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संशय में पड़े हुए शिष्य के प्रति यानि उसके सन्देह को मिटाने के लिये तथा जो वस्तु अपने निज के स्वरूप से या अन्य के स्वरूप से कही न जा सके अर्थात् जिसके साथ किसी दूसरी चीज का स्थिर सम्बन्ध न बताया जा सके, ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जैसे कि आकाश का फूल, वैसे ही सुख दुःखादि कोई वस्तु नहीं है । अब विचारना यह है कि सुख दुःखादि के साथ आत्मा का सम्बन्ध है या नहीं? इस सम्बन्ध में एकान्त निश्चय देना कठिन है । क्योंकि आत्मा के साथ सुख-दुःखादि का भेद या अभेद सिद्ध करने के लिए हेतु नहीं मिलता। यदि अभेद कहा जाय तो आत्मा द्वारा होने वाली सुख-दुःखदायिनी क्रियाओं में विरोध आता है, क्योंकि नित्य सुख - दुःखादि के साथ अभिन्न रूप आत्मा में क्रिया का होना असंभव है । यदि सुख-दुःख आदि के साथ आत्मा का भेद मानें तो भी ठीक नहीं घटता, क्योंकि क्रम से होने वाले बीजाकुंरादि भिन्न पदार्थों की तरह सुख - दुःखादि के साथ आत्मा का समवाय सम्बन्ध (नित्य सम्बन्ध), जैसा कि अन्य लोग मानते हैं वैसा है। जैसा कि अन्य लोग मानते हैं वैसा है नहीं, इत्यादि प्रकार की युक्तियों से आत्मा है ही नहीं ऐसी विपरीत श्रद्धा वाले शिष्य के प्रति आत्मा सम्बन्धी निश्चय कराने के लिये गुरु को निश्चयात्मक वाक्य बोलना पड़ता है, जैसे कि - " अस्ति एव आत्मा" अर्थात् आत्मा अवश्य है । क्योंकि प्रत्येक प्राणी में जो चैतन्य और ज्ञान देखा जाता है, यह आत्मा के बिना हो नहीं सकता। किसी स्थान पर प्रयोग किया हुआ वह अवधारण रूप “एव" शब्द चाहे एकादि पदार्थ का निराकरण करता है, किन्तु हमारे द्वारा प्रयुक्त यह " एव" शब्द अयोग- अन्य योग- अत्यन्तायोग तीनों का ही निराकरण (व्यवच्छेद) निम्नोक्त प्रकार से करता है ।
“साम्प्रतं यूयमत्रैव स्थाष्णवः " अर्थात् अब आप यहाँ ही ठहरेंगे। हमारे इस वाक्य में कहे गए सप्तम्यन्त एतत् शब्द से निष्पन्न " अत्र" पद से मास कल्पादि योग्य इतर क्षेत्रों से इस क्षेत्र का कुछ व्यवच्छेद होता है या नहीं? यदि नहीं होता है तब तो इस पद का प्रयोग ही व्यर्थ है और यदि होता है तो " अत्र " पद विशेषण हो गया और प्रकरणवश नगर विशेष्य होता है । विशेषण के आगे कहा हुआ " एव" शब्द वर्तमान काल की अपेक्षा से इस नगर के साथ आपका अयोग सुतरां सिद्ध हो जाता है। और यह सिद्ध होने पर इस नगर के अयोग का व्यवच्छेद " एव" कार करता है और वर्तमान काल की अपेक्षा से ही अन्य नगरादि के योग का भी स्वयं " एव" कार ही व्यवच्छेदित करता है, इसी प्रकार अत्यन्तायोग भी समझ लीजिये । इसी अभिप्राय से हमने उक्त वाक्य में "साम्प्रतम्" पद का प्रयोग किया है। इन युक्तियों से हमारे कथित वाक्य में " एव" कार का प्रयोग सर्वथा युक्ति युक्त है।
हाँ, एक बात और है, कामचार - यथेच्छा विचरने वाले गुरु आदि के विषय में यदि एव शब्द का प्रयोग कहीं किया जाय तो व्याकरण के नियम के अनुसार पूर्व अवर्ण का लोप होता है। जैसे" हे गुरु! इहैव तिष्ठ, अन्यत्रैव वा तिष्ठ" अर्थात् हे गुरुजी ! यहाँ ठहरो या अन्यत्र ठहरो, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करो। गुरु आदि के सिवा अन्य लोगों के प्रति, "इहैव तिष्ठ, मा यासी: क्वापि " अर्थात् यहाँ ही ठहरो, अन्य जगह कहीं भी मत जाओ। ऐसा आज्ञा द्योतक वाक्य कहा
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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