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________________ राजा ने प्रधानमंत्री कैमास को कहा-मण्डलेश्वर! नगर सजा कर बड़े ठाठ-बाट और शानशौकत के साथ सेठ रामदेव के गुरु का नगर प्रवेश करवा देना और इनके उपाश्रय में पहुँचा देना। ५२. इसके बाद आचार्यश्री वहाँ से उठकर मंत्रीश्वर कैमास आदि राजकीय प्रधान-पुरुषों से वार्तालाप करते हुए नगर की ओर चले। उनके पीछे-पीछे राजपूतों की घुड़सवार पलटन चल रही थी। उस समय महाराज अपने कानों से अपनी मधुर कीर्ति सुन रहे थे। चारों ओर अनेक लोगों द्वारा की हुई 'जय हो-चिरंजीव हों" आदि का घोष ग्रहण कर रहे थे। यद्यपि सिद्धान्तानुसार जैन मुनियों को छत्र धारण नहीं करना चाहिए, परन्तु जैन धर्म के उद्योत एवं प्रभावना के लिए वे महाराज पृथ्वीराज द्वारा दिये गये मेघाडम्बर नाम के छत्र को धारण किये हुए थे। नगर में स्थान-स्थान पर खूब उत्साह से सुन्दरियाँ नृत्य कर रहीं थीं। श्रावक लोग उस खुशी के अवसर पर गरीब लोगों को दान दे रहे थे। तालियाँ देते हुए मनोहर धवल-मंगल गाने गाये जाते रहे। भाट लोग गौतम गणधर आदि प्रधान-प्रधान पूर्वजों के गुणवर्णन के साथ विरुदावली पढ़ रहे थे। महाराज पृथ्वीराज की सभा में इन आचार्यश्री ने पंडित पद्मप्रभाचार्य को जीत लिया, इस अर्थ को लेकर तत्काल बनायी हुई चौपाइयाँ पढ़ी जा रही थीं। जगह-जगह शंख आदि पाँचों प्रकार के बाजे बज रहे थे। उस समय राजाओं से अलंकृत अजमेर शहर में पहुँच कर क्रमशः जिन-चैत्यों की परिपाटी-चैत्यवन्दन करके महाराज पौषधशाला में पहुँचे। ५३. दो दिन बाद अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए दल बल सहित राजा पृथ्वीराज अजमेर अपने महलों में आये। वहाँ से जय-पत्र को हाथी के हौदे में रख कर नगर के मुख्य-मुख्य स्थानों से होकर राजा पृथ्वीराज स्वयं पौषधशाला में आये और पूज्यश्री के हाथों में जय-पत्र अर्पित किया। बदले में पूज्यश्री ने आशीर्वाद दिया और श्रावक लोगों ने नजरें भेंट कर राजा साहब का स्वागत किया। इस महोत्सव में सेठ रामदेव ने अपने घर से सोलह हजार रुपये खर्च किए थे। इसके बाद आचार्य महाराज अजमेर से विहार करके वि०सं० १२४० में विक्रमपुर आये। वहाँ पर अपने साथ के १४ मुनियों सहित पूज्यश्री ने छः माह तक गणियोग तप किया। वहाँ से चलकर वि०सं० १२४१ में फलौदी आकर जिणनाग, अजित, पद्मदेव, गणदेव, यमचंद्र और धर्मश्री, धर्मदेवी नाम के साधु-साध्वियों को दीक्षा दी। वहाँ पर वि०सं० १२४२ माघ सुदि पूर्णिमा के दिन पं० श्री जिनमतोपाध्याय जी का स्वर्गवास हुआ। इसके बाद वि०सं० १२४३ में खेड़ा नगर में महाराज ने चातुर्मास किया। वहाँ से ग्रामानुग्राम विचरते हुये पुनः अजमेर की ओर पधार गये। वि०सं० १२४४ में अणहिलपुर पाटण नगर में स्थानीय जैन बन्धुओं की ओर से किसी निमित्त को लेकर कोई इष्ट गोष्टी हो रही थी। वहाँ पर भण्डशालिक (भणशाली) गोत्रीय किसी श्रावक ने किसी वश्याय नामक उप पद वाले अभयकुमार नाम के श्रावक को बातों-बातों में कहा-"अभयकुमार! तेरी सज्जनता, धनाढ्यता और राजमान्यता से हम लोगों को क्या फायदा हुआ, जब तुमने समर्थ होकर भी हमारे गुरु श्री जिनपतिसूरि जी को उञ्जयन्त, शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा नहीं कराई।" (८६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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