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________________ द्विगुरपि सद्वन्द्वोऽहं गृहे च मे सततमव्ययीभावः। तत्पुरुष! कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥ [कोई पण्डित किसी धनी-मानी पुरुष के पास जाकर अपनी घरेलू स्थिति का वर्णन करता हुआ आर्थिक सहायता की याचना करता हुआ कहता है कि-धनाढ्य पुरुष! मेरे दो गाये हैं, मैं सपत्नीक हूँ, मेरे पास घर में खर्च करने के लिये कुछ भी नहीं है। आप कृपया उस कार्य को धारण करें, जिससे मेरे पास खाने के लिए बहुत से चावल हो जायें। अन्न की त्रुटि न रहे।] इस श्लोक में वक्ता की चातुरी से छः प्रकार के समासों के नामों का परिचय भी दे दिया गया अकलंकदेव-आपके इस कथन से प्रकृत विषय में क्या सिद्ध हुआ? पूज्यश्री-इसके कहने का अभिप्राय यह है कि जो अर्थ किसी एक समास से ठीक न बैठता हो, उसकी संगति दूसरे समास से ठीक बैठ जायेगी। आपने उतावले होकर कैसे कह दिया कि नाम अयुक्त है। अकलंकदेव-अच्छा आप ही बतलाइये कि कौन से समास से जिनपति नाम सुसंगत होता है। पूज्यश्री-जिनः पतिर्यस्यासौ जिनपति: अर्थात् जिन है पति जिसका वह पुरुष जिनपति कहा जाता है। बतलाइये, इस प्रकार बहुव्रीहि समास करने से कौन सा गुण अथवा दोष होता है? अकलंकदेव-आचार्य जी! बहुव्रीहि समास करने पर दोष कोई नहीं होता बल्कि अपने आपके लिए जैनत्व सूचक गुण होता है। परन्तु इस प्रकार की कष्ट कल्पना करके लोगों को क्यों चक्कर में डाला जाये? सीधा ही जिनपत्तिसूरि नाम क्यों न रख लिया जाये? पूज्यश्री-जिनको व्याकरण शास्त्र का अच्छी तरह ज्ञान है, उनके लिए ऐसे शब्द का अर्थ लगाने में कोई कठिनाई नहीं होती है। व्याकरण के जानकार लोग संदिग्ध एवं कठिन व अशुद्ध शब्दों को भी शुद्ध बना लेते हैं और उनका अर्थ भी भली-भाँति निकाल लेते हैं। फिर ऐसे-ऐसे साधारण शुद्ध शब्दों की तो बात ही क्या! अकलंकदेव-अस्तु, नाम के बारे में हम कुछ नहीं कहते, यह यों ही सही। परन्तु हम पूछते हैं कि सिद्धान्तों में संघ के साथ यात्रा करना साधुओं के लिए क्या उचित बतलाया है? कि जिसके आधार पर आप संघ के साथ चले हैं। पूज्यश्री-किसी एक उत्सूत्रभाषी को छोड़कर ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो थोड़ा बहुत सिद्धान्त का आश्रय लिये बिना ही किसी धर्म कार्य में प्रवृत्त होता हो। अकलंकदेव-आचार्य जी! आप बड़े धृष्ट (उद्दण्ड) हैं। सिद्धान्तविरुद्ध कार्य करते हुए भी सिद्धान्तों की दुहाई दे रहे हैं। पूज्यश्री-इसका पता तो अब लग जायेगा कि कौन उद्दण्ड है और कौन नहीं है। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (८९) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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