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अकलंकदेव-हाँ, है। पूज्य श्री-कारणवश हमको छोटी उम्र में ही आचार्य पद पर बैठाया गया है। इसलिए अब कतिपय देशों का देशाटन और भिन्न-भिन्न भाषाओं से परिचय हो जाये, अतः इस संघ के साथ तीर्थयात्रा को चले हैं। इसे यों कहना चाहिए कि शंख और क्षीर युक्त, कस्तूरी और कपूर से मिल गई, आपके तरफ से किये गए आक्षेप का यह पहला उत्तर। श्रीसंघ ने हमसे बड़ी प्रार्थना की कि-महाराज गुजरात में अनेक चार्वाक (नास्तिक) रहते हैं। वहीं हम लोग तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। यदि कोई हमारे सामने तीर्थयात्रा निषेध के प्रमाण उपस्थित करेगा तो, हम उसे कोई भी उत्तर नहीं दे सकेंगे क्योंकि हम सिद्धान्तों के रहस्य से अनभिज्ञ हैं। इससे जिनशासन की हीनता जानी जायेगी। इसलिए आप हमारे साथ तीर्थवन्दन के लिये चलें। इस प्रकार संघ की अभ्यर्थना से हम आये हैं। यह दूसरा उत्तर । संघ के साथ यात्रा करने से साधुओं के नित्य-नियम में व्याघात होने की संभावना से सिद्धान्त ग्रंथों में संघ के साथ यात्रा करने का निषेध लिखा है। हम भी मानते हैं कि यदि नित्य-कर्म में बाधा पहुँचे तो संघ के साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। परन्तु इस संघ में सायं प्रातः दोनों वक्त प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य पालन और एक समय भोजन आदि अभिग्रह धारण करके श्रावक लोग तीर्थ-वंदन के लिये चले हैं। अब आप ही बतलाइये कि हमारे आवश्यक नित्य नियम में बाधा पहुँचाना कैसे संभव है?
___ इस प्रकार की अनेक युक्तियों को सुनकर प्रसन्न हुए श्री अकलंकदेवसूरि जी बोले-आचार्य महोदय ! खरतराचार्य इस शब्द को सुनने से ही हमने जान लिया था कि आप किसी प्रबल अवलम्बन के बिना इस लोकापवाद को अपने ऊपर नहीं लेते? परन्तु ऐसा सुनते हैं कि मारवाड़ के लोग बड़ी बोली बोलने वाले होते हैं। आज हमने सुना कि संघ के साथ आचार्य भी आये हैं। देखें, ये आचार्य किस-किस प्रकार बोलते हैं, इनका आचार-व्यवहार, वेष, भाषा आदि किस प्रकार का है। इन बातों को देखने के लिए हम लोग कौतुकवश यहाँ आये हैं। आपके साथ जो हमने तर्क-वितर्क किया, वह केवल शैली जानने के लिए ही किया गया है। किसी अन्य अभिप्राय से नहीं। इस प्रसंग में हमारी ओर से यदि कुछ अनुचित कहा गया हो तो हमें क्षमा करें।
पूज्यश्री-आचार्य जी ! इष्ट-गोष्ठी (स्नेहवार्ता) में भी तो कुछ का कुछ कहने में आ जाता है तो फिर वाद-विवाद का कहना ही क्या? यानि विवाद छिड़ने पर तो उचितानुचित का ध्यान ही नहीं रहता। इसलिए हमारी ओर से भी आपके प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया गया हो तो उसके लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।
अकलंकदेवसूरि जी बोले-आचार्य जी महाराज! हम इस देश में सुना करते थे कि खरतरगच्छ के आचार्य वादलब्धि से सम्पन्न हैं। यह सुनी हुई बात कहाँ तक सत्य है, इसका निश्चय करने के लिए हम यहाँ आये थे, परन्तु आज यहाँ पर आपके भाषण की रीति देखकर हमारे चित्त से संशय चला गया। हम यह जानते हैं कि प्रसिद्धि निर्मूल नहीं हुआ करती। आचार्य जी! हमारे साधुओं के वहरने (गोचरी) जाने में अति विलम्ब हो रहा है। इसलिए हम आपसे विदा लेते हैं।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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