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हुआ थपकियाँ देने लगा कि हमारा ठाकुर शास्त्रार्थ में जीत गया । वहाँ खड़े हुए हजारों आदमियों में से कतिपय धूर्तों ने बेचारे पद्मप्रभाचार्य के मस्तक पर थप्पियाँ लगाते हुए धवलगृह नाम के राजमहल से उसे बाहर निकाल दिया ।
पूज्यश्री ने श्वेत वस्त्र - खण्ड पर किसी सिद्धहस्त चित्रकार के हाथ से श्लोकाकार प्रधान छत्र बंध की रचना कर राजा को दिया। राजा ने बड़े चाव से उस छत्राकार चित्र को देखकर श्लोक को पढ़ा
पृथ्वीराय ! पृथुप्रतापतपन प्रत्यर्थिपृथ्वीभुजां, का स्पर्धा भवताऽपरार्द्धार्य (र्च्य) महसा सार्धं प्रजारञ्जने । येनाऽऽजौ हरिणेव खङ्गलतिकासंपृक्तिमत्पाणिना, दुर्वाराऽपि विदारिता करिघटता भादानकोर्वीपतेः ॥
[ सूर्य के समान विस्तीर्ण प्रताप वाले हे नृपति पृथ्वीराज ! अन्य जनों से अर्च्य (आदरणीय) तेज वाले आपने भदानक राजा की हस्ति-सेना को सिंह की तरह खङ्ग रूप लतिका के संसर्ग वाले हाथ से यानि हाथ में ली हुई तलवार से छिन्न-भिन्न कर दी है, ऐसे आपके साथ प्रजारंजन करने में शत्रु पक्ष के राजाओं की स्पर्द्धा ( समानता की चाहना ) किस काम की? यानि शत्रु लोग प्रजारंजन करने में आपकी समानता किसी तरह भी नहीं कर सकते । ]
यह छत्रबन्ध वृत्त पढ़ा, पण्डितों ने दो प्रकार से उसका व्याख्यान किया। उसी चित्रपट में चित्रित दो राजहंसियों के ऊपर लिखी हुई ये दो गाथाएँ राजा ने पढ़ी
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Jain Education International 2010_04
कयमलिणपत्तसंगहमसुद्धवयणं मलीमसकमं व । माणसहियं पिअवरं परिहरियं रायहं सकुलं ॥ परिसुद्धो भयपक्खं रत्तपयं रायहंसमणुसरइ । तं पुहविरायरणसरसि जयसिरी रायहंसि व्व ॥
[किया है मलिन पत्रों (पाँखों) का संग्रह जिसने यानि जिसकी पाँखें मैल से भरी हुई हैं, जिसका वचन अशुद्ध (अस्पष्ट या कर्णकटु ) है, जिसके क्रम (चरण) मलिन (कीचड़ से लिप्त ) हैं, जो मान सहित ( अभिमान / घमण्ड युक्त या मानसरोवर वासी) है और प्रिय है मोती आदि उत्तम पदार्थ जिसको, ऐसे दूषणान्वित राजहंस के समुदाय को छोड़कर जिसकी दोनों पाँखें शुद्ध (उज्ज्वल) हैं, जिसके चरण कीचड़ आदि से अलिप्त होने के कारण लाल वर्ण हैं। ऐसे राजहंस का अनुसरण जैसे राजहंसी करती है, वैसे रण/संग्राम रूप मानसरोवर में जयश्री ने हे भूपति पृथ्वीराज! आपका वरण किया है मलिन (असदाचारी) पात्रों (मनुष्यों) का संग्रह जिसने, जिसका वचन अशुद्ध है यानि जिसकी भाषा कठोर है, जिसका क्रम (वर्तन) मलिन है यानि जो स्वयं असदाचारी है, जो (अभि) मान सहित (घमंडी) है, जिसको वर (साधुवर) प्रिय है यानि अपने में उत्तमता न होने पर भी दुनिया के मुख से अपने आपको भला-भला कहलाने की लालसा
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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