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________________ पार कर गईं। पुण्यश्री जी का यह मानना था कि इस सुवर्ण के आने से यह वंश वृद्धि वेग से हुई। पुण्यश्री जी का इन पर अत्यधिक स्नेह था। स्वर्गवास के पूर्व इन्हीं को गणनायिका के रूप में घोषित किया था। सम्वत् १९७३ से सुवर्णश्री ने प्रवर्तिनी पद का कुशलता के साथ निर्वाह किया। इनकी स्वयं की १८ शिष्याएँ थीं, प्रशिष्याएँ आदि भी बहुत रहीं। आपके समय में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य हुए उनकी सूची इस प्रकार हैहापुड़ में मोतीलाल जी बुरड द्वारा नूतनमंदिर का निर्माण हुआ। आगरा में दानवीर सेठ लक्ष्मीचन्द जी वेद ने बेलनगंज में भव्य मन्दिर व विशाल धर्मशाला बनाई। सौरीपुर तीर्थ का उद्धार करवाया। महिला समाज की उन्नति हेतु दिल्ली में साप्ताहिक स्त्री सभा प्रारम्भ की। संवत् १९४८ कार्तिक सुदि ५ के दिन जयपुर में धूपियों की धर्मशाला में श्राविकाश्रम की स्थापना की; जो राजरूप जी टांक आदि के सतत प्रयत्नों से वीर बालिका महाविद्यालय के रूप में विद्यमान है। बीकानेर में बीस स्थानक उद्यापन महोत्सव करवाया। अन्तिम अवस्था में साध्वी समुदाय की प्रवर्तिनी का पद भार अपने हाथों से ज्ञानश्री को प्रवर्तिनी बनाकर सौंपा। सम्वत् १९८९ माघ वदि ९ को बीकानेर में इनका स्वर्गवास हुआ। रेलदादाजी में इनका दाहसंस्कार हुआ और वहाँ स्वर्ण समाधि स्थल स्थापित किया गया। ४. प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री प्रवर्तिनी स्वर्णश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् ज्ञानश्री प्रवर्तिनी हुईं। इनका जन्म सम्वत् १९४२ कार्तिक वदि १३ के दिन फलौदी में हुआ था। इनका नाम था गीताकुमारी। केवलचंद जी गोलेछा की ये सुपुत्री थीं। मारवाड़ की पुरानी परम्परा के अनुसार गीता/गीथा का विवाह नौ वर्ष की अवस्था में ही भीकमचंद जी वैद के साथ कर दिया गया था। दुर्भाग्य से एक वर्ष में ही पति का स्वर्गवास हो गया और आप बालविधवा हो गईं। साध्वी रत्नश्री जी के सम्पर्क से वैराग्य का बीज पनपा और सम्वत् १९५५ पौष सुदि ७ को गणनायक भगवानसागरजी, तपस्वी छगनसागरजी एवं त्रैलोक्यसागरजी की उपस्थिति में फलौदी में ही इनकी दीक्षा हुई और पुण्यश्री जी की शिष्या घोषित कर ज्ञानश्री नामकरण किया गया। ___इन्होंने ४० वर्ष तक विभिन्न प्रान्तों-मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ आदि में विचरण कर धर्म का प्रचार किया। शत्रुजय, गिरनार, आबू, तारंगा, खम्भात, धुलेवा, माण्डवगढ़, मक्सी और हस्तिनापुर आदि तीर्थों की यात्राएँ की। सम्वत् १९८९ में इन्हें प्रवर्तिनी पद दिया गया। तब से पुण्यश्री महाराज के समुदाय का सफलतापूर्वक नेतृत्व करती रहीं। आपने अनेकों को दीक्षाएँ प्रदान की। जिनमें सज्जनश्री जी आदि ११ शिष्याएँ हुईं। सम्वत् १९९४ से शारीरिक अस्वस्थता और (४१२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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