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सिद्धाचल का संघ निकालने का निर्णय किया और पुण्यश्री जी से विनती की। इसी संघ के साथ इन्होंने सिद्धाचल की यात्रा की। संघ की अध्यक्षा थीं सेठ नथमल जी की बहन जवाहरबाई। सम्वत् १९५९ में केसरियाजी की यात्रा की। सं० १९६३ में कालिंद्री के संघ में जो वैमनस्य था उसे समाप्त करवाया। १९६५ में रतलाम में दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंह जी बाफना ने विशाल व दर्शनीय उद्यापन महोत्सव करवाया। इस उत्सव में यशमुनि जी महाराज (जिनयश:सूरिजी) उपस्थित थे। १९६५ में मक्सी तीर्थ की यात्रा की। १९६६ में इंदौर निवासी सेठ पूनमचंद सामसुखा ने माण्डवगढ़ का संघ निकाला। १९६९ में रघुनाथपुर के जागीरदार कुलभानुचन्द्रसिंह एवं ठकुरानी को उपदेश देकर मांस का त्याग करवाया था। १९६९ में ग्वालियर नरेश को भी उपदेश दिया और राजमाता एवं महारानियों को पर्व तिथि पर मद्य-मांस का त्याग करवाया।
१९७२ से १९७६ के चातुर्मास आपके जयपुर में ही हुए। जयपुर का पानी आपको लग गया। फलतः अस्वस्थ रहने लगीं, शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जर हो गया। धर्माराधन और शास्त्रश्रवण करती हुई संवत् १९७६ फाल्गुन सुदि १० को जयपुर में ही आप स्वर्गवासिनी हुईं। मोहनबाड़ी में आपका दाहसंस्कार किया गया और वहीं शिवजीरामजी महाराज की छतरी के पास आपकी छतरी बनाकर चरण पादुका स्थापित की गई।
आपकी स्वहस्त दीक्षित शिष्याओं में से महत्तरा वयोवृद्धा चम्पाश्री जी का १०५ की अवस्था में स्वर्गवास हुआ है। आपकी साध्वी परम्परा में आज भी १००-१२० के लगभग शिष्यायें-प्रशिष्याएँ विद्यमान हैं, जो धर्म प्रभावना करती हुईं शासन की सेवा कर रहीं हैं।
३. प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्री
प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् उन्हीं के निर्देशानुसार प्रवर्तिनी सुवर्णश्री जी हुईं। ये अहमदनगर निवासी सेठ योगीदास जी बोहरा की पुत्री थीं। माता का नाम दुर्गादेवी था। इनका जन्म सम्वत् १९२७ ज्येष्ठ वदि १२ के दिन हुआ था। सुन्दरबाई नाम रखा गया था। ११ वर्ष की अवस्था में सम्वत् १९३८ माघ सुदि ३ के दिन नागौर निवासी प्रतापचन्द जी भंडारी के साथ इनका शुभ विवाह हुआ। सम्वत् १९४५ में पुण्यश्री जी के सम्पर्क से वैराग्यभावना जागृत हुई। बड़ी कठिनता से अपने पति से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर सम्वत् १९४६ मिगसर सुदि ५ को दीक्षा ग्रहण की। केसरश्री जी की शिष्या बनी अर्थात् पुण्यश्री जी के प्रपौत्री शिष्या बनीं। साध्वी अवस्था में नाम रखा गया सुवर्णश्री। बड़ी तपस्विनी थीं। निरन्तर तपस्या करती रहती थीं। घण्टों तक ध्यानावस्था में रहा करती थीं। अनेक वर्षों तक पुण्यश्री जी महाराज के साथ ही रह कर उनकी सेवा शुश्रूषा में लगी रहीं। २२वाँ चौमासा अपनी जन्मभूमि अहमदनगर में और चौबीसवाँ बम्बई में किया।
पुण्यश्री जी के सान्निध्य में सुवर्णश्री की दीक्षा बारहवें नम्बर पर हुई थी। इनके दीक्षित होने के पश्चात् साध्वियों की दीक्षाओं में अत्यधिक वृद्धि हुई। संवत् १९९१ तक यह संख्या लगभग १४० को
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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