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________________ जिनप्रतिमा-स्नान-महोत्सव-दर्शन के लिए आये हुए लोगों का मेला लगा हुआ देख कर वे लौट गये और कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। जब पूज्यश्री को ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपनी ओर से आदमी भेजकर पुछवाया कि-"आचार्य महानुभाव! क्या कारण हुआ कि चैत्यवन्दन बिना किए ही आप वापस लौट गये।" उन्होंने आगन्तुक मनुष्य को जवाब दिया कि-"जो यहाँ आचार्य हैं, वे क्या हमारे साथ बड़े-छोटे का व्यवहार करेंगे?" उस मनुष्य ने आकर आचार्यश्री से कहा, तो पूज्यश्री ने उसी मनुष्य के साथ कहलवा भेजा कि-"आप खुशी से आइये, व्यवहार-पालन में कोई भी त्रुटि नहीं की जायेगी।" इस आश्वासन को पाकर वे आये और छोटे-बड़े के हिसाब से जिस प्रकार से वन्दना की परम्परा होनी चाहिए थी वह की गई। तत्पश्चात् आगन्तुक आ० अकलंकदेवसूरि ने लोगों से पूछा-श्रीमान् आचार्यजी का शुभ नाम क्या है? पास में बैठे किसी मुनि ने कहा-पूज्यश्री का नाम श्री जिनपतिसूरि है। अकलंकदेव-आचार्यश्री ! आपका यह अयुक्त नाम किस कारण से रखा गया? पूज्यश्री-कैसे जाना कि यह नाम अयुक्त है? अकलंकदेव-यह तो अच्छी तरह स्पष्टता से जाना जाता है कि "जिन" शब्द से सभी केवलियों का बोध होता है। उनका "पति" तीर्थंकर ही हो सकता है। अपने आपको जिनपति (तीर्थंकर) नाम से कहलाते हुए आप परमेश्वर तीर्थंकरों की बड़ी भारी आशातना कर रहे हैं। इसलिए जिनपतिसूरि नाम ठीक नहीं है। पूज्यश्री ने कहा-आचार्यजी! आप ही की एक विवक्षा/व्याख्या को यदि विद्वान लोग प्रमाणभूत मान लें तो किसी प्रकार यह कथन ठीक हो सकता है। परन्तु विद्वान् लोग आगा-पीछा बहुत विचारते हैं। अगर वे लोग ऐसा नहीं विचारें तो उनके विचारकपने की बहुत कुछ हानि हो सकती है। आपके इस कथन को सुनकर हम ऐसा समझते हैं कि आपने केवल लोकरंजन के लिए व्याख्यान देना सीख लिया है और ग्रंथों का अभ्यास छोड़ दिया है। नहीं तो इस "जिनपति" शब्द में आपको इस प्रकार भ्रम क्यों होता? आपको मालूम है कि व्याकरण शास्त्र में केवल एक तत्पुरुष समास ही नहीं है, किन्तु और भी पाँच समास वर्णित किये गये हैं। जैसा कि कहा है षट् समासा बहुव्रीहिर्द्विगुर्द्वद्वन्स्तथाऽपरः। तत्पुरुषोऽव्ययीभावः कर्मधारय इत्यमी॥ व्याकरण में बहुव्रीहि, द्विगु, द्वन्द्व, तत्पुरुष, अव्ययीभाव तथा कर्मधारय ये छः समास कहे गये हैं। समास उसे कहते हैं, जिसके द्वारा अनेक पदार्थों का एक पद बनाया जाए। इसी प्रकार अर्थ की विचित्रता दिखलाने के लिए किसी एक अन्य पण्डित ने भी इन समासों के नाम से एक आर्या छंद की रचना की है। जैसे (८८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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