनवसही दादावाड़ी में, जैन भवन की दादावाड़ी जिनालय में, रायपुर मन्दिर और बीकानेर में हैं। आपका उत्कृष्ट चारित्र, विद्वत्ता और संघ पर उपकार अजोड़ था। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी ने स्वहस्त से अनेक शिष्य-प्रशिष्यों को दीक्षित किया था। खोज करने पर हमें केवल २५ के नाम प्राप्त हुए हैं, जो इस प्रकार हैं :१. तिलोक मुनि, २. आनन्द मुनि, ३. जयसागरसूरि, ४. उ० सुखसागर, ५. रायसागर, ६. उदयसागर, ७. वर्धमानसागर ८. रत्नसागर, ९. विवेकसागर, १०. कीर्तिसागर, ११. रामसागर, १२. तिलोकसागर, १३. उम्मेदसागर, १४. मतिसागर, १५. प्रमोदसागर, १६. पद्मसागर, १७. हेमसागर, १८. हरखसागर, १९. मंगलसागर, २०. शोभनसागर, २१. चतुरसागर, २२. प्रेमसागर, २३. शुभसागर, २४. रतिसागर, २५. जीतसागर। (२. आचार्य श्री जिनजयसागरसूरि आपका जन्म सं० १९४३ में हुआ था। आपने दीक्षा १९५६, उपाध्याय पद सं० १९७६ व आचार्य पद सं० १९९० में स्वयं गुरु महाराज के कर-कमलों से प्राप्त किया था। आपके लघु भ्राता वाचक राजसागर जी व छोटी बहिन ने भी दीक्षा ली जिनका नाम हेतश्री जी था। आपने श्री जिनदत्तसूरि चरित्र दो भाग व गणधरसार्धशतक भाषान्तर एवं श्रीपालचरित्र का अनुवाद आदि कई पुस्तकें लिखीं। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि चरित्र महाकाव्य का संस्कृत में निर्माण किया। आप दृढ़, संयमी और ठाम चौविहार करते थे। शास्त्र-सिद्धान्त के इतने प्रौढ़ विद्वान् थे कि बिना शास्त्र हाथ में लिए शृंखलाबद्ध व्याख्यान देते थे। आपने गढ़ सिवाणा, मोकलसर आदि में चातुर्मास किए। आपके ग्रन्थों का संग्रह सिवाणा की दादावाड़ी में है। बीकानेर की भयंकर गर्मी में भी आपने पानी लेना स्वीकार नहीं किया और सं० २००३ में बीकानेर में समाधिपूर्वक देह त्याग कर दिया। रेल दादाजी-बीकानेर में आपके चरण विद्यमान हैं। (३. उपाध्याय श्री सुखसागर श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी के शिष्यों में इनका स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। आप प्रसिद्ध वक्ता थे। बुलन्द आवाज़ और हजारों श्लोक कण्ठस्थ थे। श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फंड से पचासों ग्रन्थों (३७८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रकाशन में आपका परिश्रम और उपदेश मुख्य था। आपने जैनागमों के अतिरिक्त संस्कृत काव्य, अलंकारादि का भी अच्छा अभ्यास किया था। आप इन्दौर निवासी मराठा जाति के थे। सेठ कानमल जी के परिचय में आकर उल्लासपूर्वक कच्छ जाकर श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी से दीक्षा ली। सं० १९७४ माघ सुदि १० को सूरत में गुरु महाराज ने मंगलसागर को दीक्षित कर आपके शिष्य रूप में प्रसिद्ध किया। उस समय सूरत में १८ ठाणे थे, इनका १९वाँ नम्बर था। इन्दौर में प्रवर्तक पद पाकर आपने श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना की। आपके उपदेशों से बालोतरा चौमासा में बहुत से स्थानकवासियों को जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाने से, उपधानतपादि द्वारा तथा मिथ्यात्व त्याग, अभक्ष्य त्यागादि में समाज को बड़ा लाभ मिला। जैसलमेर ज्ञान भंडार के जीर्णोद्धार में प्राचीन प्रतियों की नकल व फोटोस्टेट आदि कार्यों में आपका पूर्ण योगदान था। सं० १९९२ में धनवसही में आपके उपदेश से निर्मित दादावाड़ी की प्रतिष्ठा श्री जिनचारित्रसूरि जी द्वारा करवाई गयी। उस समय आप उपाध्याय पद से विभूषित हुए और सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ और विद्वान् लेखक श्री कान्तिसागर जी की दीक्षा हुई। ग्रन्थ सम्पादनादि कार्य सतत चालू रहा। गुरु महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आपने सूरत, अमलनेर, बम्बई, नागपुर, सिवनी, बालाघाट, गोंदिया आदि में चातुर्मास किए। उपधान तप आदि अनेक धर्मकार्य होते रहे। गोंदिया में पन्द्रह वर्षों से चले आ रहे मन मुटाव को दूर कर सं० १९९९ के माघ में प्रतिष्ठा करवायी। राजनादगाँव में उपधान कराया। रायपुर होकर महासमुन्द चातुर्मास किया। धमतरी पधार कर सं० २००९ के फाल्गुन में अंजनशलाका प्रतिष्ठा, गुरुमूर्ति स्थापना आदि अनेक उत्सव कराये। मुनि श्री कान्तिसागर जी की प्रेरणा से महाकोशल जैन संघ का महत्त्वपूर्ण सम्मेलन हुआ। फिर रायपुर चातुर्मास कर सम्मेतशिखर महातीर्थ की यात्रा करते हुए संघ की विनती से कलकत्ता पधार कर दो चातुर्मास किए। वहाँ से लौटते हुए पटना और वाराणसी में चातुर्मास किए, फिर मिर्जापुर, रीवा होते हुए जबलपुर पधारे। सं० २००७ में वहाँ ध्वजदण्डारोहण, तपश्चर्या के उत्सव हुए। सिवनी होकर सं० २००८ का चातुर्मास राजनांदगाँव किया। आपके उपदेश से नूतन दादावाड़ी का निर्माण होकर प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। वहाँ से सिवनी होकर भोपाल, लश्कर, ग्वालियर चातुर्मास किए। जयपुर चातुर्मास के अनन्तर अजमेर में दादाश्री जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी के उत्सव में भाग लेकर उदयपुर चातुर्मास किया। फिर गढ़सिवाणा चातुर्मास कर गोगोलाव के जिनालय की प्रतिष्ठा कराई। ___ आपको गुजरात छोड़े बहुत वर्ष हो गए थे अतः अहमदाबाद संघ के आग्रह से वहाँ चातुर्मास कर पालीताणा पधारे। सं० २०१६ में उपधान तप हुआ। गिरिराज पर विमल वसही में दादा साहब की जीर्णोद्धारित देहरियों में प्रतिष्ठा के समय श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ के अधिवेशन व साधु सम्मेलनादि में सबसे मिलना हुआ। पालीताणा जैन भवन में कई चातुर्मास हुए। आपकी प्रेरणा से जैन भवन की भूमि पर गुरु मन्दिर का निर्माण हुआ। दादा साहब व गुरु-मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। सं० २०२२ में घण्टाकर्ण महावीर की प्रतिष्ठा हुई जिसमें गुरु भक्त केशरिया कंपनी पालनपुर वालों की ओर से ५१ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३७९) 2010_04 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किलो का महाघण्ट प्रतिष्ठापित किया गया। दादा साहब के चित्र व प्रतिमा आदि साहित्य प्रकाशन होता रहा। वृद्धावस्था के कारण गिरिराज की छाया में ही विराजमान रहे। सं० २०२४ वैशाख सुदि ९ को आपका स्वर्गवास हो गया। मनि श्री कान्तिसागर उपाध्याय सुखसागर जी के लघु शिष्य कान्तिसागर जी सौराष्ट्र जामनगर के जैनेतर कुलोत्पन्न थे। लघुवय में सं० १९९२ में उपाध्याय जी के पास दीक्षित होकर अपनी असाधारण प्रतिभा से अनेक विषयों के पारगामी विद्वान् बने। हिन्दी भाषा पर आपका अच्छा अधिकार था। संस्कृतनिष्ठ प्राञ्जल भाषा में आपके ग्रन्थों का विद्वानों में बड़ा आदर हुआ। खण्डहरों का वैभव और खोज की पगडंडियों दो ग्रन्थ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसी प्रसिद्ध संस्था से प्रकाशित हुए। उत्तरप्रदेश सरकार ने इनकी श्रेष्ठता पर पुरस्कार घोषित किया। पुरातत्त्व और कला के आप अधिकारी विद्वान् थे। जैन धातु प्रतिमा लेख, नगरवर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह और आयुर्वेदना अनुभूत प्रयोगो भी अपने विषय के अच्छे ग्रन्थ हैं। नागदा और एकलिंग जी पर आपने महत्त्वपूर्ण बृहद् ग्रन्थ अथक परिश्रम से तैयार किया था जो अप्रकाशित ही रह गया। श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई, पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय जी, डॉ० हंसमुखलाल सांकलिया जैसे अध्यवसायी अन्वेषकों का आपको सत्संग मिला और डॉ० हजारीप्रसाद जी द्विवेदी जैसे विद्वान् ने 'खोज की पगडंडियाँ' नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखी। ___ जयपुर संघ के अनुरोध से आप पालीताणा से जयपुर पधारे। पर्युषण व्याख्यानादि में श्रम अधिक पड़ने से शरीर क्षीण होने लगा। ता० २८ सितम्बर १९६९ को हृदय गति अवरुद्ध होने से आपका स्वर्गवास हो गया। सं० १९८४ के आस-पास श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी म० के समुदाय में लगभग ७० साध्वियाँ थीं किन्तु आज इस समुदाय में एक भी साधु विद्यमान नहीं है और कुछ ५-७ साध्वियाँ शेष हैं। (३८०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 . अरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. महान् प्रतापी श्री मोहनलाल जी का समुदाय श्री जिनसुखसूरि जी की परम्परा में खरतरगच्छ विभूषण महान् प्रतापी श्री मोहनलाल जी क्रियोद्धारक और सर्व गच्छ समभावी महापुरुष हुए हैं जिनका साधु समुदाय खरतर तथा तपागच्छ की शोभा बढ़ा रहे हैं। आपने सं० १९३० में क्रियोद्धार किया था । इतः पूर्व वे कलकत्ता के आदेशी यति थे। आपकी गुरु परम्परा का सम्पूर्ण परिचय यहाँ दिया जाता है १. कर्मचंद जी - इनका दीक्षा नाम कीर्तिवर्द्धन था । सं० १७८७ मिगसिर सुदि १२ को उदरामसर में श्री जिनसुखसूरि ने दीक्षित किया। २. वृद्धिचंद जी - इनका दीक्षा नाम इलाधर्म था । इन्हें सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को श्री जिनलाभसूरि भुज नगर में दीक्षा दी। ३. बुद्धिचंद जी - इनका दीक्षा नाम विनीतसुन्दर था । सं० १८१३ माघ वदि ८ को बीकानेर में श्री जिनलाभसूरि ने दीक्षित किया । ४. लालचंद जी - इनका दीक्षा नाम लक्ष्मीमेरु था । सं० १८४३ फाल्गुन सुदि ११ को श्री जिनचन्द्रसूरि इन्हें बीकानेर में दीक्षित किया। ५. सालगौ जी - इनको सं० १८५१ वैशाख सुदि ३ को रोहिणी गाँव में श्री जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा देकर सुमतिवर्द्धन नाम से प्रसिद्ध किया । ६. अमरा जी - इनका दीक्षा नाम अमृतसागर था । सं० १८६३ पौष वदि ३ को श्री जिनहर्षसूरि द्वारा जालौर में दीक्षा हुई। ७. रूपचंद जी - सं० १८८० फाल्गुन वदि ८ को बीकानेर में श्री जिनहर्षसूरि ने दीक्षित कर ऋद्धिशेखर नाम से प्रसिद्ध किया । ८. श्री मोहनलाल जी महाराज - आपकी दीक्षा सं० १९०० ज्येष्ठ सुदि १३ को नागौर में हुई । यतिवर्य ऋद्धिशेखर (रूपचंद जी) के शिष्य मानोदय नाम से प्रसिद्ध हुए । श्री जिनमहेन्द्रसूरि के कर-कमलों से मक्षी जी में इनकी दीक्षा होने का जीवन चरित्र में वर्णन है । १. मोहनलाल जी महाराज आपका जन्म सं० १८८७ वैशाख सुदि ६ को मथुरा के निकटवर्ती चन्द्रपुर ग्राम में सनाढ्य ब्राह्मण बादरमल जी की धर्मपत्नी सुन्दर बाई की कोख से हुआ । जन्म नाम मोहनलाल था । सं० १८९४ में इन्हें माता-पिता ने नागौर आकर यतिवर्य रूपचंद जी को समर्पित कर दिया । यति जी के पास इनका विद्याभ्यास हुआ। आप लखनऊ और कलकत्ता भी रहे । सं० १९३० में कलकत्ता से अजमेर पधार कर क्रियोद्धार कर कठिन साध्वाचार पालन करते हुए विचरने लगे। एक बार एकाकी 1 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (३८१) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरते हुए नगर में न पहुँच पाये तो वृक्ष के नीचे ही कायोत्सर्ग में स्थित रहे। आपके ध्यान के प्रभाव से निकट आया हुआ सिंह भी शान्त हो गया । तत्पश्चात् संयमी जीवन में आपको रात्रि में पानी तक रखने की आवश्यकता नहीं पड़ी, पीछे जब समुदाय बढ़ा तो रखने लगे। प्राचीन तीर्थ ओसियां जाने पर मन्दिर का गर्भगृह एवं प्रभु प्रतिमा बालू से ढके हुए थे। आपने जब तक जीर्णोद्धार कार्य न हो विगय त्याग कर दिया। नगर सेठ को मालूम पड़ने पर जीर्णोद्धार हुआ। वहाँ के मन्दिर में आपश्री की प्रतिमा विराजमान है । आपने मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि अनेक देशों में विहार किया । बम्बई जैसी महानगरी में जैन साधुओं का विचरण सर्वप्रथम आपने ही प्रारम्भ किया। आपका वहाँ बड़ा प्रभाव हुआ, वचन सिद्ध महापुरुष तो थे ही, बम्बई में घर-घर में आपके चित्र देखे जाते हैं। आपने अनेक भव्यात्माओं को देश विरति-सर्वविरति धर्म में दीक्षित किया। आपका विशाल साधु समुदाय हुआ । अनेक स्थानों में जीर्णोद्धार प्रतिष्ठाएँ आपके उपदेशों से सम्पन्न हुईं। सं० १९४९ में महातीर्थ शत्रुंजय की तलहटी में मुर्शिदाबाद निवासी राय बहादुर धनपतसिंह दूगड़ द्वारा विशाल जिनालय "धनवसही" का निर्माण कराया गया। उनकी धर्मपत्नी रानी मैनासुन्दरी को स्वप्न में आदेश हुआ कि जिनालय की प्रतिष्ठा श्री मोहनलाल जी महाराज के कर-कमलों से करावें । उन्होंने पति से स्वप्न की बात कही। उनके मन में भी वही विचार था अतः अपने पुत्र बाबू नरपतसिंह को भेज कर महाराज साहब को पालीताण प्रतिष्ठा के हेतु पधारने की प्रार्थना की 1 बाबू साहब की भक्ति-शक्ति-प्रार्थना स्वीकार कर पूज्यवर अपने शिष्य समुदाय के साथ पालीताणा पधारे और नौ द्वार वाले विशाल जिनालय की प्रतिष्ठा सं० १९४९ मिती माघ सुदि १० को बड़े ठाठ से कराई । पन्द्रह हजार मानवमेदिनी की उपस्थिति में धनवसही के विधि-विधान में गुरु महाराज के साथ उपस्थित यशोमुनि जी का पूर्ण सहयोग था । आपके व आपके शिष्य समुदाय द्वारा अनेक मन्दिरों और दादावाड़ियों का निर्माण व जीर्णोद्धार हुआ। ज्ञान भंडार आदि संस्थाएँ स्थापित हुईं। साहित्योद्धार आदि कार्य भी हुए । सं० १९६४ वैशाख कृष्णा १४ को सूरत नगर में ये युग पुरुष समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे । विस्तृत परिचय के लिये देखेंमोहनमुनि चरित्र महाकाव्य (संस्कृत) । २. आचार्य श्री जिनयशः सूरि खरतरगच्छविभूषण, वचनसिद्ध योगीश्वर श्री मोहनलाल जी महाराज के पट्टशिष्य श्री यशोमुनि जी का जन्म सं० १९१२ में जोधपुर के पूनमचंद जी सांड़ की धर्मपत्त्री मांगी बाई की कोख से हुआ । इनका नाम जेठमल था । पिताश्री की छाया उठ जाने से माता की आज्ञा से आजीविका और धार्मिक अभ्यास के लिए किसी गाड़े वाले के साथ अहमदाबाद की ओर चल पड़े। इनके पास थोड़ा सा भाता और राह खर्च के लिए मात्र दो रुपये थे । भगवान् पार्श्वनाथ के नाम का संबल था। भूख-प्यास (३८२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड 2010_04 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ख्याल किये बिना अनवरत यात्रा करते हुए अहमदाबाद पहुँचे। किसी सेठ की दुकान में जाकर मधुर व्यवहार से उसे प्रसन्न कर नौकरी कर ली और निष्ठापूर्वक काम करने लगे। मुनिराजों के पास व्याख्यान श्रवण व धार्मिक अभ्यास के साथ तपश्चर्या करने लगे। कच्छ के परासवा गाँव जाने पर जीतविजय जी महाराज के समागम में आकर धर्माध्यापक नियुक्त हो गए। धार्मिक शिक्षा देते हुए भी ४५ उपवास की तपस्या की। स्वधर्मी बन्धुओं के साथ सम्मेत शिखर जी आदि पंचतीर्थों की यात्रा कर आये। ___पन्द्रह वर्ष के दीर्घ प्रवास से जोधपुर लौट कर, विनयपूर्वक माता को स्थानकवासी मान्यता छुड़ा कर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। इक्यावन दिन की दीर्घ तपश्चर्या की। दीवान कुंदनमल जी ने बड़े ठाठ से अपने घर ले जाकर पारणा कराया। माता-पुत्र दोनों वैराग्य रस से ओत-प्रोत थे। माता को दीक्षा दिलाने के अनन्तर नवाशहर जाकर खरतरगच्छनभोमणि श्री मोहनलाल जी महाराज से दीक्षा की भावना व्यक्त करते हुए जोधपुर पधारने की विनती की। गुरु महाराज के पधारने पर सं० १९४१ ज्येष्ठ सुदि ५ को दीक्षा लेकर "जसमुनि" (यशोमुनि) बने । व्याकरण, काव्य, जैनागमों का अभ्यास करते हुए गुरु महाराज के साथ अजमेर, पाटण, पालनपुर चातुर्मास कर फलौदी पधारे। जसमुनि जी को चातुर्मास के लिए जोधपुर आना पड़ा। आयंबिल तपपूर्वक चौमासा पूर्ण किया। उत्तराध्ययन का प्रवचन किया। जैसलमेर, आबू, अचलगढ़ आदि की यात्रा कर अहमदाबाद चौमासा किया। पालीताणा चातुर्मास कर गुणमुनि को दीक्षा दी। सं० १९४९ में धनवसही की प्रतिष्ठा के समय आप गुरु महाराज के साथ ही थे। आषाढ़ सुदि ६ को चुरू के यति रामकुमार को दीक्षा देकर ऋद्धिमुनि नामकरण कर गुरु महाराज ने यशोमुनि का शिष्य प्रसिद्ध किया। सं० १९५२-५३ में सूरत, अहमदाबाद पधारे। सं० १९५४-५५-५६ में दयाविमल जी से ४५ आगमों का योगोद्वहन किया। पंन्यास व गणि पद से विभूषित होकर सूरत आये और हर्षमुनि जी को योगोद्वहन कराया। सं० १९५७-५८ में सूरत व बम्बई चातुर्मास कर हर्षमुनि जी को पंन्यास पद दिया। फिर सात शिष्यों के साथ शिवगंज चातुर्मास कर उपधान कराया। राजमुनि जी के शिष्य रत्नमुनि जी, लब्धिमुनि जी और हेतश्री जी को बड़ी दीक्षा दी। सं० १९६० का चातुर्मास जोधपुर में करके सं० १९६१ में अजमेर में आप विराज रहे थे तब श्वे० जैन कान्फ्रेंस के अधिवेशन में भाग लेने आये हुए कलकत्ता के राय बहादुर बद्रीदास मुकीम, रतलाम के सेठ चाँदमल जी पटवा, ग्वालियर के रा०ब० नथमल जी गोलेछा और फलौदी के सेठ फूलचंद जी गोलेछा ने श्री मोहनलाल जी महाराज से अर्ज की कि "आप खरतरगच्छ के हैं और इधर धर्म का उद्योत करते हैं तो राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बंगाल को भी धर्म में टिकाये रखिये।" उन्होंने पं० हर्षमुनि जी को आज्ञा दी कि "तुम खरतरगच्छ के हो, पारख गोत्रीय हो अतः खरतरगच्छ की क्रिया करो।" पंन्यास जी ने गुर्वाज्ञा शिरोधार्य मानते हुए भी चालू क्रिया करते हुए उधर के क्षेत्रों को संभालने की इच्छा प्रकट की। गुरु श्री मोहनलाल जी महाराज ने अजमेर स्थित यशोमुनि जी को आज्ञा पत्र लिखा जिसे उन्होंने सही स्वीकार किया। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३८३) _ 2010_04 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास के पश्चात् पंन्यास जी बम्बई की ओर पधारे, दहाणु में गुरु महाराज के चरणों में उपस्थित हुए और गुरु सेवा में लग गए। एक दिन गुरु महाराज ने पं० यशोमुनि जी को शत्रुंजय यात्रार्थ जाने का आदेश दिया। आप ८ शिष्यों के साथ वल्लभी तक पहुँचे तो उन्हें गुरु महाराज के स्वर्गवास के समाचार मिले। सं० १९६४ का चातुर्मास पालीताणा करके सेठानी आनन्दकुंवर बाई की प्रार्थना से रतलाम पधारे। सेठानी जी ने उद्यापनादि में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। सूरत के नवलचंदभाई को दीक्षा देकर नीतिमुनि नाम से ऋद्धिमुनि जी का शिष्य घोषित किया। इसी समय सूरत के पास कठोर गाँव में प्रतिष्ठा के अवसर पर समुदाय के कान्तिमुनि, देवमुनि, ऋद्धिमुनि, नयमुनि, कल्याणमुनि, क्षमामुनि आदि ३० साधुओं ने श्री यशोमुनि जी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का लिखित निर्णय किया। श्री यशोमुनि जी सेमलिया, उज्जैन, मक्सीजी होते हुए इन्दौर पधारे और केशरमुनि, रतनमुनि, भावमुनि को योगोद्वहन कराया। ऋद्धिमुनि सूरत से विहार कर मांडवगढ़ में आ मिले। जयपुर से गुमानमुनि भी गुणा की छावनी आ पहुँचे। आपने दोनों को योगोद्वहन क्रिया में प्रवेश कराया। सं० १९६५ का चातुर्मास ग्वालियर में किया। गुमानमुनि, ऋद्धिमुनि और केशरमुनि को पंन्यास पद से विभूषित किया। ग्वालियर, दतिया, झाँसी, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, काशी, पटना होते हुए पावापुरी पधारे। निर्वाण भूमि की यात्रा कर कुंडलपुर, राजगृह, क्षत्रियकुण्ड आदि होते हुए सम्मेतशिखर पधारे । कलकत्त संघ की विनती से कलकत्ता पधारे । सं० १९६६ का चातुर्मास किया। सं० १९६७ अजीमगंज में और सं० १९६८ में बालूचर चातुर्मास किया। आपके सत्संग से अमरचंद जी बोथरा ने धर्म का रहस्य समझकर सपरिवार तेरापंथ की श्रद्धा त्याग कर जिन प्रतिमा की दृढ़ मान्यता स्वीकार की। संघ की विनती से गुमानमुनि जी, केशरमुनि जी और बुद्धिमुनि जी को कलकत्ता चातुर्मास के लिए आपश्री ने भेजा । आपश्री शान्त-दान्त, विद्वान् और तपस्वी थे। सारा संघ आपको आचार्य पद प्रदान करने के पक्ष में था। सूरत में हुए मुनि - सम्मेलन का निर्णय, कृपाचन्द्र जी महाराज व अनेक स्थानों के संघ के पत्र आ जाने से जगत् सेठ फतेहचंद, रा०ब० केशरीमल जी, रा०ब० बद्रीदास जी, नथमल जी गोलेच्छा आदि के आग्रह से आपको सं० १९६९ ज्येष्ठ सुदि ६ के दिन आचार्य पद से विभूषित किया गया । आपश्री का लक्ष्य आत्मशुद्धि की ओर था । मौन, अभिग्रह पूर्वक तपश्चर्या करने लगे। पं० केशरमुनि जी, भावमुनि जी आदि साधुओं के साथ भागलपुर, चम्पापुरी, शिखर जी की यात्रा कर पावापुरी पधारे। आश्विन सुदि में आपने ध्यान और जाप पूर्वक दीर्घ तपस्या प्रारम्भ की । इच्छा न होते हुए भी संघ के आग्रह से मिगसर वदि १२ को ५३ उपवास का पारणा किया। दोपहर में उल्टी होने के बाद अशाता बढ़ती गई और मिगसिर सुदि ३ सं० १९७० में समाधिपूर्वक रात्रि में २ बजे नश्वर देह को त्याग कर स्वर्गवासी हुए । पावापुरी में जल मन्दिर - तालाब के सामने देहरी में आपकी प्रतिमा विराजमान की गई । (३८४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज का समुदाय/परंपरा स्व. आचार्य श्री जिनयश:सूरि जी म. स्व. आचार्य श्री जिनऋद्धिसूरि जी म. स्व. आचार्य श्री जिनरत्नसूरि जी म. स्व. उपाध्याय श्री लब्धिमुनि जी म. स्व. पूज्य श्री मोहनलाल जी महाराज स्व. पंन्यास श्री केशरमुनि जी म. स्व. गणि श्री बुद्धिमुनि जी म. मुनि श्री जयानन्दमुनि जी म. मुनि श्री कुशलमुनि जी म. Jan Education international 2010_04 www.jainelibrary Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_04 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३. आचार्य श्री जिनऋद्धिसूरि चुरू के यति चिमनीराम जी के शिष्य रामकुमार जी ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। त्यागवैराग्य के कारण गद्दी के जंजाल में पड़ना अस्वीकार्य था। बीकानेर आकर जिनालयों व नाल दादाजी के दर्शन कर पद यात्रा करते हुए आबू पहुँचे। रेल भाड़े का पैसा कहां था? एक यतिजी के साथ गिरनार जी और सिद्धाचल जी की यात्रा कर, सं० १९४९ आषाढ़ सुदि ६ को गुरुदेव श्री मोहनलाल जी महाराज से दीक्षित हो रामकुमार से ऋद्धिमुनि बने । आपको श्री यशोमुनि जी का शिष्य घोषित किया गया। गुरुदेव की सेवा में रहकर सतत विद्याध्ययन किया। सं० १९५२ में गुरु श्री यशोमुनि जी के साथ रोहिड़ा में प्रतिष्ठा कराई। सं० १९६१ में बुहारी में प्रतिष्ठोत्सव के समय मना करने पर भी अश्लील रिकार्ड बजाने पर, आपके मौन रहने पर, ग्रामोफोन भी मौन हो गया। सं० १९६३ के कठोर चातुर्मास में गुजराती-मारवाड़ियों का पारस्परिक क्लेश दूर कर सम्पर्क कराया। मोहनलाल जी महाराज के चरणों की व नये मन्दिर जी की प्रतिष्ठा कराई। झगड़िया जी की संघ यात्रा व बड़ोद में शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमा और व्यारे, सरमोण, सूरत-नवापुरा आदि स्थानों में प्रतिष्ठा कराई। मांडवगढ़ में गुर्वाज्ञा से योगोद्वहन किया। सं० १९६६ मार्गशीर्ष शुक्ला ३ को ग्वालियर में गुरु महाराज ने आपको पंन्यास पद से विभूषित किया। जयपुर चातुर्मास कर प्रथम बार जन्मभूमि चुरू पधारे और तेरापंथियों को शास्त्र-चर्चा में निरुत्तर किया। नागौर संघ में अनैक्य दूर कर संप कराया, दीक्षा महोत्सवादि हुए। सं० १९६७ का चातुर्मास कुचेरा में किया। वहाँ ठाकुर जी की सवारी और यज्ञादि से अनावृष्टि दूर न हुई तो आपके उपदेश से जैन रथ यात्रा होने पर मूसलधार वर्षा से तालाब भर गए। इसी प्रकार लूणसर में भी वर्षा हुई तो कुचेरा के ३० घर स्थानकवासियों ने पुनः मन्दिर आम्नाय स्वीकार कर उत्सवादि किए। १५० व्यक्तियों ने प्रथम बार श→जय की यात्रा की। आपश्री के जयपुर पधारने पर उद्यापनादि हुए। बम्बई में दो चातुर्मास कर आप पालीताणा पधारे। ८१ आयंबिल और ५० नवकरवाली पूर्वक निन्नाणु यात्रा की। सं० १९७१ में खंभात में मोहनलाल जी जैन हुन्नरशाला व पाठशाला स्थापित कराई। सं० १९७२ सूरत, १९७३-७४ बम्बई में उपधान तप आदि अनेक उत्सव कराये। पालीताणा पधार कर एकान्तर उपवास और पारणे में आयंबिल पूर्वक उग्र तपश्चर्या की। स्थानकवासी मुनि रूपचंद जी के शिष्य गुलाबचंद व गिरधारीलाल ने आकर सं० १९७५ वैशाख सुदि ६ को आपश्री के पास दीक्षा ली। गुलाबमुनि व गिरिवरमुनि नाम स्थापन किया। सं० १९७६ बम्बई चातुर्मास कर खंभात पधारे। अठाई महोत्सवादि के पश्चात् सूरत पधार कर दादागुरु श्री मोहनलाल जी महाराज के ज्ञान भण्डार को सुव्यवस्थित करने का बीड़ा उठाया। ४५ अल्मारियों की अलग-अलग दाताओं से व्यवस्था की। आलीशान मकान था। उपधान-माला आदि से तीस हजार ज्ञान भंडार में जमा हुए। मोहनलाल जी जैन पाठशाला की भी स्थापना हुई। सं० १९७९ में खंभात और १९८० कड़ोद चातुर्मास किया। लाडुआ श्रीमाली भाईयों को संघ के भोज में शामिल न करने के भेदभाव को दूर संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३८५) _ 2010_04 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। सं० १९८१ वलसाड़ चातुर्मास करके नंदुरबार पधारे । आपके उपदेश से नवीन उपाश्रय, प्रभु प्रतिष्ठा, ध्वजदण्डारोहणादि हुए। सं० १९८२ में व्यारा में उपधानादि हुए। टांकेल गाँव में मन्दिर व उपाश्रय निर्मित हुए। सं० १९८३ में सामटा बंदर में मन्दिर प्रतिष्ठा और सं० १९८३-८४ का चातुर्मास बम्बई में किया। उपदेश देकर घोलवड़ में मन्दिर व उपाश्रय निर्मित करवाया। सं० १९८५ सूरत, १९८६ कठोर में चातुर्मास किया। तीन महीने तक आपने चार और पाँच उपवास कर एक-एक पारणा करने की कठिन तपस्या की। सायण और सूरत में विचरण कर सं० १९८७ में दहाणु चातुर्मास किया। बोरड़ी पधार कर उपाश्रय के काम को पूरा कराया। फणसा में उपाश्रय व देहरासर बनवाये। गुजरात में स्थान-स्थान पर विचरण कर विविध धर्म कार्य सम्पन्न कराये। मरौली में उपाश्रय बनवाया। खंभात दादावाड़ी में चारों देहरियों का जीर्णोद्धार होने पर प्रतिष्ठा १९८८ ज्येष्ठ सुदि १० को करवायी। कटारिया गोत्रीय पारेख छोटालाल मगनलाल ने प्रतिष्ठा, स्वधर्मीवात्सल्यादि में अच्छा द्रव्य व्यय किया। मातर तीर्थ की यात्रा कर सोजित्रा पधारने पर मणिभद्र वीर की देहरी से आकाशवाणी के अनुसार खंभात पधार कर माणेक चौक के उपाश्रय स्थित मणिभद्र देहरी के जीर्णोद्धार का उपदेश दिया। सं० १९८९ फाल्गुन सुदि १ को जीर्णोद्धार सम्पन्न हुआ। कार्तिक पूर्णिमा के दिन महोदयमुनि को दीक्षा देकर गुलाबमुनि का शिष्य बनाया। अनेक गाँवों में विचरण कर अहमदाबाद के संघ की विनती से खंभात पधार कर कंसारा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा कराई। अहमदाबाद में दादा जयन्ती मनाई, दादावाड़ी का जीर्णोद्धार हुआ। अनेक मन्दिर, उपाश्रयों के जीर्णोद्धारादि का उपदेश देते हुए दवीयर पधार कर प्रतिष्ठा कराई। घोलवड़ में जैन बोर्डिंग स्थापित करवाया। सं० १९९१ का चातुर्मास बम्बइ में किया। पंन्यास केशरमुनि जी ठाणा ३ महावीर स्वामी में व श्री ऋद्धिमुनि जी ने कच्छी वीसा ओसवालों के आग्रह से मांडवी में चातुर्मास किया। वर्द्धमान तप आयंबिल खाता खुलवाया। सं० १९९२ में लालवाड़ी में चातुर्मास हुआ। भाद्रपद दो होने से खरतरगच्छ व अंचलगच्छ के पर्युषण साथ हुए। दूसरे भाद्रपद में गुलाबमुनि ने दादर में व पंन्यास ऋद्धिमुनि जी ने लालवाड़ी में तपागच्छीय पर्युषण पर्वाराधन कराये। पंन्यास केशरमुनि का कार्तिक सुदि ६ को स्वर्गवास होने पर पायधुनी पधारे। जयपुर निवासी नथमल को दीक्षा देकर बुद्धिमुनि जी का शिष्य नंदनमुनि बनाया। सं० १९९३ का चातुर्मास दादर हुआ। ठाणा नगर पधार कर संघ में व्याप्त कुसंप को दूर कर बारह वर्ष से रुके हुए मन्दिर के काम को चालू करवाया। सं० १९९४ मिती वैशाख सुदि ६ का प्रतिष्ठा मुहूर्त निकला। वैशाख वदि १३ से अठाई महोत्सवादि आरम्भ होकर इस कलापूर्ण श्रीपालचरित्र के शिल्पचित्रों से सुशोभित मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़े ठाठ से कराई। वैशाख सुदि १२ को बम्बई के उपनगरों में विचरण कर माटुंगा में रवजी सोजपाल के देहरासर में प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी। मलाड में सेठ बालूभाई के देहरासर में प्रतिमाजी विराजमान की। ठाणा संघ के आग्रह से वहीं सं० १९९४ का चातुर्मास किया। दादा साहब की जयन्ती व पूजा बड़े ठाठ से हुई। वर्द्धमान आयंबिल तप खाता खोला गया। स्वधर्मीवात्सल्य में कच्छी, गुजराती, मारवाड़ी भाईयों का सहभोज नहीं होता था, वह प्रारम्भ हुआ। (३८६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणा और बम्बई संघ पंन्यास जी महाराज को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का विचार करता था पर आप स्वीकार नहीं करते थे। अन्त में सेठ रवजी सोजपाल आदि समस्त श्रीसंघ के आग्रह से सं० १९९५ फाल्गुन सुदि ५ को बड़े भारी समारोह पूर्वक आपको आचार्य पद से अलंकृत किया गया। आप पंन्यास श्री ऋद्धिमुनि जी से श्री जिनयश:सूरि जी महाराज के पट्टधर जैनाचार्य भट्टारक श्री जिनऋद्धिसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए। सं० १९९६ में जब आप दहाणु में विराजमान थे तो गणिवर्य रत्नमुनि जी, लब्धिमुनि जी भी आकर मिल गए। आपकी हार्दिक इच्छा थी कि सुयोग्य चारित्र चूडामणि श्री रत्नमुनि को आचार्य पद एवं विद्वद्वर्य लब्धिमुनि को उपाध्याय पद दिया जाय। बम्बई संघ ने भी आचार्यश्री के व्याख्यान में यही मनोरथ प्रकट किया। आचार्य महाराज और संघ की आज्ञा से रत्नमुनि व लब्धिमुनि को पदवी लेने में नि:स्पृह होते हुए भी स्वीकार करना पड़ा। दस दिन पर्यन्त महोत्सव करके श्री रत्नमुनि को आचार्य पद व लब्धिमुनि को उपाध्याय पद से सं० १९९७ आषाढ़ सुदि ७ के दिन अलंकृत किया। तदनन्तर अनेक स्थानों में विचरण करते हुए आप राजस्थान पधारे और जन्मभूमि चुरू के भक्तों के आग्रह से वहाँ सं० २००० का चातुर्मास किया। बीकानेर में उपाध्याय मणिसागर जी के तत्त्वावधान में उपधान तप चल रहा था। मालारोपण के अवसर पर पौष माह में आपश्री बीकानेर पधारे और मणिसागर जी को आचार्य पद से अलंकृत किया। फिर नागौर आदि स्थानों में विचरण कर जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठादि द्वारा शासनोन्नति का कार्य करने लगे। अन्त में बम्बई पधार कर बोरीवली में संभवनाथ जिनालय के निर्माण का उपदेश देकर कार्य प्रारम्भ करवाया। सं० २००८ में आपका स्वर्गवास हो गया। महावीर स्वामी के मन्दिर में आपश्री की तदाकार मूर्ति विराजमान की गई। आपका जीवन वृत्तान्त श्री जिनऋद्धिसूरि जीवनप्रभा में (सं० १९९५ में प्रकाशित) द्रष्टव्य है। विद्वत् शिरोमणि उ० लब्धिमुनि जी ने सं० २०१४ में आपका संस्कृत काव्यमय चरित्र कच्छ मांडवी में रचा जो अप्रकाशित है। (४. आचार्य श्री जिनरत्नसरि इनका जन्म लायजा कच्छ में सं० १९३८ में हुआ। आपका जन्म नाम देवजी था। आठ वर्ष की आयु में पाठशाला में प्रविष्ट हो धार्मिक व व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त कर, बम्बई में पिताजी की दुकान का काम संभाल कर माता-पिता को सन्तुष्ट किया। देश में आपके विवाह-सगाई की बात चल रही थी और वे उत्सुकतापूर्वक देवजी भाई की राह देख रहे थे। पर इधर बम्बई में श्री मोहनलाल जी महाराज का चातुर्मास होने से देवजी भाई अपने मित्र लधा भाई के साथ प्रतिदिन व्याख्यान सुनने जाते और उनकी अमृतवाणी से दोनों की आत्मा में वैराग्य बीज अंकुरित हो गये। दोनों ने यथावसर पूज्य श्री से दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। पूज्यश्री ने इन्हें योग्य जान कर अपने शिष्य श्री राजमुनि के पास रेवदर भेजा। सं० १९५८ चैत्र वदि ३ को दीक्षा देकर देवी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३८७) 2010_04 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई का नाम रत्नमुनि और लधा भाई को लब्धिमुनि नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १९५९ का चातुर्मास मंडार में करने के बाद सं० १९६० वैशाख सुदि १० को शिवगंज में पंन्यास श्री यशोमुनि जी के कर-कमलों से बड़ी दीक्षा हुई। सं० १९६० शिवगंज, १९६१ नवाशहर और १९६२ का चातुर्मास पीपाड़ में गुरुवर्य श्री राजमुनि के साथ हुआ। कुचेरा पधारने पर राजमुनि के उपदेश से २५ स्थानकवासी घर मन्दिरमार्गीय बने। श्री रत्नमुनि योगोद्वहन हेतु. पंन्यास जी के पास चाणोद गये। शास्त्राभ्यास सुचारु चल रहा था। इधर श्री मोहनलाल जी महाराज की अस्वस्थता के कारण पंन्यास जी के साथ बम्बई की ओर विहार किया, पर श्रावकों के आग्रह से सूरत जाते हुए मार्ग में ही दहाणु में गुरुदेव के दर्शन हो गए। श्री मोहनलाल जी महाराज १८ शिष्यों के साथ सूरत पधारे, श्री रत्नमुनि उनकी सेवा में दत्तचित्त रहे। फिर उनकी आज्ञा से पंन्यास जी के साथ पालीताणा पधारे। फिर रतलाम आदि में विचरण कर भावमुनि के साथ श्री केशरिया जी पधारे। शरीर अस्वस्थ होने पर भी आपने २१ मास पर्यन्त आयम्बिल तप किया। सं० १९६६ में ग्वालियर में पंन्यास जी ने उत्तराध्ययन व भगवतीसूत्र का योगोद्वहन केशरमुनि जी, भावमुनि व चिमनमुनि के साथ आपको भी करवाया। आप गणि पद से विभूषित हुए। सं० १९६७ का चातुर्मास गुरु महाराज राजमुनि जी के साथ करके सं० १९६८ में महीदपुर पधारे। सं० १९६९ में बम्बई में चातुर्मास किया। फाल्गुन सुदि २ को गुरु महाराज की आज्ञा से बीबड़ोद के श्री पन्नालाल को दीक्षा देकर प्रेममुनि नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १९७० का चातुर्मास बम्बई में था, वहाँ श्री जिनयश:सूरि जी महाराज के पावापुरी में स्वर्गस्थ होने के दुःखद समाचार मिले। गणिवर्य रत्नमुनि को जन्मभूमि छोड़े बहुत वर्ष हो गए थे। अतः श्रावक संघ की प्रार्थना से पालीताणा-शत्रुजय की यात्रा करते हुए, कच्छ अंजार होते हुए भद्रेश्वर यात्रा कर लायजा पधारे। यहाँ पूजा, प्रभावना, उद्यापनादि अनेक हुए। सं० १९७१ में बीदड़ा और १९७२ का मांडवी में चातुर्मास किया। नांगलपुर पधारने पर गुरुवर्य राजमुनि जी के स्वर्गवासी होने के समाचार मिले। सं० १९७३ का भुज और १९७४ का लायजा में चातुर्मास हुआ। मांडवी में राजश्री को दीक्षा दी। सं० १९७५ में नवावास दुर्गापुर चौमासा किया। संघ में पड़े हुए दो धड़ों को एक कर शान्ति की। सं० १९७३ में डोसा भाई लालचंद का संघ निकला ही था, फिर भुज से सा० वसनजी वाघजी ने भद्रेश्वर का संघ निकाला। गणिवर्य यात्रा करके अंजार पधारे। इधर सिद्धाचल की यात्रा करते हुए लब्धिमुनि जी आ पहुँचे, उनके साथ फिर भद्रेश्वर पधारे। सं० १९७६ भुज, सं० १९७७ मांडवी चातुर्मास कर जामनगर, सूरत, कतार गाँव, अहमदाबाद, सेरिसा, भोयणीजी, पानसर, तारंगा, कुंभारियाजी, आबू यात्रा कर अणादरा पधारे। लब्धिमुनि, भावमुनि को शिवगंज भेजा और स्वयं प्रेममुनि के साथ मडार चातुर्मास किया। पाली में केशरमुनि जी से मिले। दयाश्री को दीक्षा दी। सं० १९८० का चातुर्मास जैसलमेर किया। किले पर दादा साहब की नवीन देहरी में दोनों दादागुरु की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९८१ में फलौदी चातुर्मास किया। ज्ञानश्री जी और वल्लभश्री जी के आग्रह से हेमश्री को दीक्षा दी। लोहावट में श्री गौतम स्वामी जी और चक्रेश्वरी जी की प्रतिष्ठा कर अजमेर पधारे। वहाँ से रतलाम, सेमलिया - (३८८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधार कर सं० १९८२ का नलखेड़ा में चातुर्मास किया। चौदह प्रतिमाओं की अंजनशलाका की। मंडोदा में रिखबचंद जी चोरड़िया के निर्मापित गुरु मन्दिर में दादा जिनदत्तसूरि जी आदि की प्रतिष्ठा करवाई। खुजनेर और पड़ाणा में गुरु पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। डग पधारने पर श्री लक्ष्मीचंद जी वैद की ओर से उद्यापनादि हुए, दादाश्री जिनकुशलसूरि जी की व रत्नप्रभसूरि जी व पादुकाओं की प्रतिष्ठा की। मांडवगढ़ यात्रा कर इंदौर, मक्सीजी, उज्जैन होते हुए महीदपुर पधारे। लब्धिमुनि व प्रेममुनि को वीबड़ोद चातुर्मासार्थ भेजा। स्वयं भावमुनि के साथ रुणीजा पधार कर सं० १९८३ का चातुर्मास किया। सं० १९८४ महीदपुर, सं० १९८५ भानपुरा चातुर्मास किया, उद्यापन व बड़ी दीक्षादि हुए। आपश्री मालवा में थे तो सेठ रवजी सोजपाल ने बम्बई पधारने की आग्रह पूर्ण विनती की। आपश्री ग्रामानुग्राम विचरते हुए घाटकोपर पहुँचे। मेघजी सोजपाल, पुणसी भीमसी आदि की विनती से बम्बई लालवाड़ी पधारे। श्री गौड़ी जी के उपाश्रय में दादासाहब की जयन्ती श्री विजयवल्लभसूरि जी की अध्यक्षता में बड़े ठाठ से मनाई । सं० १९८६ का लालबाड़ी में चातुर्मास किया। ____ गणिवर्य श्री रत्नमुनि के उपदेश और मूलचंद हीराचंद