SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रखता है, वैसे अनेक दोषों से दूषित राजाओं के समूह को छोड़ कर जिसके मातृ-पितृ रूप दोनों पक्ष शुद्ध (निर्दोष) हैं, जो रक्त पद (अपने अनुरागियों का आश्रय स्थान) है। जिसके चरण तल लाल रंग के हैं, ऐसे गुणान्वित आपका अनुसरण करती, जैसे राजहंसी नाना प्रकार के दोषों वाले अन्य हंसों के समुदाय को छोड़कर अनेक सुगुणों से आकीर्ण राजहंस का आश्रय लेती है वैसे रण मैदान में जयश्री भी अनेक दोषों से दूषित अन्य राजाओं को छोड़ कर राजहंस के समान आपको प्राप्त होती है।] इन दोनों गाथाओं की व्याख्या पूज्यश्री ने बड़े विस्तार से की। गाथाओं के अर्थ को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा मन ही मन विचारने लगा कि इन आचार्य का कोई अभीष्ट सिद्ध करूँ। बाद में राजा ने कहा-"आचार्य महाराज! आपको मेरे अथवा आपके गुरु की शपथ है, आप मेरे से कुछ अपने वांछित पदार्थ की याचना अवश्य करें। जिस देश अथवा नगर में आपका मन प्रसन्न रहता हो, उसी का पट्टा आप मुझ से ले लीजिये।" पूज्यश्री ने कहा-महाराज! मेरा कथन सुनिये-जिसने अपनी ही कमाई से एक लाख रुपयों की पूँजी पैदा की है, सा० माणदेव जिसका नाम है, ऐसा एक श्रावक विक्रमपुर में रहता है। वह गृहस्थावस्था के सम्बन्ध से मेरा चाचा होता है। मेरे दीक्षा लेने के समय उसने बड़े प्रेमपूर्वक मुझसे कहा था कि, बेटा! मैं अपने बाल-बच्चों को अनेक प्रकार से आनन्द विलास करते हुए कैसे देखुंगा, इस अभिप्राय से मैंने अनेक कष्टों को यह कर इतना धन कमाया है। बेटा! तूने यह मन में क्या विचारा है? जो तू गृहस्थावास से उद्विग्र हुआ सा दिखलाई देता है। तेरा मन हो तो दस-बीस हजार रुपये देकर तुझे विदेश भेज दूं, अथवा यहाँ ही कोई दुकान खुलवा दूं, या किसी सुयोग्य सुन्दरी कुलीन कन्या से तेरा विवाह करवा दूं, अथवा और जो कुछ तेरे मन में मनोरथ हो तो बलता उसको भी पूर्ण करूँ? इत्यादि अनेक तरह से मुझे समझाया। परन्तु मैंने तो इन सब बातों की तरफ कुछ भी ख्याल न देकर गुरु के उपदेश से उत्पन्न हुए गाढ़ वैराग्य से सर्व संग परित्याग कर दिया। वह मैं आज आपके दिये हुए देश या नगरी की कैसे इच्छा कर सकता हूँ। राजा ने कहा-तो और कुछ कार्य फरमाइये, जिससे मैं आपकी कुछ सेवा कर मेरे मन में उत्पन्न हुए हर्ष को सफल कर सकूँ। राजा और आचार्य इन दोनों का संवाद सुनकर परम उत्कण्ठित हुए सेठ रामदेव ने कहाकृपानाथ! आप गुरु महाराज को विजय पत्र भेंट करने की कृपा करें। राजा ने कहा-सेठ रामदेव! आज तो समय बहुत हो गया है, हमारे हाथ में अवकाश भी नहीं हैं। किन्तु मैं अपने महलवाड़े से दो दिन के बाद कार्यवश अजमेर आऊँगा। वहाँ आने पर अवश्य ही जय-पत्र अर्पण कर दूंगा। सेठ रामदेव ने कहा-जैसी आपकी आज्ञा, परन्तु मेरी एक प्रार्थना है कि यहाँ से बड़े समारोह के साथ हमारे गुरु का अजमेर में प्रवेश हो, ऐसी आज्ञा फरमा दीजिए। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (८५) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy