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________________ अतीव प्रसन्न होकर राजा पृथ्वीराज ने कहा-आचार्य! आप जीत गये हैं। हम आपके विजय की मुक्त-कण्ठ से घोषणा करे हैं। अब आपके जीतने के बारे में किसी के भी मन में किसी भी प्रकार का संकल्प-विकल्प नहीं रह गया है। मैंने अपने धर्म के प्रभाव से हजारों प्रदेशों पर प्रभुता प्राप्त की है और सत्तर (७०) हजार घोड़ों पर मेरा आधिपत्य है। मैं समझता हूँ कि कोई भी प्रतिपक्षी मेरे समान दर्जे को अभी तक प्राप्त नहीं कर सका है। परन्तु इसी देश में जिसमें मैं हूँ-आपको मैं समान श्रेणी का मानता हूँ, क्योंकि आपने भी समस्त देशों के धर्माचार्यों को जीत कर उन पर आधिपत्य-प्रभुता प्राप्त की है। आचार्य महोदय! आज तक हमें ऐसा मालूम नहीं था कि आप इस प्रकार के रत्न हैं। इसलिए जान में या अनजान में हमने आपके प्रति जो कुछ अनुचित व्यवहार किया हो, उसे आप क्षमा करें। इस प्रकार कहते हुए नरपति ने आचार्यश्री के आगे क्षमा प्रार्थना के लिए दोनों हाथ जोड़े। बदले में पूज्यश्री ने हर्ष वश होकर निम्नोक्त श्लोक से आशीर्वाद दिया और राजा की भूरि-भूरि प्रशंसा की बम्भ्रम्यन्ते तवैतास्त्रिभुवनभवनाऽभ्यन्तरं कीर्तिकान्ताः, स्फूर्जत्सौन्दर्यवर्या जितसुरललना योषितः संघटन्ते। प्राज्यं राज्यं प्रधानप्रणमदवनिपं प्राप्यते यत्प्रभावात्, पृथ्वीराज! क्षणेन क्षितिप! स तनुतां धर्मलाभः श्रियं ते॥ [हे पृथ्वीराज नृपते! जिस धर्म के प्रभाव से तेरी कीर्ति त्रिलोकी में फैल रही है, जिस धर्म के प्रभाव से ही अत्यन्त सौन्दर्य गुणवाली, देवागंनाओं को मात करने वाली सुन्दरी स्त्रियाँ तुझे मिल रही है और जिस धर्म के ही प्रताप से प्रधान-प्रधान राजाओं को जीत कर तुझे यह विशाल राज्य मिला है, वह धर्मलाभ तेरी राज्य लक्ष्मी को दिनों-दिन बढ़ावे।] राजा और आचार्य दोनों में इस प्रकार का शिष्टाचार देखकर पद्मप्रभाचार्य उदासीनता से कहने लगा-महाराज! इस सभा में अब तक केवल आप ही समदर्शी थे, अब आप भी अपने मंत्री आदि परिवार की देखा-देखी आचार्य की तरफदारी करने लग गये हैं। राजा ने कहा- पद्मप्रभाचार्य! आप हमारे हाथ से क्या करवाना चाहते हैं? अगर आप में कोई पाण्डित्य कला है तो आप आचार्य के साथ बोलिए, हम न्याय करेंगे। अगर कुछ नहीं जानते हैं तो उठिये अपने घर जाइये। ___वह बोला-राजन् ! न्यायाधीश पृथ्वीराज की राज-सभा में यदि कोई कला-कौशल का अभिमान रखता है तो वह मेरे साथ आवे। इस प्रकार रण-निमंत्रण देता हुआ मैं सबके ऊपर ऊँचा हाथ उठाऊँगा। इसी अभिप्राय से मैंने दण्ड (लाठी) चलाने के छत्तीस भेद सीखे हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि बड़ी परिश्रम से सीखी हुई मेरी यह कला आपकी सभा में भी यदि सफल न होगी तो फिर कहाँ होगी। ५१. इस अवसर पर महाराज पृथ्वीराज का कृपापात्र होने के कारण मण्डलेश्वर कैमास का समकक्ष और श्री जिनपतिसूरि जी का अनन्य भक्त सेठ रामदेव बोला कि-"स्वामिन् ! कृपया मेरी (८२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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