भगत के प्रयास से महावीर स्वामी देहरासर के पीछे खरतरगच्छीय उपाश्रय का जीर्णोद्धार हुआ। सं० १९८७ का चातुर्मास वहीं कर लब्धिमुनि जी के भाई लालजी भाई को सं० १९८८ पौष सुदि १० को दीक्षित कर महेन्द्रमुनि नाम से लब्धिमुनि का शिष्य बनाया। प्रेममुनि को योगोद्वहन के लिए श्री केशरमुनि जी के पास पालीताणा भेजा। वहाँ कच्छ के मेघजी को सं० १९८९ पौष सुदि १२ के दिन श्री केशरमुनि जी के हाथ से दीक्षित कर मुक्तिमुनि नाम रखकर प्रेममुनि का शिष्य बनाया। श्री रत्नमुनि जी सूरत, खंभात होते हुए पालीताणा पधारे। श्री केशरमुनि जी को वन्दन कर फिर गिरनार जी की यात्रा की और मुक्तिमुनि जी को बड़ी दीक्षा दी। सं० १९८९ का चातुर्मास जामनगर करके अंजार पधारे। भद्रेश्वर, मुंद्रा, मांडवी होकर मेरावा पधारे। नेणबाई को बड़े समारोह और विविध धर्म कार्यों में सद्व्यय करने के अनन्तर दीक्षा देकर राजश्री जी की शिष्या रत्नश्री नाम से प्रसिद्ध किया। सं० १९९१ का चातुर्मास आपने प्रेममुनि और मुक्तिमुनि के साथ भुज में किया। महेन्द्रमुनि की बीमारी के कारण लब्धिमुनि मांडवी रहे। उमरसी भाई की धर्मपत्नी इन्द्रा बाई ने उपधान, अठाई महोत्सवादि किये। तदनन्तर भुज से अंजार, मुंद्रा होकर मांडवी पधारे। यहाँ महेन्द्रमुनि बीमार तो थे ही, चैत्र सुदि २ को कालधर्म प्राप्त हुए। गणिवर्य लायजा पधारे, खेराज भाई ने उत्सव, उद्यापन, स्वधर्मी वात्सल्यादि किये। कच्छ के डुमरा निवासी नागजी-नेण बाई के पुत्र मूलजी भाई जो अन्तर्वैराग्य से रंगे हुए थे, माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर गणिवर्य श्री रत्नमुनि के पास आये, दीक्षा का मुहूर्त निकला। नित्य नई पूजा-प्रभावना और उत्सवों की धूम मच गई। दीक्षा का वरघोड़ा बहुत ही शानदार निकला। मूली भाई का वैराग्य और दीक्षा लेने का उल्लास अपूर्व था। रथ में बैठे वर्सीदान देते हुए जय जयकार संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३८९) 2010_04 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वक वैशाख सुदि ६ के दिन गणीश्वर के पास विधिवत् दीक्षा ली। आपका नाम भद्रमुनि रखा गया। सं० १९९२ का चातुर्मास रत्नमुनि का लायजा, लब्धिमुनि और भावमुनि का अंजार व प्रेममुनि एवं भद्रमुनि का मांडवी में हुआ। चातुर्मास के बाद मांडवी आकर गुरु महाराज ने श्री भद्रमुनि को बड़ी दीक्षा दी। तूंबड़ी के पटेल शामजी भाई के संघ सहित पंच तीर्थी-यात्रा की। सुथरी में घृतकल्लोल पार्श्वनाथ के समक्ष संघपति माला शामजी भाई को पहनाई गयी। सं० १९९३ में मांडवी चातुर्मास कर मुंद्रा में पधारे और रामश्री को दीक्षित किया। वहीं इनकी बड़ी दीक्षा हुई और कल्याण श्री की शिष्या प्रसिद्ध की गई। वहाँ से रायण में सं० १९९४ का चातुर्मास कर सिद्धाचलजी पधारे। इस समय आपके साथ १० साधु थे। प्रेममुनि के भगवतीसूत्र का योगोद्वहन और नन्दनमुनि की बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई। कल्याणभुवन में कल्पसूत्र के योग कराये, पन्नवणासूत्र बाँचा, प्रचुर तपश्चर्या हुई। पूजा-प्रभावना, स्वधर्मीवात्सल्यादि हुए। मुर्शिदाबाद निवासी राजा विजयसिंह जी की माता सुगुण कुमारी की ओर से उपधान तप हुआ। मार्गशीर्ष सुदि ५ को गणिवर्य श्री रत्नमुनि के हाथ से मालारोपण हुआ। दूसरे दिन बुद्धिमुनि और प्रेममुनि को गणि पद से विभूषित किया गया। जावरा के सेठ जड़ावचंद पगारिया की ओर से उद्यापनोत्सव हुआ। सं० १९९६ का चातुर्मास अहमदाबाद हुआ। फिर बड़ौदा पधार कर गणिवर्य ने नेमिनाथ जिनालय के पास गुरु-मन्दिर में दादासाहब श्री जिनदत्तसूरि जी की मूर्ति-पादुका आदि की प्रतिष्ठा बड़े ही ठाठ-बाठ से की। वहाँ से बम्बई की ओर विहार कर दहाणु पधारे। वहाँ विराजमान श्री जिनऋद्धिसूरि जी से मिलना हुआ। बम्बई पधार कर संघ की विनती से आचार्यश्री ने आपको आचार्य पद से विभूषित करना निश्चय किया। बम्बई में विविध प्रकार से उत्सव होने लगे, सं० १९९७ आषाढ़ सुदि ७ के दिन सूरिजी ने आपको आचार्य पद दिया। सं० १९९७ का चातुर्मास पायधुनी में, श्री जिनऋद्धिसूरि का दादर और लब्धिमुनि का घाटकोपर और प्रेममुनि का लालवाड़ी में हुआ। विविध उत्सव हुए। चरितनायक के उपदेश से श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना हुई। अपने भ्राता पुणसी भाई की प्रार्थना से सं० १९९८ का चातुर्मास लालवाड़ी में किया। वेलजी भाई को दीक्षा देकर मेघमुनि नाम से प्रसिद्ध किया। ___सं० १९९९ में श्री जिनरत्नसूरि ने दस साधुओं के साथ सूरत चातुर्मास किया। फिर बड़ौदा पधार कर उ० लब्धिमुनि के शिष्य मेघमुनि व गुलाबमुनि के शिष्य रत्नाकरमुनि को बड़ी दीक्षा दी। सं० २००० का चातुर्मास रतलाम किया, उपधान तप आदि अनेक धर्मकार्य हुए। सेमलियाजी की यात्रा कर महीदपुर पधारे। महीदपुर में राजमुनि जी के भाई चुन्नीलाल जी बाफणा ने मन्दिर निर्माण कराया था। प्रतिष्ठा कार्य बाकी था। अतः खरतरगच्छ संघ को इसका भार सौंपा गया, पर वह लेखपत्र उनकी बहिन के पास रखा। वह तपागच्छ की थी, उसने उन लोगों को दे दिया। कोर्ट से दोनों को मिलकर प्रतिष्ठा करने का आदेश हुआ, पर उन्होंने कब्जा नहीं छोड़ा तो क्लेश बढ़ता देख (३९०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ वालों ने नई जमीन लेकर मन्दिर बनवाया और उसमें राजमुनि जी व नयमुनि जी के ग्रन्थों का ज्ञान भंडार स्थापित किया। प्रतिमा की अप्राप्ति से संघ चिन्तित था क्योंकि उत्सव प्रारम्भ हो गया था। फिर उपाध्याय जी, रत्नश्री जी, श्रावक और श्राविका गोमीबाई को प्रतिमा प्राप्त होने व पुष्पादि से पूजा करने का एकसा स्वप्न आया। आचार्यश्री ने बीकानेर जाकर प्रतिमा प्राप्त करने की प्रेरणा दी। सं० १९५५ की प्रतिमा तत्काल प्राप्त हो गई और सानन्द प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। दादा साहब की मूर्ति, पादुकाएँ, राजमुनि जी व सुखसागर जी की पादुकाएँ तथा चक्रेश्वरी देवी की भी प्रतिष्ठा हुई। सं० २००१ का चातुर्मास महीदपुर हुआ। बड़ोदिया पधारने पर उद्यापन व दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा हुई। शुजालपुर के मन्दिर में दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा की। सं० २००२ का चातुर्मास कर आसामपुरा, इन्दौर होते हुए मांडवगढ़ यात्रा कर रतलाम पधारे। गरोठ गाँव में दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा की। तदनन्तर भाणपुरा, कुर्कुटेश्वर, प्रतापगढ़ व चरणोद पधारे। चरणोद में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न कराके सं० २००३ का चातुर्मास प्रतापगढ़ में किया। मन्दसोर में चक्रेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा कराई। जावरा से सेमलियाजी का संघ निकला, संघपति चाँदमल जी चोपड़ा को तीर्थ माला पहनाई। रतलाम से खाचरोद पधारे। जावरा से प्यारचंद जी पगारिया ने वही पार्श्वनाथ का संघ निकाला। तदनन्तर वहाँ से जयपुर की ओर विहार कर कोटा पधारे। गणिश्री भावमुनि को पक्षाघात हो गया और ज्येष्ठ वदि १५ की रात्रि में उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया। सं० २००४ का चातुर्मास श्री जिनमणिसागरसूरि के साथ कोटा में हुआ। भगवतीसूत्र का वाचन किया। अठाई महोत्सव, स्वधर्मी-वात्सल्यादि अनेक धर्मकार्य सेठ केशरीसिंह जी बाफणा ने करवाये। जयपुर पधार कर श्रीमालों के मन्दिर में डेरागाजीखान से आई हुई प्रतिमाएं स्थापित की। सं० २००५ जयपुर और सं० २००६ अजमेर चौमासा कर सं० २००७ ज्येष्ठ सुदि ५ को विजयनगर में चन्द्रप्रभ स्वामी व दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की। रतनचंद जी सुचंती की विनती से अजमेर पधारे। बीस स्थानक का उनकी ओर से उद्यापन हुआ। भडगतिया जी के देहरासर में बड़े दादा साहब की प्रतिमा विराजमान की। वहाँ से ब्यावर पधार कर मुलतान निवासी हीरालाल जी भुगड़ी को सं० २००७ आषाढ़ सुदि ९ को दीक्षित कर हीरमुनि बनाया। उपधान तप हुआ। फिर पाली, राता महावीरजी, शिवगंज, कोरटा होते हुए गढ़सिवाणा पधारे। वहाँ से वाकली, तख्तगढ़ होकर श्री केशरमुनि जी की जन्मभूमि चूड़ा पधारे। सं० २००८ ज्येष्ठ वदि ७ को दादा जिनदत्तसूरि प्रतिमा तथा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, श्री जिनकुशलसूरि और पं० केशरमुनि की पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। गढ़सिवाणा चातुर्मास कर नाकोड़ा पधारे। मार्गशीर्ष सुदि १ को दादा श्री जिनदत्तसूरि मूर्ति व श्री कीर्तिरत्नसूरि की जीर्णोद्धारित देहरी में प्रतिष्ठा कराई। वहाँ से डीसा, भीलड़ियाजी, राधनपुर, कटारिया, अंजार होते हुए भद्रेश्वर तीर्थ पहुंचे। वहाँ से मांडवी होते हुए भुज पधार कर संघ का चिर मनोरथ पूर्ण किया। भुज की दादावाड़ी का लम्बा इतिहास है। इसका प्रयास करने वाले हेमचंद भाई जिस दिन स्वर्गवासी हुए उसी दिन आपने स्वप्न में पुरानी और नई दादावाड़ी सह प्रतिष्ठोत्सव व हेमचंद भाई को देखा । वही दृश्य सं० २००९ माघ सुदि ११ को प्रतिष्ठा के समय साक्षात् हो गया। सूरत से सेठ बालू संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३९१) _ 2010_04 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई विधि विधान के लिये आये। दादा जिनदत्तसूरि की प्रतिमा एवं मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि व श्री जिनचन्द्रसूरि के चरणों की प्रतिष्ठा बड़े समारोहपूर्वक हुई। सं० २०१० का चातुर्मास सूरिजी ने मांडवी किया। मिगसिर वदि २ को धर्मनाथ जिनालय पर ध्वजा दण्ड चढ़ाया गया, उत्सव हुए। मोटा आसंबिया में मन्दिर का शताब्दी महोत्सव हुआ। भुज की दादावाड़ी में हेमचंद भाई के परिवार की ओर से नवीन जिनालय के निर्माण हेतु अर्पित भूमि पर सं० २०११ वैशाख सुदि १२ को सूरिजी के कर-कमलों से खातमुहूर्त हुआ, तदनन्तर आपने अंजार चातुर्मास किया। चातुर्मास के पश्चात् भद्रेश्वर तीर्थ की यात्रा कर आपश्री मांडवी पधारे। वहाँ की विशाल दादावाड़ी में श्री जिनदत्तसूरि की प्रतिमा विराजमान करने का उपदेश दिया। पटेल वीकमसी राघव जी ने इस कार्य को सम्पन्न करने की अपनी भावना व्यक्त की। सूरिजी का शरीर स्वस्थ था, केवल आँख का मोतिया उतरता था परन्तु एकाएक सं० २०११ माघ वदि ८ को अर्धांग व्याधि हो गई और माघ सुदि ९ को समाधि पूर्वक स्वर्गवासी हो गये। आपने अपने जीवन में शुद्ध चारित्र पालन करते हुये जिन शासन और गच्छ की खूब प्रभावना की थी। श्री भद्रमुनि जी अपरनाम सहजानन्द जी आप प्राकृत और संस्कृत भाषा के प्रखर विद्वान् होने के साथ-साथ योग साधना में तल्लीन रहते थे। इसी कारण आपने परम्परागत वेश-भूषा का त्याग कर दिया और सहजानन्द जी के नाम से विख्यात हुए। कर्णाटक प्रान्त में स्थित हम्पी को अपना केन्द्र बनाकर वहीं गुफा में ध्यान-साधना में निमग्न रहने लगे। आपका निधन भी वहीं हुआ। कहा जाता है कि ये एकावतारी थे। इनके विषय में विस्तृत विवरण के लिये भंवरलाल जी नाहटा रचित सहजानन्दघनचरियं द्रष्टव्य है। (५. उपाध्याय श्री लब्धिमुनि महान् प्रतापी श्री मोहनलाल जी महाराज के वचनामृत से विरक्त होकर अपने मित्र श्री देवी भाई (जिनरत्नसूरि) के साथ दीक्षा लेने वाले लधा भाई का जन्म कच्छ के मोटी खाखर गाँव में हुआ था। आपके पिता दनाभाई देढ़िया बीसा ओसवाल थे। सं० १९३५ में जन्म लेकर संस्कार युक्त माता-पिता की छत्र छाया में बड़े हुए। आपके छोटे भाई नानजी और बहिन का नाम रतन बाई था। सं० १९५८ में पिताजी के साथ बम्बई जाकर लधा भाई सेठ रतनसी की दुकान भायखला में काम करने लगे। यहाँ से थोड़ी दूर सेठ भीमसी करमसी की दुकान थी। उनके ज्येष्ठ पुत्र देवजी के साथ आपकी घनिष्टता हो गई क्योंकि वे धार्मिक संस्कार वाले व्यक्ति थे। सं० १९५८ में प्लेग की बीमारी से सेठ रतनसी भाई चल बसे। उनका स्वस्थ शरीर देखते-देखते विलीन हो जाना दोनों मित्रों के वैराग्य का पोषक बना। संयोगवश परम पूज्य मोहनलाल जी महाराज का वहाँ चातुर्मास था, दीक्षा देने की प्रबल प्रार्थना की। (३९२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यश्री ने मुमुक्षु चिमनाजी के साथ उक्त दोनों-देवजी भाई और लधा भाई को अपने विद्वान् शिष्य श्री राजमुनि के पास आबू के निकटवर्ती मंडार गाँव में भेजा। राजमुनि ने दोनों मित्रों को सं० १९५८ चैत्र वदि ३ को शुभ मुहूर्त में दीक्षित कर रत्नमुनि और लब्धिमुनि नाम से प्रसिद्ध किया। प्रथम चातुर्मास में ही पंच प्रतिक्रमणादि अभ्यास पूर्ण किया। सं० १९६० वैशाख सुदि १० को पं० यशोमुनि जी के निकट बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई। तदनन्तर सं० १९७२ तक गुरुवर्य श्री राजमुनि के साथ विचरण किया। उनके स्वर्गवास के पश्चात् सं० १९७४-७५ के चातुर्मास बम्बई, सूरत में पं० श्री ऋद्धिमुनि व कान्तिमुनि जी के साथ किये। सं० १९७६-७७ भुज व मांडवी में गुरुभ्राता श्री रत्नमुनि के साथ किये। सं० १९७८ सूरत चातुर्मास कर सं० १९८५ तक राजस्थान व मालवा में केशरमुनि व रत्नमुनि के साथ विचरे। फिर चार वर्ष बम्बई विराजे। सं० १९८९ जामनगर चौमासा कर कच्छ पधारे। सं० १९९०१९९४ तक क्रमशः मेराऊ, मांडवी, अंजार, मोटी खाखर, मोटा आसंबिया में चातुर्मास किये। सं० १९९५-९६ पालीताणा, अहमदाबाद और १९९७-१९९८ बम्बई, घाटकोपर चौमासे कर, सं० १९९९ का सूरत में चातुर्मास कर मालवा पधारे। महीदपुर, उज्जैन, रतलाम चातुर्मास कर, २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, ब्यावर होकर २००८ का गढ़सिवाना चातुर्मास कर कच्छ पधारे। सं० २००९ भुज में श्री जिनरत्नसूरि जी के साथ दादावाड़ी की प्रतिष्ठा कराई। सं० २०११ तक अधिकांश चातुर्मास श्री जिनरत्नसूरि जी के साथ किए। उनके स्वर्गवास के पश्चात् भी कच्छ देश के विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे। आप प्रकाण्ड विद्वान्, गंभीर और अप्रमत्तविहारी थे। आप में विद्यादान का बेजोड़ शुघनीय गुण था। काव्य, कोश, अलंकार, न्याय व व्याकरण के साथ-साथ जैनशास्त्रों के दिग्गज विद्वान् होने पर भी आप निरहंकार व सरलता की प्रतिमूर्ति थे। अध्यापन और ग्रन्थ-रचना के अतिरिक्त आप अधिकांश समय जप-ध्यान में बिताते थे। आशुकवि थे, सरल संस्कृत में काव्य रचना कर आपने जन-साधारण का बड़ा उपकार किया। श्री जिनरत्नसूरि जी के शिष्य योगीन्द्र सन्त प्रवर श्री भद्रमुनि जी, सहजानंद जी के तो आप ही विद्यागुरु थे। उन्होंने विद्यागुरु की एक संस्कृत में व छः स्तुतियाँ राजस्थानी भाषा में रची जो लब्धि जीवन प्रकाश में प्रकाशित हैं। सं० १९९७ आषाढ़ सुदि ७ को बम्बई में श्री जिनऋद्धिसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था। आपने सं० १९७० में खरतरगच्छ पट्टावली की रचना १७४५ पद्यों में की। उसके बाद समय-समय पर आपने जितने काव्यों की रचना की, उन्हें देखते हुए हम इन्हें सर्वाधिक ऐतिहासिक काव्यों के रचयिता कह सकते हैं। आपने सं० १९७२ में कल्पसूत्र टीका रची। नवपद स्तुति, दादासाहब के स्तोत्र, दीक्षा विधि, योगोद्वहन विधि आदि की रचना आपने सं० १९७७-७९ में की। सं० १९९० में श्रीपालचरित्र की रचना की। ___ सं० १९९२ में युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ प्रकाशित होते ही आपने उसके अनुसार १२१२ श्लोक परिमित छः सर्गों में संस्कृत काव्य रच डाला। सं० १९८० में जैसलमेर चातुर्मास में तत्रस्थ ज्ञानभंडार के कितने ही ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की। सं० १९९६ में ६३३ पद्यों में श्री जिनकुशलसूरि संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३९३) 2010_04 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र, सं० १९९८ में २०१ श्लोकों में मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि चरित्र एवं सं० २००५ में ४६८ श्लोकमय श्री जिनदत्तसूरि चरित्र काव्य की रचना की। सं० २०११ में श्री जिनरत्नसूरि चरित्र, २०१२ में जिनयश: सूरि चरित्र, सं० २०१४ में जिनऋद्धिसूरि चरित्र, सं० २०१५ में श्री मोहनलाल जी महाराज का जीवन चरित्र श्लोकबद्ध लिखा । इस प्रकार आपने नौ ऐतिहासिक काव्य रचने का अभूतपूर्व कार्य सम्पन्न किया । इनके अतिरिक्त आपने २००१ में आत्मभावना, २००५ में द्वादश पर्वकथा, चैत्यवन्दन चौबीसी, वीसस्थानक चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ और पाँच पर्व स्तुतियों की भी रचना की । सं० २००७ में संस्कृत भाषा में सुसढचरित्र काव्य, सं० २००८ में सिद्धाचलजी के १०८ खमासमण भी श्लोकबद्ध बनाये । आपने जैन मन्दिरों, दादावाड़ियों और गुरु चरण- मूर्तियों की अनेक स्थानों में प्रतिष्ठा कराई। सं० २०१३ में कच्छ मांडवी की दादावाड़ी का माघ वदि २ के दिन शिलारोपण कराया। सं० २०१४ में निर्माण कार्य सम्पन्न होने पर श्री जिनदत्तसूरि मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई और धर्मनाथ जिनालय के पास खरतरगच्छोपाश्रय में श्री जिनरत्नसूरि जी की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई । सं० २०१९ में कच्छ भुज की दादावाड़ी में सं० हेमचंद भाई के बनवाये हुए जिनालय में संभवनाथ भगवान् आदि जिनबिम्बों की अंजनशलाका करवाई । और भी अनेक स्थानों पर गुरु महाराज और श्री जिनरत्नसूरि जी के साथ प्रतिष्ठादि शासनोन्नति के कार्यों में बराबर भाग लेते रहे । ढ़ाई हजार वर्ष प्राचीन कच्छ देश के सुप्रसिद्ध भद्रेश्वर तीर्थ में आपके उपदेश से श्री जिनदत्तसूरि आदि गुरुदेवों का भव्य गुरु मन्दिर निर्मित हुआ, जिसकी प्रतिष्ठा आपके स्वर्गवास के पश्चात् बड़े समारोह पूर्वक गणिवर्य श्री प्रेममुनि व श्री जयानंदमुनि के कर-कमलों सं० २०२६ वैशाख सुदि १० को सम्पन्न हुई। उपाध्याय श्री लब्धिमुनि बाल- ब्रह्मचारी, निरभिमानी, शान्त - दत्त और सरल प्रकृति के दिग्गज विद्वान् थे। वे ६५ वर्ष पर्यन्त उत्कृष्ट संयम साधना करके ८८ वर्ष की आयु में सं० २०२३ में कच्छ मोटा आसंबिया गाँव में स्वर्ग सिधारे । ६. गणिवर्य श्री बुद्धिमुनि दर्शन ज्ञान चारित्र की साकार मूर्ति, उत्कृष्ट संयमी श्री बुद्धिमुनि का जन्म जोधपुर राज्यान्तर्गत गंगाणी तीर्थ के समीपवर्ती बिलारे गाँव में हुआ था । चौधरी (जाट) वंश में जन्म लेकर भी पूर्व जन्म कृत पुण्य संयोगवश आपने जैनदीक्षा ग्रहण की। आपके मस्तक पर से पिता का साया तो बाल्यकाल में ही उठ गया था और माता ने भी अपना अन्तिम समय जानकर इन्हें एक मठाधीश महन्त को सौंप दिया था। वहाँ रहते समय सुयोग वश पंन्यासजी श्री केशरमुनि का सत्समागम पाकर आप में जैन मुनि दीक्षा लेने की भावना जागृत हुई। पंन्यासजी के साथ पद यात्रा में जब आप लूणी जंक्शन के पास आये तो सं० १९६३ में ९ वर्ष की अल्पायु में आप दीक्षित हुए । जन्म नाम नवल से बदल कर (३९४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा नाम बुद्धिमुनि प्राप्त किया। आपका नाम सार्थक प्रमाणित हुआ और थोड़े वर्षों में ज्ञान और चारित्र की अद्भुत आराधना कर एक अच्छे विद्वान् हो गए। - आचार्य श्री जिनयश:सूरि और अपने गुरुवर्य श्री केशरमुनि के साथ आप सम्मेतशिखर की यात्रा कर वीर प्रभु के निर्वाण तीर्थ पावापुरी पधारे। चातुर्मास वहीं हुआ और ५३ उपवास करके वहाँ आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया। तदनन्तर गुरु महाराज के साथ अनेक स्थानों में विचरते हुए सूरत पधारे। गुरुश्री अस्वस्थ हो गए। बम्बई चातुर्मास में कार्तिक सुदि ६ को पूज्य केशरमुनि का स्वर्गवास हो गया। आप २० वर्ष तक गुरुश्री की सेवा में रहकर तप-संयम साधना में रत रहे। आभ्यंतरतप रूप वैयावृत्य में आपकी बड़ी रुचि थी। गुरु श्री के भ्राता पूर्णमुनि के शरीर में भयंकर फोड़ा हो जाने से उसके मवाद में कीड़े और दुर्गन्ध इतनी असह्य हो गई कि कोई निकट बैठ ही नहीं पाता था। आपने छः मास पर्यन्त अपने हाथों से मरहम-पट्टी आदि करके उन्हें स्वस्थ किया। __ आगमों के अध्ययन हेतु आपने सम्पूर्ण आगमों का योगोद्वहन किया। तत्पश्चात् सं० १९९५ में सिद्धक्षेत्र पालीताणा में आचार्यदेव श्री जिनरत्नसूरि ने आपको गणि पद से विभूषित किया। मारवाड़, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और पूर्व प्रदेश तक आप निरन्तर विचरते रहे। कच्छ व मारवाड़ में तो आपने कई सुन्दर प्रतिमाओं और पादुकाओं की प्रतिष्ठा करवाई। श्री जिनरत्नसूरि की आज्ञा से भुज में दादा जिनदत्तसूरि मूर्ति व अन्य पादुकाओं की प्रतिष्ठा बड़े समारोह पूर्वक कराई। वहाँ से चूड़ाग्राम में आकर जिनप्रतिमा, नूतन दादावाड़ी और श्री जिनदत्तसूरि जी की मूर्ति-प्रतिष्ठा करवाई। चूड़ा चातुर्मास के समय श्री जिनरत्नसूरि के स्वर्गवास के समाचार मिले। आचार्यश्री की अन्तिम आज्ञानुसार आपने श्री जिनऋद्धिसूरि के शिष्य गुलाबमुनि जी की सेवा के लिए बम्बई की ओर विहार किया और उनको अन्तिम समय तक अपने साथ रखा, बड़ी सेवा की। उनके साथ गिरनार, सिद्धाचल आदि तीर्थों की यात्रा की। इसी बीच उपाध्याय श्री लब्धिमुनि के दर्शनार्थ आप कच्छ पधारे। वहाँ मंजल ग्राम में नये मन्दिर और दादावाड़ी की प्रतिष्ठा उपाध्याय जी के सान्निध्य में कराई। इसी प्रकार अंजार के शान्तिनाथ जिनालय के ध्वजादण्ड एवं गुरु-मूर्ति आदि की प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से विचरते हुए आप पालीताणा पधारे। अशाता वेदनीय के उदय से अस्वस्थ रहने लगे, फिर भी ज्ञान और संयम की आराधना में आप निरन्तर लगे रहते थे। कदम्बगिरि के संघ में सम्मिलित होकर सौभागमल जी मेहता को आपने संघपति की माला पहनाई। तदनन्तर उपाध्याय जी की आज्ञानुसार अस्वस्थ होते हुए भी भुज-कच्छ पधार कर वहाँ के संभवनाथ जिनालय की अंजनशलाका और प्रतिष्ठा उपाध्याय लब्धिमुनि के सान्निध्य में करवाई। फिर पालीताणा पधार कर सिद्धगिरि पर स्थित दादाजी के जीर्णोद्धारित देहरियों में चरण-पादुकाओं की प्रतिष्ठा व श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ के अधिवेशन में सम्मिलित हुए। श्री गुलाबमुनि काफी अस्वस्थ थे, उनकी सेवा में आपने कोई कसर नहीं रखी, पर आयुष्य समाप्ति का अवसर आ चुका था। अतः सं० २०१७ वैशाख सुदि १० महावीर स्वामी के केवलज्ञान कल्याणक के दिन श्री गुलाबमुनि स्वर्गस्थ हो गए। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३९५) 2010_04 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने अस्वस्थता वश काफी अशक्त होने पर भी डाक्टरी इलाज स्वीकार नहीं किया। हवा पानी बदलने की राय थी तो आपको डोली में बैठना मंजूर नहीं था। ज्वर भी फाल्गुन माह से अधिक रहने लगा। चिकित्सकों की आराम करने की राय न मानकर लेखन कार्य चालू रखा और यह कहा कि "मेरी रुचि का विषय है, लिखना बन्द करने पर और भी बीमार पड़ जाऊँगा।" अशाता वेदनीय का उदय था, चिकित्सा लागू नहीं पड़ी। कल्पसूत्र गुजराती अनुवाद के मुद्रण का काम अधूरा था। शिष्यों ने कहा-उसे कौन पूरा करेगा? आपने कहा-"चिन्ता की बात नहीं, उस कार्य के पूरे होने से पूर्व मेरी मृत्यु नहीं होगी।" भविष्यवाणी सफल हुई, स्वर्गवास के दो-तीन दिन पूर्व ही कल्पसूत्र छपकर आ गया, आपने उसे मस्तक से लगाया, ऐसी आपकी अपूर्व ज्ञान भक्ति थी। श्रावण सुदि ८ सं० २०१९ को पार्श्वनाथ निर्वाण दिवस के दिन आपने भी समाधिपूर्वक देह त्याग दिया। आप एक विरल विभूक्ति थे। आपके चारित्र की प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ से करते थे। आपने एक मिनट भी व्यर्थ नहीं खोया। साधुजनोचित क्रियाकलाप के अतिरिक्त सारा समय ज्ञान-सेवा में बिताया। अनेक ज्ञान भण्डारों की आपने सूची बनाई। अनेक ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन भी आपने बड़े परिश्रम पूर्वक किया। युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली के हिन्दी अनुवाद के संशोधन का कार्य सौंपा गया तो आपने सावधानी पूर्वक पंक्ति-पंक्ति का संशोधन किया। आपके सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों में प्रश्नोत्तर मंजरी, पिण्डविशुद्धि, नवतत्त्व संवेदन, चातुर्मासिक व्याख्यान पद्धति, प्रतिक्रमण हेतु गर्भ, कल्पसूत्र संस्कृत टीका, आत्मप्रबोध, पुष्पमाला-लघुवृत्ति आदि प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है तथा दादा जिनकुशलसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों के गुजराती अनुवाद के संशोधन में भी आपने पर्याप्त श्रम किया। सूत्रकृताङ्ग सूत्र भाग १-२, द्वादश पर्व कथा के अतिरिक्त जयसोम उपाध्याय के प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक का सम्पादन एवं गुजराती अनुवाद बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ का सम्पादन कर आपने खरतरगच्छ की महान् सेवा की। श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज की रचनाओं के स्वाध्याय और प्रचार की ओर आपकी विशेष रुचि थी। आपका जीवन उन महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलने का अप्रतिम उदाहरण था। (७. मुनि श्री जयानन्द इनका जन्म सं० १८८० भाद्रपद में मुन्द्रा (भुज-कच्छ) में हुआ। इनके माता-पिता का नाम श्री दामजी भाई और चंचलबाई था। इनका जन्मनाम जयसुख भाई था। मुन्द्रानगर और जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम, पालीताणा में इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। २६ वर्ष की आयु में माघ वदि ६ सं० २०१६ में ये गणि श्री बुद्धिमुनि जी के शिष्य बने। (३९६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप चारित्रपात्र साधु और पदलिप्सा से पूर्णतः रहित हैं। आपने अपने साधु जीवन में २०२१ से २०५८ तक कच्छ, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली आदि प्रान्तों के विभिन्न नगरों में अंजनशलाकायें, प्रतिष्ठायें एवं नूतन दादावाड़ियों का निर्माण कराया। माघ सुदि १० सं० २०५८ को मालपुरा की प्रतिष्ठा भी आपके सानिध्य में सम्पन्न हुई है। आपकी निश्रा में सिवाणा, इन्दौर, जयपुर और ओसिया में उपधान तप भी सम्पन्न हुए हैं। अपने कर-कमलों से २ पुरुष और ५ महिलाओं को साधु-साध्वी की दीक्षा प्रदान की। आपके प्रथम शिष्य श्री कुशलमुनि हैं जो गोलेछा गोत्रीय एवं जयपुर के निवासी रहे। 卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (३९७) _ 2010_04 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९८) 2010_04 श्री मोहनलाल जी महाराज के समुदाय का वंशवृक्ष आनन्दमुनि जिनयशःसूरि कान्तिमुनि हर्षसूरि (तपागच्छ) उद्योतमुनि (तपागच्छ) राजमुनि देवमुनि हेममुनि . गुमानमुनि क्षमामुनि विनयमुनि सुमतिमुनि सौभाग्यमुनि कमलमुनि चिमनमुनि दयालमुनि मेघमुनि नयमुनि जीवनमुनि उ. लब्धिमुनि छगनमुनि जिनरत्नसूरि केशरमुनि तारकमुनि मेघमुनि महेन्द्रमुनि गजमुनि पूर्णानन्दमुनि देवेन्द्रमुनि ग. बुद्धिमुनि प्रेममुनि दर्शनमुनि राजेन्द्रमुनि भद्रमुनि (सहजानन्द) विनयमुनि मुक्तिमुनि साम्यानन्दमुनि रैवतमुनि जयानन्दमुनि . गंभीरमुनि गुणमुनि अमरमुनि जिनऋद्धिसरि प्रतापनि (तपागच्छ) सौभाग्यमुनि केवलमुनि भक्तिमुनि गजमुनि कुशलमुनि भावमुनि भानुमुनि कर्पूरमुनि सुमतिमुनि लक्ष्मीमुनि तारामुनि खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड . . हीरमुनि राजेन्द्रमुनि महोदयमुनि नीतिमुनि गयवरमुनि गुलाबमुनि मनहरमुनि रत्नाकरमुनि Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छीय साध्वी - परम्परा का इतिहास - १ समाज की सृष्टि में नारी का विशिष्ट योगदान है। समाज का अर्थ ही है नर और नारी । उसका अर्थ न तो नर ही है और न केवल नारी । नारी के बिना सृष्टि की रचना, समाज का संगठन, जातीय कार्यकलाप, गृहस्थ जीवन सभी अधूरे हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चाहे वह धार्मिक आदर्श हो, चाहे समाज-सुधार अथवा राजनीति हो, नारी का सक्रिय योगदान रहा है । जहाँ तक नारियों के संन्यास या प्रव्रज्या का प्रश्न है, वैदिक युग में नारियों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। बृहदारण्यक उपनिषद्', रामायण और महाभारत में नारियों के संन्यास लेने के प्रसंग मिलते हैं। इन नारियों ने पति के संन्यास लेने, उसकी मृत्यु अथवा योग्य वर न मिलने पर संन्यास का आश्रय लिया था । श्रमण परम्परा के जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में इन कारणों के साथसाथ वैराग्य के कारण भी स्त्रियों के संन्यास लेने की व्यवस्था दृष्टिगत होती है। जहाँ तक जैन धर्म में स्त्रियों की प्रव्रज्या का प्रश्न है, सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर से भिन्न थी । उत्तराध्ययनसूत्र २३/८७ में तो पार्श्वापत्यीय श्रमणों और श्रमणियों के लिए पंचमहाव्रतों को स्वीकार करने पर ही महावीर के संघ में सम्मिलित करने का उल्लेख है। इसी प्रकार स्पष्ट है कि महावीर के पूर्व ही जैन धर्म में भिक्षु–भिक्षुणी संघ की स्थापना हो चुकी थी । आचारांगसूत्र में श्रमण एवं श्रमणियों के आचार सम्बन्धी नियमों की चर्चा से स्पष्ट है कि जैन धर्म में श्रमण संघ और श्रमणी संघ दोनों की ही साथ - साथ स्थापना हुई थी। समाज के प्रत्येक वर्ग की महिलाओं के प्रवेश के लिए जैन श्रमणी संघ का द्वार खुला हुआ था। स्थानांगसूत्र और उसकी टीका' में १० विभिन्न कारणों का उल्लेख है, जिनके कारण ही स्त्रियाँ दीक्षा ग्रहण करती थीं। ये कारण मुख्य रूप से सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक हैं। सामान्यतः नारी अपने पति, पुत्र, भाई या अन्य किसी प्रिय सम्बन्धी की मृत्यु या प्रव्रज्या ग्रहण करने पर स्वयं भी प्रव्रजित हो जाती थी । कभी-कभी धर्माचार्यों के उपदेश से भी स्त्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने का उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को समान धार्मिक अधिकार दिए गए और चतुर्विध संघ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका को भी सम्मिलित किया गया। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं में आज भी बड़ी संख्या में साध्वियाँ विद्यमान हैं । यहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की एक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण शाखा - खरतरगच्छ की साध्वी परम्परा पर प्रकाश डाला १. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४-४ ३. महाभारत, आदिपर्व ३-७४-१० ५. स्थानांग १० - ७१२, टीका भाग-५, पृ० ३६५-६६ ६. जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, डॉ० अरुणप्रतापसिंह, पृ० १२-१३ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास २. रामायण २-२९-१३, ३-७३-२६, ३-७४-३ ४. सूत्रकृतांग २,७,७१-८० 2010_04 (३९९) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। विक्रम संवत् की ग्यारहवीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज भी यह गच्छ जैन धर्म के लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्ज्वल आदर्श उपस्थित कर रहा है। ___खरतरगच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य, उपाध्याय, विद्वान् साधु एवं साध्वियाँ तथा बड़ी संख्या में तन्त्र-मन्त्र के विशेषज्ञ, ज्योतिर्विद, वैद्यक शास्त्र के ज्ञाता यतिजन हो चुके हैं, जिन्होंने न केवल समाजोत्थान बल्कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओं में साहित्य-सृजन कर उसे समृद्ध बनाने में महान् योग दिया है। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहितमार्ग को पुनः प्रतिष्ठित करना खरतरगच्छीय आचार्यों की सबसे बड़ी देन है। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली में इस गच्छ के महान् आचार्यों के दीक्षा, विहार, साधु-साध्वी समुदाय, स्थानीय श्रावकों के नाम, राजाओं के नाम, प्रतिद्वन्द्वी धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ, तीर्थोद्धार आदि अनेक बातों पर विशद प्रकाश डाला गया है। यहाँ इसी गुर्वावली के आधार पर खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा की एक झलक प्रस्तुत है। वर्धमानसूरि खरतरगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासी आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरधरा में सुविहितमार्गीय मुनियों के विहार को सम्भव बनाया। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपरनाम धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, धर्मदेव, सहदेव आदि अनेक मुनियों का उल्लेख तो हमें मिलता है, परन्तु इनके द्वारा किसी महिला को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिला है। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली से ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वगच्छीय मरुदेवी प्रवर्तिनी को आशापल्ली में उसके संथारा के समय सल्लेखना पाठ सुनाया था। जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों द्वारा धोलका निवासी भक्त वाछिग और उसकी पत्नी बाहड़देवी के पुत्र सोमचन्द्र को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा प्रदान करवाने का उल्लेख मिलता है। यही बालक आगे चलकर जिनदत्तसूरि के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित साध्वियों का उल्लेख तो नहीं मिलता है, परन्तु इनके समय में भी खरतरगच्छ में साध्वी संघ की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता १. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड)-महोपाध्याय विनयसागर, भूमिका पृ० ४-५ २. वही, पृष्ठ ४-५ ३. यह ग्रन्थ मुनि जिनविजय जी के संपादकत्व में सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत १९५६ ई० में प्रकाशित हो चुका है। ४. जिनविजय जी, संपा०-खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ५ ५. जिनविजय जी, वही, पृ० १४-१५ (४००) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवल्लभसूरि का अत्यधिक समय विधिमार्ग के प्रसार में ही व्यतीत हुआ। उनके उपदेशों से गुजरात, राजस्थान और मालवा के अनेक स्थानों पर विधिचैत्यों का निर्माण हुआ । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के कुछ माह पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् सोमचन्द्रगणि को जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया गया । जिनदत्तसूरि द्वारा अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख मिलता है । उनके वरदहस्त से बागड़ देश में श्रीमति, जिनमति, पूर्व श्री ज्ञानश्री और जिनश्री को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई । जिनदत्तसूरि अत्यन्त विद्यानुरागी आचार्य थे, इसीलिए उन्होंने अपने गच्छ के साधु-साध्वियों की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। श्रीमति, जिनमति और पूर्व श्री इन तीन साध्वियों को अन्य स्वगच्छीय मुनियों के साथ उन्होंने अध्ययनार्थ धारा नगरी भेजा था। उनकी ही शिष्या गणिनी शांतिमति ने वि०सं० १२१५ में प्रकरणसंग्रह नामक ग्रन्थ की प्रतिलिपि की, जो जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में सुरक्षित है। आचार्य जिनदत्तसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् मणिधारी जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ के नायक बने। इनके अल्पकाल के नायकत्व में भी खरतरगच्छ में अनेक साधु-साध्वियों की दीक्षा हुई । वि० सं० १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ जिनालय पर भव्य महोत्सव के साथ सुवर्णध्वज और कलश का आरोपण किया और साध्वी हेमादेवी को प्रवर्तिनी पर से विभूषित किया । ' वि०सं० २१२१८ में उच्चानगरी में उन्होंने ५ मुनियों के साथ जगश्री, गुणश्री और सरस्वती को साध्वी दीक्षा प्रदान की।' वि०सं० १२२१ में आचार्यश्री ने देवभद्र और उसकी पत्नी को अन्य ४ साधुओं के साथ दीक्षित किया। वि०सं० १२२३ भाद्रपद वदि चतुर्दशी को दिल्ली में आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् आचार्य जिनपतिसूरि को उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित किया गया। जिनपतिसूरि ने वि०सं० १२२७ में उच्चानगरी में धर्मशील और उसकी माता को ५ अन्य व्यक्तियों के साथ दीक्षित किया। इसके पश्चात् वे विहार करते हुए मरुकोट पधारे, जहाँ अजितश्री ने उनसे प्रव्रज्या ली ।' वि०सं० १२२९ में फलवर्धिका में अभयमति, आसमति और श्रीदेवी ने उनसे साध्वीदीक्षा प्राप्त की । यहीं वि०सं० १२३४ में साध्वी गुणश्रीने महत्तरा पद प्राप्त किया और जगदेवी ने साध्वी दीक्षा ली। इसी नगरी में वि०सं० १२४१ धर्मश्री और धर्मदेवी को उन्होंने श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया । १ वि०सं० १२४५ में पुष्करणी नगरी में संयमश्री, शान्तमति एवं रत्नमति को साध्वी दीक्षा दी गई। १२ वि०सं० १२५४ में धारा नगरी में १. जिनविजयजी, संपा०- खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १५ २. