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मुनियों के साथ शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा करते हुए कृष्णगढ़ पधारे और वहीं पर सं० १८४५ आश्विन शुक्ला त्रयोदशी को अपने शिष्य प्रेमचंद को सूरिमंत्र देकर एक दिन के अनशनपूर्वक देवलोक पधारे। आपके शासन- समय में सं० १८३१ को किसी आर्या ने महातीर्थ पावापुरी में श्री जिनराजसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई थी ।
६. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि
आपका जन्म मेवाड़ प्रान्तीय पुरमण्डल गाँव में खाबियागोत्रीय साह दुलीचंद की धर्मपत्नी लाजमदेवी की कुक्षि से हुआ था । आपका जन्म नाम प्रेमराज तथा दीक्षा नाम प्रेमचन्द था । सं० १८४३ मार्गशीर्ष सुदि २ के दिन आप दीक्षित हुए। सं० १८४५ आश्विन शुक्ला १३ को श्री गुरुदेव ने स्वयं आपको सूरिमंत्र दिया था । सं० १८४५ माघ सुदि १ को जयपुर तथा दिल्ली निवासी श्रीमाल सांघीयाणगोत्रीय श्री नथमल जी एवं जूनीवालगोत्रीय श्रीचन्द्र आदि संघ नेताओं ने महामहोत्सव किया । तदनन्तर पाठक वादीन्द्र सवाईविजय, वाचनाचार्य जयकुमार आदि मुनियों सहित भरतपुर पधारे। वहाँ सीरिया ग्राम के श्रद्धालु श्रावकों ने बड़े हर्ष तथा समारोह से स्वागतोत्सव किया । वहाँ से प्रस्थान करके आगरा होकर पूर्व देश में विचरण करते हुए लखनऊ पधारे। नाहटागोत्रीय राजा वच्छराज जी, चण्डालियागोत्रीय वसन्तराय श्रीमाल, भांडियागोत्रीय हकीम देवीदास और टांकगोत्रीय भूपतिराय आदि संघ सहित सज्जनों ने बड़े धूम-धाम से आपका वहाँ नगर प्रवेशोत्सव कराया । तदनन्तर आपने अयोध्या, काशी, चन्द्रावती, पटना, चम्पापुर, बिहार, मकसूदाबाद, सम्मेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, मिथिला, दुतारा पार्श्वनाथ, क्षत्रियकुण्ड, काकन्दी आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की।
कृष्णगढ़ में संघ द्वारा निर्मापित श्रीजिनकुशलसूरि जी के स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। वहाँ अपने पक्ष के विद्वानों से किसी विषय पर शास्त्रार्थ हो गया और उसमें आपकी विजय हुई। तत्कालीन कृष्णगढ़ नरेश ने आपका बड़ा सम्मान किया। वहाँ से आप संखवालेचागोत्रीय महमीया रूढमल, अनूपचन्द, मूलचन्द आदि की प्रार्थना और आग्रह से अजमेर पधारे। वहाँ किसी दिन रात्रि को घोर वृष्टि होने के कारण सारी जनता त्रस्त हो उठी, तालाबों के पाल टूट जाने की संभावना उपस्थित हो गई। तब आपने दयार्द्र होकर, जनता को सान्त्वना देते हुए, इष्ट देव का स्मरण करके तत्काल उस उपद्रव को शान्त कर दिया, जिससे जनता का संकट दूर हुआ । तदनन्तर लूणियागोत्रीय त्रिलोकचन्द और गिडियागोत्रीय राजाराम के संघ के साथ शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा की। फिर क्रमशः कृष्णगढ़, सरवाड़, रूपनगर, पचेवड़ा होकर जयपुर पधारे और सं० १८६९ फाल्गुन शुक्ला तृतीया भृगुवार को समस्त संघ कारित श्री महावीर स्वामी आदि ७२ गुरुदेवों के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। फिर पाठक मतिकुमार आदि मुनियों के साथ कन्नौज, वसीह आदि नगरों में विचरण करते हुए दादरी नगर गए। वहाँ पर लघुज्ञातीय श्रीमाल चरनाडालिया ( चंडालिया) गोत्रीय जीतसिंह, फतहसिंह आदि ने बड़े समारोह पूर्वक आपका स्वागत महोत्सव किया । तदनन्तर दिल्ली पधारे उस समय लाहौर निवासी
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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