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________________ अशक्तता के कारण जयपुर में ही स्थिरवास किया। आपका स्वभाव बड़ा शान्त और प्रकृति बड़ी निर्मल थी। निन्दा-विकथा से दूर रहकर जप-ध्यान और शासन-प्रभावना के कार्यों में दत्तचित्त रहती थीं। सम्वत् २०२३ चैत्र वदि १० को जयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। मोहनबाड़ी में इनका अग्निसंस्कार किया गया। श्री उपयोगश्री आप फलौदी निवासी कन्हैयालाल जी गोलेछा की पुत्री थीं। केसरबाई नाम था। इनका विवाह जुगराज जी बरड़िया के साथ हुआ था। छोटी अवस्था में ही ये विधवा हो गई थीं। ज्ञानश्री जी के उपदेश से १९७४ माघ सुदि १३ को फलौदी में दीक्षा ग्रहण की थी। शिष्या अवश्य ही पुण्यश्री जी की कहलाईं। किन्तु सारा जीवन ज्ञानश्री जी की सेवा में ही बीता। उदारहृदया और सेवाभाविनी थीं। सम्वत् २०१६ में जयपुर में इनका अकस्मात् ही स्वर्गवास हो गया। ५. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जैन कोकिला, प्रखरवक्त्री विदुषी विचक्षणश्री का जन्म १९६७ आषाढ़ वदि एकम के दिन अमरावती में हुआ था। इनके पिता का नाम था मिश्रीमल जी मूथा और माता का नाम था रूपादेवी। मूथा जी मूलतः पीपाड के रहने वाले थे, किन्तु व्यापार हेतु अमरावती में निवास कर रहे थे। इस बालिका का जन्म नाम था दाखीबाई। दाख के अनुसार ही बाल्यावस्था से लेकर सांध्य बेला तक इनका व्यवहार मधुर ही रहा। छोटी सी अवस्था में ही इनकी सगाई पन्नालाल जी मुणोत के साथ कर दी गई थी। सम्वत् १९७० में इनके पिता मिश्रीमल जी का अचानक स्वर्गवास हो गया। स्वर्णश्री जी के सम्पर्क में सतत आने के कारण माता और पुत्री दोनों ही दीक्षा की इच्छुक हो गईं। ससुराल से आए आभूषणों को इन्होंने पहनना अस्वीकार कर दिया। घर की शादियों में भी सम्मिलित नहीं हुईं। इससे इनके दादाजी असन्तुष्ट हुए। माता-पुत्री द्वारा दीक्षा की अनुमति चाहने पर उन्होने अस्वीकार कर दी, बड़ी कठिनता से स्वीकार भी किया। उत्सव भी चालू हुए, ऐन वक्त पर दादाजी ने मना ही कर दी और अन्त में निम्बाज के ठाकुर के यहाँ इसकी पेशी हुई। निम्बाज ठाकुर ने इनका परीक्षण करने के पश्चात् दीक्षा की स्वीकृति दे दी। दीक्षा हेतु जतनश्री, ज्ञानश्री, उपयोगश्री आदि पीपाड़ पहुंच चुकी थीं। इन्हीं की उपस्थिति में सम्वत् १९८१ ज्येष्ठ सुदि पंचमी को दीक्षा दी गई। दोनों के नाम-माता रूपाबाई का नाम विज्ञानश्री और दाखी बाई का नाम विचक्षणश्री रखा गया और दोनों को स्वर्णश्री जी महाराज की शिष्या घोषित किया। इन दोनों को बड़ी दीक्षा गणनायक हरिसागर जी महाराज ने दी और विचक्षणश्री को जतनश्री की शिष्या घोषित किया। दीक्षा ग्रहण के पश्चात् शास्त्रों का अध्ययन करने लगीं। प्रखर बुद्धि थी ही और प्रतिभा भी थी। कुछ ही समय में अच्छी विदुषी बन गईं। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (४१३) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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