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इस कथन को सुन कर वह वश्याय अभयकुमार भंडशाली से बोला-"आप खिन्न न होइये। (तुम्हारे कथनानुसार) तीर्थ-यात्रा सम्बन्धी कार्य करवा दिया जाएगा।" इस प्रकार कह कर वह नगर के अधिपति महाराज भीमसिंह और उनके प्रधानमंत्री जगदेव नामक प्रतिहार के पास गया। प्रार्थना करके खुद राजा के हाथ से अजमेर निवासी खरतरगच्छ-संघ के नाम से एक आज्ञा पत्र लिखवा कर अपने घर ले आया। भंडशाली को अपने घर बुला कर उसकी राय से खरतरगच्छ संघ के नाम पत्र लिखे गए। उस राजकीय आदेश को तथा अपनी ओर से श्री जिनपतिसूरि जी की सेवा में लिखे गये प्रार्थना पत्र को देकर श्री संघ के पास अजमेर भेजा। श्री जिनपतिसूरि जी महाराज राजा के हुकमनामे को तथा अभयकुमार के प्रार्थना पत्र को पढ़कर एवं अजमेरवासी श्रीसंघ की प्रार्थना को स्वीकार करके संघ के साथ तीर्थ-वन्दना के लिये चले।
५४. पूज्यश्री के दो शिष्य यतिपाल गणि और धर्मशील गणि, त्रिभुवनगिरि में यशोभद्राचार्य के पास अनेकान्तजयपताका, न्यायावतार, तर्क, साहित्य, अलंकार आदि के ग्रंथों का अभ्यास करते थे। वे दोनों अपने गुरु जी की आज्ञा पाकर त्रिभुवनगिरि वासी श्री संघ के साथ न्याय पढ़ने में सहायता देने वाले शीलसागर एवं सोमदेव यति को साथ लेकर तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थित हुए श्री गुरु जी की सेवा में आ सम्मिलित हुए और यह समाचार भी कहा कि-"आपकी सेवा में आते हुए हम लोगों को यशोभद्राचार्य ने कहा है कि-"यदि पूज्यश्री की आज्ञा हो तो मैं भी यात्रार्थ आकर आपके साथ सम्मिलित हो आऊँ। महाराज जब गुजरात देश में पधारेंगे तब मैं प्रतिहारी की तरह आगे-आगे चलूँगा, ताकि कोई भी प्रतिवादी महाराज के साथ शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न कर सके। इस प्रकार अपने गुरुओं का बहुमान करने से मेरे भी कर्मों का संचय अवश्य ही कुछ हलका होगा। परन्तु उन्हें साथ लाने की आपकी आज्ञा न होने से यशोभद्राचार्य को हमने आने से निषेध कर दिया।" इसके उत्तर में पूज्य श्री ने कहा-"बहुत अच्छा हो यदि तुम उस आचार्य को ले आओ। क्या अब भी वे किसी प्रकार लाये जा सकते हैं?" वे बोले-“हे प्रभो! वह यहाँ से बहुत दूर हैं, इसलिए अब उनका आना बड़ा कठिन है।"
जिस प्रकार चार्तुमास में चौदह हजार नदियों के प्रवाह-गंगा प्रवाह में जाकर मिलते हैं, वैसे ही विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलौदी, दिल्ली, वागड़ और मांडव्यपुर आदि नगरों के निवासी भव्यजनों के संघ एक-दूसरे की स्पर्धा से आ-आकर अजमेर वाले संघ में मिलने लगे। पूज्यश्री भी अपने विद्या गुण से, तपोगुण से, आचार्य मंत्रादि की शक्ति से, श्रावक लोगों की भक्ति से, संसार से होने वाली विरक्ति से और बृहस्पति के समान सुयोग्य मनुष्यों के या निज वाणी के संसर्ग के स्थान-स्थान पर जिन धर्म का उद्योत करते हुए श्रीसंघ के साथ चन्द्रावर्ती नगरी पहुँचे।
५५. वहाँ पर संघ के मध्य में स्थित रथारूढ़ जिनप्रतिमा के वन्दन के लिए पन्द्रह साधु और पाँच आचार्यों के साथ पूर्णिमा गच्छ के प्रामाणिक श्री अकलंकदेवसूरि जी आये। परन्तु रथस्थित
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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