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १८ ४. श्री जैसलमेरदुर्गस्थ जैन ताड़पत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूची - पत्र, संपा० - मुनिपुण्यविजय, क्रमांक १५४, पृ० ५१-५२ । ५. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० २० ६. वही, पृ० २० ७. वही, पृ० २० ९. वही, पृ० २३ १९. वही, पृ० २४ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 ३. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० १८ ८. वही, पृ० २३ १०. वही, पृ० २४ १२. वही, वही पृ० ३४ (४०१ ) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने साध्वी रत्नश्री को दीक्षित किया। यही साध्वी रत्नश्री आगे चलकर गच्छ प्रवर्तिनी बनीं। वि०सं० १२६० में आचार्यश्री ने लवणखेड़ में आर्या आनन्दश्री को महत्तरा पद प्रदान किया। इसी नगरी में वि०सं० १२६३ में विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री और जिनश्री ने उनके वरदहस्त से भागवती दीक्षा ली और साध्वी धर्मदेवी ने प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया । लवणखेड़ में ही वि०सं० १२६५ में आसमति और सुन्दरमति तथा वि०सं० १२६६ में विक्रमपुर में ज्ञानश्री ने उनसे साध्वी दीक्षा ली। वि०सं० १२६९ में चन्द्र श्री और केवल श्री को साध्वी - दीक्षा दी गई और साध्वी धर्मदेवी को महत्तरा पद प्रदान कर उन्हें प्रभावती के नाम से प्रसिद्ध किया गया । ' वि० सं० १२७५ में आचार्यश्री भुवनश्री, जगमति और मंगल श्री को भागवती दीक्षा देकर श्रमणीसंघ में प्रविष्ट कराया। इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य जिनपतिसूरि के समय खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में पर्याप्त साध्वियाँ थीं। आचार्य जिनपतिसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) खरतरगच्छ के नायक बने। इनके समय में भी अनेक महिलाएँ साध्वीसंघ में प्रविष्ट हुईं। इन्होंने वि०सं० १२७९ में श्रीमालपुर में ज्येष्ठ सुदि १२ को चारित्रमाला, ज्ञानमाला और सत्यमाला को साध्वी दीक्षा दी ।' वि०सं० १२७९ माघ सुदि पंचमी को आपने विवेकश्री गणिनी, शीलमाला गणिनी और विनयमाला गणिनी को संयम प्रदान किया। वि० सं० १२८० माघ सुदि द्वादशी को श्रीमालपुर में पूर्ण श्री तथा हेमश्री और वि०सं० १२८१ वैशाख सुदि ६ को जावालिपुर में कमलश्री एवं कुमुदश्री को साध्वी दीक्षा प्रदान की गई।° वि०सं० १२८३ माघ वदि ६ को बाड़मेर में आर्या मंगलमति प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित की गईं।११ वि०सं० १२८४ में बीजापुर में वासुपूज्य जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठा के अवसर पर श्रावकों द्वारा भव्य महोत्सव का आयोजन किया गया । १२ इसी नगरी में वि०सं० १२८४ आषाढ़ सुदि द्वितीया को आचार्यश्री ने चारित्रसुन्दरी और धर्मसुन्दरी को साध्वी दीक्षा प्रदान की । १३ वि०सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदि द्वितीया को बीजापुर में ही उदयश्री ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। १४ वि०सं० १२८७ फाल्गुन सुदि ५ को पालनपुर में कुलश्री और प्रमोद श्री साध्वी संघ में सम्मिलित हुईं। १५ वि०सं० १२८८ भाद्रपद सुदि १० को आचार्यश्री ने जावालिपुर में स्तूपध्वज की प्रतिष्ठा की ।१६ इसी वर्ष इसी नगरी में पौष शुक्ल एकादशी को धर्ममति, विनयमति, विद्यामति और चारित्रमति खरतरगच्छीय श्रमणी संघ में दीक्षित की गईं। १७ वि०सं० १२८९ ज्येष्ठ सुदि १२ को चित्तौड़ में राजीमती, हेमावली, कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली को आचार्यश्री ने प्रव्रज्या दी ।" चित्तौड़ में इसी वर्ष आषाढ़ वदि २ को १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ३४ ३. वही, पृ० ३४ ६. वही, पृ० ३४ ९. वही, पृ० ४४ १२. वही, पृ० ४४ १५. वही, पृ० ४४ १८. वही, पृ० ४९ (४०२) 2010_04 ४. वही, पृ० ३४ ७. वही, पृ० ४४ १०. वही, पृ० ४४ १३. वही, पृ० ४४ १६. वही, पृ० ४४ २. वही, पृ० ३४ ५. वही, पृ० ३४ ८. वही, पृ० ४४ ११. वही, पृ० ४४ १४. वही, पृ० ४४ १७. वही, पृ० ४४ खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री ने ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के नवनिर्मित जिनालयों में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। वि०सं० १२९१ वैशाख सुदि १० को जावालिपुर में शीलसुन्दरी और चन्दनसुन्दरी ने प्रव्रज्या ली। वि०सं० १३०९ मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को मुक्तिसुन्दरी को साध्वी दीक्षा दी गई। वि०सं० १३१३ फाल्गुन सुदि चतुर्दशी को जावालिपुर में जयलक्ष्मी, कल्याणनिधि, प्रमोदलक्ष्मी और गच्छवृद्धि इन चार नारियों को श्रमणी दीक्षा दी गई। वि०सं० १३१५ आषाढ़ सुदि १० को पालनपुर में बुद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसुन्दरी और रत्नसुन्दरी को आचार्यश्री द्वारा साध्वी दीक्षा दी गई। वि०सं० १३१६ माघ सुदि को जालौर में आचार्यश्री ने धर्मसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया। वि०सं० १३१९ माघ वदि पंचमी को विजयश्री तथा वि०सं० १३२१ फाल्गुन सुदि २ को चित्तसमाधि एवं शांतिसमाधि को पालनपुर में आचार्यश्री के हाथों साध्वी दीक्षा प्रदान की गई। विक्रमपुर में वि०सं० १३२२ माघ सुदि चतुर्दशी को मुक्तिवल्लभा, नेमिवल्लभा, मंगलनिधि और प्रियदर्शन तथा वि०सं० १३२३ वैशाख सुदि ६ को वीरसुन्दरी की प्रव्रज्या हुई। इसी वर्ष विक्रमपुर में ही मार्गशीर्ष सुदि पंचमी को विनयसिद्धि और आगमसिद्धि को साध्वी दीक्षा दी गई। वि०सं० १३२४ मार्गशीर्ष वदि २ शनिवार को जावालिपुर में अनन्तश्री, व्रतलक्ष्मी, एकलक्ष्मी और प्रधानलक्ष्मी तथा वि०सं० १३२५ वैशाख सुदि १० को पद्मावती ने भागवती दीक्षा अंगीकार की।१० वि०सं० १३२६ में आचार्यश्री ने श्रेष्ठिवर्ग की प्रार्थना पर २३ साधुओं तथा लक्ष्मीनिधि महत्तरा आदि १३ साध्वियों के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की।१ वि०सं० १३२८ ज्येष्ठ वदि चतुर्थी को जावालिपुर में हेमप्रभा को साध्वी दीक्षा तथा वि०सं० १३३० वैशाख वदि ६ को कल्याणऋद्धि गणिनी को महत्तरा पद दिया गया।२ वि०सं० १३३१ में आचार्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय)का स्वर्गवास हुआ।१३ आचार्य जिनेश्वरसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् वि०सं० १३३१ फाल्गुन वदि ८ को आचार्य जिनप्रबोधसूरि ने खरतरगच्छ का नायकत्व प्राप्त किया। आपके वरदहस्त से अनेक मुमुक्षु महिलाओं ने दीक्षा प्राप्त की, जिसका विवरण इस प्रकार है ___ आचार्यश्री ने वि०सं० १३३१ फाल्गुन सुदि ५ को केवलप्रभा, हर्षप्रभा, जयप्रभा, यशप्रभा इन चार महिलाओं को दीक्षा प्रदान कर श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया। दीक्षा महोत्सव जावालिपुर में सम्पन्न हुआ।४ १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ४९ ४. वही, पृ० ५१ ७. वही, पृ० ५२ १०. वही, पृ० ५२ १३. वही, पृ० ५४ २. वही, पृ० ४९ ५. वही, पृ० ५१ ८. वही, पृ० ५२ ११. वही, पृ० ५२ १४. वही, पृ० ५४ ३. वही, पृ० ५० ६. वही, पृ० ५१ ९. वही, पृ० ५२ १२.वही, पृ० ५२ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४०३) 2010_04 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० १३३२ ज्येष्ठ वदि प्रतिपदा शुक्रवार को जावालिपुर में ही लब्धिमाला और पुण्यमाला को साध्वीदीक्षा प्रदान की गई। वि०सं० १३३३ माघ वदि १३ को आचार्यश्री ने गणिनी कुशलश्री को प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया। वि०सं० १३३४ चैत्र वदि ५ को आचार्यश्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा पर गए। इस यात्रा में उनके साथ २७ मुनि तथा प्रवर्तिनी कल्याणऋद्धि आदि १५ साध्वियाँ भी थीं। शत्रुजय तीर्थ पर ही आचार्य श्री ने ज्येष्ठ वदि ७ को भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा के समक्ष पुष्पमाला, यशोमाला, धर्ममाला और लक्ष्मीमाला को साध्वी दीक्षा प्रदान की। वि०सं० १३३४ मार्गशीर्ष सुदि १२ को जालौर में गणिनी रत्नश्री को आचार्य जिनप्रबोधसूरि ने प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। वि०सं० १३४० ज्येष्ठ वदि ४ को जावालिपुर में ही आपने कुमुदलक्ष्मी और भुवनलक्ष्मी की दीक्षा प्रदान की। अगले दिन अर्थात् ज्येष्ठ वदि ५ को आपने साध्वी चन्दनश्री को महत्तरा पद प्रदान किया। वि०सं० १३४१ ज्येष्ठ सुदि ४ को आचार्यश्री के वरदहस्त से जैसलमेर में पुण्यसुन्दरी, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी और हर्षसुन्दरी को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई। इसी वर्ष फाल्गुन वदि ११ को आचार्यश्री ने जैसलमेर में ही धर्मप्रभा और हेमप्रभा को उनकी अल्पायु के कारण साध्वी दीक्षा न देकर क्षुल्लिका दीक्षा दी। वि०सं० १३४१ वैशाख सुदि ३ अक्षय तृतीया को आपने जिनचन्द्रसूरि को ही अपना पट्टधर घोषित कर वैशाख सुदि ११ को देवलोक प्रयाण किया। कलिकालकेवली आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने भी अनेक मुमुक्षु महिलाओं को साध्वी दीक्षा प्रदान कर खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ के गौरव में वृद्धि की। आपके वरदहस्त से वि०सं० १३४२ वैशाख सुदि १० को जावालिपुर में जयमंजरी, रत्नमंजरी और शालमंजरी को क्षुल्लिका दीक्षा तथा गणिनी बुद्धिसमृद्धि को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। इस दीक्षा महोत्सव में प्रीतिचन्द और सुखकीर्ति को भी क्षुल्लक दीक्षा दी गई।११ वि०सं० १३४५ आषाढ़ सुदि ३ को जावालिपुर में ही चारित्रलक्ष्मी को साध्वी दीक्षा दी गई।१२ इसी नगरी में वि०सं० १३४६ फाल्गुन सुदि ८ को रत्नश्री एवं वि०सं० १३४७ ज्येष्ठ वदि ७ को मुक्तिलक्ष्मी और युक्तिलक्ष्मी को आचार्यश्री के वरदहस्त से साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई।१३ वि०सं० १३४७ मार्गशीर्ष सुदि ६ को पालनपुर में आपने साधु-साध्वियों को बड़ी दीक्षा प्रदान की।४ १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ५५ ४. वही, पृ० ५५ ७. वही, पृ० ५८ १०. वही, पृ० ५९ १३. वही, पृ० ५९ २. वही, पृ० ५५ ५. वही, पृ० ५६ ८. वही, पृ० ५८ ११. वही, पृ० ५९ १४. वही, पृ० ६० ३. वही, पृ० ५५ ६. वही, पृ० ५८ ९. वही, पृ० ५८ १२.वही, पृ० ५९ (४०४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि०सं० १३४८ चैत्र वदि ६ को बीजापुर में मुक्तिचन्द्रिका तथा इसी वर्ष वैशाख सुदि ६ को पालनपुर में अमृतश्री को साध्वी दीक्षा प्रदान की गई। वि०सं० १३५१ माघ वदि ५ को पालनपुर में ही हेमलता को साध्वी दीक्षा दी गई। वि०सं० १३५४ ज्येष्ठ वदि १० को जावालिपुर में आचार्यश्री ने जयसुन्दरी को दीक्षा देकर श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया। वि०सं० १३६६ ज्येष्ठ वदि १२ को आचार्य जिनचन्द्रसूरि शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा पर निकले। इस यात्रा में आपके साथ प्रवर्तिनी रत्नश्री गणिनी आदि ५ साध्वियाँ तथा कुछ मुनि भी थे। तीर्थ यात्रा पूर्ण कर आप भीमपल्ली पधारे जहाँ दृढ़धर्मा और व्रतधर्मा को दो अन्य व्यक्तियों के साथ क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की। इसी अवसर पर गणिनी प्रियदर्शना को प्रवर्तिनी पद तथा गणिनी रत्नमंजरी को महत्तरा पद प्रदान किया। वि०सं० १३६९ मार्गशीर्ष वदि ६ को आपने पाटण में गणिनी केवलप्रभा को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। वि०सं० १३७१ फाल्गुन सुदि ११ को भीमपल्ली में प्रियधर्मा, यशोलक्ष्मी और धर्मलक्ष्मी को भागवती दीक्षा प्रदान की गई। इसी वर्ष ज्येष्ठ वदि १० को जावालिपुर में पुष्पलक्ष्मी, ज्ञानलक्ष्मी, कनकलक्ष्मी और मतिलक्ष्मी ने प्रव्रज्या ली। प्राकृत भाषामय अंजनासुन्दरीचरित (रचनाकाल वि०सं० १४०७) की रचयित्री और प्राकृत भाषा की एकमात्र लेखिका साध्वी गुणसमृद्धि महत्तरा आप की शिष्या थीं। वि०सं० १३७५ माघ सुदि १२ को नागौर में एक भव्य समारोह में शीर्षसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि और भुवनसमृद्धि को साध्वी दीक्षा तथा गणिनी धर्ममाला एवं गणिनी पुण्यसुन्दरी को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। इसी अवसर पर आचार्यश्री ने पं० कुशलकीर्ति को अपना उत्तराधिकारी (पट्टधर) घोषित कर उन्हें वाचनाचार्य पद दिया।२ संवत् १३७६ आषाढ़ सुदि ९ को ६५ वर्ष की आयु में १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ६० २. वही, पृ० ६१ ३. वही, पृ० ६२ ४. वही, पृ० ६२ ५. वही, पृ० ६३ ६. वही, पृ० ६४ ७. वही, पृ० ६४ ८. वही, पृ० ६४ ९. वही, पृ० ६४ १०. सिरिजेसलमेरपुरे विक्कमचउदसहसतुत्तरे वरिसे। वीरजिणजम्मदिवसे कियमंजणसुन्दरीचरियं ॥ ५०३ ॥ जो आसायण कुणई अणंतसंसारु भमइ सो जीवो। जो आसायण रक्खइ सो पामइ सासयं ठाणं॥ ५०४ ॥ इति श्रीअंजणासुन्दरीमहासतीकथानकं समाप्तम्। कुतिरियं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यणीश्रीगुणसमृद्धिमहत्तरायाः॥ छ। 'श्री जैसलमेर दुर्गस्थ जैन ताड़पत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूचीपत्र' संपा०-मुनि पुण्यविजयजी, अहमदाबाद, १९७२ ई०, क्रमांक-१२७८, पृ० २८१-२८२ ११. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० ६५ १२.वही, पृ० ६५ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४०५) _ 2010_04 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनचन्द्रसूरि का निधन हो गया। गच्छनायक आचार्य के निधन के पश्चात् गच्छ के ज्येष्ठ मुनिजनों, साध्वियों एवं श्रावकों ने एक सभा आयोजित कर स्वर्गीय आचार्य के पूर्व आदेशानुसार गणि कुशलकीर्ति को पाटन में जिनकुशलसूरि के नाम से उनके पट्ट पर आसीन कराया। ___ आचार्य जिनकुशलसूरि ने वि०सं० १३८१ वैशाख वदि ६ को पाटन में धर्मसुन्दरी और चारित्रसुन्दरी को साध्वी दीक्षा दी। वि०सं० १३८३ वैशाख वदि ५ को कमलश्री और ललितश्री की दीक्षा हुई। वि०सं० १३८६ को देवराजपुर में कुलधर्मा, विनयधर्मा और शीलधर्मा ने साध्वी दीक्षा ग्रहण की। इसी नगरी में वि०सं० १३८८ में जयश्री और धर्मश्री को क्षुल्लिका दीक्षा दी गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि खरतरगच्छ में इस समय भी साध्वियों की बड़ी संख्या थी। वि०सं० १३८९ फाल्गुन वदि ५ को आचार्य श्री जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास हुआ। दिवंगत आचार्य जिनकुशलसूरि के पूर्व आदेशानुसार क्षुल्लक पद्ममूर्ति को जिनपद्मसूरि नाम से वि०सं० १३९० ज्येष्ठ सुदि ६ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। यह पट्टमहोत्सव देवराजपुर स्थित विधिचैत्य में स्वगच्छीय साधु-साध्वियों तथा समाज के स्वपक्षीय श्रावकों के समक्ष बड़े धूमधाम से सम्पन्न हुआ। ___ आचार्य जिनपद्मसूरि ने वि०सं० १३९१ पौष वदि १० को लक्ष्मीमाला नामक गणिनी को प्रवर्तिनी के पद पर प्रतिष्ठित किया।° वि०सं० १३९४ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को आप १५ मुनियों तथा जयद्धि महत्तरा आदि ८ साध्वियों और कुछ श्रावकों के साथ अर्बुदतीर्थ की यात्रा पर गए।१ जिनपद्मसूरि द्वारा किसी महिला को साध्वी दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिलता। वि०सं० १४०४ वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को अल्पायु में ही इनका दुःखद निधन हो गया।१२ बाद की शताब्दियों में भी खरतरगच्छ में साध्वियों की पर्याप्त संख्या रही। नाहटाजी द्वारा संकलित और सम्पादित "बीकानेरजैनलेखसंग्रह" में भी १८ साध्वियों का उल्लेख मिलता है।३ अन्य लेख संग्रहों में भी खोजने पर कई साध्वियों के नाम मिल सकते हैं। खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में यद्यपि बड़ी संख्या में साध्वियाँ थीं, परन्तु उन्होंने स्वयं को धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित रखा। जहाँ इस गच्छ में अनेक साहित्योपासक मुनि हो चुके हैं, वहीं १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ६८ ३. वही, पृ० ७७ ५. वही, पृ० ८२ ७. वही, पृ० ८५ ९. वही, पृ० ८६ ११-१२. वही, पृ० १७७ २. वही, पृ० ७० ४. वही, पृ० ८० ६. वही, पृ० ७५ ८. वही, पृ० ८५ १०. वही, पृ० ८७ १३. द्रष्टव्य-परिशिष्ट-च, पृ० ३८ (४०६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणीसंघ में मात्र ४-५ विदुषी साध्वियों का उल्लेख प्राप्त होता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने नारी शिक्षा का अभाव इसका प्रमुख कारण बतलाया है, जो सत्य प्रतीत होता है। वर्तमानयुग में नारी शिक्षा के उत्तरोत्तर प्रचार के कारण श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों की सभी शाखाओं में आज अनेक विदुषी साध्वियाँ हैं जो तपश्चरण के साथ-साथ स्वाध्याय में भी समान रूप से रत हैं। खरतरगच्छ में विभिन्न विदुषी साध्वियाँ हो चुकी हैं और आज भी ऐसी विदुषी साध्वियाँ हैं जो अपनी विद्वत्ता के कारण ही प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः नारी शिक्षा के प्रचार के कारण मध्यकाल की अपेक्षा आज खरतरगच्छ ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जैन श्रमणीसंघ का भविष्य उज्ज्व ल है। 卐卐卐 १. अगरचन्द नाहटा, 'कतिपय विदुषी कवित्रियां', चन्दाबाईअभिनन्दनग्रन्थ (आरा, विहार १९५४, पृ० ५७०) और आगे। २. वही, पृ० ५७३ संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४०७) 2010_04 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुखसागरजी के समुदाय की साध्वी परम्परा का इतिहास-२ जिस प्रकार शिथिलाचारपरिहारी क्रियोद्धारक खरतरगच्छीय संविग्न साधु परम्परा का प्रारम्भ २०वीं शताब्दी में उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से मानकर उनकी परम्परा का पूर्व में इतिवृत्त/परिचय दिया गया है उसी प्रकार साध्वी वर्ग ने भी इन मुनि-वृन्दों के साथ क्रियोद्धार अवश्य किया होगा, किन्तु इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं है। क्रियोद्धारिका के रूप में सर्वप्रथम २०वीं शताब्दी में उद्योतश्री जी का ही नाम प्राप्त होता है। वर्तमान में समुदाय की परम्परा भी उद्योतश्री जी की ही शिष्यापरम्परा है, अतः उद्योतश्री जी से ही परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। साध्वी उद्योतश्री इनका नाम नानीबाई और निवास स्थान फलौदी था। बाल्यावस्था में ही फलौदी के ही रतनचन्दी गोलेछा के साथ इनका विवाह हुआ था। अशुभकर्मोदय के कारण इनके पति का अचानक स्वर्गवास हो गया, इससे इनका मन संसार से विरक्त हो गया। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि 'मक्सी तीर्थ की यात्रा करने के पश्चात् ही घी का प्रयोग करूँगी।' तीर्थ यात्रा हेतु ही जोधपुर आईं। वहीं संयोग से राजसागर जी महाराज की शिष्या रूपश्री जी से इनका मिलना हुआ और इनमें विरक्ति की भावना जागृत हो गई। तीन पुत्र, पाँच पौत्र और तीन पौत्रियाँ आदि परिवार के स्नेह बन्धन से मुक्त होकर सम्वत् १९१८ के माघ सुदि पाँचम को साध्वी राजश्री के पास दीक्षा ग्रहण की, नाम उद्योतश्री रखा गया। सम्वत् १९१९ का जोधपुर, सम्वत् १९२० का अजमेर, १९२१ का किशनगढ़ और १९२२ का चातुर्मास फलौदी में किया। फलौदी में ही इन्हें सद्गुरु का संयोग मिला। सद्गुरु थे क्रियोद्धारक सुखसागर जी। सुखसागर जी की उत्कृष्ट क्रिया-पात्रता देखकर उद्योतश्री ने भी क्रियोद्धार किया और उनकी आज्ञानुयायिनी बन गईं। दीक्षा के पश्चात् भी कई वर्षों तक पूर्वगृहीत अभिग्रह पूर्ण नहीं हुआ था, तब तक आपने घृत का प्रयोग नहीं किया था। कई वर्षों बाद मक्सी तीर्थ की यात्रा सानन्द की और इनका अभिग्रह पूर्ण हुआ। इन्होंने ५ साध्वियों को दीक्षा देकर अपने साध्वी समुदाय में वृद्धि की। पाँचों साध्वियाँ थींधनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री, पुण्यश्री और शिवश्री। लक्ष्मीश्री जी को सम्वत् १९२४ में और मगनश्री जी को सम्वत् १९३० में दीक्षा प्रदान की गयी थी। ___ साध्वियों को शिक्षा-दीक्षा देती हुई अनेक स्थानों पर विचरण करती रहीं। सम्वत् १९४० के बाद फलौदी में ही आपका स्वर्गवास हुआ। इनकी शिष्याओं लक्ष्मीश्री जी और शिवश्री जी की शिष्याओं में अत्यधिक मात्रा में वृद्धि होने के कारण उद्योतश्री जी की परम्परा दो भागों में विभक्त हो गईं। एक लक्ष्मीश्री जी की परम्परा और दूसरी शिवश्री जी की परम्परा। । (४०८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी श्री लक्ष्मीश्री जी म. का समुदाय/परंपरा PAGAO CINCSENGEACANCESCINGEA GOOOOOOO.CO.ZO.COCO.JOGO GOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOD ...ece/GOGOGORACIOSIOCONTATO DOODOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO SONG ONE GONGENGONCINO ZONAXENONONCONCINNKOZONO स्व. साध्वी श्री लक्ष्मीश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्री जी म. AAVIGAGROINS GAGANGBANG GENEACING GENCE GENDONCACOEGINGING COOOOOOOOOOOOOKTATOमामला COOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO COOOOOOOOOOOOOOOGIOOOOOOO010 TIODODRIDEVOODOOOOOOOD GOOOOOOOO स्व. प्रवर्तिनी श्री सोहनश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री जी म. 2010_04 For PrivatesPerson Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANDROOOOOOOOD ALPHA DONDONDONDOCOCOCCANCINGOND Coलललललललललल स्व. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी म. C OLONYADD DDLENDOROVIDNA G DNNESWARD NDANDANDYANDA SOCTOCTOCIACOTTOOONDTACTORI COOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOONDA CLACOTIOCOCIADOOOOZANCIANCTIOCOCCIDY OR SECONONO NEON GNON ROND स्व. महत्तरा श्री चम्पाश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. __ 2010_04 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COLUGAILUCATALOOK ECENSTEACOCCASIONERSNEDREACTIONSIONaidoedia BODODOOOOOOOOOOOOOOOOOOOD 24/ esariladiolaTOR OI0-0IOOOOOO CCCCIGATIONORGANIGAD प्रवर्तिनी श्री तिलकधी जी म. साध्वी श्री विनीताश्री जी म. VSSAWANTONTACONG OCOOOOOOZANOCODEAOGENOTENT GOOOOOOOOOOODDDDDDDDDDDDDE SociaomindiaGOOOOOOOOOTICE एROIDDEDIODOOOOOOOOOOOOOOO साध्वी श्री चन्द्रकलाश्री जी म. साध्वी श्री मंजुलाश्री जी म. For Privates Personal use only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MusrAANHNDINNINNIETaraman साध्वी श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी साध्वी-मण्डल सहित 2010_04 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी श्री सुरंजनाश्री जी साध्वी-मण्डल सहित साध्वी श्री सुरंजनाश्री जी म. साध्वी श्री सिद्धांजनाश्री जी म. साध्वी श्री मुक्तांजनाश्री जी म. साध्वी श्री मित्रांजनाश्री जी म. साध्वी श्री अमृतांजनाश्री जी म. साध्वी श्री मोक्षांजनाश्री जी म. साध्वी श्री सुरक्षाश्री जी म. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PADOSTOONSORDEODislusiothole SAptoiesupresents STOORoadORAK GLONG C ONG SEORANG GooaraswayaSCIES साध्वी श्री मनोहरश्री जी म. साध्वी श्री मणिप्रभाश्री जी म. साध्वी श्री विमलप्रभाश्री जी म. GOOGONDOOGONDOCOCOCOND GOOGOGOOGOGOOGLEGOGOOD साध्वी श्री शशिप्रभाश्री जी म. साध्वी मण्डल सहित TortinacpmUsconly www.jainelibrary Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी का समुदाय (१. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी इनका निवास स्थान फलौदी था। ये जीतमल जी गोलेछा की सुपुत्री और कनीरामजी झाबक के पुत्र सरदारमल जी की पत्नी थीं। इनका नाम लक्ष्मीबाई था। बालविधवा हो जाने से आपकी भावना वैराग्य की ओर अग्रसर हुई। सुखसागर जी महाराज की देशना से प्रतिबोध पाकर सम्वत् १९२४ मिगसर वदि १० को दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानन्तर सम्वत् १९२५ का जयपुर, १९२६ का फलौदी, १९२७ का बीकानेर और १९२८ का पाटण में चातुर्मास किया। पाटण से शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर १९२९ का चातुर्मास अहमदाबाद और १९३० का चातुर्मास नागौर में किया। इन्होंने अनेक महिलाओं को दीक्षा दी। सम्वत् १९३१ में पुण्यश्री को आपने दीक्षा दी थी। आप कब तक विद्यमान रहीं, कब स्वर्गवास हुआ और कहाँ हुआ? इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। २. प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्री जैसलमेर के निकट गिरासर नामक गाँव में पारखगोत्रीय जीतमल जी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम कुन्दनदेवी था। दो लड़के और एक लड़की के पश्चात् जब कुन्दनदेवी ने गर्भधारण किया तो सिंह का स्वप्न देखा। सम्वत् १९१५ वैशाख सुदि छठ को कुन्दनदेवी ने बालिका को जन्म दिया, नाम रखा पन्नीबाई। ११ वर्ष की उम्र में ही विवाह की बातचीत चली, पन्नीबाई ने अपनी माँ से स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'मैं दीक्षा लेना चाहती हूँ विवाह करना नहीं।' पिता के समक्ष पन्नीबाई की न चली और सम्वत् १९२७ आषाढ़ वदि ७ को फलौदी निवासी दौलतचन्द झाबक के साथ विवाह हुआ। किन्तु, यह सौभाग्य अधिक दिनों तक न रह सका और विवाह के १८ दिन पश्चात् ही पन्नीबाई को दुर्दैव से वैधव्य जीवन स्वीकार करना पड़ा। तदनन्तर अपनी बड़ी बहन मूलीबाई के साथ आकर फलौदी रहने लगी और कस्तूरचन्द जी लूणिया से धार्मिक संस्कार प्राप्त करने लगीं। विवाह के पूर्व ही दीक्षा की भावना थी, जो अब वेग पकड़ने लगी। पितृपक्ष और श्वसुरपक्ष ने दीक्षा की आज्ञा न दी। पन्नीबाई ने आज्ञा हेतु अन्नपानी का त्याग कर दिया। बड़ी कठिनता से दीक्षा की अनुमति प्राप्त हुई और सम्वत् १९३१ वैशाख सुदि ११ को फलौदी में ही महोत्सव के साथ गणनायक सुखसागर जी महाराज के हाथों पुनीत दीक्षा ग्रहण कर लक्ष्मीश्री जी की शिष्या बनीं और इनका नाम रखा गया पुण्यश्री। सम्वत् १९३१ से लेकर १९७६ तक ४५ वर्ष पर्यन्त स्थान-स्थान पर विचरण कर, धर्मोपदेश देते हुए शासन की सेवा और खरतरगच्छ की वृद्धि में सतत संलग्न रहीं। इनकी दैदीप्यमान आकृति थी, आँखों में तेज था, वाणी में ओज और माधुर्य। गुरुजनों के पास रहकर आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन किया था। व्याख्यान शैली भी रसोत्पादक थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (४०९) Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही कारण है कि आपके उपदेशों से अनेक भव्य महिलाओं ने दीक्षा ग्रहण की। सर्वप्रथम सम्वत् १९३६ में फलौदी में दो महिलाओं को दीक्षाएँ देकर अपनी शिष्याएँ बनाई थीं। वे थीं-अमरश्री और शृंगारश्री। सम्वत् १९३६ से लेकर १९७६ तक के काल में आपकी निश्रा में ११६ दीक्षाएँ विभिन्न स्थानों पर हुईं और वे भी बड़े महोत्सव के साथ। इन ११६ दीक्षाओं में से ४९ तो इन्हीं की शिष्याएँ थीं और शेष इनकी शिष्याओं और प्रशिष्याओं की शिष्याएँ बनी थीं। गणनायक सुखसागर जी महाराज का वह स्वप्न कि "कुछ बछड़ों के साथ गायों का झुण्ड देखा" वह पुण्यश्री जी के समय में साकार हो गया। सुखसागर जी महाराज के समुदाय के साधुओं की वृद्धि के लिए भी ये सतत प्रयत्नशील रहीं और अनेकों को साधुमार्ग की ओर आकर्षित कर दीक्षाएँ दिलवाकर खरतरगच्छ की अभिवृद्धि में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया। महातपस्वी छगनसागर जी भी आपकी ही प्रेरणा से सम्वत् १९४३ में दीक्षित हुए। महोपाध्याय सुमतिसागर जी भी जिनका नाम सुजानमल रेखावत था, नागौर निवासी थे, आपकी ही प्रेरणा से उन्होंने भी सं० १९४४ वैशाख सुदि ८ को सिरोही में भगवानसागर जी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की थी। अपने भाई चुन्नीलाल को भी प्रेरित कर सम्वत् १९५३ में पाटण में दीक्षा दिलवाई थी; जो कि बाद में गणनायक त्रैलोक्यसागर जी बने थे। पूर्णसागर और क्षेमसागर भी आपकी प्रेरणा से ही सम्वत् १९६३ में दीक्षित हुए। यादवसिंह कोठारी भी प्र० ज्ञानश्री जी के प्रयत्नों और पुण्यश्री जी की प्रेरणा से ही सम्वत् १९६४ में रतलाम में दीक्षित हुए थे, यही भविष्य में वीरपुत्र आनन्दसागर जी / जिनानन्दसागरसूरि हुए। आर्यारत्न पुण्यश्री जी का जैसा नाम था वैसे ही पुण्य की पुंज थीं। इनके कार्यकाल में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य सम्पन्न हुए उनकी तालिका इस प्रकार है सं० १९३७ में नागौर के संघ के साथ इन्होंने केशरियाजी की यात्रा की। १९४१ में फलौदी में मंदिरों पर कलशारोपण व उद्यापन हुआ। १९४२ में कुचेरा में जिनमंदिर में ताले लग गए थे, काँटों की बाड़ लगा दी गई थी, उसका निवारण कर वहाँ शताधिक कुटुम्बों को मंदिरमार्गी बनाया। १९४४ में नागौर से संघ के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। मार्ग में जंगल में एक अश्वारोही ने शृंगारश्री को लावण्यवती देखकर अपनी वासना का शिकार बनाना चाहा। उस समय पुण्यश्री जी ने कड़कती आवाज में उसके अनिष्ट की ओर संकेत किया। उसको दिखाई देना बंद हो गया, फलतः उसने क्षमायाचना की और भविष्य के लिए कुवासनाओं से बचने की प्रतिज्ञा की। उसे पुनः दिखाई देने लगा। सम्वत् १९४८ में फलौदी में नवनिर्मापित आदिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। प्रतिष्ठाकारक थे श्री ऋद्धिसागर जी महाराज। इस प्रतिष्ठा अवसर पर भगवानसागर जी, सुमतिसागर जी, छगनसागर जी आदि भी विद्यमान थे। सम्वत् १९४८ में फलौदी में ही ऋद्धिसागर जी महाराज के पास से पुण्य श्री जी ने भगवती सूत्र की वाचना ग्रहण की। सम्वत् १९५१ में जैसलमेर की यात्रा की। १९५१-५२ में खींचन के मूल निवासी तत्कालीन लश्कर-ग्वालियर नरेश के कोषाध्यक्ष सेठ नथमल जी गोलेछा ने (४१०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धाचल का संघ निकालने का निर्णय किया और पुण्यश्री जी से विनती की। इसी संघ के साथ इन्होंने सिद्धाचल की यात्रा की। संघ की अध्यक्षा थीं सेठ नथमल जी की बहन जवाहरबाई। सम्वत् १९५९ में केसरियाजी की यात्रा की। सं० १९६३ में कालिंद्री के संघ में जो वैमनस्य था उसे समाप्त करवाया। १९६५ में रतलाम में दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंह जी बाफना ने विशाल व दर्शनीय उद्यापन महोत्सव करवाया। इस उत्सव में यशमुनि जी महाराज (जिनयश:सूरिजी) उपस्थित थे। १९६५ में मक्सी तीर्थ की यात्रा की। १९६६ में इंदौर निवासी सेठ पूनमचंद सामसुखा ने माण्डवगढ़ का संघ निकाला। १९६९ में रघुनाथपुर के जागीरदार कुलभानुचन्द्रसिंह एवं ठकुरानी को उपदेश देकर मांस का त्याग करवाया था। १९६९ में ग्वालियर नरेश को भी उपदेश दिया और राजमाता एवं महारानियों को पर्व तिथि पर मद्य-मांस का त्याग करवाया। १९७२ से १९७६ के चातुर्मास आपके जयपुर में ही हुए। जयपुर का पानी आपको लग गया। फलतः अस्वस्थ रहने लगीं, शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जर हो गया। धर्माराधन और शास्त्रश्रवण करती हुई संवत् १९७६ फाल्गुन सुदि १० को जयपुर में ही आप स्वर्गवासिनी हुईं। मोहनबाड़ी में आपका दाहसंस्कार किया गया और वहीं शिवजीरामजी महाराज की छतरी के पास आपकी छतरी बनाकर चरण पादुका स्थापित की गई। आपकी स्वहस्त दीक्षित शिष्याओं में से महत्तरा वयोवृद्धा चम्पाश्री जी का १०५ की अवस्था में स्वर्गवास हुआ है। आपकी साध्वी परम्परा में आज भी १००-१२० के लगभग शिष्यायें-प्रशिष्याएँ विद्यमान हैं, जो धर्म प्रभावना करती हुईं शासन की सेवा कर रहीं हैं। ३. प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्री प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् उन्हीं के निर्देशानुसार प्रवर्तिनी सुवर्णश्री जी हुईं। ये अहमदनगर निवासी सेठ योगीदास जी बोहरा की पुत्री थीं। माता का नाम दुर्गादेवी था। इनका जन्म सम्वत् १९२७ ज्येष्ठ वदि १२ के दिन हुआ था। सुन्दरबाई नाम रखा गया था। ११ वर्ष की अवस्था में सम्वत् १९३८ माघ सुदि ३ के दिन नागौर निवासी प्रतापचन्द जी भंडारी के साथ इनका शुभ विवाह हुआ। सम्वत् १९४५ में पुण्यश्री जी के सम्पर्क से वैराग्यभावना जागृत हुई। बड़ी कठिनता से अपने पति से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर सम्वत् १९४६ मिगसर सुदि ५ को दीक्षा ग्रहण की। केसरश्री जी की शिष्या बनी अर्थात् पुण्यश्री जी के प्रपौत्री शिष्या बनीं। साध्वी अवस्था में नाम रखा गया सुवर्णश्री। बड़ी तपस्विनी थीं। निरन्तर तपस्या करती रहती थीं। घण्टों तक ध्यानावस्था में रहा करती थीं। अनेक वर्षों तक पुण्यश्री जी महाराज के साथ ही रह कर उनकी सेवा शुश्रूषा में लगी रहीं। २२वाँ चौमासा अपनी जन्मभूमि अहमदनगर में और चौबीसवाँ बम्बई में किया। पुण्यश्री जी के सान्निध्य में सुवर्णश्री की दीक्षा बारहवें नम्बर पर हुई थी। इनके दीक्षित होने के पश्चात् साध्वियों की दीक्षाओं में अत्यधिक वृद्धि हुई। संवत् १९९१ तक यह संख्या लगभग १४० को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास 2010_04 (४११) Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार कर गईं। पुण्यश्री जी का यह मानना था कि इस सुवर्ण के आने से यह वंश वृद्धि वेग से हुई। पुण्यश्री जी का इन पर अत्यधिक स्नेह था। स्वर्गवास के पूर्व इन्हीं को गणनायिका के रूप में घोषित किया था। सम्वत् १९७३ से सुवर्णश्री ने प्रवर्तिनी पद का कुशलता के साथ निर्वाह किया। इनकी स्वयं की १८ शिष्याएँ थीं, प्रशिष्याएँ आदि भी बहुत रहीं। आपके समय में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य हुए उनकी सूची इस प्रकार हैहापुड़ में मोतीलाल जी बुरड द्वारा नूतनमंदिर का निर्माण हुआ। आगरा में दानवीर सेठ लक्ष्मीचन्द जी वेद ने बेलनगंज में भव्य मन्दिर व विशाल धर्मशाला बनाई। सौरीपुर तीर्थ का उद्धार करवाया। महिला समाज की उन्नति हेतु दिल्ली में साप्ताहिक स्त्री सभा प्रारम्भ की। संवत् १९४८ कार्तिक सुदि ५ के दिन जयपुर में धूपियों की धर्मशाला में श्राविकाश्रम की स्थापना की; जो राजरूप जी टांक आदि के सतत प्रयत्नों से वीर बालिका महाविद्यालय के रूप में विद्यमान है। बीकानेर में बीस स्थानक उद्यापन महोत्सव करवाया। अन्तिम अवस्था में साध्वी समुदाय की प्रवर्तिनी का पद भार अपने हाथों से ज्ञानश्री को प्रवर्तिनी बनाकर सौंपा। सम्वत् १९८९ माघ वदि ९ को बीकानेर में इनका स्वर्गवास हुआ। रेलदादाजी में इनका दाहसंस्कार हुआ और वहाँ स्वर्ण समाधि स्थल स्थापित किया गया। ४. प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री प्रवर्तिनी स्वर्णश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् ज्ञानश्री प्रवर्तिनी हुईं। इनका जन्म सम्वत् १९४२ कार्तिक वदि १३ के दिन फलौदी में हुआ था। इनका नाम था गीताकुमारी। केवलचंद जी गोलेछा की ये सुपुत्री थीं। मारवाड़ की पुरानी परम्परा के अनुसार गीता/गीथा का विवाह नौ वर्ष की अवस्था में ही भीकमचंद जी वैद के साथ कर दिया गया था। दुर्भाग्य से एक वर्ष में ही पति का स्वर्गवास हो गया और आप बालविधवा हो गईं। साध्वी रत्नश्री जी के सम्पर्क से वैराग्य का बीज पनपा और सम्वत् १९५५ पौष सुदि ७ को गणनायक भगवानसागरजी, तपस्वी छगनसागरजी एवं त्रैलोक्यसागरजी की उपस्थिति में फलौदी में ही इनकी दीक्षा हुई और पुण्यश्री जी की शिष्या घोषित कर ज्ञानश्री नामकरण किया गया। ___इन्होंने ४० वर्ष तक विभिन्न प्रान्तों-मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ आदि में विचरण कर धर्म का प्रचार किया। शत्रुजय, गिरनार, आबू, तारंगा, खम्भात, धुलेवा, माण्डवगढ़, मक्सी और हस्तिनापुर आदि तीर्थों की यात्राएँ की। सम्वत् १९८९ में इन्हें प्रवर्तिनी पद दिया गया। तब से पुण्यश्री महाराज के समुदाय का सफलतापूर्वक नेतृत्व करती रहीं। आपने अनेकों को दीक्षाएँ प्रदान की। जिनमें सज्जनश्री जी आदि ११ शिष्याएँ हुईं। सम्वत् १९९४ से शारीरिक अस्वस्थता और (४१२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशक्तता के कारण जयपुर में ही स्थिरवास किया। आपका स्वभाव बड़ा शान्त और प्रकृति बड़ी निर्मल थी। निन्दा-विकथा से दूर रहकर जप-ध्यान और शासन-प्रभावना के कार्यों में दत्तचित्त रहती थीं। सम्वत् २०२३ चैत्र वदि १० को जयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। मोहनबाड़ी में इनका अग्निसंस्कार किया गया। श्री उपयोगश्री आप फलौदी निवासी कन्हैयालाल जी गोलेछा की पुत्री थीं। केसरबाई नाम था। इनका विवाह जुगराज जी बरड़िया के साथ हुआ था। छोटी अवस्था में ही ये विधवा हो गई थीं। ज्ञानश्री जी के उपदेश से १९७४ माघ सुदि १३ को फलौदी में दीक्षा ग्रहण की थी। शिष्या अवश्य ही पुण्यश्री जी की कहलाईं। किन्तु सारा जीवन ज्ञानश्री जी की सेवा में ही बीता। उदारहृदया और सेवाभाविनी थीं। सम्वत् २०१६ में जयपुर में इनका अकस्मात् ही स्वर्गवास हो गया। ५. