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________________ जाता है। इन दोनों वाक्यों में एक जगह अवर्ण का लोप हुआ है और दूसरी जगह नहीं हुआ है, इस रहस्य को व्याकरण-शास्त्र के जानकार अच्छी तरह से समझ सकेंगे। पुनः पूज्यश्री ने हँसकर कहा-क्या आप हमारे नियोग से इतने बड़े परिवार के साथ यहाँ ठहरे हुए है? तिलकप्रभाचार्य ने कहा-यहाँ हम आपके नियोग से नहीं ठहरे हैं, फिर भी आपने नियोग सूचक पद का प्रयोग किया है। इसलिए आपका "अत्रैव" शब्द अपशब्द है। उत्तर में पूज्यश्री ने कहा-प्रयोगों के अर्थ को बिना जाने ही अपशब्द कहना उचित नहीं है। तिलकप्रभ-आपके कथन मात्र से ही मेरे में अज्ञानता का आरोप नहीं हो सकता। पूज्यश्री बोले-यह बात यों ही है। तिलकप्रभाचार्य ने कहा-तो फिर आप बतलाइये, आपका यह “एव" शब्द किस अर्थ में है। पूज्यश्री बोले-वैसे तो "एव" शब्द के अनेक अर्थ हैं, परन्तु पहले हम इसको एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ बतलाते हैं। आप जरा सावधान होकर सुनिये-"वचनमेव वचनमात्रम्" इत्यादि प्रयोग में स्वार्थ में ही "एव" शब्द प्रयुक्त है। इसी प्रकार हमारे वाक्य में भी समझिये। अब दूसरा अर्थ सुनिये। जहाँ-तहाँ संभावना अर्थ में "अपि" शब्द का प्रयोग किया हुआ देखा जाता है, वैसे ही यह "एव" शब्द भी संभावना अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐसे प्रयोग विद्वानों द्वारा किये हुए बहुधा देखे जाते हैं। जैसे कि हरिभद्रसूरि के वाक्यों में "वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम्" अर्थात् भगवन् आपका शरीर ही वीतरागता का परिचय दे रहा है। और भी यत्र तत्रैव गत्वाहं भरिष्ये स्वोदरं बुधाः। मां विना यूयमत्रैव भविष्यथ तृणोपमाः॥ [हे पण्डितों! मैं जहाँ कहीं जाकर अपना पेट भर लूँगा, परन्तु आप लोग मेरे बिना तृण तुल्य बन जाओगे।] ___ इसी प्रकार यह एवकार योग्य ही है, इस एवकार में आप किसी प्रकार अर्थ सम्बन्धी आपत्ति खड़ी नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त प्रश्न करते समय प्रश्नकर्ता सावधारण वाक्य बोले या निरवधारण वाक्य बोले, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। उसके वचन में कोई ऊहापोह नहीं किया जाता, यह लौकिक मर्यादा है। कारण प्रश्नकर्ता अनजान है इसीलिए पूछता है। हाँ, वही मनुष्य परिचय प्राप्त करने के बाद यदि अन्य समय में सावधारण (निश्चयात्मक) वचन बोले, तो उसके वचन में शक्ति भर दोष दर्शाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से समालोचक की बड़ी शोभा होगी। परन्तु शिष्ट जनों की इस रीति को भूल कर आपने अपनी पण्डिताई का उत्कर्ष दिखाने के लिए ही प्रयत्न किया है। इस बात को हम भली-भाँति समझ गये। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (९७) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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