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१. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी का समुदाय
(१. प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी
इनका निवास स्थान फलौदी था। ये जीतमल जी गोलेछा की सुपुत्री और कनीरामजी झाबक के पुत्र सरदारमल जी की पत्नी थीं। इनका नाम लक्ष्मीबाई था। बालविधवा हो जाने से आपकी भावना वैराग्य की ओर अग्रसर हुई। सुखसागर जी महाराज की देशना से प्रतिबोध पाकर सम्वत् १९२४ मिगसर वदि १० को दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानन्तर सम्वत् १९२५ का जयपुर, १९२६ का फलौदी, १९२७ का बीकानेर और १९२८ का पाटण में चातुर्मास किया। पाटण से शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर १९२९ का चातुर्मास अहमदाबाद और १९३० का चातुर्मास नागौर में किया। इन्होंने अनेक महिलाओं को दीक्षा दी। सम्वत् १९३१ में पुण्यश्री को आपने दीक्षा दी थी। आप कब तक विद्यमान रहीं, कब स्वर्गवास हुआ और कहाँ हुआ? इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है।
२. प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्री
जैसलमेर के निकट गिरासर नामक गाँव में पारखगोत्रीय जीतमल जी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम कुन्दनदेवी था। दो लड़के और एक लड़की के पश्चात् जब कुन्दनदेवी ने गर्भधारण किया तो सिंह का स्वप्न देखा। सम्वत् १९१५ वैशाख सुदि छठ को कुन्दनदेवी ने बालिका को जन्म दिया, नाम रखा पन्नीबाई। ११ वर्ष की उम्र में ही विवाह की बातचीत चली, पन्नीबाई ने अपनी माँ से स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'मैं दीक्षा लेना चाहती हूँ विवाह करना नहीं।' पिता के समक्ष पन्नीबाई की न चली और सम्वत् १९२७ आषाढ़ वदि ७ को फलौदी निवासी दौलतचन्द झाबक के साथ विवाह हुआ। किन्तु, यह सौभाग्य अधिक दिनों तक न रह सका और विवाह के १८ दिन पश्चात् ही पन्नीबाई को दुर्दैव से वैधव्य जीवन स्वीकार करना पड़ा। तदनन्तर अपनी बड़ी बहन मूलीबाई के साथ आकर फलौदी रहने लगी और कस्तूरचन्द जी लूणिया से धार्मिक संस्कार प्राप्त करने लगीं। विवाह के पूर्व ही दीक्षा की भावना थी, जो अब वेग पकड़ने लगी। पितृपक्ष और श्वसुरपक्ष ने दीक्षा की आज्ञा न दी। पन्नीबाई ने आज्ञा हेतु अन्नपानी का त्याग कर दिया। बड़ी कठिनता से दीक्षा की अनुमति प्राप्त हुई और सम्वत् १९३१ वैशाख सुदि ११ को फलौदी में ही महोत्सव के साथ गणनायक सुखसागर जी महाराज के हाथों पुनीत दीक्षा ग्रहण कर लक्ष्मीश्री जी की शिष्या बनीं और इनका नाम रखा गया पुण्यश्री।
सम्वत् १९३१ से लेकर १९७६ तक ४५ वर्ष पर्यन्त स्थान-स्थान पर विचरण कर, धर्मोपदेश देते हुए शासन की सेवा और खरतरगच्छ की वृद्धि में सतत संलग्न रहीं।
इनकी दैदीप्यमान आकृति थी, आँखों में तेज था, वाणी में ओज और माधुर्य। गुरुजनों के पास रहकर आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन किया था। व्याख्यान शैली भी रसोत्पादक थी।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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