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संखवालेचागोत्रीय माणकचन्द ने स्वपुत्र ताराचन्द जोरामल आदि संघ के साथ भारी स्वागतोत्सव द्वारा आपका नगर प्रवेश कराया।
आपश्री ने बुद्धिबल से बहुत से पथभ्रष्ट श्रावकों को सन्मार्ग दिखाया। आपने वहाँ नूतन मन्दिर के निर्माण का विचार किया, किन्तु यवनों के आधिक्य से इस कार्य का सम्पन्न होना कठिन जानकर आपश्री ने अष्टम तप के प्रभाव से नवाब को प्रभावित किया और स्वयं उस (नवाब) की प्रार्थना से उपासना के लिए वहाँ नवीन उपाश्रय स्थान-मंदिर बनाया। शनैः शनैः यवन बस्ती भी वहाँ न्यून हो गई। वही स्थान अभी भी "यतिजी का छत्ता" नाम से प्रख्यात है।
तदनन्तर पुनः दिल्ली विहार के प्रसंग से हजारी भांडिया, नथमल आदि के संघ सहित आप हस्तिनापुर तीर्थ पधारे। जब आप दिल्ली के समीपवर्ती माकड़ी गाँव में प्रविष्ट हुए तब वहाँ के श्रीमाल सिंघड़ गोत्रीय गुलाबराय प्रमुख समस्तसंघ ने उत्साहपूर्वक नगर प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से अनूपशहर होते हुए फर्रुखाबाद पधार कर मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। तदनंतर विहार क्रम से लखनऊ पधारे। वहाँ के भांडियागोत्रीय मुकीम देवीदास, पहलावतगोत्रीय महानंद नौबतराय, महिमवालगोत्रीय सदासुख, जागागोत्रीय मन्नूलाल आदि श्री संघ ने आपके पधारने का महोत्सव मनाया।
सं० १८७२ में श्री सम्मेतशिखरजी पधार कर श्री पार्श्वनाथ भगवान् की बड़ी टोंक तथा अन्य कई टोंकों की प्रतिष्ठा कराई। पुनः वापस लखनऊ पधार कर माघ सुदि ५ को सुंधी टोला में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। सं० १८७८ माघ शुक्ला १३ गुरुवार को ३९ बिम्बों तथा मन्दिर के शिखर व कलश की प्रतिष्ठा कराई। इन उभय प्रतिष्ठा कार्य में बाईस हजार रुपये व्यय हुए। इसके बाद लखनऊ के संघ के साथ अयोध्या तीर्थ की यात्रा करके बंगाल में पदार्पण कर नखतगोत्रीय वखतमल शाह के बनवाये हुए श्रीजिनकुशलसूरि के स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। वहाँ से पुनः लखनऊ आकर नाहरगोत्रीय मुकीम विरदीचन्द जी के दिए हुए नगर के निकटवर्ती उद्यान में संघ कारित श्रीजिनकुशलसूरि जी के स्तूप की सं० १८८९ में आपने प्रतिष्ठा कराई। आप अपनी योग्यता, प्रतिभा और कार्यपरायणता के कारण भट्टारक, बृहद्भट्टारक, गणाधिप, संवेग रंगाङ्गनिमग्नगात्र, महातेजस्वी, महामुनि, महात्मा आदि उपाधियों द्वारा समलंकृत थे। मुनिराज चारित्रोदय आपके चरण सेवक थे। इस प्रकार धर्म तथा शासन का प्रचार करके सं० १८९० ज्येष्ठ सुदि ८ को दो दिन के अनशन पूर्वक आप लखनऊ में स्वर्गवासी हुए।
(७. आचार्य श्री जिननन्दिवर्द्धनसरि
इनके जन्म दीक्षा आदि का परिचय सम्यक् उपलब्ध नहीं है। सं० १९०४ माघ सुदि १२ को आपने कम्पिलाजी में श्री विमलनाथ स्वामी का नवीन मन्दिर बनवा कर, उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के चारों कल्याणकनियत करके तीर्थ स्थापना की तथा वेदी की प्रतिष्ठा कराई।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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