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जैन कोकिला, प्रखरवक्त्री विदुषी विचक्षणश्री का जन्म १९६७ आषाढ़ वदि एकम के दिन अमरावती में हुआ था। इनके पिता का नाम था मिश्रीमल जी मूथा और माता का नाम था रूपादेवी। मूथा जी मूलतः पीपाड के रहने वाले थे, किन्तु व्यापार हेतु अमरावती में निवास कर रहे थे। इस बालिका का जन्म नाम था दाखीबाई। दाख के अनुसार ही बाल्यावस्था से लेकर सांध्य बेला तक इनका व्यवहार मधुर ही रहा। छोटी सी अवस्था में ही इनकी सगाई पन्नालाल जी मुणोत के साथ कर दी गई थी। सम्वत् १९७० में इनके पिता मिश्रीमल जी का अचानक स्वर्गवास हो गया। स्वर्णश्री जी के सम्पर्क में सतत आने के कारण माता और पुत्री दोनों ही दीक्षा की इच्छुक हो गईं। ससुराल से आए आभूषणों को इन्होंने पहनना अस्वीकार कर दिया। घर की शादियों में भी सम्मिलित नहीं हुईं। इससे इनके दादाजी असन्तुष्ट हुए। माता-पुत्री द्वारा दीक्षा की अनुमति चाहने पर उन्होने अस्वीकार कर दी, बड़ी कठिनता से स्वीकार भी किया। उत्सव भी चालू हुए, ऐन वक्त पर दादाजी ने मना ही कर दी और अन्त में निम्बाज के ठाकुर के यहाँ इसकी पेशी हुई। निम्बाज ठाकुर ने इनका परीक्षण करने के पश्चात् दीक्षा की स्वीकृति दे दी। दीक्षा हेतु जतनश्री, ज्ञानश्री, उपयोगश्री आदि पीपाड़ पहुंच चुकी थीं। इन्हीं की उपस्थिति में सम्वत् १९८१ ज्येष्ठ सुदि पंचमी को दीक्षा दी गई। दोनों के नाम-माता रूपाबाई का नाम विज्ञानश्री और दाखी बाई का नाम विचक्षणश्री रखा गया और दोनों को स्वर्णश्री जी महाराज की शिष्या घोषित किया। इन दोनों को बड़ी दीक्षा गणनायक हरिसागर जी महाराज ने दी और विचक्षणश्री को जतनश्री की शिष्या घोषित किया। दीक्षा ग्रहण के पश्चात् शास्त्रों का अध्ययन करने लगीं। प्रखर बुद्धि थी ही और प्रतिभा भी थी। कुछ ही समय में अच्छी विदुषी बन गईं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४१३) 2010_04 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी वाणी में श्रोता को मुग्ध करने का जादू था। बड़ी-बड़ी विशाल सभाओं में निर्भीकता के साथ भाषण/ प्रवचन देती थीं। बड़े-बड़े जैनाचार्यों के समक्ष भी भाषण देने में कभी भी हिचकिचाई नहीं। तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य युग दिवाकर विजयवल्लभसूरि जी ने तो इनके भाषणों से मुग्ध होकर इन्हें "जैन कोकिला " शब्द से सम्बोधित किया था। प्रवर्तिनी ज्ञानश्री जी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् इस समुदाय का भार इन्हीं के कन्धों पर आ गया और इन्होंने सफलतापूर्वक निभाया। अपने समाज की गरीब महिलाओं के पोषण हेतु इन्होंने प्रयत्न करके 'अखिल भारतीय सुवर्ण सेवा फण्ड' अमरावती और जयपुर में स्थापित करवाये और दिल्ली में 'सोहनश्री, विज्ञान श्री कल्याण केन्द्र' की स्थापना करवाई। इन तीनों संस्थाओं से आर्थिक स्थिति से कमजोर महिलाओं को प्रत्येक प्रकार से गुप्त रूप से सहयोग दिया जाता है। आपने रतलाम में 'सुखसागर जैन गुरुकुल की स्थापना करवाई । आपने अपने उपदेशों से अनेक बालिकाओं, महिलाओं को प्रतिबोध देकर वैराग्य की ओर प्रेरित किया और पचासों को दीक्षा प्रदान की । आपकी दीक्षित शिष्याओं में सर्वप्रथम दीक्षित अविचल श्री थीं जो प्रधान पद को सुशोभित कर रही थीं। इनको सम्वत् १९९१ में दीक्षा दी। कई शिष्याएँ विदुषी हैं, व्याख्यान पटु हैं और आपके नाम को दीपित करती हुई शासन की सेवा में संलग्न हैं । सम्वत् २०३३ में आपके सीने पर अकस्मात ही कैंसर की गाँठ हो गई । वह गाँठ बढ़ती ही गई, गाँठ के साथ वेदना भी बढ़ती ही गई। आपने कभी उपचार नहीं करवाया । अशुभ कर्मों का उदय समझकर शांत भाव से सहन करने में ही अपना कुशलक्षेम समझा । देह भिन्न और आत्मा भिन्न है इस विभेद ज्ञान को साकार रूप से अपने जीवन में चरितार्थ किया । " तन में व्याधि मन में समाधि" धारण कर एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया । अन्तिम दिनों में गाँठ के फूट जाने से जो असीम वेदना हुई उसे वे शांत भाव से सहन करती रहीं और सम्वत् २०३७ वैशाख सुदि ४ को श्रीमालों की दादाबाड़ी, जयपुर में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। मोहनबाड़ी में बड़े उत्सव के साथ इनका दाह-संस्कार किया गया। मोहनबाड़ी में ही इनका विशाल एवं भव्य समाधि मन्दिर बना है। विचक्षणश्री जी ने अपना उपनाम 'कोमल' रखा था। आपके द्वारा रचित भजन साहित्य प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं उनमें कई स्थल पर 'कोमल' का प्रयोग किया है। हृदय से जैसी कोमल थीं, मधुर थीं वैसी ही अनुशासन प्रिय भी थीं । अन्तिम समय के पूर्व आपने बड़ी बुद्धिमानी से वैचक्षण्य पूर्वक कार्य किया कि सज्जन श्री को प्रवर्तिनी पद देने का निर्देश दिया और अपनी साध्वी समुदाय के लिए उनका नेतृत्व अपनी प्रथम शिष्या अविचल श्री को प्रधान पद देकर उनके कंधों पर डाल दिया । आज भी आपके साध्वी समुदाय में लगभग ६१ साध्वियाँ हैं और वे इस समय अनेक स्थानों पर विचरण कर रही हैं । (४१४) 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री समता, समन्वय और उदारता का अद्भुत उदाहरण प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री का जन्म वि०सं० १९६५ वैशाखी पूर्णिमा को जयपुर में लूणिया परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री गुलाबचंद जी लूणिया था जो तत्कालीन युग के प्रमुख जौहरी थे। आपकी माता का नाम मेहताब बाई था। आपके माता-पिता तेरापन्थी समाज के अग्रगण्य श्रावक थे। माता-पिता ने इन का विवाह जयपुर राज्य के दीवान नथमल जी गोलेछा के पुत्र कल्याणमल जी से कर दिया। आपका ससुराल पक्ष स्थानकवासी समुदाय का अनुगामी था। आपका ध्यान सांसारिक कृत्यों में न होकर अध्यात्म की ओर ही बना रहता था। आपकी धर्मसाधना को देखते हुए आपके परिवार ने आपको दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान कर दी। वि०सं० १९९९ आषाढ़ सुदि २ को जयपुर में उपाध्याय मणिसागर जी ने आपको दीक्षा देकर प्रवर्तिनी ज्ञानश्री की शिष्या घोषित किया और आप सज्जनकुमारी से साध्वी सज्जनश्री बन गयीं। वि०सं० २००० में लोहावट में श्री जिनहरिसागरसूरि से बड़ी दीक्षा प्राप्त की। अपने लम्बे जीवनकाल में आपने राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल के विविध स्थानों की यात्रा करते हुए धर्मप्रभावना की। अपनी धर्मयात्रा में आपने प्रवचन, लेखन, तप, स्वाध्याय आदि को अविरत रूप से जारी रखा। आप द्वारा लिखित और अनूदित विभिन्न ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। वि०सं० २०३२ में जोधपुर में आचार्य जिनकांतिसागरसूरि ने आपको प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठापित किया। सन् १९६९ वि०सं० २०४६ में जयपुर संघ ने अखिल भारतीय स्तर पर आपका अभिनन्दन कर आपको श्रमणी नामक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। ई०सन् १९९२ दिसम्बर की नौ तारीख को जयपुर में आपका निधन हो गया। स्थानीय मोहनबाड़ी में आपका दाह संस्कार कर वहाँ आपकी स्मृति में एक भव्य स्मारक का निर्माण कराया गया। आपश्री ने श्रुतसाधना की जो ज्योति प्रज्ज्वलित की है उसे आपका साध्वी मंडल निरन्तर प्रचारित व प्रसारित करता हुआ जिनशासन के गौरव में अभिवृद्धि कर रहा है। 卐卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४१५) 2010_04 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. प्रवर्तिनी श्री तिलकश्री ) आप का जन्म वि०सं० १९८२ आषाढ़ सुदि १० को पादरा (गुजरात) में हुआ। जन्मनाम तारा कुमारी था। श्रीमाल छजलानी गोत्रीय मोतीलाल जी एवं लक्ष्मीबहन इनके माता-पिता थे। वि०सं० १९९६ फाल्गुन वदि २ को अणादरा में विचक्षणश्री जी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम तिलकधी रखा गया। अभी आप प्रवर्तिनी पद की शोभा बढ़ा रही हैं। आप मिलनसार और अच्छी विदुषी हैं। अस्वस्थता के कारण अभी आप अहमदाबाद में स्थिरवास कर रही हैं। प्र० पुण्यश्रीजी मंडल की आप प्रमुख हैं। जैन शासन के प्रचार-प्रसार में अत्यन्त विचक्षण एवं व्यवहारकुशल स्व० श्री विचक्षणश्री जी का शिष्या-प्रशिष्या मंडल अत्यधिक विशाल होने से विचक्षणमंडल के नाम से विख्यात है। इस मंडल की प्रमुख शिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं१. श्री विनीताश्री २. श्री चन्द्रकलाश्री ३. श्री चन्द्रप्रभाश्री ४. श्री मनोहरश्री ५. श्री सुरंजनाश्री ६. श्री मणिप्रभाश्री इन सब का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है श्री विनीताश्री इनका जन्म वि०सं० १९८३ वैशाख वदि ४ को पादरा में हुआ। आपका जन्मनाम विद्याकुमारी था। इनके माता-पिता श्रीमाल छजलानी गोत्रीय चम्पाबहेन और मोतीलाल शाह थे। वि०सं० १९९६ फाल्गुन वदि २ को अनादरा में दीक्षा ग्रहण कर विचक्षणश्री जी की शिष्या बनीं और विनीताश्री नाम प्राप्त किया। आप अत्यन्त सरल हृदय हैं और आजीवन गुरु की सेवा में संलग्न रही हैं। आप अभी ५ साध्वियों के साथ विचरण कर रही हैं। चन्द्रकलाश्री इनका जन्म वैशाख शुक्ला १ सं० १९९१ को मुलतान में हुआ। आपका जन्म नाम लाजवन्ती कुमारी था। नाहटा गोत्रीय सरस्वती बाई और धनीराम इनके माता-पिता थे। वि०सं० २००९ फाल्गुन सुदि ५ को छापीहेड़ा में प्रवर्तिनी विचक्षणश्री की शिष्या बनकर चन्द्रकलाश्री नाम प्राप्त किया। आप अत्यन्त सरलमना और उदारता की प्रतीक हैं। सुलोचनाश्री जी आदि ४ साध्वियों के साथ मालपुरा दादावाड़ी की प्रतिष्ठा में आप सम्मिलित हुई थीं। (४१६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभाश्री) वि०सं० १९९५ माघ वदि १३ को बीकानेर में नाहटा गोत्रीय बालचन्द्र जी की धर्मपत्नी धापू बाई की कुक्षि से इनका जन्म हुआ। इनका जन्म नाम मोहिनी कुमारी था। वैराग्यवासित होकर वि०सं० २००८ फाल्गुन सुदि १२ को खुजनेर (मालवा) में दीक्षा ग्रहण कर विचक्षणश्री जी की शिष्या बनीं और चन्द्रप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। जैन साहित्यमहारथी श्री अगरचन्द जी भंवरलाल जी नाहटा की आप भतीजी हैं। आप अत्यन्त विदुषी और व्यवहारदक्षा हैं। आप अपने १४ साध्वियों के साथ मालपुरा की प्रतिष्ठा वि०सं० २०५८ में सम्मिलित हुई थीं। आपके द्वारा पठित मंगल पाठ (मांगलिक) बड़ा प्रभावशाली और विघ्नहारी है। आपका २०५९ का चातुर्मास जयपुर में हुआ। श्री मनोहरश्री इनका जन्म पादरा में वि०सं० १९९३ श्रावण शुक्ला १ को श्रीमाल चिमनभाई-चन्दनबाला के घर हुआ था। आपका जन्मनाम मधुकान्ता था। वि०सं० २०११ मार्गशीर्ष सुदि ११ को पादरा में दीक्षा ग्रहण कर प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी की शिष्या बनीं। आपका दीक्षा नाम मनोहरश्री रखा गया। आप शतावधानी हैं, व्याख्यान में दक्ष और कुशल लेखिका भी हैं। पुरातनस्थलों का जीर्णोद्धार व संघ के विकास हेतु आप सर्वदा प्रयत्नशील रही हैं। - आपकी अनेक शिष्यायें भी विदुषी और लेखिकायें हैं। ५ साध्वियों ने शोध प्रबन्ध लिखकर पीएच०डी० की उपाधि भी प्राप्त की है१. डॉ० सुरेखाश्री (आप वर्तमान में डी०लिट् कर रही हैं) २. मधुस्मिताश्री ३. डॉ० दिव्यगुणाश्री ४. सुमितप्रज्ञाश्री ५. हेमरेखाश्री मालपुरा दादावाड़ी की प्रसिद्ध प्रतिष्ठा के समय आप अपने १६ शिष्याओं के साथ विद्यमान थीं। श्री सुरंजनाश्री इनका बचपन का नाम रमा कुमारी था। वि०सं० १९९३ माघ सुदि को पादरा में इनका जन्म हुआ। आपके माता-पिता मेहता बाडीलाल भाई और इच्छा बहेन थे। वि०सं० २०१२ आषाढ़ सुदि १० के दिन श्री विचक्षणश्री जी से दीक्षा ग्रहण कर सुरंजनाश्री नाम प्राप्त किया। आप मिलनसार, सरलहृदया और विदुषी साध्वी हैं। सिद्धांजना आदि ६ साध्वियों के साथ आपका वर्ष २०५९ का चातुर्मास गढ़सिवाना था। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४१७) 2010_04 . Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मणिप्रभाश्री जयपुर निवासी छाजेड़ गोत्रीय श्री अनन्तमल जी संतोषबाईके घर सं० १९९६ भाद्रपद शुक्ला ११ को इनका जन्म हुआ। आपका बाल्यावस्था का नाम मुन्नाकुमारी था। सं० २०१३ फाल्गुन शुक्ला १० को टोंक में प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी के पास आपने दीक्षा ग्रहण कर मणिप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। आप प्रसिद्ध व्याख्यात्री हैं। आपका उपदेश अत्यन्त सरल और लोकप्रिय रहा है। आपके व्याख्यान में प्रतिदिन दूर-दूर से श्रोतागण आते हैं। आपके उपदेश से जलगाँव, अमरावती आदि विभिन्न स्थानों पर कई नई दादावाड़ियों का निर्माण हुआ है। आप विदुषी एवं प्रभाविका हैं। अपनी ११ शिष्याओं के साथ आपने २०५९ का चातुर्मास धमतरी में किया। आपकी विदुषी शिष्या हेमप्रज्ञाश्री शोध प्रबन्ध लिखकर डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर चुकी हैं। श्री शशिप्रभाश्री श्री पुण्यश्री जी म० की परम्परा में प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी महाराज के पश्चात् प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी बनी थी। उनकी प्रमुख शिष्याओं में श्री शशिप्रभाश्री हैं। इनका परिचय इस प्रकार है इनका जन्म वि०सं० २००१ भाद्रपद वदि १५ को फलौदी में हुआ था। इनके माता-पिता गोलेछा गोत्रीय श्री ताराचन्द जी एवं बालाबाई थे। साध्वी सज्जनश्री जी के उपदेश से प्रबुद्ध होकर सं० २०१४ मार्गसिर वदि ६ को ब्यावर में दीक्षा ग्रहण कर किरणकुमारी से शशिप्रभाश्री बनीं। आप उच्च अध्ययन कर व्याकरणशास्त्री आदि कई उपाधियाँ प्राप्त कर चुकी हैं। आप अच्छी विदुषी और व्याख्यात्री हैं। आपके प्रयत्नों से ही स्वर्गीया श्री सज्जनश्री जी म० के समाधि स्थान को भव्य स्वरूप प्राप्त हुआ है। आपकी एक शिष्या सौम्यगुणाश्री ने डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। आपका सं० २०५९ का चातुर्मास मालेगांव में था। महत्तरा पदविभूषिता स्वर्गीया श्री चम्पाश्री जी म०सा० के साध्वी मंडल में प्रमुख हैं-श्री सूर्यप्रभाश्री और श्री विमलप्रभाश्री। श्री सूर्यप्रभाश्री इनका जन्म वि०सं० २००३ वैशाख शुक्ल ५ को फलौदी में हुआ था। मालू गोत्रीय श्री ज्ञानचन्द जी एवं तेजा देवी आपके माता-पिता थे। बचपन का नाम सुशीला कुमारी था। सं० २०२२ मार्गसिर सुदि १० को फलौदी में चम्पाश्री जी से दीक्षा ग्रहण कर सूर्यप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। आपने व्याकरण, काव्य, कोश, छन्द एवं जैन शास्त्रों का अच्छा अध्ययन किया है। उदारता और मिलनसारिता आपके प्रमुख गुण हैं। आप अपने १२ शिष्याओं के साथ मालपुरा प्रतिष्ठा महोत्सव में सम्मिलित हुई थीं। (४१८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलप्रभाश्री इनका जन्म २०१४ माघ वदि ४ को सिवाना में हुआ था। ललवाणी गोत्रीय श्री वंशराज जी एवं श्रीमती प्यारी देवी इनके माता-पिता थे। इनका जन्मनाम नारंगी कुमारी था। वि०सं० २०३३ माघ सुदि ११ को सिवाना में ही आप दीक्षा ग्रहण कर श्री चम्पाश्री जी की शिष्या बनीं और विमलप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। आप व्याकरण, काव्य, कोश, न्याय एवं जैन साहित्य की अच्छी ज्ञाता हैं। आप अपनी १० शिष्याओं के साथ विचरण कर रही हैं। सूर्यप्रभाश्री और विमलप्रभाश्री ने अपनी स्वर्गीया गुरुवर्या की स्मृति में गढ़सिवाना में ही चम्पावाड़ी नामक भव्य स्मारक का निर्माण सम्पन्न कराया है। सम्वत् २०५७ में इसका प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ था। दिव्यप्रभाश्री लोहावट निवासी भंसाली गोत्रीय श्री मेघराज जी एवं श्रीमती मूली बाई के घर वि०सं० १९९९ मिगसर सुदि ११ को इनका जन्म हुआ। जन्मनाम चन्द्राकुमारी था। स्वनामधन्या प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी महाराज की शिष्या श्री पवित्रश्री जी के पास चन्द्राकुमारी ने वि०सं० २००९ मिगसर सुदि पूनम को लोहावट में दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम दिव्यप्रभाश्री रखा गया। आप अच्छी विदुषी और व्याख्यात्री हैं, कई बरसों से गुजरात की ओर ही विचरण कर ही हैं। आपका विस्तृत शिष्या-प्रशिष्या मण्डल है। श्रीकमलश्री प्रवर्तिनी श्री स्वर्णश्रीजी महाराज की शिष्या श्री चन्दनश्रीजी की परम्परा में कमलश्रीजी विद्यमान हैं। मंदसौर निवासी श्री मन्नालाल जी लोढ़ा व हुल्लास देवी इनके पिता-माता थे। वि०सं० १९६९ आषाढ़ सुदि सप्तमी को इनका जन्म हुआ। जन्म नाम कंचन कुमारी था। संवत् २००२ वैशाख सुदि तीज को मंदसौर में दीक्षा ग्रहण की और चन्दनश्रीजी की शिष्या बनीं। 卐 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४१९) 2010_04 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रवर्तिनी श्री शिवश्रीजी का समुदाय श्री उद्योतश्रीजी महाराज की प्रशिष्या एवं श्री लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या श्री शिवश्रीजी महाराज थीं। इनका दूसरा नाम सिंहश्रीजी भी मिलता है। इनका जन्म विक्रम संवत् १९१२ में फलौदी में हुआ था। पिता का नाम लालचन्द्रजी और माता का नाम अमोलक देवी था। जन्म नाम आपका शेरू था। बाल्यावस्था में ही वैधव्यावस्था प्राप्त हो गई थी। संवत् १९३२ अक्षय तृतीया को दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम शिवजी रखा गया। विक्रम संवत् १९६५ पौष सुदि १२ को अजमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपका साध्वी समुदाय विशाल होने के कारण आपके नाम पर ही 'शिवश्रीजी का समुदाय' के नाम से प्रसिद्ध है। आपने अनेक महिलाओं एवं कन्याओं को दीक्षा दी। उन सबके नाम प्राप्त नहीं है, किन्तु आपकी सात शिष्याएँ प्रसिद्ध हैं :१. प्रतापश्री २. देवश्री ३. प्रेमश्री ४. ज्ञानश्री ५. वल्लभश्री ६. विमल श्री ७. प्रमोदश्री इन प्रसिद्ध सात शिष्याओं में से पाँच शिष्याएँ प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर चुकी हैं, उनका परिचय क्रमशः इस प्रकार है : ((१) प्रवर्तिनी श्री प्रतापश्री) आपका जन्म पौष सुदि १० वि०सं० १९२५ को फलौदी में हुआ। लुंकड़गोत्रीय सुकनचन्द जी एवं सुकन देवी आपके माता-पिता थे। आपका जन्मनाम आसीबाई (ज्योति बाई) था। १२ वर्ष की अल्पायु में सूर्यमल्ल जी झाबक के साथ आपका विवाह हुआ था किन्तु आप शीघ्र ही सौभाग्यसुख से वंचित हो गयीं। वि०सं० १९४७ मार्गसिर वदि १० को आपकी दीक्षा हुई और शिवश्री जी की प्रधान शिष्या बनीं और नाम प्रतापश्री जी रखा गया। शिवश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् इन्हें प्रवर्तिनी पद प्राप्त हुआ। वि०सं० १९९७ में आपका फलौदी में स्वर्गवास हुआ। द्वादशपर्वव्याख्यान, चैत्यवंदन-स्तुति-चतुर्विंशति, आनन्दघनचौबीसी आदि अनेक ग्रंथ आपकी प्रेरणा से प्रकाशित हुए। आप द्वारा दीक्षित चैतन्यश्रीजी आदि १२ साध्वियाँ थीं, किन्तु इनकी शिष्याओं में वर्तमान समय में श्री दिव्यश्री ही विद्यमान हैं। वे फलौदी निवासी और झाबक गोत्रीय हैं। वि०सं० १९९६ माघ सुदि ३ को फलौदी में इनकी दीक्षा हुई थी। कई वर्षों की अस्वस्थता के कारण खड़गपुर (बंगाल) में स्थिरवास कर रही हैं। (२) प्रवर्तिनी श्री देवश्री वि०सं० १९२८ में फलौदी में आपका जन्म हुआ था। वैधव्य के पश्चात् इन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। प्रवर्तिनी प्रतापश्री जी म० के स्वर्गवास के पश्चात् सं० १९९७ माघ वदि १३ को इन्हें प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। इनका निधन वि०सं० २०१० भाद्रपद वदि १३ को फलौदी में हुआ। हीराश्री जी आदि कई विदुषी साध्वियाँ आपकी शिष्यायें थीं। (४२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((३) प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्री इनका जन्म वि०सं० १९३८ को शरत् पूर्णिमा के दिन फलौदी में हुआ। छाजेड़ गोत्रीय किशनलाल जी एवं श्रीमती लाभू देवी आपके माता-पिता थे। आपका जन्मनाम धूलीबाई था। १३ वर्ष की अल्पावस्था में आईदान जी गोलेछा के साथ आपका विवाह हुआ था। एक वर्ष के अन्दर ही आप वैधव्य को प्राप्त हो गयीं। १६ वर्ष की आयु में वि०सं० १९५४ मिगसर वदी १० को फलौदी में आपकी दीक्षा हुई और सिंहश्री जी की शिष्या बन कर प्रेमश्री नाम प्राप्त किया। प्रवर्तिनी देवश्री जी म० के स्वर्गवास के पश्चात् वि०सं० २०१० भाद्रपद सुदि १५ को प्रवर्तिनी पद आपको प्रदान किया गया, किन्तु इसी वर्ष आश्विन वदि १३ को आपका स्वर्गवास हो गया। आपका जीवन संयम, ध्यान-मौन निष्ठामय था। आपकी यशश्री, अनुभवश्री, तेजश्री आदि २५ विदुषी शिष्याएँ थीं। आपकी प्रशिष्याओं में अनुभवश्रीजी की शिष्या विनोदश्री, हेमप्रभाश्री तथा साध्वी तेजश्रीजी की शिष्या सुलोचनाश्री आदि विद्यमान हैं । इनका परिचय इस प्रकार है :(क) श्री अनुभवश्री-इनका जन्म वि०सं० १९५९, भादवा वदि ८ के दिन शाजापुर में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम सोनादेवी, जमुनादासजी मांडावत था। जन्म नाम गुलाबकुमारी था। प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी महाराज के प्रवचनों से प्रभावित होकर सम्वत् १९७९ को दीक्षा ग्रहण कर अनुभव श्री बनी थीं। आप संस्कृत, प्राकृत की विदुषी, आगम-मर्मज्ञा एवं प्रखर व्याख्यात्री थीं। जंघाबल क्षीण होने के कारण २६ वर्ष तक पाली में स्थानापन्न होकर शासन की सेवा करती रहीं। वि०सं० २०४३ फाल्गुन वदि ३ को समाधिपूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ। वर्तमान में आपकी छः शिष्या एवं ११ प्रशिष्याएँ हैं। (ख) श्री विनोदश्री-इनका जन्म वि०सं० १९८७ कार्तिक शुक्ला १ को भोपाल में हुआ था। इनके पिता भाण्डावत गोत्रीय गेंदमल जी थे और माता का नाम लहरबाई था। आपका जन्मनाम यशवन्त कुमारी था। वि०सं० २००० आषाढ़ वदि १३ को फलौदी में आपकी दीक्षा हुई और अनुभवी जी की शिष्या बनकर विनोदश्री नाम प्राप्त किया। व्याकरण, न्याय, जैन साहित्य आदि पर आपका अच्छा अधिकार है। श्री हेमप्रभाश्री आपकी आज्ञानुवर्तिनी हैं। (ग) श्री हेमप्रभाश्री-इनका जन्म २००१ श्रावण शुक्ला १० को उज्जैन में हुआ। आपका जन्मनाम इन्दिरा था। भाण्डावत गोत्रीय गेंदामल आपके पिता और चन्द्रा देवी माता थीं। वि०सं० २०१२ वैशाख सुदि ७ को पाली में इनकी दीक्षा हुई और अनुभवश्री जी की शिष्या बनकर हेमप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। आपने दर्शनशास्त्र में एम०ए० कर साहित्य, दर्शन, ज्योतिष और जैनागम साहित्य पर अच्छा अधिकार प्राप्त किया। आप प्रखर व्याख्यात्री हैं। 'प्रवचनसारोद्धार टीका सह' नामक कठिन ग्रन्थ का आपने हिन्दी में अनुवाद किया है जो प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से २ भागों में प्रकाशित हो चुका है। आपकी कई अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आप प्रभावशालिनी और मधुर भाषिणी हैं। आपकी शिष्य मंडली में १५-१६ साध्वियाँ हैं। आप उनके साथ हैदराबाद में विराजमान हैं। आपश्री ने प्रेरणा देकर अनेक दादावाड़ियों का निर्माण कराया है। गत वर्ष आपकी एक साध्वी ने पीएच०डी० की उपाधि प्राप्त की है। (घ) श्री सुलोचनाश्री-वि०सं० २००५ वैशाख वदि ३ को फलौदी में इनका जन्म हुआ था। हुड़िया वैद श्री गुमानमल जी इनके पिता और माता लाड़ देवी थीं। स्व० श्री गुमानमल जी ने अपने जीवनकाल में ५०० से अधिक अठाइयाँ की थीं। आप तपस्वीरत्न थे। वि०सं० २०१८ में संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४२१) 2010_04 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ़ वदि ६ को फलौदी में चन्दन कुमारी ने तेजश्री जी के पास दीक्षा लेकर सुलोचनाश्री नाम प्राप्त किया। आप अपने २१ साध्वियों के साथ चेन्नइ में विचरण कर रही हैं। इनकी प्रमुख शिष्या साध्वी सुलक्षणाश्री हैं। (ङ) श्री सुलक्षणाश्री-इनका जन्म सं० २०१० श्रावण सुदि ५ को फलौदी में हुआ। इनका जन्म नाम सुशीला था। आप सुलोचनाश्री जी की लघु भगिनी हैं और वि०सं० २०२८ फाल्गुन सुदि ३ को सुलोचनाश्री से ही दीक्षा ग्रहण कर सुलक्षणाश्री नाम प्राप्त किया। आप निरन्तर साधना में संलग्न रहती हैं। ((४) प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्री __ प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् साध्वी समुदाय का नेतृत्व श्री वल्लभश्रीजी के कन्धों पर आया, प्रवर्तिनी बनीं। इनका जन्म संवत् १९५१ पौष वदि ७ को लोहावट में हुआ था। पारख गोत्रीय सूरजमल जी और गोगा देवी इनके पिता-माता थे। लोहावट निवासी पारख गोत्रीय मुकुन्दचन्द जी-कस्तूर देवी की सुपुत्री जड़ावबाई का जन्म १९२८ श्रावण शुक्ला तीज को हुआ था। जड़ावबाई का विवाह लक्ष्मीचन्द जी चोपड़ा के साथ हुआ था। बारह वर्ष पश्चात् ही जड़ावबाई विधवा हो चुकी थीं। जड़ावबाई वल्लभश्रीजी की सगी बुआ लगती थीं। __संवत् १९६१ मिगसर सुदि पंचमी को बुआ-भतीजी दोनों की दीक्षा महातपस्वी श्री छगनसागर जी महाराज के हाथों से हुई। यह जोड़ी सिंहश्रीजी महाराज की शिष्या बनी। ज्ञानश्री बड़ी थीं और वल्लभश्रीजी छोटी, संवत् १९९६ वैशाख सुदि १३ को ज्ञानश्रीजी का फलौदी में स्वर्गवास हो गया। यही कारण है कि प्रवर्तिनी देवश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् प्रवर्तिनी पद प्रेमश्रीजी को प्राप्त हुआ और उनके स्वर्गवास के पश्चात् प्रवर्तिनी पद संवत् २०१० शरद् पूर्णिमा के दिन छोटी सादड़ी में वल्लभश्रीजी को प्राप्त हुआ। वल्लभश्रीजी प्रौढ़ विदुषी थीं, उपदेश देने में पटु थीं अपने प्रभावशाली प्रवचनों से अनेक विशिष्ट व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर अहिंसक बनाया था। जंघाबल क्षीण होने पर छः वर्ष तक अमलनेर में रहीं। विक्रम संवत् २०१८ फाल्गुन सुदि चतुर्दशी को आपका स्वर्गवास हुआ। इनकी शिष्या-प्रशिष्याओं में लगभग ५० अभी विद्यमान हैं। आपने लगभग २० पुस्तकों का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन करवाया था। (५) प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री श्री शिवश्रीजी महाराज की एक शिष्या विमल श्रीजी थीं। विमलश्रीजी के संबंध में कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है। फलौदी निवासी सूरजमल जी गोलेछा इनके पिता थे। विक्रम संवत् १९५५ कार्तिक सुदि पंचमी को इनका जन्म हुआ। जन्म नाम लक्ष्मी था। लक्ष्मी की माता का नाम जेठीबाई था। लक्ष्मी की २१/२ वर्ष की अवस्था में ही फलौदी निवासी श्री लालचन्द (४२२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी ढढ्ढा के साथ सगाई कर दी गई। लक्ष्मी के जीवन में विवाह बंधन का योग नहीं था, योग था संयम ग्रहण करने का। विक्रम संवत् १९६४ माघ सुदि ५ को ही माता-पुत्री दोनों ने ही शिवश्रीर्जी महाराज के पास संयम ग्रहण कर लिया। माता जेठीबाई का नाम जयवंतश्री तथा पुत्री लक्ष्मी का नाम प्रमोदश्री रखा गया। प्रमोदश्री को शिक्षा-दीक्षा देकर योग्यतम बनाने का सारा श्रेय विमलश्रीजी को जाता है। आप आगमों की ज्ञाता थीं, ओजस्वी प्रवचनकार थीं, व्याख्यान पटु थीं और तपस्वीनी भी थीं। ७४ वर्ष की अवस्था में आपने मासक्षमण जैसी महान् तपस्या की। अन्तिम अवस्था में अस्वस्थता के कारण बाड़मेर में स्थानापन्न हो गई थीं। विक्रम संवत् २०३९ पौष वदि दशमी को बाड़मेर में ही आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी शिष्याओं में श्री प्रकाशश्री, श्री विजयेन्द्रश्री और डॉ० विद्युत्प्रभाश्री आदि प्रमुख हैं। (क) श्री प्रकाशश्री-वि०सं० १९७२ आश्विन कृष्णा ११ को खैरवा (पाली) में इनका जन्म हुआ। जन्मनाम हंसकुमारी था। समदड़िया मूथा हीराचंद जी श्रीमाल आपके पिता थे और माता का नाम बनीबाई था। वि०सं० १९८४ मार्गसिर सुदि १३ को खैरवा में ही श्री प्रमोदश्री जी से आपने दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम प्रकाशश्री रखा गया। स्व० श्री शिवश्री जी म० के मण्डल में आप इस समय सबसे वयोवृद्ध साध्वी हैं। (ख) श्री विजयेन्द्रश्री-इनका जन्म वि०सं० १९८४ मार्गशीर्ष सुदि ११ को प्रतापगढ़ में हुआ था। इनका जन्मनाम कमला कुमारी था। झवासा गोत्रीय श्री मोतीलाल जी और झमकू बाई आपके पितामाता थे। वि०सं० २००९ माघ सुदि ११ को उदयपुर में आपने प्रमोदश्री जी से दीक्षा ग्रहण कर विजयेन्द्र श्री नाम प्राप्त किया। १२ साध्वियों के साथ आप विचरण कर रही हैं। (ग) श्री रत्नमालाश्री एवं डॉ० विद्युत्प्रभाश्री-रत्नमालाश्री का जन्म वि०सं० १९९८ ज्येष्ठ सुदि को मोकलसर में हुआ था। पारसमल जी लुंकड़ की आप धर्मपत्नी थीं। आपका जन्म नाम रोहिणी देवी था। वि०सं० २०३० आषाढ़ वदि ७ को अपने पुत्र मीठालाल और पुत्री विमला के साथ आपने पालीताणा में आचार्य जिनकांतिसागरसूरि जी से दीक्षा ग्रहण की और रत्नमालाश्री नाम प्राप्त किया गया। मीठालाल ही आज उपाध्याय मणिप्रभसागर जी हैं और विमला ही डॉ० विद्युत्प्रभाश्री हैं। डॉ० विद्युत्प्रभा का जन्म वि०सं० २०२० ज्येष्ठ सुदि ६ को मोकलसर में हुआ था। आप अच्छी विदुषी, कुशल व्याख्यात्री एवं लेखिका हैं। सेठ मोतीशाह आदि कई पुस्तकें आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं। द्रव्य-विज्ञान पर आपको डाक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है। (६) प्रवर्तिनी श्री जिनश्री प्रमोदश्री जी के पश्चात् प्रवर्तिनी पद पर वल्लभश्री जी की शिष्या श्री जिनश्री जी विभूषित हुईं। आपका जन्म वि०सं० १९५७ आश्विन सुदि ८ को तिवरी में हुआ था। आपके पिता का नाम लाधूराम संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४२३) _ 2010_04 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी बुरड़ एवं माता का नाम घूड़ीदेवी था। संवत् १९७६ मिगसर सुदि ५ को आपने श्री वल्लभश्री जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की। वि०सं० २०४० वैशाख शुक्ल २ को आपको प्रवर्तिनी पद प्राप्त हुआ। आपका स्वर्गवास वि०सं० २०४५ जेठ सुदि सप्तमी को अमलनेर नामक स्थान पर हुआ। (७) प्रवर्तिनी श्री हेमश्री ) फलौदी निवासी गोलेछा गोत्रीय श्री जमुनालाल जी एवं श्रीमती सुगन देवी के यहाँ इनका जन्म सं० १९६२ आश्विन सुदि २ को हुआ। इनका जन्म नाम कोला कुमारी था। वि०सं० १९८० ज्येष्ठ सुदि ५ को फलौदी में प्रवर्तिनी श्री वललभश्री जी के पास दीक्षा ग्रहण कर साध्वी हेमश्री नाम प्राप्त किया। आप विदुषी साध्वी थीं। प्रवर्तिनी श्री जिनश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् आपको प्रवर्तिनी पद संवत् २०४६ मिगसर वदि पंचमी को सैधवा में प्रदान किया गया। इनका स्वर्गवास संवत् २०४६ वैसाख वदि १३ को उज्जैन में हुआ। ___ वर्तमान समय में महत्तरा पद विभूषिता श्री मनोहरश्री जी और प्रवर्तिनी पद विभूषिता श्री विद्वान्श्री जी श्री शिवश्री जी महाराज के समुदाय का नेतृत्त्व संभाल रही हैं। आप दोनों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : (८) महत्तरा श्री मनोहरश्री आप प्रवर्तिनी श्री शिवश्री जी के समुदाय की पूर्व प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्री जी की प्रशिष्या एवं श्री गुप्तिश्री की शिष्या हैं। इनका जन्म वि०सं० १९७९ माघ सुदि ५ को फलौदी में हुआ था। ये राखेचा गोत्रीय रावतमल जी और जीयोदेवी की पुत्री थीं। बचपन का नाम पार्वती कुमारी था। वि०सं० १९९१ में माघ सुदि १३ को लोहावट में दीक्षा प्राप्त कर मनोहरश्री नाम प्राप्त किया। आपने छत्तीसगढ़ अंचल को खरतरगच्छ का केन्द्र बनाने में बहुत उद्योग किया। आप सरल स्वभावी एवं मिलनसार हैं। आपका व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली है। समुदाय में ज्ञान-अनुभव एवं संयम में वयोवृद्ध होने के कारण आपको महत्तरा पद से विभूषित किया गया। आपश्री की शिष्याओं की संख्या ३१ के लगभग हैं जो अच्छी व्याख्यात्री हैं। शारीरिक अस्वस्थता होने के कारण आप नागपुर में ही स्थिरवास कर रही हैं। (९) प्रवर्तिनी श्री विद्वान् श्री) इनका जन्म वि०सं० १९७८ कार्तिक वदि १५ (दीपावली) को लोहावट में हुआ। पारेख गोत्रीय सम्पतलाल जी इनके पिता और झमकूबाई इनकी माता थीं। बचपन का नाम बिदामी कुमारी (४२४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड 2010_04 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी श्री शिवश्री जी (सिंह श्री जी ) म. का समुदाय परंपरा A स्व. साध्वी श्री शिवश्री जी म. स्व. साध्वी श्री ज्ञानश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रतापश्री जी म. For Private & Personal स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्री जी म. Jainelibrary.org Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री जिनश्री जी म. स्व. प्रवर्तिनी श्री हेमश्री जी म. D For private / urational Personal use only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरा श्री मनोहर श्री जी म. प्रवर्तिनी श्री विद्वान् श्री जी म. महत्तरा श्री मनोहर श्री जी म. साध्वी- मण्डल सहित • For Private & Fersonal Use Only 2010-04 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्र. श्री प्रेमश्री जी म. का शिष्या-प्रशिष्या मण्डल श्री विनोदश्री जी म. स्व. श्री अनुभवश्री जी म. श्री प्रियदर्शनाश्री जी म. श्री विनयप्रभाश्री जी म. श्री कल्पलताश्री जी म. श्री प्रियंवदाश्री जी म. श्री अमितयशाश्री जी म. श्री विनीतप्रज्ञाश्री जी म. श्री विनीतयशाश्री जी म. श्री हेमप्रभाश्रीजी म. श्री शुद्धांजनाश्री जी म. श्री श्रद्धांजनाश्रीजी म. श्री योगांजनाश्री जी म. श्री शीलांजनाश्री जी म. श्री दीपमालाश्री जी म. श्री दीपशिखाश्री जी म. 2010_04 For Private & Pesonal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री जी म. का शिष्या-प्रशिष्या मण्डल श्री प्रकाशश्री जी म. प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री जी म. श्री रतनमालाश्री जी म. श्री शासनप्रभाश्री जी म. श्री नीलांजनाश्री जी म. श्री प्रज्ञांजनाश्री जी म. डॉ. श्री विद्युत्प्रभाश्री जी म. श्री दीप्तिप्रज्ञाश्री जी म. श्री नीतिप्रज्ञाश्री जी म. 2010_04 श्री विज्ञांजनाश्रीजी म. For Private a Personaneonly श्री विभांजनाश्री जी म. