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तीर्थों की यात्रा से पुण्य-निधान का संचय करने वाले सेठ वीरदेव ने दीक्षा, मालारोपण आदि निमित्त नन्दि महोत्सव करवाया। इसमें भीमपल्ली, पाटण, पालनपुर, बीजापुर, आशापल्ली आदि नाना स्थलों के लोग बहुत बड़ी संख्या में आए थे। विविध प्रकार के बाजे बज रहे थे, स्थान-स्थान पर ताल्हा रास दिए जा रहे थे, सधवा स्त्रियों के नृत्य हो रहे थे, संघ पूजा व साधर्मिक वात्सल्य किए जा रहे थे, याचकादिकों को अनगिनती द्रव्य दान दिया जा रहा था, अवारित सत्र (भोजनालय) खोला गया था
और तीन दिन तक अमारि घोषणा की गई थी। इसी प्रकार हिन्दू राज्यकाल की भाँति बड़े ठाठ से यह उत्सव तमाम सज्जन लोगों हृदय में चमत्कार और विपक्षियों के हृदय में शल्य पैदा करने वाला हुआ। इस महामहोत्सव से जिनशासन की महती प्रभावना हुई। इस महोत्सव में अपने प्रशस्य चरित्र से पूर्वाचार्यों का स्मरण कराने वाले, सर्व लब्धियों से श्रेष्ठ आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने चार क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा प्रदान की। जिनमें क्षुल्लको के नाम विनयप्रभ, मतिप्रभ, हरिप्रभ, सोमप्रभ एवं क्षुल्लिकाओं के नाम कमलश्री व ललितश्री स्थिर किए गए थे। अनेकों साध्वियों व श्राविकाओं ने माला ग्रहण की। अनेकों श्रावक-श्राविकाओं ने सम्यक्त्व तथा सामायिक व्रत धारण किए, कईयों ने परिग्रह परिमाण किया। उसी वर्ष पूज्यश्री जिनकुशलसूरि जी महाराज श्रावक वृन्द के प्रबल अनुरोध से साँचौर गए और वहाँ पर धूमधाम से नगर में प्रवेश कर के तीर्थराज श्री महावीर देव को नमस्कार किया। वहाँ पर एक मास तक ठहर कर श्रावकों को धर्मोपदेश दिया। लाटह्रद नामक गाँव के श्रावकों के अनुरोध से महाराज वहाँ गए। वहाँ पर देवाधिदेव श्री महावीर को नमस्कार करते हुए पन्द्रह दिन ठहरे। वहाँ के श्रावकों को सन्तुष्ट करके बाहड़मेर गए। वहाँ पर श्री ऋषभदेव भगवान् के दर्शन वन्दन से कृत कृत्य होकर श्रावकों के अनुरोध से चातुर्मास वहीं किया।
१०४. बाहड़मेर में सं० १३८३ की पौषी पूर्णिमा के दिन जिनशासन प्रभावना, स्वधर्मीवात्सल्य आदि नाना प्रकार के धर्म कार्यों में उद्यत सेठ प्रतापसिंह आदि बाहड़मेर स्थित श्रावक समुदाय की अभ्यर्थना से महाराज ने अमारि घोषणा पूर्वक बड़ी दीक्षा, मालारोपण, सम्यक्त्वारोपण, सामायिकारोपण, परिग्रह परिमाण आदि का नन्दि महोत्सव किया। इसमें जैसलमेर, लाटह्रद, साँचौर, पालनपुर आदि नाना स्थानों के रहने वाले सभी अच्छे-अच्छे श्रावक आए थे। आगन्तुक लोगों का स्वागत-सम्मान खूब किया गया था। नृत्य-गान और अन्न-दान आदि शुभ कार्य अधिक मात्रा में किए गए थे।
१०५. उसी वर्ष जालौर वास्तव्य श्रावक महानुभावों के विशेष आग्रह से समस्त अतिशयों के निधान, समग्र सूरि समुदाय में प्रधान, श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने बाहड़मेर से जालौर की ओर विहार किया। मार्ग में लवणखेड़ा और शम्यानयन नामक दो गाँव आए। इन दोनों ग्रामों में कुछ दिन
१. ये ही विनयप्रभ मुनि आगे जाकर प्रौढ विद्वान विनयप्रभोपाध्याय बने है, जिनकी अनेक रचनाएँ प्राप्त है और
महाप्रभावशाली गौतमस्वामी का रास आज सर्वत्र प्रसिद्ध है। २. ये आगे चलकर श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर सं० १४१५ में श्री जिनोदयसूरि नाम से गच्छनायक हुए। विशेष
परिचय आगे देखना चाहिए।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास ___JainEducation International 2010_04
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