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३. श्री जिनभद्रसूरि उपशाखा खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के पट्टधर आचार्य जिनभद्रसूरि अपने समय के प्रभावक जैन आचार्य थे। अनेक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की बहुत बड़ी संख्या में प्रतिलिपि कराने और उसे देश के विभिन्न नगरों में ग्रन्थ भंडार स्थापित कर वहाँ संरक्षित कराने में आपके समकक्ष कोई दूसरा आचार्य अब तक नहीं हुआ। आपने हजारों की संख्या में जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करायी जिनमें से सैकड़ों प्रतिमायें आज भी प्राप्त होती हैं। देश के अन्यान्य नगरों में आप द्वारा प्रतिष्ठापित ज्ञान भंडार जहाँ लुप्त हो चुके हैं, वहीं जैसलमेर दुर्ग स्थित विश्वविख्यात ज्ञान भंडार आज भी आपके गौरवगाथा का एक जीवन्त प्रमाण है। आपने जहाँ बड़ी संख्या में विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपि करायीं, वहीं अनेक ग्रन्थों का संशोधन भी किया और उन्हें ग्रन्थ भंडार में स्थापित कराया।
आचार्य जिनभद्रसूरि के वि०सं० १५१४ में निधन के पश्चात् जिनचन्द्रसूरि उनके पट्टधर बने और उनसे खरतरगच्छ की मूलपरम्परा आगे चली। जिनभद्रसूरि का स्वयं का शिष्य परिवार अत्यन्त विशाल था। इनकी परम्परा आगे चलकर इन्हीं के नाम पर जिनभद्रसूरिशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
आचार्य जिनभद्रसूरि ने आचार्य पद पर स्थापित होने के पश्चात् आचार्य जिनवर्धनसूरि के आज्ञानुवर्ती जिनराजसूरि के शिष्य जयसागर उपा०, जिनवर्धनसूरि के शिष्य कमलसंयम उपाध्याय और कीर्तिराज उपाध्याय आदि प्रवर गीतार्थों को ससम्मान अपनी ओर मिला लिया।
जिनभद्रसरि के शिष्य-प्रशिष्य वर्ग में प्रमुख हैं सिद्धान्तरुचि उपाध्याय। सिद्धान्तरुचि के शिष्य साधुसोम ने पुष्पमालाटीका आदि विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। सिद्धान्तरुचि के दूसरे शिष्य मुनिसोम ने रणसिंहनरेन्द्रकथा की रचना की। सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य एवं अभयसोम के शिष्य हर्षराज ने संघपट्टक पर टीका की रचना की।
जिनभद्रसूरि के शिष्य क्षेमहंस ने मेघदूत, रघुवंश एवं वृत्तरत्नाकर पर टीकाओं की रचना की।
जिनभद्रसूरिशाखा में ही उपा० समयप्रभ, मुनिमेरु, कनकप्रभ, रंगकुशल, साधुकीर्ति, साधुसुन्दर, धर्मसिंह, धर्मवर्धन, नयरंग, विनयविमल, राजसिंह, उपा० ज्ञानविमल, उपा० श्रीवल्लभ तथा वर्तमान युग में वृद्धिचन्द्र जी आदि अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं प्रख्यात रचनाकार हो चुके हैं जिन्होंने अपनी साहित्य सेवा से न केवल जैन साहित्य बल्कि सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जयसागर उपाध्याय और धर्मवर्धन की शिष्य परम्परा का अत्यधिक विकास हुआ अतः यहाँ उनका स्वतंत्र रूप से यथास्थान विवरण प्रस्तुत है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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