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________________ आपकी वाणी में श्रोता को मुग्ध करने का जादू था। बड़ी-बड़ी विशाल सभाओं में निर्भीकता के साथ भाषण/ प्रवचन देती थीं। बड़े-बड़े जैनाचार्यों के समक्ष भी भाषण देने में कभी भी हिचकिचाई नहीं। तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य युग दिवाकर विजयवल्लभसूरि जी ने तो इनके भाषणों से मुग्ध होकर इन्हें "जैन कोकिला " शब्द से सम्बोधित किया था। प्रवर्तिनी ज्ञानश्री जी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् इस समुदाय का भार इन्हीं के कन्धों पर आ गया और इन्होंने सफलतापूर्वक निभाया। अपने समाज की गरीब महिलाओं के पोषण हेतु इन्होंने प्रयत्न करके 'अखिल भारतीय सुवर्ण सेवा फण्ड' अमरावती और जयपुर में स्थापित करवाये और दिल्ली में 'सोहनश्री, विज्ञान श्री कल्याण केन्द्र' की स्थापना करवाई। इन तीनों संस्थाओं से आर्थिक स्थिति से कमजोर महिलाओं को प्रत्येक प्रकार से गुप्त रूप से सहयोग दिया जाता है। आपने रतलाम में 'सुखसागर जैन गुरुकुल की स्थापना करवाई । आपने अपने उपदेशों से अनेक बालिकाओं, महिलाओं को प्रतिबोध देकर वैराग्य की ओर प्रेरित किया और पचासों को दीक्षा प्रदान की । आपकी दीक्षित शिष्याओं में सर्वप्रथम दीक्षित अविचल श्री थीं जो प्रधान पद को सुशोभित कर रही थीं। इनको सम्वत् १९९१ में दीक्षा दी। कई शिष्याएँ विदुषी हैं, व्याख्यान पटु हैं और आपके नाम को दीपित करती हुई शासन की सेवा में संलग्न हैं । सम्वत् २०३३ में आपके सीने पर अकस्मात ही कैंसर की गाँठ हो गई । वह गाँठ बढ़ती ही गई, गाँठ के साथ वेदना भी बढ़ती ही गई। आपने कभी उपचार नहीं करवाया । अशुभ कर्मों का उदय समझकर शांत भाव से सहन करने में ही अपना कुशलक्षेम समझा । देह भिन्न और आत्मा भिन्न है इस विभेद ज्ञान को साकार रूप से अपने जीवन में चरितार्थ किया । " तन में व्याधि मन में समाधि" धारण कर एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया । अन्तिम दिनों में गाँठ के फूट जाने से जो असीम वेदना हुई उसे वे शांत भाव से सहन करती रहीं और सम्वत् २०३७ वैशाख सुदि ४ को श्रीमालों की दादाबाड़ी, जयपुर में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। मोहनबाड़ी में बड़े उत्सव के साथ इनका दाह-संस्कार किया गया। मोहनबाड़ी में ही इनका विशाल एवं भव्य समाधि मन्दिर बना है। विचक्षणश्री जी ने अपना उपनाम 'कोमल' रखा था। आपके द्वारा रचित भजन साहित्य प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं उनमें कई स्थल पर 'कोमल' का प्रयोग किया है। हृदय से जैसी कोमल थीं, मधुर थीं वैसी ही अनुशासन प्रिय भी थीं । अन्तिम समय के पूर्व आपने बड़ी बुद्धिमानी से वैचक्षण्य पूर्वक कार्य किया कि सज्जन श्री को प्रवर्तिनी पद देने का निर्देश दिया और अपनी साध्वी समुदाय के लिए उनका नेतृत्व अपनी प्रथम शिष्या अविचल श्री को प्रधान पद देकर उनके कंधों पर डाल दिया । आज भी आपके साध्वी समुदाय में लगभग ६१ साध्वियाँ हैं और वे इस समय अनेक स्थानों पर विचरण कर रही हैं । (४१४) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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