SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अकलंकदेव-आप ही अकेलों ने सिद्धान्त देखा है, औरों ने थोड़े ही देखा है? पूज्यश्री-यदि दूसरे भी सिद्धान्तों को देखे हुए होते, तो अवश्य ही इस प्रकार नहीं बोलते। अकलंकदेव-आचार्य जी! पंच महाव्रतधारी साधु को तीर्थ-यात्रा में संघ के साथ ही नहीं जाना चाहिए-इत्यादि निषेधक वाक्य हम सिद्धान्तों में दिखलावें, या आप संघ के साथ जाने के सम्बन्ध में प्रमाण दिखलाइये। अथवा सिद्धान्तों को दूर रखिये आप गुरुजी के वचनों को तो न भूलिए। देखिए उन्होंने क्या कहा है विहिसमहिगयसुयत्थो संविग्गो विहियसुविहियविहारो। कइयाऽहं वंदिस्सामि सामि तं थंभणयनयरे ॥ [हे स्वामि पार्श्व प्रभो ! मैं विधिपूर्वक सूत्रार्थ को प्राप्त करके वैराग्य के साथ सुविहित (साधु योग्य अप्रतिबद्ध) विहार करता हुआ स्तंभनक नगर (खंभात) में पहुँच कर आपको वंदन कब करूँगा।] इस गाथा में वैराग्य के साथ विधिपूर्वक विहार कहा गया है। जिसका यह आशय है कि संघ में आसक्त न होकर आरम्भ-समारम्भ के बिना विहार करें। संघ के साथ रहने से अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ हुए बिना नहीं रह सकते। अतः साधु को तीर्थयात्रा में संघ को साथ नहीं लेना चाहिए। पूज्यश्री-आचार्य जी! आप इस बात पर व्यर्थ ही इतना जोर क्यों लगा रहे हैं कि हम सिद्धान्ताक्षरों को दिखला दें। अपने आपकी शक्ति का तभी प्रदर्शन करना चाहिए जबकि सिद्धान्तों में न होते हुए भी किन्हीं असत्य अक्षरों को आप दिखला दें और यदि दिखला भी दें तो विद्वान् लोग उन्हें मानेंगे नहीं, अतः आप का जोर लगाना व्यर्थ है। जो अक्षरसिद्धान्त ग्रन्थों में लिखा है, आप विश्वास रखिये वे तो औरों ने भी जरूर देखे ही होंगे। अतः उनको दिखाने के लिए इतना प्रयत्न करना कोई अर्थ नहीं रखता। अकलंकदेव-परन्तु आपका भी सिद्धान्त के कथन का आश्रय लेकर ही हम संघ के साथ यात्रा में चले हैं यह कथन युक्त नहीं है। पूज्यश्री-हाँ, आपका यह कथन युक्त हो सकता है यदि हम सिद्धान्तानुसार किसी भी तरह आपको संतुष्ट न कर सकें, परन्तु आपको भी चाहिए कि मत्सर भाव को त्याग कर सावधान होकर हमारा कथन सुनें। यदि हमारी बताई हुई युक्ति सिद्धान्तानुसारिणी हो, तब तो उसे माने अन्यथा नहीं। मृत मनुष्य की मुट्ठी की तरह किसी बात को पकड़ कर बैठ जाना प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। अकलंकदेव-हाँ, आपके इस कथन को हम मानते हैं, आप उस युक्ति का प्रतिपादन करें। पूज्यश्री-आचार्य महानुभाव! आचार्य उसी पुरुष को बनाना चाहिए जिसने अनेक देश देखे हों तथा अनेक देशों की भाषाएँ जानी हों। यह बात तो सिद्धान्त में है, यह बात आप मानते हैं? (९०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy