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यही कारण है कि आपके उपदेशों से अनेक भव्य महिलाओं ने दीक्षा ग्रहण की। सर्वप्रथम सम्वत् १९३६ में फलौदी में दो महिलाओं को दीक्षाएँ देकर अपनी शिष्याएँ बनाई थीं। वे थीं-अमरश्री और शृंगारश्री। सम्वत् १९३६ से लेकर १९७६ तक के काल में आपकी निश्रा में ११६ दीक्षाएँ विभिन्न स्थानों पर हुईं और वे भी बड़े महोत्सव के साथ। इन ११६ दीक्षाओं में से ४९ तो इन्हीं की शिष्याएँ थीं और शेष इनकी शिष्याओं और प्रशिष्याओं की शिष्याएँ बनी थीं। गणनायक सुखसागर जी महाराज का वह स्वप्न कि "कुछ बछड़ों के साथ गायों का झुण्ड देखा" वह पुण्यश्री जी के समय में साकार हो गया।
सुखसागर जी महाराज के समुदाय के साधुओं की वृद्धि के लिए भी ये सतत प्रयत्नशील रहीं और अनेकों को साधुमार्ग की ओर आकर्षित कर दीक्षाएँ दिलवाकर खरतरगच्छ की अभिवृद्धि में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया। महातपस्वी छगनसागर जी भी आपकी ही प्रेरणा से सम्वत् १९४३ में दीक्षित हुए। महोपाध्याय सुमतिसागर जी भी जिनका नाम सुजानमल रेखावत था, नागौर निवासी थे, आपकी ही प्रेरणा से उन्होंने भी सं० १९४४ वैशाख सुदि ८ को सिरोही में भगवानसागर जी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की थी। अपने भाई चुन्नीलाल को भी प्रेरित कर सम्वत् १९५३ में पाटण में दीक्षा दिलवाई थी; जो कि बाद में गणनायक त्रैलोक्यसागर जी बने थे। पूर्णसागर और क्षेमसागर भी आपकी प्रेरणा से ही सम्वत् १९६३ में दीक्षित हुए। यादवसिंह कोठारी भी प्र० ज्ञानश्री जी के प्रयत्नों और पुण्यश्री जी की प्रेरणा से ही सम्वत् १९६४ में रतलाम में दीक्षित हुए थे, यही भविष्य में वीरपुत्र आनन्दसागर जी / जिनानन्दसागरसूरि हुए।
आर्यारत्न पुण्यश्री जी का जैसा नाम था वैसे ही पुण्य की पुंज थीं। इनके कार्यकाल में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य सम्पन्न हुए उनकी तालिका इस प्रकार है
सं० १९३७ में नागौर के संघ के साथ इन्होंने केशरियाजी की यात्रा की। १९४१ में फलौदी में मंदिरों पर कलशारोपण व उद्यापन हुआ। १९४२ में कुचेरा में जिनमंदिर में ताले लग गए थे, काँटों की बाड़ लगा दी गई थी, उसका निवारण कर वहाँ शताधिक कुटुम्बों को मंदिरमार्गी बनाया। १९४४ में नागौर से संघ के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। मार्ग में जंगल में एक अश्वारोही ने शृंगारश्री को लावण्यवती देखकर अपनी वासना का शिकार बनाना चाहा। उस समय पुण्यश्री जी ने कड़कती आवाज में उसके अनिष्ट की ओर संकेत किया। उसको दिखाई देना बंद हो गया, फलतः उसने क्षमायाचना की और भविष्य के लिए कुवासनाओं से बचने की प्रतिज्ञा की। उसे पुनः दिखाई देने लगा। सम्वत् १९४८ में फलौदी में नवनिर्मापित आदिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा हुई। प्रतिष्ठाकारक थे श्री ऋद्धिसागर जी महाराज। इस प्रतिष्ठा अवसर पर भगवानसागर जी, सुमतिसागर जी, छगनसागर जी आदि भी विद्यमान थे। सम्वत् १९४८ में फलौदी में ही ऋद्धिसागर जी महाराज के पास से पुण्य श्री जी ने भगवती सूत्र की वाचना ग्रहण की। सम्वत् १९५१ में जैसलमेर की यात्रा की। १९५१-५२ में खींचन के मूल निवासी तत्कालीन लश्कर-ग्वालियर नरेश के कोषाध्यक्ष सेठ नथमल जी गोलेछा ने
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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