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एक बात सुनें-मेरे जन्म के समय पिताजी को ज्योतिषियों ने कहा था कि सेठ वीरपाल! आपके पुत्र की जन्मपत्री से जाना जाता है कि तुम्हारा पुत्र राजमान्य धनवान और दानी होगा। ज्योतिषियों के इस वचन में विश्वास करके पिताजी ने अपने किसी एक पण्डित के द्वारा बाल्यकाल से ही मुझे बहत्तर कलाओं का अभ्यास करवाया है। उसमें मेरे पिताजी का यह आशय था कि राजसभा में अनेक प्रकार के पुरुष आया करते हैं, कोई किसी बात में मेरे पुत्र का अनादर न कर सके? आपकी कृपा से आज तक आपकी सभा में मेरी ओर किसी ने वक्र दृष्टि से नहीं देखा है। उन अभ्यस्त कलाओं में से अन्यान्य बहुत सी कलाओं का परिणाम (नतीजा) मैंने देख लिया है, परन्तु इस बाहुयुद्ध कला का मौका कभी नहीं आया है। आज मानो मेरे पुण्यबल से खिंचा हुआ ही आपकी सभा में पद्मप्रभाचाय आ गया है। इसलिए यदि आपकी आज्ञा हो और पद्मप्रभाचार्य को यह बात स्वीकार हो तो, सीखी हुई बाहु युद्ध कला का फल भी देख लिया जावे।"
द्वन्द्व-युद्ध प्रिय राजा ने कहा-इसमें क्या हर्ज है, सेठ आप शीघ्रता से तैयार हो जाओ। पद्मप्रभाचार्य जी! आप भी उठें, अपनी अभ्यस्त कला का फल प्राप्त करें।
राजा के आदेश को पाकर दोनों ने लंगोट कस लिये। गुत्थम-गुत्थी होकर अपने-अपने बल की जाँच करने लगे। थोड़ी देर बाद सेठ रामदेव ने पद्मप्रभाचार्य को पछाड़ दिया।
राजा पृथ्वीराज ने रामदेव सेठ को सम्बोधित करते हुए व्यंग वचनों में कहा-"सेठ! सेठ! इसके कान लम्बे हैं, तोड़ना मत।" हास्य में कहे इस निषेध का एक प्रकार की आज्ञा मानकर सेठ रामदेव ने उसके कान को हाथ से पकड़ कर पूज्यश्री की तरफ देखा।
पूज्यश्री ने मस्तक हिला के कहा-"इस कार्य से जिन-शासन की निन्दा होती है, इसलिए ऐसा मत करो।" इस काण्ड को लेकर लोगों में काफी हचचल मच गई। परस्पर अधिकता से अनेक बातें करने लगे, जैसे-"मैंने यह पहले ही कह दिया था कि सेठ जीतेगा। कारण पद्मप्रभाचार्य ने छत्तीस दण्ड कलाओं का अभ्यास किया है और सेठ जी ने इनसे दूनी कलाएँ सीखी हैं।' इस प्रकार इकट्ठी हुई भीड़ में से लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार बातें बनाने लगे।
तदनन्तर राजा के आदेश से रामदेव सेठ पद्मप्रभाचार्य को छोड़ कर अलग हो गया, वह भी उठ खड़ा हुआ और अपने कपड़ों की धूल झाड़ने लगा। इस अवसर पर राजा का संकेत पाकर राज-पुत्रादि राजकीय पुरुषों ने गला पकड़ कर उसे ऐसा धक्का दिया कि राजसभा की एक से दूसरी पेड़ी पर गिरते हुए उस बेचारे का सिर फूट गया। क्रमशः पेड़ियों के पास जमीन पर गिरने से क्षण मात्र के लिए वह मूर्छित हो गया। वहाँ खड़े हुए किसी मनुष्य ने उसके पहनने की प्रच्छादिका (धोती) खींच ली। महाराज श्री जिनपतिसूरि जी से यह नहीं देखा गया। इस कार्य को उन्होंने जिन-शासन की निन्दा करवाने वाला समझा। महाराज ने दया के परिणाम से अपने निज के भक्त श्रावक से उसको प्रच्छादिका (धोती) दिलाई और वहीं एकत्रित हुए जनसमूह में से किसी एक मनुष्य ने हाथ का सहारा देकर उसे बैठा दिया। वही मनुष्य दूसरे हाथ से उसके सिर पर यह कहता
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ___ Jain Education International 2010_04
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