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्री जी म. शिष्या - प्रशिष्या मण्डल श्री सुलोचनाश्री जी म., श्री सुलक्ष्णाश्री जी म. आदि मण्डल Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORDMROGRAM BASOOOOO COCOCOCONCONCOCONCOCONS) CCCCCCCCCCCCCCCCCCOCOCOGOD प्रवर्तनी श्री तिलकश्रीजी महाराज साध्वी भण्डल सहित Coloddadata साध्वी श्री दिव्यप्रभाश्री जी म० साध्वी श्री निपुणाश्री जी म. साध्वी श्री सूर्यप्रभाश्री जी म० Santdeallopinternational-2010-04 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TOTOJOT TUOTTOTOTOU CaTaTCECOTECTCT.Cececece સાથ્વી શ્રી રત્નાશ્રી ની મ૦ સાથ્વી મારૂત્ર સહિંત DODUODDUDUB CaracajacagadacaqAJAGATACAU સાધ્વી શ્રી મદ્રપ્રમાથી ની મ0 pવું સાથ્વી થી સૂક્ષ્યપૂણથી ની મ૦ Jain E arlatan Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। वि०सं० १९९२ आषाढ़ सुदि ३ को लोहावट में प्रवर्तिनी श्री शिवश्री जी महाराज के समुदाय की पूर्व प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री जी की शिष्या बनी थीं। दीक्षा नाम विद्वान्श्री रखा गया। वर्तमान में आप प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर रही हैं। आपकी निश्रा में भी निपुणाश्री आदि १०-१२ साध्वियों का समुदाय है। श्री निपुणाश्री इनका जन्म वि०सं० १९८२ भाद्रपद वदि तेरस को पादरा में हुआ। इनके पिता का नाम सोमाभाई अमृतलाल शाह एवं माता का नाम जासु बहन था। विक्रम संवत् २०१२ आषाढ़ सुदि तेरस को धूलिया में दीक्षा ग्रहण कर प्रवर्तिनी वल्लभश्री जी महाराज की शिष्या बनीं। दीक्षा नाम निपुणाश्री रखा गया। अच्छी विदुषी और उपदेष्य हैं अभी आप छत्तीसगढ़ प्रान्त में विचरण कर रही हैं। इस प्रकार खरतरगच्छ की सुखसागर जी महाराज की परम्परा में ख्याति प्राप्त पुण्यश्री मंडल और शिवश्री मंडल में लगभग २५० साध्वियाँ खरतरगच्छ और जिनशासन का गौरव बढ़ाती एवं अपने प्रवचनों के माध्यम से जनमानस को झंकृत करती हुई देश के सभी भागों में विचरण कर रही हैं। (श्री महेन्द्रप्रभाश्री श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज के समुदाय में दीक्षित होने पर भी इस समुदाय का कोई साधु न रहने के कारण निम्नांकित साध्वीवर्ग पूर्व में मुनिश्री जयानन्दमुनिजी महाराज की आज्ञानुवर्ती रहा और अब गणाधीश उपाध्याय श्री कैलाशसागरजी महाराज की आज्ञानुवर्ती हैं। श्री महेन्द्रप्रभाश्री का जन्म १ सितम्बर, सन् १९४० को हुआ। कोहाट बन्नु निवासी सुराणा गोत्रीय लाल हेमराजजी और धनवन्ती बाई उनके पिता-माता थे। सन् १९५८ में रतलाम में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और महेन्द्रप्रभाश्री नाम प्राप्त किया। इनकी गुरुवर्या का नाम श्री त्रिलोकश्रीजी था। बहुत ही शान्त प्रकृति की और निश्छल हृदया हैं। शिष्याओं को सर्वोच्च शिक्षा दिलाने में इनका प्रमुख हाथ रहा है। डॉ० (साध्वी) लक्ष्यपूर्णाश्री - १४ नवम्बर, सन् १९५९ खीमेल में इनका जन्म हुआ। माता का नाम धापुबाई और पिता का नाम हेमराजजी मेहता था। जन्म नाम लीला मेहता था। सन् १९७८ में दीक्षा ग्रहण कर लीला से लक्ष्यपूर्णाश्री बनी। श्री महेन्द्रप्रभाश्रीजी कि प्रमुख शिष्या हैं। जैन प्राकृत आगमों में स्याद्वाद नय और सप्तभंगी का समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। दर्शनाचार्य की परीक्षा में भी स्वर्णपदक प्राप्त किया था। सरलहृदया व विदुषी हैं। श्वेताञ्जनाश्री एम. ए. आपकी शिष्या हैं, जिन्होंने कि सन् १९९८ में दीक्षा ग्रहण की थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४२५) 2010_04 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिशिष्ट खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास-गत आचार्य-साधु-साध्वियों की नाम सूची अकलंकदेवसूरि [पूर्णिमागच्छ०] १२५ ३३४ ८७,८८ ८९, अजितसेन ९०, ९१, ९२ अणदु [क्षेम०] ३११ अणदोजी [आद्य०] अनंतकीर्ति [दिग०] ३०१ अनन्तलक्ष्मी ३११ अनन्तश्री २९१ अनन्तहंस ९, १५९ अनुभव श्री ३१८ अनूपचन्द्र [जिनचन्द्रसूरि] १२८ अभयकुशल [कीर्तिरत्न०] अभयचन्द्र ३६ अभयचन्द्र [लघु०] ६२, ४०१ अभयचन्द्र [कीर्तिरत्न०] अक्षयचंद [जिनाक्षयसूरि] अक्षयनिधान [आचार्य शा० जिनचन्द्रसूरि] अक्षयसमुद्र [जिनरंग०] अगरचन्द [आद्य०] अगस्त्य [ऋषि] अंचलगच्छ अचलचित्त अजित अजितदेवसूरि अजितश्री २९२ ३१८ १३१ ४०३ २२२ ४२१ २४५ ३५१ ५४, १२५ २६७ ३५०,३५१ |संकेताक्षर-सूचन [ मु०-मुनि, ग०=गणि, वा०=वाचक, वाचनाचार्य, पा०=पाठक, महो०=महोपाध्याय, अन्य ग०=अन्यगच्छीय, सा० साध्वी, ग०=गणिनी, मह० महत्तरा, प्रव०=प्रवर्तिनी, मधु० मधुकर शाखा, रुद्र० रुद्रपल्लीय शाखा, लघु०-लघु खरतर शाखा, आद्य०=आद्यपक्षीय शाखा, बेगड़-बेगड़ शाखा, पिप्पलक०-पिप्पलक शाखा, भाव०=भावहर्षीय शाखा, आचार्य० आचार्य शाखा, जिनरंग०=जिनरंगसूरि शाखा, मण्डो० मण्डोवरी शाखा, दिग्मम् = दिग्मण्डलाचार्य शाखा, सागरचन्द्र ०=सागरचन्द्र सूरि शाखा, क्षेम० = क्षेमकीर्ति शाखा, जिनभद्र०=जिनभद्रसूरि शाखा, कीर्तिरत्न० कीर्तिरत्नसूरि शाखा, दिग०-दिगम्बर। ] (४२६) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ अभयतिलक ग०० १२६, १३०, १३७ अमृतचन्द्र ग०वा० १६१, २०३, २०५, २१० अभयदेवसूरि [नवांगीटीकाकार] १, ८, ९, १२, अमृतधर्म २४१ १३, १४, १६, १७, १८, १९, २०, २२, २३, अमृतधर्मगणि वा० ३५३ २४, ३३, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१, ४६, अमृतमूर्ति १२५ ९२, १७५, १८३, १८९, २२४, २६२, ४०० अमृतविजय [क्षेम०] अभयदेवसूरि [रुद्र०] २६१, २६४ अमृतविमल [जिनसिद्धिसूरि] ३०१ अभयमति ६४, ४०१ अमृतश्री -१५१, ४०५ अभयशेखर १५१ अमृतसमुद्र [क्षेम०] ३३५ अभयसागर २०३ अमृतसागर ३८१ अभयसुन्दर २३२ अमृतसार [कीर्तिरत्र०] ३५० अभयसोम [जिनभद्र०] ३४०, ३४१ अमृतसुन्दर [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३५१ अमरकीर्ति १८७ अम्बड़ [जिनेश्वरसूरि द्वितीय] १३५ अमरकीर्ति गणि १२४, १२५ अर्जुन [अमृतधर्म] २४१, ३५३ अमरचन्द [आचार्य०] ३०३ अर्हद्दत्त गणि १२४ अमरचन्द वा० [क्षेम०] ३३४ अविचल श्री . ४१४ अमरनन्दनगणि वा० [क्षेम०] ३३३ अशोकचन्द्र गणि अमरप्रभ . १५९ अशोकचन्द्र मुनि अमरमाणिक्य वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ अशोकचन्द्राचार्य ४० अमरमाणिक्य [जिनभद्र०] ३४२ आगमसिद्धि १३१, ४०२ अमरमुनि ३९८ आचारनिधि १२८ अमररत्न १५१ आज्ञासुन्दर अमरविजय २४५ आणंदचन्द्र [आचार्य०] ३०३ अमरविमल [आसकरण] [आचार्य०] ३०३ आणंदधीरगणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ अमरविमल उ० [कीर्तिरत्न०] ३५० आणन्दराम [आद्य०] अमर श्री ४१० आणंदविजय .[बेगड़०] २७६ अमरसिन्धुर [क्षेम०] ३२७ आनन्दघन ३०६ अमरसी [आद्य०] २९२ आनन्दमुनि [कीर्तिरन०] .३५० अमराजी ३८१ आनन्दमुनि ३७८, ३९८ अमीचन्द [आचार्य शाखा] ३०५ आनन्दमूर्ति अमीपाल २३० आनन्दराज उ० [रुद्र०] २६४ अमृतउदय [मण्डो०] ३२३ आनन्दवर्धन २३१ अमृतचन्द्र १५१ आनन्दवल्लभ [क्षेम०] ३३० २८३ २९२ १४४ (४२७) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास _ 2010_04 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दविनयगणि उ० [ सागरचन्द्र० ] आनंदोदय आनन्द श्री [ मह० ] आनन्दसागरसूरि [अन्य ग० ] आनन्दहर्ष वा० [ क्षेम० ] आर्य महागिरि आर्य रक्षितसू आर्य सुहस्ति आलमचन्द [ आचार्य० ] आशानंद [मु०] आसकरण [ आचार्य० जिनचन्द्रसूरि ] आसमति [ सा०] इन्द्रभान [आद्य० ] इन्दिरा [ सा० हेमप्रभाश्री ] इलावल्लभ पं० [ क्षेम० ] इलाधर्म उत्तमविजय उदयकीर्ति [मु०] उदयकीर्ति [ जिनभद्र० ] उदयचन्द [ महो०] उदयचन्द्र उदयचन्द्र [बेगड़०] उदयभान [आद्य० ] उदयमूर्ति उदयरत्न उपा० [ आद्य० ] उदयराज गणि [ क्षेम० ] उदयविलास उदयश्री [गणिनी ] उदयसागर [ अन्य ग० ] उदयसागर [ जिनचन्द्रसूरि ] उदयसागर [ कीर्ति० ] (४२८) 2010_04 ३३६ २९४ १११, ४०२ ३६ ३३४ १८१ १४२ १६१, १७५, १८९, १८३, १८७ ३०३ ३११ ३०१ ३४२, ३४३ उदयसार [क्षु०] उदयसिंहसूरि [ अन्य ग०] उदयसोम पं० [ क्षेम० ] उदेचन्द [ आचार्य० ] उद्योतनसूरि उद्योतमुनि २९२ १८९ २९१ ३३०, ३३२ २७९ १२५ ३८ २४५ ३५०, ३७८ उद्योतविजय [ बेगड़० ] उद्योत श्री उपयोग श्री ६४, ११०, ४०१, ४०२ २९१ ४२१ ३३३ ३८१ ऋद्धिमुनि ३०७ ऋद्धिशेखर १२५ ऋद्धिसमृद्धि ऋद्धिसागर ऋद्धिसार महो० [ रामलाल ] उपशमचित्त उम्मेदचन्द [ क्षेम० ] उम्मेदचन्द्र उम्मेददत्त महो० उम्मेदसागर ऋद्धिकमल [ कीर्तिरत्न० ] ऋद्धिनन्द [ सागरचन्द्र० ] ३२३ १५३ ऋद्धिसुन्दरी २७४ ऋषभदत्त ३९८ २७६ ३५७, ४०८, ४२० ४१३ १२८ ३३० ३५५ ३२३ ३७८ ३५० ३३७ ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३९३ ३८१ ४०३ ३२५, ३५५, ३५७, ३७४, ४१० ३२७, ३३१ १२९, ४०३ ५४ ३३४ १३१, ४०३ २२२ १२९ ३४६ १२९ ३२८, ३३२ ३६ ३३२ ऋषभदास वा० [ क्षेम० ] एकलक्ष्मी कनक कवि कनककलश कनककलश [जिनभद्र० ] कनककीर्ति कनककुमार गणि [ क्षेम०] कनककुशल [ अन्य ग० ] कनकतिलक गणि [क्षेम० ] १८१ ३६, ३९ ३३५ ३०३ २ परिशिष्ट-४ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ २३१ कनकतिलक उ० २२१ कमलसुन्दर [बेगड़०] २७६ कनकतिलक महो० [आद्य०] २९१ कमलसौभाग्य गणि [क्षेम०] ३३२, ३३४ कनकध्वज २१९ कमलहर्ष २३२ कनकप्रभ [जिनभद्र०] ३४०, ३४२ कमलाकर गणि १९० कनकप्रिय पं० [क्षेम०] ३३५ कमलाकुमारी [सा० विजयेन्द्रश्री] ४२३ कनकमाणिक्य पं० [क्षेम०] ३३३ करमसी [कवि] २३८ कनकमेरु पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ कर्पूरमुनि ३९८ कनकरंग वा० [क्षेम०] ३३४ कर्पूरसागर [राजसागरगणि] ३२५ कनकलक्ष्मी ४०५ कर्मचंद ३८१ कनकविजय [दिग्मंडला० कुशलचन्द्रसूरि] ३२४ करुणासागर ३७४ कनकविनय पं० [क्षेम०] ३३३ कल्परत्नसागर कनकविमल २२२ कल्याणऋद्धि [ग० प्रव०] १३४, १४०,४०३, ४०४ कनकविलास गणि [क्षेम०] ३२८, ३३२, ३३४ कल्याणकमल कनकश्री २०२ कल्याणकलश १२५ कनकसागर गणि [क्षेम०] ३३२ कल्याणकीर्ति २३५ कनकसिंह २३७ कल्याणचन्द पं० [क्षेमकीर्तिशाखा] ३३४ कनकसोम मु० वा० [जिनभद्र०] २२७, ३४१, ३४२ कल्याणचन्द्र २१८ कनकावली १२५, ४०२ कल्याणचन्द्र [आचार्य०] कनीराम [आद्य०] २९२ कल्याणचन्द्र [जिनकल्याणसूरि] ३१४,३१५ कपूरचन्द [आचार्य०] ३०३ कल्याणचन्द्र गणि [कीर्तिरत्न०] ३५१ कर्पूरप्रिय गणि उ० [क्षेम०] ३३३ कल्याणतिलक वा० २२२, २३१ कमलकीर्ति २२२ कल्याणदेव २३१ कमलतिलक उ० [सागरचन्द्र०] २९३, ३३८ कल्याणधीर वा० २२२ कमलनन्दन पं० [क्षेम०] ३३५ कल्याणनिधि १२९,४०३ कमलप्रभाचार्य [रुद्र०] २६४ कल्याणमती [मह०] कमलमुनि ३९८ कल्याणमुनि ३८४ कमलरत्न ३१० कल्याणविजय [सागरचन्द्र०] कमललक्ष्मी १५७ कल्याणविजय कमललाभ उ० २३२ कल्याणविलास २१२ कमलश्री १२५, १८५, ४०२, ४०६ कल्याण श्री १११,४०२ कमल श्री ४१९ कल्याणश्री ३९० कमलसंयम उ० ३४०, ३४१ कल्याणसागर [सागरचन्द्र०] ३३८ ३०३ ८ ३३८ ३५५ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४२९) 2010_04 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमुदश्री . ११० कल्याणसागर पं० [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३५१ कीर्तिविलास २१३ कल्याणसागर ३७४, ३७५ कीर्तिविलास [क्षेम०] ३२८ कल्याणहर्ष २३८ कीर्तिसागर २१७ कस्तूरचन्द [आचार्य०] ३०३ कीर्तिसागर [आचार्य०] ३०३ कानजी वा० [क्षेम०] ३३४ कीर्तिसागर [कीर्तिरत्र०] ३५० कांतिमुनि ३८४, ३९३, ३९८ कीर्तिसागर ३७४, ३७८ कान्तिसागर मुनि २६३, ३५०, ३६९, ३८० कीर्तिसागरसूरि २७० कान्हजी [कीर्तिसुन्दर] [जिनभद्र०] ३४३, ३४४ कीर्तिसार [जिनकृपाचन्द्रसूरि] ३७६ कालूगणि [तेरापंथ] ३६९ कीर्तिसुन्दर [जिनभद्र०] ३४२ काशीदास उ० [आचार्य०] ३०३ कीर्तिसूरि [आचार्य०] ३१८ काष्ठजिह्वा स्वामी [वैदिक सन्त] ३२४ कुमारगणि १३६ किरणकुमारी [शशिप्रभाश्री] ४१८ कुमुदचंद्र १२५, १३१ किशनोजी वा० [आद्य०] २९१ कुमुदलक्ष्मी १४५, ४०४ किशोरचंद [आचार्य १२५, ४०२ जिनकीर्तिसूरि का नाम] २९९ कुलचन्द्र किशोरचंद पं० [सागरचन्द्र०] ३३९ कुलतिलक १२६ कीकी [सा०] १९४ कुलतिलक गणि २९३ कीर्तिकलश गणि १२५ कुलतिलक [सागरचन्द्र०] कीर्तिकुशल [आचार्य०] ३०३ कुलधर्मा १८९,४०६ कीर्तिचन्द्र मु० वा० १११, ११७ कुलभूषण १३१ कीर्तिनिधान [आचार्य०] ३०३ कुलमण्डनसूरि [अन्य ग०] कीर्तिमण्डल १३१ कुलवर्धन २१९ कीर्तिमेरु पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ कुलश्री गणिनी १२५, ४०२ कीर्तिरत्नसूरिशाखा ३३६, ३४८ कुशलकीर्ति [जिनकुशलसूरि] १५०, १६०, कीर्तिरत्नसूरि २१७, २१८, २१९, २५६, १६४, १६८, १६९, ४०५ २८२, ३४९, ३७६ कुशलचन्द्र १२५ कीर्तिराज उ० २१८,३४० कुशलचन्द्र उ० ३२४ कीर्तिराज [कीर्तिरत्नसूरि] ३४८ कुशलचन्द्रसूरि [दिग्मंडला०] कीर्तिवर्धन ३८१ कुशलधीर २२२ कीर्तिवर्धन [कुशलो] वा० [आचार्य०] ३०३ कुशलनिधान [क्षेम०] कीर्तिविजय पं० [सागरचन्द्र०] ३३९ कुशलमुनि ३९७, ३९८ कीर्तिविजया [सा०] ३०९ कुशलविनय वा० [क्षेम०] ३३३ ३३७ ३८ ३२४ ३३१ (४३०) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ १३० ३४९ कुशलविलास २१३ क्षमाप्रमोद [सागरचन्द्र०] ३३७ कुशलश्री ग० प्रव० १३९, १४०, ४०४ ३८४, ३९८ कुशलसागर [जिनभद्र०] ३४२ क्षमामूर्ति वा० [बेगड़०] कुशलसिंह [जिनभद्र०] ३४१ क्षमामेरु [सागरचन्द्र०] ३३८ कुशलो पं० [क्षेम०] ३३४ क्षमारंग [जिनभद्र०] ३४२ कुसुमसागर ३७४ क्षमावर्धन पं० [क्षेम०] ३३५ कूर्चपुरीयगच्छ क्षमासागर ३७४ कृपाचंद ३६३, ३८४ क्षमासुन्दर उ० [बेगड़] २७२, २७३, २७४, २७८ कृपाचन्द्रसूरि ३५९ शान्तिनिधि [सा०] कृपाचन्द्रसूरि समुदाय ३५२ क्षान्तिरत्न वा० [कीर्तिरत्र०] केवलप्रभा [सा०] १३९, ४०३ शान्तिविमल पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ केवलप्रभा [ग० प्रव०] १५७, ४०५ क्षेत्रमूर्ति २१४ केवलमुनि ३९८ क्षेमचन्द्र [जिनचन्द्रसूरि] ३१० केवल श्री [सा०] ११२, ४०२ क्षेमकीर्ति गणि उ० [क्षेम० के प्रवर्तक] ३२७, ३३१, केशर पं० [क्षेम०] ३३४ ३३२, ३३३ केशरमुनि ३८४, ३८६, ३८८, ३८९, क्षेमकीर्ति [जिनचन्द्रसूरि] ३९१, ३९५, ३९८ क्षेमकीर्ति १३९, १४९, १६६, १९८ केशरीचंद [जिनकीर्तिसूरि] २५५ क्षेमकीर्ति [शाखा, उपशाखा] ३२७,३३६, केशवदास उ० [आद्य०] २९१ ३४८, ३५३ केसरबाई [उपयोगश्री] ४१३ क्षेमध्वज गणि [क्षेम०] ३३२ कैलाशसागर उ० गणाधीश ३७१, ३७४ क्षेमधाड़ शाखा [क्षेमकीर्ति शा०] २५७, ३२७ कोलाकुमारी [हेमश्री] ४२४ क्षेममाणिक्य [क्षेम०] कंवलागच्छ ३६४ क्षेमराज क्षमाकमल पं० [क्षेम०] ३३४ क्षेमराज [क्षेम०] क्षमाकल्याण मु० उ० महो० १९, १३६, क्षेमरत्न पं० [क्षेम०] ३३३ १९७, २१०, २११, २१७, २२१, २४०, २४१, क्षेमसागर ३७४, ४१० २६८, २८८, ३२९, ३५३, ३४५, ३५६, ३७४ क्षेमसोम [क्षेम०] ३२८ क्षमाचन्द्र १२६ क्षेमहंस गणि [क्षेम०] ३२७,३३२ क्षमाधर्मगणि [क्षेम०] ३३२ क्षेमहंस [जिनभद्र०] ३४० क्षमाधीर २३२ खंदक [ऋषि] २८६ क्षमाधीर [क्षेम०] ३३४ खंभराय [जिनचन्द्रसूरि] १६६ क्षमानन्दन वा० [क्षेम०] ३३४ खरतरवसही २८७, ३४४ ३३१ २५ ३२७ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४३१) 2010_04 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ २३५ . खरहत्थ [जिनधर्मसूरि] खींवोजी [क्षेम०] खुशालचंद [उपा० क्षमाकल्याण] खुशाल [क्षेम०] खुशालचन्द पं० [क्षेम०] खुस्यालचंद [आचार्य०] खेतसी खेतसी [जिनसिंहसूरि] खेतसी [जिनराजसूरि] खेमचन्द [आचार्य०] खेमराजगणि [क्षेम०] गंगादास [कीर्तिरत्न०] गंगाराम वा० [क्षेम०] गंगाराम [जिनभद्र०] गच्छकीर्ति गच्छवृद्धि गजकीर्ति गजमुनि गजसार गजसुकुमाल गजेन्द्रबल गणदेव गणपति [उपकेश ग०] गणेशचन्द्र [जिनधरणेन्द्रसूरि] गतमोह गम्भीरचन्द पं० [क्षेम०] गंभीरमुनि गयवरमुनि गिरधारी [सागरचन्द्र०] गिरधारीलाल [गिरिवर मुनि] गीताकुमारी [ज्ञानश्री] गुणकल्याणगणि वा० [सागरचन्द्र०] २९८ गुणकीर्ति ३३४ गुणचन्द्र [दिग्मम्०] ३२५ ३५३ गुणचन्द्र ३३३, ३३४ गुणचन्द्र ३६५, ३७४ ३३४ गुणचन्द्रगणि [देवभद्रसूरि] ३७, ४७ ३०५ गुणचन्द्र गणि ५४, ५८, ५९ २३२ गुणचन्द्र भांडा० गणि ६४ २३३ गुणचन्द्रसूरि २६१, २६२ २३५ गुणधर ३०३ गुणनदन वा० [सागरचन्द्र०] ३३६, ३३७ ३३२ गुणप्रभ उ० २६२ ३५१ गुणप्रभसूरि [बेगड़०] २२३ ३३४ गुणप्रभसूरि [मधु०] २६० ३४२ गुणप्रभसूरि [आद्य०] २८९ १३९ गुणप्रमोदगणि वा० [कीर्तिरत्र०] ३४९ १२९, ४०३ गुणभद्रगणि वा० ५४ १२८ गुणभद्र गणि १२० ३९८ गुणमुनि ३८३, ३९८ २२० गुणरत्न २२२ २८६ गुणरत्न [कीर्तिरत्र०] ३५० १३१ गुणरत्नसूरि [कीर्तिरत्न०] २१८, ३४८, ३४९ गुणरत्नाचार्य २८३ गुणलाभ [पिप्पलक०] २८५ ३२२ गुणवन्त ३५७, ३७४ १२८ गुणवर्धन ५४ ३३४ गुणवर्धनगणि वा० [क्षेम०] ३३२, ३३३ ३९८ गुणवर्धन वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ ३९८ गुणविनय [मु० ग० उ० महो०] ५३, २२७, २२८, ३३९ ३२७, ३२८, ३३२ ३८५ गुणशील वा० ४१२ गुणशेखर १२७, १२९ ३३८ गुणशेखर [जिनभद्र०] ३४१ ८६ १११ (४३२) परिशिष्ट-४ ___ 2010_04 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणश्री ४२२ ४१६ १२८ गुणशेखरसूरि २६२ चतुर्भुज [आचार्य०] ३०३ ५४, ६२, ४०१ चन्दनकुमारी [सुलोचनाश्री] गुणसमृद्धि [मह०] ४०५ चन्दनबाई [छगनसागर की माता] ३५८ गुणसागर १२५ चन्दनमूर्ति १५७ गुणसागर उ० [बेगड़०] २७६ चन्दनश्री [मह०] १४५,४०४ गुणसागरगणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ चन्दनश्री [सा०] ४१९ गुणसुन्दरसूरि २६२, २६४ चन्दनसुन्दरी [सा०] १२६,४०३ गुणसेन १२५ चन्दनसुन्दरी [गणिनी] १४५ गुणसेन [सागरचन्द्र०] ३३८ चन्द्रकलाश्री गुणाकरसूरि [रुद्र०] २६४ चन्द्रकीर्ति गणि गुणानन्द ३५५ चन्द्रकीर्ति उपा० वा० [कीर्तिरत्न०] ३४९, ३५१ गुप्तिधर्म [क्षेम०] ३३४ चन्द्रतिलक [उपा०] १२८, १३१, १३९ गुप्तिश्री ४२४ चन्द्रप्रभ १११ गुमानमुनि ३८४, ३९८ चन्द्रप्रभसागर ३७०, ३७२, ३७५ गुमानसागर ३७४ चन्द्रप्रभाश्री ४१६,४१७ गुलाबचंद [आचार्य०] ३०३ चन्द्रमाला गणिनी १२४ गुलाबचन्द पं० [क्षेम०] ३३४ चन्द्रमूर्ति १४५ गुलाबचंद [गुलाबमुनि] ३८५ चन्द्रवर्धन [जिनभद्र०] ३४१ गुलाबमुनि ३८६, ३९०, ३९५, ३९८ चन्द्रश्री ११२, ४०२ गोकल [सागरचन्द्र०] ३३८ चन्द्रसागर गोधू [क्षेम०] ३३४ चन्द्राकुमारी [दिव्यप्रभाश्री] ४१९ गोपाल पं० [क्षेम०] ३३४ चन्द्रोदयगणि [जिनचन्द्रसूरि] २५९ गोविन्दसूरि ३०९ चम्पालाल [पूर्णानन्दसागर] ३७२ गौतमस्वामी [गणधर] १२१, १२२, १२४, १४१, चम्पाश्रीजी [मह०] ४११, ४१८,४१९ १४२, १८१, १८७, १८९ चरणकुमार गौतमचन्द्र ३६५, ३७४ चरणमति ६५ गौतमसागर ३७५ चरणलाभ [जिनभद्र०] ३४१ चक्रेश्वरसूरि ३६ चांणोद गुरांसा ३२३ चतुरनिधान पं० [सागरचन्द्र०] ३३९ चांपोजी वा० [क्षेम०] ३३४ चतुरसागर ३७८ चारित्रउदय [जिनरंग०] ३१३, ३१४ चतुरहर्ष पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ चारित्रउदय पं० [कीर्तिरत्न०] ३५१ चतुर्दशीपक्ष [खरतर-मधु० का एक नाम] २६० चारित्रकीर्ति १३९ ३७५ २३२ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४३३) 2010_04 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रगिरि चारित्रतिलक चारित्रधर्मगणि [ सागरचन्द्र० ] चारित्रप्रभसूरि चारित्रमती गणिनी चारित्रमाला गणिनी चारित्ररत्न चारित्रराज [ रुद्र० ] चारित्रलक्ष्मी चारित्रलाभ चारित्रवर्धन उपा० [ लघुशाखा ] चारित्रविजय चारित्रशेखर चारित्रसागर चारित्रसागर उपा० [जिनभद्र० ] चारित्रसुन्दर [जिनचारित्रसूरि ] चारित्रसुन्दरी [ क्षुल्लिका ] चारित्रसुन्दरी गणिनी चारित्रोदय वा० [सागरचन्द्र० ] चारुदत्त चारुधर्मगणि वा० [सागरचन्द्र० ] चित्तसमाधि चिदानन्द चिमनमुनि चिमनीराम [चूरू के यति] चिमनो पं० [ क्षेम० ] चिदानन्दसूरि [ अन्य ग० ] चिन्तामणि [ बेगड़० जिनसुन्दरसूरि ] चुन्नीलाल [जिनचारित्रसूरि ] चुन्नीलाल [आचार्य० ] चुन्नीलाल [ त्रैलोक्यसागर ] चैतन्यसागर (४३४) 2010_04 १२५ चौथमलजी [ स्थानकवासी आचार्य ] १५० छगनमुनि ३३८ छगनसागर छोगमल [छगनसागर ] जगचन्द्र [भाव० ] जगच्चन्द्र गणि जगतिलकसूरि २६० १२५, ४०२ १२४, ४०२ १२६ २६४ जगदेवी जगमति १४९, ४०४ २२२ ३६, २३१ २३२ १३१ ३५५ ३४६ २५५ १८१ १२५, ४०२, ४०६ ३३७ १५७ ३३७ १३०, ४०३ ३५८, ३६२, ३७४ ३७२ २७८ ३९८ ३८५ ३३४ २५५ ३०३ ३६०, ४१० ३७४ जगश्री जगसी वा० [ कीर्तिरत्त्र० ] जगहित जडावबाई [ज्ञानश्री ] जतनलाल यति [ स्वतंत्रता सेनानी ] जतन श्री जम्बूस्वामी [ गणधर ] जयकीर्ति [आचार्य० ] जयकीर्ति पं० [कीर्तिरन० ] जयकुमार वा० [जिनरंग० ] जयचन्द्र जयचन्द्र जयचन्द्र वा० [ क्षेम० ] जयचन्द्र उ० [ जिनभद्र० ] ३६३, ३६६ ३९८ ३७४, ४१०, ४१२, ४२२ ३५८ २९४ १४५, १६० २६१ ४०१ ११७, ४०२ ५४, ४०१ ३५० ५४ ४२२ २५९, ३४७ ४१३ ५, १८१ ३०३, ३०४ ३५०, ३५१ जयदत्त [ चैत्यवासी ] जयदत्त मुनि जयदत्त वा० [ क्षेम० ] जयदेव गणि जयचन्द्रसूरि जयतिलकसूरि [ आगमिकगच्छीय आचार्य ] जयदेवाचार्य जयदेवी जयधर्म महो० ३१२. ४९ २०२ ३३४ २५८, ३४७ ३८ ३८ ४७ ३५६ ३३५ १६१ ४५, ४६, ४८, ६२ ६५ २०२ परिशिष्ट- ४ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ २९२ जयधर्मगणि उ० १८१ जयसिंहसूरि [बेगड़०] २७२, २७३, २७४ जयनंदन २२२ जयसुन्दर [जिनभद्र०] ३४४ जयपद्म [जयचन्द्र] ३४७ जयसुन्दरी १५३, ४०५ जयप्रभा १३९, ४०३ जयसेन गणि जगप्रिय १९३ जयसोम उपा० महो० ५३, २११, २१७, जयमंजरी [क्षुल्लिका] १४९, ४०४ २२७, २२८, २२९, ३२७, ३९६ जयमति ६४ जयसोमगणि [क्षेम०] ३३२ जयमंदिर २३२ जयसौभाग्यगणि [कीर्तिरत्न०] ३५१ जयरंग [जयतसी] [जिनभद्र०] ३४१ जयहंस १५३ जयरत्न [आचार्य.] ३०३ जयानंदमुनि ३९४,३९६,३९८ जयरत्नसूरि [बेगड़] २७२ जयानंदसूरि [रुद्र०] २६१ जयरुचि पं० [आद्य०] २९२ जयानन्दसूरि [बेगड़०] २७०, २७२ जयरूप पं० [क्षेम०] ३३४ जवाहरलाल ३२३ जयर्द्धि मह० १५७, १६१, १६८, १७५, जसकुशल [आद्य०] २०५, ४०६ जसाजी [भगवानसागर के पिता] ३५८ जयलक्ष्मी १२९, ४०३ जिणनाग जयलाभ [जिनभद्र०] ३४१, ३४७ जितयशाश्री ३७२ जयवन्त [आचार्य] ३०३ जिनउदयसागरसूरि ३६८,३७५ जयवंतश्री ४२३ जिनऋद्धिसूरि ३६५, ३८५, ३८७, ३९०, जयवल्लभ मु० ग० १३१,१५४,१५६, ३९३, ३९८ १६४, १६८ जिनकल्याणसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३१४, जयवल्लभ [जिनभद्र०] ३४६ ३१५, ३१६ जयवल्लभ महो० [बेगड़.] २७९ जिनकवीन्द्रसागरसूरि ३६७, ३६८, ३७१, ३७४ जयशील ५४ जिनकांतिसागरसूरि ३६८, ३६९, ३७२, ३७३, जयश्री १९३, ४०६ ३७४, ४१५, ४२३ जयसागर उपा० १९६, २१८, २१९, २८३, जिनकीर्तिसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८४, २८५ ३४०, ३४४, ३४५, ३४६ जिनकीर्तिसूरि [आद्य०] २८८, २९२ जयसागर ३७७ जिनकीर्तिसूरि [जिनकृपाचन्द्रसूरि] ३७७ जयसागरसूरि [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३७८ जिनकुशलसूरि १४९, १५०, १६५, १६६, जयसार [क्षुल्लक] १८१ १६८, १६९, १७०, १७१, १७४, १७५, १७६, १७७, जयसिंह ४९ १७८, १७९, १८१, १८२, १८३, १८५, १८६, १८७, जयसिंह [साधु] १५२ १८८, १८९, १९०, १९१, १९३, १९४, १९५, १९६, खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४३५) 2010_04 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ १९७, २०२, २०३, २०४, २०९, २१०, २११, २१४, जिनचन्द्रसूरि [रुद्र०] २६१ २१५, २२१, २२३, २२९, २३९, २४५, २४९, २५०, जिनचन्द्रसूरि [लघुशाखा] ___३२७, ३३१, ४०६ जिनचन्द्रसूरि [बेगड़०] २६८, २७१, २७२ जिनकृपाचन्द्रसूरि २१८, २५६, ३४८, ३५०, जिनचन्द्रसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८३, २८५, ३५१, ३७६, ३७८, ३७९, ३८० २८६, २८७ जिनगुणप्रभसूरि [बेगड़०] २६८, २७४, २७५, २७६ जिनचन्द्रसूरि [आद्य०] २८८, २९०, २९१ जिनक्षमारत्नसूरि [आद्य०] २८८, २९३ जिनचन्द्रसूरि [भाव०] २९३, २९४, २९५ जिनक्षमासूरि [भाव०] २९३, २९५ जिनचन्द्रसूरि [आचार्य०] २९९, ३००, ३०१, ३०६ जिनक्षेमचन्द्रसूरि [बेगड़०] २६८, २७९ जिनचन्द्रसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३११, ३१२, ३१४,३१५ जिनचन्द्रसूरि [प्र० जिनेश्वर०पट्ट०] १, ८, ९, जिनचन्द्रसूरि [मण्डो०] ३२३, ३२७ १२, १४, १८, २०, ३७, ४०० जिनचन्द्रसूरि मणिधारी १२, १३, ५१, ५४, ५५, जिनचारित्रसूरि २५५, २५७, ३३०, ३३१, ३३७, ३४७, ३७७ ५६, ५७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६२, १२१, १२७, १६४, २६३, ४०१ जिनजयशेखरसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३१४ जिनजयसागरसूरि ३७८ जिनचन्द्रसूरि [जिनप्रबोध० पट्ट०] १४६, १४९, १५१, जिनतिलकसूरि [लघु खर०] २६७ १५२, १५४, १५६, १५७, १५८, १६१, १६२, १६५, जिनतिलकसूरि [भाव०] २९३, २९४ १६८, १६९, १७०, १७१, १७२, १७६, १७७, १७९, जिनदत्तसूरि [युगप्रधान] १, १२, १३ १५, ४०, १८०, १८१, १८२, १८३, १८५, १८६, १९५, २०२, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, २०९,४०४,४०५, ४०६ १२ १३.५४.५७.६१,६२, ६५,७०,१०८, १०९, जिनचन्द्रसूरि [जिनलब्धिसूरि पट्ट०] २१०, २११ ११०, १२२, १२८, १३०, १४१, १४२, १४५, १५८, जिनचन्द्रसूरि [जिनभद्र० पट्ट०] २१९, ३४०, १६१, १६८, १७३, १७५, १८१, १८९, १९७, २१२, ३४१, ३४४, ३४९ २२०, २२८, २२९, २३४, २४६, २६१, २६३, ४०१ जिनचन्द्रसूरि [युगप्रधान] २२२, २२३, २२४, जिनदेव ग० २३१, २३३, २७५, २९९, ३०२, जिनदेवसूरि [लघु खर०] ३०५, ३०६, ३०७, ३१९, ३४२ जिनदेवसूरि [रुद्र०] २६१ जिनचन्द्रसूरि [जिनरत्न० पट्ट०] २३८, २४०, जिनदेवसूरि [बेगड़०] २७८ २४१, ३२८, ३२९ जिनदेवसूरि [पिप्पलक०] २८७ जिनचन्द्रसूरि [जिनलाभ० पट्ट०] २४५, ३५३, जिनदेवसूरि [आद्य०] ३५४, ३८१ जिनधर्म जिनचन्द्रसूरि [जिनहंस० पट्ट०] | २५५, ३०० जिनधर्मसूरि [बेगड़०] २६८, २७१, २७३ जिनचन्द्रसूरि [जिनविजयेन्द्र० पट्ट०] २५९ जिनधर्मसूरि [पिप्पलक०] . २८०, २८५, २८६ ६२ २६६ २८८ (४३६) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनधर्मसूरि [आद्य०] २८८, २९१ जिनभद्रसूरिशाखा २८३, ३३६ जिनधर्मसूरि [आचार्य०] २९८, २९९ जिनभद्रसूरि [रुद्र०] २३१ जिनधरणेन्द्रसूरि २५९, ३१७, ३२२, ३२६ जिनभद्रसूरि [लघु खरतर०] २६७ जिननंदिवर्धनसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३१३, ३१७ जिनमणिसागरसूरि ३५८, ३६२, ३७२, ३७४, ३९१ जिनपतिसूरि १, १२, १३, ३४, ३६, ५४, ६२ जिनमत ग० उपा० । ६५, ६६, ८६ . ६४, ६५, ६६, ६७, ७०, ७२, ७७, ८३, जिनमति [सा०] ४७, ४९, ४०१ ८६, ८७, ८८, ९८, १००, १०२, १०४, जिनमहेन्द्रसूरि २८७, ३१८, ३१९, ३२०, १०९, ११२, ११३, ११६, ११७, ११८, ३२१, ३२५, ३३०, ३८१ ११९, १२०, १२१, १२२, १२३, १२४, जिनमहोदयसागरसूरि । ३७०, ३७२, ३७५ १२५, १२७, १३५, १३६, १३९, १७७, जिनमाणिक्यसूरि २२०, २२१, २२२, २२३, १८९, १९२, २०५, २६५, ४०१, ४०२ २२९, २७५, २९३ जिनपद्मसूरि १९६, २०२, २०५, जिनमाणिक्यसूरि [आद्य०] २८८, २९० २०७, २०८, २०९, २१० जिनमित्र ६२ जिनपद्मसूरि [भाव०] २९३, २९५, २९६, ३१८ जिनमुक्तिसूरि [मण्डो०] ३२०, ३२१, ३२२, जिनपाल उपा० १८, ३४, ३५, ३६, ५२, ६०, ३२५, ३४७ ६२, १११, ११२, ११३, ११४, ११६, जिनमेरुसूरि [लघु खरतर०] २६६, २६७ ११७, १२३, १२४, १२५, १२८, २६२ जिनमेरुसूरि [बेगड़०] २६८, २७२, २७३ जिनप्रबोधसूरि __ १३५, १३६, १३९, जिनयश:सूरि ३६२, ३८२, ३८७, ३८८, १४०, १४३, १४४, १४५, १४६, १५०, १५१, १६५, ३९५, ३९८ १६६, १७१, १७२, १९९, २६५, ४०३, ४०४ जिनयुक्तिसूरि [आचार्य०] ३०० जिनप्रभसूरि [लघु०] १८, २२०, २६४, २६५ जिनरंगसूरि [जिनरंग० के प्रवर्तक] जिनप्रभाचार्य [जिनदत्तसूरि शिष्य] ४६ जिनरंगसूरि शाखा २१८, ३०९ जिनप्रमोदसूरि [भाव.] २९३, २९४ जिनरत्नसूरि, जिनरत्नाचार्य जिनप्रिय [मुनि उपा०] ६२, ११२ [द्वि० जिनेश्वरसूरि शिष्य] १२३, १२६, १३१, जिनफतेन्द्रसूरि [भाव०] २९३, २९६ १३५, १३९, १४०, १४४, १४६, १७१, २१३, २१४ ६२ जिनरत्नसूरि [द्वि० जिनराज० पट्ट०] २३७, २३८, जिनबुद्धिवल्लभसूरि [आद्य०] २८८, २९१ २४०, २९०, ३२८ जिनभक्तिसूरि २४०, २४१, २४२, ३४३, ३५२ जिनरत्नसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८५ जिनभद्रसूरि [धनेश्वरसूरि] ९, १३, ४०० जिनरत्नसूरि [ भाव०] २९३, २९४ जिनभद्र [मु० आचार्य] ५४, ७२, १११, ११२ जिनरत्नसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३१६, ३१७ जिनभद्रसूरि २१६, २१८, २१९, ३३६, ३४०, जिनरत्नसूरि [मोहन०समु०] ३६५, ३८७, ३९०, ३४२, ३४४, ३४६, ३४८, ३४९ ३९५, ३९८ .३०९ जिनबन्धु खरतरगच्छ का बृ (४३७) 2010_04 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ २६७ जिनरथ ५४ जिनशिष्य जिनरक्षित ३७, ४६, ४८ जिनशीलसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८४ जिनराजसूरि [प्रथम] २१२, २१५, २१६, २१७, जिनशेखरसूरि सा० मु०उ०आ० [रुद्र०] २२, ३८, २८०, ३३६, ३४०, ३४४, ३४६ ३९, ४३, ४५, ४७, २६१, जिनराजसूरि [द्वितीय] २३३, २३५, २३६, २३७, २६२, २६३, २६४ २९७, ३०४, ३०७, ३०९, ३२८ जिनशेखरसूरि [बेगड़०] २६८, २६९, २७० जिनराजसूरि [रुद्र०] २६१ जिनश्री [सा०] ४९, १११, ४०१, ४०२ जिनराजसूरि [लघु खर०] २६७ जिनश्री प्रवर्तिनी ४२३ जिनलब्धिसूरि [जिनकुशल०पट्ट०] २०८, २०९, जिनसमुद्रसूरि [आचार्य०] २१९, २२० २१०, २११ जिनसमुद्रसूरि [लघु खरतर०] २६७ जिनलब्धिसूरि [बेगड़०] २७८ जिनसमुद्रसूरि [बेगड़०] २६८, २७७, २७८ जिनलब्धिसूरि [आद्य०] २८८, २९०, २९२ जिनसमुद्रसूरि [आद्य०] जिनलब्धिसूरि [ भाव०] २९३, २९६ जिनसमुद्रसूरि [भाव०] २९३, २९४ जिनललितसूरि [जिनरंग०] ३०७, ३११ जिनसंभवसूरि [आद्य०] २८८, २९१ जिनलाभसूरि २४१, २४२, २४५, ३१९, ३२४, जिनसर्वसूरि [लघुखर०] ३२९, ३५२, ३५३, ३८१ जिनसागर ६२ जिनवर्धनसूरि २१६, २१८, २८०, २८२, २८७, जिनसागरसूरि [बेगड़०] २७८ २८८, ३३६, ३४०, ३४४, ३४६, ३४८ जिनसागरसूरि [पिप्पलक०] २७९, २८०, जिनवर्धमानसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८५ २८३, २८७ जिनवल्लभसूरि [ग० आचार्य] १, १२, १३, १४, जिनसागरसूरि [आचार्य०] २३३, २३५, २३६, १९, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, २९७, २९८, २९९, ३०२, ३०४, ३०५, ३०७ ३१, ३२, ३३, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१, ४२, जिनसिंहसूरि [यु० जिनचन्द्र० पट्ट०] २२८, २३०, ४३, ४५, ९२, ११५, १२३, १३०, १३६, १४२, २३१, २३३, २३४, २३५, २३६, २९७, ३०४ २६०, २६१, २६२, ४०१ जिनसिंहसूरि [खरतर० लघु०] २६५ जिनविजय २५८, ३०७, ३८० जिनसिंहसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८४, २८५ जिनविजयसूरि [आचार्य०] २९९, ३०० जिनसिंहसूरि [आद्य०] २८८, २८९ जिनविजयसेनसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३१७ जिनसिद्धिसूरि . ३०१ जिनविजयेन्द्रसूरि २५६, २५७, २५९, ३३१, जिनसुखसूरि २३९, २४०, ३४३, ३८१ ____३३२, ३४७ जिनसुखसूरि शाखा ३१८ जिनविजयेन्द्रसूरि [तपागच्छीय आचार्य] ३१७ जिनसुखसूरि [भाव०] २९३, २९४, २९५ जिनविमलसूरि [जिनरंग०] ३०९ जिनसुन्दरसूरि [बेगड़०] २६८, २७८, २७९ जिनशिवचन्द्रसूरि [पिप्पलक०] २८० जिनसुन्दरसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८३ परिशिष्ट-४ (४३८) 2010_04 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ ३०३ जिनसौभाग्यसूरि २४७, २४८, २५१, २५३, जिनेश्वरसूरि [बेगड़०] २६८, २६९, २७६, ३१८, ३४७ २७७, २७८, २७९ जिनसोमप्रभसूरि [आचार्य०] ३०१ जिनोदयसूरि १८५, २१०, २११, २१२, जिनहंससूरि [प्रथम] २२०, २२१, २३५ २१४, २१५, ३३६ जिनहंससूरि [द्वितीय] २५१, २५२, २५३, २५४, जिनोदयसूरि [रुद्र०] २५५, ३३०, ३३६, ३४७ जिनोदयसूरि [बेगड़०] २६८, २७८, २७९ जिनहंससूरि [रुद्र०] २६१ जिनोदयसूरि [आद्य०] २८८, २९१ जिनहरिसागरसूरि ३६०, ३६४, ३६६, जिनोदयसूरि [भाव०] २९३, २९४ ३६८, ३६९, ४१५ जिनोदयसूरि [आचार्य०] ३०० जिनहर्ष ग० [क्षेम०] ३२७, ३२८, ३२९, ३३२ जिनोदय [सागरचन्द्र०] ३३८ जिनहर्षसूरि २४६, २४७, ३१८, ३१९, ३२९, जीतविजय ३८३ ३३०, ३५४, ३५६, ३८१ जीतसागर पं० [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३७८ जिनहर्षसूरि [पिप्पलक०] २८०, २८४, २९० जीवकलश [जिनभद्र०] ३४६ जिनहर्षसूरि [आद्य०] २८८, २८९ जीवण [आचार्य.] जिनहित मु० वा० उपा० जीवदेवाचार्य ४८ [जिनपति शिष्य] ६२, १०७, १११, ११७, ११८, जीवन [क्षेम०] ३३४ ___ १२१, १२४, १२५, २०५ जीवनमुनि ३९८ जिनहितसूरि [लघु खरतर०] २६६, २६७ जीवरंग जिनहेमसूरि [आचार्य०] . ३०१ जीवहित १२६ जिनाकर ६२ जीवानन्द १४० जिनाक्षयसूरि [जिनरंग०] ३०९, ३११ जीवानन्द उपा० जिनागर गणि १०२ जुहारमल [भाव०] २९५, २९६ जिनानंदसागरसूरि ३६६, ३६८ जेठीबाई [जितयशाश्री] जिनेश्वरसूरि [प्रथम] १, २, ३, ४, ५, जैतसी [? जयचन्द] वा० [क्षेम०] ३३४ ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, जैवंतो [क्षेम०] ३३४ १४, १६, १८, २०, ४०, ४०० झवेरसागर [तपागच्छीय मु०] ३२५, ३५७ जिनेश्वरसूरि [कूर्चपुर ग०] २१, २३, २४, ३४, ज्ञानकलश पं० २११, २१२ ३६, ३७, ३८, २६२ ज्ञानकीर्ति जिनेश्वरसूरि [द्वितीय] १२३, १२४, १२६, ज्ञानकीर्ति वा० [कीर्तिरत्न०] ३४९ १२७, १३३, १३४, १३५, १३६, ज्ञानकुशल [आचार्य०] ३०६ १३९, १४२, १४६, १५४, १८३, ज्ञानचन्द्र [आचार्य०] ३०६ १८९, २६५, ४०२, ४०३ ज्ञानचन्द्र [दिग्मम्०] ३२५ २३५ ४९ ३७२ १८७ (४३९) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ३६४ २२५ ३३५ ज्ञानतिलक [जिनभद्र०] ३४३ ज्ञानसुन्दर उपा० [बेगड़०] २७४ ज्ञानतिलक [आचार्य०] ३०३,३०५ ज्ञानसुन्दर [जिनभद्र०] ज्ञानदत्त १५७ ज्ञानसुन्दर [कंवलागच्छीय मु०] ज्ञानधर्म उपा० [आचार्य०] २९८, ३०६ ज्ञानहर्ष २३२ ज्ञाननन्दन २११, २१२ ज्ञानानन्द ३५५ ज्ञाननंदनगणि पं० [सागरचन्द्र०] ३३८, ३३९ टीकमचन्द्र [सागरचन्द्र०] ३३७ ज्ञाननिधानगणि [सागरचन्द्र०] ३३८ ठाकुरसी वा० [आचार्य०] ३०३ ज्ञानप्रमोद [सागरचन्द्र०] ३३६, ३३७ डूंगरसी पं० [क्षेम०] ३३४ ज्ञानमंदिर [बेगड़०] २७६ तत्त्ववल्लभ पं० [क्षेम०] ज्ञानमन्दिर वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ तनसुख [आचार्य०] ३०३ ज्ञानमंदिर [जिनभद्र०] ३४१ तपसिंह १५२ ज्ञानमाला [ग० प्रव०] १२४, १४०, ४०२ तपागच्छ ३१८, ३१९ ज्ञानमूर्तिगणि वा० [क्षेम०] ३३३ तपोरत्न ग०उ० [क्षेम०] ३२७, ३२८, ३३१, ३३३ ज्ञानमेरु [जिनभद्र०] ३४२ तरुणकीर्ति मु० गणि १५७, १९३ ज्ञानराज २२२ तरुणप्रभसूरि १९८, २१० ज्ञानलक्ष्मी [सा०] १५७, ४०५ तरुणप्रभाचार्य १५०, १९३, १९४, १९५, ज्ञानलाभ [आचार्य०] ३०३ १९६, २०२, २०९, २११ ज्ञानवल्लभ [जिनभद्र०] ३४४ तारकमुनि ३९८ ज्ञानविजय पं० [सागरचन्द्र०] ३३९ ताराकुमारी [तिलकश्री] ४१६ ज्ञानविमल २३१ तारामुनि ३९८ ज्ञानविमल उपा० [जिनभद्र०] ३४०, ३४५, ३४६ तिलककमल २३१ ज्ञानविलास २३१ तिलककीर्ति ज्ञानविलास पं० [सागरचन्द्र०] ३३९ तिलकधीर २४० ज्ञानश्री ४९, ४०१ तिलकधीर [क्षेम०] ३३० ११२, ४०२ तिलकधीर [त्रिलोकचंद्र] [क्षेम०] ३३२ ज्ञानश्री [सा० प्रव०] ३६६, ३८८, ४१२, ४१५ तिलकभद्र [कीर्तिरत्न०] ३५० ज्ञानश्री ४१३, ४२०, ४२२, ४२५ तिलकप्रभ गणि ४१२,०२, १२४ ज्ञानसमुद्र २२२ तिलकप्रभसूरि [पूर्णिमागच्छीय] ९२, ९३, ज्ञानसमुद्र वा० [बेगड़०] २६२, २७४ ९४, ९५, ९७ ज्ञानसागर २३२ तिलकश्री [प्रव०] ज्ञानसागर [आचार्य०] ___ ३०५ तिलकसुन्दर [सागरचन्द्र०] ३३८ ज्ञानसुन्दर वा० [बेगड़०] २७२, २७३ तिलोकमुनि ३७८ १४१ ज्ञानश्री ४१६ (४४०) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोकसागर तीर्थसागर तीर्थयासागर तेजकरण [ तोलाराम ] [जिनकांतिसागरसूरि ] तेजकीर्ति गणि तेजश्री तेजसागर तेजसी [आचार्य० जिनचन्द्रसूरि ] तेजसी [क्षेम० ] तेजसुन्दर तेजोरङ्ग गणि [ जिनभद्र० ] त्रिदशकीर्ति ग० वा० त्रिदशानन्द त्रिभुवनकीर्ति त्रिभुवनसेन त्रिभुवनहित त्रिभुवनानन्द त्रिलोकचंद [ जिनभद्र० ] त्रिलोकनिधि त्रिलोकहित त्रिलोकानन्द त्रिस्तुतिक गच्छ त्रैलोक्यसागर मु० गणा० दयाकमल पं० [सागरचन्द्र० ] दयाकमल [जिनभद्र० ] दयाकलश [ जिनभद्र० ] दयाकुशल दयाकुशल वा०. [आचार्य० ] दयाकुशल [ क्षेम० ] दयाचन्द वा० [ क्षेम० ] खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास ३७८ दयातिलकगणि [ क्षेम० ] ३७४ दयाधर्म ३७३ ३०० ३३४ २३२ ३४५, ३४६ १२९, १५१ १३१ १५७ २२२ १५९ दयासिंह गणि [ क्षेम० ] १३१ दयासुन्दर [ मण्डो०] ३४१ दाखाबाई [ विचक्षणश्री ] १२८ दानराज १२६ १२६ ३२५ ३५८, ३५९, ३६०, ३६१, ३६६, ३७४, ३७५, ४१२ ३३७ 2010_04 दयाधर्म वा० [ सागरचन्द्र० ] दयानंदन [ जिनभद्र० ] ३६९ दयामूर्ति पं० [ क्षेम० ] २११ ४२१, ४२२ ३५८, ३७४ दयाराज [ क्षेम० ] दयालमुनि ३४१ दयाविजय [ आचार्य० ] दयाविमल [ आचार्य० ] दयाविमल दर्शनमुनि दयाशेखर दयाश्री दयासागर पं० [ आद्य० ] दयासागर वा० [ सागरचन्द्र० ] दयासिंह दानविनयगणि [ क्षेम० ] दानविशाल वा० [ क्षेम० ] दानविशाल [ कीर्तिरत्न० ] दानसार दानसागर गणि उपा० [जिनभद्र० ] दामोजी वा० [आद्य० ] दिवाकराचार्य दिवाकराचार्य [रुद्र०] ३४२ २३२ दिव्यगुणाश्री २९८ दिव्यप्रभाश्री ३३४ ३३४ दीपचन्द पं० [ क्षेम० ] दीपचन्द्र उपा० [आचार्य० ३३२ २७१ ३३७ ३४१ ३३४ ३३४ ३९८ ३०३ ३०४ ३८३ ३९८ २३१ ३६७, ३८८ २९२ ३३७ २४१ ३२९, ३३२ ३२३ ४१३ २३१, २३२ ३३२ ३३४ ३५०, ३५१ २३२ ३४७ २९१ १४९, १६६, १७० २६४ ४१७ ४१९ ३३४ ३०६, ३०७ (४४१) Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ १५० ३३८ १२५ १९ २५९ ३९८ दुर्लभसमृद्धि [सा०] १६०, ४०५ देवराज वा० [क्षेम०] दृढ़धर्मा [ क्षुल्लिका] ४०५ देवराज भंडारी [जिनउदयसागरसूरि] दृढ़धर्मी [सा०] १५७ देवलदे [कीर्तिरत्नसूरि की माता] ३४८ देवकरण [क्षेम०] ३३४ देववल्लभ देवकल्लोल [बेगड़०] २७२, २७४ देववल्लभ [सागरचन्द्र०] देवकीर्ति मु० ग० १११, १८७, २१४ देवविजय २३२ देवकीर्ति [जिनभद्र०] . ३४१ देवशेखर १२७ देवकुमार [क्षेम०] ३३४ देवश्री [प्रव०] ४२०, ४२१, ४२२ देवगुरुभक्त मु० १२६ देवसुन्दर उपा० [बेगड़॰] २७२ देवचन्द्र उपा० [आचार्य०] ३०५, ३०६, देवसुन्दरसूरि २६१, २६३, २६४ ३०७, ३९६ देवसेन देवजी भाई [जिनरत्नसूरि] ३८७, ३९३ देवाचार्य [चैत्यवासी आचार्य] ४९, ५०, १४४ देवतिलक १२६, २२२ देवानन्दसूरि देवतिलक वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ देवेन्द्र [जिनचन्द्रसूरि] देवदत्त [क्षेम०] ३३५ देवेन्द्रदत्त १५७ देवधीर वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ देवेन्द्रमुनि देवपाल गणि ४८ देवेन्द्रसागर ३७४ देवप्रभ ६५, १७० देवेन्द्रसूरि [रुद्र०] २६२, २६४ देवप्रभसूरि १९ देवेन्द्रसूरि [तपागच्छीय] ३९ देवप्रभा १४५ देवो [क्षेम०] देवप्रमोद १२८ देवोदय [सागरचन्द्र०] ३३८ देवभद्र ५४, १७७, १८१ दौलत [आचार्य०] देवभद्र ४०१ दौलतराम [आद्य०] २९१ देवभद्रसूरि ९, १२, १४, १९ द्रमकपुरीयाचार्य [अन्य ग०] १६२, १६३ देवभद्रसूरि २६१ द्रोणाचार्य [चैत्यवासी आचार्य] १६, १७ देवभद्राचार्य २०, २४, ३३, ४१, धन उपाध्याय ४२, ४३ धनपत [जिनकवीन्द्रसागरसूरि] ३६७ देवभद्राचार्य २६२ धनप्रभसूरि [मधु०] देवमुनि ३८४, ३९८ धनशील ६२ देवमूर्ति ग० वा० १२६, १३०, १३१, १४९ धनश्री ४०८ देवरत्न वा० [रुद्र०] २६४ धनसागर ३५८, ३७४ देवरत्न [जिनभद्र०] ३४१ धनेश्वर ८,९ ३३४ ३०३ २७५ २६० (४४२) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ धनेश्वरसूरि १३, ३९ धर्ममेरु ग० वा० [क्षेम०] ३३३ धनेश्वरसूरि [बृहद्गच्छीय आचार्य] ३७ धर्मरंग २२० धनेश्वराचार्य __ ३६ धर्मरत्न धरणेन्द्र [जिनधरणेन्द्रसूरि] ३२२ धर्मरत्न [सागरचन्द्रसूरि के शिष्य] ३३७ धर्मकलश १४५, १९८ धर्मरत्नसूरि २१९ धर्मकल्याण गणि [क्षेम०] ३३२ धर्मरुचि गणि ६५, ११२, ११३, ११४, ११५ धर्मकीर्ति १११, १४९, २३२ धर्मलक्ष्मी १५७, ४०५ धर्मकुशल [जिनभद्र०] ३४२ धर्मवर्धन [जिनभद्र०] ३४०, ३४१, ३४२, धर्मचन्द्र ६२ ३४३,३४४ धर्मचन्द्र २११ धर्मवल्लभ ग० वा० २६८ धर्मचन्द्र [बेगड़०] २७८ धर्मविमल २३५ धर्मतिलक ग०वा० १२६, १३१ धर्मविशाल [धर्मानन्द] ३५५, ३५६, ३७४ धर्मदास गणि १६३ धर्मशील मु० ग० ६२, ८७, ४०१ धर्मदास [आचार्य०] ३०३ धर्मशील [क्षेम०] ३३१ धर्मदेव मु० उपा० ८, ९, १३, ४० धर्मशेखरसूरि [अंचलगच्छीय] ३८ धर्मदेव १२०, ४०० धर्मश्री ८६,४०१ धर्मदेवी [सा० प्रव० मह०] ८६, १११, ११२, धर्मश्री १९३, ४०६ ४०१, ४०२ धर्मसमुद्रगणि [पिप्पलक०] २८४ धर्मधीर ग० वा० [कीर्तिरत्न०] ३४९ धर्मसागर मु० ग० ६२, ६५ धर्मनिधानोपाध्याय २३१ धर्मसागर उपा० [तपा०] ३६, ३७, ३९, ५३, धर्मपाल ६२ २२४, २२५, २२९, २३३ धर्मप्रभ १५९ धर्मसिंह [जिनभद्र०] ३४० धर्मप्रभा १५४, ४०४ धर्मसिंह [धर्मवर्धन] [जिनभद्र०] ३४३ धर्ममति १२५, ४०२ धर्मसिंह [आचार्य०] १:३०३ धर्ममंदिर २३२ धर्मसुन्दरगणि वा० [क्षेम] ३३१, ३३३ धर्ममंदिर [आचार्य०] २९८ धर्मसुन्दर पं० [क्षेम०] ३३५ धर्ममंदिर [जिनभद्र०] ३४१ धर्मसुन्दरी १२५, ४०२ धर्ममाला गणिनी १४०, १६०, ४०४, ४०५ धर्मसुन्दरी गणिनी १२५, १२९, ४०३ धर्ममित्र ६२ धर्मसुन्दरी [क्षुल्लिका] १८१, ४०६ धर्ममूर्ति [सा०] १२५ धर्माकर १२६ धर्ममूर्ति ग० वा० १३० धर्मानन्द धर्ममेरु [जिनभद्र०] ३४१ धर्मोदयमुनि [क्षेम०] ३३३ ३५६ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४४३) 2010_04 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ ३९८ ३३१ ३८९ ३३९ ३७४ ३०१ WWW ३०३ ३२६ १४१ १४१ १३१ ३४२ धवलचन्द्र महो० २२०, ३३८ निलयसुन्दर धूलीबाई [प्रेमश्री] ४२१ नीतिमुनि ध्यानसेन [सागरचन्द्र०] ३३८ नीतिसागर [क्षेम०] नथमल [नंदनमुनि] ३८६ नेणबाई [रत्न श्री] नन्दनमुनि ३९० नेणसुख [सागरचन्द्र०] नन्दसागर नेमचन्द्र नंदिवर्धन गणि नेमसुन्दर नयणचन्द [आद्य०] नेमिचन्द्र भंडारी [ग्रन्थकार] नयणसी [आचार्य नेमिचन्द [क्षेम०] [नीतिसागर] नयनकमल नेमिचन्द्रसूरि [दिग्मम्०] नयनकलश नेमितिलक नयमुनि नेमिप्रभ ३८४,३९१,३९८ नयमेरु [जिनभद्र०] नेमिभक्ति [सा०] नयरंग [क्षेम०] नेमिमूर्ति [क्षेम०] नेमिरंगगणि [क्षेम०] नयरंग वा० [जिनभद्र०] ३४०, ३४१, ३४३ नेमिवल्लभा [सा०] नयविलास नेमिविमल [दिग्मम्० नेमिचन्द्रसूरि] नयसागर २०३ न्यायकीर्ति नयसार [बेगड़०] २७४ न्यायचन्द्र नयसोम [नेमिचंद] [क्षेम०] ३३०,३३२ न्यायलक्ष्मी नरचन्द्र १११, १५० न्यायसागर [पिप्पलक] नरपति [जिनपतिसूरि] न्यायसुन्दर नरपतिस्वामी [जिनपतिसूरि] पंचायण [आद्य० जिनचन्द्रसूरि] नरेन्द्रप्रभ पंचायण भट्टारक [जिनसिंहसूरि] नरेन्द्रसागर पदमो [क्षेम० पुण्यशील] नवनिधिसागर पद्म कवि नवलचंद [नीतिमुनि] ३८४ पद्म गणि वा० नवीनचन्द्र [जिनमहोदयसागरसूरि] ३७० पद्मकीर्ति मु० ग० नागदत्त वा० पद्मकीर्ति नानीबाई [उद्योतश्री] ४०८ पद्मचन्द्र नायसागर [पिप्पलक०] पद्मचन्द्र नारंगीकुमारी [विमलप्रभा श्री] ४१९ पद्मचन्द्र [बेगड़०] निपुणाश्री ४२५ पद्मचन्द्रसूरि ३३१ ३३२ ४०३ ३२५ २३१ १८७ १२५ १३० २८३ १२१ २८३ २८९ २८९ ३७५ ३२९ १९८ १३९ ५४ १४१, १६१ २३१, २३५ २८७ २७८ १६१ (४४४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ १५७ पद्मरत्न पद्मरत्न पद्मचन्द्राचार्य [अन्यगच्छीय आचार्य] ५५, ५६, ६० पार्वतीकुमारी [मनोहर श्री] ४२४ पद्मदेव ८६ पार्श्वदेव गणि पद्मदेव [वा०] १४० पिप्पलिया शाखा ३१२ पद्मनाभ [भावी तीर्थंकर] १२७, १२८, २८७ पीयूषसागर ३६९, ३७३, ३७५ पद्मप्रभ १११ पुण्डरीक [प्रथम तीर्थंकर के गणधर] १३२, १४२ पद्मप्रभसूरि १९ पुण्यकलश [जिनभद्र०] ३४१ पद्मप्रभाचार्य [उपकेशगच्छीय आचार्य] ६५, ६६, पुण्यकीर्ति गणि १५१,१५८,१८२ ६७, ६८, ६९, ७०, ७१, ७२, ७४, ७५, ७६, पुण्यचन्द्र १५० ७७, ७९, ८०, ८२, ८३, ८४, ८६, १२३ पुण्यचंद महो० [आचार्य०] ३०३ पद्ममन्दिरगणि [कीर्तिरत्न०] ३५१ पुण्यतिलक १४९ पद्ममूर्ति १८९, १९४ पुण्यतिलक [आचार्य०] ३०३ पद्ममूर्ति [जिनपद्मसूरि] २०२, ४०६ पुण्यदत्त पद्ममेरु [जिनभद्र०] ३४१, ३४२ पुण्यधीर ग० वा० [कीर्तिरत्न०] ३४९ पद्मरंग २८९ पुण्यनंदि [सागरचन्द्र०] ३३६,३३७ १५१ पुण्यप्रधान ग० वा० २१२, २३०, २३१, २३५ २३२, ३०५, ३०६, ३०७ पद्मराज गणि २२० पुण्यप्रभ पद्मश्री १५५ पुण्यप्रभसूरि [बड़ गच्छ] २७४ पद्मसागर ३५७, ३७४, ३७८ पुण्यप्रिय १९३ पद्महंस १५३ पुण्यमाला ४०४ पद्महंस [जिनभद्र०] ३४७ पुण्यमूर्ति १४४, २१४ पद्महेम २३१ पुण्यरत्न पद्मावती [सा०] १३१, ४०३ पुण्यलक्ष्मी १५७,४०५ पन्नालाल [क्षेम०] ३३४ पुण्यविजय [तपागच्छ मुनि] पन्नालाल [प्रेम मुनि] ३८८ पुण्यविलास [आचार्य०] ३०३ पन्नीबाई [पुण्यश्री] ३६०, ४०९ पुण्यशील वा० [आचार्य०] ३०३ परमकीर्ति १५५ पुण्यशीलगणि [क्षेम०] ३२९, ३३२ परमानन्द १२५ पुण्यश्री [सा० म०] ३५९, ३६३, ३६७, ४०८, पवित्रचित्त १२८ ४०९, ४१०, ४११, ४१२, पवित्रश्री ४१९ ४१३, ४१८, ४१९, ४२५ पातालकुमार [जिनचन्द्रसूरि] २१० पुण्यसमुद्र वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ पायचंदगच्छ ३२१ पुण्यसागर उपा० महो० ३६, २२०, २२१, २२४ १५९ २३८ ३४७ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४४५) 2010_04 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यसुन्दरी [सा० ग० प्रव० ] पुण्यहर्ष [ कीर्तिरत्न० ] पुष्पमाला. [सा०] पूनमचन्द [ सागरचन्द्र० ] पूर्णकलश ग० उपा० पूर्णचन्द्र मु० पूर्णदेव गणि पूर्णभद्र गणि पूर्णमुनि पूर्णरथ पूर्णशिखर पूर्ण श्री सा० ग० पूर्णसागर पूर्णा पूर्णानन्द मुनि पूर्णानन्दसागर पूर्णिमागच्छ पृथ्वीचन्द्रसूरि [ अन्य ग० ] प्रकाश श्री प्रताप [भाव०] प्रतापकीर्ति प्रतापचन्द [ कीर्तिरत्न० ] प्रता प्रताप श्री प्रव० १४५, १६०, १७६, १८२, ४०४, ४०५ ३५१ १३९, १४०, ४०४ प्रतापसागर प्रतापसी [आचार्य० ] प्रतापसौभाग्य पं० [कीर्तिरत्त्र० ] प्रद्युम्रमुनि प्रद्युम्नाचार्य [ अन्य ग० आचार्य ] ६२ १२९ ४७, ४९, १२५, ४०१, ४०२ ६२ (४४६) 2010_04 १२५, १२९, १३७ ६२ प्रभाकरसागर ३३७ प्रभानन्दसूरि [ रुद्र० ] ५४, ११० १११, १२३ ३९५ प्रधानलक्ष्मी प्रबोधचन्द्र मु० ग० प्रबोधमूर्तिगणि [ वा०] १४२ ९८, ९९, १००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, १०६, १०७, १०८, १०९, ११६, १२२ १३१, ४०३ १२५, १२८ १३४, १३५, १४६ ३७५ ३८, २६१, २६३, २६४ ११२, ४०२ ३२७, ३२८, ३३२ १२६ १२९, ४०३ १२५, १२८, ४०२ ४२०, ४२२ १३३ ३७८ १, ८, ९, १९, २३, २४, ३७, १२५, ४०० १३१, १५७, १६८, ४०३, ४०५ १५७, ४०५ १४९, ४०४ ३३८ ३५०, ३५१ ३३५ २४१, ३५२, ३५३, ४०८ २५३, ३१२ २४०, ३५२ ३११ ३८८, ३८९, ३९४, ३९८ २९२ ३३९ ३१२ ४२०, ४२१, ४२२ प्रभावती [ मह० ] प्रमोदमाणिक्य गणि [क्षेम० ] प्रमोदमूर्ति प्रमोदलक्ष्मी प्रमोद श्री [ग० मह० ] प्रमोद श्री [प्रव० ] प्रमोदसमुद्र प्रमोदसागर प्रसन्नचंद्र प्रसन्नचन्द्रसूरि प्रसन्नचन्द्राचार्य ३७४, ४१० ३९८ ३६९, ३७५ ८७ ३८ प्रियधर्मा ४२३ प्रीतिचन्द्र [ क्षुल्लक ] २९५ प्रीतिविजय [सागरचन्द्र० ] १५७ प्रीतिविजय [ कीर्तिरन० ] ३५१ प्रीतिविलास पं० [ क्षेम० ] ३९८ प्रीतिसागर ग० उपा० ४२० प्रेमचन्द ३७३ प्रेमचन्द [ प्रीतिसागर उपा०] ३०३ प्रेमधीर ३५० प्रेममुनि प्रियदर्शना सा० ग० प्र० प्रेमराज [ आद्य०] प्रेमराज [ सागरचन्द्र० ] प्रेमराज [ जिनचन्द्रसूरि ] प्रेमश्री [प्रव० ] परिशिष्ट- ४ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ २६७ भानुप्रभ पं० ३९८ प्रेमसागर ३७४, ३७८ भगदानसागर ३५८,३५९,३६०, फतेचंद [सागरचन्द्र०] ३३८ ३७४, ४१०, ४१२ बहुचरित्र १२८ भद्रमुनि [सहजानन्द] ३९०, ३९२, ३९८ बालचन्द [क्षेम०] ३३१ भद्रमूर्ति १८९ बालचन्द्र [बालचन्द्रसूरि] ३२५ भद्रशील २११ बालचन्द्रसूरि [बालचन्द्राचार्य] ३२५, ३२६, ३५७ भरतकीर्ति १२९ बाहु-सुबाहु स्वामी [विहरमान] १३१ भवानी [क्षेम०] बिदामी कुमारी [विद्वानश्री] ४२४ भवानीराम [आचार्य०] ३०३ बुद्धिमुनि ग० ३८४, ३९४, ३९५, ३९६, ३९८ भागचन्द [आचार्य०] ३०३ बुद्धिविमल पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ भाग्यविलास [क्षेम०] ३३३ बुद्धिसमृद्धि १२९, ४०३, ४०४ भानुतिलक [लघु ख०] बुद्धिसमृद्धि [ग० मह०] १४९, १६८ २१८, ३४१ भानुमुनि बुद्धिसागर मु० भानुमेरु उ० [जिनभद्र०] बुद्धिसागरसूरि १२, १३ ३४५, ३४६ भावदेव १११, ११७ बुद्धिसागर गणि भावनातिलक [सा०] १२९ बुद्धिसागर [तपागच्छीय] भावप्रभसूरि २१६ बुधा [क्षेम०] ३३५ भावप्रभाचार्य २१७ बृहत्खरतरगच्छ ३०७ भावमुनि ३८४, ३८८, ३८९, ३९०, ३९१, ३९८ बेगड़ा [विरुद] भावमूर्ति १८९ बोधा [आचार्य०] ३०३ भावशेखर उ० [बेगड़०] २७२, २७३, २७४ ब्रह्मचन्द्र ग० वा० ४७, ४९ भावसागर ३७४ भक्तिउदय [क्षेम०] भावसागर गणि [जिनभद्र०] ३४६ भक्तिक्षेम [जिनभद्रसूरि] २३९, २४० भावहर्ष गणि [भाव०] २९३ भक्तिचन्द्र ३६५, ३७४ भावहर्षसूरि भक्तिमंदिर [बेगड़०] भावहर्षीया शाखा ३१८ भक्तिमुनि ३९८ भीमजी [आचार्य०] ३०३ भक्तिरंग [क्षेम०] ३३५ भीमसागर ३७५ भक्तिलाभ उपा० [जिनभद्र०] ३४६ भुवनकीर्ति १३९ भक्तिविलास [आचार्य०] ३०३ भुवनकीर्ति [जिनरंग०] ३०९ भगवानदास [आचार्य०] ३०३ भुवनकीर्ति ग०उ० [क्षेम०] ३२७, ३२८, ३३३ भगवानदास [भगवानसागर] ३५७ भुवनचन्द्र ग० वा० २६९ ३३५ ३३७ २७६ (४४७) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ ३३७ २९० ३४२ भुवनधीर २२२ मणिभद्र पं० ग० वा० ४९,६४ भुवनतिलक १४९ मणिरत्नसागर ३७३, ३७५ भुवनतिलकसूरि ३६५ मणिसागर उ० ३६२, ३७४, ३७७, ३८७, ४१५ भुवनभक्ति पं० [क्षेम०] ३३५ मतिकुमार पा० ३१२ भुवनमूर्ति १५७ मतिकीर्ति गणि [क्षेम०] ३२७, ३२८, ३३२ भुवनमेरु २३१, २३२ मतिचन्द्र १४९ भुवनरत्न २१६ मतिप्रभ भुवनलक्ष्मी १४५, ४०४ मतिरत्न [सागरचन्द्र०] भुवनलाभ २३२ मतिलक्ष्मी [सा०] १५७,४०५ भुवनविजय उ० ३६५ मतिलाभ [जिनभद्र०] ३४१ भुवनविशालगणि [सागरचन्द्र०] ३३८, ३३९ मतिवर्धन [आद्य०] भुवनश्री गणिनी ११७, ४०२ मतिवर्द्धन [जिनभद्र०] भुवनसमृद्धि १६०, ४०५ मतिवर्द्धनसूरि [पिप्पलक०] २८३ भुवनसुन्दरी १४५, ४०४ मतिशीलगणि [जिनभद्र०] ३४५, ३४६ भुवनसोम २२२ मतिसागर २५६, ३७४, ३७८ भुवनसोम गणि [क्षेम०] ३२८, ३३१ मतिसागर [बेगड़०] . २७६, २७७ भुवनसोम [जिनभद्र०] ३४२ मतिसागर [कीर्तिरत्न०] ३५० भुवनहित मु० उ० १५९, २०९ मतिसार वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ भुवनहिताचार्य १६६ मतिसुन्दरी २१३ भूरामल [सागरचन्द्र०] ३३७ मतिसेन [जिनभद्र०] भोजकुमार [जिनगुणप्रभसूरि]] २७४ मतिहंस मंगलकलश १४१ मतिहर्ष २३२ मंगलनिधि [सा०] १३१, ४०३ मधुकान्ता [मनोहरश्री] मंगलमति [सा० ग० प्र०] १११, १२५, ४०२ मधुस्मिताश्री ४१७ मंगलश्री ११७, ४०२ मनरूप [आचार्य०] ३०६ मंगलसागर [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३७५, ३७८, ३७९ मनरूपजी [जिनमहेन्द्रसूरि] ३१८ मगनश्री २५८, ४०८ मनसुख [आचार्य०] मग्नसागर [कीर्तिरत्न०] ३५० मनहरमुनि मणसिंधुर [क्षेम०] ३३४ मनितप्रभसागर मणिचन्द्र ३२६ मनीषप्रभसागर ३७५ मणिप्रभसागर उ० ३७०, ३७५ मनीषसागर ३७३, ३७५ मणिप्रभाश्री ४१६, ४१८ मनोज्ञसागर ३७०, ३७२, ३७५ ३४१ २२२ ४१७ ३०३ ३९८ ३७५ (४४८) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर श्री मनोहर श्री [ मह० ] मन्त्रवल्लभ [ क्षेम० ] मयंकप्रभसागर मयासागर [कीर्तिरत्न० ] मरुदेवी ग० प्र० मलयगिरि [ टीकाकार ] मलयचन्द्र मलयरत्नसागर मलयहंस [ पिप्पलक० ] मलूकचन्द [ आद्य० ] मलूकचंद [आचार्य० ] महानिधि [सा०] महायशसागर महावीर [ दिगम्बर मु० ] महाश्री [सा०] महिमराज [जिनसिंहसूरि ] महिमराजगणि वा० [सागरचन्द्र० ] महिमसार महिमसुन्दर महिमसुन्दर [ जिनभद्र० ] महिमाकीर्ति [जिनमुक्तिसूरि ] महिमाउदय महिमाकुशल महिमाचन्द्र [बेगड़० ] महिमानिधान उ० [ रुद्र० ] महिमानिधान [ बेगड़० ] महिमानिधान वा० [ क्षेम० ] महिमाप्रभसागर गणि महिमामंदिर [जिनमेरुसूरि ] महिमामाणिक्य 2010_04 ४१६, ४१७ ४२४ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास ३३५ ३७५ ३५० १०, ४०० ३६ १११ ३७२, ३७५ महिमामेरुगणि [ सागरचन्द्र० ] महिमात्र पं. [ क्षेम० ] महिमाविमल महिमासमुद्र [ बेगड़० जिनसमुद्रसूरि ] महिमासमुद्र [आचार्य० ] महिमासार [जिनरंग० ] महिमाहेम [ कीर्तिरत्न० ] महीचन्द्र [ लघु खर० ] महेन्द्र २८४ महेन्द्रमुनि २९२ महेन्द्रसागर ३०० महेशचन्द्र [ मणिरत्नसागर ] १५७ महेश्वरसूरि [ अन्य ग०] ३७५ महोदयमुनि १११ २०२ २२५, २२७, २३३, ३०२ ३३७ २३२ माइदास [आचार्य० ] माणक [ क्षेम० ] माणकचन्द [ आद्य० ] माणकचंद [भाव० ] माणकचंद [आचार्य० ] माणिक ऋषि २३२ ३४२ माणिक्यमेरु [ सागरचन्द्र० ] ३२० माणिक्यरत्र पं० [ क्षेम० ] २२२ माधव मुनि [ क्षेम० ] २३२ मानचन्द्र वा० २७७ मानचन्द्र [आचार्य० ] २६४ मानचन्द्र गणि २७८ मानदेव ३३४ ३६४, ३७०, ३७२, ३७५ माणिक्यमूर्ति महो० [कीर्तिरत्न० ] मानभद्र गणि मानभद्र पं० [ क्षेम० ] मानविजय २७२ २३२ मानसिंह [ जिनसिंहसूरि ] ३३८ ३३४ २३२ २७८ ३०३, ३०४ ३०९ ३५०, ३५१ २६७ ११२ ३८९, ३९८ ३७३, ३७५ ३७३ ३६ ३८६, ३९८ ३०३ ३३५ २९२ २९४ ३०३ ३८ ३५० ३३८ ३३३ ३३३ ६६ ३०३ ११० ११२ १११ ३३३ ३११ २२५, २२६, २३३ (४४९) Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिंह [ क्षेम० ] मानसिंह [ जिनभद्र० ] मानहर्ष [ सागरचन्द्र० ] मानो [क्षेम० ] मानोदय मितेशप्रभसागर मिलापचन्द [ महिमाप्रभसागर ] मिश्रीमल [ मनोज्ञसागर ] मीठालाल [ मणिप्रभसागर ] मुक्तावली गणिनी मुक्तिकमल उ० [जिनभद्र० ] मुक्तिचन्द्रिका [सा०] मुक्तिधर्म [क्षेम०] मुक्तिप्रभसागर मुक्तिमुनि मुक्तिरस [ आद्य० ] मुक्तिलक्ष्मी मुक्तिवल्लभा मुक्तिवसन [आद्य०] मुक्तिशील मुक्तिश्री मुक्तिसागर मुक्तिसुन्दर मुक्तिसुन्दरी मुनिचन्द्र वा० ग० मुनिचन्द्र [उपा०] मुनिचन्द्रसूरि [ अन्य ग० ] मुनिचन्द्राचार्य [अन्य ग० ] मुनितिलक मुनिप्रभसूरि [ मधु०] मुनिमेरु उ० [ जिनभद्र० ] मुनिमेरु [सागरचन्द्र० ] (४५०) 2010_04 ३३५ ३४२ ३३८ ३३४ ३८१ ३७५ ३७२ ३७२ ३७१, ४२३ १२५, ४०२ ३४७ १५१ ३३५ ३७०, ३७५ ३९८ २९२ १५०, ४०४ १३१, ४०३ २९२ ३१८ १५० ३१८, ३७४ २३२ १२७, ४०३ १११, १५०, १७०, २०९ मुनिरंग वा० [ क्षेम० ] मुनिवल्लभ मुनिसंघ [ क्षेम० ] मुनिसिंह मुनिसोम [जिनभद्र० ] मुन्नाकुमारी [मणिप्रभाश्री ] मुरारि [ आचार्य० ] मूलचन्द [जिनमुक्तिसूरि ] मूलजी भाई [ भद्रमुनि ] मेघकीर्ति ३४०, ३४१ ३३८ मेघकुमार गणि मेघजी [ मुक्तिमुनि ] मेघनंदन [जिनभद्र० ] मेघनिधान [भाव० ] मेघमुनि मेघमूर्ति मेघरल [आचार्य०] मेघराजगणि [ जिनभद्र० ] मेघराज वा० [ क्षेम० ] मेघविजय [आचार्य० ] मेघविजय [सागरचन्द्र० ] मेघसुन्दर मेघा [ क्षेम० ] मेघानन्द [कोतवाल मोतीचन्दजी ] मेरुकलश मेरुकीर्ति ४९ २८ ३६ मेरुकुशल पं० [ क्षेम० ] मेरुतिलक [ जिनभद्र० ] २११ मेरुतुंगसूरि [ अंचलगच्छीय ] मेरुनन्दन मु० ग० मेरुनन्दनोपाध्याय २६० मेरुसुन्दर उपा० ३३४, ३३५ १४२, १५१, २३० ३३५ १५२ ३४० ४१८ ३०३ ३२० ३८९ ३०३ १२६ ३८९ ३४१ २९४ ३९०, ३९८ १८९ ३०३ ३४४, ३४६ ३३४ ३०३, ३०४ ३३८ १४५ ३३५ ३२३ १४५ ३०४ ३३५ ३४२ ३८ २११, २१२, २१५ २८७ ३६, ३४१ परिशिष्ट- ४ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० मेरुहर्ष उपा० [जिनभद्र०] ३४१ यशोमुनि [जिनयश:सूरि] ३८२, ३८४, मेहरचन्द ३२५ ३८५, ३९३ मोतीचन्द पं० [क्षेम०] ३३४ यशोमुनि [जसमुनि ३८३ मोतीचन्द पं० कोतवाल ३२३ यशोलक्ष्मी [सा०] १५७,४०५ मोतीलाल [जिनविजयसेनसूरि] ३१७ यशोलाभगणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ मोदमंदिर १२८ यशोवर्धनगणि उपा० [क्षेम०] ३३३ मोदमूर्ति १८९ यशोविजय [अन्य ग०] ३०७ मोहनमुनि [दिग्मम्०] ३२५ यादवसिंह [जिनानंदसागरसूरि] ३६६ मोहनलालजी ३८१, ३८२, ३८५, ३८७, यादवसिंह कोठारी [वीरपुत्र आनन्दसागर] ३९२, ३९४, ३९८ युक्तिअमृत [कीर्तिरत्न०] ३५०,३७६ मोहनलालजी का समुदाय ३५२ युक्तिमेरु [सागरचन्द्र०] ३३८ मोहनलाल [कोटपाल २४९ युक्तिलक्ष्मी [सा०] ४०४ मोहविजय १४२ युक्तिसुन्दरगणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ मोहितसागर ३७५ युक्तिसेन [क्षेम०] मोहिनीकुमारी [चन्द्रप्रभाश्री] ४१७ युगमन्धरस्वामी [विहरमान] १२८,१३१ यतिकलश १२६ रंगकुशल [जिनभद्र०] ३४०, ३४२ यतिपाल गणि रङ्गधर्म यमचंद्र मुनि रंगधीर [सागरचन्द्र०] ३३८ यश:कलश गणि १२४ रंगनिधान २३१ यश:कीर्ति १५१ रंगप्रमोद [आचार्य०] ३०६ यशःप्रभा [सा०] १३९ रंगवर्धन [सागरचन्द्र०] ३३८ यशचन्द्र रंगवल्लभगणि उपा० [क्षेम०] ३३३ यशप्रभा [सा०] ४०३ रंगलाल [जिनरंगसूरि] ३०९ यशवन्तकुमारी [विनोदश्री] ४२१ रंगविजय २३७ यशोदेवसूरि [अन्य ग०] ३६ रंगविजय [जिनरंगसूरि] ३०९ यशोधर ६४ रंगविमल [क्षेम०] ३२८, ३३१ यशोनिधि [सा०] १५७ रंगसार [ भाव०] यशोभद्र ५४ रंगोदत्तमुनि [क्षेम०] ३३३ यशोभद्र मुनि १७७, १८१, २१० रतनचंद [क्षेम०] यशोभद्रसूरि [अन्य ग०] ३६ रतनचन्द [आद्य०] २९२ यशोभद्राचार्य [अन्य ग०] ८७ रतनमुनि ३८४ यशोमाला [सा०] १४०, ४०४ रतनलाल [जिनचन्द्रसूरि] ३२२ २३५ ५४ २९३ ३३४ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४५१) 2010_04 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ २१२ ३३२ ३३२ रतनलाल ३१६ रत्नश्री गणिनी ३६७, ३९१, ४०२, रतनसागर ३७५ ४०४ , ४०५ रतनसी [आचार्य० जिनविजयसूरि] २९९ रत्नश्री ४१२ रतनसी [क्षेम०] ३३४ रत्नशेखर वा० उ० [क्षेम०] रतिसागर ३७८ रत्नसागर ३७४ रत्नकलशगणि वा० [क्षेम०] ३३३ रत्नसागर ३७८ रत्नकीर्ति गणि १२४ रत्नसमुद्र मु०ग० रत्नकीर्ति उ० [सागरचन्द्र०] ३३७ रत्नसागरगणि [क्षेम०] रत्नचन्द्र उ० [जिनभद्र०] ३४५, ३४६ रत्नसुन्दर १५१ रत्नतिलक १२५ रत्नसुन्दर २३२ रत्रधीर वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ रत्नसुन्दर ३५६ रत्ननिधान मुनि १२८ रत्नसुन्दर [भाव०] २९४ रत्ननिधान मु०उ० २२७, २२८, २३१ रत्नसुन्दरगणि [क्षेम०] रत्नप्रभ गणि १२४ रत्नसुन्दरी १४५, ४०३, ४०४ रत्नप्रभसूरि [अन्य ग०] ३८९ रत्नसोम २३७ रत्नमंजरी [क्षुल्लिका] मह० १४९, १५७, रत्नसोम [बेगड़०] २७८ ४०४,४०५ रत्नाकर १२८ रत्नमति १११, ४०१ रत्नाकर [आद्य०] २९१ रत्नमालाश्री ४२३ रत्नाकर [जिनभद्र०]] रत्नमनि ३८३, ३८७, ३८८, ३८९, ३९३ रत्नाकरमुनि ३९०, ३९८ रत्नमूर्ति [जिनभद्र०] ३४१ रत्नावतार १३१ रत्नराज [राजसागर] ३५६ रत्नावली गणिनी १२५, ४०२ रत्नलाभ [जिनभद्र०] ३४२ रनोदयगणि [मण्डो० जिनचन्द्रसूरि] ३२२ रत्नवल्लभगणि महो० [क्षेम०] __३३३ रमाकुमारी [सुरंजनाश्री] ४१७ रत्नविजय [अन्य ग०] ३६५ रवीन्द्रसागर ३७४ रत्नविमल २३२ राउजी पं० [क्षेम०] ३३४ रत्नविमल ग० [क्षेम०] ३२८, ३३२, ३३४ राजकीर्ति [जिनभद्र०] ३४२ रत्नविलास २२२ राजचन्द्र १५०, १५८, १५९ रत्नविलास [क्षेम०] ३३० राजतिलक ग० वाचनाचार्य १३९, १४० रत्नविलास [रामचन्द्र] [क्षेम०] ३३२ राजदर्शन वाग० १२९, १७० रत्नवृष्टि [सा०] ग०प्र० १२९, १४१, १५४ राजमुनि ३८३, ३८८,३९०, ३९१,३९८ रत्नश्री १११, १५० राजमूर्ति २४३ ३४१ (४५२) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमेरु राजललित राजलाभ राजविमल [ देवचन्द्र ] राजशेखरगणि वा० राजशेखराचार्य राजश्री राजसमुद्र राजसमुद्र [जिनराजसूरि ] राजसागर उपा० [आचार्य शाखा ] राजसागर [जिनभद्र० ] राजसागर वा० [कीर्तिरत्न० ] राजसागर राजसागरोपाध्याय [दिग्मम्०] राजसार राजसार राजसिंह [जिनभद्र० ] २१२ राजेन्द्रसागर १२८ २११, २३२ ३०६ १२९, १४६, १५१, १५४ १५६, १६६, १७० ३८८, ३८९ २३४, २३५ २९७ ३०६ ३४२ ३५० ३५४, ३५५, ३५६, ३५७, ३५९, ३७४, ३७७, ४०८ ३२४, ३२५ २३२ २९८ ३४०, ३४२ २३२ २८५ ३३८ २४०, २९८ राजसुन्दर राजसुन्दर [ पिप्पलक० ] राजसेन [ सागरचन्द्र० ] राजसोम उ० राजसोम [आचार्य० ] ३०३ राजसोमगणि उ० महो [क्षेम० ] ३३३, ३३५, ३५३ २३२ २६७ २३१, २३२ १२५, ४०२ १६९, १९५ १५९, १६४, १६६, १६८, १७०, २०९ ३९८ राजहंस राजहंस [लघु खर० ] राजहर्ष राजीमती राजेन्द्रचन्द्रसूरि राजेन्द्रचन्द्राचार्य राजेन्द्रमुनि खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 राज्यवर्द्धन [ जिनवर्धनसूरि ] रामकिसन [ क्षेम० ] रामकीर्ति रामकुमार रामचन्द्र रामचन्द्र रामचन्द्र गणि वा० रामचन्द्र [आचार्य० ] रामचन्द्र ग०वा० [ क्षेम० ] रामचन्द्र श्रीपूज्य [ लोंकागच्छीय ] रामतिलकगणि [ उपकेशगच्छीय ] रामदेव रामदेवगणि रामपाल [आचार्य० ] रामवल्लभ वा० [ क्षेम० ] रामविजय उ० महो० [क्षेम० ] रामश्री रामसागर रायचन्द्र [आचार्य० ] रायसागर रायसिंह [जिनभद्र० ] रावण [ जिनवर्धनसूरि ] रुद्रपल्लीयशाखा रूपचन्द [जिनरत्नसूरि] रूपचन्द [ आद्यपक्षीय ] रूपचन्द्र [आचार्य० ] रूपचन्द [ क्षेम० महो० रामविजय ] रूपचंद रूपचंद [ स्थानकवासी मुनि ] रूपचन्द्र [ दिग्मम्० राजसागरगणि] ३७५ २१६, २८० ३३४ १५५ ३८३, ३८५ १११ २३१, २३५ ४७, ४९ ३०३ ३३०, ३३३ ३१८ ३८ १११ ३६ ३०३ ३३४ २४०, ३२७, ३२९, ३३२, ३५३ ३९० ३७४, ३७८ ३०६ ३७८ ३४१ २८० २६१ २३७ २९२ ३०६ ३२९, ३३४ ३८१ ३८५ ३२५ (४५३) Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रैवतमुनि ३५१ रूपविजया [साध्वी जिनरंग०] ३१४ लक्ष्मीसमुद्रगणि उपा० [क्षेम०] ३३३,३३५ रूपश्री [साध्वी] ३५७, ४०८ लखजी [जिनललितसूरि] ३११ रूपसागर ३७४, ३७५ लधा भाई [लब्धिमुनि] ३८८,३९३ रूपाबाई [विज्ञानश्री] ४१३ लब्धिउदय ३११ ३९८ लब्धिकलश १४५ रोहिणी [रत्नमालाश्री] ४२३ लब्धिकल्लोल [कीर्तिरत्न०] लक्ष्मी [प्रवर्तिनी प्रमोदश्री] ४२२ लब्धिकीर्ति २३२ लक्ष्मीकलश १४१ लब्धिनिधान गणि महो० १९३, १९४, १९८, लक्ष्मीकीर्तिगणि उपा० [क्षेम०] ३३३ २०२, २०५, २०६, २०८, २०९ लक्ष्मीचन्द्र [आद्य०] २९१ लब्धिमंडनगणि उपा० [क्षेम०] ३३३ लक्ष्मीचन्द्र [रुद्रपल्लीय] २६४ लब्धिमाला [साध्वी] १३९, ४०४ लक्ष्मीचन्द्र [जिनभद्र०] ३४७ लब्धिमुनि उपा० ३६५, ३८३, ३८७, ३८८, लक्ष्मीतिलक गणि उ० १२५, १२८, १२९, ३८९,३९०, ३९२, ३९३, ३९८ १३७, १३९, ३४० लब्धिरत्न [आद्य०] २९२ लक्ष्मीनिवास मु०वा० १३१, १५३ लब्धिरत्नगणि वा० [क्षेम०] लक्ष्मीनिधि महत्तरा १३१, ४०३ लब्धिशेखर २३१ लक्ष्मीप्रधानगणि २५५ लब्धिसागर [जिनरंग०] लक्ष्मीप्रधान उपा० [जिनभद्र०] ३४७ लब्धिसागर लक्ष्मीप्रभ [जिनभद्र०] ३४२ लब्धिसागर ३७४ लक्ष्मीबाई [लक्ष्मीश्री] ४०९ लब्धिसुन्दर १४५ लक्ष्मीमाला ग०प्र० १४०, २०३, ४०४, ४०६ लब्धिसुन्दरसूरि २६२ लक्ष्मीमुनि ३९८ लब्धिहर्ष [क्षेम०] ३३१ लक्ष्मीमेरु ३८१ लब्धोदय २२२ लक्ष्मीराज १३१ ललितकीर्ति [मुनि, उपा०] १८७, २१४ लक्ष्मीलाभ [जिनलाभसूरि] २४२ ललितकीर्ति पाठक [कीर्तिरत्न०] ३४९, ३५१ लक्ष्मीलाभ [लघुशाखा] २६७ ललितप्रभ १५९ लक्ष्मीवल्लभ उ० [क्षेम०] ३२७, ३२८, ललितप्रभसागर ३७०, ३७२, ३७५ ३३३, ३३५ ललितश्री [साध्वी] १८५,४०६ लक्ष्मीविनय महो० [आद्यपक्षीय] २९१ ललितसमुद्र [जिनललितसूरि] ३११ लक्ष्मीविनयगणि [क्षेम०] ३३२ लाजवन्तीकुमारी [चन्द्रकलाश्री] लक्ष्मीविनय वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ लाभवर्धन [क्षेम०] ३२७ लक्ष्मीश्री साध्वी प्रव० ३५७, ४०९, ४०८, ४२० लाभसमुद्र [क्षेम०] ३३५ ३११ २२२ ४१६ (४५४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ३३९ 11 ३६३ २५७ लालकलश २३१, २३२ वामनाचार्य ३११ लालचन्द [आचार्य०] ३०३ विगतदोष लालचन्द वा० [क्षेम०] ३३४ विजयकीर्ति १२५ लालचंद [सागरचन्द्र०] ३३९ विचक्षणश्री प्रव० ४१३, ४१६, ४१७ लालचन्द २३५ विजयचंद [सागरचन्द्र०] लालचंद ३८१ विजयचन्द्र लालचन्द्र [जिनलाभसूरि] २४२ विजयचन्द्र [आचार्य०] ३०६ लालजी भाई [महेन्द्रमुनि] ३८९ विजयचन्द्र [क्षेम०] ३३० लावण्यरत्न [जिनभद्र०] ३४२ विजयचन्द्र [जिनविजयेन्द्रसूरि] ३३० लावण्यशील उपा० [कीर्तिरत्न०] ३४८, ३५१ विजयचन्द्रसूरि २६१ लोंका गच्छ ___३१८ विजयतिलक ग० उपा० ३२७, ३३१ लोकहितसूरि, लोकहिताचार्य २११, २१२, २१५ विजयदानसूरि [तपागच्छ] लोभनिधि १२८ विजयदेवसूरि [द्वि० जिनेश्वर० शि०] १२६ वखतावर [क्षेम०] ३३४ विजयदेवसूरि [तपागच्छीय] २३७, ३४५ वज्रस्वामी १२२, १६१, १७५, १७७, १८१, १८९ विजयधर्मसूरि [तपागच्छ] वरकीर्ति १५५ विजयपाल [जिनविजयेन्द्रसूरि] वरदत्त मुनि, गणि ४७, ४९ विजयप्रेमसूरि [तपागच्छ] वरनाग वा० ४९ विजयमुनिचन्द्रसूरि [तपागच्छीय] ३६५ वर्धनसागर [कीर्तिरत्न०] ३५० विजयमूर्ति १८९ वर्धमान वा० [क्षेम०] ३३४ विजयरत्न १५१ वर्द्धमान [सागरचन्द्र०] ३३८ विजयराज वादी २२२, २३१ वर्धमान मुनि [वर्धमानसूरि] १, २ विजयराजेन्द्रसूरि [त्रिस्तुतिक गच्छ] । ३२५, ३५७ वर्धमानचन्द्र ५४ विजयलाल [जिनविजयेन्द्रसूरि] २५७ वर्धमानसागर ३७८ विजयवर्धन गणि १२५, १२६ वर्धमानसूरि १, २, ५, ८, ९, ११, विजयविमल [क्षेम०] ३३५ १२, १३, १८९, २१८, ४०० विजयवल्लभसूरि [तपागच्छ] ३८९,४१४ वर्धमानसूरि [अभयदेव०शि०] १९, २४, ३७ विजयश्री ४०३ वर्धमानसूरि [रुद्र०] २६१ विजयसागर वल्लभश्री [साध्वी] प्रव० ३८८, ४२०, ४२२, विजयसिद्धि १३० ४२३, ४२४, ४२५ विजयसोम [जिनभद्र०] ३४१ वल्लभसागर ३७४ विजयहर्ष [जिनभद्र०] ३४२, ३४३ वादिदेवाचार्य [वृहद्गच्छीय] ९८ विजया महत्तरा साध्वी ३१४ ३२ ३७५ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४५५) ____ 2010_04 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ १२४, ४०२ ३९८ ३२७ ३२५ २६४ १२४ ३०६ ३४०,३४३ विजेन्द्रश्री ४२३ विनयमन्दिर [आचार्य शाखा] विजो [क्षेम०] ३३४ विनयमाला गणिनी विद्याकलश [सागरचन्द्र०] ३३७ विनयमुनि विद्याकीर्ति [लघुशाखा] २६७ विनयमेरु [क्षेम०] विद्याकीर्ति [क्षेम०] ३२८ विनयरंग विद्याकुमारी [विनीताश्री] ४१६ विनयराजसूरि [रुद्रपल्लीय] विद्याचन्द्र १२५ विनयरुचि गणि विद्यानन्द [तपागच्छ] १३० विनयलाभ [आचार्य शाखा] विद्यानन्दन ३५५, ३७४ विनयविमल [जिनभद्र०] विद्यामति गणिनी १२५, ४०२ विनयशील विद्याविजय [आचार्य०] ३०३ विनयश्री विद्याविजय मुनि [तपागच्छीय] ३६३ विनयसमुद्र मुनि, उ० विद्याविलास २३८ विनयसागर विद्याविशाल वा० [क्षेम०] ३३४ विनयसागर [पिप्पलक०] विद्यासागर २३२ विनयसागर उपा० विद्यासागर [बेगड़०] २७६ विनयसागर मु० उ० महो० विद्यासार २३२ विनयसिद्धि विद्युतप्रभाश्री ४२३ विनयसुन्दर विधीचन्द [जिनविमलसूरि] ३१० विनयसोम विनयकल्लोल [कीर्तिरत्न०] ३४९ विनयहर्ष वा० [सागरचन्द्र०] विनयचन्द ५४ विनयानंद गणि विनयचंद [सागरचन्द्र०] ३३७ विनीतसुन्दर विनयचन्द्र कवि [आचार्य०] ३०३, ३०४, ३०५ विनीताश्री विनयचन्द्रसूरि [अन्य ग०] ३८ विनोदश्री विद्वान् श्री प्रवर्तिनी ४२४ विबुधप्रभसूरि विनयधर्मा १८९, ४०६ विबुधराज विनयप्रभ मुनि, उपा० १८५, १९८, २०९, विमल ग० उपा० २१४, २१५, ३२७, ३३१ विमलकीर्तिगणि विनयप्रमोद [आचार्य शाखा] ३०६ विमलचन्द्र गणि, वा० विनयभद्र वाचनाचार्य ६४ विमलचन्द्र [आचार्य.] विनयभद्र [क्षेम०] ३३१ विमलचन्द्र [जिनभद्र०] विनयमति गणिनी १२५, ४०२ विमलप्रज्ञ [मु०, उ०] २५९ १३३, २२२ ६२२ २८५ २५७ ३६५, ३७४ १३१, ४०३ १४५ २२२ ३३८ १११ ३८१ ४१६ ४२१ १२९ ९, १३ २३७, ३४२, ३४३ . ४६, ४९ ३०६ ३४२, ३४३ १२८, १३९, १४० (४५६) परिशिष्ट-४ 2010_04. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ १२८ १२४ २८४ १५६ ३४७ १५७ ३०७, ३५५ व्रतश्री विमलप्रभसागर ३७५ वीरप्रिय १३१ विमलप्रभाश्री ४१८, ४१९ वीरभद्र मुनि, गणि ५४, ११४ विमललाभ [जिनविमलसूरि] ३१० वीरमऊ पं० [सागरचन्द्र०] ३३८ विमलविनय [जिनभद्र०] ३४१ वीरमेरु [बेगड़.] २७४ विमलश्री ३६०, ४२०, ४२२, ४२३ वीरवल्लभ १२७ विमलसागर ___ ३७२, ३७४ वीरशेखर विमलाकुमारी [डॉ० विद्युत्प्रभाश्री] ३७१, ४२३ वीरसुन्दरी १३१,४०३ विवेककीर्ति [बालचन्द्राचार्य] ३२५ वीरानन्द विवेकप्रभ वृद्धिचन्द्र [जिनभद्र०] ३४०, ३४६ विवेकरत्नसूरि २८३, २८४ वृद्धिचंद ३८१ विवेकसिंहगणि [पिप्पलक०] वृद्धिसमृद्धि गणिनी विवेकवर्धन [जिनभद्र०] व्रतधर्मा [क्षुल्लिका] ४०५ विवेकवर्धनआश्रम ३४७ व्रतधर्मी विवेकविजय [बेगड़ जिनचन्द्रसूरि] २७६, २७७ व्रतलक्ष्मी १३१,४०३ विवेकविजय १५५ विवेकश्री सा० गणिनी १११, १२४, ४०२ शरच्चन्द्र विवेकसमुद्र [ग०, उपा०] १३१, १३७, १४४, शशिप्रभसागर ___ १४९, १५२, १५८, १६८, १७०, १९५, २०८ शशिप्रभाश्री ४१८ विवेकसागर [कीर्तिरत्न०] ३५०,३७८ शान्तमति १११, ४०१ विशालकीर्ति उपा० [सागरचन्द्र०] ३३७ विश्वकीर्ति शान्तमूर्ति वीरकलश गणि शान्तिचन्द्रगणि [अन्य ग०] ३६४ शांतिविजय योगिराज वीरचन्द्र ६२,१५३ वीरचन्द शान्तिसमाधि ३११ ३७४ वीरजय शान्तिसागर वीरजी [बेगड़० जिनचन्द्रसूरि] शान्तिसागरसूरि [विजयगच्छीय आ०] २५४, वीरतिलक शान्तिसागराचार्य २२० १२५ वीरदेव शान्तिसोम [जिनभद्र०] ३४४ वीरपाल [आचार्य०] शान्तिसौभाग्य [क्षेम०] ३०३ ३३१ वीरपुत्र आनन्दसागर ३५८, ३६०, ३६८, ३७५ शान्तिहर्ष [क्षेम०] ३२८, ३३२ वीरप्रभ मुनि, गणि १११, ११५, ११७, शालमंजरी ४०४ ११८, १२१, १२४, १३५ शिवचन्द्र २८५, २८६ १२५ ३७५ १५१ ३८ १२५ ४०३ २७७ ६२ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४५७) 2010_04 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ३३४ २५७, ३३० ३३० १४२ १२६ ६४ २३२ ३१२ ३३४ ३३९ ३६ २६१ २६६ शिवचन्द्रगणि उ० महो० [क्षेम०] २५७, ३२९, शोभनसागर ___३३०, ३३१, ३३२ शोभाचन्द्र वा० [क्षेम०] शिवचन्द्रसूरि [पिप्पलक०] २८५ श्यामलाल गणि शिवजीराम ३५८, ३६३ श्यामलाल [क्षेम० सुमतिपद्म] शिवधर्म वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ श्रीकलश शिवनंदनगणि उपा० [सागरचन्द्र०] ३३८ श्रीकुमार शिवनंदन [जिनभद्र०] ३४१ श्रीचंद्र शिवरत्न [आद्यपक्षीय] २९२ श्रीचन्द्र शिवराज [आद्यपक्षीय] २९२ श्रीचन्द्र शिवराज [क्षेम०] ३३३ श्रीचन्द्र [क्षेम०] शिवलाल [आद्यपक्षीय] २९२ श्रीचन्द्र [सागरचन्द्र०] शिवलाल [क्षेम०] ३३३ श्रीचन्द्रसूरि [अन्य ग०] शिवश्री साध्वी प्र० ४०८, ४२०, ४२२, श्रीचन्द्रसूरि [रुद्र०] ४२३, ४२४, ४२५ श्रीचन्द्रसूरि [लघुशाखा] शिवश्रीमंडल [साध्वी समुदाय] ४२५ श्रीतिलक [रुद्र०] शीर्षसमृद्धि ४०५ श्रीदेवी शीलचन्द्र वाचक २१७ श्रीधर [जिनेश्वरसूरि प्रथम] शीलचन्द्र [जिनभद्र०] ३४१ श्रीधर वा० [क्षेम०] शीलधर्मा १८९, ४०६ श्रीधर्मगणि [सागरचन्द्र०] शीलभद्र ४७ श्रीपति [बुद्धिसागरसूरि] शीलभद्र गणि वाचनाचार्य श्रीप्रभ शीलमंजरी [क्षुल्लिका] १४९ श्रीमती शीलमाला गणिनी १२४, ४०२ श्रीरंगसूरीयशाखा [खरतरगच्छ शीलरत्न १२६ की उपशाखा] शीलसमृद्धि १६० श्रीवल्लभ उपा० [जिनभद्र०] शीलसागर ६२, ८७ श्रीविजय शीलसुन्दरी गणिनी १२६, ४०३ श्रीसार पाठक [श्रीसारशाखाप्र०] शीलांक ३८ श्रीसार उपा० [क्षेम०] शुभचन्द्र २०२ श्रीसुन्दर शुभशीलगणि [पिप्पलक०] २८३ श्रीसूरि [मधु०] शुभसागर ३७८ श्रीसोम शृंगारश्री ४१० श्रीसोम गणि [क्षेम०] २६४ ६४, ४०१ ११ ३३४ ३३८ ४९ श्री ११ १११ ४७, ४९, ४०१ ३१४ ३४०, ३४५, ३४६ १२४ ३०९, ३१० ३२७ २३१ २६० २३२ ३३२ (४५८) 2010_04 परिशिष्ट-४ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ १२६ ६५ संघतिलकसूरि [रुद्र०] २६२, २६४ समयमूर्ति [सागरचन्द्र०] ३३७ संघप्रमोद १२६ समयराज उपा० २३१, ३०२ संघभक्त १३० समयसुन्दर मुग०उ०महो० ३६, २११, २२६, संघहितमुनि उपा० १२६ २२७, २२८, २३१, २३४, २३५, २७६, २९७, २९८, संविग्नपक्ष ३५३ ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०७, ३३६, ३५२ संयमश्री १११, ४०१ समयसुन्दर गणि [क्षेम०] ३२९, ३३२ संवेगदेवगणि [अन्य ग०] ३६ समर्थ [सागरचन्द्र०] ३३७ सकलकीर्ति [सागरचन्द्र०] ३३८ समाधिशेखर सकलचन्द्रगणि २३१, ३०२ समीरमल [सत्यनन्दन] ३३६, ३३७ सकरमल [आद्य०] २९१ समुद्रसोम [कीर्तिरत्न०] ३५० सकलहित [मुनि] १२९ सम्यक्रत्नसागर ३७३, ३७५ सज्जनश्री प्र० ३६४, ४१२, ४१५ सरस्वती ५४,४०१ सत्यधीर गणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ सर्वज्ञभक्त सत्यनन्दन [सागरचन्द्र०] ३३६ सर्वदेव गणि ९,४० सत्यमाला गणिनी १२४, ४०२ सर्वदेवसूरि १११, ११७, १२४, १३५ सत्यरुचिगणि उ० [जिनभद्र०] ३४५, ३४६ सर्वदेवाचार्य सत्यविनय [जिनभद्र०] ३४७ सर्वराज गणि, वा० १३१, १३७, १४९, १७० सदानन्द उ० [क्षेम०] ३३४ सवाई विजय वादीन्द्र [जिनरंग०] ३१२ सदाराम मुनि [क्षेम०] ३३३ सहजकीर्ति वा० महो० [क्षेम०] ३२७, ३२८, सभारत्न [जिनभद्र०] ३४४ ३३२, ३३४ समयकलश [सागरचन्द्र०] ३३७ सहजज्ञान २१० समयकीर्ति २३२ सहजविमल [आचार्य०] ३०३, ३०४ समयकीर्ति [आद्यपक्षीय] २९१ सहजहर्षगणि [क्षेम०] समयकीर्तिगणि वा० [कीर्तिरत्न०] ३४९ सहजानंद ३९२, ३९३ समयधीर वा० [क्षेम०] ३३४ सहदेव गणि ८, ९, १३ समयध्वज [लघुशाखा] २६७ सहदेव ११०, ४०० समयध्वज [जिनभद्र०] ३४१ सहोजी पं० [क्षेम०] समयनन्दि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ सांवल वा० [क्षेम०] समयनिधान [आचार्य०] ३०३ साकरचन्द [क्षेम०] ३३४ समयप्रभ उपा० [जिनभद्र०] ३४० सागरचन्द्र २११, २१२, २१६ समयप्रमोद २३१ सागरचन्द्र [बेगड़०] २७४ समयभक्त [सागरचन्द्र०] ३३६, ३३७ सागरचन्द्रसूरि [ आचार्य] २१७, २८०, ३३६, ३३७ ३३२ ३३४ ३३४ (४५९) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ३३८ ३५९ सागरचन्द्रसूरिशाखा २९३ सुखलाभ उपा० [कीर्तिरत्न०] ३५० सागरानन्दसूरि [अन्य ग.] ___३९, ३६३ सुखवर्धन [क्षेम०] ३२९, ३३२ साधुकीर्ति ग० वा० उ० २२४, ३४०, ३४१, सुखविलास [सागरचन्द्र०] ३४२, ३४३ सुखसागर गणाधीश ३५५, ३५७, ३६९, साधुचन्द्र वा० २९३ __३९१, ४०८, ४०९, ४१०, ४२५ साधुचन्द्र वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ सुखसागर समुदाय ३५२ साधुतिलक २१४ सुखसागर उपा० [कीर्तिरत्न०] ३५०, ३७४, साधुभक्त १२७ ३७७, ३७८, ३८० साधुरंग उपा० [आचार्य०] ३०६ सुखहेमगणि वा० [सागरचन्द्र०] साधुरंगगणि [क्षेम०] ३३१ सुखानन्द पं० [क्षेम०] ३३४ साधुलाभ वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ सुगनजी ३५४ साधुसुन्दर उपा० २३७, ३४०, ३४२, ३४३ सुगुणकीर्तिगणि वा० [क्षेम०] ३३३ साधुसोम उपा० ३६, ३४०, ३४१ सुजसकीर्ति [सागरचन्द्र०] ३३८ साम्यानन्दमुनि ३९८ सुजाणमल [महो० सुमतिसागर] सारंग [जिनमाणिक्यसूरि] २२१ सुधाकलश १४१, १५१ सारंग [आचार्य.] ३०३ सुधर्मा स्वामी [गणधर] ५, १२८, १८१, १८९ सारमूर्ति १५७, १९८ सुन्दरबाई [सुवर्णश्री] ४११ सालगौ ३८१ सुन्दरमति १११, ४०२ सिंहश्री [शिवश्री] ४२०, ४२१, ४२२ सुन्दरश्री सिद्धकीर्ति गणि १२५ सुन्दरी १३६ सिद्धसेन २०७ सुबुद्धिराज मुनि, गणि १३१, १५१ सिद्धसेन १११ सुमति मुनि, गणि सिद्धसेन [जिनसागरसूरि] २३३, २३४, २९७ [प्र० जिनेश्वरसूरि शिष्य] ८, ९, १३, १८, २० सिद्धांजनाश्री ४१७ सुमतिगणि [जिनपतिसूरि शिष्य] ३९, १११, सिद्धान्तरुचि उपा० महो० ३४०, ३४१ ___ ११४, ११५, ११७, १२३ सिद्धिसोमगणि [क्षेम०] ३३३ सुमतिगणि [आचार्य०] २९८ सीमंधरस्वामी १२७, १२८, १३१ सुमतिकलश २२२ सुखकीर्ति [ क्षुल्लक] १४९, ४०४ सुमतिकल्लोल २३०, २३१, २३२ सुखकीर्ति गणि १८२ सुमतिकीर्ति .. १५० सुखकीर्ति [जिनसुखसूरि] २३९ सुमतिकीर्ति [आचार्य०] ३०३, ३०४ सुखनिधानगणि वा० [सागरचन्द्र०] ३३८ सुमतिधीर २२३ सुखमाल [आचार्य० जिनचन्द्रसूरि] २९९ सुमतिपद्म [क्षेम०] ३३० २९६ (४६०) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमतिपद्म [ श्यामलाल ] सुमतिमण्डन [सुगनजी ] सुमतिमंदिर सुमतिमुनि सुमतिरंग उपा० [ कीर्तिरत्र० ] सुमतिलाभ सुमतिवर्धन सुमतिवर्द्धन सुमतिवल्लभ [ आचार्य० ] सुमतिविशाल सुमतिशेखर मुनि, महो० सुमतिसागर मुनि, महो० सुमतिसागर उपा० [ आचार्य० ] सुमतिसार [क्षुल्लक] सुमतिसिन्धुर [क्षेम० ] सुमतिसुन्दर सुमतिसुन्दर गणि सुमतिहंस [आद्य०] सुमितप्रज्ञाश्री सुमेरमल यति सुयशप्रभसागर सुयशसागर सुरंजनाश्री सुरेखा श्री सुलक्षणाश्री सुलतानकुमार [जिनचन्द्रसूरि ] सुलोचना श्री सुवर्णप्रभ सुवर्णश्री प्रवर्तिनी सुवाई जी [क्षेम०] सुशीलमुनि [ स्थानकवासी ] खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 ३३२ ३५५, ३५६ २२२ ३९८ ३४९, ३५१ २२२ ३५५ ३८१ २९८ ३७४ २३१, २३२, २५४ २५६, ३५८, ३६०, ३७४, ३७७, ४१० ३०६ १८१ ३२८ २३२ ३३२ २९०, २९२ ३७३, ३७५ सुशीलाकुमारी [ सूर्यप्रभाश्री ] सूजा [क्षेम० ] सुजो [ क्षेम० ] सूरचन्द्र सूरदास [आचार्य० ] सूरप्रभ [ मु०वा० उपा०] सूरप्रभाचार्य सूराचार्य [ चैत्यवासी ] सूर्यकान्त [ सुयशसागर ] सूर्यकुमार [मणि० जिनचन्द्रसूरि ] सूर्यप्रभाश्री ४१६, ४२१ २१६ ४११, ४१२ सूर्यमल्ल यति सूर्यसागर [ दिगम्बर आचार्य ] सोभाचन्द्र वा० [ क्षेम० ] सोमकलश [जिनभद्र० ] सोमकीर्ति ४१७ २५८ सोमचन्द्र ३७७ सोमचन्द्र वाचक [जिनभद्र० ] सोमकुंजर सोमकुंजर [जिनभद्र० ] सोमचन्द्र [जिनदत्तसूरि ] सोमतिलकसूरि ४१६ सोमदत्तसूरि [ बेगड़० ] ४१७ सोमदेव ४२२ सोमध्वज [ रुद्र०] २२३ सोमध्वज [ क्षेम० ] सोमप्रभ सोममूर्त्ति गणि सोमविजयगणि [तपागच्छ ] ३३४ सोमविजय [ तपागच्छीय ] २५९ सोमसुन्दर मुनि, उपा० वा० ४१८ ३३५ ३३४ २३३ ३०३ ११०, ११७, १२५ १२३ ४, ५ ३७३ ६० ४१८, ४१९ ३१६, ३१७ ३६६ ३३४ ३४२ १८७ २०८, २१८, २१९ ३४५, ३४६ ९, ४०, ४१, ४२, ४००, ४०१ १६० ३४६ २६२ २६९ ८७ २६४ ३२७ ११०, १८५, २०९, २११ १३५ ३९ २३५ १४५, १५५ (४६१) Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ३३३ सोमसुन्दर वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ हरिभद्रसूरि [प्राचीन] १२, ३९, ९७, १३६, ३०७ सोमसुन्दरसूरि [तपागच्छीय] ___३८ हरिभद्रसूरि [अभयदेव० शि०] १९, २५ सोमसुन्दरसूरि [रुद्र०] २६२, २६३ हरिभद्राचार्य [आचार्य वृहद्] सोमहर्षगणि उपा० [क्षेम०] ३३३, ३३५ हरिमूर्ति १५७ सोहनश्री ४१४ हरिराम [आचार्य०] ३०३ सौभाग्यकलश ३०१, ३०२ हरिसागर गणाधीश ३६७,३७४,४१३ सौभाग्यमुनि ३९८ हरिसिंह [जिनहरिसागरसूरि] ३६० सौभाग्यविलास गणि उपा० [क्षेम०] ३३३ हरिसिंह [मुनि] सौभाग्यविशाल २४७ हरिसिंहाचार्य ४०, ४३, ४९ सौम्यगुणाश्री ४१८ हर्ष [आद्यपक्षीय] २९१ सौम्यमूर्ति १३० हर्षकलश गणि [क्षेम०] ३३२ स्थानसागर ३५९, ३७२ हर्षकल्लोलगणि [कीर्तिरत्न०] ३४८ स्थिरकीर्ति [मुनि, ग०] १३९, १४९ हर्षकल्लोल वाचक [कीर्तिरत्न०] ३४९ स्थिरचन्द्र [मुनि, ग० वा०] ४५, ४९, ६६ हर्षकुंजरगणि उपा० [क्षेम०] स्थिरदेव ६४ हर्षकुशल [आचार्य०] ३०३ स्थिरमुनि ३६५, ३७४ हर्षचन्द २०२ स्थिरहर्ष [सागरचन्द्र०] ३३८ हर्षचन्द [आचार्य०] ३०३ स्थूलभद्र १८१ हर्षचन्द [क्षेम०] स्थूलिभद्र [आचार्य] १२२, ३५३ हर्षचन्द्र २३८ स्वरूपचन्द [आद्यपक्षीय] २९२ हर्षचन्द्र गणि २११, २१४ स्वर्णमेरु २१२ हर्षदत्त १२६ स्वर्णश्री ४१३, ४१९ हर्षनन्दन वादी २९७, २९८, ३०२, ३०३, ३०४ हंसाकुमारी [प्रकाशश्री] ४२३ हर्षनिधान [आचार्य०] हंसराज [आचार्य०] ३०३ हर्षप्रभा १३९, ४०३ हंसविलास २५४ हर्षमुनि ३८३, ३९८ हंससागर ३७५ हर्षमूर्ति १८९ हंसहर्ष [सागरचन्द्र०] ३३८ हर्षमेरु वा० [क्षेम०] हजारीनंद [आचार्य०] ३०३ हर्षराज हरखसागर ३७८ हर्षराज [जिनभद्र०] | ३४० हरचंद [सागरचन्द्र०] ३३८ हर्षलाभ २३८ हरिकलशसूरि [रुद्र०] २६३, २६४ हर्षवल्लभ वाचक २३१ हरिप्रभ [मुनि] १८५ हर्षविजय पं० [कीर्तिरत्न०] ३५०,३५१ हरिभद्र [प्र० जिनेश्वर० शि०] ८ हर्षविमल २३१ हरिभद्रसूरि ९, १३, २७, ४०० हर्षविमलसूरि [आद्यपक्षीय] २९२ ३३४ ३०३ ३३४ २३१ (४६२) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ४२१ ३३४ १५१ हर्षविशाल [कीर्तिरत्न०] हर्षविशाल हर्षशील हर्षसागर हर्षसागरसूरि [आचार्य०] हर्षसुन्दरगणि [क्षेम०] हर्षसुन्दरसूरि हर्षसुन्दरी हर्षसोम पं० [सागरचन्द्र०] हर्षहंस वा० [सागरचन्द्र०] हस्तिरत्न वा० [क्षेम०] हितकुशल हितरंग [जिनहर्षसूरि] हितवल्लभ [जिनहंससूरि] हितवल्लभ उपा० [जिनभद्र०] हिमतराम [जिनहंससूरि] हिम्मतविजय [तपागच्छ] हिम्मतसागर हीरउदय हीरकीर्ति हीरधर्म उपा० हीरनन्दन हीरमुनि हीरविजयसूरि [तपागच्छ०] हीरसागर गणि [पिप्पलक०] हीराकर हीराचन्द्र वाचक [आद्यपक्षीय] हीराचन्द्रसूरि हीराश्री हीरोजी वा० [क्षेम०] हीरोदय हेतश्री हेमचन्द्रसूरि [पायचन्दगच्छ] हेमचन्द्राचार्य [अन्य ग०] हेमतिलक [मुनि, ग०] ३५१ हेमदेवी गणिनी २२७ हेमनन्दन [आद्यपक्षीय] २९१ २२२ हेमनन्दनगणि [क्षेम०] ३७४ हेमनिधान [सागरचन्द्र०] ३३८ ३०३ हेमपर्वत १२८ ३३३ हेमप्रज्ञाश्री ४१८ २६२, २६४ हेमप्रभ [मु०ग०वा०] १२४, १४२ १४५, २१३, ४०४ २१३ ४०४ हेमप्रभसूरि २६३ ३३८ हेमप्रभा १३४, ४०३, ४०४ हेमप्रभाश्री ३३७ हेमप्रमोद [क्षेम०] ३२८, ३३५ हेमभूषण [मुग०वा०] १३१, १५३, १६८ हेममंदिर २३५ हेममुनि ३९८ हेममूर्ति १८९ हेमराज [जिनचन्द्रसूरि] २३८ हेमरेखाश्री ४१७ २५८ हेमलक्ष्मी ३७४ हेमलता ४०५ २२२ हेमश्री १३६, ४०२ हेमश्री गणिनी १२५ ३२४, ३२५ हेमश्री ३८८ २३५ हेमश्री प्रवर्तिनी ४२४ ३९१, ३९८ हेमसागर [कीर्तिरत्र०] हेमसागर ३७८ २८६, २८७ हेमसार [भाव०] २९३ १३१ हेमसूरि [पूर्णिमागच्छीय] २९७ २९१ हेमसेन [मुग०] १३१, १६८ ३२६ हेमहंससूरि [तपागच्छीय] ४२० हेमहर्ष वा० [सागरचन्द्र०] ३३७ ३३४ हेमाचार्य [पूर्णिमापक्षीय आचार्य] २३६ २३१ हेमादेवी [प्रव०] ३८३ हेमावली १२५, ४०२ ३२१ हेमेन्द्रसागर ३७४ ३८, १३६, १८४ हेमेन्द्रसागर गणाधीश ३६८ १४१, १५१, १५४ 000 २३२ ३५० ३६ ३७ ४०१ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४६३) 2010_04 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास-गत श्रावक-श्राविकाओं की विशेष नाम सूची २९५ २०३ ४२५ अखा परीख २९८ अमरचंद बोथरा ३८४ अखिल भारतीय जैन यति परिषद् ३१७ अमरता अखैचंद झाबक ३५८ अमरसिंह अगरचंद गोलेछा २९६ अमरसी २९८ अचलदास २९८ अमरादेवी ३७६ अच्छुप्ता [देवी] २८९ अमीपाल २३४, २८९, अजयराज २४६ अमृतलाल शाह अजायबदे २९८ अम्बाजी १९४ अतिबल [अधिष्ठायक देव] ५८ अमोलकदेवी ४२० अधिगाली [देवी] ५८ अम्बिका [देवी] ४५, ४९, ५०, ५२, ५४, ६५, अनन्तमल ४१८ १३०, १३५, १४१, १५५, १५६, १७२, अनूपचन्द ३१२ १७९, १८१, २१४, २३६ अपराजिता [शासनदेवी] १६ अरसिंह अभयकुमार १८ अरजन, अर्जुन २१६, २८० अभयकुमार ८६, ८७ आईदान गोलेछा अभयचंद शाह १३३ आजड़ १३० अभयचंद २१५ आटा अभयचन्द्र आनन्द [भ० महावीर का श्रावक] १७७ १५०, १५१, १७२, १८२ आम्बड अमरचन्द नाहटा २५३, २५४ आम्बश्री १३६, १३९ अमरचन्द बच्छावत २५२ आम्बा १२८ २१२ ४२१ १३३ १३५ (४६४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ २८६ २५१ २४७ आल्हणसिंह १३२ ऋषभदास २३४, २९७, २९८ आंवा साह १७३, १८८, १९२ ओढर २८१ आंवा सेठ २०२ कचरमल्ल सं० २९८ आशा साह १९२ कटुक सेठ २०२, २१४ आसकरण २३६, २९७ कडुआ साह १७३, १७८, १८३, १८८, २८४ आसकरण चोपड़ा २३४, २९७ कडुआ धरणा २१५ आसदेव ४९ कनीराम झाबक ४०९ आसनाग १३० कन्हैयालाल गोलेछा ४१३ आसपाल १४३, १४४, १५० कपर्दि [यक्ष] १३३, १७२ आसराज ३४४ कपूरचन्द २३४, २८७, २९७, २९८ आसिग १२२ कपूरचंद जौहरी आसिगु [कवि] १३७ कपूर भणशाली आसीबाई [सा० प्रतापश्री] ४२० कमलादेवी २२०, २७० आह्लाक १४२ करणीदास इच्छा बहेन ४१७ करमचंद इन्द्रचन्द्र २४८ करमसी शाह २९८ इन्द्रचन्द्र दुगड़ २४९ कर्मचंद २४८, २९० इन्द्रचन्द पारसान ३१६ कर्मचन्द तावरिया इन्द्राबाई ३८९ कर्मसिंह सा० २०२ ईश्वर सा० १६३ कर्मसिंह २८१ २७० करुणादेवी २४७ उग्रसेन सं० २९९ कल्याणचन्द २५७ उछरंगदे २९०, २९९ कल्याणचंद छेलाभाई ३७७ उदयकरण २९८ कल्याणमल गोलेछा ३६४,४१५ उदयपाल सेठ १५९ कवियण उदा १३० कसाजीत मेहता ३०९ उदो साह २९० कस्तूरचन्द लूणिया ४०९ उद्धरण ९९, १०२,११०,१५६,१८६ २८७ उमरसी भाई ३८९ कस्तूरदेवी ४२२ उमा [श्राविका] २१३ कस्तूरबाई २३८ ऊद कवि २६४ कस्तूरीदेवी ३७२ ऊदा सा० १३३ कानजी ३०० २९० ईसर ३०६ (४६५) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानमल सेठ कान्हड कान्हा सा० काला से० कालाजी [देव] कालादे कालिदास महाकवि कालू सेठ कालू मुंहता किशनलाल कीटक सा० कीरतसिंह साह कोल्हू [ श्रावकपुत्री ] कुंवरजी भाई कुन्दनदेवी कुमरसिंह सा कुमार श्रेष्ठी कुमारपाल श्रेष्ठी कुलचन्द्र श्रेष्ठी कुलधर श्रेष्ठी कुलणादेवी कुंशल कुशलसिंह दोसी कृष्ण [ पंडित ] केल्हण केवलचंद गोलेछा केशरी [ श्राविका ] केशरीचंद केसरदेवी कोचर सा ३७८ कोडमदे २१४ कोडा शाह १७३ १५९, १६१, १७६, १७८, २०५ २८९ २९१ ३३६ १७३, १७४, २७० २७० ४२१ १७३ २०५ २११ ३७० ४०९ १९१ (४६६) 2010_04 कोमलदेवी कोशावेश्या क्षेत्रपाल [देव-यक्ष ] क्षेमंधर श्रेष्ठी २४५, ३६०, ३६६ २१३ क्षेमसार वैद्य क्षेमसिंह श्रेष्ठ १४२ १२८, १२९, १३०, १३९, १४०, १४९, १६१, १९८, २०६ ५६, ५७, ५८, १२२, १३२, १३६, १५५, १५६, १७४ १८६, २०२, २६६, २७३ ३६० २८६ २८७ खेतू १४४ खेमचंद खंभराय खिम्बड़ खींबड़ सेठ खीमड़ श्रेष्ठी खीमड़ सा० खीमराज भीमराज खीमसिंह व्यव० खीमिणी खुश्यालसिंह खेतदेवी खेतलदेवी खेतसिंह सा० खेताही ३५३ १७२, २८३, ३३६, ३४८ ५४, ९८, ९९, १००, १०१, १०२, १०८, १०९, ११०, १३०, १७२ ३४ १२८ खेमू ४१२ खोड़िया [ क्षेत्रपाल देव] ३०९ गज ३६१ गणदेव गणदेव श्रेष्ठी गणधर श्रेष्ठी २९३ २९३ १४९, १६६ १२८, १३४, १३५, १३९, १४०, १४९, १८१ १४९ १३६ १२५, १७, १८२ १२९ १८०, २१५ २९१ १९१ २८१ २९५ ३७० २१६, २६५ १६३, १७१, १७२, २०२, २१४, २१३ २०९ १३६ ३२० २१३ २२९, २७५, २८९ १५३ २९ १३१, १४५ ५४ परिशिष्ट- ४ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेशलाल वैराठी गांगा साह गांधीजी गिरधर शाह गुणचन्द्र [ सूत्रधार ] गुणधर सा० गुणराज शाह गुमानमल गुलाबचंद गुलाबचन्द बोहथरा गुलाबचन्द बोहिथरा गुलाबचंद लूणिया गुलाबचंद ढढ्ढा गुलाबराय गेटा गेंदामल गोकुलचंद पुगलिया गोगादेवी गोपा साह गोपाल श्रे० गोमीबाई गोरसी गोराजी [देव] गोल्ल गोल्लक श्रेष्ठी गोवल गोसल सेठ गौरा 2010_04 ३१७ चंचलबाई १७४ चक्रेश्वरी [देवी] चण्डिका [देवी ] चतुर्भुज १३३, १६९ २९८ ४२१ २४३, २४८, २९८, ३६२ २५१ २५० ४१५ घाटम घासीलाल मांगीलाल गोलेछा घेवरचन्द कोठारी ३६५ २९९ १२६ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास ६१, १२२ ५४ २१४ १७४, १७६, १७८, २०२ ३०९ २८१ ३६३ ३१३ २१३ ४२१ ३६१ ४२२ २३८ १५९, १७३, १७४, १७६, १८६, १८८ ३९१ ३०९ २८९ चाम्पा चन्दनबाला [ श्राविका ] चन्दनमल छोगा जी चन्द्रकलादेवी ३६४ २५२ चन्द्रभाण परीख चन्द्रादेवी चमनादेवी चमेलीबाई चम्पा बहेन चंपालाल प्यारेलाल श्रेष्ठी चाचड़िया [देव] चाचादेव चाचिग सेठ चांदमल श्रेष्ठी चांदमल चोपड़ा चांदमल पटवा सेठ चांदमल बाफना श्रेष्ठी चांपलदे चांपलदेवी चांपसी चाहड़ श्रेष्ठी चिमनभाई चिमनाजी मुमुक्षु चुन्नीबाई चुन्नीलाल बाफणा श्रेष्ठी चैनादे चौथ चौथाबाई ३९६ ३१९, ३९१ २५ ३७१ ४१७ ३६१ २५९ २९८ ४२१ ३२० ३७३ ४१६ ३७७ २८९ २७४ १९१ ३६१ ३९१ ३८३ ३२१ २२५ २३३ २२५, २३३ २१४ १५१, १५६, १८६, २०२ ४१७ ३९३ ३५८ ३९० ३०१ २७४ ३२२ (४६७) Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ १६ २५२ ४११ ३१७ छुट्टा २७४ २५० ३४ २३५ २९१ २८४ छज्जल सेठ १७४, १७७, २०४ जयसिंह छज्जलशाह १८१ जया [शासनदेवी] छतराज शाह २७८ जयादेवी [श्राविका] छाड़ा व्य० १८० जवार कंवर [श्राविका] ३२१ छीतम शाह १७२ जवाहरबाई छुट्टनलाल प्रेमचन्द ३२० जवाहरलाल नेहरू जवाहरलाल राक्यान ३१७ छोगमल मुंहता जसदेव [सूत्रधार] छोटालाल मगनलाल पारेख श्रेष्ठी ३८६ जसधर जगतसिंह जसमा २७१ जगधर सेठ जसमादे जगद्धर श्रेष्ठी जसवंतदे १२४, १२९ जालन्धरा [देवी] १२२ जगसिंह श्रेष्ठी १५१ जाल्हण सा० श्रेष्ठी १५६, १६८, १७१, १७४, जगिया सा० १७७, १८०, १८६, २०४, २१५ जट्टड़ साह १९१ जासु बहन जतनदेवी ४२५ ३६८ जिनदत्त २८२ जतनादे ३०० जिनदेव साह २०५ जनार्दन गौड़ [पंडित] जिसहड़ गो० १४४ जमनालाल जीतमल गोलेछा जमनादास मोरार ३६१ जीतमल पारख ३६०, ४०९ जमुनादास मांडावत जीतमल बोथरा जमुनालाल ४२४ जीतसिंह ३१२ जमनादे जीया २७४ जमनादेवी ३७२ जीयोदेवी ४२४ जयतश्री १६८ २२१ जयतसी शाह ३१० जीवराज भणशाली २९७ जयता सेठ १७८ जीवा २८२ जयदेव महाकवि [गीतगोविन्दकार] १३०, ३२९ जीविग १३० जयदेव १३२ जुगराज बरड़िया जयन्ती [शासनदेवी] १६ जठिल २७० जयमल तेजसी २३७ जेठमल २९५ जयमल्ल श्रेष्ठी २३८ जेठू साह ६६,७२ ३७२ ४०९ ४२१ २९६ २७१ जीवराज ४१३ परिशिष्ट-४ (४६८) 2010_04 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेणू जेतसी जेतीबाई जेहड़ जैत्रसिंह गोठी जैसल श्रेष्ठी जोधा जोधो साह जोरावरमल झबकूदेवी झमकूबाई झांका झांझड सा० झांझड़ मु० झांझण श्रे० १३९ तारादेवी २३७, २४६,३१६ २८९ तालेवर श्रेष्ठी २४४ ३५७ ताल्हण सा० १६१,१७३ २१३ तिलोकचन्द २४६ १६९ तिलोकचंद लूणिया ३५४ १५४, १५५, १७१, २११ तिलोकसी शाह २३७, २६९ १५३ तिहुअणपालही १३३ २९१ तिहुण सेठ १५६,१६९ ३१८ तिहुणा २८२ २६८ तीवी [श्राविका] १३२ ४२३, ४२४ तुलसीदास ३०६ १६९ तेजकरण कोठारी ३६६ १८६, १९४ तेजपाल सेठ १३२, १६३, १६८, १७०, १७१, २७५ १७२, १७४, १७६, १७७, १७९, १८०, १४२, १५२, १५६, २०२, १८१, १८४, १९६, २०३, २१४, २१५ २०६, २६८ तेजसी श्रेष्ठी २३८, २८९ १८२, २०२ तेजादेवी ४१८ २५२, ४१८ तोल्हा २१२ २७६ त्रिपुरादेवी [देवी] २७३ २८१ त्रिलोकचन्द ३६१ त्रिशला [भ० महावीर की माता] ३८ २१३, २८३ थक्कण २८३ थानसिंह श्रेष्ठी २३३ २५७ थालण सेठ १५६ २१३ थाहरुशाह भणशाली श्रेष्ठी २३६, २९७, ३२८ २२० थेहड़ श्रेष्ठी १२८ २९९ दनाभाई देढ़िया ३९२ ३८८ दलिकहरु २९५ दाखीदेवी २९०, ३११, ४१८ दाडिमदे २९०, २९९ ३१३ दानमल २८९ दामजी भाई झांझां श्रेष्ठी ज्ञानचंद टीला डालू ३१२ १३२ डाह्याभाई सेठ डूंगर डूंगर मं० डूंगरमल संघपति डूंगरसिंह डूंगरसी डूंगरसी डोसाभाई लालचंद तख्तसिंह ताराचंद ताराचन्द जोरामल तारादे १३९ ३७१ ३१८ ३९६ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४६९) 2010_04 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपचन्द दीपचन्द गोलेछा दीहा सा० दुर्गादेवी दुर्लभजी भणशाली दुलीचंद साह दुलीचंद हमीरचन्द गोलेछा देको दासेठ देदा दोदो साह देपमल्ल देपाल सा० देल्हा देवकर्ण देवकी देवकुमार देवचंद देवचन्द्र देवधर देवनाग श्रेष्ठी देवराज सा० देवलदेवी देवसिंह देवानन्दा [ब्राह्मणी, महावीर की माता ] देवीदास देवीदास मुकीम देवीदास हकीम देवीसिंह श्रेष्ठी देवेन्द्र देहड़ छो० देहड़ वै० (४७० ) 2010_04 ३१६ दौलतचन्द झाबक २५६ धणसिंह २१८ धणेसर श्रेष्ठी ४११ १५४ ३१२ ३६१ २१९ १५६, १७३, १९० २७० २९० ३४८ १८०, २०५, २८१ २८२ २९८ २९८ १३३ २८१ १११ ४८, ४९, ५० ५४ १६६, १७३, १८१, २२१ २१९ १४४, १५७ ३८ धनचन्द्र श्रेष्ठी धनजी धनजी बोथरा धनद [यक्ष ] धनदेव श्रेष्ठी धनदेवी धनपतसिंह श्रेष्ठी धनपाल श्रेष्ठी धनराज धनराज बोथरा धनसिंह सेठ धनी भण० धनीराम धन्ना धन्नालाल धम्माभाई धरणेन्द्र [देव] धरणेद्र - मेघमाली [देव] धरणा सा० धर्मचंद धर्मचन्द गोलेछा श्रेष्ठी धर्मदास धर्मसिंह श्रेष्ठी धर्मसी ३११ ३१३ ३१२ १५६ धांधल श्रेष्ठी १११ धाधूं सा० १३२ धापूबाई १३३ धारलदे ४०९ २०९ १०१ १४१ २९८ ३६३ १३९ ३२, ३४, ४३, १३३, २०२ ३०६ २५४ १३०, १३१, १३२, १३३, १५२, १५५, १८२ २२० ३५९ २०४ १५७ ४१६ २७५ ३७३ ३७७ २, २६८ २७५ २१५, २८४ २४८ २५३, २९६ २८१ १७२, १८०, २३३ २३५ १३०, १३९, १४२ १५८ ४१७ २३३, २९४ परिशिष्ट- ४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ २०६ १३५ धारलदेवी २१०, २३५ नान्हक सा० धारसिंह १३० नारायणदास ३१० धारा श्रेष्ठी २९४ नारायण शाह २८९ धारीवाल २८८ नाल्हाशाह श्रेष्ठी, संघपति २१७, २८१, २८२ धीणा सेठ १७१, १७४, १७८ नाल्हिग [श्रेष्ठी] २१७ धीणिग शाह १९१, २१६ निबोध १३९ धींधा श्रेष्ठी १३२ निहालचंद राय ३०९ धीधाक श्रेष्ठी १२७ निहालचंद शाह ३६७ धीना साह १७२ नीम्बदेव श्रेष्ठी १३१, १८४ धीरा सा० १९० नींबा सा० १८०, २०३, २११ धीरुमल्ल २९९ नेणबाई ३८९ धुस्सुक सा० २०२ नेतसिंह २९७ धूडीदेवी ४२४ नेमा साह नथमल २३८, ३१२, ३१३, ३६४ नेमिकुमार श्रेष्ठि १३१, १४५, १५३, १५९ नथमल गोलेछा सेठ ३८४, ४११ नेमिचन्द १११ नथमल्ल मुंहता २५० नेमिचंद भंडारी नंदण सा० नेमिचन्द सा० १८४ नंदन साह १७३ नेमिचन्द्र नौलखा १५६ नंदा २१५ नेमीचन्द नंदीश्वर तीर्थ [शाश्वत तीर्थ] १२६ नेमीदास २४४ नयण सा० २८४ नेमीदेवी ३७३ नरपति १३० नैणसी २९४ नरपाल सेठ १८८, १९२, २८१ नोग नरसिंह सेठ १७१ पंचानन [ज्योतिर्विद्] २२७ नवहा [ श्रावक] १७३ पंचायणदास नागजी ३८९ पंचायणदास शाह ३१० नागदेव सा० २०२ पत्ता २७४ नाजूदेवी २५५ पद्म श्रेष्ठी नाथू सा० १९१ पद्मदेव १२२ नानजी [लब्धिमुनि के लघु भ्राता] ३९२ पद्मदेव साह २०५ नानालाल ३०९ पद्मप्रभ ३४ নানি। २२९ पद्मसिंह १३२, २१४ १८८ ३७३ २७४ २४२ १६१ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४७१) 2010_04 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ पद्मसी साह पद्मा सा० पद्माकर पद्मादेवी पद्मावती [देवी] पद्मानंद [कवि] पद्रू पनाचंद सिंघी पन्नाबीबी पन्नालाल पन्नालाल मुणोत पर्वत पर्वतशाह २७२ पल्लक २१४ २८५ पीलू मोदरा २७० १५५, १७३ पुणसी भीमसी ३८९ १२९ पुण्यपाल २२१, २४२, २८५ पुरुषोत्तम ३२२ १२५, २६५, २६६, २८९ पूनड़ सेठ ३२ पूनमचंद गुलाबचंद गोलेछा सेठ ३६७ १२९, १३२ पूनमचंद रूपचंद भंसाली सेठ ३६७ ३६१ पूनमचंद सांड ३८२ २४८ पूनमचंद सामसुखा सेठ २५५ पूना सेठ १३१, १५६, १७३, २१८ ४१३ पूना संघवी २८३ पूनिग २११ २२७ पूरणचंद गोलेछा २५२ ३४ पूरणचन्द्र सेठ २०२ २९७ पूर्ण २४८ पूर्णचन्द्र श्रेष्ठी १११, १५३, १५९, १७३, १७४ ३७६, ३७७ पूर्णपाल श्रेष्ठी १३३, १३९, १४०, १८२, १९४ ३७७ पूर्णसिंह श्रेष्ठी १३०, २०४ ३६२ पृथ्वीराज ३०० २५५ पेढउ १३२ पेथड़ १३०, १३१,१७३ ३७१ पोमदत्त २२० ४२३ प्यारचंद पगारिया १३६ प्यारीदेवी प्रतापचन्द पारसान ५०,५६,१३३ प्रतापचन्द भंडारी ४११ २८३ प्रतापमल ३१८,३७२ १३३ प्रतापमल सेठिया ३६६ ६५ प्रतापसिंह साह २०३, २४८ १७३ प्रतापसिंह दूगड़ श्रेष्ठी १३२, १३३ प्रत्यंगिरा [देवी] २३८ प्रभादे ३०० २८१ पाता पानाचंद पानाचंद भगुभाई सेठ पानाभाई पानीबाई पाबूदान साह पारस कां० पारसमल पारसमल लुकड़ पार्श्व पार्श्वनाथ पाल्हण श्रेष्ठि पाल्हा साह पाल्ही पासट श्रेष्ठी पासवीर साह पासू सा० पीथा श्रेष्ठी ३९१ ४१९ ३१५ २५४ २८९ (४७२) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ३२९ बब्बूबाई १९४ ४३ प्रेमचन्द कल्याणचन्द्र श्रेष्ठी ३७६ बीजा सेठ १३०, १५१, १७२, १७८, २०५ प्रेमचंद केशरीचंद श्रेष्ठी ३७७ बुद्धिचंद ३८१ प्रेमचंद खजांची ३७७ बुधचन्द्र [श्रेष्ठी] १३० प्रेमचन्द रूपचन्द भण्डारी २९० बोधाक फतहचंद ३११ बोहित्थ [श्रेष्ठी] १५१, २०२ फतहसिंह ३१२ ब्रह्मदेव १३६ फतेचंद प्रेमचंद श्रेष्ठी ३७७ ब्रह्मशांति [यक्ष] फूलचंद गोलेछा सेठ ३७६, ३८३ ब्रह्मा [देव] फूलाबाई २९९ भंवरलाल कोठारी संघपति बच्छड़ श्रेष्ठी १२८ भगता देवी बनीबाई ४२३ भगवतीदास ३१० बन्ना गुणराज श्रेष्ठी २७२ भगवानदास श्रेष्ठी ३६७ भड़सिंह श्रेष्ठी १५२ बस्तीमल झाबक [म० विनयसागर] ३६४ भत्तउ शाह [कवि] १२२, १२३,१३७ बहादरमल शाह ३१८ भरत [चक्रवर्ती] बहुगुण वै०सा० १३२, १३३ भरत बहुदेव श्रेष्ठी २७ भाईदास बाघमल शाह २३४, २९७ भांडा १५३ बांचू १५१ भाखर बाणभट्ट महाकवि ३३० भागचंद बच्छावत ३०९ बादरमल [मोहनलाल जी म० के पिता] ३८१ भागचन्द्र श्रेष्ठी ३०० बालचन्द्र १३० भाग्यचन्द्र २२६ बालचंद्र सेठिया २४६ भादा सा० २१२ बालचन्द्र ४१७ भादो साह बावन वीर [देव] २३६ भानाजी नारायणशाह २८९ बालाबाई ४१८ भामह [श्रेष्ठी] बालूभाई सेठ ३८६ भावड़ १३० बाहड़ श्रेष्ठी १४१, १४२, १५०, १७३, १७८ भीकमचन्द वैद बाहड़देवी ४०, ४०० भीखा दोसी बीको साह २८९, २९१ भीम २१५ बीजड़ १३२, १३३ भीमड़ २१३ बीजड़ सा० १५३, १५५ भीमराज सेठिया २३९ २८९ ४१२ २८६ खरतरगच्छ का (४७३) 2010_04 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ २०२ २७० ५४ २३५ १९१ ३४९ भीमसिंह १३३, १३९ मन्नालाल लोढ़ा भीमसिंह सेठ १९० मन्नूलाल ३१३ भीमसी करमसी श्रेष्ठी ३९२ मंमी सा० भीमा सेठ १५६, १७३ मलूकचंद शाह ३१० भीषन संघपति २८१, २८२ महण १४२ भीष्म १७२ महणपाल व्यव० १८२ भुवनपाल श्रेष्ठी १२५, १२८, १३०, १६१ । महणसिंह सा० १३९, १५६, १५८, भुवनपाल १७२, १७४, १७६ भुवना १३३ महणा सेठ १६१ भूपतिराय ३१२ महर्द्धिक ९३, १८९ भूप हजारीमल गांधी ३२० महलाल भूरामल गोलेछा २५२ महादेव भट्टाचार्य [न्यायशास्त्री] भैरवदास २९५ महाधर साह भैरवदेव [देव] महानंद नौबतराय ३१३ भोजराज १५७, २४२, २७४, २७८ महालदे [श्राविका] २८९ भोजा साह १७२, १७६, २०५, २७४ महिराज सा० १६१,१७४ भोजाक श्रेष्ठी १३० महीचन्द्र सेठ भोला १३३ महीधर श्रेष्ठी भोलानाथ २४९ महीपति मगनीराम ३१८ महीपति शाह २८० मंडलिक व्यव० १८२ महीपाल साह २०६ मण्डलिक २१३, २१८ महीराज श्रावक २१८ माण्डलिक [जयसागर उपा० के भ्राता] ३४४ महेश्वरकवि ३४५ मणिभद्रयक्ष २२९ मांगीबाई ३८२ मणिभद्रवीर ३८६ माणकचंद श्रेष्ठी २४९ मनजी शा० २९८ माणकचन्द बागड़ी २५१ मनजी [जिनमणिसागरसूरि] ३६२ माणकचंद ३०१,३१२ मनसुखलाल ३५७ माणकचंद गोलेछा ३५७ मनोदानंद [पंडित] ११२, ११३, ११४, माणकबाई ११५, ११६ माणदेव मनोहरदास २९७ माणिक्य मन्ना १८१ माणू १८, २६५ २१३ (४७४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ माधवदास माधव दोसी मानजी कानजी सेठ मानदेव मानबाई मानसिंह मालग श्रेष्ठी मालणदे मालदेव मालाशाह श्रेष्ठी मालासा श्रेष्ठी माल्हा सा० मिठूमल मिनरूप मिश्रीमल मूथा मुकुन्दचन्द मुक्तिमल सिंघी मुंजालदेव मुणा मुनिया देवी मुरारि [सुप्रसिद्ध कवि] मूलचन्द मूलचंद हीराचंद श्रेष्ठी मूलचंद हीराचंद भगत मूलजी मूलदेव श्रेष्ठी मूलराज साह मूलादेवी मूलिग श्रेष्ठी मूलीबाई मृगादे मृगादेवी २७७ मेघकुमार [देव] १५८, १७८ २३७ मेघजी सोनपाल ३८९ ३६१ मेघनाद [क्षेत्रपाल] ३४, १३६ मेघमाली-धरणेन्द्र [देव] २७३ २९८ मेघराज बाफणा ३७६ २३८ मेघराज २२० २०९ मेघराज २८७ मेघा २८२ १८१ मेलू सा १७३ ३४९ मेहर ४३, ४८ २९५ मेहर सेठ १६१ १५८ मेहताब बाई ४१५ ३१७ मैनासुन्दरी ३८२ २५२ मोकलसिंह श्रेष्ठी १५३, १५४ ४१३ मोखदेव श्रेष्ठी १७७, १७८, १८१, ४२२ २०४, २०५, २०६, २०७ ३६९ मोतीचंद खेमचंद नाहटा [श्रेष्ठी] ३१९ २१४ मोतीभाई ३७७ १२२ मोतीलाल ४१६,४२३ ३१० मोतीलाल बुरड़ ४१२ १०० मोतीलाल शाह ४१६ ३१२ मोतीशाह सेठ ३१९,३७६ ३७६ मोतीशाह नाहटा श्रेष्ठी २८७ ३८९ मोल्हण २९८ मोल्हा १३०, १५१ मोल्हाक १२८ १३२, २०५ मोहकमचंद बोहरा श्रेष्ठी ३६१ २७२ मोहण सा० १५२, १७६, २०२, २१२ १२९, १३१, १३२, १४० मोहन श्रेष्ठी १४३, १४४, १६९, १९१ ४०९, ४१९ मोहनदास सा० १७३ २९७ मोहनलाल दलीचंद देसाई ३८० २३३ मोहनलाल दफ्तरी ३६४,३७२ २८१ १३३ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 (४७५) Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहा ४११ १४४ राजदेव श्रेष्ठी १३०, १३१, १३२, यशोदा ३०० १३३, १८१, २१२ यशोधर गोठी १५६ राजपाल २२९, २३३ यशोधवल श्रेष्ठी १२४, १३१, १४०, राजरुप टीक ४१२ १५९, १७१, १९४, २०२ राजलदे २१६, २३८ यशोवर्धन १२१, १२२, १३६ राजसिंह श्रेष्ठी १६९, १७४, १७६, १७७, योगीदास १७९, १८०, १८१, २०४, २८९ रगतियाजी [देव] २८९ राजसिंह २९७ रंगरूपदे २९१ राजा सेठ १७३ रंगाचार्य १८० राजाराम ३१२, ३५६ रघुपतिशाह २८१ राजाराम गिडिया श्रेष्ठी ३५४ रतनचन्द १५६ राजू १४० रतनचन्द गोलेछा ४०८ राणा २१३ रतनचंद खीमचंद ३७६ रातू सेठ १७३ रतनचंद सुचंती ३९१ राधाबाई २३१ रतनबाई [लब्धिमुनि की भगिनी] ३९२ रामचन्द्र २७७, २७८, २९८ रतनलाल गोलेछा श्रेष्ठी ३६० रामचन्द्र हजारीमल ३१६ रतनसी २९९ रामदास ३०० रतनसी सेठ श्रेष्ठी ३९२ रामदेव २१२, २१३ रतना संघवी २११ रामदेव [सूत्रधार] ३४ रत्न १३० रायचंद २९८ रत्नचन्द्र १७८ राय बणवीर २०९ रत्नादे २९८ रायमल गोलेछा २९७ रयण शाह १२३, १३७ रायसिंह २९१ रयपति सेठ संघपति १७२, १७३, १७४, १७६, राल्हा श्रेष्ठी १२५, १२६ १७७, १७८, १७९, १८०, २१० रावणकुमार २१६, २१७ रयणादेवी २२१ रावतमल ४२४ रवजी सोनपाल सेठ ३८६, ३८९ रासल रविशंकर शुक्ल ३४७ रासल श्रेष्ठी ___१०१ राउलदेव २२१ रासल [श्राविका] १३३ राघवदास २७७ रासल्ल ___३४ राजकंवर ३२१ रिखबचंद चोरड़िया ३८९ ४४,५१ परिशिष्ट-४ (४७६) 2010_04 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिणमल रुक्मिणी रुघजी शाह रुघनाथ रुढ़मल रुद्रपाल सेठ रूपचन्द्र सा० रूपचन्द रूपजी रूपचन्द मेहता रूपसी रूपसी मेहता रूपा सा० रूपादेवी रूपा बोहरा राज भाई रोहिणी देवी लक्ष्मी लक्ष्मीचंद लक्ष्मीचंद लक्ष्मीचन्द चोपड़ा लक्ष्मीचंद बैद सेठ लक्ष्मीचंद्र लक्ष्मीदेवी लक्ष्मीधर श्रेष्ठी लक्ष्मीबहन लखण सा० लखम लखमसिंह लखमसी लखमा सा० २९८ ३१२ १६१, १६२, १६४, १६८, १७०, १७१, १८०, १८४, १८६, २११ १३०, १५३ २४५, ३०० २७५ ३०७ ३०२ ३११ १७२, १९०, १९२ २९८ लखमादेवी १३५ लखमिणि ३१८ २७६, ३११, ३१७, ४१३ २८७ ३८९ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 लखमिणिदेवी लखमीचंद लक्खणसीह लखा साह लद्धू लहरबाई लाखण सा० लाखा लाखा भणशाली लाछल देवी लाड़देवी लाजमदेवी लाधूराम बुरड़ लाभू देवी लालचन्द ३७१ लालचन्द भगवानदास गांधी १२५ लालचंद सालमसिंह श्रेष्ठी २९८ लालण ३५७ ४२२ ३८९, ४१२ लालण साधु लालू लीलादेवी २२६ ३१० ९२, ११०, १११, १२२, १२५ लूणा ४१६ लोला सा० १५८, १८०, १९२ लोहट श्रेष्ठि १५३ लोहदेव साह १५० वखतमल शाह १६६ १८४ लूणा सा० लूणसिंह वखतसाह वखतसिंह शाह २७८ १३५ २१६, २८० २९५ २०९ २४५ २८७ ४२१ १७३, १८८, २१८ २१२ २९३ ३०० ४२१ ३१२ ४२४ ४२१ ४२० ३९ २४७ १३६, १३९ १३६ २९८ ३०२ १६१, १८१ १५६ १५७ २१८ ५८, १८४ १५२, १५८ ३१३ २४३ ३१० (४७७) Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ २१५ ३४ २९८ २२६ ३४ ३८८ वच्छराज वच्छराज नाहटा श्रेष्ठी वच्छराज बोथरा वच्छराज नाहटा राजा श्रेष्ठी वच्छराज शाह वधू भणशाली श्रेष्ठी वना [श्राविका] वयजल श्रेष्ठी वयरसिंह सा० वरजी देवी वरजीबाई वर्धमान वर्धमान नवलखा वंशराजजी वसनजी बाघजी साह वसन्तराय वसन्तराय श्रीमाल वस्तुपाल सा० वागीश्वर [राजपंडित] वाछिग वाज्जल श्रेष्ठी वाडीलाल भाई वाराही देवी [देवी] वारिणी वाल्हा सेठ श्रेष्ठी वाल्हादेवी वासल विक्रम विजयचंद पालेचा श्रेष्ठी विजया [शासनदेवी] विद्यापति [राजपंडित] विमलचन्द्र श्रेष्ठी २७४ विमलदास २७८ २४५ विमलादे २८७, २९८, २९९ २३३ विमलादेवी २५७ ३२४ विरदीचन्द मुकीम २१९, २९७ विष्णु [देव] २९८ वीकल साह १९२ २९५ वीकमसी राघवजी पटेल ३९२ १४१ वीकिल सा० १८८ १५९, १८८ वीनादेवी ३७२ वीरक ३६४ वीरजी ३४ वीरदास २८७ वीरदेव ४१९ वीरदेव सेठ १२२, १३६, १६८, १६९, १८०, १८१, १८२, १८४, २०४ ३१० वीरधवल १३३ ३१२ वीरपाल श्रेष्ठी १७३, २११ वीरादे २९४ ६६ वीराशाह २९४ ४०, ४०० वील्ह २८१ १६९ वील्हा ४१७ वीसल सेठ २६८ वेलजी भाई [मेघमुनि] ३९० २६६ वेला साह १९१ १५२ वोसल २१९ शंकरलाल ३७३ ४८ शंभूराम शाह ३११ २१४, २३३, २९७ शांकर ३६१ शांतिग बोथरा १३० १६ शांतिदास शाह २९८ ६६, ७२ शामजी भाई पटेल १२६, १२८, १३९ शालिभद्र ८३ २१५ १५८ २२६ ३९० (४७८) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ ७७, १३०, १४२ ०.w ३११ ४६ १३३, १५२, १५४ ३१८ २१६ १३२, १७१, १७४, २८१ २९८ १८४ १२८ २८३ शिताबचन्द नाहटा श्रेष्ठी २५४ सरदारमल समदड़िया शिव [देव] ३ सरस्वती [देवी] शिवराज १७२, २१८ सरस्वती [श्राविका] शिवा सोमजी श्रेष्ठी २२५ सरस्वतीबाई शिवैसिंघी २९५ सरूपादेवी शीलभद्र सर्वदेव श्यामल सेठ १५७, २०४ सलखण श्रेष्ठी श्यामादेवी [सोमदेवी] २८८ सवाईराम श्रियादेवी २२३ सव्वड़शाह श्रीचन्द्र श्रेष्ठी १४२, १४६, १५६, २१५ सहजपाल श्रीपति श्रेष्ठी १३१, १३३, १७४ सहजलदे श्रीवन्तशाह २२३ सहजा सा० संघजी २९८ सहजाराम श्रेष्ठी संतोषबाई ४१८ सहणपाल सट्टक ३४ सहदेव वैद्य सण्हिया ४९ सहसमल गोलेछा श्रेष्ठी सदासुख ३१३ सांकरसी सधरा २११ सांगण सधुआ २९८ सांगासाह सधुआ भणशाली २९९ सांवतसी शाह २७४ सांवलदास [श्रावक] सन्तोषचन्द्र भंडारी ३१५ सागरमल गोलेछा समरकुमार-समरिग २११ साजण समरथ शाह २७२ साढ़ल श्रेष्ठी समरसिंह २१९, २७२ सातसिंह सा० समरिग २८२ साधार समुदा २८१ साधारण समुद्धर श्रावक १२२ साधारण बल सम्पतराज [कैलाशसागर] ३७१ साधुदेव संखवाल सम्पतलाल ४२४ साधुराज सम्प्रतिराम व्यास ३५५ सामल श्रेष्ठी सरदारमल ४०९ १०९, ११० ३६१ ३०९ १३२ २०५, २८२ ३११ सन्त २९९ ३५८ २८२ ६२, १३०, १५५, १८२ २०३ २१२ २६, २७, ३४, ४२, ४४ १२७ २२८ १६१ १५२, १५५, १५६, १६९, १७३, १८२, १९२ (४७९) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सूर २७४ २९५ ४२२ २४७ १५९ २३४, २३९, २९७ २०५ १२२ २८१ ३४४ २१९ २९८ २५५, ४२१ २९१ सामीदास सारंग श्रेष्ठी सारंगदेव [विद्वान्] सावदेव श्रेष्ठी सावित्री देवी साहिवदे साहुली श्रेष्ठी सिन्दूरी सिरहमल संचेती सिरिया देवी सिवा सीमंधर श्रेष्ठी सीवा सा० सीहा सेठ सुकनचन्द सुकनदेवी सुखमल सुगनदेवी सुगनमल गोलेछा सुगुण कुमारी सुदर्शन श्रेष्ठी सुन्दरदेवी सुन्दरबाई सुपियारदे सुभट सा० सुभटपाल सुमति सुरराज सुरूपा [श्राविका] सुलक्षण । सुल्तानकरण भंडारी सुष्मिणी २३९ सुहवदेवी २८१, २८७ लँटा [श्रेष्ठी] २०६ १३० सूरजमल श्रेष्ठी ३७३ सूरजमल २९९ सूरतराम १२७ सूदा सा० ३०९ सूरदास ३६१ सूरा सेठ १४६ सूहवदेवी २८२ सेऊ १५५ सोखू [श्राविका] १७३ सोनपाल १५२, १५४ सोनपाल परीख ४२० सोनादेवी ४२० सोभागदे २४८ सोम ४२४ सोम साह सोमदत्त ३९० सोमदेव ३५३ । सोमध्वज [जटाधर] ३१८ सोमल ३८१ सोमा २३८ सोमिलक १५४, १६९ सोमो साह २६५ सोहनदेवी ३४ सौभागमल मेहता १६१ सौभाग्यमल २३९ स्थिरचंद्र सेठ १७१ स्थिरदेव श्रेष्ठी ३६८ स्थिरपाल गोठी १२२ हँसमुखलाल गोलिया २९८ २८८ ३६१ २७२ २०४ २,३ १४२ १३२ ३४ २९१ ३६९ ३९५ ३०१, ३२१ ४६, १७१ ११७, १५३ १५६ २५९ । (४८०) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० १७२ २१३ १२८ २९८ २९४ हँसमुखलाल सांकलिया ३८० हरिसुखदेवी हंसराज ३०० हरुजी हजारीप्रसाद द्विवेदी ३८० हांसू हजारी भांडिया ३१२ हालाक श्रेष्ठी हठीसिंह श्रेष्ठी हाथी जेठमल हनुमन्तसिंह हाथीशाह श्रेष्ठी हाथी साह हनुमान [देव] हमीरमल हालू हीरल श्राविका हरखचन्द इन्द्रचन्द गोलेछा हीरा सा० हरखा हीरा गोठी हरराज हीराचन्द हरखचंद हीरालाल भुगड़ी हरखा छाजेड़ २९३ हुलमसिंह हरिचन्द्र श्रेष्ठी १३९ हुल्लासदेवी हरिचन्द्र २४० हेमचन्द्र हरिपाल श्रेष्ठी १२८, १२९, १३०, १३३, १३९, हेमराज सा० १४०, १५८, १५९, १७३, १७४, १७६, १७८, हेमल सेठ १७९, १८६, १८८, १९२, १९४, २०२, २०३ होता साह २१०, २९८ २८१ १३२ १२७, १२८ १२८ ४२३ ३९१ १८१ ४१९ १३९, १४० २१८ १७३, १७८, २०२ २०५ (४८१) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिशिष्ट खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास-गत नृपति-मंत्री-दण्डनायक आदि सत्ताधारी जनों की विशेष नामानुक्रमणी १११ २३६ १७१ ३११ १८४ १४३ अकबर [मुगल बादशाह] २२५, २२७, २२९, आथुल ठा० २३३, २३४, २७५, ३०४, ३१७, ३४२ आलम दीवान [राज्याधिकारी] अक्षयराज [मंत्री] २४६ आशाधर ठक्कुर ४४, ४५,४९ अचलसिंह ठ० १५९, १६०, १६२, आसपाल ठ० १६३, १६४, १८७ आसराज [राजा] ११२ अजित [मंत्री] १३१ इन्द्रभान [मंत्री] अजितसिंह [मारवाड़ नरेश] २८५ उदयकरण ठक्कुर अबुज़फज़ल २२९ उदयदेव ठ० [राज्याधिकारी] अभयकुमार [श्रेणिक राजा का मंत्री] १७७ उदयराज [शासक] २८१ अभयड [दण्डनायक] ९९, १०२, १०७, उदयसिंह [राजा] १२८, १२९ १०९, ११० उदयसिंह [बूजद्री के राजा] अमरसिंह रावल [जैसलमेर नरेश] २७८ उदयसिंह महाराजा [राजा] २०७ अम्बड़ [सेनापति] ६२ उदयादित्य [परमारनरेश] अरिसिंह [राजा] १४२ ऊदा [मंत्री] अर्णोराज [अजमेर नरेश] ४४, ५३ औरंगजेब [बादशाह] ३०९ अलाउद्दीन सुलतान १६२ कक्करिउ [मंत्री] ६३ अलीखान खंधारी २७५ करमसी [मंत्री] २२० अश्वराज ठा० १२६ कर्णदेव [जैसलमेर नरेश] १४५ असरफ खान [राजकीय उच्चाधिकारी] २३६ कर्णराज [राज्याधिकारी] आजमखान [गुजरात का सूबेदार] २२७ कर्मचन्द्र बच्छावत [मंत्री] २२५, २२६, २२७, २२८, आजमखान खानखाना २२९ २३०, २३३, २९७, २९८ २०४ ३४ २७० १४१ (४८२) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० २८७ २५७ २७४ २३६ २९४ ३१९ १४९ १८१ २७०, २७१ २०४ २७० २८२ १५० २१२ २७२ कर्मसिंह [मंत्री] २२१ खेतसिंह भां० कल्याणदास राउल [जैसलमेर नरेश] २३७ खेता राणा [शासक] काला [मंत्री] ६३ गंगासिंह [बीकानेर नरेश] कुतुबुद्दीन [सम्राट] १४९, १६०, १६२, २६५ गंगेवराव [शासक] कुन्दनमल [दीवान] ३८३ गजसिंह [शासक] कुमर [मं०] १८० गजसिंह [मेड़ता नरेश] कुमरसिंह ठा० १५९, १६९ गजसिंह महारावल [जैसलमेर नरेश] कुमरा मं० १६० गणदेव [राजा] कुमारपाल [चौलुक्य नरेश] १३६, १६९, गयासुद्दीन [दिल्लीश्वर] १८४, २०८ गुणदत्त [मंत्री] कुमारपाल [यादव नरेश] ५० गोधाजी [राजपुत्र] कुमारपाल [त्रिभुवनगिरि के राजा] ५३ घड़सी [शासक] कुमारपाल मं० १५३ चउण्डागर [मंत्री] कुमारपाल ठ० १६१ चंडा जी मं० कुलधर [मंत्री] १२६, २७१ चन्द्र ठक्कुर कुलधर महं० १११, ११२, १२६ चापा मंत्री कुलभानुचन्द्रसिंह [जागीरदार] ४११ चाचिगदेव [राजा] कूपा मंत्री २०६ चांपावत [बालोतरा के शासक] केल्हण [राजा] १११ चाहड़ [प्रधान] केल्हा [मंत्री] १७३, २१० छाहड़ भंडारी केशरीमल रायबहादुर ३८४ जगतसिंह महाराणा [ मेवाड़ाधिपति] केशरीसिंह बाफना रायबहादुर ३६०, ३६१, ३९१ जगतसिंह ठ० केशरीसिंह बाफाना दीवान बहादुर ३६१, ४११ जगदेव [राजा भीम का प्रधानमंत्री] कैमास महामण्डलेश्वर जगदेव [प्रान्तपति] [पृथ्वीराज चौहान का मंत्री] ६६, ६७, ६८, ६९, जगमाल रावल ७१, ७६, ७७, ८६ जगसिंह [राजकुमार] क्षेत्रसिंह [प्रधान राजकर्मचारी] १४१ जगसिंह भां० क्षेमसिंह भांडागारिक १५० जयतसिंह राजा [यादव नरेश] खंभराज दो १८३ जयतसीह राउल [जैसलमेर नरेश] खान [पाटण का शासक/राज्यपाल] २१३ जयतुगीदेव [शासक] खीमा [मंत्री] २८५ जयसिंह [राजा] खेत [राजा] २१२ जयसिंह [मंत्री] १२९ २९५ १३९ १४९ ३११ १७१ ८७ १०९,११० २७० १२५ १५० २०९ २७२ १३६ १२२, १२३ २७० खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४८३) _ 2010_04 Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवनपाल ठ० जवाहरसिंह महारावल [ जैसलमेर नरेश ] जसवंत [मंत्री] जसवंतसिंह महाराजा [ जोधपुर नरेश ] जहांगीर [बादशाह ] १६१, १६९, १७२, १७६, १८४ ३२२ जिल्हागर [ मंत्री ] जीया [मंत्री ] जेतसीह [जैसलमेर नरेश ] जेसल ठ० जैतसिंह [राजा ] जैत्रसिंह [ राजा जैत्रसिंह [मंत्री ] जैत्रसिंह ठ० जैसल [ मंत्री ] झांझण भां० ठाकुरसिंह [मंत्री] तख्तसिंह [ जोधपुर नरेश ] तिहुण [मंत्री] त्रिशृंगम [राजा ] त्र्यंबकदास [राजा] दादू [मंत्री] दाराशिकोह [ शाहजहां के पुत्र ] दीदा [ मंत्री] दुर्लभराज [ चौलुक्य नरेश ] (४८४) दुसाज मं० देदा [ मंत्री ] देदा महं० देदाक महं० देदास रावल [जैसलमेर के शासक ] देपाल ठा० 2010_04 २३७ २९४ २३०, २३४, २८९, २९७, ३१७ १६६ २७५ २७४ १८३ १५३ १४९ १२८ १६९ १४९, १६८ १५१ २२६ देवकरण राणा देवकरण राव [ शासक ] देवकरण रावल [जैसलमेर के शासक ] नथमल गोलेछा [ जयपुर दीवान ] नयनसिंह मं० नरवर्मदेव [ धारानगरी के राजा ] नाणचन्द्र मं० नाल्हा [मंत्री] नेमिचन्द्र भं० नरसिंह भणशाली २१० नावंधर भां० २१७ नोहट ठाकुर २१४ नौरंगखान [ मुस्लिम राज्याधिकारी ] ३०९ पद्म भं० ६३ २, ३, ४, ५, ११, १२, १३ १५४ १३९, १४९ १३२ १३१, १३२ २७४ १६१, १७३, १७६ ३२१ १५१ देवकण्र रावल [ शासक राजा ] देवराज [मंत्री] देवसिंह ठ० देवीसिंह ठ० देहड़ ठ० धनपतसिंह रायबहादुर धनू मं०. धीणाक [मंत्री] नथमल गोलेछा रायबहादुर पद्मचन्द्र भां० पद्मसिंह ठ० पद्मा भं० पाल्हा ठ० पाल्हा [मंत्री] पूनसी महं० पूर्ण ठ० पूर्ण ठा० पूर्णसिंह [ मंत्री ] २७२ २७१ २७३ २१९ १४९, १६५ १६२ १६१ १५७ ३८२ १६९ २१२ ३८३, ४१० ४१५ १५४ ३१, ३४ १५३ २७० १११, १२२ १५६ १३२ ५६ २२७ १५३ १५६ १६९ १८१ १६९ २८३ १३२ १५६ १६१ १४४ परिशिष्ट-४ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ २१८ १८० १४३ २६९ २०६ १६५ पूर्णसिंह महं० १३४ भोदेव [मंत्री] पृथ्वीचन्द्र [राजा] ११२, ११४, ११५, भोजा ठा० १६१ ११६, ११७ मंडन [मंत्री] पृथ्वीचन्द्र [राजा] २८१ मंडलिक [मंत्री] २०६ पृथ्वीराज चौहान [नरेश] ६६, ६९, ७०, ७१, ७२, मदनपाल [अनंगपाल]-दिल्ली नरेश ५६, ५७ ७३, ७४, ७५, ७६, ७८, ८०, ८१, मदनसिंह ठ० १६२ ८२, ८४, ८६, ११०, ११९, १२३, १९२ मनोरथ कां० प्रतापसिंह ठ० [मंत्री] १६० मनोहरदास कुंवर [राजपुत्र] २३७, २३८ प्रतापसिंह ठ० १८७ मनोहरदास रावल [जैसलमेर के शासक] २७७ फतहचंद जगतसेठ ३८४ मलयसिंह [मंत्री] फतहसिंह चांपावत ३२० मल्लदेव [महामात्य] फेरु ठ० १६१, १६३, १६६, महणसिंह [मंत्री] १७७, १७८ १७२, १७६ महमूद बादशाह बद्रीदास रायबहादुर ३१५, ३१६, ३६२, महीपाल महाराज [राजा] ३६३, ३८३, ३८४ महीपालदेव [काठियावाड़ नरेश] १७७ बस्ता [मंत्री] २७४ माणकचन्द्र [मंत्री] बाहड़ भां० १३२ माधव सं० [प्रमुख नागरिक] १५० ब्रह्मदेव महं० १३४ मानसिंह [जोधपुर नरेश] ३१८ भगवानदास (मंत्री) २९७ मालदेव राणा [मेड़ता नरेश] १६४ भरहपाल मंत्रिदलीय ठ० १५५ मालदेव रावल २२३, २७५, २८८ भऊणा भां० १५६ मीलगण [दंडनायक] भानीराम व्यास [राज्याधिकारी] ३२१ मुकरबखान [मुगलराज्याधिकारी] २३४ भीम भां १५० मुकरबखान [नवाब] २३६ भीमदेव [चौलुक्य नरेश] १०९ मुकरबखान [अहमदाबाद सूबेदार] २९८ भीमसिंह [आशिका नरेश] ६२, ६३, ६४ मुहम्मद तुगलक [दिल्ली का बादशाह] भीमसिंह [राजा] ८७ मुल्जा [मंत्री] २१३ भीमसिंह राउल [जैसलमेर नरेश] २३५ मूधराज मं० १६०,१६५ भुवनसिंह [मंत्री] १५४ मूलराज महारावल [जैसलमेर नरेश] ३०० भोज [परमारनरेश ३४ मेहा मं० १६१ भोजराज [जालौर का मंत्री] १८० रतनसिंह [बीकानेर नरेश] २४६, २४७, २४९ भोजराज मं० १५४ रतनसी [मंत्री] भोजराज [मंत्री] १८६ रत्नपाल ठ० १५१ १२९ २६६ २८५ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 (४८५) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ राइपाल [मंत्री] २७४ विक्टोरिया महारानी [ब्रिटिश साम्राज्ञी] ३०१ राजक भां० १३२ विजय ठ० ११३, ११४ राजसिंह [सिरोही के शासक] २९७ विजयसिंह राजा ३९० राजसिंह [मंत्री] २७१, २७४ विजयसिंह ठ० ११२, १५९, १६०, १६१, राजा भां० १३२, १३३, १४४ १६४, १६८, १६९ राजाक भां० १३२ विन्ध्यादित्य [मंत्री] १४३, १४४ राजू ठा० १६१ विमल [दण्डनायक] रामदास राजा ३०४ विमल [मंत्री] २१८ रामदेव महाराजा [शासक] २०६ वीरनाग [हेडइवाहक] १०७ रामदेव [राजा] २०७ वीरसिंह [राजा] २१७ रामदेव [पृथ्वीराज की राजसभा वीरा [मंत्री] २१३, २१४ में उच्चाधिकारी] ६६, ८२, ८३, ८५, ८६ वील्हा मंत्री रामदेव [मंत्री] २८७ वैरसिंह [राजा] २१८ रामलाल [मंत्री] २५१ शाहजहां [मुगलसम्राट] २३६ रामसिंह ठाकुर २८१ शिखरसिंह राणा [चाहमान नरेश] २०३ रामसिंह महाराजा [जयपुरनरेश] ३२० शिवप्रसाद राजा सितारे हिन्द ३२५, ३२६ रायसिंह [बीकानेर नरेश] २२८, २२९ शीतलदेव [राजा] १४९ रायसिंह राजा [सिरोही नरेश] २३४ श्रीकरण [मंत्री] रायसिंह [मंत्री] २२६ श्रीरंग [मंत्री] २७४ रुद्रदेव [राजा] २०४ श्रीवत्स ठ० लक्ष्मणदेव [राजा] २१६ श्रीसोम [राजा] लक्ष्मणदेव राउल [जैसलमेर नरेश] ३३६ श्रेणिक [नरेश] १३४, १६९, १७६ लक्ष्मीधर भां० [राज्याधिकारी] १४३ संग्राम राणा [शासक] २८६ लक्ष्मीनारायण महन्त [स्वतंत्रता सेनानी] ३४७ संग्रामसिंह वच्छावत [मंत्री] २२१, २२३, लक्ष्मीपतसिंह रायबहादुर २५४ सज्जनसिंह [रतलाम नरेश] ३७७ लखमीसिंह [मंत्री] २६९ सत्यानन्दसिंह ३२६ लूणकरण [जैसलमेर का युवराज] २७२ सदारंग [मंत्री] २७३, २७४ लूणकरण रावल [जैसलमेर के शासक] २७५ सनत्कुमार [चक्रवर्ती] वणवीर [मंत्री] २७० समधर [मंत्री] २७२, २७३ वयरसिंह [मंत्री] २०६ समर सरदार [मंत्री] २७१ वस्तुपाल [मंत्री] १२६ समरसिंह [राजा] १४१, १४९ वस्तुपाल [गुजरात के मंत्री] १८३ सम्प्रति [मगध नरेश] . १६९, १७७, १८३ ६ १६४ १४५ ४६ (४८६) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ १२९ संभव भं० ९९, १०९, ११० सुल्तानसिंह [मंत्री] ३०१ सरदारसिंह [बीकानेर नरेश] २४९, २५१, २५२ सूरसिंह [राजा] २३६ सलखणसिंह [जालौर का मंत्री] १८०, १८६ सूरसिंह [मेड़ता नरेश सलीम शाहजादा २२७ सेदू ठ० १५९,१६०,१६१ सहणपाल मं० १५० सोमजी शाह संघपति २२५, २३६ सहसकरण [मंत्री] २३७, २३८ सोमचन्द्र [मंत्री] सांगण मंत्री २०६ सोमदेव [पुरोहित] १४२ सामंत महं० १३२ सोमेश्वर [चाहमान नरेश] १५० सामन्तसिंह [राजा] १४९ स्थिरदेव ठा० १५७ सामन्तसिंह [राजपुत्र] २०४ स्वरूपसिंह महाराणा [ मेवाड़ाधिपति] ३१९ सामल दो० १८३ हरिपाल ठ० १०९, ११० सारंग [मंत्री] २१३ हरिपालदेव राणा [वरिष्ठ राज्याधिकारी] २०३ सारंगदेव [बघेलनरेश] १४३ हरिराज ठ० सारंगधर [मंत्री] २२४ हरिसिंह महाराव [बीकानेर नरेश के मंत्री] २५२ सालाक [प्रतीहार] १३२ हरिसिंह [मंत्री] सिंहबल [राजा] ६१ हसनकुलीखान २२५ सिकंदर बादशाह [दिल्लीश्वर] २२० हांसिल वै० १३३ सिद्धराज जयसिंह [चौलक्यनरेश] २१३ हांसिल ठ० १५७ सीहा [मंत्री] २७२ हेमराज ठ० १६२ २५० १५१ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४८७) 2010_04 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्ट) खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास-गत स्थलज्ञापक विशेष नामानुक्रमणी अंजार ३८८, ३८९, ३९०, ३९१, अणादरा ३८८, ४१६ ३९२, ३९३, ३९५ अनूपशहर ३११, ३१३ अंजारा ३६१ अन्तरिक्ष [तीर्थ]. ३५४ अकबराबाद २५२ अमरसर २३३ अचलगढ़ ३८३ अमरसागर ३२१ अजमेर ४४, ४५, ४९, ५०, ५१, ५४, ६५, अमरावती ५१, २५६, ४१४ ८५, ८६, ८७, ९२, ११०, १११, ११९, १२३, २४८, अमरेली ३१९ २४९, ३०९, ३१०, ३१२, ३१७, ३२०, ३५४, ३५८, अमलनेर ४२४ ३७०, ३७९, ३८१, ३८३, ३८८, ३९१, ३९३, ४०८ अमृतधर्मस्मृतिशाला, जैसलमेर ३५३ अजयमेरु ५३ अमृतसर २९७ अजागृहपुर २१४ अमेरिका २५९ अजीमगंज २४७, २५२, २५३, २५४, २५७, अयोध्या १५१, १८०, २११, २१२, २४५, २५८, २५९, ३१६, ३२९, ३३०, ३५४, ३६२, ३८४ ३१२, ३१३, ३२५, ३८४ अढ़ाई दिन का झोपड़ा [मस्जिद] ५३ अर्णापुर २१४ अणहिलपाटन ११० अर्बुदतीर्थ अणहिलपुर ३, १९५, २०९, २१५ २०४, २१९ अणहिलपुरपत्तन १३६ अलवर ३१५ अणहिलपुरपाटन २२, ८६, २७३, २८० अलाय ३१८ अणहिलवाड़ अहमदनगर ४११ अणहिल्लपुर २११ अहमदाबाद २१९, २२०, २३१, २३४, २३६, अणहिल्लपुरपाटन ११, २७२ २३७, २४५, २४८, २८३, २८४, २८५, २९५, २९७, ४०६ (४८८) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ २५९ २९५ १७१ २९८, २९९, ३०७, ३०८, ३१९, ३४७, ३६१, ३६८, इन्द्रपुर ___३७६, ३८२, ३८३, ३८६, ३८८, ३९३, ४०९ ईडर २१३, २२९ आऊवा २९५ उच्च २७३, २७४ आगरा २२०, २२५, २३०, २३१, २३४, २३६, उच्चनगर २२९ २९७, ३१०, ३२१, ३३८, ४१२ उच्चा [नगर] आगोलाई २४१ उच्चानगर १८७, १८८, १९०, १९२, १९३ आना ग्राम ३११ उच्चानगरी ५०, ५४, ६२, ४०१ आन्ध्रप्रदेश उच्चापुर १४५, १५८, १५९, १६८, १८६ आदित्यपाट २०३ उच्चापुरी १७३, १७८, १८१, २११ आबू [तीर्थ] १९, ९२, १४४, १५१, १५२, उज्जयन्त [तीर्थ] १०, ८६, ९९, १२६, १३३, २१७, २१८, २३४, २३६, २४३, २४८, २५७, १३६, १५५, १५६, १७८, २१८ २७०, २७४, २८१, २८६, ३१९, ३२९, ३४३, उज्जैन ५०, १३०, २५७, २५८, ३४४, ३४९, ३५३, ३८३, ३८८ ____३८४, ३८९, ३९३ आमेर उत्तरप्रदेश ३३०, ३३१ ३०२, ३२० आबौरी उदयपुर २४३, २५७, २८५, २८६, २८७, २९८, ३०९, ३११, ३१७, ३१९, ३७०, ३७६, ३७७, ३७९ आरासण उदरामसर २४१, २४६, २५६, ३८१ आरासना २०६ आर्वी उद्दण्डविहार ২৬০ ओसियां २९७, ३६७, ३८२ आशापल्ली . ९, ९८, १२२, १५१, १६९, १७१, कइलवाड़पुर २८० १८२, १८५, २१७, ४०० कच्छ [प्रदेश] २४१, २७४, ३२५, आशिका २१, २२, २३, ५४, ६२, ६३, ६४, ३५३, ३८३, ३९५ ६५, ९९, १५९, १७३ कटारिया ३९१ आशिकापुर कठोर गांव ३८४ आशोटा २०४ कड़ा २७२ आसणीकोट २७१, २७२, २७४ कडुयारी १६० आसनीकोट २२५ कडोद आसामपुरा ३९१ कणपीठ ११८ आहोर ३२१, ३२२, ३६१, ३७० कतारगाँव इंग्लैण्ड २५९ कदम्बगिरि इन्दौर २५७, २५८, ३५९, ३६३, ३६६, ३७६, कनाडा ३८४, ३८९, ३९१, ४११ कन्यानयन [नगर] १५९, १६०, १६१, इन्द्रपालसर २३९, २४० १६४, १७३ १५१ १६० ३८५ ३८८ ३९५ २५९ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४८९) 2010_04 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ २८२ २७० ३८८ २१३ कन्नौज ३१२ किशनगढ़ ३५४,४०८ कपडवंज २४, ३७७ कीर्तिरत्नसूरि दादावाड़ी, नाकोड़ा ३४९ कपिलपाटक [केलवाड़ा] २१२ कुकसी कापसी कम्पिला [तीर्थ] ३१३ कुक्कुटेश्वर ३८१ कयासपुर १७३ कुचेरा ३८५,३८८,४१० करगुंजा २९७ कुजटी २५२ करहेटक [करेड़ा] १५१, २१२, २१३ कुण्डग्राम कर्णाटक ३९२ कुण्डल कर्णावती २१७ कुंडलपुर ३८४ कलकत्ता २४६, २४८, २५६, २५७, २५८, कुंभलमेर २१७, २९८ २५९, ३१५, ३१६, ३२३, ३६१, ३६३, ३८१, ३८३ कुंभाछत २७२ कलिंगपोंग कंभारिया कलिकुण्डपार्श्वनाथ [तीर्थ] १५ कुंभा २७० कांपली २७२ कुमरगिरि कांपिली २७० कुल्पाक [तीर्थ] २५७,३७० कांपिल्यपुर ३१७ कुशमानपुर [कोसवाणा] २१२ काकन्दी [तीर्थ] १५१, २४५, २५६, कुसुमाण २५७, २८२, ३१२ कुसुमाणा २१० काछी बड़ौदा ३२० कुहियप १११ काठियावाड़ [प्रदेश] १७७, १७८ कूपाराम कातर २४२ कृष्णगढ़ २४८, ३११, ३१२ कानपुर ३१५, ३८४ केलू कापरड़ा [तीर्थ] २८९, ३१९, ३२० केशरियाजी ३४३, ३७६, ३७७, ४१०, ४११ काबुल २३३ केसरदेसर ३५३ कारोला २४३ कैरिया कालिंद्री ४११ कैरु कावी [तीर्थ] ३७६ कैलवाड़ा काशहद ९२ कोंकण [प्रदेश] २५६, ३२५ काशी २४५, २४७, ३१२, ३२०, ३२५, ३८४ कोटड़ा २३८, २७२ काश्मीर २२७, २३३ कोटणा किढिवाणा २६५ कोटा २५६, ३१८, ३२०, ३५९, ३६०, कियासपुर १८८ ३६१, ३६५, ३६६, ३६७, ३९१, ३९३ २११ ३६१ २४२ २१६ २७० - परिशिष्ट-४ (४९०) 2010_04 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटिनारपुर कोटा कोरंटक कोशल [देश ] कोशवाणा कौशाम्बी [ती] कयासपुर क्षत्रियकुण्ड [ तीर्थ ] क्षत्रियकुण्डग्राम [तीर्थ ] खंगारगढ़ खंडप खजवाणा खदिरालुका खरतरवसही खरियार रोड़ खांडप खाचरोद खाटू खारिया खावड़ खीचन खीमसर खुजनेर २१४ खेड़ ३४८, ३९१ 2010_04 १६०, १६४, १७०, १७३, १८० खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास १७४ खेड़ा ३२५ १५१, २८२ १५८, १९०, १९१, १९२, १९३, २०३ २५६, २५७, ३१२, ३५४, ३८४ १५१, २४५ १७८ २८७ खण्डासराय [स्थान विशेष ] १६३, १६४ खंभात १५, १३१, १३२, १४२, १५१, १५४, १५५, १६८, १६९, १८०, १८२, १८३, २१७, २१८ २२४, २२६, २२८, २२९, २३०, २३१, २३४, २३९, २५७, २७२, २८२, २८६, २९७, २९८, ३०७, ३१०, ३१९, ३५४, ३६३, ३७६, ३८५, ३८६, ४१२ २५६ १५० गाजीपुर २१८, २१९ २५७ २२६, २३४ ३७७, ३९१ खेड़पुर १७३ २४३ २७१, २७४ ४१० २७२, २७३ ३८९, ४१७ खेजड़ला खेतसर खेतासर खैरवा खैरवाड़ा खोजावाहन गंगाणी तीर्थ गंगधार गंभीरा नदी [चित्तौड़ ] गजनी गजनेर गजसिंहपुर [गजनेर का पुराना नाम ] गढ़ सिवाणा २५० ३०१, ३७१, ३७८, ३७९, ३९१, ४१७, ४१९ ५१ २५४ ३९१ ३११ २७२ २४२ १०, ४५, १३५, १४०, १५५, १७२,२०२, २१७, २३६, २४५, २५३, २५७, २७४, २८२, २८५, २८६, ३०६, ३१९, ३५४, ४०५, ४१२ गिरासर ३६०, ४०९ गुजरात [ प्रदेश ] १३५, १७४, २०८, २०९, २१३, ३०२, ३०५, ३१०, ३५३, ३९५ १७३, १८४ १८६ २४३, २४४ गणपद्र गया गरोठ गाजियाबाद गारबदेसर गिरनार [ तीर्थ] गुडहा गुडहानगर गुढ़ा १८७ १३५ ८६ २४३ २२३ २२५, २३३ ४२३ ३७६ १९१ ३९४ २५६, ३६० ३५ २३३, २७५ २५२ (४९१) Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ २७० गुणशीलचैत्य २५४ चंपावती ३१० गुणा ३८४ चरणोद गुणाया २५७ चांपानेर २७४ गुब्बर ग्राम २५४ चिड़ावा ३१५, ३१६ गुर्जर [प्रान्त] २, ८७, २२१ चित्तौड़ [नगरी] २५, २७, २९, ३१, ३४, गुलाबपुर २५६ ३७, ४२, ४९, ५०, १२५, १४१, गूडर २७४ १४२, १६८, २१६, २१७, ३७७, ४०२ गूढ़ा २४५, ३१९ चित्तौड़गढ़ - ३३६ गूर्जर [देश] १९५ चित्रकूट [चित्तौड़] २४, १३६, २८३ गोगुंदा २८५ चीतलवाड़ा २४२ गोगोलाव ३७९ चुरू २४५, २४७, ३८३, ३८५, ३८७ गोपाचल २८१ चूड़ा ३९१ गौडी पार्श्वनाथ ३४३ चोमुं ३७६ ग्वालियर ३३०, ३७९, ३८३, ३८५, ३८८ चोरसिंदानक ५६ घंघाणी [तीर्थ] २३४, २३५, २७२, २९७ चौहटण ३२२ घड़सीसर [तालाब २७३ छत घड़सीसर २७७ छवटण २७०, २७२ २७०, २७१, २७४ छापीहेड़ा ४१६ घाटकोपर [मुम्बई] ३८९ छिपीया घाणेराव २४३, ३५४ जबलपुर २५६,३७८ घोघा [बंदर] १८०, २१४, २३९, २४४, जयतारण ३७६ २४८, २८६, ३१९, ३५४ जयपुर २४३, २४५, २४८, २५७, ३१२, ३१४, घोलवड़ ३८६ ३१५, ३१६, ३१७, ३२०, ३२१, ३२२, ३२३, ३२५, चन्द्रपुर ३८१ ३२६, ३२९, ३५४, ३५६, ३६४, ३६७, ३७९, ३८४, चन्द्रपुरी [तीर्थ] २८२ ३८५, ३८६, ३९१, ३९३, ४११, ४१२ चन्द्रवाड़ २२५ जलगांव ২৬০ चन्द्रावती ८७, ९२, २०७, २४५, ३१२ जवणापुर [जौनपुर] २८१ चन्द्रावती [तीर्थ] ३२४ जसोल चन्द्रवेलिपत्तन २२९ जाउर २१८ चम्पापुर ३१२ जांगलकूप दुर्ग [जांगलू] चम्पापुरी २४५, २४७, २४८, २५६, जांगलू २५७, २८६, ३८४ जागुसा घाट २४३ २४३ २४६ २७१ परिशिष्ट-४ (४९२) 2010_04 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ जावालिपुर १४, ११२, ११७, ११८, १२१, ३००, ३०९, ३१८, ३१९, ३२०, ३२१, ३२२, ३३६, १२४, १२५, १२६, १२८, १२९, १३१, १३६, ३४०, ३४३, ३४५, ३४७, ३४८, ३५२, ३५३, ३५४, १३९, १४०, १४४, १४५, १४९, १५२, १५३, ३५५, ३६०, ३६१, ३६२, ३६६, ३७६, ३८३, ३८८, १५४, १५५, १५७, १६०, १६९,१८१, १८६, ४०१, ४०४, ४०९, ४१० ४०२, ४०३, ४०४, ४०५ जोधपुर १०, १४, २१८, २२६, जामनगर ३२५, ३६१, ३७६, ३८०, २३०, २३७, २४१, २३८, २४३, २५५, २६९, २७२, ३८८, ३८९, ३९३ २७३, २७४, २७९, २८९, २९०, २९३, २९४, २९५, जालपसर २९७ ३१०, ३१८, ३२०, ३२१, ३२२, ३४३, ३४९, ३५४, जालौर १४, १२१, १२४, १३४, १४०, १४९, ३७०, ३७२, ३७६, ३८२, ३८३, ४०८, ४१५ १५०, १५७, १७३, १८०, १८४, १८५, १८७, १९५, जोबनेर ३१० २२६, २३४, २३७,२३८, २३९, २४१, २४६, २७०, जोयला १४४ २७२, २७३, २७४, २९७, ३७७, ३८१, ४०३, ४०४ जौनपुर २८२ जावरा ३९१ झगड़ियाजी [तीर्थ] जाहेड़ा १४२ झज्झू ३०१ जापान २५९ झांसी ३८४ जीयागंज २५६, २५७, २५८, २५९ झाबुआ ३७७ जीरापल्ली २०५ झालरापाटन जीरावला २०४, २८१, ३५४ झालावाड़ २५७ जीर्णदुर्ग [जूनागढ़] २१४ झुंझणु १७३, ३१०, ३१४, जालन्धर २६४ झुंझुनू १६० जुन्नर ३२५ टांकेलगाँव जूनागढ़ २४४, २८६ टक्कलपुर १० जैतारण २७२, २८९, २९०, ठाणा २९१, २९२, २९४ डग ३६०, ३८९ जैतपुरा ३२३ डभाल २४३ जैसलमेर ५२, ५३, ६०, ८७, १११, डालामऊ १३०, १३१, १४५, १५२, १५३, १५५, १८५, १८६, डिण्डियाणा १८७, १९७, २०३, २०८, २०९, २१०, २११, २१६, डीडवाना ९, २९७, ३०९ २१७, २१९, २२०, २२१, २२३, २२५, २२६, २२९, डीसा ३९१ २३१, २३३, २३४, २३५, २३६, २३७, २३८, २४१, डुमरा २४२, २४५, २४६, २७१, २७२, २७३, २७४, २७५, डूंगरपुर २७१ २७६, २७८, २७९, २८२, २८३, २८९, २९३, २९९, डेरा २५२ २८६ ३८६ १५९ ३८९ २७३ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४९३) 2010_04 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ १३२ दुर्ग २१६ २२६ देराउर २२१ डेरागाजीखान ३९१ दिल्ली १,४,७, ५६, ५७, ढीगारिया भीम ३२१ ५९, ६३, ८७, १२७, १३९, १४०, १५२, १५९, तख्तगढ़ ३९१ १६२, १६४, १७२, १७३, १७८, १८४, २१०, तलवाड़ा २४३, २७० २३१, २५४, २५९, २८६, ३०९, ३१०, ३११, तलाजा ३१२, ३१३, ३१५, ३१७, ३३८, ४०१ तारंगा [तीर्थ] १४०, १७१, २०६, २४८, दीप २७४ ३१९, ३८८, ४१२ दीपाग्राम २८८ तारणगढ़ [तीर्थ] १५० दुतारा पार्श्वनाथ [तीर्थ] ३१२ तारणगिरि [तीर्थ] दुनाड़ा २९७ तालध्वज [तलाजा] ३६१ ३७३ तिमरी २४३, २७२, २७४, २९४ द्रुणाड़ा २२६, २३४ तिलपथ देउलपुर तिंवरी २९७, ४२३ देछर २७४ तिहुणगढ़ तूंबड़ी देरावर तेजसिंहविहार [आबू स्थित मंदिर] २१५, २२३, २२९, २७५ देवका पाटण २४४ त्रिभुवनगिरि ५०, ५३, ५४, ८७, ४०१ देवकुलपाटक २१६, २८३ त्रिशृंगम देवगिरि १६८, २१७, २६६ घटा देवपत्तन १३३ थाइलैण्ड देवपत्तनपुर २१४ थारापद्र १४६ देवराजपुर १५८, १५९, १७३, १८१, १८६, थिरपुर २७७ १८७, १८८, १९२, १९३, १९५, १९७, २०२, ४०६ देवलवाड़ा २८१, २८२, २८७, ३७७ २३९ देवीकोट २४२, २७६, ३५४ दतिया देशणोक २४७, २५२, ३५४, ३५६ दवीयर ३७६ दहाणु ३८६, ३८७, ३८८, ३९० देहरिया दादर [मुम्बई] ३८६ देहली दादरी ३१२ धंधूका १८४ दारिद्रेरक ११२, ११७ धनेरा २७३ दार्जिलिंग २५७ धमतरी २५७, ३७२ १७१ २७३ २७२ थिराद थोभ ३८४ ३८६ देसुरी २४० ३६१ (४९४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलका धाइमना धाणधार धाणसा धारा धारानगरी धुलेवा धुलेवागढ़ धूनाड़ा धोलका नगरकोट [ तीर्थ] नदकूलवती [ नादोलाई ] नन्दनवनपुर नंदुरबार नयापारा नरपालपुर नरभट नरवर नरवरपुर नरसागरपुर नरानयन नलकच्छ नलखेड़ा नवणगाम नवलक्षद्वीप नवहर नवहरपुर नवहा नवानगर नवापुरा 2010_04 १५ नवावास नवाशहर नसरपुर नाकोड़ा [ तीर्थ ] १६०, १६४, १७२ २७२, २७४ २७३ २७३ १८, ३१, ४७, ४८, नांगलपुर ५१, १११, ४०१ नागदा ४१२ नागना २४८ नागपुर २७२, २७३ १५, ४०, २४४, ४०० ११२, ११४, १२७ ३८८ ३८३, ३८८ २७३ २१८, २४५, २९५, ३४९, ३५४, ३७०, ३७२, ३७७, ३९१ ३८८ २८७ २७४ ३२, ४३, ४४, ४९, १५२, १५५, १५८, १६०, २१२, २५७, २५८, २९५, २९६, ३५४, ३७६, ४२४ २७२ १११, २१३ १५९, १६०, १६१, २०९, २१२, २१७, २२५, २२६, २७२, २७३, २७४, ३०१, ३१०, ३१८, ३२०, ३५९, ३६०, ३६५, ३८१, ३८५, ४०५, ४०९, ४१०, ४११ २२५ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास नागला नागद्रह नागौर २१२ २६४ ३८६ ३७३ ५४, ५५ १५९, १६०, १६१, १६४, १७३ ५० ३२ २१३ ६६ १३६ नालन्दा ३८९ नासिक २५६ निम्बाज २१४ नींबाहेड़ा नाडोलाई नाणा नाथूसर नारउद्र- नाड़ोद नालग्राम २३९, २७३ नीमच २२९ पड़ाना १६० २३६, २४४, ३०७ ३८५ पड़िहारा पचपदरा पचवेड़ा २०५ २४२, ३३८ २०४ २४९, २५०, २५२, २५७, २८२, ३०१, ३७६ १५१ ३२५ ४१३ ३७७ ३७७ २५९, ३८९ २२६ २४३ ३१२ (४९५) Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ ३८३ पावनपुर २१९ पंजाब ३०२ पाली २, २२६, २३६, २४०, २४१, २४५, पटना २४७, ३१०, ३१२, ३५३, २४८, ३१९, ३२२, ३२९, ३३८, ३८८, ३९१ ३५४, ३७९, ३८४ पालीताना २४४, २४५, २५६, ३५१, ३६१, पत्तन [नगर] ४०, १३०, १७१, १७९, ३६७, ३७१, ३७६, ३७७, ३८२, ३८४, १८०, २०३, २१३, २१५ ३८५, ३८८, ३८९, ३९३, ३९५, ३९६ परभणी २५६ पालूपुर परशुरोरकोट १९२, १९३ पाल्हऊदा १७ पराशली [तीर्थ] पाल्हणपुर २११, २४८ परासवा १८५ पल्लिका ३१८ पावापुरी [तीर्थ] १५१, २४५, २५७, २८२, २८६, पाटन ३१२, ३१४, ३१५, ३५४, ३७०, ३८४, ३८८, ३८९ ४, १०, १२, १६, २४, २५, पिथरासर ३३, ४९, ६१, १११, १२६, १५४, १५५, १५७, २९९ पीपलाउली १५८, १६८, १६९, १७०, १७२, १७४, १८०, १५४ पीपाड़ ३२०, ३८८,४१३ १८५, १८६, १९२, २०४, २०८, २१०, २११, पीसांगण ३२० २१७, २२०, २२१, २२४, २२५, २३०, २३१, पुञ्जपुर २३३, २३४, २३६, २३७, २३९, २४५, २४८, पुंजापुरी २६२, २७२, २७३, २७४, २८१, २९७, ३०७, पुडदल नगर २२१ ३६३, ३८३, ४०५, ४०६, ४०९, ४१० पुण्यपालसर २३९ पाटला पुण्डरीकगिरि ३१९ पाटलिपुत्र पुष्करणी ६२, ११०, १११, ४०१ पाटोधी पूगल २५० पादरा पूर्णगिरि १४१ •पादरु २४३, २४५, ३७१ पोकरण २३९, २७१, २७४, ३२० पादलिप्तपुर २१४, ३१९ २७८ पानला २४१ प्रतापगढ़ ३६६,३७७,३९१ पानसर ३८८ प्रह्लादन [पुर] २७ पायधुनी [मुम्बई] प्रह्लादनपुर [पालनपुर] १२५, १२८, १४४, २०५ पारकर २४३, २७०, २७१, २७४ ३८६ पालनपुर ९२, ११७, ११८, १२१, १२५, १२६, फर्रुखाबाद १२८, १२९, १३०, १३१, १३३, १३५, १४०, १४२, फलवर्द्धि ३५४ १५०, १५१, १५२, १५५, १८५, २०५, २२६, २३७, फलवर्द्धिका [फलौधी-मेड़ता रोड] ६५, ६६, २३९, २७३, ३३८, ३६७, ४०२, ४०३, ४०४, ४०५ १५८, १७२, २१२ २८८ पोरबन्दर ३८६ फणसा ३१३ (४९६) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ २५७ ३९४ फलौधी पार्श्वनाथ तीर्थ ३७० बापेऊ २२६, २४१ फलौदी ८६, ८७, १५९, १६०, १७३, बारेजा ३६१ १८०, २२५, २२६, २४१, २४२, २९७, ३२०, ३२२, बालूचर २४७, २४८, २५२, २५३, २५४, ३२३, ३५७, ३५९, ३६१, ३६२, ३६६, ३७६, ३७८, ३३०, ३५४, ३६२, ३८४ ३८३,३८८,४०८,४१०,४१२, ४१३, ४१८ बालेवा फाबिशगंज २५६ बालोतरा २४३, २९३, २९४, फैजाबाद २९५, ३१९, ३७७ फोगपत्तन २३९ बावड़ी २९९ बंगाल [प्रदेश] ३१३, ३२०, ३५४ बाहड़मेर [बाड़मेर] १८५, २१४, २१९, २३८, बम्बई [मुम्बई] २५६, २५७, २९५, ३०१, २७०, २७२, २७४, २७५, २८२, ३२२ ३०२, ३१९, ३२२, ३५९, ३६७, ३७६, बिण्णूं २७३ ३७७, ३८२, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, बिदड़ा ३७६ ३८८, ३८९, ३९०, ३९५, ४११ बिलाड़ा २३१, २३४, ३१९ बडली २९७ बिलारे बड़लूट ३२३ बिहार [प्रान्त] ३१२, ३२० बड़वाय २५६ बीकानेर ५३, २१८, २२०, २२१, २२३, २२४, बड़ोदरा ३१९ २२५, २२९, २३०, २३१, २३३, २३४, २३५, बड़ोदिया ३९१ २३८, २४०, २४१, २४२, २४५, २४६, २४७, बड़ौदा ३७६, ३९० २४९, २५०, २५१, २५२, २५४, २५५, २५६, बदनावर २५६ २५७, २५८, २५९, २७२, २७३, २७६, २७९, बनारस १५१, ३१५, ३२०, ३२४, ३२५ २९०, २९३, २९७, २९८, २९९, ३००, ३०५, बब्बेरक ५४, ५९, ६२, ६५, १५८ ३०७, ३०९, ३१८, ३३१, ३३६, ३३७, ३३८, बरड़िया १४२, १५१ ३४३, ३४७, ३४९, ३५०, ३५२, ३५३, ३३४, बलसाड़ ३५५, ३५६, ३६२, ३६८, ३७२, ३७६, ३७७, बहरोड़ ३१५, ३१६ ३७८, ३८१, ३८५, ३८७, ३९१, ४०९, ४१२ बहिरामपुर १९०, १९१, २८६ बीजापुर १२५, १३२, १३६, १४०, १४३, १४४, बहिलवा २४२ १५०, १५२, १५५, १६९, १७१, १८५, ४०२, ४०५ बांकडिया वड़गांव ३६२, ३६५ बीझेव २७४ बागड़ [प्रदेश] ४५, ४८, १२८, १३५, बीदड़ा ३८८ १५१, १५९, १६१, १६४, २१३ बीठावास २३३ बाड़मेर १२८, १४१, १५३, १५४, २०३, बीबड़ोद २०८, २४२, ३७०, ३७२, ३७७, ४०२ बीलाड़ा २२६, २३०, २७६, २९७ ३८६ ३८९ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४९७) 2010_04 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुचकला बुरहानपुर बुहारी बूंदी ३८६ २७३ ३२० भायखला [मुम्बई] ३९२ २२९ भावनगर २४४,२४८, २५७, ३७७, ३८५ २८६,३१९,३७६ ३१८,३२० भिन्नमाल २८५ २०४, २०५, २०७ भिन्नमालपुर १२४ ११२, ११७ भीनमाल २७०, २७४ १५१ भीनासर २५८, ३३६ ३१९ भीमपल्ली [भिलड़िया, भीलड़ी] १११, १२१, २४४ १२८, १२९, १४१, १५२, १५४, १५५, १५६, ४१२ १५७, १७०, १७१, १७४, १८०, १८१, १८२, १८४, १८५, २०४, २११, ४०५ ३११ २४१, २४२, २४३, २७२, ३३८, ३८७ ३८८, ३८९, ३९१, ३९३ ३२१,३९१ भृगुकच्छ १४० भेहरा २७३ २९३ २१४ भोपाल ३२४ ३७७ ३७० भोयणी [तीर्थ] ३७६, ३८८ ३६६, ३८८, ३९१ भोहरा २७४ मंगलपुर ५३, २४७,३१२ मंगलवास २३१, २४४,३१९ मंजलग्राम ३९५ ३७६ मण्डपदुर्ग २१९ २५६, २५७ मण्डल २१४ २५७,३८४ मंडार ३८८ मंडोदा ३८९ २३६ मंडोवर २३८, २४३, २४७, २४९, २१७ २७३, ३१८, ३१९, ३२०, ३५४ ३६८, ३७७, ३९१ ७२, १२३ मकसूदाबाद २४५, २४७, २५३, २५६, ३१२ भोपा २७२ बूजद्री बृहद्वार बृहद्ग्राम-वडगाम बेनातट बेरावल बेलनगंज [आगरा] बोरड़ी बोरवड़ी बोरीवली [मुम्बई] ब्यावर भक्खर भटनेर भडियाउद्र भदैनी घाट [काशी] भद्रावती भद्रेश्वर [तीर्थ] भमराणी भरतपुर भरुच भरोंच भांदक तीर्थ भागलपुर भागवा भाणपुरा भाणवड़ भाणसउलीपुर भाणसोल भादानक 3७९ भोपावर २२६ १७८ २४१ २१७ मन्दसौर (४९८) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ३८६ मक्सी [तीर्थ] २४६, ३८१, ३८४, ३८९, माण्डवला ३७०, ३७१ ४०८, ४११, ४१२ मांडवी ९२, २४१, २४२, २४४, ३६६, ३७६, मथाणिया २९५ ३८६, ३८७, ३८८, ३८९, ३९०, ३९१, ३९२, ३९३ मथुरा ५४, १६०, १६२, १६४, ३८१ मांडव्यपुर ८७, १११, १५२ मदार [पहाड़ी, अजमेर] ५३ माकड़ीगाँव ३१३ मद्रास [चेन्नई २५८, ३२२, ३२३, ३६७ माटुंगा [बंबई] ३८६ मयालइ २८२ माड [प्रदेश] २०९, २१३, २७४ मरु [प्रदेश] २१३ माडपुरा २५५ मरुकोट २२, २३, ३२, ५४, ६१, ६२, मातर [तीर्थ] १२२, १३५, १४५, १५८, १७३, ४०१ माधोपुर ३२० मरुमंडल [प्रदेश] १२१, १२२ मानपुरा २७४ मरौली ३८६ मारवाड़ [प्रदेश] ४३, ९२, १०३, १३५, १६४, मलकापुर ३७० १७१, १९५, २०९, २२१, २५२, २७२, २८५, मलाड [मुम्बई] २८६, ३१९, ३२५, ३५४, ३७७, ३८२, ३९५ मलिकपुर १८८ मालपुरा [तीर्थ] २५७, २९७, ३०९, महाजन २५६ ३१०, ३१७, ३३८, ३७१ महाजनटोली [बिहार, आरा] ३५४ मालवा [प्रदेश] १८, २१९, ३२०, ३२५, महावन ५४ ३७७, ३९३, ४१२ महाविदेह [शाश्वत तीर्थ] १०,१६ मालवाड़ा ३६५ महासमुंद ३३७, ३४७, ३५४, ३७८ मालासर महिरामपुर १८८ मालेगांव ३७३ महीदपुर ३१९, ३८९, ३९०, ३९१, ३९३ मिथिला २४५, ३१२ महेवची २७०, २७२ मिनराबंद २४४ महेवा २२४, २३०, २६९, २७०, २७३, मिर्जापुर ३२०,३७९ २७४, २८२, २९३, २९५, ३४८, ३४९ मीरजापुर २४७ महेवापुर २४५ मुंद्रा ३८९, ३९०, ३९६ माइयड २३ मुगलसराय ३२४ मांगरोल ३६१ मुद्रस्थला मांगल्यपुर २१४ मुम्बई २३१, ३५१ मांडल २५६ मुर्शिदाबाद ३६२, ३८२, ३९० माण्डवगढ़ २१६, २१८, ३६६, ३७७, मुलतान २२९, २७३, २७५ ३८४, ३८५, ३८९, ३९१, ४१२ मुल्तान २३१, २७४, ३०७, ३९१, ४१६ २२६ २०५ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (४९९) 2010_04 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेड़तारोड़ मेदपाट [मेवाड़ ] मेदिनीपुर मेराऊ मेरावा मेवाड़ [ प्रदेश ] १६०, १६४, १७३, २२६, २३४, २३६, २४३, २७२, २७३, २८८, २८९, २९०, २९१, २९४, २९७, ३१० ३६८ २१२, २१३, २४६ २८९ मेहरौली [दिल्ली ] मेहसाणा मोकलसर ३९३ ३८९ १३१, २१२, २१४, २१६, २१८, २७४, २८०, २८२, ३११, ४१२ ६१, ३१६ मोहा आसंबिया मोटी खाखर मोरबी मोरवाड़ा मोहिलवाड़ी यतिजी का छत्ता [दिल्ली ] योगिनीपुर [दिल्ली ] रंभापुर राजद्रह रघुनाथपुर रणवाही [ रत्नपुरी] तीर्थ रतनगढ़ रतलाम रत्नपुर [ तीर्थ] राजगढ़ राजगृह [ती] (५००) २२६ ३७१, ३७८ ३९२, ३९३, ३९४ ३९२, ३९३ ३७६ २४५ २६५ ३१३ १, १६०, १६४, १६८ ३६०, ३७७, ३८३, ३८४, ३८८, ३९०, ३९१, ३९३, ४११, ४१४ 2010_04 रायका रायगढ़ ३७७ रायण ४११ २८२ ३६९ २५७, ३००, ३०१, ३१९, ३२१, रिणी [ तारानगर ] १५१, १५५, २७० २५४, ३७७ १५१, १५४, १८७, २१२, २४५, २५४, २८२, २८६, ३१२, ३५४, ३८४ २८२ राजनगर [ अहमदाबाद ] राजनांदगांव राजपुर राजलदेसर राजस्थान [ प्रदेश ] राजापत्तन राडद्रह राडधरा राणकपुर [ तीर्थ] राणकोट राणपुर राणुमकोट राता महावीर [ तीर्थ ] राधनपुर रामगढ़ रामशयनीय रायनपुर रायपुर रीवां रुदौली रुद्रपल्ली रुणीजा रूंण २२४, २२६, २२९, २३०, २३३, २३८, २४४, २६८, २७२, २८६, २९८, ३४९ ३५९, ३६२, ३७९ २८८, २९८ २२६, ३०९ ३०२, ३०५ २१४ २४३, २६९, २७०, २७२, २७४ २३९ २३६, २९७, ३७७ १८८ २४१ १५५ ३९१ २४३, २७२, ३१९, ३५२, ३९१ २४७ १४४ २४४ २५२ ३९० १७० २४३, २५७, २५८, २५९, २७०, २७३, २९०, ३३७, ३६२, ३७६, ३७९ २२६, २४०, २५४, ३३८, ३३९ ३७९ ४५ ४५, ४७, ४८, ५४, ५५, ५७, ६०, २६१, २६२, २६३ ३८९ ३७१ परिशिष्ट- ४ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूणपुर रूणा रूणापुर रूपनगर रूपावटी रेपडी [ग्राम ] रेवदर रैवताचल [ तीर्थ] रोहतक रोहिड़ा रोहितासपुर रोहीठ लक्ष्मणपुर [ लखनऊ ] लखनऊ लवणखेट लवणखेटक लवणखेड़ खेड़ा लवेरा लश्कर लाट [ प्रदेश ] लाटहृद लाडनूं लाडुआ लांबिया लायजा लाहौर लिम्बड़ी लूणकरणसर १५२ लूणविहार [ आबू स्थित मंदिर ] १६० लूणसर १५८ लूणी ३१२ लोहावट खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास 2010_04 ३६२ २७५ ३८६ २१४, २५३, ३१९ १६०, १६४, २२५ ३८५ २२८ २२६, २४३ ३८७, ३८८, ३८९, ३९० २२५, २२६, २२७, २२८, २२९, २३३, २७३, २७४, २७५, ३०२, ३१२ ३०७ २९७, २९९ लौद्रवा [ तीर्थ] वटपद्र वडनगर वडली वड़ोद वढवाण ३२० २४५, ३१२, ३१३, ३१४, ३१५, ३१७, ३८१, ३८४ १११ ११० १८६, ४०२ १११,१७५ २३०, २३४ वाड़ा २४७, ३७९ वादली २०५ ३८५ १८२ ३५९, ३६०, ३६१, ३६२, ३६४, ३८८, ४१५ २३६, २४५, २९७, ३४३, ३५४, ३५५ १५१ २१३ २३४, २७३ ३८५ ३०७ २७४, २९७ ३२२ ३८४ ३१२ ३९१ ४७, ८७, ११२, १३१, ४०१ ३११ २७३ १ १५६, १७४, १८२ २८२, २८६, ३७९ १७६ ३२, ४८, ४९, ५०, ६२, ६४, ६५, ८५, ८६, ८७, १११, ११२, १२१, १२२, १३१, १४५, २२०, २२६, २६३ २९४, ४०२, ४०३ ३९१ २८८ वरकाणा वरखेड़ा वल्लभी वसीह वाकली वागड़ [ प्रदेश ] वागस्थल २०९ वायड १८५ २६५ ३८५ २२६ वाराणसी वालाक [ प्रदेश ] विक्रमपुर विक्रमपुर [ बीकानेर ] विजयनगर विजयपुर विधिबोधितविहार विपुलगिरि २१२ २८२ (५०१) Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ १२९ ३११ ३११ २७० २७५ विपुलाचल [पर्वत] २१२ शम्भाणा विमलवसही [आबू] २ शम्यानगर [गढ़सीवाणा] विमलविहार [आबू] २०५ शम्यानयन १४५, १५२, १५४, १५५, १५८, विमलाचल [शत्रुजय] १९३, १९४ १६०, १८५, १८६, १८७ वीरपुर २९४ शम्यानयनीय १४४ वीरमपुर २३८, २९३, ३४९ शाकंभरी [प्रदेश] वीरावाव २४३ शान्तनपुर वीसलनगर २२५ शाहजहानाबाद वीसावाड़ा २४४ शाहजहांपुर ३११ वूल्हावसही [शत्रुजय] १८१ शाहदरा [दिल्ली] ३११ वेरावल ३६१ शाहाबाद [दिल्ली] वैभार [पर्वत] १८७ शिकागो २५९ वैभारगिरि [पर्वत-तीर्थ] २१२, २८६ शिखरजी [सम्मेत शिखर] २५६, २५७ व्याघ्रपुर ६५ शिवगंज ३८८,३९१ व्याघ्रपुरी ४८ शिवाणची व्यारा ३८६ शीतपुर [ग्राम] व्यारे [ग्राम] ३८५ शुजालपुर ३८१ शक्तिपुर २६९ शुद्धदन्तीपुर २१२ शंखवरपुर २१३ शेरीषक १५४ शंखेश्वरपुर [तीर्थ] १५२ शौरिपुर २२५, २३३ शंखेश्वर [तीर्थ] १५६, १७६, २५७, २७४, श्रीनगर २२८, २३३ ३१९, ३४३, ३५४, ३७६ । श्रीपत्तन १११, १५२, १५४, २८४ शत्रुजय [तीर्थ] ४५, ८६, १३१, १३२, १३३, श्रीमाल [नगर] १४० १३४, १३५, १३६, १४०, १५४, १७१, १७२, श्रीमालनगर [ भीनमाल] १२४, १२७, १७४, २६८ १७६, १७७, १७८, १८१, १८३, १८४, १९५, श्रीमालपुर १४४, १५२, १५५, १८६, २०२, २०४, २१०, २११, २१४, २२४, २२९, २०५, २७८, ४०२ २२७, २३१, २३४, २३६, २४४, २४५, २५७, श्रीरूणा १५५ २७०, २७३, २७५, २८२, २८६, २९५, २९७, सग्रेवा २८२ २९९, ३०७, ३०८, ३१०, ३१२, ३४३, ३५४, सत्यपुर [सांचौर] १५२, १५५, १८०, २०३ ३६१, ३७६, ३८२, ३८४, ३८५, ४०३, ४०४, सपादलक्ष [प्रदेश] ११०, १२३, १५३, १५८, ४०५, ४१०, ४१२ १५९, २०५, २१३ शतपत्रिका २१३ समियाणा १४९, २७२ (५०२) परिशिष्ट-४ ___ 2010_04 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ ३८५ २८१ २७३ सम्मेतशिखर [तीर्थ] १२८, १५०, २४५, २४६, सिन्ध [प्रदेश] १५८, १५९, १७३, १८७, १९३, २४८, २५३, २५४, २५५, २८६, ३१२, १९४, १९५, २०२, २०९, २१३, ३१३, ३२०, ३२४, ३५४, ३६२, ३६३, २१९, २२१, २७४, ३०२, ३०७ ३७०, ३७२, ३७९, ३८३, ३८४, ३९५ सिरियाणक सरदारशहर २५०, २५१, २५४ सिरोही २२६, २३०, २३४, २७०, २९५, सरमोण २९७, ३२३, ३५७, ४१० सरवाड़ ३१२ सीवाणची २७२ सरसा २७३ सिवाणा २७०, २७२, २७४, २९५, ३१९ सरस्वतीपत्तन ३५७ सिंहपुरी [तीर्थ] ३२४ सराणा २२६ सिंहुड़ईपुर सलक्षणपुर २१३ सीकरिया ३१२ . सवाई सेरड़ा २४७ सीकर २४७ सवालक्ष [प्रदेश] २०९ सीतपुर सांगानेर ३१०, ३१४, ३२३ सीतामहू ३६० सांचौर १८५, १८६, २०९, २३९, २४१, २६९, सीहोर २४४ २७०, २७२, २७४, २७७, २८१, २८२, २९८, ३०२ सुजानगढ़ २५६, ३६०, ३६१ सांसनगर २७८ सुथरी [तीर्थ] ३६६, ३९० सागरपाट ६४ सुरपुर सागरपाड़ा ५४, ६२, ६५ सुवर्णगिरि [जावालिपुर] १३१, १३४ सातलपुर १७०, २७२, २७३ सूरत २२५, २३१, २३९, २४३, २४४, २७४, सातलमेर २७२, २७४ २७८, ३०७, ३२०, ३२२, ३५४, ३६८, सातलमेरु २७२ ३७२, ३८२, ३८४, ३८५, ३८६, ३८८, सादड़ी २४०, २४१, २४३ ३८९, ३९०, ३९३, ३९५ सामटाबंदर ३८६ सूरतगढ़ २५२ सामुही २७४ सूराचन्द २७०, २७२, २७४ सायण ३८६ सेत्रावा २२० सारंगपुर २५९ सेमलिया ३७७,३८४, ३८८,३९०, ३९१ सावर ३९३ सेरुणा २२५, २३७ सिणधरी २४१, २७१ सेरीसा [तीर्थ] १८२, १८४, ३८८ सिद्धगिरि [तीर्थ] ३१९ सेरीषकपत्तन सिद्धपुर २१३, २२६ सैलाना ३६६, ३६७,३७७ सिद्धाचल [तीर्थ] ३११, ३६१, ३८५ सोखल १६० २९७ २१४ खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास (५०३) 2010_04 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ १७४ ३९२ हरिपुरा ३०७ २५९ २७४ २९९ सोजत २२६, २४१, २५६, २७२, हमीरपुर २९०, ३१६, ३६८ हम्मीरपुर सोजित्रा ३८६ हम्पी [कर्णाटक] सोलख .२०५ सौराष्ट्र [प्रदेश] १५५, १७९, २०९, २१४, हांगकांग २१९, ३०२, ३२५, ३८२, ३९५ हांसी सौरीपुर ४१२ हाजीखान स्तंभन [तीर्थ] ४५, १८२, २११, हाथरस २१४, २३९, ३१० हापाणा स्तम्भनक १९, ९०, ९९, १२६, १४० स्तम्भनकपुर १५, १९, १५५ हाला स्वर्णगिरि [जालौर] १४, १२९, २६८, २९८ हिसार हस्तिनापुर [तीर्थ] १५१, १६०, १६१, १६२, २२५, २३३, २४५, २८६, ३१३, ३१४, ३१५, ४१२ हीरामनपुर हथकंति हैदराबाद ३६१ २२६, २२९ ४१२ हापुड़ २७२, २७४ २७४ ३२४ २८१ ३२३, ३३८ (५०४) परिशिष्ट-४ 2010_04 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_04 For Private & Personal महोपाध्याय विनयसागर एक परिचय जन्म-तिथि : १ जुलाई १९२९ माता-पिता : (स्व.) श्री सुखलालजी झाबक, श्रीमती पानीबाई । गुरु : आचार्य स्व. श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज शैक्षणिक योग्यता १. साहित्य महोपाध्याय २. साहित्याचार्य ३. जैन दर्शन शास्त्री ४. साहित्यरत्न (संस्कृत-हिन्दी) आदि सामाजिक उपाधियाँ शास्त्रविशारद, उपाध्याय, महामनीषी, महोपाध्याय, विद्वद्रत्न सम्मानित राजस्थान शासन शिक्षा विभाग, जयपुर; नाहर सम्मान पुरस्कार, मुम्बई; साहित्य वाचस्पति : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की सर्वोच्च मानद उपाधि साहित्य सेवा - सन् १९४८ से निरन्तर शोध, लेखन, अनुवाद, संशोधन/संपादन; वल्लभ-भारती, कल्पसूत्र आदि विविध विषयों के ५१ ग्रन्थ प्रकाशित और प्राकृत भारती अकादमी के १७१ प्रकाशनों का सम्पादन; शोधपूर्ण पचासों निबन्ध प्रकाशित । भाषा एवं लिपि ज्ञान प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी भाषाओं एवं पुरालिपि का विशेष ज्ञान । कार्य क्षेत्र सन् १९७७ से प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के निदेशक एवं संयुक्त सचिव पद पर कार्यरत । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय विनयसागर 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' न केवल अतीत के इतिहास की गरिमापूर्ण प्रस्तुति है वरन् यह ग्रन्थ स्वयं इतिहास की धरोहर बन चुका है। खरतरगच्छ का एक हजार वर्ष का लम्बा इतिहास किसी प्राची से उदित सूर्य की कहानी की तरह है। आचार्य जिनेश्वरसूरिजी से प्रारम्भ हुई यह सुदीर्घ यात्रा आज तक अविच्छिन्न रूप से चल रही है। इतिहास किसी का भी क्यों न हो, उसे उतार-चढ़ाव के हर गलियारे से गुजरना ही पड़ता है खरतरगच्छ भी इतिहास के इसी सत्य से गुजरते हुए अपनी ज्ञान मनीषा और सच्चरित्रता का उपयोग करता रहा है। खरतरगच्छ का वट वृक्ष तो अत्यन्त विशाल रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ उस विराटता को देखने की एक खुल चुकी आँख है। आकाश कितना भी विस्तृत क्यों न हो पर छोटी सी आँख से भी इसका बहुत बड़ा हिस्सा अवलोकन किया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ को हम खरतरगच्छ की आँख ही समझें। कोई भी इतिहासकार इतिहास के अनन्त को तो नहीं छू सकता पर इतिहास के सागर के तट पर तो हमें खड़ा कर ही सकता है। महोपाध्याय विनयसागरजी ने अथक परिश्रम करते हुए इस ग्रन्थ के माध्यम से हमें खरतरगच्छ के इतिहास के सागर के किनारे उपस्थित होने का, सागर को समझने और उसकी गहराईयों को जानने का अनमोल अवसर प्रदान किया है। यदि वर्तमान अपने अतीत के प्रकाश की डोर थामने में सफल होता है तो भविष्य भी उतना ही सुन्दर और स्वर्णिम हुआ करता है, जितना की वह कभी अतीत में रहा। -महोपाध्याय ललितप्रभ सागर in Education international 2010-04